बुधवार, 28 मई 2008

पुस्तक चर्चा

बहुआयामी रचनाकार वीरेन्द्र कुमार गुप्त


२९ अगस्त १९२८ को सहारनपुर (उ०प्र०) में जन्मे वीरेन्द्र कुमार गुप्त उन वरिष्ठ रचनाकारों में हैं जो साहित्य की उठा-पटक से दूर १९५० से निरन्तर लेख रहे हैं. वीरेन्द्र जी की पहली रचना ’सुभद्रा-परिणय’(नाटक) १९५२ में प्रकाशित हुई थी. अब तक सात उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें तीन ऎतिहासिक उपन्यास हैं. दो प्रबंध काव्य-- ’प्राण-द्वंद्व’ और ’राधा कुरुक्षेत्र में’ के अतिरिक्त कुछ स्फुट कविताएं. अनेक चिन्तनपरक लेख.
१९६४ में वीरेन्द्र जी ने बहुत परिश्रम पूर्वक विश्व के महान व्यक्तियों के कुछ प्रेम पत्रों को संकलित किया जो ’प्रसिद्ध व्यक्तियों के प्रेम-पत्र’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुए थे . हाल में यह पुस्तक ’किताबघर प्रकाशन’, २४, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली -११०००२ से पुनः प्रकाशित हुई है. इसी प्रकाशन संस्थान से वीरेन्द्र जी महत्वपूर्ण ऎतिहासिक उपन्यास - ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ कुछ दिन पूर्व प्रकाशित हुआ, जिसकी चर्चा आगे की जायेगी.
ीरेन्द्र जी ने अंग्रेजी में भी प्रभूत मात्रा में लेखन कार्य किया है. अंग्रेजी में उनकी विवादित पुस्तक है : ’Ahimsa in India's Destiny' और दूसरी पुस्तक है -’The Inner self'.
वीरेन्द्र कुमार गुप्त का एक स्वरूप अनुवादक का भी है. उन्होंने लगभग १२ पुस्तकों के अनुवाद किये थे और ये सभी अनुवाद सठवें दशक में किए गए थे. जैक लडंन के नोबल पुरस्कार प्राप्त उपन्यास Call of the Wild' का अनुवाद ’जंगल की पुकार’ नाम से उन्होंने किया. यह एक अद्भुत अनुवाद है . अब तक हिन्दी में इस पुस्तक का यही अनुवाद उपलब्ध था, लेकिन जैसा कि इन दिनों हिन्दी के कुछ अवसरवादी प्रकाशक कर रहे हैं, एक सूचना के अनुसार वीरेन्द्र जी के इस अनुवाद को एक प्रकाशक ने किसी छद्म नाम से प्रकाशित कर दिया है.
वीरेन्द्र जी का एक और अभूतपूर्व कार्य है, जिसके विषय में नई पीढ़ी की क्या कहा जाये, मेरी या मुझसे पहली पीढ़ी के लेखकों तक को नहीं मालूम -- पाठकों की बात ही क्या !

विश्व का सबसे बड़ा साक्षात्कार

जैनेन्द्र जी के नाम से प्रकाशित पुस्तक -’समय और हम’ का श्रेय वीरेन्द्र कुमार गुप्त को है. दरअसल यह एक ही साक्षात्कार की वृहदाकार (लगभग ७०० पृष्ठों की) पुस्तक है, जिसमें वीरेन्द्र कुमार गुप्त के प्रश्नों के उत्तर जैनेन्द्र जी ने दिए हैं. मुझसे एक बार बातचीत के दौरान मेरे एक प्रश्न के उत्तर में वीरेन्द्र जी ने बताया था कि इस कार्य १९६३-६४ के दौरान प्रश्नावली लेकर प्रतिदिन साइकिल से वह जैनेन्द्र जी के निवास दरियागंज जाते थे . उनके प्रश्नों के उत्तर जैनेन्द्र जी उन्हें डिक्टेट करवाते थे. वहां से वह अपने विद्यालय चले जाते थे (वह दिल्ली सरकार में अध्यापक थे और प्रधानाचार्य के रूप में सेवा निवृत हुए थे). रात उत्तरों को लिखकर अगले दिन के प्रश्न तैयार करते थे. इसप्रकार निरन्तर एक वर्ष के अथक परिश्रम का परिणाम था ’समय और हम" जिसे जैनेन्द्र जी ने अपने नाम से प्रकाशित करवाया था. जबकि वीरेन्द्र जी के नाम से ही प्रकाशित होनी चाहिए थी. इस पर जैनेन्द्र जी और वीरेन्द्र जी के मध्य मामूली विवाद भी हुआ था, लेकिन संकोची और सरल स्वभाव वीरेन्द्र कुमार गुप्त ने उस विवाद को आगे बढ़ाने के बजाय चुप रहना अधिक बेहतर समझा था. संभव है जैनेन्द्र जी के प्रति उनके आदर भाव ने उन्हें रोका हो. बात जो भी हो, इस सचाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि वीरेन्द्र कुमार गुप्त के अथक श्रम के कारण विश्व का सबसे लंबा साक्षात्कार तैयार हुआ, जिसकी विशेषता यह है कि यह जीवन दर्शन पर आधारित आद्यन्त एक व्यक्ति का एक व्यक्ति द्वारा किया एक साक्षात्कार है, जिसे ’लिम्का बुक ऑफ वर्ल्ड रिकार्ड’ में अभी तक शामिल न किया जाना अपने में आश्चर्यान्वित करता है.
संपर्क : द्वारा - डॉ० प्रवीण कुमार गुप्त
३१/१, नीति नगर,
रुणकी विश्वविद्यालय, रुणकी (उत्तर प्रदेश)
फोन : ०१३३२-२७५५२८ / २८५५१९
मोबाइल: ०९४१०१६४६२५
प्रस्तुत है वीरेन्द्र जी के महत्वपूर्ण ऎतिहासिक उपन्यास ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ की समीक्षा:

चाणक्य की प्रासंगिकता

* रूपसिंह चन्देल

विष्णुगुप्त चाणक्य - वीरेन्द्र कुमार गुप्त
किताबघर प्रकाशन, २४ अंसारी रोड,
दरियागंज, नई दिल्ली-११० ००२
पृष्ठ - ३६४, मूल्य - ३५०/-


