बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

समीक्षा



समीक्षा से पहले निवेदन

एक दिन मेरे पास फोन आया कि मुझे जयपुर से श्री राजाराम भादू के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली द्वैमासिक पत्रिका ’संकृति मीमांसा ’ के लिए सम्बोधन पर समीक्षा लिखनी है. भाई कमर मेवाड़ी से बात हुई . उन्होंने भी बताया कि भादू जी मुझसे लिखवाना चाहते हैं. सम्बोधन का जुलाई -सितम्बर २००९ अंक मेरे पास नहीं पहुंचा था. कमर भाई से उसे भेज देने का अनुरोध किया. वैसे पिछ्ले बीस वर्षों से पत्रिका नियमित मुझे मिलती रही है . कभी ही कोई अंक डाक व्यवस्था के कारण नहीं मिला होगा . इस बार भी ऎसा ही हुआ. कमर भाई ने अंक भेज दिया. समीक्षा लिखी गई. भादू जी को भेजने के बाद उनके उत्तर की मैं प्रतीक्षा करने लगा. पर्याप्त समय बीत जाने के बाद मैंने उन्हें समीक्षा मिली या नहीं जानने के लिए फोन किया . ज्ञात हुआ कि समीक्षा तो मिल गई थी लेकिन वह वैसी नहीं लिखी गई जैसी कि वह चाहते थे. उन्होंने उसे पुनः लिख भेजने के लिए कहा जिसे मैंने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया. मेरे लिए यह संभव नहीं था. मैंने भादू जी से अनुरोध किया कि वह समीक्षा को रद्दी की टोकरी के हवाले कर दें और किसी अन्य से लिखवा लें जो पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं/रचनाकारॊं की अलोचना न करे.

रचना समय के पाठकों के लिए प्रस्तुत है वह समीक्षा .

*****

समीक्षा
सम्बोधन - इतिहास रचती पत्रिका
रूपसिंह चन्देल
हिन्दी में ‘सम्बोधन’ एक ऐसी पत्रिका है जो निरंतरता और स्तरीयता का निर्वहन करती हुई अपने जीवन का अर्द्ध शतक पूरा करने के निकट है . इसके संस्थापक - सम्पादक (अब सलाहकार सम्पादक) कमर मेवाड़ी के प्रयास श्लाघनीय और नमनीय हैं . पत्रिका के अनेकों विशेषाकों का गवाह रहा हिन्दी साहित्य समाज इस बात का भी साक्षी है कि पत्रिका ने कभी साहित्यिक राजनीति को प्रश्रय नहीं दिया . हिन्दी में इसे हम अपवाद कह सकते हैं . यह सर्वविदित है कि लघु-पत्रिकाएं हों या व्यावसायिक --- सभी के अपने गुप्त घोषणा-पत्र ओर प्रतिबद्धताएं हैं या रही हैं . लेकिन कमर मेवाड़ी एक मात्र ऐसे सम्पादक हैं जिनकी प्रतिबद्धता केवल रचना रही है . मेरा मानना है कि किसी पत्रिका का स्वरूप न केवल सम्पादक की वैचारिकता , उसके सामाजिक - राजनैतिक आदि सरोकारों को प्रकट करता है , बल्कि वह उसकी वैयक्तिकता को भी उद्घाटित करता है . कमर मेवाड़ी व्यक्ति और सम्पादक - दोनों ही रूपों में प्रशंसनीय हैं . लेकिन मेरा उद्देश्य सम्पादक के गुण-विशेषताओं के साथ ही पत्रिका के जुलाई-सितम्बर , 2009 अंक पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना भी है . इस अंक में विरिष्ठ कथाकार चित्रा मुद्गल का साक्षात्कार , कहानी , कविता , आलेख , गजलें ..... अर्थात् बहुविध सामग्री को प्रस्तुत किया गया है .
चित्रा मुद्गल से बातचीत से पहले कमलेश भट्ट कमल ने उनका संक्षिप्त परिचय दिया है , जिसकी आवश्यकता नहीं थी . बातचीत में चित्रा जी अपने स्वभावनुसार खुलकर बोली हैं . इसने मुझे कभी ‘पश्यंती’ में प्रकाशित उनके आलेख ‘हिन्दी साहित्य का दलाल स्ट्रीट ’ की याद ताजा कर दी . चित्रा जी के पास भाषा की आभिजात्यता है और है मंजा हुआ शिल्प . अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता संबन्धी प्रश्न में वह कहती हैं - ‘‘क्योंकि समाज-सरोकारी अभिव्यक्ति का समूचा संघर्ष , मनुष्यता का हनन करने वाली मनुष्य की ही पाशविक प्रवृत्तियों के विरुद्ध मोर्चा खड़ा करने और मनुष्य के मर्म की शल्य-क्रिया कर उसे जगाने का उपक्रम है . इधर सम-कालीन कथा-साहित्य में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जो अनायास लेखकों की सामाजिक प्रतिबद्धता के प्रति संशय उत्पन्न करता है -- - लेकिन तब क्या किया जाए जब क्रांतिधर्मा लेखक की समाजधर्मी प्रतिबद्धता सहसा देहधर्मी विमर्श में परिवर्तित हो , एकमात्र उसीके इर्द-गिर्द सिमट कर स्वयं को नितांत नई सोच के प्रवक्ता के रूप में साहित्य के इतिहास में दर्ज कराने के प्रलोभन के चलते साहित्य को कोकशास्त्र बनाने की छूट लेने पर उतर आए ? जाहिर है लेखकीय स्वतंत्रता का अर्थ सामाजिक प्रतिबद्धता से विमुख होना नहीं है .’’

