शुक्रवार, 17 फ़रवरी 2012

धारावाहिक उपन्यास



Potrait by Ivan Kramskoi

(1873)




हाजी मुराद


लियो तोतलस्तोय


अनुवाद : रूपसिंह चन्देल


चैप्टर - ग्यारह

तिफ्लिस में हाजी मुराद के ठहरने के पाँचवें दिन प्रधान सेनापति का परि-सहायक लोरिस-मेलीकोव, उसके अनुरोध पर उससे मिलने के लिए आया ।
''मेरा सिर और मेरे हाथ सरदार की सेवा में हाजिर हैं,'' परम्परागत कूटनीतिक भाव से सिर झुकाते और छाती को हाथों से स्पर्श करते हुए हाजी मुराद ने कहा, ''मैं क्या कर सकता हूं?'' लोरिस-मेलीकोव की आंखों में देखते हुए उसने गर्मजोशी से कहा ।
लोरिस मेलीकोव मेज के बगल में बांहदार कुर्सी पर बैठ गया । हाजी मुराद उसके सामने नीचे एक दीवान पर बैठा । उसने घुटनों पर अपने हाथ रखे , सिर झुकाया और ध्यानपूर्वक लोरिस-मेलीकोव के शब्दों को सुनने लगा । लोरिस-मेलीकोव ने, धाराप्रवाह तातारी में बोलते हुए कहा कि यद्यपि प्रिन्स हाजी मुराद के अतीत से परिचित थे तथापि वह व्यक्तिगत रूप से उससे उसकी सम्पूर्ण जीवन गाथा सुनना चाहते थे । ''आप मुझे बताइये, ''लोरिस-मेलीकोव ने कहा, ''और मैं उसे लिख लूंगा, फिर उसका रूसी में अनुवाद करूंगा, और प्रिन्स उसे सम्राट को भेज देंगे ।''
हाजी मुराद चुप रहा (वह बीच में हस्तक्षेप नहीं करता था, बल्कि वह सदैव यह जानने की प्रतीक्षा करता था कि उसके साथ वार्तालाप करने वाला व्यक्ति इसके अतिरिक्त और क्या कुछ कहना चाहता था ), फिर उसने सिर ऊपर उठाया, सिर के पीछे टोपी को हिलाया और बच्चों जैसी विलक्षण मुस्कान मुस्कराया जिसने मेरी वसीलीव्ना को मुग्ध कर दिया था ।
इस विचार से कि उसकी कहानी ज़ार के समक्ष पढ़ी जायेगी, स्पष्टरूप से संतुष्ट होते हुए वह बोला, ''वह मैं कर सकता हूं ''।
''बिल्कुल प्रारंभ से बिना जल्दबाजी किये आप मुझे सब कुछ बताएं ।'' अपनी जेब से नोटबुक निकालते हुए, लोरिस-मेलीकोव बोला ।
''बहुत कुछ है, बतलाने के लिए बहुत कुछ है । मैं आपको बता सकता हूं । बहुत कुछ घटित हुआ'' हाजी मुराद बोला ।
''यदि आप एक दिन में नहीं बता सकते, आप अगले दिन समाप्त कर सकते हैं,'' लोरिस-मेलीकोव बोला ।
''मुझे प्रारंभ से ही षुरू करना होगा?''
''हाँ, बिल्कुल प्रारंभ से -- आप कहाँ पैदा हुए थे, और कहाँ रहे ?''
हाजी मुराद ने सिर झुका लिया और लंबे समय तक बैठा रहा, फिर उसने सोफे के पास पड़ी एक छड़ी उठा ली, उस्तरे जैसी पैनी हाथी दांत की मूठवाली स्वर्ण-जटित स्टील की जेबी चाकू बाहर निकाली, और छड़ी को तराशते हुए अपनी कहानी कहने लगा ।