कवि, कथाकार और चिंतक वीरेन्द्र कुमार गुप्त का छठवां उपन्यास है ’विष्णुगुप्त चाणक्य’. यह आश्चर्यजनक है कि लगभग पचास वर्षों से सृजनरत वीरेन्द्र जी को अपेक्षित चर्चा नहीं मिली. इसे हिन्दी साहित्य का दुर्भाग्य ही कहा जायेगा. संपादक लोग अपने चाटुकारों की पुस्तकों की तीन-तीन समीक्षाएं अपनी पत्रिका के एक ही अंक देकर चर्चा करवाने के सद्प्रयास करते हैं , जहां कम और कमतर लिखने वाले रचनाकार ’गुट’ और ’वादों’ से जुड़कर चर्चा हासिल कर लेते हैं, लेकिन केवल रचनाकर्म को ईमानदारी से स्वीकार करने वाला एकाकी कर्मरत रचनाकार आंधकार में खोया रहता है . आवश्यकता है कि नयी पीढ़ी ऎसे रचनाकारों का मूल्यांकन -पुनर्मूल्याकंन करे. अन्यथा सदैव अच्छी कृतियां अचर्चा के गर्भ में खोयी रहेंगीं और पाठक उस उच्छिष्ठ को ही श्रेष्ठ मानता रहेगा, जो उन्हें कुछ साहित्यिक मठाधीशों द्वारा श्रेष्ठ बताया जाता रहेगा. भ्रष्ट राजनीति की भांति साहित्य में व्याप्त अव्यवस्था, भाई-भतीजावाद, मित्रता-प्रेमिकावाद को बेनकाब करने का दायित्व आज की पीढ़ी पर है, अन्यथा भविष्य में भी कितने ही युवा वीरेन्द्र कुमार गुप्त की भांति अच्छा लिखकर भी चर्चा से बाहर रहेगें और कितनी ही ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ जैसी कृतियां सरकारी खरीद का अंग बनकर गोदामों में सड़्ती रहेंगी.

