शनिवार, 19 नवंबर 2011

धारावाहिक उपन्यास

’गलियारे’
(उपन्यास)
रूपसिंह चन्देल
चैप्टर - ४१ से ४६


(41)

प्रीति के जाने के बाद सुधांशु के अंदर बवण्डर उठता और शांत होता रहा। जब वह पिछले दिन की बात सोचता उत्तेजित हो उठता, लेकिन कुछ देर बाद विचार उठता, ''मेरा भ्रम भी हो सकता है। मीणा आया, यह प्रीति ने स्वीकार किया...हालांकि सीधे तौर पर नहीं, लेकिन उसने उसके साथ संबन्ध बनाए यह उसने स्वीकार नहीं किया। मेरी आशंका पर उत्तेजित होकर वह चीखी....मुझे गालियां दी। नृपेन मजूमदार की बेटी...एक अपर सचिव की बेटी...जिसे अपने संस्कारों पर गर्व था....आखिर उत्तेजित हुई ही क्यों!' धीरे-धीरे शांत होते मन में यह प्रश्न पुन: भूचाल उत्पन्न कर देता, 'देहाती कहावत है...काने को काना मत कहो....वह आसमान सिर पर उठा लेता है। कहते हैं चोरी पकड़ी जाने पर चोर दो में से एक रास्ता अपनाता हैं। या तो वह चुप्पी साध लेता है और यूं प्रदर्शित करता है कि वह भोला-सरल है और सामने वाले को ऐसा बनकर प्रभावित करने का प्रयत्न करता है। सफल भी होता है। दूसरा रास्ता होता है अपने को सही सिध्द करने का......चीख-चिल्लाकर आसमान सिर पर उठाना और आरोप लगाने वाले को ही गलत सिध्द करना। यदि मनोवैज्ञानिकों से पूछा जाये तो वे शायद कहेंगे कि निर्दोष न कभी चुप्पी साधता है और न ही चीखता है। अर्थात दोंनो ही स्थितियां असामान्यता सिध्द करती हैं और उसके चोर अर्थात गलत होने को ही प्रमाणित करती हैं। जबकि जिसने कुछ किया ही नहीं होता वह सामान्य रहता है। न उत्तेजित होता है और न ही चुप।'
'लेकिन यह भी संभव है।' उसने आगे सोचा, 'झूठे आरोप से व्यक्ति उत्तेजि हो उठे....हो सकता है मैं गलत ही रहा होऊं। प्रीति इसीलिए उत्तेजित हो उठी हो। उत्तेजना में व्यक्ति विवके खो देता है।'
देर तक यही स्थिति रही उसकी।
'फिर मैं क्या करूं! जाऊं.....संबन्धों को एक-ब-एक समाप्त करना बुध्दिमानी नहीं....अभी जीना प्रारंभ भी नहीं हुआ....यदि प्रीति से गलती हुई है और यह गलती अनजाने हुई है....वह यह मान लेती है और भविष्य में वैसी गलती न करने का वचन देती है तो....।'
ल्ेकिन विचार ने तुरंत पलटा खाया, 'तुमने देखा क्या है जो यह सोचने लगे कि प्रीति से गलती हुई ही है। यह प्रश्न ही उठाना अपने आप में मूर्खता है।' अंतत: लंबी जद्दो-जहद के बाद उसने होटल से चेक आउट करने का निर्णय किया। चेक आउट करना ही था, लेकिन वह इसे शनिवार तक के लिए टाल रहा था। शनिवार वह कहीं मकान देखना चाहता था।
जब वह फ्लैट में पहुंचा आठ बज चुके थे। प्रीति घर में थी। उसने सफेद सलवार पर काले रंग का कुर्ता पहना हुआ था। उसके पहुंचते ही पानी देती हुई प्रीति ने पूछा, ''चाय बनाऊं या कोल्ड ड्रिंक लोगे।''
''मेहमान हूं?'' सुधांशु अभी भी अपने को प्रकृतिस्थ नहीं कर पा रहा था। वह ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठ गया था।
''चाय बनाती हूं। मैंने भी अभी तक नहीं पी। तब तक आप कपड़े बदल लें।'' प्रीति किचन की ओर चली गई।
वह देर तक सोचता रहा। बेडरूम में रखी आलमारी में उसके कपड़े थे, जहां जाने से वह बच रहा था, लेकिन सूटकेस में भरे कपड़े न केवल गंदे हो चुके थे बल्कि उनसे पसीने की गंध आ रही थी।
उसने कपड़े बदले और पुन: ड्राइंगरूम में आ बैठा। प्रीति चाय के साथ बिस्कुट भी ले आयी और सामने बैठ गयी।
देर तक दोनों के मध्य संवाद नहीं हुआ। छत पर मंडराते पंखे की ही बीच-बीच में चीं-चां की आवाज सुनाई दे जाती थी। सरकारी फ्लैट्स में पंखे भी सरकारी अर्थात सी.पी.डब्लू.डी. के होते हैं और सरकारी महकमों में....सी.पी.डब्लू.डी. भ्रष्ट महकमों में शीर्ष पर गिना जाता है। लेकिन ऐसा नहीं कि सभी अफसरों के फ्लैट्स के पंखों का वैसा ही हाल होता है। कुछ अधिकारियों के एक फोन पर सी.पी.डब्लू.डी. के कर्मचारी नंगे पांव दौड़ जाते हैं और रेंगता पंखा हो या कुछ अन्य मेण्टीनेंस ....वे उसे तुरंत दुरस्त करते हैं। लेकिन मामला हॉस्टल का था....जिसके प्रति उनका रवैया किसी बाबू के फ्लैट्स जैसा ही रहता है। हां, यदि उसमें रहने वाला अफसर जूनियर होते हुए भी पायेदार तैनाती पर होता है तब वे सिर के बल दौड़ते हैं और काम कर जाते हैं।'
सुघांशु ने उस दिन का अखबार उठा लिया और उसे देखने लगा। उसने एक बार भी प्रीति की ओर नहीं देखा। नहीं देखा यह कहना उचित नहीं। उसने दो बार उसे कनखियों से अवश्य देखा और दोनों ही बार पाया कि प्रीति उसी पर दृष्टि गड़ाए है। 'उसका इस प्रकार देखना यह सिध्द कर रहा है कि वह अपनी सफाई देना चाहती है।' उसने सोचा, 'अब तुम मनोवैज्ञानिक हो रहे हो।'
सुधांशु ने एक बार जो अखबार में दृष्टि गड़ाई तो तभी उठाई जब प्रीति ने उसे बिस्कुट लेने के लिए कहा। उसने एक बिस्कुट उठा लिया और छोटे-छोटे टुकड़े कुतरता हुआ चाय पीता रहा और सोचता रहा कि प्रीति उससे संवाद करने के लिए निश्चित ही शब्द तलाश रही है।
चाय जब समाप्त होने वाली थी, प्रीति बोली, ''चाय है अभी...और लेनी है?''
''नहीं.....।''
फिर कुछ देर की चुप्पी।
''माता जी की तबीयत की कोई सूचना?'' सुधांशु ने देखा यह पूछते समय प्रीति के चेहरे पर लालिमा दौड़ गयी थी। अर्थात बहुत जोर लगाने के बाद उसकी जुबान से यह शब्द निकले थे शायद।
''डाक्टरों ने जवाब दे दिया है। अब वह गांव में हैं।''
''ओह...। आपको फिर....।'' लेकिन आगे प्रीति कुछ नहीं कह पायी, जबकि कहना चाहती थी, 'आपको फिर जाना चाहिए।' सुधांशु ने भी उसके उस अधूरे वाक्य का यही अर्थ लिया। लेकिन बोला नहीं।
''आपको अचानक रिकार्डरूम में क्यों बैठाया गया और जो काम आप देख रहे थे वह भी ले लिया गया।''
''मेरी बला से....मैं भ्रष्टाचार में उनका साथ नहीं दे सकता।''
''भ्रष्टाचार..?''
''प्रधान निदेशक से लेकर चपरासी तक....ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन की बात कर रहा हूं....रिश्वतखोरी में आकंठ डूबे हुए हैं...। और वही क्यों....जिसका दांव जहां लग रहा है....खा रहा है। विकास के नाम पर पूरे देश में भयानक भ्रष्टाचार बढ़ रहा है।'' सुधांशु ने सोचा था कि वह नहीं के बराबर संवाद करेगा और कोशिश करेगा कि संवाद ही न करना पड़े...लेकिन उसका निर्णय लड़खड़ा गया था। वह आश्चर्यचकित था। वैसे वह आश्चर्यचकित तब भी हुआ था जब छात्र जीवन में बचते घूमने के बावजूद प्रीति उसे घेरती थी और वह घिरता रहता था।
रात दोनों उसी चिरपरिचित बिस्तर पर सोये, लेकिन किसी अपरिचित की भांति।
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तार भेजने के एक सप्ताह बाद सुधांशु को पिता का तार मिला, ''स्वास्थ्य वैसा ही...डाक्टरों ने जवाब दे दिया।''
'मुझे जाना ही चाहिए। यदि यहां लाकर एम्स में दिखा दूं तो मन को संतोष होगा। होगा वही जो तय हो चुका है। मर्ज बढ़ चुका है, लेकिन मन में यह कसक नहीं रहेगी कि मैं मां का इलाज नहीं करवा सका। मां ने कितने कष्ट सहे हैं मेरे लिए....दोनों ने ही ...मां ने भी और पिता जी ने भी। आज ही मुझे पी.डी. से मिलना चाहिए। यद्यपि मैं उसकी शक्ल नहीं देखना चाहता, लेकिन....।'
और 'लेकिन' ने उसे अटका दिया। फिर भी वह इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि उसे मिलना ही होगा। वह सीट से उठा और पाल के पी.ए. के पास गया। पी.ए. एक लड़की थी। ...लड़की नहीं पैंतीस वर्षीया महिला। पी.ए. ने कहा, ''सर, अभी पी.डी. सर मीटिंग में हैं...मैं पूछकर आपको बता दूंगी।''
सुधांशु अपनी सीट पर लौट आया और पी.डी. द्वारा बुलाये जाने की प्रतीक्षा करता रहा, लेकिन उस दिन पाल ने उसे नहीं बुलाया। दूसरे दिन वह पुन: पी.ए. से मिला। पी.ए. ने उसे बैठाया और पाल के पास पूछने गयी। लौटकर बोली, ''सर ने कहा है कि आप पांच मिनट के लिए मिल सकते हैं।''
''पांच मिनट के लिए...।'' सुधांशु बुदबुदाया और सोचने लगा, 'पाल मुझे अपमानित करने का कोई भी अवसर छोड़ना नहीं चाहता।'
''ओ.के.।''
पाल ने सुधांशु के गुडमार्निंग का उत्तर न देकर कड़क आवाज में पूछा, ''किसलिए मिलना चाहते थे मिस्टर दास?''
''सर, मुझे एक सप्ताह का अवकाश चाहिए....मां को लाकर एम्स में दिखाना चाहता हूं। उन्हें कैंसर है।''
''कैंसर...उसका इलाज कहीं नहीं है। अपना और दफ्तर का समय नष्ट करेंगे आप और अपना पैसा भी...मुझे आपको यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं मिस्टर दास कि जल्दी ही 'हिन्दी संसदीय समिति' यहां आने वाली है। आपको काम की कतई चिन्ता नहीं है। नहीं है तो आप रिजाइन क्यों नहीं कर देते....इत्मीनान से जाइये घर और करवाइये मां का इलाज।'' पाल का स्वर और अधिक रूखा हो उठा था, ''अवकाश नहीं मिलेगा।''
सुधांशु ने एक शब्द भी नहीं कहा और पाल आगे कुछ कहता उससे पहले ही वह उसके चेम्बर से बाहर निकल आया। उसका चेहरा लाल था और लग रहा था कि वह रो देगा। गैलरी पार करते और ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां चढ़ते हुए उसे आंखों के सामने धुंधलका-सा प्रतीत होता रहा। एक सीढ़ी पर उसके पैर लड़खड़ाये भी। सीट पर पहुंंच वह आंखें बंद कर कुर्सी पर उढ़क गया और देर तक उढ़का रहा। उसे प्यास लग रही थी। रिकार्ड रूम में बाहर की अपेक्षा गर्मी अधिक थी। खिड़की से आती हवा गर्म थी। वह देर तक आंखें बंद किये बैठा सोचता रहा, 'कितना क्रूर है पाल...पाल ही क्यों इस विभाग के रक्त में ही क्रूरता व्याप्त है। और यहीं क्यों दूसरे विभाग भी अछूते नहीं हाेंगे...सर्वत्र एक-सी स्थिति है। अंग्रेज गये, लेकिन उनसे विरासत में मिली क्रूरता घटने के बजाय बढ़ी है। आज ही अखबार में था कि दो पुलिस वालों ने एक छोले-भठूरे वाले का ठेला इसलिए पलटकर उसके सामान को बिखरा दिया, क्योंकि पहले उसने उन्हें मुफ्त में छोले-भठूरे देने से इंकार किया फिर हफ्ता देने से। अब सिपाही हफ्ता नहीं....ठेले वालों से प्रतिदिन उगाही करते हैं। सड़क के किनारे-पटरी पर बैठने वाले ...गली मोहल्ले में फेरी लगाने वालों से पुलिस पैसे वसूलती है। सड़क पर ट्रैफिक पुलिस चालान काटने के बजाय अपनी जेब गर्माती है। उन्हें प्रतिमाह एक निश्चित रकम अपने उच्चाधिकारियों को पहुंचानी होती है, जिसका एक हिस्सा मंत्री जी के खाते में जमा होता है। अधिसंख्य मंत्री भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैें। छोटभैय्या नेता तक कमाने में लगे हुए हैं। और नेता ....वही बन सकता है जिसके खाते में कुछ अपराध ...हत्या-बलात्कार-लूट-खसोट दर्ज होते हैं। उन्हीं में से ही तो मंत्री बनते हैं।.... फिर पाल जैसे क्यों चूकें....इनकी चाकू हमारे जैसों की गर्दनों पर ही चलती है।'
''सर...यह फाइल...।'' इंस्पेक्शन सेक्शन के सेक्शन अफसर की आवाज से सुधांशु चौंका। सेक्शन अफसर उसके चेहरे की रंगत देख परेशान था।
सुधांशु ने हाथ के संकेत से फाइल मेज पर रखने के लिए कहा। फाइल रख सेक्शन अफसर वापस जाने के लिए मुड़ा तो भर्राये स्वर में सुधांशु बोला, ''मिस्टर वर्मा, किसी से कहें कि मेरा पानी का जग भर दे...।''
''सर, जग मुझे दे दीजिए।'' वर्मा ने हाथ बढ़ाया।
''आप नहीं.......।''
''कोई बात नहीं सर...मैं पानी मंगवा देता हूं।''
सुधांशु ने जग वर्मा की ओर बढ़ा दिया।
''सर, गिलास भी दे दीजिए....साफ करवा दूंगा।''
गिलास लेने के बाद वर्मा ने पूछा, ''सर, चाय लेंगे? कैण्टीन वाला लड़का इधर ही है।''
''लेना चाहूंगा।''
''मैं उसे इधर ही भेजता हूं। तब तक पानी मंगवा देता हूं।''
कैण्टीन का चायवाला नेपाली लड़का किसन एक कप थामे हुए आया और, ''सर चाय।'' कहता हुआ उसकी मेज पर चाय का कप रखकर खड़ा हो गया। सुधांशु ने धन्यवाद कहा तो किसन ससंकोच बोला, ''सर, कुछ लेंगे..समोसा बहुत अच्छे हैं....ब्रेड पकौड़े भी हैं।''
''नहीं.....शुक्रिया।''
किसन वापस लौट गया। वर्मा ने अपने सेक्शन के रिकार्ड क्लर्क से पानी भेजवा दिया था। पानी पीने के बाद सुधांशु को लगा कि उत्तेजना कुछ शांत हुई है। वह चाय पीता रहा और सोचता रहा, 'ऐसे कब तक चलेगा सुधांशु...यह जल्लाद...यह पाल मुझे हलाल करने पर तुला हुआ है। यह मेरा भविष्य बरबाद कर देगा....मेरी गोपनीय रपट खराब कर देगा...। मैंने इसलिए नहीं रात-दिन एक करके आई.ए.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की थी....कि मैं सारी जिन्दगी सहायक निदेशक ही बना रहूं। विभाग में एक-दो मामले ऐसे हैं...जो अपने वरिष्ठों की हां-हुजूरी नहीं करते...कम से ऐसे वरिष्ठाें की जो भ्रष्ट हैं और उसकी सजा वे भुगत रहे हैं। अमित कपूर और सुहास बनर्जी के मामले इसी विभाग के हैं...दोनों की जिन्दगी बदबाद कर दी उनके सीनियर्स ने। दोनाें अपने समय के ब्रिलियंट छात्रों में थे....नौकरी में भी उनके रिकार्ड अच्छे थे, लेकिन फंस गये पाल जैसों के अधीन....मेरी ही जैसी स्थिति में और आज उनके साथ के.....उनके बैच के लोग निदेशक बने बैठे हैं। निदेशक ही नहीं वरिष्ठ निदेशक और वे दोनों संयुक्त निदेशक से आगे नहीं बढ़ पा रहे। डी.पी.सी. (डिपार्टमेण्टल प्रमोशन कमिटी) में उनके नामों पर विचार ही नहीं किया जाता। कपूर ने कैट में केस भी डाल रखा है। इसे कपूर की अनुशासनहीनता मानकर विभाग ने उनके खिलाफ दूसरे मामले तैयार कर दिए हैं। और सुहास बनर्जी...उन्होंने अपना मानसिक संतुलन ही खो दिया है। तो यह पाल मुझे भी वैसी ही स्थिति में पहुंचा दे...उससे पहले मुझे 'के' ब्लॉक से निकल जाना चाहिए। लेकिन कैसे....?'