''लिखें -- मैं एक 'मिलर्स थंब' (एक प्रकार की मछली) जितने बड़े, जैसा कि पहाड़ों में हम कहते हैं, जेलमेस नामके, एक छोटे से गाँव में पैदा हुआ था ।'' उसने कहना प्रारंभ किया । ''हमसे बहुत दूर नहीं, कुछ मीलों की दूरी पर ही, हन्जख था, जहाँ खान लोग रहते थे । हमारे परिवार का उनसे गहरा संबन्ध था । वे तीन खान थे । अबू नुसल खाँ, मेरे भाई उस्मान का दूध-रिश्ते का भाई ; उम्मा खाँ, मेरा हमशीर, और सबसे छोटा बुलक खाँ, जिसे शमील ने खड़ी चट्टान से नीचे गिरा दिया था । लेकिन बाद में वह आ गया था । मैं प्रन्द्रह का था जब मुरीदों ने गाँव से होकर जाना प्रारंभ किया था । वे लकड़ी की तलवारों से पत्थरों पर वार करते और चीखते थे, ''मुसलमानों ज़ेहाद (रूसियों के विरुध्द पवित्र युद्ध) में शामिल हो जाओ !'' सभी चेचेन उनके पास गये और अवारों ने उनके साथ शामिल होना शुरू कर दिया था। उन दिनों मैं महल में रह रहा था । मैं खानों के भाई के समान था । मैंनें वह किया जो मैं चाहता था और धनवान हो गया था । मेरे पास घोड़े और हथियार थे, और धन था । मैं जैसा पसंद करता, रहता था और संसार में किसी की परवाह नहीं करता था ।
मैं इस प्रकार तब तक रहता रहा, जब तक कासी मुल्ला मारा नहीं गया । हमज़ा ने उसका स्थान ले लिया था । हमजा ने खान लोगों के पास यह कहने के लिए दूत भेजे कि यदि वे ज़ेहाद में शामिल नहीं होंगे तो वह हन्ज़ख को तबाह कर देगा । इस बात ने हमें सोचने के लिए विवश किया । खान बन्धु रूसियों से डरते थे । ज़ेहाद में शामिल होने से भी भयभीत थे । खान की माँ ने मुझे अपने दूसरे पुत्र, उम्मा खॉ के साथ, रूसी प्रधान सेनापति के पास हमज़ा के विरुद्ध सहायता मांगने के लिए तिफ्लिस भेजा । प्रधान सेनापति रोजेन, एक बैरन था । वह मुझसे या उम्मा खाँ से नहीं मिला । उसने यह कहलवाया कि वह हमारी सहायता करेगा, लेकिन किया कुछ नहीं। उसके बाद उसके अधिकारी हमसे मिलने आने लगे और उम्मा खाँ के साथ ताश खेलने लगे । वे उसे शराब देने लगे और उसे खराब अड्डों में ले जाने लगे । उम्मा खाँ ताश में वह सब हार गया जो उसके पास था । वह बैल की भांति ताकतवर और शेर की भाँति बहादुर था, लेकिन उसकी आत्मा पानी जैसी कमजोर थी । वह अपने अंतिम घोड़े और हथियार भी हार चुका होता, यदि मैं उसे वहाँ से हटा न ले जाता । तिफ्लिस पहुंचने के बाद मेरे विचारों में परिवर्तन हुआ, और मैंने नौजवान खान और उनकी माँ से ज़ेहाद में शामिल होने की गुजारिश की ।''
''आपके विचार क्यों बदले?'' लोरिस-मेलीकोव ने पूछा, ''क्या आप रूसियों को पसंद नहीं करते?''
हाज़ी मुराद चुप रहा ।