समीक्ष्य कृति के माध्यम से उपर्युक्त कथन मेरा दुस्साहस माना जा सकता है, किन्तु यह आवश्यक इसलिए लगा क्योंकि जिस लेखकीय दृष्टि का परिचय ’चाणक्य’ में हमें प्राप्त होता है वह अब तक चाणक्य संबंधी उपलब्ध कथा-साहित्य से अधिक मौलिक और तथ्यात्मक है. वर्तमान संक्रातिक परिस्थितियों को समझने और अतीत से प्रेरणा लेने की नवीन दृष्टि का समावेश कृति को महत्वपूर्ण बनाता है और ऎसी रचना पाठकों की दृष्टि से ओझल न हो, इसलिए उपर्युक्त कथन आवश्यक लगा.
’विष्णुगुप्त चाणक्य’ में लेखक की कुछ मौलिक स्थापनाएं हैं, जिनके लिए उसके पास शोधात्मक तर्क हैं. उसने चाणक्य को पाटलिपुत्र निवासी नहीं स्वीकार किया, प्रत्युत उसे तक्षशिला वासी माना है. चाणक्य अपने एक शिष्य कमंद को अपना परिचय देते हुए बताता है कि वह तक्षशिला के गोल्ल जनपद के छोटे-से ग्राम चण का निवासी है और उसके पिता का नाम शिवगुप्त था, जो तक्षशिला में अध्यापक थे और चाणक्य कहलाते थे.
इस बात के प्रमाण में लेखक भूमिका में बौद्धग्रंथों -महाबंशों और वशंत्थप्पाकासिनी में आए उल्लेखों की चर्चा करता है. लेखक का यह तर्क विवादास्पद हो सकता है कि चाणक्य तक्षशिला का ही था क्योंकि बौद्धग्रंथ भी गोल्ल जनपद की वास्स्तविक अवस्थिति के विषय में मौन हैं (भूमिका) . लेखक का यह अनुमान ही है कि गोल्ल जनपद देश के पश्चिमोत्तर अर्थात तक्षशिला में ही अवस्थित था.
चाणक्य चाहे पाटलिपुत्र का निवासी रहा हो या तक्षशिला का लेकिन यह निर्विवाद सत्य है कि वह एक दुर्द्धर्ष कूटनीतिज्ञ , राजनीतिज्ञ और अर्थशास्त्री था. उसने एक स्वप्न देखा था संपूर्ण भारत में एक शासक के एक- छत्र राज्य का, जिससे यवन भारत भूमि को आक्रांत न कर सकें और वह जीवन पर्यन्त अपने उस स्वप्न को साकार करने में व्यस्त रहा. लेखक ने जिस सहजता से कथा का ताना-बाना बुना है, जिस प्रकार मूल कथा के साथ उप-कथाऎं अनुस्यूत हैं----- वे कथा को न केवल गति प्रदान करती हैं, प्रत्युत विश्वसनीय प्रतीत होती हैं. पाटलिपुत्र नरेश नंद के साम्राज्य की दुर्व्यवस्था-विलासिता (सामंतो की) कर्मचारियों-सैनिकों की निरंकुशता, धन-भोग लिप्सा, अराजकता , शोषित जनता की व्यथा को लेखक ने जिस यथार्थता के साथ चित्रित किया है, वह आज घटित प्रतीत होता है ------सब कुछ आंखों के समक्ष घटित होता हुआ.
मल्लिका जैसी युवतियों का अपहरण कर उन्हें राजविलास की वस्तु बना देना, रजविलास से मुक्ति के बाद महामात्य राक्षस द्वारा अपनी काम-लिप्सा की तृप्ति के साधन-स्वरूप बंदी बनाए रखना और अंत में नगरवधू के रूप में प्रतिष्ठित कर देना लेखक की कल्पना होते हुए भी वास्तविकता का एहसास करवाती है. मल्लिका अंत तक ’चाणक्य’ उपन्यास में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करती दिखती है और चाणक्य द्वारा पुत्री रूप में स्वीकार किया जाना वर्तमान समाज के लिए ऎसा संदेश है कि विवशतः ऎसी स्थिति में पहुंची युवतियों को समाज के महापुरुषों द्वारा स्वीकार किया जाना चाहिए और उन्हें नवीन जीवन के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए.
आज तक यह प्रश्न भारतीय मानस को मथता रहा है कि चन्द्रगुप्त कौन था? लेखक ने प्रथमतः भूमिका में और बाद में कथा के माध्यम से स्पष्ट किया है कि चन्द्रगुप्त की मां का नाम मुरा था जिससे वह मौर्य कहलवाया . बौद्धग्रंथ महावंशों के अनुसार मोरिय खत्तियों (मौर्य क्षत्रियों) का एक गण पिपालिवन प्रदॆश में अवस्थित था और चन्द्रगुप्त इस गण के राजा का पुत्र था. लेखक के अनुसार यह स्थान पटना से ५८ मील पूर्व में था, जहां आज भी ’मोर’ नाम का स्टेशन है. लेखक का तर्क है कि नंद ने इस मोरिय नगर को ध्वस्त किया होगा और युद्ध में चन्द्रगुप्त के पिता की या तो मृत्यु हुई होगी या वह बंदी बनाया गया होगा.
चन्द्रगुप्त के पिता की मृत्यु हुई या वह बंदी बना हो, महत्वपूर्ण यह नहीं है. महत्वपूर्ण यह है कि यदि चन्द्रगुप्त चाणक्य को न मिला होता तो क्या अलेक्ष्येन्द्र या उसके परवर्ती सेल्यूकस से संपूर्ण भारत को पद दलित होने से रोका जा सकता था और यही महत्वपूर्ण इस उपन्यास के कथानक के मूल में है. ऎसा नहीं है कि हिन्दी पाठकों के लिए चाणक्य या चन्द्रगुप्त के जीवन पर आधारित कथा ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ के माध्यम से पहली बार पढ़ने को मिल रही है लेकिन कुछ अकाट्य तथ्य पहली बार लेखक ने इसमें अवश्य प्रस्तुत किए हैं. यथा अलेक्षेन्द्र के समक्ष पुरु ने संधि प्रस्ताव नहीं भेजा था बल्कि अलेक्ष्येन्द्र ने पुरु के पास अपना दूत भेजा था क्योंकि उसे लगने लगा था कि यदि पुरु के साथ वह संधि नहीं करेगा तो उसका भारत-विजय का स्वप्न अधूरा रहेगा और संभवतः उसको पर्याप्त सैनिक शक्ति और सामान की क्षति भी उठानी पड़ेगी. दूसरा चाणक्य मात्र मूक निर्देशक ही न रहा था और न वह दूरस्थ युद्ध संचालक , बल्कि वह स्वयं लगभग सभी