मंगलवार, 14 जुलाई 2020

संस्मरण


सुमति अय्यर
२४ मई,१९९१ की तपती दोपहर. साढ़े बारह बजे का समय. कर्मचारी भविष्य निधि कार्यालय कानपुर की पहली मंजिल का एक कमरा.  मिलने का कार्यक्रम पहले से ही तय था. कमरे का दरवाज खुला हुआ था. याद नहीं कि कूलर था या नहीं.  वह मेज पर झुकी काम में व्यस्त थीं.  वह सुमति अय्यर थीं, हिन्दी की प्रख्यात लेखिका और कवयित्री. सांवली,बड़ी आंखें, सुडौल देह-यष्टि, काले बाल, गोल चेहरा---तमिल बाला की संपूर्ण विशेषताएं उनमें मौजूद थीं. मेरे पहुंचते ही सुमति ने काम रोक दिया. मेरा अनुमान था कि वह हिन्दी अधिकारी थीं वहां लेकिन उन्होंने बताया कि उन दिनों उनके पास भविष्य निधि धारकों को जाने वाले चेक हस्ताक्षर करने का काम था. साहित्य, साहित्यिक राजनीति, समाज और देश की स्थितियों पर हम बातें करते रहे. 


सुमति से मेरा परिचय शायद उनकी किसी कहानी पर मेरी प्रतिक्रिया के बाद प्रारंभ हुआ जो १९९० में किसी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और उन्हें मैंने पत्र लिखा था. उनका एक कहानी संग्रह अनिल पालीवाल ने अपने प्रकाशन ’सचिन प्रकाशन’ से प्रकाशित किया था. उसे लेकर सुमति को कुछ समस्याएं थीं. उस दिन की चर्चा में सचिन प्रकाशन का उल्लेख भी हुआ. उससे पहले मेरे १ अप्रैल,९१ के पत्र के उत्तर में उनका ६ अप्रैल का पत्र मुझे मिला था. स्पष्ट है कि अपने पत्र में मैंने उनके संग्रह के बारे में बात की होगी या अनिल पालीवाल के साथ अपने संबन्धों के विषय में लिखा होगा. याद नहीं और न ही उसकी प्रति मेरे पास है.

 अनिल पालीवाल से मेरा परिचय १९८७ में हुआ था. उन दिनों दरियागंज जाने पर मैं सचिन प्रकाशन में देर तक जाकर बैठा करता था. अनिल उन दिनों ’हिन्दी कहानी कोश’ के बाद ’लघुकथा कोश’ प्रकाशित कर चुके थे.मुझे बाल कहानी कोश तैयार करने के लिए कहा और मैंने काम भी किया.  यद्यपि मैं तब तक बाल साहित्य लिखना लगभग बंद कर चुका था, लेकिन अनेकों बाल-साहित्यकारों से अच्छा परिचय तब भी था. मैंने १९८८ तक २०० बाल कहानीकारों की कहानियां और ५०० बाल कहानीकारों के परिचय एकत्र किए. दो भागों में बाल कहानियों की फाइलें अनिल को सौंप दी, लेकिन परिचय की फाइल मेरे पास ही रही थी. अनिल ने उन दिनों मुझे पांच हजार रुपए का चेक दिया था. लेकिन इस सबके बावजूद बाल कहानी कोश नहीं प्रकाशित हुआ. उसका कारण अन्य प्रकाशकों की भांति उनका रामकुमार भ्रमर के चक्कर में पड़ जाना रहा था शायद. उत्तर प्रदेश सरकार में पुस्तक खरीद योजना में भ्रमर की कुछ भूमिका थी और परिणाम स्वरूप कितने ही प्रकाशकों का पैसा डूबा था.  अनिल ने यह बात मुझे कभी बतायी नहीं, लेकिन कुछ मित्रो ने बताया था. भ्रमर के कारण मेरे एक अन्य प्रकाशक श्री कृष्ण (पराग प्रकाशन बाद में अभिरुचि प्रकाशन) कर्जदार हो चुके थे. बाद में जिस दयनीय स्थिति में श्रीकृष्ण की मृत्यु हुई हिन्दी साहित्य में शायद वैसा किसी अन्य प्रकाशक के साथ नहीं हुआ. बह्रहाल,सचिन प्रकाशन से सुमति अय्यर का एक कहानी संग्रह रमेश बक्षी के माध्यम से प्रकाशित हुआ था. विवाद उस संग्रह को लेकर था. इस बात को लेकर ही सुमति अय्यर ने ६ अप्रैल,९१ और १ अगस्त,९१ को मुझे पत्र लिखे थे. ६ अप्रैल के पत्र से बातों को समझा जा सकता है—

