शनिवार, 21 मई 2011

आलेख

चित्र : बलराम अग्रवाल



भूमंडलीकरण यानी प्रच्छ्न्न उपनिवेशवाद

मृदुला गर्ग

आजकल जिसे देखो वह वैश्वीकरण और भूमंडलीकरण की बात कर रहा है पर हमारी त्रासदी है कि हम अब तक भूमंडलीकरण का अर्थ कॉल सैन्टरों का खुलना, संयुक्त परिवार का टूटना या आपसी रिश्तों में बदलाव जैसी बातें मानते आ रहे हैं। मुझे इस प्रसंग पर कुछ कहना ज़रूरी लग रहा है।

गायत्री स्पीवाक का कहना है कि भूमंडलीकरण केवल पूंजी और आंकड़ों का होता है; बाक़ी मात्र क्षति पूर्ति होती है।

ज़ाहिरा तौर पर सहज दीखते इस जटिल कथन की तह में जाते ही हम समझ जाएंगे कि वैश्वीकरण और उपनिवेशवाद में कोई मूल अंतर नहीं है। पूंजी का भूमंडलीकरण या विदेश में पूंजि का निवेश और उसके माध्यम से आधिपत्य, शताब्दियों से चला आ रहा है। जो देश निवेश करता, उसका आधिपत्य होता और जिस देश में निवेश किया जाता, वह अधिकृत होता। जब तक निवेश के साथ सैन्य बल का प्रयोग होता रहा, इस प्रक्रिया का नाम उपनिवेशवाद रहा, वैश्वीकरण या भूमण्डलीकरण नहीं। बीसवी सदी के द्वितीय विश्व युद्ध के बाद वह युग आया जब राजनैतिक प्रभुत्व प्राप्त करने के लिए आर्थिक प्रभुत्व पर्याप्त हो गया। अब सैन्य बल से संचालित प्रत्यक्ष शासन की अनिवार्यता नहीं रही। तब इस प्रक्रिया का नाम वैश्वीकरण या भूमण्डलीकरण पड़ा। उपनिवेशवाद और इन में अन्तर मात्र इतना था कि अब पूंजी के निवेश की दिशा एकतरफ़ा नहीं रह गई थी। चूंकि मूल निर्धारक आर्थिक सामर्थ्य था, इसलिए अब वे देश भी पूंजी निवेश करने लगे जो आर्थिक रूप से हाल-फिलहाल समर्थ हुए थे। दूसरे श्ब्दों में, पूंजी निवेश के साथ, आर्थिक प्रभुत्व भी एक देश से दूसरे देश के पास हस्तांरित होने लगा। पूंजी निवेश की दिशा बदलने का सर्वोत्तम उदाहरण जापान है, जिसने अमरीका में पूंजी निवेश कर के, युसिमिटी जैसे उनके प्राकृतिक सम्पदा स्थल को, बकौल जायदाद, खरीद लिया। बीसेक बरस पहले अमरीका में एक आम चुटकुला यह सुना जाता था कि वह दिन दूर नहीं जब जापान उनका राष्ट्रपति निवास, "व्हाईट हाऊस" खरीद लेगा। कुछ हद तक चीन भी जो अर्से तक बाज़ार की भूमिका अदा करता रहा था, अब अन्य देशों के बाज़ारों में निवेश करने वाला आर्थिक उद्योगपति बन गया है।

हम हिन्दुस्तानियों से बेहतर उपनिवेशवाद और वैश्वीकरण की समानता को कौन जानता है, जिन्होंने कम्पनी से कम्पनी बहादुर बनी, निवेश की दुकान की हुक़ूमत में, दो शताब्दियां गुज़ारीं। कम्पनी का कम्पनी बहादुर बनना और फिर ब्रितानी हुक़ूमत में बदलना, मूलतः कोई नया कारनामा नहीं था पर उसका शिल्प ज़रूर नया और अनूठा था। इस बार फ़ौज के हमले से जीत हासिल करके राज करने के पुराने तरीके का, ख़ुद सरकार ने उपयोग नहीं किया था; उसकी इजाज़त से मण्डी ने किया। सरकार ने फ़तह पर मुहर तब लगाई जब कम्पनी काफ़ी समय तक लूटपाट करके, उसे ख़ूब अमीर बना चुकी थी। पूंजी निवेश के भूमंडलीकरण से उत्पन्न, इससे बड़ी क्षति और क्या हो सकती है कि निवेश प्राप्त करने वाला देश, बाज़ार बनते बनते ग़ुलाम बन जाए।