प्रारंभिक युद्धों में चन्द्रगुप्त के साथ था जिससे निकट से शत्रु की स्थिति पर दृष्टि रख सके और चन्द्रगुप्त को उचित निर्देश दे सके. तीसरी महत्वपूर्ण और विचारणीय बात यह कि पुरु के साथ अलेक्ष्येन्द्र के युद्ध के समय चन्द्रगुप्त स्वयं एक छोटी सेना का नेतृत्व संभालता हुआ पुरु की ओर से अलेक्ष्येन्द्र पर आकस्मिक आक्रमण करता है. चाणक्य पुरु के अनुरोध पर इस युद्ध के लिए चन्द्रगुप्त को सन्नद्ध नहीं करता, बल्कि स्वेच्छया उसमें सम्मिलित होता है. क्योंकि देश पर आसन्न संकट को केवल चाणक्य ही समझता है, दूसरे राज्य चाहे वह केकय हों, तक्षशिला, वाहीक, मालव या शक्तिशाली मगध, ---- नहीं समझते. वे अपने अहम के वशीभूत होते हैं और अपने पड़ोसी का पराभव देखना चाहते हैं. वे यह नहीं समझते कि निकटस्थ राज्य की पराजय उनके लिए जय कभी नहीं बन सकती, किन्तु आपसी वैमनस्य के चलते ही मूर्ख आम्भीक अलेक्ष्येन्द्र के साथ मिल जाता है और पुरु के विरुद्ध उसकी सहायता करता है.
चाणक्य के सभी प्रयास व्यर्थ जाते हैं और इन प्रयासों को ऎतिहासिक तथ्यों के आधार पर ही लेखक ने चित्रित किया है. निसंदेह उसने कल्पना को पर्याप्त स्थान दिय है और अनेक ऎसे पात्रों को स्थान दिया है जो महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए इस प्रकार कथा का अंग बन जाते हैं जिनके विषय में पाठक शंकालु नहीं हो पाता .इसे लेखकीय सफलता का अद्भुत कौशल कहा जाएगा और इस कौशल का चमत्कार उपन्यास को जीवंत बनाता है. कंकु, मल्लिका, सिंह, हेमा , रुचिशील, उसकी पत्नी आदि कितने ही ऎसे पात्र हैं जिनका ऎतिहासिक अस्तित्व कभी नहीं था, किन्तु वे इस उपन्यास के माध्यम से वास्तविक हो उठे हैं.
चाणक्य को आज तक पाठकों के समक्ष शुष्क, रुक्ष और कठोर रूप में ही सदैव प्रस्तुत किया जाता रहा है जिसके समक्ष अनुशासन ही सर्वस्व था और जो अपने प्रति भी निर्मम रहा था. किन्तु वीरेन्द्र कुमार गुप्त ने चाणक्य को एक ऎसे रूप को पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया है जो कठोर तो है लेकिन साथ ही सह्रदय भी है और प्रणयाकांक्षी भी. वह मल्लिका जैसी शोषिता को पुत्री स्वीकार करता है तो हेमा जैसी यवन सुन्दरी के प्रति युवावस्था में आकर्षित हो सुधबुध खो बैठता है. हेमा द्वारा एक सामंत के साथ विवाह करने और बाद में शशिगुप्त की प्रेमिका और उसके ठुकराए जाने पर पुनः चाणक्य के पास आने पर वह उसे उसी भांति स्वीकार करता जैसा उसने उसे युवावस्था में किया था. वह हेमा को अलेक्ष्येन्द्र के विरुद्ध गुप्तचर के रूप में सहयोगिणी बनाता है और तक्षशिला में हेमा चाणक्य के राजनैतिक उद्देश्यों कि पूर्ति के लिए वारवनिता तक बनना स्वीकार करती है. अंततः यह जानते हुए भी कि हेमा अनेक पुरुषों की अंकशायिनी बनी है चाणक्य उसके साथ गंधर्व विवाह करता है. अंत में वह उसे वृहद्दहट्ट भेज देता है जहां वह चाणक्य के पुत्र को जन्म देती है.
यद्यपि हेमा एक काल्पनिक पात्र है और उसका प्रादुर्भाव एक विवाद का विषय हो सकता है, किन्तु लेखक इस बात की पुष्टि करता हि कि एक जैन ग्रंथ में इस बात का उल्लेख मिलता है कि चन्द्रगुप्त के पुत्र बिंदुसार का महामात्य चाणक्य का पुत्र राधागुप्त था और उसी से प्रेरित होकर लेखक हेमा की कल्पना करता है. लेखक के अनुसार भले ही हेमा चाणक्य के जिवन में न रही हो ,किन्तु कोई स्त्री तो रही ही होगी, जिससे रधागुप्त का जन्म हुआ होगा.
उपन्यास में संवादों में एक विमुग्धकारी विशिष्टता है. सारगर्भित अकाट्य और तर्कपूर्ण कथोपकथन कथा को गतिशीलता प्रदान करते हैं. ’भाभी’ ’हेमाजी’, ’धंधा’ जैसे कुछ खटकने वाले शब्दों के अतिरिक्त भाषा प्राजंल - बोधगम्य और शैली आकर्षक है. पाठक को आद्यन्त बांध रकहने की क्षमता उपन्यास की सबसे बड़ी सफलता है. आज के परिप्रेक्ष्य में समीक्ष्य उपन्यास महत्वपूर्ण संदेश है. तब यदि एक यवन आक्रमण का खतरा ब्न्हारत के समक्ष था तो आज अनेक प्रत्यक्ष - अप्रत्यक्श आक्रमणों का खतरा इस देश पर मंडरा रहा है. एक ओर पड़ोसी देश द्वारा प्रश्रित आतंकवादी गतिविधियां हैं तो दूसरी ओर अन्य बाहरी खतरे. आंतरिक स्थितियों की तुलना भी तत्कालीन स्थितियों से भिन्न नहीं है. आज भी आम्भीक पुरु, नंद दूसरे रूप में हैं और उनके अधिकारियों-सामंतों की भांति देश के नयमन और संचालन के जिम्मेदार लोग आज वैसे ही इसकी जड़ों को कमजोर कर अपना हित साधन कर रहे हैं जैसे तब हो रहा था. समय की मांग है कि आज के संदर्भ में चाणक्य की भूमिका को समझा जाए तभी यह देश और इसकी संस्कृति अक्षुण्ण रह सकती है. अन्यथा आक्रांता यवन हों या कोई और देश को नष्ट करना ही उनका परम उद्देश्य है और उसी की रक्षा का संदेश है ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ जिसके लिए लेखक, और प्रकाशक साधुवाद के पात्र हैं.
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गुरुवार, 8 मई 2008