 
११२/२३९,स्वरूपनगर,कानपुर 

६.४.१९९१

प्रिय चन्देल जी,

आपका दिनांक १.४. का पत्र. आभारी हूं कि आपने तुरंत मुझे उत्तर दिया. यह आत्मीयता निश्चित रूप से सुखद है.
प्रतियां नहीं मिल पाईं. यही उनके साथ भी हुआ. पिताजी ने उन्हें फोन किया तो बताया कि शनिवार को यानी ३०.३.९१ को १२ बजे के बाद अंसारी रोड से प्रतियां ले लें सो भरी धूप में वे वहां गए भी. पता चला वहां तो केवल नौकर है, मालिक नहीं. प्रतियां नहीं हैं. न उनके (अनिल) के शाम तक आने की संभावना है. पिताजी ने घर का पता/फोन नं. और स्टेशन में गाड़ी का नं. तक छोड़ दिया कि वे रविवार की रात को लौटने वाले थे. भेजवाना होता तो रविवार को पहुंचाया जा सकता था घर के पते पर.

दुख हुआ मुझे. दरअसल यह बातचीत रमेश जी के माध्यम से हुई थी. इसलिए अब उन्हें भी दोष क्या दूं. पर प्रतियां कम से कम २५ तो मुझे भेजवा ही दें. रॉयल्टी के लिए भी उन्होंने कुछ नहीं कहा. चूंकि एक बार आपने बताया था कि आपके घर के आसपास कहीं उनका आवास भी है, इसलिए यह कष्ट दे रही हूं. 

मेरे पास प्रतियां नहीं हैं. समीक्षा के लिए उन्होंने कहा था कि वे करवा देंगे. कह भी  नहीं पायी. अब प्रतियां मुझे चाहिए. मैं स्वयं एकाध जगह करवा लूंगी. पर उसका भी पता नहीं.

यूं मेरे भी आने की संभावना है. निश्चित रूप में तो नहीं कह सकती. पर अगर आपको आपत्ति न हो, तो आप लेकर रख लें, जब सुविधा हो. या फिर मैं किसी को भेजने का प्रयास करूंगी.

भाई दीप जी का वहां जाना होता है. अगर संभव हुआ तो उनसे कहूंगी.  वे हो आएंगे.

इस बीच आपका उनसे संपर्क हो तो प्रतियों के लिए कहिएगा.

’हारा हुआ आदमी’ की समीक्षा कर दूंगी. संभव है डेढ़ माह का वक्त लगे. इधर बीमारी के बाद, दफ्तर में बहुत काम हो गया है. यहां घर पर परीक्षाएं बेटे की.

जून में व्यवस्थित हो जाऊंगी. इसलिए निश्चिंत रहें अनिल जी को मैं अलग से लिखूंगी.

आपका नया संग्रह आया है, इसके लिए बधाई. उपन्यास लिख रहे हैं, यह बहुत ही सुखद समाचार है. मैं तो सोचती ही रह जाती हूं.

इस वर्ष कुछ काम करना चाहूंगी, इस पर.

शेष शुभ. घर पर सबको यथायोग्य कहें.

सस्नेह,

सुमति अय्यर

पुनश्च : अनिल से बात हो जाए तो आप सूचित करेंगे.---सु.अ.

२४ मई को मेरे बैठे रहने के दौरान डेढ़ बजे के लगभग कानपुर की साहित्यकार प्रतिमा श्रीवास्तव आ गयीं. तभी ज्ञात हुआ कि प्रतिमा जी उसी कार्यालय में कार्यरत थीं. वह सुमति के साथ लंच लेती थीं और उसी उद्देश्य से आयी थीं. प्रतिमा श्रीवास्तव के आने के पश्चात मैं वहां से निकल गया था. 