'यदि मैं अपने स्थानांतरण की अर्जी देता हूं तो यह पाल के पास ही भेजी जायेगी। उसकी टिप्पणी उस पर दर्ज होगी और कभी भी मेरे अनुकूल नहीं होगी। दूसरा विकल्प है कि स्थानांतरण के लिए मैं महानिदेशक रामचन्द्रन से मिलूं....लेकिन ऐसे मामलों में महानिदेशक से मिलने के लिए पाल से ही अनुमति मांगनी होगी। यदि मैं पी.ए. के माध्यम से एक अधिकारी होने के नाते महानिदेशक से मिल भी लूं और अपनी बात कह भी दूं तब वह उलट पूछ लेंगे कि मुझे 'के' ब्लॉक में ज्वायन किए अधिक समय नहीं हुआ, फिर स्थानांतरण क्यों मांग रहा हूं। कारण बताउंगा तब वह निश्चित ही पाल से पूछेंगे और पाल को मेरे विरुध्द एक और धारदार औजार हाथ लग जायेगा। महानिदेशक स्थानांतरण के लिए मंत्रालय को मेरी अर्जी रिकमेण्ड करेंगे यह गारण्टी नहीं, लेकिन पाल अनुशासनहीनता के लिए मुझ मेमो थमा देगा, जिसकी प्रविष्टि मेरी निजी फाइल में भी दर्ज होगी। और मेरी वार्षिक गोपनीय रपट खराब करने के लिए उतना ही पर्याप्त होगा।'
'कितना दुर्वह है जीवन' उसने दीर्घ निश्वास ली और वर्मा द्वारा लायी फाइल देखने लगा, जिसमें सप्ताह भर की डाक की रिसीप्ट और डिस्पैच मात्र दिखाई गयी थी। पांच मिनट लगे उसे फाइल देखने और हस्ताक्षर करने में।
वह पुन: सोचने की प्रक्रिया में आने ही वाला था कि नीचे से एक चपरासी आया, ''सर, श्रीवास्तव जी के पी.ए. के पास अपाका फोन है।''
सुघांशु हड़बड़ाकर उठा। 'फोन पिता जी का होगा....अवश्य कुछ अशुभ समाचार होगा। मैंने श्रीवास्तव के पी.ए. का ही नंबर दिया था और पी.ए. को भी कह दिया था...।' वह तेजी से सीढ़ियां उतरता श्रीवास्तव के पी.ए. के कमरे में....कमरा कहना उचित नहीं होगा उसे....एक कमरे को प्लाई वुड से पार्टीशन करके पी.ए. के लिए छोटा-सा केबिन बना दिया गया था। केबिन इतना छोटा था कि पी.ए. की मेज कुर्सी ही बमुश्किल वहां समा सके थे। किसी अन्य के बैठने की गुजांइश नहीं थी, जबकि पाल के पी.ए. का कमरा एक बड़ा हॉल था, जिसे भी प्लाईवुड से पार्टीशन करके दो हिस्सों में बांटा गया था। दरवाजे से घुसते ही विजिटर्स के लिए बड़ा-सा सोफा था और उसके और पी.ए. के हिस्से के बीच पर्दा लहराता था। फर्श पर जे.डी. के कमरे से निकली हुई कॉलीन बिछी थी।
''सर......आप इधर आ जायें।'' पी.ए. विनम्रतापूर्वक केबिन से बाहर निकल आया।
फोन विराट का था।
'सुधांशु जी...आज शाम सात बजे मेरे यहां आ जाओ....आना अवश्य... मैं जल्दी में हूं...। सुकांत दिल्ली में है। सात बजे मेरे यहां आ रहा है। मैं ऑफिस से बोल रहा हूं।''
सुधांशु कुछ कहता उससे पहले ही विराट ने फोन काट दिया। वह क्षणभर के लिए द्विविधा में रहा, लेकिन जिस मानसिक संताप में वह जी रहा था उससे कुछ समय के लिए ही सही मुक्ति के लिए उसने विराट के यहां जाने का निर्णय लिया और श्रीवास्तव के पी.ए. से बोला, ''आप एक कष्ट करियेगा....मुख्यालय में प्रीति दास को फोन करके कह दीजिए कि मैं आज रात ग्यारह बजे तक घर पहुंचूंगा...एक मित्र के यहां जाउंगा।''
''जी सर।''
दिल्ली आने के बाद विभाग के अधिकारियों से वह सामंजस्य बैठा नहीं पाया था और अन्य लोगों से उसका परिचय नहीं था। रविकुमार राय अत्यधिक व्यस्त रहता था इसलिए उससे वह अब तक मात्र दो बार ही मिला था। वह घूम-फिरकर साहित्य की दुनिया में ही त्राण खोजने का प्रयत्न करता, लेकिन वर्तमान स्थिति में लिखना-पढ़ना असंभव हो गया था। विराट से बात कर उसे सुकून मिलता था, इसलिए सुकांत के आने के समाचार से उसने अधिक न सोच लक्ष्मीनगर जाने का निर्णय कर लिया था।
उस रात जब सुधांशु प्रगतिविहार हॉस्टल पहुंचा बारह बजकर दस मिनट हुए थे। वह नशे में धुत था और उसके पैर लड़खड़ा रहे थे। उस दिन पहली बार प्रीति को सुधांशु के मुंह से शराब की गंध आयी, लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। अधिक कुछ कहने की स्थिति सुधांशु ने बनने ही न दी थी। वह वहां रहने तो आ गया था, लेकिन दोनों के संबन्ध पहले जैसे नहीं रहे थे। तनाव था और उस तनाव ने दोनों के मध्य निर्वाक दूरी बना रखी थी। प्रीति ने दूरी मिटाने के संकेत दिए, लेकिन सुधांशु ने उस ओर ध्यान नहीं दिया। प्रीति स्पर्श के लिए तरसती रही और सुघांशु उदासीन बना रहा।
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(42)
एक सप्ताह बीत गया। तनाव बरकरार रहा घर-दफ्तर ...दोनों स्थानों में। प्रीति से नहीं के बराबर संवाद होता था सुधांशु का। मां के समाचारों के लिए वह तरस रहा था। वह प्रतिदिन पिता जी के फोन और तार का इंतजार करता लेकिन कुछ भी नहीं आ रहा था। हिन्दी संसदीय समिति के आने के दिन निकट आ रहे थे। कार्यालय की साफ-सफाई शुरू हो गयी थी। वह ऊपर बैठता था, लेकिन खिड़की से सब देख पा रहा था। नई कालीनें खरीदी जा रही थीं। उसे स्पष्ट था कि पुरानी कालीनों को छोटे अधिकारियों के कमरों में सटा दिया जाएगा। पी.सी. (पार्लियामेण्ट कमिटी) के लिए आठ लाख का बजट सैंक्शन हुआ था, यह बात हिन्दी अधिकारी ने उसे बताया था, ''खर्च चार से अधिक का नहीं है....शेष का क्या होगा ईश्वर ही जानता है सर।' हिन्दी अधिकारी मुदित शर्मा ने कहा तो वह मुस्कराकर बोला, ''आपके कार्याकाल में कितनी बार पीसी यहां आयी है?'
''सर दूसरा अवसर है।''
उसने कुछ नहीं कहा। वह शर्मा को भी संदेह से परे नहीं मानता था। उससे कुछ भी एप्रूव होने के बाद शर्मा स्वयं पहले श्रीवास्तव और फिर पाल के पास ले जाता था। वह उन स्वामिभक्त अधिकारियों में था जो उच्चाधिकारी के संपर्क में बने रहने में गर्व अनुभव करते हैं। पाल के दो मीठे वचन उसके लिए शंकराचार्य के उपदेश से कम नहीं होते और सप्ताह ही नहीं महीने भर तक उसका चित्त प्रसन्न रहता है।
शर्मा ने अंग्रेजी में गुड सेकण्ड डिवीजन में आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. किया था। उसे अपने अंग्रेजी-हिन्दी ज्ञान पर गर्व था। उसकी हस्तलिपि अच्छी थी और उसे लगता कि पी.डी. उससे प्रसन्न था। इस बात की चर्चा वह कितनी ही बार अपने सहयोगियों से कर चुका था, ''पी.डी. सर ने पीठ थपथपाते हुए कहा कि तुम हिन्दी के विकास के लिए उल्लेखनीय कार्य कर रहे हो शर्मा।''
पी.डी. ने एक बार उससे ऐसा कहा था। यदि उसने लिखकर दिया होता तब निश्चित ही शर्मा उसे फ्रेम करवाकर अपने ड्राइंगरूम में रख लेता।
शर्मा फूले चौड़े गालों वाला मध्यम कद का सांवला पचपन साल के आस-पास का एक गदबदा व्यक्ति था, जिसने विभाग में ऑडिटर अर्थात यू.डी.सी. के रूप में प्रवेश किया था, लेकिन उसे क्लर्की में आनंद नहीं आ रहा था। वह कुछ बौध्दिक काम करना चाहता था, विभाग में उसकी गुंजाइश नहीं थी। लेकिन तभी उसने एक सर्कुलर देखा जिसमें विभाग में अनुवादकों के लिए आवेदन मांगे गये थे। शर्मा ने आवेदन किया और चुना गया। कुछ दिन तक मुख्यालय में कनिष्ठ फिर वरिष्ठ अनुवादक के रूप में काम करने के बाद प्रमोशन पर उसे 'के' ब्लॉक भेज दिया गया। उसने प्रारंभ से ही नौकरी की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष शर्तों को समझ लिया था और उनके पालन का प्रयत्न करता था। वह मुरादाबाद का रहने वाला था और नि:संतान था और संतानहीनता की ग्रंथि का शिकार था। उस ग्रंथि के कारण उसे दूसरे का कुछ भी अच्छा चुभने लगता था, लेकिन प्रकट में वह उसकी प्रशंसा के लिए शब्दकोष के अलंकृत शब्द खोज लेता। परन्तु जब भी अवसर देखता उसकी बुराई करने में नहीं चूकता था और उस खूबसूरती के साथ कि जिस व्यक्ति से उस प्रशंसित की बुराई करता उसे यह भ्रम रहता कि शर्मा उस व्यक्ति की बुराई कर रहा था, तटस्थता दिखा रहा था या प्रशंसा कर रहा था।
यद्यपि सुधांशु को शर्मा के विषय में अधिक जानकारी नहीं थी....वास्तव में उसे उस कार्यालय के लोगों के विषय में ही जानकारी नहीं थी और न ही उसे इसमें रुचि थी, लेकिन अनुभव से उसने जाना था कि यदि बिना पूछे ही कोई किसी से दूसरे के विषय में नकारात्मक चर्चा करता है या रहस्यमय प्रश्न उछालता है, जैसा कि शर्मा ने उसके सामने पार्लियामण्टरी कमिटी के लिए प्राप्त राशि को लेकर उछाला था तब उस व्यक्ति से सावधान रहना चाहिए। उसके यह कहने पर, ''आपके लिए यह सब पहेली नहीं होना चाहिए शर्मा जी।' शर्मा का चेहरा उतर गया था।
शर्मा के वापस जाने के बाद सुधांशु सोचने लगा, 'यह व्यक्ति निश्चित ही पी.डी. का जासूस होगा....भले ही पीडी ने इसे मेरी जासूसी के लिए नियुक्त नहीं किया हो, लेकिन इसे मेरी स्थिति की जानकारी है और अपने नंबर बढ़ाने के लिए मेरी प्रतिक्रिया को नमक मिर्च लगाकर वह पाल से कह सकता है। आजकल वैसे भी यह अधिक ही उससे मिलता रहता है।'
'मुझे सभी से सावधान रहना चाहिए।'
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उस रात डिनर के बाद जब सुधांशु अखबार पढ़ने लगा, क्योंकि सुबह पूरा अखबार वह नहीं पढ़ पाता था, उस समय प्रीति उसके सामने सोफे पर आ बैठी। उसके हाथ में कुछ फाइलें थीं जिन्हें वह मेज पर रखे बैग में रखती रही। फाइलें रखने के बाद पांच मिनट तक वह चुप अखबार पढ़ते सुधांशु को देखती रही। सुघांशु ने समझ लिया कि वह उसे देख रही है। पांच मिनट बाद वह बोली, ''कल सुबह की फ्लाइट से मुझे टुअर पर कलकत्ता जाना है।''
''ओ.के.।'' सुधांशु बोला और अखबार पढ़ने लगा।
''आज ही डी.जी. सर ने वहां जाकर वहां के कार्यालय के कंप्यूटराइजेशने के लिए सर्वे करने के लिए कहा था।'' वह सफाई देने लगी।
''हुंह।''
संवाद यहीं समाप्त हो गया। प्रीति तैयारी में लग गयी। सुबह पांच बजे स्टॉफ कार आकर उसे ले जाने वाली थी। छ: बजे एयर पोर्ट पर रिपोर्टिंग थी और सात बजे इंडियन एयरलांइस की फ्लाइट।
अगले दिन सुबह सुधांशु ने रिकार्ड सेक्शन के बाबू को बुलाकर कहा, ''जितने भी ऑफिस आर्डर मुख्यालय से आया करें उन्हें एक फोल्डर में डालकर पहले मुझे दिखा दिया करो उसके बाद पी.डी. के पास भेजा करो।''
''सर, यदि किसी अफसर के नाम से कोई लिफाफा हो ....।''
''केवल वही डाक मुझे दिखाओ जो आप खोलकर पी.डी. के पास भेजते हो। किसी के नाम से आए लिफाफे खोलने के लिए आपको नहीं कह रहा हूं।''
''जी सर।''
रिकार्ड सेक्शन में दिन भर डाक आती थी और पी.डी. के आदेशानुसार दिन में दो बार उसका वितरण किया जाता था। सुबह आने वाली डाक बारह बजे से साढ़े बारह बजे और दोपहर बाद की डाक तीन से चार बजे के मध्य पी.डी. यानी पाल को प्रस्तुत की जाती थी।
''सर, एक निवेदन है...आप डाक जल्दी देख लिया कीजिएगा....पी.डी. सर डाक समय से न पहुंचने पर मुसीबत खड़ी कर देते हैं।''
''ठीक है।''
सुबह की डाक बारह बजे सधांशु को प्रस्तुत की गई, जिसे वह स्वयं दस मिनट में रिकार्ड सेक्शन में जाकर दे आया।
दरअसल एक अधिकारी होने के नाते डाक का फोल्डर उसे भी प्रस्तुत किया जाना चाहिए था। कार्यालय के नियमानुसर पी.डी. के बाद डाक जे.डी. संयुक्त निदेशक) फिर डी.डी. (उप निदेशक) होते हुए ए.डी. (सहायक निदेशक) के पास जानी चाहिए....केवल उन गोपनीय पत्रों को छोड़कर जिन्हें केवल पी.डी. (प्रधान निदेशक) या जे.डी. तक ही जाना होता या उन्हें जो किसी के नाम से होते थे। अतिगोपनीय पत्रों को पी.डी. निकाल लेता था और संबध्द अधिकारी को सौंपकर कार्यवाई के निर्देश देता था। लेकिन उसे रिकार्ड रूम में बैठा देने के बाद इस मामले में भी उसकी उपेक्षा की जाने लगी थी। डाक का फोल्डर उस तक नहीं पहुंचता था। विनीत खरे, जो उससे जूनियर था, तक जाकर भट्ट के पास भेज दिया जाता, जो डाक का वितरण संबध्द अनुभागों में करवाता था। अब जबकि रिकार्ड सेक्शन उसी के अधीन था पी.डी. के पास भेजे जाने से पहले उसने डाक देखने का निर्णय किया।
उस दिन अपरान्ह जो डाक उसके समक्ष आयी उसमें दो ऑफिस ऑर्डर थे। एक प्रीति के उसी दिन कलकत्ता जाने और कार्य समाप्त कर चार दिन बाद लौटने का था और दूसरा डी.पी. मीणा के दो दिन बाद कलकत्ता जाने और प्रीति के लौटने वाले दिन ही मुख्यालय लौटने का था। प्रीति कब लौटेगी यह न उसने उससे पूछा था और न ही उसने उसे बताया था। वैसे अमूमन ऐसे टुअर के आदेशों में लिखा जाता है कि अफसर अमुक दिन जाएगा और कार्य समाप्ति के पश्चात लौटेगा। लेकिन उस ऑर्डर में लौटने की तिथि तय कर दी गई थी।
उस दिन शाम जब वह कार्यालय से निकलने वाला था एक चपरासी दौड़ता हुआ उसके पास आया। वह श्रीवास्तव का चपरासी था, ''सर पी.ए. साहब के पास आपका फोन है।''
'विराट का ही होगा।' उसने पिछले दिन की भांति कोई हड़बड़ी नहीं दिखाई। आराम के साथ सामान ब्रीफकेस में रखा और ब्रीफकेस मेज पर छोड़ नीचे उतरा। छ: बजने में पन्द्रह मिनट शेष थे। उसे देख पी.ए. केबिन से बाहर निकल आया। पी.ए. के चेहरे पर तनाव देख उसने अनुमान लगाया कि उसे अवश्य ही किसी बात परश्रीवास्तव से डांट पड़ी होगी।
उसने बिना किसी हड़बड़ी के फोन का रिसीवर उठाया तो वह कट चुका था।
''यह तो कट गया।''
''ओह।'' पी.ए. ने खेद प्रकट किया।
''किसका था?''
''सर, आपके घर से था।''
''घर से....।'' सुधांशु चीख उठा, ''कोई संदेश....?''
''सर, आपकी मदर सीरियस हैं।''
''ओह।'' वह पी.ए. की सीट पर बैठ गया और फोन आने की प्रतीक्षा करने लगा। दस मिनट तक वह सीट पर बैठा रहा, लेकिन फोन नहीं आया। इस बीच श्रीवास्तव बाथरूम जाते और लौटते हुए उधर से निकला और उसने उसे पी.ए. की सीट पर बैठा और पी.ए. को बाहर खड़ा देखा। लौटते समय श्रीवास्तव ने पी.ए. को अपने पास आने का आदेश दिया। पी.ए. डर गया और समझ भी गया कि श्रीवास्तव उसे क्यों बुला रहा था। नोट बुक और पेंसिल थाम वह श्रीवास्तव के चेम्बर में पहुंचा तो श्रीवास्तव ने कड़क आवाज में उससे पूछा, ''यह साहब तुम्हारे केबिन मेें क्या कर रहे हैं?''