यात्रा संस्मरण

क्रान्ति दिवस (१० मई) पर विशेष
यात्रा संस्मरण

यह यात्रा संस्मरण 'पहल' पत्रिका एक अंक-58 में प्रकाशित हुआ था, लेकिन क्रान्ति दिवस (१० मई ) के अवसर पर 'रचना समय' के पाठकों के लिए पुनः प्रकाशित करने के मोह को नहीं रोक पा रहा हूं. यह संस्मरण अभी तक मेरी किसी पुस्तक में प्रकाशित नहीं हुआ है.

बिठूर : क्रान्ति के बाद
रूप सिंह चन्देल

जून का महीना और कानपुर की गर्मी… लग रहा था, जैसे शरीर झुलस जाएगा. आसमान में लपटें-सी तरंगित हो रही थीं. हम लोग प्रचंड दोपहर में निकले. कार्यक्रम था उस पवित्र भूमि को देखने जाने का, जिसे पुराणों में उत्पलावर्ण, ब्रह्मावर्त, बर्हिस्मतीपुरी तथा उत्पलावर्त कानन कहा गया है और जो आज बिठूर के नाम से जाना जाता है.
बिठूर कानपुर से लगभग पचीस किलोमीटर पश्चिमोत्तर में अवस्थित है. प्राचीनता की दृष्टि से इसकाजमऊ (जेजाक-भुक्ति) के बाद आता है. जाजमऊ कानपुर के पूर्व में (अब तो शहर के अन्दर ही) स्थित है, जिसके विषय में कहा जाता है कि यह महाराजा ययाति की राजधानी था. आज भी वहां ययाति का किला अपने गर्भ में अनेकों रहस्य छुपाये धरती पर पसरा हुआ है. वैसे तो कानपुर के आसपास अनेक ऎसे स्थान हैं जो पौराणिक-ऎतिहासिक दृष्टि से महत्वपूर्ण हैं. इनमें से अनेक की प्रामाणिकता सुनिश्चित होना शेष है. यही नहीं कानपुर के इतिहास के विषय में भी अनेक किंवदन्तियां प्रचलित हैं. कुछ लोगों के अनुसार वहां श्रीकृष्ण का कर्णवेध संस्कार हुआ था, अतः इसीलिये उसका नाम 'कान्हपुर' पडा़. कुछ लोगों के अनुसार यह कर्ण की निवास-भूमि थी, इसलिये इसका नाम 'कर्णपुर' था. लेकिन इन किंवदन्तियों पर सहज विश्वास नहीं होता.
मुंशी दरगाही लाल के मतानुसार (जो सन १८५७ की क्रान्तिकाल के इतिहासकार थे) कन्हैया अष्टमी के दिन गंगा स्नान के लिये आये संचेडी के राजा हिन्दू सिंह को इस स्थान की रमणीकता अत्यधिक पसंद आयी थी. अतः उन्होंने रमईपुर के चैहानवंशीय राजा घनश्याम सिंह को वहां एक गांव बसाने की आज्ञा दी थी. इस प्रकार कान्हपुर की नींव पड़ी थी, जिसे आज पुराना कानपुर कहा जाता है. लेकिन 'तारीखे शेरशाही' से इस बात का खण्डन होता है.
'तारीखे शेरशाही' में पहली बार कान्हपुर का उल्लेख आया है. सन १९१७ में प्रयाग हाईकोर्ट में एक मुकदमा दायर किया गया था. इस मुकदमे में मोतीलाल नेहरू तथा कैलाशनाथ काटजू वकील थे. मुकदमे में 'कान्हपुर' के जिस इतिहास का वर्णन किया है उसके अनुसार मुकदमा दायर होने से सात सौ वर्ष पहले एक बार 'प्रयाग' के राजा 'कान्हदेव' प्रयाग से कन्नौज जाते समय गंगा स्नान करने के लिये यहां कुछ दिन ठहरे थे. इस स्थान के प्राकृतिक सौंदर्य ने उन्हें मुग्ध कर दिया था. उन्होंने उस स्थान को एक ब्राह्मण को गांव बसाने के लिये दान कर दिया था. इस प्रकार राजा कान्हदेव के नाम से उस ब्राह्मण ने जो गांव बसाया, वह कान्हपुर था, जो बाद में पुराना कानपुर (नवाबगंज क्षेत्र) कहलाया.
कानपुर की नींव तेरहवीं शताब्दी में पड़ी या उसके बाद, इस बात से अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि बिठूर सैकड़ों वर्षों से श्रद्धालुओं के लिये तीर्थस्थल बना हुआ था. बिठूर के विषय में कहा जाता है कि ब्रह्मा ने वहीं पर सृष्टि रचना की थी और सृष्टि रचना के पश्चात अश्वमेध यज्ञ किया था. उस यज्ञ के स्मारक स्वरूप उन्होंने घोड़े की एक नाल वहां स्थापित की थी, जो ब्रह्मावर्त घाट के ऊपर अभी तक विद्यमान है. उसे ब्रह्मनाल या ब्रह्मा की खूंटी कहते हैं. आज भी लोग उसकी पूजा करते हैं. (हालांकि वह नाल मुझे कहीं नहीं दिखी).
इस स्थान का नाम ब्रह्मावार्त कब पड़ा, इसके स्पष्ट प्रमाण प्राप्त नहीं होते. मनुस्मृति के अध्याय दो, श्लोक सत्रह के अनुसार सरस्वती तथा दृषद्वती (आज की घाघरा नदी) के बीच का भाग ब्रह्मावर्त होना चाहिये. अंतराल में बिठूर क्षेत्र को ही ब्रह्मावर्त कहा जाने लगा, जो बाद में बिठूर बन गया
कल्याणपुर पहुंचकर (जहां आई.आई.टी है) , ड्राइवर ने एक पान वाले से बिठूर का रास्ता पूछा. हमें दो रास्ते बताये गये थे. एक कल्याणपुर थाने के पास से मुड़ता है और दूसरा मन्धना से. मन्धना से मुड़ते ही मेरा मन दूर-दूर तक फैले खेतों में भटक गया. दूर बायीं ओर कांसों का जंगल दिखाई पड़ा. सोचने लगा, कभी वहीं नाना साहब और उनकी मुंह बोली बहन छबीली घोड़े दौड़ाते रहे होंगे और कभी यहीं बाल्मीकि ने तपस्या की होगी. महर्षि के मुख से सर्वप्रथम यहीं विश्व की पहली कविता फूटी होगी. राम द्वारा निर्वासित सीता ने बिठूर के बाल्मीकि आश्रम में अपने दिन गुजारें होंगे और यहीं लव-कुश का जन्म हुआ होगा. बिठूर के पास एक गांव है 'रमेल' , जिसके विषय में कहा जाता है कि यह 'रणमेल' का बिगड़ा रूप है. इसी स्थान पर लव-कुश और राम की सेना के मध्य युद्ध हुआ था और बाद में पिता-पुत्र में मेल. पहले युद्ध फिर मेल… अतः इस गांव का नाम पड़ा रणमेल. जो अब रमेल के रूप में जाना जाता है.
लगभग छह किलोमीटर रास्ता तय कर पहले हम बाल्मीकि आश्रम पहुंचे, जिसके विषय में कहा जाता है कि निर्वासन काल में सीता वहीं रहती थीं. उसके ठीक सामने एक कुण्ड है, जिसके विषय में कहते हैं कि जीवन के अंतिम दिनों में सीता के आव्हान पर वहीं पर पृथ्वी फटी थी और वह उसमें समा गयी थीं. सीता कुटी से सटकर पश्चिम की ओर है वह कुटी, जिसमें बाल्मीकि रहा करते थे. लेकिन इन कुटियों या आश्रम की अन्य वस्तुओं में प्राचीनता ढूंढना कठिन है.
