tag:blogger.com,1999:blog-6672229774459200184.post4979813532292702393..comments2023-06-25T08:21:30.443-07:00Comments on रचना समय: समीक्षारूपसिंह चन्देलhttp://www.blogger.com/profile/01812169387124195725noreply@blogger.comBlogger8125tag:blogger.com,1999:blog-6672229774459200184.post-52767204800805619282009-11-14T09:12:06.047-08:002009-11-14T09:12:06.047-08:00आपने इमानदारी से लिखा है।
पत्रिका पहले देखी है कई ...आपने इमानदारी से लिखा है।<br />पत्रिका पहले देखी है कई बार पर ख़ास प्रभाव नहीं पडा। अब इस अंक को पढना चाहूंगाAshok Kumar pandeyhttps://www.blogger.com/profile/12221654927695297650noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6672229774459200184.post-26518647013230588952009-11-10T23:03:19.937-08:002009-11-10T23:03:19.937-08:00'सम्बोधन' वर्तमान हिंदी साहित्य में अपना...'सम्बोधन' वर्तमान हिंदी साहित्य में अपना स्थान रखती है. विशेषकर इसके विशेषांक. आपकी समीक्षा से सहमत हूं.प्रदीप जिलवानेhttps://www.blogger.com/profile/08193021432011337278noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6672229774459200184.post-2308582356519795722009-10-27T18:00:50.112-07:002009-10-27T18:00:50.112-07:00priya mitra, aapki patrika ka 21 oct. ka ank dekha...priya mitra, aapki patrika ka 21 oct. ka ank dekha. mujhe apki likhi samiksha mein aisi koi baat nazar nahi aai jis se tathakathit sampadak mahoday aapse dubara samiksha maang bethe. beharhal lekhak ka apna swabhiman bhi koi cheez hai. mera man na hai ki aise atmastuti karne wale sahitakaron se kisi bhi imandar sahityakar ko bachna hi chahiye aur wo sahas aapne dikhaya hai. nisha ji ki kavitaen pehli bar hi padhi hain lekin har kavita apna sampurn prabhav chhodti hai. nisha ji ko sadhu wad.<br /><br />Sudhir Kumar Rao<br />IndoreAnonymousnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6672229774459200184.post-82132323332046278562009-10-26T09:02:06.214-07:002009-10-26T09:02:06.214-07:00मैं इन दिनों बंगलौर में हूँ और 'संबोधन' मे...मैं इन दिनों बंगलौर में हूँ और 'संबोधन' मेरे दिल्ली के पते पर आता है। इसलिए समीक्ष्य अंक को देखने से वंचित हूँ, लेकिन आपकी लिखी समीक्षा पढ़कर मुझे उसमें किसी तरह का कोई पूर्वग्रह नजर नहीं आया। मेरी समझ में यह नहीं आया कि इसे नकारा किस आधार पर गया। बहरहाल, आपने इसे लिखकर उनका मान रखा था और उनके द्वारा न छापे जाने की स्थिति में अब इस समीक्षा का मान रखा है। ऐसे संपादकों को भविष्य में कोई भी रचना न भेजने का मन बना लेना चाहिए।बलराम अग्रवालhttps://www.blogger.com/profile/04819113049257907444noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6672229774459200184.post-70823911134284729792009-10-23T10:32:57.244-07:002009-10-23T10:32:57.244-07:00भाई चंदेल जी,आप ने बहुत अच्छा किया किइस समीक्षा क...भाई चंदेल जी,आप ने बहुत अच्छा किया किइस समीक्षा को यहाँ दे दिया कम से कम यह तो साफ हो गया कि आप ने लेखन में ईमानदारी जिन्दा रखी और और अपनी आत्मा से छल नहीं किया .पता नहीं मरी हुई आत्मा के लोग भी रचनाकार कैसे बने रहते हैं.अपनी बात को कह सकने के सामर्थ्य को बधाई. 09818032913सुरेश यादवhttps://www.blogger.com/profile/16080483473983405812noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6672229774459200184.post-53859521830880305182009-10-22T10:35:05.185-07:002009-10-22T10:35:05.185-07:00JHOTEE PRASHANSA KE PEECHE BHAGNE