''सर, उनके घर से फोन आया था....कट गया....दोबारा आने का....।''
''आपने इन्हें अपना नंबर इस्तेमाल क्यों करने दिया? ई.पी.बी.एक्स. नंबर भी तो है।''
''सॉरी सर।''
''जाओ और ध्यान दो कि कोई गोपनीय पत्र इनके हाथ न लगे....और भविष्य में अपना फोन इस्तेमाल मत होने दो।''
''यस सर।''
''सभी फाइलें....डाक्यूमेण्ट्स मेज से हटा दो।''
''सर हटा चुका हूं....उसके बाद...।''
''अधिक नहीं बोलो....।''
''सॉरी सर।''
पी.ए. सिर पर पैर रखकर श्रीवास्तव के चेम्बर से बाहर निकला और अपने केबिन की ओर लपका। सुधांशु को उसी चिन्तित मुद्रा में बैठा देखा तो बोला, ''सर, अब शायद ही आए....आएगा तब मैं आपको बुला दूंगा....वैसे संदेश यही था कि आपकी मदर....।''
''हुंह।'' सुधांशु उठ खड़ा हुआ। वह असमंजस में था कि क्या करे। 'उसे घर जाना ही चाहिए...मेरे पहुंचने तक मां जीवित भी मिलेंगी या....।' वह कांप उठा। चेहरे पर दो बूंदें टपक गयीं। वह गैलरी में खड़ा रहा क्षणभर तक इस उहापोह में कि स्टेशन छोड़ने से पहले अनुमति लेना आवश्यक है और इसके लिए वह श्रीवास्तव के पास जाए या पाल के पास। जाना पाल के पास ही होगा। वह कार्यालय का इंचार्ज है। उसे ही अनुमति का अधिकार है। उसकी अनुपस्थिति में श्रीवास्त से पूछा जा सकता है। वह पाल के पी.ए. के कमरे की ओर बढ़ा। पाल के पी.ए. का कमरा खाली था। इलेक्ट्रानिक टाइपराइटर प्लास्टिक के कवर से ढका हुआ था। मेज साफ थी। न कोई फाइल न कोई कागज। पी.ए. का पर्स तक मौजूद नहीं था, 'मतलब पी.डी. दफ्तर में नहीं है।' उसने सोचा, फिर भी पाल के चेम्बर की ओर बढ़ा। चेम्बर के दरवाजे पर कुंडी लगी हुई थी। दरवाजे के ऊपर जलने वाली लाल या हरी बत्ती गुल थी और चपरासी की कुर्सी खाली थी, जो दरवाजे के साथ सटी रखी होती थी।
'पी.डी. चले गये।' सुधांशु ने सोचा, 'श्रीवास्तव भी जाने वाले होंगे।' वह तेजी से श्रीवास्तव के पी.ए. के कमरे की ओर बढ़ा। पी.ए. सामान समेट रहा था।
''आप श्रीवास्तव जी को बता दें कि मैं उनसे तुरंत मिलना चाहता हूं...बहुत आवश्यक है अभी मिलना।'' यह कहते हुए उसने अनुभव किया कि उसका गला भरभरा रहा था।
''जी सर।'' पी.ए., जो अपना लंच बॉक्स बैग में रख रहा था, उसे मेज पर छोड़ श्रीवास्तव के चेम्बर की ओर बढ़ गया और एक मिनट में ही लौट आया, ''सर, बिल्कुल जाने को तैयार खड़े हैं। गाड़ी लग चुकी है। चपरासी उनका ब्रीफकेस लेकर जा चुका है। सर, आप लपक कर मिल लें।''
सुधांशु को लगा कि वह एक क्लास वन अफसर नहीं उस दफ्तर का चपरासी है। दुखी मन और दुखी हो उठा, लेकिन मिलना अपरिहार्य था। वह श्रीवास्तव के चेम्बर में बिना नॉक किये प्रविष्ट हुआ। श्रीवास्तव चहल-कदमी कर रहा था।
''यस, मिस्टर दास।'' उसकी ओर देखे बिना ही श्रीवास्तव बोला।
''सर, कुछ देर पहले आपके पी.ए. के पास घर से फोन आया था, मां सीरियस हैं। मेरा अनुमान है कि वे शायद अब जीवित नहीं रहीं।''
''आप कैसे कह सकते हैं कि वे जीवित नहीं हैं।''
''मेरा अनुमान है....।''
''आपने फोन अटेण्ड किया था?''
''नहीं सर, पी.ए. ने किया था। उसके संदेश से ही मैं ऐसा सोच रहा हूं...।''
श्रीवास्तव ने टेबल पर रखे फोन का बज़र दबाया। पी.ए. ने फोन उठाया तो उसे आने का आदेश दिया। पी.ए. के आने पर पूछा, ''मिस्टर दास का फोन आपने अटेण्ड किया था?''
''यस सर।''
''क्या बताया गया था?''
''सर, यही कि साहब की मदर सीरियस हैं। उसके बाद फोन कट गया....अभी तक नहीं आया।''
''ओ.के।'' श्रीवास्तव ने पी.ए. को जाने का इशारा किया।
''आप क्या कहना चाहते हैं मिस्टर दास। मेरे पास वक्त कम है। वाइफ के साथ कहीं जाना है।''
''सर, मैं घर जाना चाहता हूं....एक सप्ताह का अवकाश चाहिए।''
''वह तो पी.डी. सर से पूछे बिना नामुमकिन है।''
''सर, यदि मां....।'' सुधांशु का गला रुंध गया। उसे लगा वह रो देगा, लेकिन वह जिस पद पर था उस व्यक्ति को खुलकर आंसू बहाना भी मना होता है.....पद की गरिमा का प्रश्न....गरिमा भले ही बाथरूम के बाहर बैठा देने से नष्ट होती हो, लेकिन तब भी घुटने के अतिरिक्त अपनी पीड़ा व्यक्त करना अपराध माना जाता है।
श्रीवास्तव पुन: टहलने लगा था और बार-बार घड़ी भी देखता जा रहा था।
''आप एक प्रार्थना-पत्र, जिसमें सारे विवरण लिख दें...फोन आने...किसने अटैण्ड किया, क्योंकि वह उसका गवाह होगा, और मां की स्थिति बताकर स्टेशन छोड़ने की अनुमति देना आदि लिखकर भट्ट को दे दें। मैं भट्ट को कह दूंगा...ओ.के.....सॉरी...मुझे जल्दी है। आपके साथ मेरी हमदर्दी है। और ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपकी मां को शीघ्र ही स्वस्थ करे।''
सुधांशु ने श्रीवास्तव को धन्यवाद कहा और उसके पी.ए. के कमरे की ओर बढ़ा जिससे कागज लेकर उसे प्रार्थना-पत्र लिखना था। श्रीवास्तव भट्ट से कुछ भी कहे बिना गाड़ी में जा बैठा था।
दास का आभिप्राय समझ पी.ए. मन ही मन खीजा, क्योंकि उसे पन्द्रह-बीस मिनट का विलंब होने वाला था। कागज लेकर सुधांशु पी.ए. की सीट पर बैठकर प्रार्थना-पत्र लिखने लगा, लेकिन तत्काल उसे याद आया कि कहीं भट्ट चला न जाये। पाल के जाने का समाचार दफ्तर में फैलते ही लोग जाने लगते थे। जो देर तक बैठते थे वे भी छ: बजते ही गेट पर नजर आते । उसने पी.ए. से कहा, ''एक तकलीफ करेंगे आप मेरे लिए?''
''जी सर।''
''भट्ट को बोल आएं कि मैं पांच मिनट में एप्लीकेशन लिखकर ला रहा हूं। श्रीवास्तव जी ने उन्हें कह दिया होगा। मेरे आने तक वह रुके रहें।''
''जी सर।''
पी.ए. ने लौटकर बताया, ''सर भट्ट मुझे गैलरी में मिले ....बोले श्रीवास्तव जी ने उन्हें कुछ नहीं कहा और वह रुक नहीं सकते, क्योंकि उन्हें अपनी बेटी को कत्थक के कार्यक्रम में लेकर जाना है, जो सात बजे प्रारंभ होगा।''
''फिर...?'' प्रार्थना-पत्र लिखते हुए सुधांशु के हाथ रुक गये।
''आप पांच मिनट रुकें...मैं आपको ही दे दूंगा। आप सुबह श्रीवास्तव जी को दे देंगे।''
''जी सर।''
सुधांशु जब तक एप्लीकेशन लिखता रहा, पी.ए. बेचेनी के साथ केबिन के बाहर टहलता रहा। कार्यालय बंद करने वाले चपरासी और बाबू उसके पास आए और बोले, ''का हो पी.ए. साहब ...सारा दफ्तर चला गया आप यहां क्यों मक्खी मार रहे हो? आज हमें भी जल्दी घर जाने दो।''
पी.ए. ने सुधांशु की ओर इशारा किया तो दोनों सकपका गये।
पी.ए. को एप्लीकेशन देकर सुधांशु ने कार्यालय बंद करने वाले चपरासी से पूछा, ''रिकार्डरूम बंद कर आए?''
''जी सर।''
''मेरा ब्रीफकेस मेज पर रखा है, जाकर ले आओ।''
चपरासी दोड़ता हुआ सीढ़ियां चढ़ने लगा और दो मिनट में सुधांशु का ब्रीफकेस ले आया। सुधांशु ने उन सभी को धन्यवाद दिया और गेट की ओर बढ़ा यह सोचते हुए कि कनॉट प्लेस के जिस एजेण्ट से वह एयर टिकट बुक करवाता है, वह मिल गया तो रात की किसी भी फ्लाइट से बनारस चला जाएगा।
लेकिन उसे अगले दिन सुबह की सहारा की टिकट मिली। जब वह गांव पहुंचा, मां की अत्येंष्टि की जा चुकी थी। उसका मन चीत्कार कर उठा। जिन्दगी में पहली बाद वह फूट-फूटकर रोया।
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(43)
सुधांशु ने चार दिन के अवकाश के लिए आवेदन किया था। अगले दिन प्रदीप श्रीवास्तव के पी.ए. ने सुघांशु का प्रार्थना पत्र श्रीवास्तव को देते हुए कहा, ''सर, यह एप्लीकेशन सुधांशु सर मुझे देकर गये थे...।''
''मैंने भट्ट को देने के लिए कहा था।''
''सर, भट्ट साहब जा चुके थे।''
''हुंह।'' श्रीवास्तव ने सुधांशु की एप्लीकेशन लेकर मेज पर पेपरवेट से दबा दिया और पीए. से बोला, ''भट्ट को भेज दो।''
भट्ट को एप्लीकेशन देते हुए श्रीवास्तव बोला, ''नोट के साथ इसे मेरे पास भेज दो।''
भट्ट ने अपनी ओर से एक नोट लिखा और सुधांशु की एप्लीकेशन उसके साथ नत्थी कर उसे श्रीवास्तव को देने जाने लगा, लेकिन एक बार पुन: एप्लीकेशन और नोट पढ़ने का विचारकर वह कुर्सी पर बैठ गया। एप्लीकेशन पुन: पढ़ने के बाद उसे अपने पर कोफ्त हुई। 'सुधांशु दास ने इस पर अपना लीव एड्रेस तो लिखा ही नहीं।' वह सोच रहा था, 'इस बात का उल्लेख मुझे नोट में करना होगा। पी.डी. सर बाल की खाल निकालते हैं...सुधांशु दास के मामले में वह अधिक ही सतर्कता बरतेंगे...।'
भट्ट ने पहले वाला नोट फाड़ दिया और दूसरा लिखने लगा, जिसके अंत में उसने लिखा कि मिस्टर दास ने अपना अवकाश कालीन पते का उल्लेख अपने प्रार्थना-पत्र में नहीं किया है। नोट के साथ प्रार्थना पत्र नत्थी कर उसे एक खाली फाइल कवर के साथ टैग कर श्रीवास्तव को देने गया। श्रीवास्तव ने उसे मेज पर रख देने का इशारा किया और किसी से फोन पर बातें करता रहा।
फोन पर वार्तालाप समाप्त कर श्रीवास्तव ने भट्ट के नोट के नीचे अपना नोट लिखा, जिसपर विशेषरूप से उसने सुधांशु द्वारा पते का उल्लेख न करने का जिक्र किया और चपरासी से उसे चमनलाल पाल के पास भेज दिया।
पाल को भट्ट से कल की घटना की सूचना पहले ही मिल चुकी थी और उसे यह भी भट्ट ने बता दिया था कि दास की एप्लीकेशन को नोट के साथ उसने जे.डी. के पास भेज दिया है। पाल श्रीवास्तव की टिप्पणी के साथ एप्लीकेशन आने की प्रतीक्षा कर रहा था। जैसे ही सुधांशु की एप्लीकेशन उसके पास पहुंची, उसने श्रीवास्तव के नोट के नीचे अपना नोट लिखा, ''अवकाश स्वीकृत। अवकाश कालीन पता दर्ज न करने के लिए मिस्टर दास के लौटने पर उनसे स्पष्टीकरण मांगा जाए और संतोषजनक उत्तर न मिलने पर अनुशासनात्मक कार्यवाई की जाए।'
फाइल कवर पांच मिनट में श्रीवास्तव के पास वापस पहुंच गया और उसने अपनी टिप्पणी के साथ उसे भट्ट के पास भेज दिया जो उन दिनों एएफपीओ सेक्शन के साथ प्रशासन एक अनुभाग का काम भी देख रहा था। भट्ट ने आवश्यक बॉक्स में फाइल सुरक्षित रख दी।
इधर सुधांशु के प्रकृतिस्थ होने पर पिता सुबोध दास ने उससे कहा, ''बेटा, मुझे अफसोस है कि तुम अम्मा के अंतिम दर्शन नहीं कर पाये, लेकिन अधिक रोकने से मिट्टी के खराब होने का खतरा था। वैसे भी कल चार बजे शाम उनकी मृत्यु हुई थी।......अब तो जो होना था हो गया....बेटा मन को धीरज दो और उनके बचे कारज पूरा करो।''
सुधांशु पिता की बातें सुनता रहा। पिता ही आगे बोले, ''अम्मा की तेरहवीं करने का निर्णय किया है। तुम कितने दिन की छुट्टी लेकर आए हो?''