बाल्मीकि आश्रम के पूर्व की ओर बाजीराव पेशवा द्वारा निर्मित 'स्वर्ग-सीढ़ी' नामक स्तंभ है. इस स्तंभ के चारों ओर हजारों छोटे-छोटे आले बने हैं, जिनमें पेशवा के समय दीपावली के दिन हजारों दीप जगमगा उठा करते थे और हजारों की संख्या में लोग उन दीपों की जगमगाहट देखने के लिये इकट्ठा हो जाया करते थे. स्तंभ की 48 सीढ़ियां चढ़कर ऊपर जाने पर 'रणमेल'(रमेल) गांव, बिठूर का मृतप्राय वैभव और कानपुर नगर स्पष्ट दिखाई देते हैं.
कुछ इतिहासकार बाल्मीकि आश्रम को बिठूर में न मानकर इलाहाबाद के पास मानते हैं और शंकरदयाल सिंह ने उसे बिहार में बताया था. लेकिन अब तक प्राप्त प्रमाणों के अनुसार उसका बिठूर में होना ही सिद्ध होता है. वैसे आश्रम कहीं भी क्यों न रहा हो, लेकिन बिठूर के प्रति भक्तों की श्रद्धा में कोई फर्क नहीं पड़ता. आज भी अनेक अवसरों पर बाल्मीकि आश्रम में हजारों की संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ एकत्रित होती है. 'स्वर्ग-सीढ़ी स्तंभ' के ठीक सामने दक्षिण की ओर एक पेड़ है, जिसके विषय में बताया गया कि वह 2600 वर्ष पुराना है. उसकी शाखाओं-प्रशाखाओं से कुछ दूरी पर तीन और पेड़ों ने जन्म लिया , लेकिन इन पेड़ों के आपसी सम्बन्ध को पुरातत्व विभाग वालों ने नष्ट कर बीच में एक छोटा सा पार्क बना दिया. एक सज्जन ने बताया कि वे तो उस प्राचीन पेड़ को ही काट रहे थे, किन्तु अनेक प्रभावशाली लोगों से कहलवाने पर उनका यह कुचक्र रुका था. मैं सोचने लगा, काश ! पुरातत्व विभाग उन तीनों पेड़ों को उनके पिता से अलग कर मध्य में कृत्रिम क्यारियां न बनाता तो वहां के वास्तविक प्राकृतिक सौंदर्य से हम वंचित न हुये होते.
यहां से दो किलोमीटार दूर गंगा तट पर एक छोटी पहाड़ी है, जिसे ध्रुवटीला के नाम से जाना जाता है. यहां छोटा-सा ध्रुव मन्दिर है, जिसमें एक मजदूर परिवार रह रहा है. मन्दिर के पीछे का परकोटा टूटा हुआ है, जहां से दूर तक फैला कांसों का जंगल दिखाई देता है. मन्दिर के अंदर घुप अंधेरा था. उसके छोटे से द्वार से हमें ध्रुव की मूर्ति दिखाई गई. हम मजदूर पुजारी से मन्दिर की प्राचीनता के विषय में जानना चाहते हैं. वह केवल इतना ही बता पाता है कि देश में वही एक मात्र ध्रुव मन्दिर है. लेकिन ध्रुव कौन थे… वह यह नहीं जानता. कहते हैं उसी क्षेत्र में ध्रुव के पिता उत्तानपाद की राजधानी थी और पिता द्वारा निकाले जाने के बाद तपस्या करके लौटने पर ध्रुव ने वहीं रहकर शासन किया था. कुछ वर्ष पूर्व बिठूर के पास ताम्रयुग के भालों के फलकों एवं वाणों की प्राप्ति से इस स्थान की प्राचीनता का अनुमान लगाया जा सकता है. यदि ध्रुव- टीला क्षेत्र की खुदाई की जाये तो संभावना है कि इस स्थान के विषय में कुछ अधिक जानकारी प्राप्त हो सके.
मुगलकाल में जहांगीर ने कन्नौज का क्षेत्र बैरम खां के पुत्र अब्दुर्रहीम खानखाना को दे दिया था. अतः कुछ दिनों के लिये बिठूर हिन्दी के महाकवि रहीम के शासन में रहा. अपने शासनकाल में यदि रहीम यहां आये हों तो इस संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता. सन 1658 में औरंगजेब खजुहा (फतेहपुर) में शुजा से युद्ध करने के लिये बिठूर के निकट से होकर गुजरा था… इस बात के प्रमाण मिलते हैं.
लेकिन बिठूर सदैव एक तीर्थ के रूप में ही जाना जाता रहा है. बुन्देलखण्ड के प्रसिद्ध मराठी शासक गोविन्द पंत बुन्देले ने गंगा तट पर एक प्रसिद्ध घाट बनवाकर इसकी महिमा इतनी अधिक बढ़ा दी थी कि यह काशी, मथुरा, अयोध्या, प्रयाग आदि तीर्थों की श्रेणी में परिगणित होने लगा.
अवध के शासनकाल में बिठूर सूबा इलाहाबाद में एक चकला(जिला) था और अल्मासअली खां उसका आमिल था. अल्मासअली ने अपनी बुआ के लड़के भागमल को पंजाब से बुलाकर रमेल की जागीर दी थी. राजा भागमल ने बिठूर में एक हवेली बनवाई थी और कई बाग लगवाये थे. अतः एक बार पुनः यह प्राचीन तीर्थ-भूमि चहल-पहल का केन्द्र बनने लगी थी.
लेकिन बिठूर का खोया वैभव वास्तव में वापस लौटा था वहां बाजीराव पेशवा के आगमन के साथ. सन 1818 में तृतीय मराठा युद्ध में हार जाने के बाद अंग्रेजों से पेंशन लेकर बाजीराव ने बिठूर में रहने का निर्णय किया था, क्योंकि अंग्रेजों ने उन्हें रहने के लिये केवल उत्तर भारत के किसी स्थान का चुनाव करने की ही अनुमति दी थी. निर्वासित पेशवा के साथ आये थे उनके पन्द्रह हजार संगी-साथी. पेशवा के आगमन से वहां के इतिहास में जो नवीन अध्याय प्रारंभ हुआ, उसने उसे सम्पूर्ण विश्व में महत्वपूर्ण बना दिया. बाजीराव अंग्रेजों से पराभूत होकर बिठूर में आकर रहने तो लगे थे, लेकिन शायद अपनी राज्यभूमि को पुनः हस्तगत करने की चाह उनके अन्दर धधकती रही थी. भले ही उन्होंने कभी इसे प्रकट न होने दिया हो. सन 1822 में लार्ड हेंस्टिग्सं ने पेशवा के विषय में लिखा था, "यद्यपि बाजीराव पेशवा का आचरण सन्तोषप्रद है, फिर भी उसने अपने प्राचीन स्थान को पुनः प्राप्त करने की आशा को सर्वथा त्यागा भी नहीं है."
पेशवा ने अपने दत्तक पुत्र नाना साहब, तात्या टोपे तथा अत्यन्त प्रिय मनु (छबीली) को जो संस्कार दिये थे, उसके पीछे निश्चित ही उनकी दूर दृष्टि रही होगी. उनके दिल के अंदर अवश्य यह भावना छुपी रही होगी कि जो कार्य वे स्वयं नहीं कर पाये वह उनके द्वारा तैयार यह पीढ़ी कर दिखाये. इसीलिये उन्होंने छबीली (लक्ष्मीबाई) को सदैव अस्त्र-शस्त्र चलाने तथा घुड़सवारी के लिये प्रोत्साहित किया. उन्होंने इन तीनों वीरों को संरक्षण-सुविधा ही नहीं प्रदान की, प्रत्युत सही मार्ग दर्शन भी दिया और उसी का परिणाम थी सन 1857 की क्रान्ति. अतः यह कहना अनुचित न होगा कि इस क्रान्ति की आधारशिला पेशवा की पराजय के समय ही रखी जा चुकी थी. भले ही वह बाजीराव द्वारा सम्पन्न न होकर उनके दत्तक पुत्र नाना साहब तथा उनके सहयोगियों द्वारा सम्पन्न हुई.