''नहीं, मैं उन्हें पसंद नहीं करता था,'' उसने सुस्पष्टरूप से कहा और आंखें बंद कर लीं, ''और भी कुछ ऐसा घटित हुआ जिसने मुझे ज़ेहाद में शामिल होने के लिए मुतासिर किया ।''
''वह क्या था ?''
'' एक बार जेलमस के निकट खान और मेरी भिडंत तीन मुरीदों के साथ हुई । दो भाग निकले थे और एक को मैंने अपनी पिस्टल से मार दिया था। जब मैं उसके हथियार लेने उसके पास आया, तब तक वह जीवित था । उसने मेरी ओर देखा । ' तुमने मुझे मार दिया ' वह बोला । 'यह अच्छा है । लेकिन तुम एक नौजवान और हृष्ट-पुष्ट मुसलमान हो । ज़ेहाद में शामिल हो जाओ । खुदा का यह हुक्म है ।''
''हूं, तुम शामिल हुए ?''
''नहीं, लेकिन मैंनें सोचना प्रारंभ कर दिया था'' हाज़ी मुराद ने कहा और अपनी कहानी जारी रखी ।
''जब हमज़ा हन्ज़ख के पास पहुंचा, हमने अपने बुजुर्गों को भेजा और उनसे गुजारिश की कि वे उससे कहें कि यदि वह हमें दानिशवर करने के लिए एक काबिल आदमी भेजता है तो हमें जे़हाद में शामिल होना मंजूर है । हमज़ा ने बुजुर्गों की मूंछें मुड़वा दीं, उनके नथुने छेदवा दिए, उनकी नाकों से आटे के केक लटका दिए और उन्हें वापस भेज दिया। बुजुर्गों ने कहा कि हमज़ा ज़ेहाद के विषय में हमें दानिशवर करने के लिए एक शेख को भेजने को तैयार था, लेकिन तभी जब खान्शा बंधक के रूप में उसके पास रहने के लिए अपने छोटे बेटे को भेजे । खांशा ने उस पर विश्वास किया और बुलक खाँ को हमज़ा के पास भेज दिया । हमज़ा ने बुलक खाँ का अच्छी प्रकार स्वागत किया और उसे बड़े भाइयों को भी लाने के लिए वापस भेज दिया । उसने यह कहने के लिए उससे गुजारिश की कि वह खान लोंगों की उसी प्रकार सेवा करना चाहता था जिस प्रकार उसके पिता ने उनके पिता की की थी ।''
''उनकी माँ कमजोर, मूर्ख और बे-फ़हमी (अविवेकी महिला थी, जैसा कि सभी महिलाएं होती हैं जब वे स्वयं घर की मालकिन होती हैं।) थी. वह दोनों बेटों को भेजने से भयभीत थी, और उसने केवल उम्मा खाँ को भेजा । मैं उसके साथ गया । हम मुरीदों से एक मील पहले मिले, जो हमारे चारों ओर गाते और गोलियॉ दागते पोइयाँ चाल से चल रहे थे । जब हम पहुंचे, हमज़ा तम्बू से बाहर आ गया। उसने उम्मा खां की रकाब पकड़ ली , और एक खान की भाँति उसका स्वागत किया । वह बोला - ''मैंने आपके घर को कोई नुकसान नहीं पहंचाया है और न ही ऐसा करूंगा । आप केवल मुझे मरवायें नहीं और न ही ज़ेहाद के लिए लोगों को भर्ती करने से मुझे रोकें। मैं अपनी पूरी सेना सहित आपकी वैसी ही सेवा करूंगा, जैसी मेरे पिता ने आपके पिता की की थी । मुझे अपने घर में रहने दें । मैं अपनी सलाहों से अपकी सहायता करूंगा, लेकिन आप जो चाहें करने के लिए आजाद होंगे ।''