''एक हफ्ते की....।''
''छुट्टी तो बढ़ावैं का पड़ी बेटा। तेरह दिन मा तेरहवीं.... तुम एक हफ्ता की छुट्टी और बढ़ा देव।''
सुधांशु सोच में पड़ गया। मां के अंतिम दर्शन नहीं कर पाया, लेकिन उनकी आत्मा की शांति के लिए उनकी तेरहवीं तक रुकना ही चाहिए....मेरे पास छुट्टियां हैं और ऐसे अवसर पर कोई भी छुट्टियां देने से इंकार नहीं करेगा...पाल भी नहीं।' लेकिन तभी उसे पिछली यात्रा से लौटने के बाद की पाल की कही बात याद आयी, 'विभाग ने आपकी मां का ठेका नहीं लें रखा मिस्टर दास।' लेकिन इस बार मामला ही और है। मुझे आज ही कस्बे से एक सप्ताह के लिए अवकाश बढ़ा देने के लिए तार भेज देना चाहिए। लेकिन जब तक मैं कस्बे के पोस्ट आफिस पहुंचूंगा...वह बंद हो चुका होगा। तार कल भी भेजा जा सकता है।'
और सुधांशु ने अगले दिन तार देकर एक सप्ताह के लिए अवकाश बढ़ाने का अनुरोघ प्रधान निदेशक पाल को भेज दिया। उसने मां की मृत्यु और तेरहवीं के लिए अवकाश बढ़ाने का कारण बताया था, लेकिन जब एक विशेष फोल्डर में रखकर पी.ए. ने तार पाल के पास प्रस्तुत किया वह फुंकार उठा। पी.ए. को बुलाया और डिक्टेशन लिखने का आदेश दिया। उसने चार पंक्ति का पत्र डिक्टेट किया, जिसमें कहा गया था कि माननीय प्रधान निदेशक ने आपके अवकाश बढ़ाने के प्रार्थना पत्र पर सहानुभूतिपूर्वक वियार किया, लेकिन हिन्दी संसदीय समिति के आगमन को दृष्टिगत रखते हुए आपकी उपस्थिति अपरिहार्य मानकर अधो-हस्ताक्षरकर्ता को आपको सूचित करने का निर्देश दिया कि आपके पूर्व प्रार्थना-पत्र के आधार पर आपको प्रदत्त अवकाश के आगे अवकाश स्थगित करने की अनुमति आपको नहीं दी जा सकती। अत: आप अविलंब कार्यालय में उपस्थित हों।''
डिक्टेशन देने के बाद पाल ने टेलीग्राम पी.ए. को देते हुए कहा, ''डिक्टेशन टाइप करके इसके साथ भट्ट को दे देना। उसे कहना कि मुझसे बात कर ले।''
''यस सर।''
डिक्टेशन और टेलीग्राम भट्ट को देते हुए पी.ए. ने कहा, ''आप इसके साथ तुरंत पी.डी. सर से मिल लें।''
पाल ने डिक्टेशन चेक करने के बाद भट्ट से कहा, ''इसे विनीत खरे के हस्ताक्षर से स्पीड पोस्ट से सुधांशु दास को भेज दो।''
''सर, एप्लीकेशन में उन्होंने अपना लीव एड्रेस नहीं दिया।''
''मिस्टर दास ने कार्यालय में अपना स्थयी पता लिखा होगा।''
''जी सर।''
''फिर...मेरा मुंह क्यों तक रहे हो। जाकर काम करो।''
सुधांशु के तार ने पाल के दिमाग को गर्मा दिया था। 'पार्लियामण्टरी कमिटी आने वाली है और यह व्यक्ति पुरानी परंपराओं से चिपका हुआ है। दिल्ली में तीन-चार दिनों में सब कुछ सम्पन्न हो जाता है.....तेरह दिन....।' यह सोचते ही उसकी बौखलाहट बढ़ गयी थी।
''जी सर।'' भट्ट यूं भागा मानो पुलिस उसके पीछे थी।
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पत्र सुघांशु को तेरहवीं से एक दिन पूर्व मिला। रजिस्टर्ड डाक से भेजा गया वह पत्र कदम-कदम चला। एक दिन वह प्रधान निदेशक कार्यालय के रिकार्ड सेक्शन में पड़ा रहा, क्योंकि वह वहां पहुंचा तब था जब सेक्शन के लोग जाने वाले थे। अगले दिन वह जी.पी.ओ. में आराम करता रहा...और इस प्रकार जब पहुंचा तब सुधांशु के लिए समय से पहुंचने के अवसर उसने छीन लिए थे। सुधांशु का आरक्षण बनारस से अगले दिन था। उसने रजिस्ट्री स्वीकार की और हस्ताक्षर के नीचे तारीख डाल दी। उसे आंशका पहले से ही थी कि पाल उसके अवकाश बढ़ाने से चिढ़ जाएगा, बल्कि वह व्यक्तिगत रूप से अगले दिन मिलकर अवकाश पर जाने की अनुमति न लेने से ही चिढ़ चुका होगा और अवकाश बढ़ाने के तार ने घी में आग का काम किया होगा। उसने भविष्य में घटित होने वाली किसी भी अप्रिय घटना को मस्तिष्क से निकालने का प्रयत्न किया और पिता के साथ तेरहवीं की व्यवस्था में जुट गया। वास्तव में व्यवस्था उसी को करना था, क्योंकि पिता तेरहवीं में बैठे हुए थे। कुछ करने की अनुमति उन्हें नहीं थी। सुधांशु को ही घर, जानवर, निमंत्रण, हलवाई आदि की व्यवस्था करनी थी। यद्यपि उसके सहयोग के लिए पास-पड़ोस के लोग सन्नध्द थे। गांव में सुधांशु के प्रति लोगों में प्रेम और आदर था। गांव का नाम रौशन किया था उसने आई.ए.एस. बनकर। लोगों को आशाएं थीं उससे....अपने बच्चों को लेकर। जैसाकि सभी गांव के लोगों को गांव के किसी युवक के अच्छे पद पर पहुंचने पर होती है। जब तक वह आशा उन्हें बनी रहती है उनकी दृष्टि में वह गांव का हीरो रहता है, लेकिन जब अपनी तमाम उलझनों, व्यस्तताओं, विडंबनाओं और सीमाओं के कारण वह युवक गांव के लोगों की आशाएं पूरी नहीं कर पाता गांव वालों की दृष्टि में उसका महत्व घटने लगता है। कुछ सक्षम स्थिति में होने पर भी कन्नी काट लेते हैं। गांव से अपने को विमुक्त कर लेते हैं, लेकिन बहुत-से ऐसे होते हैं जो अनेक कारणों से कुछ कर नहीं पाते और दोनों ही गांव वालों की आलोचना का शिकार होने लगते हैं।
सुधांशु से अभी तक लोगों को अपेक्षाएं थीं। ''अभी वह खुद ही व्यवस्थित हो रहा है। उस पर मां की गमी......इससे उसे उबरने में बखत लगेगा......लेकिन औरों की तरह नहीं है वह.......जरूर कुछ करेगा अपना सुधांशु।'' यहां तक कि जो विद्यार्थी सुधांशु के कक्षाएं-दर कक्षाएं फलांगने पर डाह करते थे अब वे भी उसकी प्रशंसा करने लगे थे और गांव का हर घर उसे अपनी डयोढ़ी एक बार लांघता देखना चाहता था। लेकिन सुधांशु ने अपने को अपने घर तक ही सीमित कर लिया था। उसने आते ही पिता की सहायता के लिए गांव के ही एक गरीब अधेड़ को काम पर रख लिया था, जिसका नाम ममतू था। ममतू चालीस के लगभग मझोले कद, कृष्णवर्ण, चमकती आंखों और दोहरे बदन का व्यक्ति था, जिसके तीन बच्चे....दो लड़के और एक लड़की और पत्नी.....पांच का परिवार था उसका। कमाई का ठोस आधार नहीं था। लड़की छोड़ पूरा परिवार मजदूरी करता था। पढ़ने की उम्र में लड़के जमींदारों के घर दिनभर काम करते थे। ममतू के प्रति गांव में रहते हुए सुधांशु सहृदय रहा करता था, और यही कारण था कि उसकी सहायता करने के विचार से गांव आते ही उसने उसे अपने यहां काम करने का प्रस्ताव किया। ममतू के लिए यह मुंह मांगी मुराद थी। ममतू और उसकी पत्नी ने जानवरों, खेत और घर के कामों का भार अपने सिर ले लिया था।
तेरहवीं का कार्यक्रम निर्विघ्न समाप्त हो गया। इस दौरान कितनी ही बार उसने कार्यालय में घटित होने वाली स्थिति की कल्पना की और सोचा कि प्रीति के दिल्ली लौटने के पश्चात मां की मृत्यु का समाचार क्या उसे नहीं मिला होगा! घर में मेरी अनुपस्थिति पर उसने मेरे कार्यालय से मेरे बारे में जानने का प्रयत्न नहीं किया होगा! वह आ नहीं सकती थी....आना भी नहीं चाहती होगी, लेकिन टेलीग्राम द्वारा शोक संदेश ही भेज देती।' उसने सोचा, 'उसके पास गांव का पता नहीं होगा। होना चाहिए। नहीं था तो वह मेरे कार्यालय से ले सकती थी। मुख्यालय में सभी क्लास वन अधिकारियों की निजी फाइलें हैं जिसमें उनका सारा विवरण दर्ज होता है। प्रीति तो वहीं है। लेकिन उसके लिए रिश्तों का कोई महत्व नहीं रहा अब। फिर मैं ही क्यों रिश्तों को ढोता रहूं,! केवल समाज को दिखाने के लिए कि हम पति-पत्नी हैं। जब उसने पत्नी धर्म की धज्जियां उड़ा दीं तब....श्रीवास्तव के कहने पर मैं फ्लैट में रहने चला गया....किसलिए....केवल सामाजिक भयवश....रिश्तों को पुन: स्थिापित करने.....मन में भावना नहीं थी। गलतियां इंसान से ही होती हैं, यदि इंसान गलती को मान ले और पुन: उसे न होने देने का निर्णय करे तो पुरानी स्थिति बहाल करना असभंव नहीं....एक परिवार छिन्न-भिन्न होने से बचता है...मैंने यही सोचा था, लेकिन लगता नहीं कि प्रीति भी ऐसा ही सोचती है। शायद वह मुझे कवच की भांति धारण किए रखना चाहती है, लेकिन मैं क्यों बनूं उसका कवच....यदि वह इतना ही स्वार्थग्रस्त है तब मैं उसकी स्वार्थपूर्ति का साधन क्यों बनूं! मुझे अपने संबन्धों की गहनता से समीक्षा करने की आवश्यकता है।'
'मैं कितने मोर्चों पर लड़ूं! क्ार्यालय में पाल, घर में प्रीति और अब पिता की समस्याएं। मां थीं तब निश्चिंतता थी, लकिन अब पिता जी अकेले गांव में रहें यह उचित नहीं होगा। मुझे प्रीति से अलग व्यवस्था करना ही होगा...पिता जी को दिल्ली ले जाना ही उचित होगा।' और चलते समय उसने पिता से अपना विचार व्यक्त किया। सुनकर सुबोध बोले, ''सुधांशु तुम मेरी चिन्ता छोड़ो....गांव के बिना मैं जी नहीं सकूंगा। गांव मेरे रक्त में बसा हुआ है। तुम्हारे पास मैं तुम्हारी अम्मा के साथ पटना में रहकर देख चुका हूं। शहर में मेरा दम घुटता ह,ै बेटा। तुम दोनों सुखी रहो....कभी-कभी बहू के साथ गांव के चक्कर लगा जाया करना। कभी मन ऊबेगा और तुम नहीं आ पाओगे तब मैं भी आ जाया करूंगा...दो-चार दिनों के लिए...लेकिन शहर ...वह भी दिल्ली जैसे शहर....जहां लोग दौड़ रहे होते हैं.....जिन्दगी भाग रही होती है.....वहां मुझ जैसे गंवई-गांव के आदमी का दम घुट जाएगा। यहां रहकर दस साल जी लूंगा तो वहां....।' पिता के सामने उसके तर्क नहीं चले थे। पिता के तर्कों के उत्तर में उसने कहा, ''आप जहां सुकून अनुभव करें....वहीं रहें।''
''तुमने ममतू को मेरी मदद के लिए लगा दिया है....यही बहुत है। तुम सुखी रहो....।'' और सुबोध की आंखें गीली हो गयीं थीं, ''सुख के दिन जब आए तब तुम्हारी अम्मा साथ छोड़ गयीं। अच्छे लागों के साथ यही होता है। खूब साथ निभाया उसने....।'' सुबोध सिसकने लगे। सुधांशु भी अपने को रोक नहीं पाया और वह भी सिसक उठा।
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(44)

यह अप्रत्याशित था, लेकिन घटित हुआ। लखनऊ और शाहजहांपुर के बीच एक स्थान पर रेल दुर्घटना हो गयी थी। किसी एक्सप्रेस ट्रेन की टक्कर मालगाड़ी से हुई थी। दुर्घटना रात के समय घटी और स्थान किसी गांव के स्टेशन के निकट जंगल का था। दुर्घटना इतनी भीषण थी कि एक्सप्रेस गाड़ी की चार बोगियां उलट गयी थीं और शेष ट्रेन पटरी से उतर गयी थी। इंजन दौड़कर पटरी से दूर जमीन में जा धंसा था। दोनों गाड़ियों के ड्राइवरों सहित कितने लोगों की मृत्यु हुई थी इसका सही अनुमान नहीं था। केबिनमैन ने दोनों ओर के सिग्नल लाल कर दिए थे और स्टेशन मास्टर से बात करने का प्रयत्न किया था, लेकिन केबिन में मौजूद फोन की सांसे उखड़ी हुई थीं। केबिनमैन टार्च लेकर लाइन के किनारे स्टेशन की ओर दौड़ा था स्टेशन मास्टर को सूचित करने के लिए। स्टेशन पहुंचने पर उसे स्टेशन मास्टर अपने कमरे में नहीं मिला था। एक खलासी सामान ढोने वाली हाथगाड़ी पर लेटा ऊंघता दिखा था। स्टेशन पर सौ वॉट के दो बल्ब टिमटिमा रहे थे, जिनकी बीमार रोशनी में केवल चीजों का आभास ही मिल पा रहा था। स्टेशन मास्टर के कमरे में टयूबलाइट जल रही थी और उसकी मेज पर लॉगबुक और उस पर पेन रखा हुआ था। 'मास्टर जी यहीं कहीं होंगे।' केबिनमैन ने सोचा और बेचैनी से टहलने लगा। पांच मिनट गुजर गये, लेकिन स्टेशन मास्टर का पता नहीं था। एक्सप्रेस गाड़ी आने का समय हो रहा है।' केबिनमैन परेशान हो उठा। वह दौड़कर खलासी के पास चहुंचा, ''क्यों रे हरबू, मास्टर जी कहां गये?'' वह स्टेशन मास्टर को मास्टर जी कह रहा था।
''घर गये होंगे।''
केबिनमैन घर की ओर दौड़ा तो स्टेशन मास्टर को पैण्ट संभालते आते देखा। स्टेशन मास्टर का पेट गड़बड़ था और वह उस एक्सप्रेस ट्रेन के गुजरने के लिए रुका रहा था। उसके गुजरते ही वह घर की ओर लपका था। पेट में ऐसी घुड़घुड़ाहट हो रही थी कि बैठते ही बम फटने लगे थे और उसे दुर्घटना का आभास तक नहीं मिला था।
''सर, जल्दी कीजिए....अभी जो एक्सप्रेस गुजरी थी केबिन से आगे भयानकरूप से दुर्घटनाग्रस्त हो गयी है। मैं उधर न जाकर पहले आपको बताने आया....आप सभी स्टेशनों को सूचित कर दें...दूसरी एक्सप्रेस गाड़ी आने में अभी आध घण्टा है।''
स्टेशन मास्टर का चेहरा आतंक से फैल गया। बोल नहीं फूटे।
''सर, मैं उधर ही जा रहा हूं....आप आगे जहां भी सूचना दे सकते हैं...दें....पता नहीं वहां क्या हाल होगा।'' केबिनमैन ने स्टेशन मास्टर के चेहरे पर दृष्टि डाली....उसका चेहरा राख हो रहा था।
दरअसल स्टेशन मास्टर दुर्घटना के समाचार से इतना घबड़ा गया था कि उसके मुंह से आवाज नहीं निकली।
केबिनमैन दुर्घटना स्थल की ओर दौड़ गया।
दुर्घटना इतनी भीषण थी और उसकी आवाज इतनी तेज कि आसपास के गांवों तक पहुंची थी और जब केबिनमैन वहां पहुंचा चारों ओर से टार्च और लालटैनें लिए ग्रामीणों को दौड़कर आते देखा। कुछ ने मशालें जला रखी थीं।
'दुर्घटना की इतनी भीषण आवाज को स्टेशन मास्टर कैसे सुन नहीं सके थे।' केबिनमैन आश्यर्यचकित था। यदि उसे यह जानकारी होती कि पेट की गड़बड़ और फूटते बमों ने स्टेशन मास्टर के होश उड़ा रखे थे तो वह वैसा नहीं सोचता।
सुधांशु की ट्रेन को दुर्घटना स्थल से तीन स्टेशन पहले रोक दिया गया। रेलवे ट्रैक खाली होने तक आठ धण्टे लगे। अनेक गाड़ियों को कानपुर के रास्ते दिल्ली भेजा गया लेकिन उसकी ट्रेन ऐसे स्थान पर रुकी हुई थी कि उसका रास्ता बदलना संभव नहीं था। ट्रेन दस घण्टे विलंब से नई दिल्ली पहुंची। कार्यालय का समय समाप्त हो चुका था, जबकि सुधांशु को उस दिन कार्यालय पहुंचना आवश्यक था। जिस स्टेशन पर उसकी ट्रेन को रोका गया था वहां से ट्रंकाल करना संभव नहीं था।
'आज कार्यालय न पहुंचना पाल की दृष्टि में अक्षम्य अपराध है। लेकिन ऐसी स्थिति में कोई कर भी क्या सकता है। मैं अपना टिकट सुरक्षित रखूंगा.....वह ट्रेन दुर्घटना के विषय में चाहे तो पता कर सकेगा।' नई दिल्ली स्टेशन पर उतरते हुए सुधांशु ने सोचा।
'आखिर मैंने ऐसा क्या किया जिससे पाल मेरे विरुध्द है?' ऑटो मे बैठते ही विचार उसके दिमाग में घूमने लगे।
'किया ...तुमने कांट्रैक्टर्स के बिल रोके....उनकी अनयमितताएं पकड़ीं। बिना माल सप्लाई किए प्रस्तुत बिलों को रोककर उनके विरुध्द कठोर कार्यवाई की सिफारिशें की....यह सब उस व्यक्ति से जो स्वयं ठेकेदारों की जेब में बैठा है। भ्रष्टाचार के विरुध्द बोलना इस देश में अपराध की श्रेणी में गिना जाने लगा है। बदलते समय में अपराध की परिभाषा बदलने लगी है। जो अपराधी है वह शेर की भांति सीना ताने विचरण करने के लिए सवतंत्र है और उसके विरुध्द उंगली उठाने वालों को वह अपना शिकार समझता है। यह आजादी भी व्यवस्था ने उसे दे रखी है, क्योंकि उसका संबन्ध सत्ता के गलियारों तक है। सत्ता....जो जनता के वोट के बल पर संसद और विधानसभाओं में काबिज होती है...वह किस प्रकार वोट के लिए नोटों का खेल खेलती है...यह अब छुपा नहीं रहा। तमिलनाडु जैसे राज्यों में बड़ा-छोटा नेता जनता के वोट खरीदने के लिए करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाते हैं, क्योंकि एक बार सत्ता हाथ आने पर उसके सौ गुना उनकी जेब में होने की गारण्टी सत्ता उन्हें देती है। बात तमिलनाडु ही क्यों...कोई भी राज्य पीछे नहीं....कोई भी नेता पीछे नहीं.....चाहे केन्द्र के लिए चुनाव लड़ने वाला हो या राज्य के लिए। बहुमत के अभाव में सरकार बचाने के लिए सांसद....विधायक खरीदे जाते हैं.... करोड़ों कहां से आते हैं...जनता का धन जनप्रतिनिधियों की जेब में जाता है और वहां से स्विस बैंकों में....देश आजाद कहां है! मुलाम था तब अंग्रेज शिकारी थे...... आज अपने ही राजनीतिज्ञों से लेकर भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट्स....पूंजीपति...सभी शिकारी हैं। अपने-अपने ढंग से वे जनता का शिकार कर रहे हैं और जनता किंकर्तव्यविमूढ़ है। ये शिकारी इतना क्रूर हैं कि अपने विरुध्द कहने वालों को समाप्त करने के सभी हथकंडे अपनाते हैं....।' वह सोचता रहता कि ऑटोवाले ने उसे टोका, ''साहब, किधर मोड़ना है।''
उसने उसे प्रगतिविहार हॉस्टल का रास्ता बताया।
ऑटो का किराया चुकता करते हुए उसकी दृष्टि सफेद मारुति आठ सौ पर जा टिकी, जो उसके फ्लैट की सीढ़ियों के पास खड़ी थी। 'यह गाड़ी नंबर मैंने पहले भी देखा है। कहां ?' पर्स से रुपये निकालते उसके हाथ क्षणभर के लिए रुक गये। उसने उचटती नजर ऑटो ड्राइवर पर डाली, जो अपनी सीट पर बैठा पर्स की ओर देख रहा था... 'पैसे मिलें और वह जाये' वाले भाव से।
'कहां देखा...।' सुधांशु ने गहनता से सोचा और तभी उसे याद आया कि उस गाड़ी को उसने मुख्यालय यानी महानिदेशालय के बाहर खड़ा देखा था। यह याद आते ही उसने पर्स से रुपये निकाले, गिने और ऑटोवाले को पकड़ाकर अपना सूटकेस और बैग उतार सीढ़ियां चढ़ने लगा।
फ्लैट के दरवाजे पर पहुंच उसने बैग नीचे रखा और दरवाजे को नॉक किया। अंदर दो लोगों की आवाजें उसे सुनाई दीं। एक प्रीति की थी और दूसरी को उसने पहचानने का प्रयत्न किया। नॉक करते ही आवाजें फुसफुसाहटों में बदल गयीं।
''समबडी इज देअर?' प्रीति की फुसफुसाती आवाज थी।
''शायद।'' पुरुष स्वर। फिर शांति।
दो मिनट बीत गये। दरवाजा नहीं खुला। सुधांशु ने पुन: नॉक किया। किसीके कदमों की आवाज और पीछे से प्रीति की फुसफुसाहट ''जस्ट वेट डी.पी.। मैं गाउन डाल लूं।''
'ओह! तो डी.पी. मीणा है।' सुधांशु को लगा कि उसका दिमाग चकरा रहा है। वह गिर जायेगा, लेकिन संभलने में उसने समय नष्ट नहीं किया। फर्श पर रखा बैग उठाया और धड़धड़ाता हूुआ सीढ़ियां उतर गया। ऑटो ड्राइवर तब तक गया नहीं था। गाड़ी मोड़कर वह फ्लैट के सामने एकांत पाकर अंधेरे का लाभ उठाता पेशाब कर रहा था। ऑटो की ओर बढ़ते हुए सुधांशु ने पिच से डी.पी. मीणा की गाड़ी पर थूका और लपककर ऑटो में बैठ गया। ड्राइवर पैण्ट की चेन चढ़ाता हुआ लौट आया था।
''मित्र, लक्ष्मीनगर चलना है।''
''लक्ष्मीनगर... साहब...।'' ड्राइवर द्विविधा में पड़ गया।
''यहां से तो चलो....आगे बात करेंगे।'' ड्राइवर ने जब ऑटो स्टार्ट किया, सुघांशु को फ्लैट की बालकनी से डी.पी.मीणा झांकता दिखाई पड़ा।
सुधांशु का दिल तेजी से धड़क रहा था और घृणा से भरा हुआ था। 'विश्वासघात' शब्द उसके मस्तिष्क को मथे डाल रहा था।
''खान मार्केट की ओर से ऑटो ले लेना। शायद कोई पी.सी.ओ. की दुकान खुली हो...एक फोन करना है।''
''जी साहब।'' ड्राइवर उधर ही से जा रहा था।
खान मार्केट में उस समय भी अच्छी रौनक थी। एक दुकान से सुधांशु ने कोमलकांत विराट को पहले धर फोन किया, लेकिन विराट घर में नहीं था। उसने जनसत्ता कार्यालय मिलाया, ज्ञात हुआ कि विराट कुछ समय पहले ही घर के लिए निकला था।
'घर पर ही मिलेगा।' सोचता हुआ सुधांशु लौट आया।
जब वह लक्ष्मीनगर विराट के धर पहुंचा विराट ताला खोल रहा था। सुघांशु को देखते ही बोला, ''आइये कवि...आज मैं आपको दिन भर याद करता रहा। आपके कार्यालय फोन मिलाया तो ज्ञात हुआ कि आपकी माता जी की तबीयत गंभीर थी....आप घर गये हैं। कैसी है तबीयत अम्मा जी की?''