बिठूर आने पर पेशवा ने वहां एक भव्य महल (बाडा़) का निर्माण करवाया, जिसमें वह अपने परिवार के साथ रहते थे. इस विशाल - विस्तृत भवन के कुछ हिस्सों में उनके कुछ दरबारी रहते थे, जिनमें वाराणसी से उनकी सेवा में आये मोरोपंत ताम्बे भी थे. इन्हीं की पुत्री थी मनु, जो बाद में झांसी की रानी बनी.
बाजीराव पेशवा ने ग्यारह विवाह किये थे, उनमें से 1810 में उनकी एक रानी वाराणसी बाई से एक पुत्र उत्पन्न हुआ था, जो 1811 में मर गया था. उनकी दूसरी रानी बेणुबाई उर्फ कुसाबाई के भी एक पुत्र उत्पन्न हुआ था जो केवल 19 दिन जीवित रहा था. गंगाबाई नामक रानी से उन्हें ताई साहबा और बया साहबा नामक दो पुत्रियां थीं, जो पेशवा के मरने के बाद भी जीवित रहीं थीं.
पुत्रहीन होने के कारण पेशवा ने पूना के निकटवर्ती कर्जत तालुका के वेणु गांव के निवासी माधवराव भट्ट के तीन वर्षीय पुत्र धोण्डुपन्त , जो बाद में नानासाहब के नाम से विख्यात हुये, को 1827 में गोद लिया. 1838 में उन्होनें अपनी वसीयत नाना साहब के नाम लिख दी थी.
जब हम नाना साहब का विशाल भवन देखने पहुंचे तो आघातित हुए बिना नहीं रह सके. हमें अग्रेंजों की बेमिसाल क्रूरता का उदाहरण देखने को मिला. उस विशाल भवन के नाम पर उसकी एक पूर्वी दीवार का छोटा-सा टुकडा़ मात्र ही दिखाई पडा़, जिसके चारों ओर दरख्त, कुछ कांस तथा झाड़ियां उगी हुई थीं. यदि शीघ्र ही उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न की गई तो पेशवा के महल की वह अंतिम निशानी भी नष्ट हो जायेगी और तब हम अपनी भावी पीढ़ी को कभी भी यह न बता पायेगें कि यही वह स्थान है, जहां वीरों ने एक ऎसी योजना बनाई थी जिससे विलायत का सिंहासन डोल उठा था. आश्चर्यजनक रूप से पेशवा के महल के भूभाग में युकलिप्टस के पेड़ और झाड़ियों का जंगल उगा हुआ है, जिसे देख मन विचलित हो उठा.
(हाल में अपोलो अस्पताल, नई दिल्ली में कार्यरत डा० टोपे, जो अपने को तात्यां टोपे का वशंज बताते हैं, बिठूर यात्रा पर गये थे. उन्होंने बताया कि उत्तर प्रदेश की मुलायम सिंह सरकार ने वहां कुछ कार्य किया है. आशा है वर्तमान सरकार के शीर्ष पर बिराजमान लोग अपनी मूर्तियों के निर्माण से मुक्त होकर इस दिशा में ऎसा कार्य करेगें जिससे 1857 के महान वीरों की स्मृतियां सुरक्षित रह सकें) .
1852 में पेशवा की मृत्यु के पश्चात नाना साहब ने उत्तराधिकारी के रूप में कार्यभार संभाला, लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें उत्तराधिकार से वंचित करके पेंशन बंद कर दी थी. परिणामतः नाना ने पेशवा की पेंशन प्राप्त करने के लिये अजीमुल्ला खां को 1853 में 'ईस्ट इंडिया कम्पनी' के डायरेक्टर्स के नाम एक मेमोरियल लेकर इंग्लैंड भेजा था. बचपन में एक अंग्रेज के घर में बावर्ची के रूप में जीवन प्रारंभ करने वाले अजीमुल्ला खां न केवल महान देशभक्त थे, बल्कि हिन्दी, अंग्रेजी, फ्रांसीसी के प्रकाण्ड विद्वान भी थे.
अजीमुल्ला खां को इंग्लैण्ड में अपने उद्देश्य में सफलता नहीं प्राप्त हुई. लेकिन वहां के समाज में उनके नवाबी आचार-विचार, वेशभूषा तथा रहन-सहन का अच्छा प्रभाव पड़ा. लोग उन्हें भारत का एक राजा समझने लगे थे. अजीमुल्ला खां सौन्दर्य के साक्षात प्रतिरूप थे. बोलचाल में निहायत नम्र. परिणाम यह हुआ कि अनेक संभ्रांत अंग्रेज परिवारों में उनका आवागमन हो गया था. कहते तो यहां तक हैं कि जब वह सड़क पर चलते थे, उनके पीछे अनेक अंग्रेज युवतियां हो लेती थीं. इस बात में भले ही अतिशयोक्ति हो किन्तु यह सत्य है कि जिन परिवारों में वह आते-जाते थे, उनकी अनेक युवतियां उन्हें प्यार करने लगी थीं और उनके साथ अजीमुल्ला खां के पत्र-व्यवहार होने लगे थे. पत्राचार का सिलसिला उनके बिठूर लौट आने के बाद भी चलता रहा था. 1857 की क्रान्ति के बाद इन प्रेम-पत्रों को अंग्रेज उठा ले गये थे. बाद में इन पत्रों की एक पुस्तक - "इण्डियन प्रिंस एण्ड दि इंग्लिस पियरेस" नाम से छपी थी.
जिन दिनों अजीमुला खां इंग्लैण्ड में थे, सतारा के राजा की ओर से राज्य वापस लौटाने की अपील करने के लिये रंगोजी बापू भी वहां गये थे, लेकिन उन्हें भी अपने उद्देश्य में सफलता नहीं मिली थी. अजीमुल्ला खां के साथ उनका सम्पर्क हुआ और दोनों ही इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि अंग्रेजों से मुक्ति का एक ही मार्ग है… वह है उनके विरुद्ध सशस्त्र क्रान्ति. रंगोजी बापू दक्षिण भारत में क्रान्ति की ज्वाला धधकाने के लिये वापस लौट आये थे, किन्तु अजीमुल्ला खां पेरिस के रास्ते रूस गये थे तत्कालीन रूसी शासक (संभवतः निकोलस प्रथम) से अंग्रेजों के विरुद्ध सहायता प्राप्त करने.
1857 की क्रान्ति की आधारशिला रखने का श्रेय जहां पेशवा बाजीराव को जाता है वहीं उसको व्यापक योजना का रूप दिया था अजीमुल्ला खां ने. उनके विदेश से लौटने के कुछ दिन बाद ही नाना साहब ने लखनऊ, झांसी, मेरठ, दिल्ली और पटियाला की रहस्यमय यात्रायें की थीं, जिन्हें धार्मिक यात्रायें कहा गया था. इन यात्राओं में अजीमुल्ला खां उनके साथ रहे थे.