उम्मा खाँ धीमे बोलता था । वह नहीं समझ पाया कि उसे क्या कहना है, और चुप रहा । तब मैंने कहा कि, यदि वास्तव में ऐसा है, तब हमज़ा हन्ज़ख चला जाये । खांशा और खाँ उसका आदर -सत्कार करेंगे । लेकिन उन्होंने मेरी बात बीच में काट दी, और यहीं पहली बार मैंने शमील का विरोध किया था। वह इमाम के पास खड़ा हुआ था ।
''हम आपसे नहीं, बल्कि खान से पूछ रहे हैं'' वह बोला था।
''मैं और अधिक नहीं बोला और हमज़ा उम्मा खाँ को तम्बू के अंदर ले गया । फिर हमज़ा ने मुझे बुलाया और मुझसे अपने पैगम्बरों के साथ हन्जख जाने का अनुरोध किया। मैं गया। पैगाम्बरों ने खांशा को समझाने का प्रयास किया कि बड़े खान को भी हमज़ा के पास जाना चाहिए ।''
''मुझे विश्वासघात की गंध आई, और मैंने खांशा से कहा कि वह अपने बेटे को न भेजें । लेकिन एक औरत के दिमाग में उतनी ही अक्ल होती है जितनी एक अण्डे पर बाल। उसने उस पर विश्वास किया और अपने बेटे को जाने के लिए कहा । अबू नुसल खाँ ने इंकार कर दिया । तब वह बोली, ''तुम जरूर ही डर रहे हो ।'' वह एक मधुमक्खी की तरह जानती थी कि डंक कहाँ अधिक जख्मी करता है । अबू नुसल खाँ क्रोध से धधक उठा, कुछ नहीं बोला । उसने अपने घोडे़ पर जीन कसवा दी । मैं उसके साथ गया । हमज़ा ने उम्मा खां से भी अच्छा हमारा स्वागत किया । वह हमसे मिलने के लिए पहाड़ी पर दो फर्लागं चलकर आया । पताकाएं फहराते हुए घुड़सवार उसके चारों ओर गाते और गोलियाँ चलाते तेजी से चल रहे थे। जब हम कैम्प में पहुंचे हमज़ा खान को तम्बू के अन्दर ले गया । मैं घोड़ों के साथ रुका रहा था।''
''मैं पहाड़ी में नीचे की ओर था जब मैनें हमज़ा के तम्बू से गोली चलने की आवाज सुनी । मैं दौड़कर तम्बू में गया । उम्मा खाँ पीठ के बल खून से लथपथ पड़ा हुआ था, और अबू नुसल खाँ मुरीदों से जद्दोज़हद ( संघर्ष ) कर रहा था । उसका आधा चेहरा कट गया था और नीचे की ओर लटका हुआ था । उसने उसे एक हाथ से पकड़ रखा था, और दूसरे हाथ से अपनी तलवार से अपने निकट आने वाले हर व्यक्ति को काटता जा रहा था । मेरी दिशा में उसने हमज़ा के भाई को काट गिराया था और दूसरे की ओर बढ़ रहा था, लेकिन तभी मुरीदों ने उस पर गोली चलायी थी, और वह गिर गया था।''
हाजी मुराद रुका, धूप से जला उसका संवलाया चेहरा लज्जित हो उठा, और उसकी आंखें रक्तिम हो उठीं थीं ।
'' मुझ पर भय सवार हो गया था, और मैं भाग खड़ा हुआ था।''
''क्या?'' लोरिस-मेलीकोव बोला, ''मैं सोचता था कि आप कभी किसी से नहीं डरते ।''
''फिर कभी नहीं । उसके पश्चात् मैनें उस शर्मनाक घटना को सदैव याद रखा, और जब मैनें उसे याद किया किसी से भी भयभीत नहीं हुआ ।''