हमारी त्रासदी यह है कि हम ग़ुलामी से निजात पाने के बाद भी मूलतः बाज़ार बने हुए हैं।
इन्टर्नेट के आगमन के बाद दुनिया इस ख़ुशफ़हमी में रहने लगी कि जानकारी का भी वैश्वीकरण हो गया। यानी जिन देशों को पूंजी निवेश करने के काम में लाया जा रहा है, वे भी हर प्रकार की जानकारी हासिल कर सकते हैं। असल में वैश्वीकरण हुआ केवल आंकड़ों का। हर अर्थशास्त्री जानता है कि आंकड़ों को तोड़ मरोड़ कर उनसे इस तरह झूठ बुलवाया जा सकता है कि असल जानकारी गुप्त की गुप्त रह जाए।

जब पूंजी का विदेश में निवेश हो पर जानकारी का न हो तो उसके कितने भयानक परिणाम निकल सकते हैं, उसका अन्यत्म उदाहरण, 1984 में भारत में घटित भोपाल गैस त्रासदी है। यूनियन कारबाईड बहुराष्ट्रीय कम्पनी ने भोपाल में पेस्टसाईड कारखाना लगाया पर वहाँ ठीक किस प्रकार का पेस्टसाईड या ज़हर बनाया जा रहा था, उसकी जानकारी हमारी सरकार को नहीं दी। सरकार ने जानकारी मांगी भी नहीं बल्कि उसे गुप्त रखने में कम्पनी की मदद की।

जब कारखाने से गैस का रिसाव हो जाने पर हज़ारों लोग हताहत होने लगे, तब भी उस गैस में ठीक क्या तत्व शामिल थे, इस जानकारी को गुप्त रखा गया। नतीजतन जो क्षति उस पूंजी निवेश से हुई उसका निराकरण नहीं हो पाया। आज तक पीड़ित लोगों का सही इलाज नहीं हो पाया है। हाँ उनके आंकड़े इन्टरनेट पर सुलभ हैं। कम्पनी ने नहीं करवाये, निजी शोधकर्ताओं ने खोज करके एकत्र किये हैं।
पिछले 26 वर्षों के दौरान भोपाल गैस त्रासदी में हमारे आज़ाद देश की सरकार की भूमिका एक उपनिवेश की रही है। अब तो जगज़ाहिर हो चुका है कि हमारी केन्द्रीय व राज्य सरकारें केवल इस त्रासदी की शिकार जनता के प्रति उदासीन ही नहीं रही; उन्होंने सीधे तौर पर, यूनियन कारबाईड बहुराष्ट्रीय कम्पनी को समर्थन व संरक्षण दिया और अब भी दे रही है। इन तथ्यों पर अनेक दस्तावेज़ लिखे गये और प्रकाशित हुए। सतीनाथ सारंगी नाम के इंजीनियर, पिछले छब्बीस बरसों से, यूनियन कारबाईड से उसी तरह लड़ रहे हैं, जैसे कभी, गान्धी और भगतसिंह आदि, ब्रितानी सरकार से लड़े थे। सारंगी का सूत्र वाक्य रहा है ”अगर तुम गैस पीड़ित लोगों को राहत नहीं पहुंचा सकते तो नुकसान न पहुँचाओ।” पर सरकारी डाक्टर बराबर उन्हें नुकसान पहुँचाते रहे हैं। सारंगी और उनके डाक्टर मित्रों ने जब हादसे के फ़ौरन बाद पीड़ितों को सोडिअम थियोसलफ़ेट के इन्जेक्शन देने चाहे तो उन्हें रोका गया और जेल भेज दिया गया। उच्चतम न्यायालय के आदेश पर ही उन्हें रिहा किया गया। अमरीका में यूनियन कार्बाईड की सालाना मीटिंग में पैम्फ़्लैट फ़ेंकने पर भी उन्हें गिरफ़्तार किया गया, जैसे कभी भगतसींह को ब्रितानी राज के दौरान असेम्बली में पर्चे फेंकने पर किया गया था। मानों यूनियन कारबाईड घातक अपराधी नहीं, सरकार पर हुकूमत कर रही विदेशी ताक़त हो। और है भी। यानी बात हम भले भूमंडलीकरण की करें, हमारी त्रासदी यह है कि हम आज भी औपनिवेशिक मानसिकता में जी रहे हैं। वैसे प्रतीक रूप से खुशी की, और गहराई से सोच कर देखें तो विद्रूप की, बात यह है कि दक्षिण भारत से निकल रही ”वीक” पत्रिका ने सारंगी को वर्ष 2010 का शिखर पुरु­ष चुना है! तात्पर्य यह कि हमारे वैश्वीकरण का असल रूप अब भी प्रच्छन्न औपनिवेशिकता का है।
*****