जुलाई में किसी तारीख को सुमति अय्यर के पिताजी मेरे घर आए. वह शनिवार का दिन था. तब तक मैं सचिन प्रकाशन से सुमति के संग्रह की प्रतियां नहीं ले पाया था. वास्तविकता यह थी कि जब भी मैंने अनिल पालीवाल से संग्रह देने की बात की वह कह देते कि वह सीधे सुमति को भेज रहे हैं. मैंने अनिल के पिता जी डॉ. नारायण दत्त पालीवाल जी से बात करने का वायदा किया, जो हिन्दी अकादमी के सचिव थे. यद्यपि डॉ. पालीवाल से मेरा अच्छा परिचय था और वह  मुझे बहुत मान देते थे. मैं उन दिनों लगातार जनसत्ता और दैनिक हिन्दुस्तान में लिख रहा था और एक दिन फोन करने पर उन्होंने मेरी सक्रियता की प्रशंसा की थी. सच यह है कि फोन करने और लंबी बात करने के बाद भी मैं डॉ. पालीवाल से सुमति के संग्रह की बात नहीं कर पाया था जबकि फोन उसी उद्देश्य से किया था. लेकिन किसी प्रसंग में बातचीत में डॉ. पालीवाल ने कहा था कि वह अनिल के प्रकाशन के मामले में हस्तक्षेप नहीं करते. शायद इस बात ने मुझे सुमति अय्यर के संग्रह की चर्चा करने से हतोत्साहित किया था. सुमित का दूसरा पत्र यहां दे रहा हूं जिसमें उन्होंने डॉ. पालीवाल से चर्चा करने की बात लिखी है.:

१ अगस्त,१९९१

प्रिय चन्देल जी,

पिताजी के माध्यम से भेजी गयी पुस्तकें! बहुत बहुत आभारी हूं. ’आदखोर’ की समीक्षाएं पढ़ चुकी हूं, इसलिए उत्सुकता लगातार बनी रही थी. पढ़ूंगी, तब लिखूंगी. ’प्रकारान्तर’ के लिए भी आभार. पुस्तक का संपादकीय लेख महत्वपूर्ण है. खुशी इस बात की है कि इसमें उन लेखकों को भी शामिल किया है, जो लघुकथाकार नहीं हैं पर इस विधा में उनका भी योगदान रहा है. 

पिताजी ने आपके परिवार एवं आपकी आत्मीयता का जिक्र मुग्ध भाव में किया. अभिभूत हैं वे. शायद यह यहां की माटी की वह ऊर्जा है, जो आदमी के भीतर लगातार रहती है भले ही वह बेदिल शहर में ही क्यों न रहे. गंगा का यह तट, शायद इसीलिए इतना महत्वपूर्ण है.

वे दिल्ली फिर पहुंच रहे हैं, इसी ७ या ८ अगस्त को. संभवतः १९ अगस्त तक वहां रुकेंगे पीतम पुरा में.
इस बीच जैसाकि आपने कहा, आप श्री नारायण दत्त पालीवाल जी से संपर्क करने का प्रयास करें. उन्हें सारी स्थितियां समझाएं. दरअसल बक्षी जी ने जिक्र किया था और चूंकि पुस्तक को जल्दी ही छपना था इसलिए जल्दी में मैटर तैयार किया गया और भेजा गया. जल्दी के कारण अनुबन्ध पत्र की औपचारिकता भी बाद में निभा लेने को कहा गया. पर उन्होंने १५ प्रतियां दीं. फिर कुछ नहीं. पिछले वर्ष मई में ये प्रतियां मिली थीं. मैंने समीक्षा के लिए लिखा तो बोले चाहे तो आप करवा लें या मैं. मैंने लिखा था कि कुछ प्रतियां मुझे ही दे दी जाएं एकाध जगह समीक्षा मैं करवा दूंगी. बाकी दिल्ली की आप देख लें. उसके बाद बीसयों बार आने जाने वालों के माध्यम से पत्र भेजे, लिखे भी पर न तो उत्तर ही मिला न किताबें हीं. पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान में पुरस्कार योजना के लिए भी जमा करने को लिखा था—पर कुछ नहीं.