---------

शनिवार, 4 फ़रवरी 2012

धारावाहिक उपन्यास

हाज़ी मुराद
लियो तोलस्तोय
अनुवाद - रूपसिंह चन्देल
चैप्टर - १०


अगले दिन जब हाजी मुराद को वोरोन्त्सोव के पास लाया गया, प्रिन्स का प्रतीक्षा-कक्ष लोगों से खचाखच भरा हुआ था। खुरदरी मूंछोंवाला जनरल पूरी फौजी ड्रैस और तमगे धारण किये हुए, छुट्टी मंजूर करवाने के लिए वहाँ उपस्थित था। एक रेजीमेण्टल कमाण्डर वहाँ था, जिसे रेजीमेण्ट की सप्लाई के दुरुपयोग के लिए अभियोग की चेतावनी मिली हुई थी। डाक्टर आन्द्रेयेवस्की का संरक्षण प्राप्त एक धनी आर्मेनियन वहाँ उपस्थित था, जिसका वोद्का के व्यवसाय में एकाधिकार था और वह अपने अनुबंध का नवीनीकरण करवाना चाहता था। युद्ध में मारे गये एक अधिकारी की पत्नी बच्चों के पालन-पोषण के लिए अपनी पेंशन अथवा राज्य के वित्तीय भत्ते के लिए आयी हुई थी। भव्य जार्जियन वेशभूषा में, जार्जिया का एक बरबाद हो चुका प्रिन्स वहाँ था जो चर्च की खाली सम्पत्ति पर कब्जा चाहता था। काकेशस पर विजय प्राप्त करने के लिए नयी योजना वाले कागजातों का बड़ा पुलिन्दा थामे एक पुलिस अधिकारी भी वहाँ था। इनके अतिरिक्त एक स्थानीय खान वहाँ था जो केवल इसलिए आया था कि वह अपने लोगों के बीच यह बता सके कि प्रिन्स ने किस प्रकार उसका स्वागत किया था।
वे सभी अपने अवसर की प्रतीक्षा कर रहे थे और सुन्दर बालों वाले खूबसूरत युवा परिसहायक द्वारा एक के बाद दूसरा प्रिन्स की स्टडी में भेजे जा रहे थे।
जब हाजी मुराद ने हल्की लंगड़ाहट के साथ प्रतीक्षा कक्ष में प्रवेश किया, सभी की आँखें उसकी ओर घूम गयीं और कक्ष के विभिन्न कोनों से अपने नाम की फुसफुसाहट उसे सुनाई दी थी।
हाजी मुराद ने सुन्दर चाँदी का गोटा लगे खाकी कपड़े पर लंबा सफेद टयूनिक पहना हुआ था। उसकी पतलून और चुस्त-दुरस्त जुराबें काली थीं, और उसने पगड़ी के साथ फर का टोप पहना हुआ था -जिस पगड़ी को पहनने के कारण उसे अहमद खां द्वारा अपमानित और जनरल क्लूगेनाऊ द्वारा गिरफ्तार किया गया था, और वही शमील से उसके मिलने का कारण बना था। हल्की लंगड़ाहट के साथ छोटी टांग पर अपने छरहरे शरीर को झुलाता हुआ हाजी मुराद तेजी से प्रतीक्षा कक्ष की फर्श पर चल रहा था। उसकी बड़ी आँखें शांतिपूर्वक सामने की ओर देख रहीं थीं और किसी को भी न देखने का आभास दे रही थीं।
खूबसूरत सहायक ने उसका स्वागत किया और तब तक बैठ जाने की प्रार्थना की जब तक वह प्रिन्स के पास जाने के लिए उसे नहीं पुकारता। लेकिन हाजी मुराद ने बैठने से इंकार कर दिया। उसने कटार पर अपना हाथ रखा और एक पैर आगे बढ़ाकर वहाँ एकत्रित लोगों का तिरस्कारपूर्वक पर्यवेक्षण करता हुआ खड़ा रहा।