मृदुला गर्ग का जन्म 25 अक्तूबर, 1938 को कोलकाता में हुआ। 1960 में उन्होंने दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकोनोमिक्स से अर्थशास्त्र में एम ए किया।

उनके रचना संसार में सभी गद्य विधाएं सम्मिलित है। उपन्यास, कहानी, नाटक, निबन्ध, यात्रा साहित्य, स्तम्भ लेखन, व्यंग्य, पत्रकारिता तथा अनुवाद।

उनका कथा साहित्य,कथ्य और शिल्प के अनूठे प्रयोग के लिए जाना जाता है। व्यक्ति व समाज के मूल द्वन्द्व उसमें एकमएक हो जाते हैं और अपनी विडम्बनाओं में गहराई तक परखे जाते हैं। भाषा की लय और गत्यात्मकता उन्हें पठनीय बनाती है।

अब तक सात उपन्यास प्रकशित हो चुके हैं; उसके हिस्से की धूप’, वंशज, चित्तकोबरा, अनित्य, मैं और मैं, कठगुलाब तथा मिलजुल मन । 11 संग्रहों में प्रकाशित अस्सी कहानियें कहानियाँ, ’संगति-विसंगति’ नाम से दो ख्ण्डों में संग्रहीत हैं। कुछ अटके, कुछ भटके नाम से यात्रा संस्मरण है ।


नाटक हैं एक और अजनबी, जादू का कालीन, कितनी क़ैदें तथा साम दाम दण्ड भेद(बाल नाटक)
2003 से 2010 तक इंडिया टुडे (हिन्दी) में पाक्षिक स्तम्भ ’कटाक्ष’ लिखा। ये लेख, ’कर लेंगे सब हज़म’ तथा खेद नहीं है नाम से पुस्तकाकार प्रकाशित हुए हैं।

अनुवादः

चित्तकोबरा उपन्यास का जर्मन अनुवाद 1987 में व अंग्रेज़ी अनुवाद 1990 में प्रकाशित हुआ। कठगुलाब उपन्यास का अंग्रेज़ी अनुवाद ’कंट्री आफ़ गुडबाइज़’ 2003 में तथा मराठी व मलयाळम अनुवाद 2008 में प्रकाशित हुए। जापानी अनुवाद शीघ्र प्रकाश्य है। अनित्य उपन्यास का अंग्रेज़ी अनुवाद 2010 में "अनित्य हाफ़वे टु नावेह्यर’ नाम से ऑक्स्फ़ोर्ड युनिवर्सिटी प्रेस से प्रकाशित हुआ है। अनेक कहानियाँ भारतीय भाषाओं तथा चैक,जर्मन,अंग्रेज़ी,जापनी में अनुदित हैं। अंग्रेज़ी में अनुदित कहानियों के संग्रह, का नाम डैफ़ोडिल्स ऑन फ़ायर है।

सम्मानः
उसके हिस्से की धूप व जादू का कालीन मध्य प्रदेश सहित्य परिषद से पुरस्कृत हुए। 2004 का व्यास सम्मान, उपन्यास कठगुलाब को मिला।
2001 में न्यूयार्क ह्यूमन राइट्स वॉच ने उन्हें हैलमन हैमट ग्रान्ट प्रदान किया।
2009 में स्पन्दन शिखर सम्मान प्राप्त हुआ।

मृदुला गर्ग, ई 421(भूतल) जी के 2, नई दिल्ली 110048