दिसम्बर 1857 कॊ होपग्रण्ट ने बिठूर को अपने अधिकार में कर लिया था और नाना को न पाकर उसने उनके उस भव्य भवन को तोपों से उड़वा दिया था. महल के पास स्थित कुएं के पास एक पत्थर पर खुदा है कि प्रतिशोध की ज्वाला जब इतने से भी शांत नहीं हुई तो उसने महल के मलबे को हटवा कर वहां हल चलवा दिया था.
हम उस स्थान पर खड़े थे जो कभी महल का मध्य भाग रहा होगा. वहां नाना साहब की एक प्रतिमा स्थापित है, जिसे कंटीले तारों से घेर दिया गया है. उस प्रतिमा के विषय में पटना के मेरे मित्र श्री सत्यनारायण सिन्हा ने एक बार बताया था कि वास्तव में वह प्रतिमा नाना सहब की वास्तविक प्रतिमा नहीं हैं. किसी अंग्रेज ठेकेदार द्वारा तैयार करवाकर भारत सरकार ने 1947 में उसे वहां स्थापित किया था. यह बात तात्या टोपे के भतीजे नारायण राव ने कभी सिन्हा जी को बतायी थी. नाना साहब का वास्तविक चित्र आज भी टोपे परिवार के पास है, और यह परिवार बिठूर में ही रह रहा है.
प्रश्न केवल नाना साहब की वास्तविक प्रतिमा की स्थापना का ही नहीं, प्रश्न है उस पवित्र भूमि में तात्या टोपे, अजीमुल्ला खां, शमस्सुद्दीन, टीका सिंह, ज्वाला प्रासाद, लक्ष्मीबाई, बालासाहब आदि महानात्माओं की प्रतिमाओं की स्थापना और उसे पर्यटन-स्थल बनाने का भी है. उस स्थान की ऎतिहासिकता को अक्षुण रखते हुए वहां एक म्य़ूजियम भी स्थापित किया जाना चाहिए जहां इन महान पुरुषों से सम्बन्धित वस्तुओं को रखा जा सके. लेकिन उत्तर प्रदेश सरकार की इच्छाशक्ति के अभाव और केन्द्र सरकार की उदासीनता के कारण शक्तिशाली ब्रितानी सरकार को हिला देने वाले वीरों की वह भूमि आज जंगल में बदल चुकी है. जहां कभी रातें नृत्य-संगीत और अन्य सांस्कृतिक कार्यक्रमों में डूबी रहती थीं, वहां अब श्रंगालों का कोरस स्वर गूंजता है.
हम वहां से कुछ कदम आगे गंगा की ओर बढ़े. हमें कुएं दिखाई दिये, जो हाथियों, घोड़ों आदि को पानी पिलाने के लिये प्रयुक्त होते थे. उनसे जुड़े हुये थे वे हौज जिनमें जानवर पानी पीते रहे होंगे. कुओं से पानी पुरों द्वारा निकाला जाता था. तीन में पानी था. नाना साहब के महल की दीवारों की ईटें भी दिखाई दीं जिन पर उगी घास सूख चुकी थी.
नाना साहब के महल को ध्वस्त करने से पूर्व होपग्रण्ट ने एक कुएं में छुपाए गए उनके खजाने को 15 दिसम्बर, 1857 से 26 दिसम्बर तक निकलवाया था. बारह दिनों तक रात-दिन कार्य होता रहा था. फोरबस मिचल के अनुसार, "उसमें से तीस लाख रुपये नकद, सोने के बर्तन, एक चांदी का हाथी का हौदा निकले थे." जिन सिपाहियों से खजाना निकालने का काम लिया गया था, उन्हें यह आश्वासन दिया गया था कि प्रति सिपाही एक हजार रुपया दिया जायेगा, किन्तु बाद में उन्हें कुछ भी न दिया गया था.
वहां और अधिक ठहरने की इच्छा हो रही थी, लेकिन समयाभाववश हमें आगे बढ़ना पड़ा. हम बिठूर गांव के मध्य से होकर निकले . यहीं तात्या टोपे का पुश्तैनी मकान है. अंग्रेजों ने उसे भी नहीं बख्शा था. अंग्रेजों ने तात्या टोपे को भारत का "गैरीबाल्डी" कहा था. इस वीर ने तो अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया था. बाद के अनुसंधानों से यह सिद्ध हो चुका है कि अंग्रेजों ने जिस तात्या को 18 अप्रैल 1858 को फांसी दी थी वह असली तात्या न था. तात्या ने क्रान्ति की अलख जगाये रखने के लिये दो अन्य हमश्क्लों को अपनी ही भांति तैयार कर लिया था और फांसी पर चढ़ने वाला उनमें से कोई एक था. तात्या बाद में वर्षों तक मध्य प्रदेश में भटककर क्रान्ति की असफल तैयारी करते रहे थे. वे साधुवेश में गांव-गांव घूमते रहे हे, लेकिन अंग्रेजों की पकड़ से बाहर ही रहे थे.
गांव के मध्य से होकर हम गंगाघाट पर पहुंचे. यहां अनेक प्रसिद्ध घाट हैं. इनमें सबसे पुराना घाट गोविन्दराव बुन्देले का बनवाया हुआ है, जो बाजीराव प्रथम के समय में बुन्देलखण्ड का शासक था तथा जिसने सर्वप्रथम मराठा परिवारों को बिठूर में रहने के लिये भेजा था. यहीं पर है बह्मावार्त घाट, जिसे संचेड़ी के चन्देल राजा हिन्दू सिंह ने बनवाया था और बाद में जिसका जीर्णोद्धार बाजीराव पेशवा ने किया था. ब्रह्मावर्त घाट की सीढ़ियों के पास एक गुप्त मार्ग दिखाई दिया, जिसमें सीढ़ियां बनी हुई थीं. अनुमान लगाना कठिन नहीं कि वह मार्ग सीधे नाना साहब के महल तक जाता रहा होगा और राज-परिवार की स्त्रियां उसी गुप्त मार्ग से गंगा स्नान के लिये आती रही होंगीं.
घाटों में सबसे अच्छा है लखनऊ के नवाब गाजीउद्दीन हैदर के मंत्री राजा टिकैतराम श्रीवास्तव द्वारा बनवाया घाट. इसे देखकर इसकी तबकी भव्यता का अनुमान किया जा सकता है. पेशवा बाजीराव ने 'महाराज' नामक घाट बनवाया था. लेकिन अब ये सभी घाट जीर्णावस्था में हैं. अधिकांश की अंतिम सीढ़ियां टूट चुकी हैं और प्रायः यहां दुर्घटनायें होती रहती हैं. कुछ घाटों के साथ बने रिहायशी भवनों में कई परिवार रह रहे हैं. यहीं एक बारादरी है, जो 250 वर्ष पुरानी है. यहां बाल्मीकि आश्रम के अतिरिक्त कुछ अन्य आश्रम भी हैं, जो श्रद्धालुओं के ठहरने की सुविधा भी देते हैं.
यहां पेशवा द्वारा बनवाये गये अनेक मन्दिर हैं. आज भी 'नारायण बलि' के निमित्त लोग यहां दूर-दूर से आते हैं. गांव के मध्य में 1857 में अंग्रेजों की क्रूरता के शिकार होकर वहां से भागे अथवा देश के लिये अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले वीरों के मकानों के भग्नावशेष यह बताते हैं कि कभी उनके दरवाजे पर खड़ी गृहस्वामिनियां क्रान्तिकार्यों में व्यस्त अपने पतियों की प्रतीक्षा करती रही होंगी.
आज जहां सनाटा है, कभी वहां लोरियां गायी जाती रही होंगी.
सन्ध्या अपने डैने पसारने लगी थी. हम लोग वापस लौट पड़े. इस बार हम मैनावती मार्ग से कानपुर लौट रहे थे. यह मार्ग उसी मैनावती के नाम पर है, जिसे कुछ इतिहासकारों ने नाना साहब की बहिन तो किसी ने बेटी बताया है, जबकि वह एक दासी थी. होपग्रण्ट ने जब पेशवा के महल को ध्वस्त किया था, मैनावती महल के अंदर थी.
लौटते हुये हमारे मन उदास थे. हवा अभी भी गर्म थी और आसमान में परिन्दे क्षितिज की ओर दौड़ते नजर आ रहे थे.
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लेखक की पुस्तक - 'क्रान्तिदूत अजीमुल्ला खां' शीघ्र ही पंजाबी भाषा में प्रकाशित होगी. हिन्दी और असमिया में इसका प्रकाशन 'प्रकाशन विभाग' भारत सारकार द्वारा किया गया था और पंजाबी अनुवाद भी वही प्रकाशित कर रहे हैं. इसका अनुवाद पंजाबी के प्रसिद्ध युवा कवि और पंजाबी 'योजना' पत्रिका के सम्पादक श्री बलबीर मधोपुरी ने किया है.