एक दुभाषिया, प्रिन्स तर्खानोव हाजी मुराद के पास आया और उसे वार्तालाप में व्यस्त कर लिया। हाजी मुराद ने अनिच्छापूर्वक और एकाएक उत्तर दिए। एक कुमिक प्रिन्स, जिसने पुलिस अधिकारी के विरुद्ध शिकायत की थी, स्टडी से बाहर आया, और उसके पश्चात् सहायक ने हाजी मुराद को बुलाया और अंदर का मार्ग दिखाने के लिए स्टडी के दरवाजे तक उसके साथ गया।
वोरोन्त्सोव ने मेज के पास खड़े होकर हाजी मुराद का स्वागत किया। वृद्ध सुप्रीम कमाण्डर का गोरा चेहरा पिछले दिन जैसा मुस्कराहट भरा नहीं था, बल्कि कठोर और गंभीर था।
बड़ी मेज और हरे रंग की बड़ी बंद खिड़कियों वाले विशाल कमरे में प्रवेश करते ही हाजी मुराद ने धूप से झुलसे अपने छोटे हाथों को छाती पर रखा जहाँ सफेद टयूनिक की तहें एक दूसरे को काटती थीं; और, ऑंखे झुकाकर कुमिक भाषा में, जिसे वह भलीभाँति बोल सकता था, धीरे-धीरे, स्पष्ट और सम्मानपूर्वक बोला।
''महान जार और आपके उदात्त संरक्षण के लिए मैंने अपना आत्म-समर्पण किया है। मैं खून की आखिरी बूंद तक बा-एतेमाद (निष्ठापूर्वक) गोरे जार की सेवा करने का वचन देता हँ और आपके और मेरे दुश्मन शमील के खिलाफ लड़ाई में फायदामंद होने की उम्मीद करता हँ।''
दुभाषिये को सुन लेने के बाद वोरोन्त्सोव ने हाजी मुराद की ओर, और हाजी मुराद ने वोरोन्त्सोव की ओर देखा।
दोनों की आँखें एक-दूसरे से मिलीं और आँखों ने एक दूसरे से बहुत कुछ कह दिया, जिसे शब्दों में व्यक्त नहीं किया जा सकता था और न ही बिल्कुल वैसा जैसा दुभाषिये ने कहा था। उन्होंनें बिना शब्दों के पूर्ण सत्य सीधे एक दूसरे को अभिव्यक्त कर दिया था। वोरोन्त्सोव की आँखों ने कहा कि वह हाजी मुराद के कहे एक भी शब्द पर विश्वास नहीं करता, क्योंकि वह जानता था कि वह रूसियों के सब कुछ का शत्रु था, और सदैव रहेगा, और वह केवल इसलिए इस समय आत्म-समर्पण कर रहा है क्योंकि ऐसा करने के लिए वह बाध्य था। हाजी मुराद ने यह समझ लिया, फिर भी उसने उसे अपनी निष्ठा का पूर्ण आश्वासन दिया। हाजी मुराद की आँखों ने कहा कि वोरोन्त्सोव जैसा बूढ़ा आदमी मृत्यु के विषय में सोच रहा होगा, न कि युद्ध के विषय में। हालांकि अगला बूढ़ा हो चुका था, फिर भी वह धूर्त था, और उसे उससे सतर्क रहना आवश्यक था। और वोरोन्त्सोव ने यह सब समझा, फिर भी उसने हाजी मुराद को बताया कि युद्ध की सफलता के लिए वह क्या आवश्यक समझता था।
''उससे कहो'' वोरोन्त्सोव ने लापरवाही से नौजवान दुभाषिये से कहा, ''कि हमारे सम्राट उतने ही दयालु हैं जितने कि वह शक्तिशाली हैं और पूरी संभावना है, कि मेरे अनुरोध पर, वे उसे क्षमा कर देगें और उसे अपनी सेवा में अंगीकर कर लेगें। तुमने अनुवाद कर दिया।'' हाजी मुराद की ओर देखते हुए उसने पूछा। ''जब तक मैं अपने स्वामी का कृपापूर्ण निर्णय प्राप्त करूं, उससे कहो, उस समय तक उसके स्वागत और उसे अपने साथ ठहाराने की व्यवस्था की जिम्मेदारी मेरी होगी। यह उसे स्वीकार्य है।''
हाज़ी मुराद ने एक बार पुन: हाथ अपने वक्षस्थल पर रखा और सोत्साह बोलना प्रारंभ किया।