''शी इज नो मोर।''
''ओह, आय एम सॉरी सुधांशु। ईश्वर अम्मा की आत्मा को शांति प्रदान करे और दुख सहने के लिए आपको बल दे।'' विराट ने कमरे का दरवाजा खोला तो अंदर से गर्मी के भभके ने उनका स्वागत किया।
''आज गर्मी कुछ अधिक है।'' विराट बोला, ''घर से आ रहे हो?''
''हां।'' सुधांशु ने बैग और सूटकेस सोफे पर पटका और बोला, 'ठण्डा पानी पिलाओ विराट....प्यास से दिमाग फटने को हो रहा है।''
''एक मिनट।'' विराट ने पंखा चलाया, फिर खिड़की का पर्दा हटाकर कूलर चला दिया, ''इधर...कूलर के सामने बैठो....आराम मिलेगा। दिनभर बंद रहने से कमरा तप जाता है। पन्द्रह मिनट में ठंडा हो जाएगा।''
सुधांशु कूलर के सामने बैठ गया।
''भोजन तो करोगे?''
''इच्छा नहीं है।''
''इच्छा को रखो ताक पर....मुझे भूख लग रही है। बहुत सही समय पर आये हो। आध घण्टा लगेगा...एगकरी और चावल बनाता हूं....। जब तक अण्डे उबलेंगे ...चाय बना लूं?''
''नहीं।''
''कोल्डड्रिंक ले लो। फ्रिज में रखा है।''
''आवश्यकता नहीं है।''
''कमरा ठंडा हो गया है। नहाना चाहो तो....।''
''नहीं, उसकी भी आवश्यकता नहीं है।'' विराट की बात बीच में ही काट दी सुधांशु ने।
''कपड़े बदलकर बेड पर आराम करो...बाकी बातें बाद में....भोजन के समय करेंगे।''
विराट भोजन पकाने में व्यस्त हो गया और सुधांशु कपड़े बदलकर बेड पर लेट गया। उसके मस्तिष्क में तूफान चल रहा था और वह निरंतर प्रीति और मीणा के विषय में सोच रहा था...'आज सब समाप्त हो गया। यह सब कल्पनातीत है।' मन के एक कोने से आवाज आयी, 'लेकिन यह कटु सत्य है। इसे स्वीकार करो और प्रीति के साथ घुट-घुटकर जीवन बिताओ या अपने जीवन में उसके आने को एक हादसा मान उसे भूल जाओ। उससे मुक्ति ही तुम्हारे जीवन का त्राण हो सकती है। जब उसने तुम्हारी चिन्ता नहीं की....संबन्धों की पवित्रता की परवाह नहीं की...पिछली बार इसे मेरी मात्र आशंका करार दिया था....लेकिन अब वास्तविकता आंखों के सामने थी....जानकर भी जहर पी लूं...मैं शिव नहीं....सामान्य इंसान हूं....छल-छद्म से प्रभावित होने वाला सामान्य इंसान।'
'मुझे करना क्या होगा!' उसने करवट ली और आंखें बंद कर लीं। अभी तक आंखें खोले दीवार की ओर देखता रहा था, जहां कलेण्डर लटका हुआ था। वह सोचने लगा, 'कल किसी होटल में...फिर कहीं कमरा किराये पर लेकर....अलग...प्रीति की छाया से दूर।'
'हमारा अलग रहना विभाग में चर्चा का विषय नहीं बनेगा? उसने आंखें खोल लीं, 'दूसरों की परवाह कर अपनी आत्मा पर प्रहार करूं....उसे मार लूं....नहीं। विभाग में वैसे भी चर्चा कम नहीं...पाल ने मुझे रिकार्ड रूम में बैठा दिया...इस पर क्या लोगों ने जुगाली नहीं की होगी। कोई आप पर अत्याचार करता रहे और आप उसे बर्दाश्त कर उसके सामने घुटने टेके रहें यह भी उतना ही बड़ा अपराध है जितना बड़ा उसका आप पर अत्याचार करना। अपराधी वह भी है जो अपराध करने वाले को बर्दाश्त करता है और उसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बढ़ावा देता है। उदाहरण के लिए सत्ता के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति कितना ही ईमानदार क्यों न हो, लेकिन यदि वह अपने भ्रष्ट मंत्रियों को बर्दाश्त करता है....और वह भी महज इसलिए कि वह सत्ता सुख भोगता रहे तो देश के लिए वह भी उतना ही गुनाहगार है जितना उसके मंत्री....बावजूद इसके कि वह बेहद-बेहद ईमानदार व्यक्ति है।' उसने पुन: आंखें बंद कर लीं।
'बहुत हुआ....अब बिल्कुल नहीं....।'
''अरे क्या बहुत हुआ....क्या बिल्कुल नहीं कविवर।'' विराट बेड के पास खड़ा पूछ रहा था।
सुधांशु हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसका चेहरा पसीने से तरबतर था, ''कुछ नहीं....मुझे याद नहीं मैंने क्या कहा। थकान के कारण तंद्रिल अवस्था में मुंह से निकल गया होगा।''
''ऑफिस से आ रहे हो?''
''बनारस से....रास्ते में ट्रेन दुर्घटना हो गयी थी। गाड़ी दस घण्टे विलंब से पहुंची। ऑफिस नहीं जा पाया।''
''भाभी कहीं गई हैं?''
''हुंह।'' सुधांशु इस प्रसंग को यहीं विराम देना चाहता था, ''भोजन तैयार हो गया ?''
''अभी लाया।'' विराट किचन की ओर बढ़ गया।
खाना परोसते हुए विराट ने पूछा, ''सुधांशु जी, शोक से लौटे हैं आप...पूछना धृष्टता लग रही है लेकिन....बुरा न मानें तो एक-एक पेग हो जाये।''
सुधांशु ने सिर हिलाकर स्वीकृति दी। 'दिमाग जिस दुर्घटना से बोझिल है, एक पेग राहत देगा।' उसने सोचा और एक ही पर उसने विराम नहीं लिया। वे दोनों बोतल समाप्त होने तक पीते रहे और जब सुधांशु बेड पर गया आर.सी. के पांच पेग उसके पेट में पहुंच चुके थे। उसके बाद उसे होश नहीं रहा कि वह कहां था।
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उपसंहार
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घटनाएं इतनी तेजी से घटीं कि उसकी कल्पना सुधांशु कर ही नहीं सकता था। उसने यह तो सोचा था कि उसके अवकाश बढ़ा लेने से चमनलाल पाल ने अपने नाखून और तेज और नोकीले कर लिए होंगे और कार्यालय में उसके कदम रखते ही उसका क्रोध उस पर फट पड़ेगा, लेकिन बात यहां तक पहुंच जाएगी उसने नहीं सोचा था। सुबह जब वह सोकर उठा हल्का सिर दर्द था। 'रात अधिक पी गया था। उसने सोचा, 'मुझे पीना नहीं चाहिए था। पीकर अपने को भूलने-भुलाने का तर्क उचित नहीं है। जो कुछ हुआ उसके लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूं, लेकिन पिता और समाज के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं, पीकर उनसे मैं भटक जाउंगा। यदि पिता जी को पता चले तो वे क्या सोचेगें! वह कल्पना ही नहीं कर सकते कि मैंने शराब पी थी। मुझे अपने को संभालना चाहिए। पटना में भी विराट, सुकांत आदि पीते थे...सिन्हा ने कितनी ही बार कहा था, 'कैसे अफसर हो सुधांशु जी। एक घूंट लेकर देखो...पीकर साहित्य अच्छा लिखा जाता है।' सिन्हा की बात का मैंने खंडन किया था, 'मैं नहीं समझता कि महान रचनाएं लिखते समय उनके रचयिता धुत रहे थे....और सच यह है कि जो ऐसा मुगालता पालते हैं मुझे नहीं लगता कि वे कभी अच्छी रचनाएं लिख पाते हैं...जब मस्तिष्क ही स्वस्थ नहीं होगा तब विचार स्वस्थ कैसे हो सकते हैं!' उसने कहा था।
''यह बहस का मुद्दा हो सकता है।'' सिन्हा ने ठहाका लगाया था, ''आप कोल्ड ड्रिंक से ही काम चलाइये सुधांशु जी।''
'लेकिन वही मैं अब विराट के कहने मात्र से पीने बैठ गया। शायद इसलिए.....क्योंकि पटना में जीवन इतना अशांत नहीं था....घात-प्रतिघात और विश्वासघात जैसा कुछ नहीं घटित हुआ था। कार्यालय में शांति थी। सभी प्रशंसा करते थे....कोई खींचतान नहीं थी। ऐसा नहीं कि वहां रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार नहीं था। उतना ही था जितना प्ररवि विभाग के किसी भी कार्यालय में है या कहना चाहिए कि उससे बिल्कुल कम नहीं जितना अन्य सरकारी महकमों में पाया जाता है। वहां प्रर व प्ररवि विभाग के अधिकारियों के बीच सांठ-गांठ थी। लेकिन मुझे जिन अनुभागों का काम सौंपा गया था वे इस सबसे मुक्त थे।'
'लेकिन तनाव का अर्थ यह नहीं कि कोई अपने संस्कारों को ताक पर रख दे और वह सब करने लगे जिसके विषय में उसने कभी सोचा भी न हो। यदि सोचा भी हो तो उसे हेय दृष्टि से देखा हो।' बिस्तर पर पड़े-पड़े ही वह सोचता रहा और खर्राटे लेते विराट को देखता रहा, 'कितना मस्त जीवन है पट्ठे का। शादी की नहीं.....फिलहाल करने का विचार भी नहीं...जबकि मुझसे तीन वर्ष बड़ा है। फिर मैंने ही क्यों की....यदि रुका होता तब शायद प्रीति की वास्तविकता प्रकट हो चुकी होती। क्या उसने मुझे साधन के रूप में इस्तेमाल किया....क्या उसे मुझ जैसे एक मूर्ख की आवश्यकता थी। मैंने नहीं ही किया होता यदि मुझे इसकी यह वास्तविकता पता चल जाती कि उसके जीवन का लक्ष्य मौज-मस्ती है। सिध्दांत, नैतिकता और संस्कारों का उसके लिए कोई महत्व नहीं। भले ही शादी तक इसने उनके मुखौटे चढ़ा रखे थे, लेकिन शादी के बाद धीरे-धीरे वे उतरने लगे थे। तो क्या पिता नृपेन मजूमदार और कमलिका मजूमदार भी बेटी को समझ नहीं पाये थे!'
'ऐसा हो नहीं सकता। उन्होंने बहुत सोच-समझकर मेरे साथ उसके विवाह का निर्णय किया होगा। वे जानते रहे होंगे और उन्होंने सोचा होगा कि मुझ जैसे गरीब और संस्कारवान युवक के साथ ही प्रीति का निर्वाह हो सकता है। फिर भी अपनी बेटी के इस अध:पतन की कल्पना उन्हें कतई नहीं रही होगी। और यदि होती तब भी वे वही करते जो प्रीति चाहती। उसने सोचा होगा कि वह मुझे नियंत्रित कर लेगी....मनमानी कर सकेगी। और यही उसकी भूल थी। इस भूल की कीमत उसे कितनी चुकानी होगी नहीं जानता लेकिन अपनी भूल की कीमत मुझे चुकानी ही होगी।'
'मुझे अब करना क्या चाहिए!' सुधांशु पुन: उलझन में पड़ गया। रविवार तक विराट के साथ रहूं या पुन: किसी होटल की शरण लूं और विराट की सहायता लेकर कहीं एकमोडेशन किराए पर लूं। आज सामान विराट के यहां छोड़कर ऑफिस के बाद प्रापर्टी डीलर्स से मिलकर जगह तलाश करूंगा। कुछ दिनों बाद पिता जी को ले आने का प्रयत्न करूंगा...। लेकिन प्रीति के साथ रहना तो दूर उसकी शक्ल भी देखना मुझे स्वीकार नहीं। वह अब शायद ही प्रदीप श्रीवास्तव या किसी अन्य अधिकारी से दबाव डालने का प्रयत्न करे। उसे आभास हो गया होगा कि रात दरवाजा खटखटाने वाला मैं था। संभवत: डी.पी. ने मुझे जाते हुए देखा भी था...।'
सुधांशु बेड से जब उठा एक दृढ़ संकल्प उसके मन में था प्रीति के साथ अपने संबन्धों को लेकर। उसके कार्यालय के लिए निकलने तक विराट सोया हुआ था। उसने उसे जगाया और सूचित किया कि उस दिन भी वह उसके यहां ही आएगा।
''दूसरी चाबी लेते जाओ....मेरा क्या ठिकाना। पत्रकारिता की जिन्दगी....बहुत रात हो जाती है।''
उसने चाबी ली और सीढ़ियां उतर गया था।
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कार्यालय में अपनी सीट पर बैठे उसे आध घण्टा भी नहीं हुआ था कि लंबे डग भरता झूमता हुआ अरुण कुमार भट्ट बाथरूम की ओर की सीढ़ियों से ऊपर आता दिखाई पड़ा। उसके हाथ में गत्ता चढ़ा एक पतला रजिस्टर था, जिसमें से एक कागज झांक रहा था। दूर से ही भट्ट ने मुस्कराकर उसे गुडमार्निंग कहा।
'वेरी गुडमार्निंग' वह भट्ट के चेहरे की ओर देखने लगा।
''सर ये आर्डर रिसीव कर लें।'' भट्ट उसकी मेज के पास तनकर खड़ा हो गया।
भट्ट ने उसके सामने रजिस्टर खोला और आर्डर उसकी ओर बढ़ा दिया। पत्र मुख्यालय से भेजा गया ट्रांसफर आर्डर था। विषय के अंतर्गत केवल 'ट्रांसफर-एस्टै्रब्लिशमेण्ट' लिखा था। लेकिन दूसरी पंक्ति में बोल्ड अक्षरों में अपना नाम देखते ही उसके चेहरे पर गंभीरता पसर गयी।
उसने ट्रांसफर आर्डर ले लिया। उसे मद्रास के प्रधान निदेशक कार्यालय स्थानांतरित किया गया था। आर्डर में डी.पी. मीणा के हस्ताक्षर थे। लिखा था कि मुख्यालय यह सूचित करते हुए हर्ष अनुभव कर रहा है कि मंत्रालय ने प्रधान निदेशक कार्यालय मद्रास के लिए उसका स्थानांतरण करने का निर्णय किया है। मंत्रालय के निर्देशानुसार उसे तत्काल प्रभाव से प्रधान निदेशक कार्यालय 'के' ब्लॉक से कार्यमुक्त किया जाता है और सरकारी नियमानुसार उसे दस दिन के ज्वाइनिंग समय, व्यवधान, सामान ले जाने और यात्रा आदि भत्तों का प्रवधान है।'
सुधांशु पत्र पढ़ ही रहा था कि भट्ट बोला, ''सर, आप नीचे आकर अपना रिक्यूजीशन भर दें.......जिससे शाम तक आपको भत्तों का भुगतान किया जा सके।''
''रिक्यूजीशन फार्म यहीं भेज दीजिए....भरकर भेजवा दूंगा।''
''सर, अन्यथा नहीं लेंगे..।'' भट्ट ने उसी प्रकार तने हुए कहा, ''... अगर आप सेक्शन में आ जायेंगे तब सब फटा-फट हो जायेगा।''
''ठीक है।''
भट्ट चला गया।
स्थानांतरण से एक क्षण के लिए सुधांशु विचलित हुआ था, लेकिन तत्काल सोचा था, 'मैं तो यही चाहता था...पाल की छाया से मुक्ति....प्रीति से दूर.....।' मन में एक राहत का भाव उत्पन्न हुआ, लेकिन वह अधिक देर तक टिका नहीं। उसके अंदर एक टीस उठी...लगा कुछ दरक गया है। अपूर्णता के एहसास ने उसे आ घेरा। वह अतीत में खोने वाला ही था कि हिन्दी अधिकारी ने आकर कहा, ''सर नीचे से इंटरकॉम आया था कि आप जाकर जल्दी से अपना रिक्यूजीशन भर दें।''
''ओ. के.।'' उसने दीर्घ निश्वास ली और उठ खड़ा हुआ और एडमिन सेक्शन में जाने के लिए बाथरूम की ओर की सीढ़ियां उतरने लगा।
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शाम पांच बजे तक सुधाशु कार्यालय में रहा। भट्ट के बाद कैशियर ही उससे मिलने आया। उस दिन उसने स्वयं कूलर तक जाकर पानी का गिलास भरा। स्टॉफ के लोग उससे कतराते रहे थे.... बल्कि एक प्रकार का सन्नाटा उसने उनमें अनुभव किया था। रिकार्ड सेक्शन और हिन्दी सेक्शन में होने वाला शोरगुल उस दिन थमा रहा था। लोग फुसफुसाकर बातें कर रहे थे। 'शायद मेरे ट्रांसफर का आतंक सभी पर छाया हुआ है।' उसने सोचा। उससे मिलने न कोई अधिकारी आया, न ही किसी ने बुलाया और ना ही स्टॉफ के किसी सदस्य ने उसकी ओर रुख किया, जबकि वह अनुभव कर रहा था कि उसके ट्रांसफर की खबर कार्यालय में सभी को थी। यही नहीं दिल्ली के सभी कार्यालयों में भी यह खबर आग की लपट की भांति फैल चुकी होगी और संभव है कि बाहर ...कम से कम पटना तो पहुंची ही होगी। पटना वालों के लिए यह चौंकाने वाली खबर रही होगी।