कृपया श्री पालीवाल जी से उक्त तमाम स्थितियां स्पष्ट करें. मैं दरअसल shrewd नहीं हो पाती न हूं, इसलिए यह सब. एक महिला लेखिका के मान तो कम से कम होना चाहिए. अभी अनिल ने सरयू शर्मा की पुस्तक छापी है क्या term रहे हैं पता नहीं. रमेश को भी लिख रही हूं, अलग से. हालांकि वे खुद खफा हैं अनिल से. पता नहीं—उनके संबन्ध अब किस स्तर पर हैं. फिर भी प्रयास करूंगी कि उनके माध्यम से रॉयल्टी की व्यवस्था करूं.

पर—किताबें और रॉयल्टी दिलवाने में डॉ. पालीवाल कितने सहयोगी होंगे इसका अंदाज आप लगा सकेंगे. मेरे ही एक सहयोगी हैं, दिल्ली स्थित कार्यालय के रिसर्च अधिकारी श्री जे.डी. तिवारी (कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, श्रीराम सेंटर). पालीवाल जी से परिचित हैं. शायद एक ही स्थान के हैं. उनको लिखना मैं अभी भी नहीं चाहती. साहित्यकार मित्र के रहते. 

आप इस बीच कुछ कर पाएगें, ऎसा मैं विश्वास करती हूं. हालांकि बहुत कष्ट दे रही हूं, पर  शायद यह छूट इसलिए ले रही हूं कि आपका मेरा एक ही मिट्टी का, एक ही नदी का ही नहीं बल्कि हम समधर्मी भी हैं. घर में सबको यथायोग्य.

आपकी

सुमति अय्यर

अपने अगले पत्र में मैंने सुमति अय्यर को क्या लिखा याद नहीं, लेकिन शायद वह मेरे प्रयासों की सीमा समझकर निराश हो चुकी थीं. उसके बाद हमारा संपर्क नहीं रहा. दो साल बीत गए. अचानक ६ नवंबर,१९९३  को समाचार पत्रों से जानकारी मिली कि किसी व्यक्ति ने उनके स्वरूपनगर के किराए के घर में उनकी हत्या कर दी थी. सुमति के पति बैंके में कार्यरत थे और उन दिनों वह मद्रास (अब चेन्नई) में थे. उनके दस वर्ष का बेटा था, लेकिन उस समय वह घर में नहीं था. 

उन दिनों कानपुर के पुलिस महा अधीक्षक श्री के.एन.राव थे. मामले की जांच का काम एक अधिकारी वाई के त्रिपाठी को सौंपा गया. पुलिस के अनुसार हत्यारा सुमति अय्यर का परिचत था, क्योंकि मेज पर दो चाय पिए दो  कप रखे पाए गए थे. स्पष्ट है कि चाय सुमति ने ही बनायी होगी. लेकिन पुलिस खाली हाथ रही थी. यह बात चौंकाती है कि एक ओर पुलिस यह मान रही थी कि हत्यारा लेखिका का परिचित था और दूसरी ओर हत्यारा पुलिस की गिरफ्त से बाहर रहा. 

डॉ. सुमति अय्यर न केवल एक महत्वपूर्ण कथाकार और कवयित्री थीं वह एक अच्छी अनुवादक भी थीं. उन्होंने तमिल से कई पुस्तकों के अनुवाद किए थे. उनके चार कहानी संग्रह –’घटनाचक्र’, ’शेष संवाद’ ’’असमाप्त कथा ’और ’विरल राग’,एक नाटक ’अपने अपने कटघरे’ तथा दो कविता संग्रह ’मैं तुम और जंगल’ और ’भोर के हाशिए पर’ प्रकाशित हुए थे. अपने मौलिक लेखन के साथ उन्होंने  तमिल लेखकों इंदिरा पर्थसारथी, पद्मय्यापीथम, और राजम कृष्णन की पुस्तकों के अनुवाद भी किए थे. एक प्रतिभाशाली साहित्यकार का इस प्रकार असमय चला जाना हिन्दी साहित्य की अपूरणीय क्षति है.
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