उसने कहा, जैसा कि दुभाषिये ने वर्णन किया, कि 1839 में, जब वह आवेरिया में शासन करता था, उसने निष्ठापूर्वक रूसियों की सेवा की थी और उन्हें कभी धोखा नहीं दिया था लेकिन उसके शत्रु अहमद खाँ ने, जो उसके पतन का षडयंत्र करना चाहता था, जनरल क्लूगेनाऊ से उसके विषय में निन्दात्मक बातें कही थीं।
''हाँ, मैं जानता हँ'' वोरोन्त्सोव ने कहा ( हालांकि यदि वह जानता भी था, तो वह उसे बहुत पहले भूल चुका था ) ''मैं जानता हँ,'' बैठते हुए उसने कहा और दीवार के पास पड़े दीवान की ओर संकेत करते हुए हाजी मुराद से बैठने के लिए कहा। लेकिन हाजी मुराद बैठा नहीं। अपने मजबूत कंधों को उचका कर उसने संकेत दिया कि इतने महत्वपूर्ण व्यक्ति की उपस्थिति में वह बैठना नहीं चाहता। वह पुन: बोला :
''अहमद खाँ और शमील, दोनों मेरे शत्रु हैं,'' दुभाषिये को संबोधित करते हुए उसने कहना जारी रखा। ''प्रिन्स को बता दो कि अहमद खाँ मर चुका है और मैं उससे प्रतिशोध नहीं ले सका, लेकिन शमील अभी भी जीवित है, और जब तक मैं उससे बदला नहीं चुका लेता, मैं मरूंगा नहीं,'' त्यौरियाँ चढ़ा और दांतों को भींचते हुए वह बोला।
''ठीक है '' वोरोन्त्सोव शांतिपूर्वक बोला, ''शमील से वह किस प्रकार बदला चुकाना चाहता है ?'' दुभाषिये से उसने कहा, ''और उससे कहो कि वह बैठ जाये।''
हाजी मुराद ने पुन: बैठने से इंकार कर दिया, और प्रश्न का उत्तर यह कहते हुए दिया कि वह रूसियों के पास शमील को नष्ट करने में उनकी सहायता करने के लिए आया है।
''अच्छा, अच्छा,'' वोरोन्त्सोव बोला, ''वास्तव में वह करना क्या चाहता है ? बैठ जाइये, बैठ जाइये...।''
हाजी मुराद बैठ गया और बोला कि यदि वे उसे लेज्गियन मोर्चे पर भेजें और उसे सेना दें तो वह इस बात की गारण्टी देता है कि वह सम्पूर्ण डागेस्तान पर अधिकार कर लेगा और तब शमील वहाँ डटे रहने में असमर्थ हो जाएगा।''
''यह अच्छा है। यह संभव है,'' वोरोन्त्सोव ने कहा, ''मैं इस पर विचार करूगा।''
दुभाषिये ने वोरोन्त्सोव के शब्दों का हाजी मुराद के लिए अनुवाद किया। हाजी मुराद क्षणभर तक सोचता रहा।
''सरदार को बताएं,'' उसने कहा, '''कि मेरा परिवार मेरे शत्रु के हाथों में है, और जब तक मेरा परिवार पहाड़ों में है, मैं बंधा हुआ हँ और मैं सेवा नहीं कर सकता। यदि मैं उस पर सीधे आक्रमण करता हूँ तो वह मेरी पत्नी, मेरी माँ ओर मेरे बच्चों को मार देगा। युद्ध- बन्दियों के बदले में प्रिन्स मेरे परिवार को मुक्त करा लें, और तब मैं या तो शमील को उखाड़ फेकूंगा या मर जाऊँगा।''
''अच्छा, अच्छा,'' वोरोन्त्सोंव बोला, ''हम इस विषय में सोचेगें। अब उसे सेनाध्यक्ष के पास ले जाओ और उसे विस्तार से उसकी स्थिति, उसकी योजनाओं और उम्मीदों के विषय में बताओ।''
इस प्रकार वोरोन्त्सोव के साथ हाजी मुराद का पहला साक्षात्कार समाप्त हुआ।