'लेकिन नहीं, इस खबर ने किसी को भी नहीं चौंकाया होगा। स्टॉफ को अफसरों के आने-जाने से अधिक फर्क नहीं पड़ता। पड़ता उन्हे्रं कुछ अवश्य है जो किसी अफसर से लाभान्वित हो रहे होते हैं, लेकिन ऐसे लोगों को भी अधिक इसलिए नहीं क्योंकि अफसरों से लाभ उठाना उनके रक्त में होता है। जो भी आता है उसीसे वे नैकटय स्थापित कर लेते हैं। भ्रष्ट और रिश्वतखोर एक दूसरे को तुरंत पहचान लेते हैं। वे एक ही गलियारे से गुजरने वाले राही होते हैं...गलियारे जो देश को पतन के अंधकार तक ले जा रहे हैं। गलियारे जहां पाल जैसे लोग सुरक्षित और आश्वस्त हैं। ये आजादी के बाद का वह इतिहास रच रहे हैं जिसकी कल्पना गांधी, सुभाष, भगतसिंह और उनके साथियों ने नहीं की थी।' बीच-बीच में वह प्रीति के विषय में भी सोचने लगता।
'क्या उसे मेरे ट्रांसफर की सूचना नहीं होगी! ल्ेकिन मैं उसके विषय में सोच ही क्यों रहा हूं...नहीं मुझे उसे पूरी तरह दिल-दिमाग से निकाल देना चाहिए। भूल जाना होगा सुधांशु। उसने विश्वासघात किया है....एक अक्षम्य अपराध।'
'लेकिन मुझे उसके यहां से सामान लेने जाना ही होगा। यह अच्छा है कि चाबी मेरे पास है। आज समय नहीं मिला तब कल चला जाऊंगा.....लेकिन कल यदि वह ताला बदल दे......उसे आज ही ट्रांसफर की जानकारी हुई होगी....लेकिन जानकारी पहले से भी हो सकती है। मीणा ने उसे अवश्य बताया होगा। लेकिन हो सकता है कि मंत्रालय से आदेश आने के तुरंत बाद महानिदेशक ने मीणा को पत्र भेजने का आदेश दिया हो और मंत्रालय से आदेश आज ही आया हो। लेकिन मेरी स्थानंतरण की प्रक्रिया प्रारंभ होने के समय से ही मीणा इस बात को जानता रहा होगा। 'के' ब्लॉक से मेरे स्थानातंरण के लिए पाल ने महानिदेशक को कहा होगा......मंत्रालय केवल पदोन्नति के समय स्वयं स्थानातंरण करता है शेष स्थानातंरण मुख्यालय की अनुशंसा पर किये जाते हैं। पाल के कहने के बाद महानिदेशक ने मीणा को स्थानातंरण का मसौदा मंत्रालय को भेजने का आदेश दिया होगा। इससे मीणा निश्चित ही प्रसन्न हुआ होगा....।'
प्रीति और मीणा के प्रति उसकी घृणा बढ़ गयी। वह बाथरूम तक गया और वॉशबेसिन में थूककर मुंह धोया।
पांच बजे कैशियर ने आकर उसके भत्तों का भुगतान किया। पैसे जेब में रखकर वह कार्यालय से बाहर आ गया। दिमाग तेजी से चल रहा था। उसने पैण्ट की जेब टटोली...दो चाबियां थीं। स्पष्ट था कि एक प्रगति विहार हॉस्टल की थी। उसने दोनों चाबियां निकाल लीं ...देखा और आश्वस्त हुआ कि प्रीति के फ्लैट की चाबी थी उसके पास। मस्जिद के पास कुछ दूरी पर एक टैक्सी स्टैण्ड था। उसने टैक्सी ली और हॉस्टल पहुंचा। रास्ते में सोचता रहा, 'यदि प्रीति फ्लैट में मौजूद हुई तब....मुझे अपना सामान लेना है...उसका नहीं। होगी तब क्या वह मुझे मेरा सामान ले जाने से रोग सकेगी। मुझे सोफा-बेड-मेज-कुर्सी और किचन का कोई सामान नहीं लेना....यह सब ले जाकर मैं क्या करूंगा। मद्रास में मुझे गृहस्थी नहीं जोड़नी....केवल कपड़े और पुस्तकें ही समेटना है।'
फ्लैट में वही ताला बंद था जिसकी चाबी सुधांशु के पास थी। ताला खोल वह अंदर गया तो उसे यह अहसास हुआ कि किताबें और कपड़े वह कैसे ले जायेगा। बैग या सूटकेस तो है नहीं । क्षणभर ही उसने सोचने में नष्ट किया और बेड कवर उठा लिया। 'यह भी मेरा ही है।' उसने सोचा और बीस मिनट में उसने कपड़े, पुस्तकें, डायरी, फाइलें, पासपोर्ट, बैंक की पास बुक और चेक बुक आदि बेड कवर में बांधा। वजन अधिक था, इसके लिए उसे ड्राइवर को नीचे से सहायता के लिए बुलाकर लाना पड़ा।
जब वह प्रीति के फ्लैट से बाहर निकला सवा छ: बजे थे। उसने राहत की सांस ली।
उस रात भी विराट के साथ उसने चार पेग पी और सब कुछ भूलकर गहरी नींद सोया।
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प्रधान निदेशक कार्यालय 'के' ब्लॉक में उस दिन एक साथ दो घटनाएं घटी थीं। पहली यह कि सुबह सुधांशु को ट्रांसफर आर्डर पकड़ाया गया था और दूसरी तब घटी जब सुधांशु उस दफ्तर को अलविदा कह अकेला दफ्तर से बाहर निकला था, जो कि उस कार्यालय के इतिहास में पहली बार हुआ था। स्टॉफ के लोग प्राय: स्थानातंरित होकर बेगाने की भांति जाते ही रहते थे, लेकिन उस प्रकार जाने वाला वह पहला आई.ए.एस. अफसर था। वह जानता था कि सभी उगते सूर्य को सलाम करते हैं, लेकिन वह तो उगने से पहले ही बुझ रहा था...स्टॉफ के रिक्रियेशन क्लब के लोगों तक को उसकी याद नहीं आयी जो कार्यालय से अवकाश ग्रहण करने या स्थानांतरण पर जाने वाले अफसर से लेकर चपरासी तक की विदाई पार्टी आयोजित करते थे।
टैक्सी लेकर सुधांशु प्रगतिविहार हॉस्टल की ओर रवाना ही हुआ था कि कार्यालय मे शोर मचा कि चमनलाल पाल का प्रमोशन महानिदेशक पद पर हो गया है। महीने की अंतिम तिथि को महानिदेशक सी.रामचन्द्रन के अवकाश ग्रहण से एक दिन पूर्व पाल को महानिदेशक से कार्यभार ग्रहण करना होगा। इस आशय का पत्र कुछ देर पहले ही पाल को मिला था। चेहरे पर साल-छ: महीने में एक बार मुस्कान लाने वाले पाल का चेहरा खिल उठा था और समाचार पूरे दफ्तर में फैल गया था। सभी अफसर पहले 'मैं' के तर्ज पर पाल को बधाई देने पहुंच रहे थे। बाबू भी कैसे पीछे रहते। उन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि पाल के आतंक से उन्हें चंद दिनों बाद मुक्ति मिल जायेगी।
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सुधांशु ने निर्धारित तिथि को मद्रास में ज्वाइन किया। उसके ज्वाइन करने के दो दिन बाद उसे प्रीति का फोन मिला, जिसने उस पर अपने दस हजार रुपये उड़ा ले जाने का आरोप लगाया। सुधांशु के इंकार के बावजूद वह अपनी बात पर अड़ी रही और बहुत सख्त लहजे में बोली, ''हमारे संबन्ध जब इतने कटु हो चुके थे तब मेरी अनुपस्थिति में किस अधिकार से आप मेरे फ्लैट में गये थे। जब आपने यह उचित नहीं समझा कि जिसके साथ आपने विवाह किया उसे अपने स्थानातंरण की बात बताते....चर्चा करते....आप चोरी से यूं भागे मानो मैं आपको बांध लेती। आपने अपने सारे अधिकार स्वयं खोये....सामान के साथ मेरे रुपये भी ले उड़े....।''
''मैं केवल अपनी पुस्तकें, कपड़े, बैंक के कागजात और पासपोर्ट आदि ही लाया हूं...मुझे ....।''
''अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि विराट और उसके साथियों ने आपको बरबाद कर दिया.....।''
''और आपको किसने बरबाद किया...?'' सुधांशु संतुलन बनाये नहीं रख सका।
''यू शट अप....रॉस्कल....यू बीस्ट...तुम जैसे व्यक्ति की शक्ल भी मैं देखना पसंद नहीं करती....।'' और प्रीति ने फोन काट दिया।
दिन भर परेशान रहा था सुधांशु। वहां के गेस्ट हाउस में ठहरा था वह और शाम वहां जाते समय उसने रम खरीदी थी और देर रात तक पीता रहा था।
घटनाएं तेजी से घट रही थीं। मद्रास में उसे एक महीना ही बीता था कि पिता की मृत्यु की सूचना मिली। सूचना चार दिन बाद प्रधान कार्यालय 'क'े' ब्लॉक नई दिल्ली के माध्यम से मिली थी। स्पष्ट था कि पिता की अत्येंष्टि की जा चुकी थी। वह गांव गया और घर-खेत ममतू को देखभाल करने...कमाने-खाने के लिए देकर वापस लौट आया। उसके बाद वह कभी गांव नहीं गया। मद्रास कार्यालय में काम करने का उसका रिकार्ड अच्छा रहा और नियत समय पर उसे प्रमोशन मिला। आगे भी वह प्रमोशन पाता रहा, लेकिन उसके साथ ही उसके पीने की मात्रा भी बढ़ती गई। उसने अपने को घर-दफ्तर तक ही सीमित कर लिया था। सदैव विभाग के अधिकारियों से दूरी बनाकर रखी। उसके पास यदि कोई मिलने आया, प्रेम से किला, लेकिन घर का रास्ता उसने किसीको नहीं बताया। हर प्रमोशन के साथ वह अलग शहरों में स्थानातंरित होता रहा। प्राय: वह अकेले ही पीता और घर में पीता। पीते हुए वह अपने अतीत पर सोचता और ऐसा करते हुए कई बार उसे घण्टो बीत जाते। वह भोजन करना भूल जाता और अंत में एक बात कहता, 'मैंने गलत निर्णय लिया था....।''
लिखना-पढ़ना उसका पूरी तरह छूट गया था। हालांकि कभी-कभी वह चाहता कि कुछ लिखे, लेकिन विचार स्थिर नहीं रह पाते थे। विराट और उसके साथियों से संपर्क टूट चुका था। यहां तक कि रविकुमार राय से भी उसने संबन्ध तोड़ लिया था। उसने अपने को एक प्रकार से पिंजरे में कैद कर लिया था जहां वह था, दफ्तर था और शराब थी। बढ़ती उम्र के साथ वह इतना पीने लगा कि उसके फेफड़े खराब हो गये। किडनी में भी समस्या पैदा हो गयी। वह प्राय: अस्पताल के चक्कर लगाने लगा। उसने सदैव यह प्रयास किया कि प्रीति से कभी उसकी मुलाकात न हो....यहां तक कि विभागीय विषय पर कभी चर्चा का अवसर भी न आए। न उसने तलाक के विषय में सोचा और न प्रीति ने।
दो वर्ष पहले सुघांशु प्रमोशन पाकर निदेशक बनकर मेरठ पोस्ट हुआ। मेरठ पोस्ट होते ही उसके अस्पताल के चक्कर बढ़ गये थे। डाक्टरों ने उसे शराब से तौबा करने की सलाह दी ,लेकिन उसने डाक्टरों की एक न सुनी। उसने अपनी तीमारदारी के लिए एक नौकर रख लिया था जो उसके सर्वेण्ट क्वार्टर में रहता था। वह सुधांशु को डाक्टरों के कहे अनुसार चलने का सुझाव देने का साहस नहीं जुटा पाता था। वह वही करता जैसा सुधांशु उसे कहता। प्रतिदिन रात सुधांशु उसे पेग बनाने का आदेश देता। वह पीता और कुछ-कुछ बुदबुदाता, जिसके कुछ कतरे ही नौकर सुन पाता, 'मैंने गलत निर्णय किया....मैंने गलत....।''
सुधांशु इतना कमजोर हो चुका था कि चलते समय उसके पैर डगमगाते रहते थे। और उस दिन उस पर सांघातिक हृदयाघात हुआ। मेरठ मेडिकाल कॉलेज के डाक्टरों ने उसकी स्थिति नाजुक बतायी थी। डाक्टर उसे ऑपरेट करने पर विचार कर रहे थे। तभी उसे कुछ समय के लिए होश आया था और वह अपने पास से गुजर रही डाक्टर को प्रीति समझ बैठा था। लेकिन बमुश्किल एक घण्टा बाद वह पुन: बेहोश हो गया था।
और देर रात प्ररवि विभाग का सुधांशु दास नामका वह इंसान इस संसार से विदा हो चुका था।
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सोमवार को कार्यालय पहुंचने पर प्रीति को सुधांशु की मृत्यु का समाचार मिला। बताने वाले ने उसे यह भी बताया कि सुधांशु की अंत्येष्टि कार्यालय वालों ने अगले दिन यानी रविवार शाम तक उसकी प्रतीक्षा करने के बाद कर दी थी।
दीर्घ निश्वास ले प्रीति शुक्रवार को चन्द्रभूषण को दिया डिक्टेशन देखने लगी थी जिसे चन्द्रभूषण ने टाइप कर उस दिन कार्यालय से जाने से पहले उसकी मेज पर उसकी कुर्सी के ठीक सामने रख दिया था।
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रूपसिंह चन्देल
बी-3/230, सादतपुर विस्तार,
दिल्ली-110 094
मोबाइल नं. 9810830957

सोमवार, 14 नवंबर 2011

धारावाहिक उपन्यास

’गलियारे’
(उपन्यास)
रूपसिंह चन्देल

चैप्टर - ३५ से ४०
चमनलाल पाल के अप्रत्यक्ष संदेश को सुधांशु ने समझा और अपने कमरे में जाकर कुर्सी पर ढहकर देर तक उसकी बातों पर विचार करता रहा।
'पाल क्या करेगा....इस सीट से हटा देगा...हटा द,े मैं यही चाहता हूं। रिश्वतवाली सीट पर मैं काम करना भी नहीं चाहता। पूरा माफियाओं का गिरोह है....चपरासी से लेकर मंत्री तक। किसी ने सही कहा है...इस देश को ब्योरोक्रेट्स, नेता, और व्यापारी मिलकर खोखला कर रहे हैं। विकास के नाम पर भयानक लूट....दलालों की एक नयी कौम पैदा हुई है आजादी के बाद। इनके खरबों रुपये विदेशी बैंकों में जमा हैं। विपक्षी वह धन वापस लाने का शोर मचाते हैं, लेकिन सत्ता में होने पर वे चुप्पी साघ लेते हैं। कारण...उनके अपने लोग भी इस हमाम में नंगे हैं। जिसके पास जितना धन है वह उतना ही भर लेना चाहता है। आजादी के बाद अफसरों की एक ऐसी जमात पनपी जिसके लिए नैतिकता का अर्थ रिश्वतखोरी हो गयी। मंत्रियों को भी वे रास्ता बताने-दिखाने लगे और उनके बहाने स्वयं अपनी भावी पीढ़ियों के लिए धन-संग्रह में संलग्न हो गये। इस बीमारी ने आज संक्रमण का रूप धारण कर लिया है। स्थिति भयानक है ...।'
''सर, मैं अंदर आ सकता हूं?'' भट्ट एक फाइल थामें दरवाजे पर खड़ा था।
कुर्सी पर संभलकर बैठते हुए सुधांशु बोला, ''इसे कल सुबह पुट-अप करना।''
''सर अर्जेण्ट है। पी.सी एण्ड संस की फाइल है।'' भट्ट दरवाजे पर ही खड़ा रहा।
''होगी।'' सुधांशु को लगा कि भट्ट हल्के-हल्के मुस्करा रहा था।
'पी.डी. (प्रधान निदेशक) और इसमें खूब छनती है...कमीशन का बिचौलिया भट्ट ही है। मेरे खिलाफ किसी और ने कुछ कहा या नहीं, लेकिन इसने अवश्य कहा होगा।' सुधांशु सोच रहा था।
''भट्ट, मैं इस केस को कल ही देखूंगा, फाइल आप बेशक रख दें।''
''जी सर।'' भट्ट ने फाइल सुधांशु की मेज पर रखा और वापस लौट पड़ा।
''मिस्टर भट्ट, आपने पी.डी. साहब को मेरे लिखने-पढ़ने के संबन्ध में कुछ कहा था?''
''सर, लिखना-पढ़ना....मैं समझा नहीं, सर।''
''साहित्यिक लेखन से आभिप्राय है।''
''सर, आप लिखते हैं? कितना अच्छा है सर! मुझे यकीनन पता नहीं था, लेकिन यह तो बड़ी अच्छी बात है सर। मेरा भाग्य कि आपके साथ काम करने का सौभाग्य मिला मुझे। सर, कलाकार होना कितनी बड़ी बात है। कभी मैंने भी....जब बेकार था, कुछ कविताएं लिखी थीं, लेकिन जिन्दगी की गाड़ी में बैल बनते ही सब अतीत की बातें हो गयीं। सर, आप अपनी प्रतिभा को चमकाएं, सर....।''
''हुंह...।'' भट्ट का बोलना सुधांशु को अप्रिय लग रहा था। कमीशन देने वाले दिन से ही उसे उसकी शक्ल से चिढ़ हो गयी थी, लेकिन भट्ट को पी.डी. का आशीर्वाद प्राप्त था इसलिए उस जैसा कनिष्ठ अफसर उसके विरुध्द कुछ कर नहीं सकता था।
''सर, जाने से पहले इस केस को देख लेंगे तो...।''
''कल ही देखूंगा....।''
''ठीक है सर।'' भट्ट दो कदम दरवाजे की ओर बढ़ा, फिर ठिठक कर बोला, ''सर अगर पी.डी. सर ने इस फाइल के बारे में पूछ लिया?''