WALA VAHEE KARTA...JHOTEE PRASHANSA KE PEECHE BHAGNE<br />WALA VAHEE KARTA HAI JO RAJARAM<br />YAA KAMAR MEWADEE NE KIYA AUR <br />SWABHIMAANEE SAMEEKSHAK VAHEE KARTA<br />HAI JO AAPNE KIYA.AAPKEE KHUDDAREE<br />KO NAMAN.PRAN SHARMAnoreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6672229774459200184.post-26891332927243458102009-10-22T08:47:09.011-07:002009-10-22T08:47:09.011-07:00भाई चन्देल, मैंने "सम्बोधन" का यह अंक नह...भाई चन्देल, मैंने "सम्बोधन" का यह अंक नहीं देखा इसलिए तुमने कितनी सही बात लिखी, कितनी नही, पर बात नहीं करूंगा। पर तुम्हारी इस समीक्षा से यह बात तो समझ में आती है कि तुमने वही लिखा जो तुम्हें अंक पढ़ कर लगा। तुमने न तो कमर मेवाड़ी के नाम को देखा, न संकलित लेखकों के नाम को, जैसा रचनाओं ने तुम पर प्रभाव डाला,तुमने उसी अनुरूप अपनी बात कहने की कोशिश की। पर समीक्षा तुम्हारी भादू जी ने इसलिए नहीं छापी कि तुमने उनकी अपेक्षाओं को पूरा नहीं किया। उनकी अपेक्षाएं क्या थीं, यह तो पता नहीं लेकिन ऐसा होता है। कोई कोई सम्पादक इतना तो अधिकार रखता ही है कि वह रचना को छापे या नहीं। हां, समीक्षा पुन: लिखने वाली बात तो स्वीकार्य नहीं की जानी चाहिए और तुमने की भी नहीं। मुझे इस प्रसंग में अपना एक वाकया याद आ गया। (स्व0) सुनील कौशिश कानपुर से कोई पत्रिका निकालते थे(इस समय नाम स्मरण नहीं आ रहा है)। उन्होंने मुझे कथाकार विजय के कहानी संग्रह पर अपनी पत्रिका के लिए समीक्षा लिख भेजने को कहा। विजय मेरे मित्र रहे हैं और उन दिनों मेरी कुछ घनिष्टता इसलिए भी थी कि वह मेरे घर के पास ही रहते थे और उनसे मिलना मिलाना और फोन पर अक्सर बात होती रहती थी। मैने जो समीक्षा लिखकर कौशिश जी को भेजी वह उन्होंने मुझे लौटती डाक से लौटा दी और मुझे सुझाव दिया कि पहले आप मेरी पत्रिका का स्तर और स्वरूप देख लें फिर अपनी समीक्षा लिखें। मैने उन्हें लिखा कि संग्रह की कहानियां पढ़कर जो अनुभव किया, मैने वही लिखा है। अगर आप समीक्षक से अंगुली पकड़कर लिखवाना चाहते हैं तो किसी और से लिखवा ले, आपको बहुत मिल जाएंगे और आपके अनुरूप लिखकर और आपकी पत्रिका में छपकर वे गौरवान्वित भी महसूस करेंगे।<br />तो भाई, ऐसा तो प्राय: होता रहता है इस साहित्य की दुनिया में। तुमने अपने ब्लाग के माध्यम से इस बात को दूसरों से शेयर करके हमे सब लिखने वाले के लिए फिर एक मुददा उछाल दिया है। देखे, क्या प्रतिक्रिया होती है।सुभाष नीरवhttps://www.blogger.com/profile/03126575478140833321noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-6672229774459200184.post-7269700105192365682009-10-22T07:11:45.252-07:002009-10-22T07:11:45.252-07:00संबोधन का यह अंक मैंने देखा है, और आपसे प्रायः सहम...संबोधन का यह अंक मैंने देखा है, और आपसे प्रायः सहमत हूं। समीक्षकों से केवल प्रशसा की अपेक्षा समकालीन साहित्य के पतन की कहानी कहता है!योगेंद्र कृष्णा Yogendra Krishnahttps://www.blogger.com/profile/17366269677319716325noreply@blogger.com