Leo chat with Alexander Goldenweiser

(Second on right)
उसी शाम एशियाई ढंग से नव-सज्जित थियेटर में इटैलियन ओपेरा का एक प्रदर्शन था। वोरोन्त्सोव बॉक्स में बैठा हुआ था। सिर पर पगड़ी के ऊपर टोप पहने हाजी मुराद की लंगड़ाती स्पष्ट आकृति नाटयशाला में प्रकट हुई। वोरोन्त्सोव द्वारा उसके साथ सम्बद्ध किया गया एक सहायक, लोरिस-मेलीकोव के साथ वह प्रविष्ट हुआ और आगे की पंक्ति में सीट ग्रहण कर बैठ गया। वह प्राच्य मुस्लिम गौरव को प्रदर्शित करने वाले प्रथम दृश्य तक बैठा रहा। उसने आश्चर्य का कोई भाव व्यक्त नहीं किया, बल्कि एक प्रकार से वह उदासीन-सा बैठा रहा। फिर वह उठा, दर्शकों पर शांत दृष्टि डाली और सभी दर्शकों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करता हुआ चला गया।
अगला दिन सोमवार था। इस दिन वोरोन्त्सोव प्राय: 'घर' में रहता था। शिशिरोद्यान के जगमगाते हॉल में दिखाई न देने वाला एक ऑकेस्ट्रा ऊँचे स्वर में बज रहा था। गले, बांहों और वक्षस्थलों को प्रदर्शित करने वाले परिधानों में सजी-संवरी युवा और प्रौढ़ महिलाएं आकर्षक वस्त्र पहने हुए पुरुषों की बाहों में तेजी से थिरक रही थीं। उपहार कक्ष में लाल जैकेट, जुराबों और स्लिपर्स में पहाड़ी बैरे शैम्पेन सर्व कर रहे थे और महिलाओं को मिष्ठान्न परोस रहे थे। सरदार की पत्नी, उम्रदराज होने के बावजूद, तंग वस्त्रों में गर्मजोशी से मुस्कराती हुई अतिथियों के बीच घूम रही थी और दुभाषिये के माध्यम से उसने कुछ कृपालु शब्द हाजी मुराद से कहे थे, जो उसी उदासीन भाव से लोगों का निरीक्षण कर रहा था, जैसा थियेटर में उसने किया था। मेहमानदारी के बाद अंगों का कुछ अधिक ही प्रदर्शन करने वाली दूसरी महिलाएं हाजी मुराद के पास आयीं और सभी नि:संकोच उसके सामने खड़ी हो गयीं, मुस्कराती रहीं, और फिर वही प्रश्न किया -- 'उसने जो देखा उसे कैसा लगा ?' वोरोन्त्सोव भी सोने के तमगे धारण किये, 'शोल्डर ब्रेड', गले में सफेद क्रास और रिबन पहने हुए आया और स्पष्टरूप से आश्वस्त होते हुए भी, हाजी मुराद के सभी प्रश्नकर्ताओं की भाँति, उससे वही प्रश्न किया, कि उसने जो सब कुछ देखा उसे पसंद आया या नहीं। और हाजी मुराद ने वोरोन्त्सोव को बिना यह कहे कि उसने जो देखा अच्छा था या खराब, उसने वही उत्तर दिया जो उसने सभी को दिया था, कि उन लोगों के पास उस जैसा कुछ नहीं था।
हाजी मुराद ने उस नृत्य सभा में वोरोन्त्सोव से अपने परिवार की फिरौती के प्रश्न को छेड़ना चाहा था, लेकिन वोरोन्त्सोव ने न सुनने का अभिनय किया था और दूर चला गया था। तब लोरिस मेलीकोव ने हाजी मुराद से कहा था कि वह स्थान सौदेबाजी के लिए उपयुक्त नहीं था।
जब ग्यारह बजे का घण्टा बजा, हाजी मुराद ने मेरी वसीलीव्ना द्वारा दी गई घड़ी में समय देखा, और लोरिस -मेलीकोव से पूछा कि क्या वह जा सकता है। लोरिस मेलीकोव ने कहा कि वह जा तो सकता है, लेकिन बेहतर होगा कि वह रुका रहे। फिर भी हाजी मुराद रुका नहीं, और उसके लिए जिस गाड़ी की व्यवस्था की गई थी, उसमें अपने ठहरने के लिए निर्धारित मकान की ओर चला गया था।
-0-0-0-0-