इस बातचीत पर केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि चित्रा मुद्गल ने कुशलता और सार्थकता के साथ ऐसे उत्तर दिए हैं कि साक्षात्कर्ता के प्रश्नों की सामान्यता खटकती नहीं है .

पत्रिका की पहली रचनाकार हैं सुजाता जो पंजाबी की धरती से हिन्दी-साहितय को समृद्ध कर रही हैं . उनकी कविताओं की सहजता , जीवन से उनकी संबद्धता और प्रकृति के प्रति उनका आकर्षण उन्हें महत्वपूर्ण बनाता है . ‘दोस्ती’ , ‘एक उदास कुआ ’ , ‘ऐलान ’ , ‘सपने’ , और ‘कलेण्डर और तस्वीर’ के माध्यम से कवयित्री की रचनात्मकता को परखा जा सकता है . ‘प्रसंगवश’ स्तंभ के अंतर्गत डॉ० सूरज पालीवाल साहित्य के माध्यम से समाज , राजनीति आदि की पड़ताल करते हैं . साहित्य समीक्षा पर उनकी टिप्पणी ध्यानाकर्षित करती है . वह कहते हैं - ‘‘कथा समीक्षा की दयनीयता का रोना आम बात हो गई है --- यह हर युग में होता आया है कि अपने समय के रचनाकार अपने आलोचकों से प्रसन्न नहीं रहे . .......फर्क सिर्फ इतना है कि उस समय का पानी थिर गया है , कुछ अच्छी चीजें सामने आ गई हैं लेकिन आज जो लिखा जा रहा है उसका मूल्यांकन होना बाकी है . समय अपने आप मूल्यांकन करेगा ...... पत्रिका के सम्पादकों को इस दिशा में और अधिक ध्यान से लिखाने और प्रेरित करने की आवश्यकता है .’’

डॉ० पालीवाल की बात सही हो सकती है , लेकिन उन्हें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि आज के समीक्षक - आलोचक कल जैसे नहीं रहे . आज के आलोचक- समीक्षक और सम्पादक सत्ता और सुविधा के पीछे भागने लगे हैं -- एक-दो को छोड़कर . बहुत-सा अच्छा साहित्य कबाड़ के नीचे दबा दिया जाता है . स्तरहीन रचनाओं की धुंआधार चर्चा की जाती है . चर्चा के लिए तंत्र-मंत्र और छद्म तरीकों का सहारा लिया जाता है . ( हाल में एक स्वनामधन्य लेखक ने ऎसा ही किया था .) सम्पादक अपने चहेते लेखक की एक पुस्तक की एक ही अंक में कई समीक्षाएं प्रकाशित करते हैं. जब अच्छी पुस्तकों पर चर्चा ही न होगी तब उसके मूल्यांकन की बात करना थोथे तर्क के अतिरिक्त कुछ नहीं है .

समीक्ष्य अंक में विष्णु प्रभाकर पर वेदव्यास का बड़े व्यक्तित्व पर छोटा आलेख है . आलेखों में मूलचंद सोनकर का आलेख - ‘क्या दलित विमर्श सामाजिक परिवर्तन की बात करता है ?’ एक उल्लेखनीय आलेख है . लेखक के तर्क ठोस और वियारणीय हैं . उनका यह कथन - ‘‘अपने तमाम वैचारिक प्रतिपादन , धारदार संघर्ष और दलितों की समस्या के समाधान के लिए (यद्यपि आंशिक ही सही ) संवैधानिक प्रावधान करने वाले डॉ० आम्बेडकर अंततोगत्वा बौद्धधर्म में दलितों का उद्धार क्यों देखने लगे ? मुझ जैसे धर्म-निरपेक्ष व्यक्ति को यह प्रश्न बहुत परेशान करता रहता है . लेकिन समस्याओं का अलौकिक समाधान हो ही नहीं सकता और न धर्म से तार्किक नैतिक साहस ही पैदा किया जा सकता है . - - - मुझे लगता है कि डॉ० आम्बेडकर द्वारा बौद्धधर्म अपनाना एक थके हुए योद्धा का विश्राम था .’’ महत्वपूर्ण है .