''कह देना मेरे पास पुट-अप है।''
''जी सर।'' भट्ट के बाहर जाते ही सुधांशु पुन: कुर्सी से सिर टिका पीछे झुककर लेट गया और सोचने लगा अपने विभाग के बारे में।
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उस दिन के बाद चमनलाल पाल ने सुधांशु को बुलाना बंद कर दिया। उसके अनुभागों की किसी फाइल या किसी केस पर चर्चा करना होता तब पाल सुधांशु को न बुलाकर उसके अधीनस्थ अधिकारियों...कभी लेखाधिकारी तो कभी अनुभाग अधिकारी को बुलाकर विचार-विमर्श करता और उस पर अपनी टिप्पणी दर्ज कर देता। इस बात की जानकारी सुघांशु को तब होती जब फाइल उसके पास वापस नहीं आती थी, जबकि पाल के पास फाइल उसके माध्यम से जाती थी। एक-दो दिन बाद वह उस फाइल को मंगवाता और देखकर हैरान नहीं होता। ऐसा क्याें हो रहा था वह भलीभांति समझ रहा था और इसीलिए उसने कांट्रैक्टर्स के अधिकांश मामले पाल के पास भेजने शुरू कर दिए थे। यद्यपि एक करोड़ रुपयों तक के भुगतान के लिए निर्णय का अधिकार उसे था, लेकिन अब वह वे सभी मामले, जिनमें वह अनियमितता पाता, पाल के पास भेजने लगा था। अपने प्रति पी.डी. के विचार वह समझ चुका था। पी.डी. केन्द्रीय मंत्रालय के एडीशनल सेक्रेटरी के समकक्ष पद का व्यक्ति था, जिसे उसके विरुध्द अनुशासनात्मक कार्यवाई का अधिकार था और वह नहीं चाहता था कि जो स्थिति उत्पन्न हो चुकी थी उसमें पाल उसकी किसी चूक के लिए उसके विरुध्द कोई कार्यवाई करे।
लेकिन एक दिन पाल ने उसे बुला लिया। इतने वर्षों की नौकरी में सुधांशु ने विभाग के मिजाज को भलीभांति समझ लिया था। वह जानता था कि पी.डी. ने उसे क्यों बलाया था।
पाल ने उसे बैठने के लिए नहीं कहा, लेकिन वह उसके सामने की कुर्सी पर बैठ गया। पाल का चेहरा प्राय: की भांति तना हुआ था। विभाग में यह कहावत प्रसिध्द थी कि जिस दिन पाल मुस्करा देता है उस दिन मौसम सुहाना होने की संभावना समझना चाहिए और जिस दिन वह हंसे समझना चाहिए कि उस दिन वर्षा अवश्य होगी। बेहद शुष्क प्रकृति का माना जाता था पाल।
''आपने याद किया सर।''
''आप ये फाइलें देख रहे हैं?'' मेज पर लगे फाइलों के अंबार के पीछे से पाल बोला।
सुधांशु चुप रहा।
''आपको मालूम नहीं कि कौन-से मामले मुझे भेजे जाने चाहिए!''
''सर, वह हर केस आपके संज्ञान में लाना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं जिसमें कुछ भी अनियमितता है।''
''क्यों? मेरा काम बढ़ाने और परेशान करने के लिए।''
''सर, आपको परेशान करने के विषय में मैं सोच भी नहीं सकता। आप हमारे इंचार्ज हैं और आपको ऐसे हर मामले की जानकारी हानी चाहिए....।''
''एक करोड़ तक के मामले जब आप सवयं निबटा सकते हैं तब उतने या उससे कम के बिलों के बारे में मुझे बताना....मेरा काम बढ़ाना.....आपको उचित लगता है.....?''
''सर, बिल न पास करने की शिकायतें मेरे विरुध्द आप तक पहुंचें उससे पहले आपको मामले की जानकारी देना मैं अपना कर्तव्य समझता हूं।''
''अच्छा....आप चाहते हैं कि अब आपके काम भी मैं करूं...फिर विभाग को आपकी क्या आवश्यकता....?''
सुधांशु ने चुप रहना उचित समझा।
''दरअसल, आप एक नाकाबिल अफसर हैं। आप अपने अधिकार के निर्णय स्वयं नहीं ले सकते....अपने वरिष्ठों की परेशानी बढ़ाने में आपको आनंद आता है।''
''आप मुझे गलत समझ रहे हैं सर।''
''सही समझ रहा हूं। आप अपनी इन हरकतों पर यदि नियंत्रण नहीं रख पाये तब आपके विषय में मुख्यालय बात करनी होगी।'' क्रोध पाल के चेहरे पर स्पष्ट झलक रहा था।
सुधांशु का मन हुआ कि वह कह दे कि वह गलत बिलों का भुगतान नहीं करेगा...भले ही पाल जो चाहे करे। लेकिन वह चुप रहा। जानता था कि दो वर्ष के अंदर उसका प्रमोशन होगा, वह उप-निदेशक बनेगा और यदि चिढ़कर पाल ने एक भी वार्षिक गोपनीय रपट खराब लिख दी, उसका प्रमोशन रुक जायेगा।
''ये फाइलें मैं भेजवा रहा हूं....विवेकानुसार निर्णय लें, लेकिन खयाल रखें कि कांट्रैक्टर्स को परेशानी न हो।'' और पाल उठकर चेम्बर के साथ संलग्न बाथरूम चला गया।
सुधांशु अपनी सीट पर वापस लौटा। वह कुर्सी पर बैठा ही था कि अरुण कुमार भट्ट ने दरवाजा खटखटाया।
''यस।'' ऊंची आवाज में सुधांशु बोला।
भट्ट कमरे में प्रविष्ट हुआ, ''सर, पी.डी. सर ने फाइलें वापस ले जाने के लिए कहा है....मंगवा लूं सर?''
''मुझसे क्यों पूछ रहे हैं?'' सुधांशु का स्वर उत्तेजित था।
''सर, उन्होंने अभी बुलाकर मुझे कहा।''
'उनकी आज्ञा की अवहेलना कर पायेंगे?''
''जी नहीं सर।''
''फिर मुझसे क्यों पूछ रहे हैं?''
''सॉरी सर।'' भट्ट वापस लौट गया। कुछ देर बाद ही ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन की सभी फाइलें चपरासी सुधांशु की मेज पर रख गया।
सुधांशु ने समय नष्ट न कर सभी फाइलों पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की। सुझाव लिखे और जिन बिलों में कमियां थीं उन्हें लौटाने और शेष जिनमें सामान्य त्रुटियां थीं उन्हें कांट्रैक्टर्स के प्रतिनिधियों को बुलाकर दुरस्त करवाने की टिप्पणी दर्ज कर सेक्शन को लौटा दिया। फाइलें वापस मिलते ही भट्ट ने सभी कांट्रैक्टर्स को फोन किया और बिल वापस ले जाने और उन्हें पुन: प्रस्तुत करने के लिए कहा। फोन करते समय उसका सेक्शन अफसर पास बैठा था।
''सुधांशु सर खुद भी मरेंगे और मुझे भी ले डूबेंगे।'' चिड़चिड़े स्वर में अनुभाग अधिकारी से भट्ट ने कहा।
अनुभाग अधिकारी चुप रहा। उसकी नौकरी नौ वर्ष पुरानी थी जबकि भट्ट पचीस वर्ष पूरे कर चुका था। अनुभाग अधिकारी समझता था कि उसे कभी भी और कहीं भी सुधांशु के साथ काम करना पड़ सकता है और तब वह उसका संयुक्त निदेशक, निदेशक या प्रधान निदेशक.... कुछ भी होगा।
''बड़े देशभक्त बनते हैं सुधांशु जी। दुनिया अपना घर पहले देखती है...लेकिन इन्हें अपनी चिन्ता ही नहीं...हो भी क्यों...बीबी भी बराबर कमा रही है, लेकिन मुझ जैसे सामान्य व्यक्ति का खयाल भी रखना चाहिए न इन्हें। खुद न लो, लेकिन हमारी कमाई में टांग भी मत अड़ाओ।'' फोन का रिसीवर पटक भट्ट अनुभाग अधिकारी से बोला, ''सभी बिलों के साथ वापसी का पत्र लगा दो...खुद ही हस्ताक्षर कर देना।''
''सर, पत्रों पर सुधांशु सर के हस्ताक्षर होने चाहिए।''
''होने तो चाहिए...लेकिन उससे और विलंब होगा। आप ही कर देना।''
''जी सर।''
अपने बहुत से बिल वापस लौटने से कांट्रैक्टर्स सकते में आ गए। पुन: पाल के पास शिकायतें पहुंचीं, लेकिन पाल ने न कांट्रैक्टर्स को मिलने का समय दिया और न ही सुधांशु को बुलाया। उसने सुधांशु की हर गतिविधि पर दृष्टि रखने के लिए भट्ट को निर्देश दिया, लेकिन सुधांशु पहले से ही सतर्क था। वह जानता था कि दाढ़ में खून लगने के बाद वह न मिलने पर पशु और अधिक हिंस्र हो उठता है।
इस मध्य उसे गांव से पिता का तार मिला मां की गंभीर अस्वस्थता का। तार नत्थीकर उसने पांच दिन के अवकाश का प्रार्थना पत्र पाल के पास भेज दिया। पाल ने पांच दिन के स्थान पर तीन दिन का अवकाश प्रदान किया। सुधांशु को यह अपमानजनक लगा। उसने प्रीति को फोन किया और कहा कि वह तीन दिनों के लिए गांव जा रहा है। वह मुख्यालय के लिए अधिकारियों को एयर टिकट बुक करवाने वाले एजेंट से रात बनारस की किसी फ्लाइट की टिकट की व्यवस्था करवा दे। मुख्यालय में यह काम अमन अरोड़ा करता था। प्रीति ने यह बात अरोड़ा से न कहकर मीणा से कही और मीणा ने अरोड़ा को बुलाकर टिकट मंगाने का निर्देश दिया।
''जाने का ही या आने का भी?'' मीणा ने प्रीति से पूछा। प्रीति ने सुधंांशु से पूछा। सुधांशु ने चौथे दिन सुबह लौटने की फ्लाइट का टिकट भी मंगाने के लिए कहा। मीणा के निर्देश पर अरोड़ा ने एक घण्टे के अंदर टिकटों की व्यवस्था कर दी। प्रीति ने सुधांशु को फोन कर बताया, ''आठ बजकर पैंतालीस मिनट की फ्लाइट है। तुम घर जाकर तैयार हो, मैं स्टॉफ कार लेकर घर से तुम्हे पिक-अप कर एयरपोर्ट छोड़ दूंगी।''
और प्रीति ने वैसा ही किया।
प्रीति ने अमन अरोड़ा से स्टॉफ कार उपलब्ध करवाने और उसके न होने पर एजेंसी से मंगवा देने के लिए कहा। अरोड़ा ने डी.पी. मीणा से चर्चा की। उसके संज्ञान में यह बात आना आवश्यक था। मीणा को पता चला तो उसने प्रीति को इंटरकॉम करके बुला लिया।
''प्रीति, तुमने अरोड़ा को स्टॉफ कार के लिए क्यो कहा?''
''सॉरी सर।''
''तुम मुझे गलत समझ रही हो। मैंने यह इसलिए पूछा, क्योंकि ये छोटे लोग हैं...धूर्त हैं...दुष्ट...तुम्हारे लिए एक काम करेंगे और तुमसे दस काम करवाना चाहेंगे।'' मीणा रुका, ''सुधांशु को एयरपोर्ट छोड़ने जाना है?''
''जी....।''
''नो प्राब्लम। ट्रेवल एजेंसी को गाड़ी के लिए फोन करवा देता हूं। सुधांशु को छोड़ने के बाद मुझसे अवश्य मिल लेना। आय विल बि इन ऑफिस....।''
''यस सर।''
सुधांशु को एयरपोर्ट छोड़कर प्रीति आठ बजे जब मुख्यालय पहुंची मीणा उसका इंतजार कर रहा था। दफ्तर खाली था। गेट में सेक्योरिटी के जवान तैनात थे और कार्यालय में सेवा अनुभाग का एक बाबू और एक चपरासी थे। वैसे जब भी मीणा देर तक कार्यालय में रुकता, प्रशासन एक का अनुभाग अधिकारी या लेखाधिकारी और बाबू भी बैठे रहते थे, लेकिन उस दिन उसने किसी को नहीं रोका था।
प्रीति के पहुंचते ही मीणा ने घण्टी बजाकर सेवा अनुभाग के बाबू को बुलाया और दो कोल्ड ड्रिंक लाने का आदेश दिया।
''सर, आवश्यकता नहीं।''
''मैं पीना चाहता हूं....साथ रहेगा।''
प्रीति चुप रही। मीणा ने प्रीति के चेहरे पर नजरें टिका दीं, ''तुम्हारी मदर इन-लॉ की क्या उम्र है?''
''अनुमान नहीं है।''
''फिर भी साठ के आसपास होंगी ही...।''
''मे बी।''
''हुंह।'' मीणा ने प्रीति के चेहरे पर से नजरें हटा लीं और गंभीर होकर कुछ सोचने लगा।
सेवा अनुभाग का बाबू कोल्ड ड्रिंक ले आया था।
ड्रिंक पीते हुए चेहरे पर गंभीरता ओढ़े हुए ही मीणा बोला, ''आज मेरी बेगम साहिबा इस समय घर पर नहीं हैं....रात देर से लौटेंगी, इसीलिए यहां बैठा हूं।''
प्रीति ने कुछ नहीं कहा। वह धीमी गति से कोल्ड ड्रिंक पीती रही।
''दरअसल मेरी साली साहिबा दिल्ली में हैं....आज उनके बच्चे का जन्मदिन है। बेगम दावत खाकर आयेंगी।'' मीणा ने फिर प्रीति के चेहरे पर दृष्टि गड़ा दी, ''तुम आज मेरे साथ डिनर लो...।''
''घर में ही लेना पसंद करती हूं।'' प्रीति ने धीमे स्वर में कहा।
''ऐसी भी क्या बात है। डिनर के बाद मैं तुम्हे घर छोड़ दूंगा।''
प्रीति चुप रही। उसकी चुप्पी को स्वीकृति मान मीणा साढ़े आठ बजे उठ खड़ा हुआ और प्रीति से बोला, ''लेट अस गो...खान मार्केट में किसी रेस्टॉरेण्ट में कुछ खा लेंगे। पास ही तुम्हारा घर है...।'' उसने प्रीति के चेहरे पर दृष्टि गड़ा पूछा, ''एनी प्राब्लम...?''
प्रीति चुप रही।
''ओ.के.।'' मीणा तेजी से गेट की ओर बढ़ा।
मीणा प्रीति को उसके फ्लैट तक छोड़ने गया। प्रीति का फ्ैलट प्रथम तल पर था। मीणा उसके साथ ऊपर तक गया। ताला खोल प्रीति जब कमरे में जाने लगी मीणा दरवाजे पर खड़ा रहा। प्रीति द्विविधा में पड़ गयी। वह मीणा को अंदर आने के लिए कहना नहीं चाहती थी। हाथ में ताला लिए वह खड़ी रही यह सोचती हुई कि मीणा वापस लौटने के लिए कहेगा। कार से उतरते समय ही उसने यह सोचा था कि उसके उतरते ही मीणा वापस चला जाएगा, लेकिन जब मीणा ने कार पार्क कर, ''मैं तुम्हें फ्लैट तक छोड़ आता हूं,'' कहा तब वह मना नहीं कर पायी थी।
प्रीति के असमंजस को भांप मीणा बोला, ''चिन्ता न करो प्रीति...पांच मिनट रुकूंगा...।'' और वह पहले कमरे में सोफे पर बैठ गया। प्रीति फिर भी खड़ी रही।
''एक कप चाय पिलाओ....डिनर के बाद चाय की आदत है। घर में मिलेगी नहीं...।''
''यस सर।''
''यार, घर में भी यह सर...सर...ठीक नहीं लगता....मैंने एक दिन कहा था कि मुझे अपनों से डी.पी. सुनना पसंद है। मुझे डी.पी. कहो...।''
''जी।''
प्रीति चाय बनाने किचन में गयी तो मीणा ने उठकर हल्के से दरवाजा भेड़ दिया, जो तब तक खुला हुआ था और प्रीति के पीछे किचन तक जा पहुंचा। प्रीति चाय के लिए कप में पानी ले रही थी। वह दबे पांव आते मीणा को नहीं जान पायी। मीणा ने पीछे से उसे पकड़ लिया, ''प्रीति आय लव यू...लव यू प्रीति...।''
''सर...प्लीज सर....।''
''प्रीति ...माय डियर....।'' मीणा ने प्रीति को गोद में उठा लिया। प्रीति छटपटाती रही....लेकिन अधिक विरोध भी नहीं किया। मीणा को लेकर जो सकारात्मक भाव उसके मन में पिछले कुछ दिनों से चल रहा था उसने उसके विरोध को कुंद कर दिया था। मीणा उसे लेकर बेडरूम में गया। उसे बिस्तर पर डाल उसने लपक कर दरवाजा बंद किया। मीणा की मजबूत पकड़ से प्रीति के शरीर में घंटिया बजने लगी थीं। उसे सुधांशु की पकड़ याद आयी, जो उस क्षण उसे लिजलिजी और बेजान का एहसास करा गयी थी।
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भाग-चार
(36)
सुधांशु को तीन दिन के लिए अवकाश बढ़ाना पड़ा। मां को बनारस लाना पड़ा जहां डाक्टरों ने अनेक टेस्ट लिख दिए। पिता के लिए वह सब कठिन समझ उसने उसी आधार पर तीन दिन अवकाश बढ़ाने का अनुरोध तार द्वारा प्रधान निदेशक को भेज दिया। प्रीति को फोन कर कहा, ''तीन दिन का अवकाश बढ़ाने का तार मैंने पी.डी. को भेजा है। तुम मेरे संयुक्त निदेशक श्रीवास्तव को फोन करके बता देना।''
''माता जी की तबीयत कैसी है?''