मिथलेश्वर का आत्मकथांश सम्बोधन के स्वस्थ शरीर में कोढ़ की भांति है . लेखक को विश्व-साहित्य की कुछ आत्मकथाएं अवश्य पढ़नी चाहिए थीं और यदि वह संभव न था तो डॉ० हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा ही पढ़ लेते . वैसे मैं यह मानने को तैयार नहीं कि उन्होंने उसे पढ़ा नहीं होगा . लेखक जब जिद के तहत लिखता है तब उससे अच्छे साहित्य की अपेक्षा नहीं की जा सकती , लेकिन उसे यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि वह पाठकों को दे क्या रहा है और साहित्य में वह कहां खड़ा होगा . पिछले दिनों भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनके उपन्यास ‘सुरंग में सुबह ’ ने यह सिद्ध कर दिया था कि लेखन के प्रति अब वह गंभीर नहीं रहे .

डॉ० श्री भगवान सिंह ने ‘स्त्री मुक्ति विमर्श और महादेवी वर्मा का गद्य साहित्य ’ विषय को सार्थकतापूर्वक प्रतिपादित किया है .

पत्रिका की अन्य उल्लखनीय रचनाओं में हुस्न तबस्सुम ‘निहां’ की कहानी ‘भीतर की बात है ’ है , जो ग्राम्य जीवन को खूबसूरती से उद्घाटित करती है . लेकिन नसरीन बानू की कहानी ‘छौंक की खुशबू ’ बड़े घटनाक्रम को छोटे कलेवर में समेटने में सक्षम नहीं हो पायी . लेखिका ने जिस विषय को विवेचित करना चाहा है वह न केवल मार्मिक है , बल्कि सामाजिक विद्रूपता और विषमता का नग्न स्वरूप प्रकट करता है , लेकिन उसकी व्यापकता लेखिका से एक उपन्यास की अपेक्षा करती है . संभव है यह कहानी लेखिका के आगामी उपन्यास की प्रस्तावना हो ! इसके अतिरिक्त प्रो० फूलचंद मानव , मनोज सोनकर , सुरेश उजाला , मधुसूदन पांण्ड्या और रामकुमार आत्रेय की कविताएं , डॉ० मनाजि़र आशिक हरगानवी , शकूर अनवर , और शेख अब्दुल हमीद की गजलें पठनीय हैं . त्रिलोकी सिंह ठकुरेला की लघुकथा ‘दोहरा चरित्र ’ भी ध्यानाकर्षित करती है .

कुल मिलाकर सम्बोधन’ का यह अंक एक - दो रचनाओं को अपवाद स्वरूप छोड़कर अपनी परम्परा का निर्वहण करता है और महत्वपूर्ण है , जिसके लिए कमर मेवाड़ी की प्रशंसा की जानी चाहिए .

‘सम्बोधन
’सलाहकार सम्पादक - कमर मेवाड़ी
कांकरोली- 313324
जिला - राजसमंद
राजस्थान

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

कविता



निशा भोंसले की कविताएं

भूख

भूख की आग से
तेज होती है
जंगल की आग

भूख की आग
जिन्दगी जलाती है

और

जंगल की आग
सभ्यता को।
****
घरौंदा
लड़की
बनाती है
घरौंदा रेत का
समुंदर के किनारे
बुनती है सपने
सपने सुनहरे भविष्य के

घरौंदे के साथ
चाहती है समेटना
रेत को
अपनी मुठ्ठियों में
बांधती है सपने को
घरौंदे के साथ

टूटता है बारबार
घरौंदा
अपने आकार से

लड़की सोचती है
रेत/घरौंदा और
सपनों के बारे में
टूटते है क्यूं ये सभी
बारबार जिन्दगी में।
****


गठरी में बंधी साडि़यों के अनेक रंग

वह औरत
कपड़ों का गठ्ठा लिये
रिक्शे में
घूमती है/शहर के
गली मोहल्ले में
देती है दस्तक
घरों के दरवाजे पर
मना करने के बावजूद
दिखाती है गठरी खोलकर
साडि़यां

कश्मीरी सिल्क, कोसा सिल्क,
बंगाल और साउथ इंडिया की

बैठ जाती है
घर की चैखट पर
बताती रहती है
साडि़यों के बारे में

कभी थक जाती है
धूप में चलकर
कभी उसके कपड़े
गीले हो जाते है पसीने से
कभी उसका गला
सूख जाता है प्यास से

वह फिर भी रुकती नहीं
निकल जाता है/रिक्शावाला
कहीं उससे आगे
वह फिर से तेज चलती है
देती है आवाज
गली मोहल्ले में

शाम को लौटती है/घर
थकी हारी
गठरी को लादकर

रात में
जब वह सोती है
झोपड़ी में
मिट्टी के फर्श पर निढाल

उसकी फटी साड़ी में
सिले होते हैं
अनेक साडि़यों के टुकड़े
जिसमें होते हैं
गठरी में बंधी साडि़यों के
अनेक रंग।
****
निशा भोसले


रायपुर (छत्तीसगढ़) में जन्मी निशा भोसले ने समाजशास्त्र में एम.ए. किया है.
*अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित.
*उदंती डाट काम, लोकगंगा, एवं ई पत्रिका में सक्रिय।

संपर्क : शुभम विहार कालोनी
बिलासपुर छ0ग0