''गंभीर...मैं बनारस में हूं। उनके कई टेस्ट होने हैं।''
''डाक्टरों ने क्या बताया?''
''कैंसर का अनुमान है...बाकी आकर बताऊंगा। तुम मेरे आफिस...।''
''डोंट वरी...टेक केयर....।''
ल्ेकिन जब सुधांशु कार्यालय पहुंचा, भट्ट ने उसे सूचित किया कि पी.डी. सर का आदेश है कि आप आते ही उनसे मिल लें। सुधांशु कमरे में जाने ही वाला था जब चमनलाल पाल का आदेश उसे भट्ट ने सुनाया। उसने अटैची भट्ट के हवाले की, ''इफ यू डोंट माइण्ड मिस्टर भट्ट...इसे आप मेरे कमरे में रख दें....मैं...।''
''इट्स माय प्लेजर सर।'' भट्ट ने अटैची थाम ली और दो कदम सुधांशु के साथ चलते हुए पूछा, ''सर सीधे स्टेशन से आ रहे हैं?''
''एयर पोर्ट से...।''
''जी सर...।'' भट्ट अपने कमरे की ओर मुड़ गया। पी.डी. के चेम्बर की ओर जाते हुए सुधांशु सोचता रहा कि भट्ट उसके कमरे में अटैची रखने न जाकर अपने कमरे की ओर क्यों मुड़ा!
सुधांशु को देखते ही पाल का चेहरा पहले की अपेक्षा अधिक तन गया। उसने उसके गुडमॉर्निगं का उत्तर नहीं दिया। सुधांशु कुर्सी पर बैठने-न बैठने की उहापोह में था कि पाल ने पूछा, ''मिस्टर दास, मेरा खयाल है कि डिपार्टमण्ट में आपकी सर्विस को कई वर्ष हो चुके हैं।''
''सर।'' सुधांशु ने बैठने का इरादा त्याग दिया। समझ गया कि पाल उसे अपमानित करना चाहता है।
''आज तक आप यह नहीं समझे कि विभाग के अपने कुछ नियम-कानून और मर्यादा होती है।''
''मैं समझा नहीं सर।''
''किस गधे ने आपको आई.ए.एस. बनाया? आप इतनी मामूली बात भी नहीं समझ पाए तब आप सरकार की सेवा क्या करेंगे।''
''सर, मेरा चयन करने वाले लोग भी योग्य थे और मुझे भी अपनी योग्यता पर विश्वास है।''
''ओह।'' चेहरे पर व्यंग्यात्मक भाव लाकर पाल बोला। यह पहला अवसर था कि किसी कनिष्ठ अफसर ने उसे इस प्रकार उत्त्र दिया था। वह तिलमिला उठा। लोगों का अपमान करना उसने अपना जन्म सिध्द अधिकार माना हुआ था। उसे कैम्ब्रिज से पढ़े होने का गर्व था और जब तब वह अपने समकक्षों के समक्ष यह शेखी बघारता रहता था। यही नहीं वह अपने समकक्षों की भी खिल्ली उड़ाता, लेकिन उसकी उजड्डता के कारण कोई उसे तरजीह नहीं देता था। लोग विवाद बढ़ाए बिना मुस्करा कर टाल जाते थे, जिससे पाल का अहम तुष्ट होता था और उसके हौसले बढ़ जाते थे। कई अवसरों पर उसने महानिदेशक को भी दो टूक बातें कही थीं, जिसके पद की गरिमा का खयाल रखते हुए विभाग के सभी अधिकारी चुप रहा करते थे।
''आपको किस दिन रिपोर्ट करनी थी?''
''सर मां को बनारस लाना पड़ा।''
''तो...?''
''बहुत से टेस्ट करवाने थे....उन्हें कैंसर है।''
''सरकारी सेवा शर्तें आपने पढ़ी हैं?''
''जी सर....।''
''सभी के यहां कोई न कोई बीमार होता ही रहता है...ऐसे तो दफ्तर ही बंद कर दिया जाना चाहिए....करवायें जाकर सभी अपने रिश्तेदारों के इलाज...।''
सुधांशु चुप रहा।
''मिस्टर दास, नौकरी करनी है तब ढंग से करें वर्ना जाकर मूंगफली बेचें और करवायें अपने घरवालों के इलाज....डिपार्टमण्ट ने किसी की बीमारी का ठेका नहीं लिया। ओ.के. ...।'' पाल उठा और बाथरूम की ओर बढ़ते हुए बोला, ''माइण्ड इट।''
पाल के बाथरूम में प्रवेश करते ही सुधांशु उसके चेम्बर से बाहर निकल आया। उसका चेहरा उदास था और वह अनुभव कर रहा था कि उसकी स्थिति किसी गुलाम से कम न थी।
'कहने के लिए ही हम आजाद भारत में सांस ले रहे हैं। यहां जब मुझ जैसे क्लास वन अधिकारी की सांस पर उच्चाधिकारियों का अंकुश है तब आम आदमी-गरीब आदमी की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। अधिकारीवर्ग में उच्च वर्ग से आये लोगों की सामंती मानसिकता नहीं बदली। वे सामान्य परिवारों ...समाज के नीचे तबके से आए लागों के प्रति आज भी अपमानजनक रुख रखते हैं। विभाग में सभी सबसे पहले यह जानने का प्रयत्न करते हैं कि कौन-किस सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि से आया है और उसी अनुरूप व्यवहार करते हैं। यदि यह कहा जाये है कि देश की अस्सी प्रतिशत जनता आज भी गुलामी के साये में जी रही है तो अत्युक्ति न होगी।'
गंभीर सोच में डूबे सुधांशु ने अपने कमरे का दरवाजा खोला। अपनी सीट पर एक नया चेहरा देख वह चौंका। उस पर दृष्टि पड़ते ही चेहरा उठ खड़ा हुआ, ''गुडमॉर्निंग सर। आय एम विनीत खरे...।''
खरे ने मिलाने के लिए हाथ आगे बढ़ा दिया।
हाथ मिलाकर, चेहरे पर मुस्कान ला, जिसके विषय में वह जानता था कि वह कृत्रिम थी, सुधांशु ने खरे को बैठने का इशारा किया, ''आपने कब ज्वायन किया मिस्टर खरे ?''
''सर, कल...बैठें सर।''
खरे से सुधांशु को ज्ञात हुआ कि वह मेरठ के निदेशक कार्यालय से आया था। उसने कहा, ''सर, परसों शाम चार बजे मुख्यालय से डी.पी. मीणा सर ने फोन कर मुझे कल सुबह यहां ज्वायन करने का आदेश दिया था।'' खरे क्षणभर के लिए रुका, ''उन्होंने कहा था कि मेरा ट्रांसफर आर्डर बाद में भेज दिया जाएगा....फिलहाल मैं आपकी सीट का काम देखने के लिए यहां पहुंचूं।''
''ओ.के.।'' सुधांशु सोचने लगा, 'अच्छा ही हुआ...इस सीट से मैं आजिज आ चुका था...।'
''सर चाय लेंगे?'' सुधांशु आगे कुछ सोचता कि खरे बोला।
''नो...थैंक्स...आपको मालूम है कि मुझे किधर बैठना है!''
''सर, ज्वायंट सर को पता होगा...मैं तो कल ही....।''
''ओ.के....मैं उनसे पता कर लेता हूं।''
सुधांशु उठ खड़ा हुआ। उसने अपने विरुध्द षडयंत्र की गंध अनुभव की। उसे कार्यालय की हवा दमघोंटू प्रतीत हो रही थी।
गैलरी में वह ज्वायंट डायरेक्टर के चेम्बर की ओर शिथिल कदमों से बढ रहा था कि पाल के चेम्बर से फाइल थामे भट्ट आता दिखाई दिया। सुधांशु को लगा कि भट्ट के चेहरे पर उसे देख व्यंग्यात्मक मुस्कान थी। 'मुझे उस सीट से हटाये जाने से भट्ट सर्वाधिक प्रसन्न हुआ होगा।' सुधांशु ने सोचा, 'भ्रष्टाचार की ये सब छोटी मछलियां हैं.....बड़ी मछलियां संसद से लेकर ब्यूरोक्रेसी के ऊंचे पायदान पर विराजमान हैं और इनमें से कभी किसी का कुछ भी बिगड़ने वाला नहीं। इनवेस्टिगेटिंग एजेंसीज जांच करती हैं...दो-चार के घरों-दफ्तरों में छापे मारे जाते हैं...वे सस्पेण्ड होते हैं और वे सब वे अधिकारी होते हैं जो मंत्रियों-नेताओं से ताल-मेल नहीं बैठा पाते या जो उनकी मुंह मांगी रकमें नहीं दे पाते....लेकिन किसी नेता के घर छापेमारी नहीं होती....हुई भी तो भी उसे जेल नहीं होती....क्योंकि व्यवस्था इतनी भ्रष्ट है कि उसके विरुध्द समय से आरोप पत्र तैयार नहीं होते और हुए भी तो उसमें जान-बूझकर इतनी खामियां खोज लेता है आरोपित का वकील कि केस कमजोर हो जाता है....सभी जानते हैं कि वे कमियां उसे बचाने के लिए ही छोड़ी जाती हैं।'
'इस देश में एक क्रांति की आवश्यकता है....भ्रष्टाचार के विरुध्द एक क्रांति...।'
''सर आपकी अटैची मेरे कमरे में रखी है।'' भट्ट की आवाज से उसका चिन्तन टूटा, ''ठीक है।'' उसने अनुमान लगाया कि भट्ट ने जे.डी. के चेम्बर की ओर जाते हुए मुड़कर उसे देखा था।
सुधांशु जे.डी. के पी.ए. से मिला, जो डिक्टेशन टाइप कर रहा था।
''जे.डी. सर, सुबह से ही आपका इंतजार कर रहे हैं। आप चले जाइये सर।'' डिक्टेशन टाइप करते हुए ही पी.ए. बोला।
जे.डी. प्रदीप श्रीवास्तव के पी.ए. ने बज़र देकर सुधांशु के मिलने आने की सूचना श्रीवास्तव को दी और सुधांशु से बोला, ''जाइये सर।''
सुधांशु के चेम्बर में प्रवेश करते ही श्रीवास्तव ने मुस्कराकर कहा, ''आपकी मां कैसी हैं?''
''मां ....उन्हें कैंसर डिटेक्ट हुआ है सर....लंग्ज कैंसर...सत्तर प्रतिशत...।''
''सो सैड...।'' श्रीवास्तव ने दुख प्रकट किया और देर तक कैंसर पर बोलता रहा और बताता रहा कि किस प्रकार उसके पिता कैंसर का शिकार होकर असमय मौत के मुंह में जा चुके थे। अंत में वह बोला, ''आप बहुत एकांत प्रिय व्यक्ति हैं। इतने दिनों से इस कार्यालय में हैं, लेकिन पहले दिन के बाद आप आज दूसरी बार मेरे चेम्बर में आए हैं।''
सुधांशु ने उत्तर नहीं दिया। वह अपनी सीट के बारे में जानने को उतावला था। पूछना चाहता था लेकिन श्रीवास्तव ने तब तक अवसर नहीं दिया था।
''पी.डी. सर से मुलाकात हो गयी?'' श्रीवास्तव स्वयं मुद्दे पर आ गया।
''जी सर।''
मुस्कराया श्रीवास्तव, ''सुधांशु कभी-कभी ऐसे क्षण आते हैं, लेकिन न ही उससे हताश होना चाहिए और न ही अपमानित। यह दफ्तर है। दफ्तर को उसी भाव से लेना चाहिए। आओ तब दफ्तर के हो रहो, जाओ तब इसे झाड़कर बाहर निकलो...दफ्तर को लेकर भावुक होने वाले लोग सदैव दुखी रहते हैं।''
सुधांशु ने कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की।
''पाल सर, दिल के बुरे व्यक्ति नहीं हैं। लेकिन कुछ अधिक ही अनुशासनप्रिय हैं। आपका तीन दिन अवकाश बढ़ाना उन्हें अनुशासनहीनता लगा, उस पर कोढ़ में खाज यह कि आपने तार भेजा ...उनसे फोन पर चर्चा नहीं की। आपने प्रीति को फोन किया, उसने मुझे कहा...यदि आप स्वयं पी.डी. सर को फोन कर देते तो शायद उन्हें बुरा नहीं लगता।'' श्रीवास्तव, जो लंबा, सांवला, छरहरा, स्मार्ट लगभग चालीस वर्षीय व्यक्ति था, हल्की मूंछे रखता था और प्राय: मुस्कराता रहता था, क्षणभर तक सुधांशु के चेहरे पर दृष्टि गड़ाए रखकर बोला, ''आप समझ सकते है।....वह कितना वरिष्ठ हैं....जल्दी ही महानिदेशक बनने वाले हैं....उनका बुरा मानना लाजिमी है।''
''जी सर।'' सुधांशु कुछ भी नहीं कहना चाहता था लेकिन उसके मुंह से निकल गया और उसने तत्काल सोचा, 'आगे चलकर आपको भी पाल की सीट पर बैठना है श्रीवास्तव जी और संभव है आज जैसे मधुर आप तब न रहें...आप भी उतना ही संवेदनशून्य हो जायें...क्योंकि जो मलाई पाल आज खा रहा है, कल आपके सामने प्रस्तुत होगी। आप इंकार कर पायेगें? आप करना भी चाहेंगे तब भी नहीं कर पायेंगे, क्योंकि कांट्रैक्टर्स की पहुंच इस दफ्तर के गलियारों से लेकर संसद के गलियारों तक होती है। आप उनके काम में दखलंदाजी नहीं कर पायेगें....मेरा हस्र आपके सामने है।'
''कुछ सोच रहे हैं।''
''नहीं सर।''
''चलिए मैं आपको आपकी सीट बता देता हूं।''
''सर, आप क्यों परेशान होंगे....मैं आपके पी.ए. से पूछ लूंगा।''
''नो प्राब्लम सुधांशु।'' श्रीवास्तव उठ खड़ा हुआ।
सुधांशु को उस कार्यालय के रिकार्ड रूम के एक कोने में रिकार्ड्स के रैक हटाकर जगह दी गई थी। उसकी सीट के पीछे एक खिड़की थी जिसमें कूलर लगा हुआ था। ऊपर पंखा था और चारों ओर रैक्स थे। वास्तव में उस सीट पर रिकार्ड क्लर्क बैठता था, जिसे हटाकर गैलरी में बैठा दिया गया था। चारों ओर गंदगी, धूल और शोर था। रिकार्ड्स रूम के अगल-बगल और गैलरी के दूसरी ओर कई सेक्शन थे। दिनभर बाबुओं की चप-चप की आवाजें गूंजती रहती थीं। उसे एक पुरानी खुरदरी मेज दी गई थी जिसपर टेबलग्लास नहीं था। फाइलें रखने के लिए कोई छोटा रैक भी नहीं दिया गया था। उसके पास आने वाले के बैठने के लिए लकड़ी की एक केन की कुर्सी थी जिसकी केन कई जगह टूटी हुई थी।
अपने बैठने की व्यवस्था देख सुधांशु का हृदय चीत्कार कर उठा। 'मुझसे जूनियर विनीत खरे वेल फर्निश्ड कमरे में...और मैं...।' लेकिन उसने कुछ नहीं कहा।
''अगली व्यवस्था तक आप यहां बैठें सुधांशु...।'' श्रीवास्तव मुड़ने को उद्यत होता हुआ बोला।
''धन्यवाद सर।''
श्रीवास्तव मुड़ने लगा तो सुधांशु ने पूछ लिया, ''सर, मुझे कौन-से सेक्शन्स दिए गए हैं?''
''ओह....हां, यह बताना भूल गया था। अभी यह मसला पी.डी. सर से डिस्कस होना है। तब तक आप आराम करें।''
सुधांशु का चेहरा उतर गया।
'किसी अफसर को अपमानित करने का नायाब ढंग...उसे कोई काम न दो....उसके स्वाभिमान को अधिक से अधिक आहत करो....श्याम अंग्रेजों का क्रूरतम तरीका।'
श्रीवास्तव जा चुका था।
'सुधांशु तुम भयानक षडयंत्र का शिकार हुए हो...ईमानदार होने की सजा...।' उसका मन पुन: चीत्कार कर उठा। कुर्सी पर बैठने के बाद उसे एहसास हुआ कि वह कुर्सी भी केन की बुनी हुई लकड़ी की थी, जिसमें हत्थे नहीं थे।
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(37)
प्ररवि विभाग में सूचनाएं विद्युतगति से भी तेज एक स्थान से दूसरे स्थान दौड़ती थीं और चन्द मिनटों में देश के विभिन्न शहरों में अवस्थित विभाग के निदेशक स्तर के कार्यालयों में चर्चा का विषय बन जाती थीं। सुधांशु दास को चमनलाल पाल ने रिकार्ड रूम में बैठा दिया था, जो बाथरूम के सामने था, यह सूचना सबसे पहले मुख्यालय पहुंची। मुख्यालय में सहायक और उप-महानिदेशकों ने फोन पर आपस में इस विषय पर चर्चा की। मीणा ने प्रीति को इंटरकॉम किया, ''प्रीति सुना तुमने कुछ?''
--क्या?''
''अपने पतिदेव के बारे में।''
''क्या हुआ सुधांशु को...वह घर गया है।''
''आज आना था?''
''शायद।''
''शायद?''
''डी.पी. पहेलियां न बुझाइये...बात क्या है?'' प्रीति अब अकेले में डी.पी.मीणा को डी.पी. पुकारने लगी थी, जबकि अन्य अधिकारियों या स्टॉफ के सामने 'सर'।
''इधर आओ।''
प्रीति कोई केस स्टडी कर रही थी। फाइल खुली छोड़ मीणा के पास जा पहुंची।
''बैठो।''
''बैठूंगी नहीं...एक केस अभी महानिदेशक सर के पास भेजना है।''
''यार, अब तुम मुझे अकेले में तुम तो कह ही सकती हो।''
''सुधांशु की क्या बात थी?''
''कुछ देर पहले 'के' ब्लॉक से प्रदीप श्रीवास्तव का फोन आया था। उन्होंने बताया कि चमनलाल पाल सुधांशु से किसी बात से इतना खफा हैं कि उन्होंने सुधांशु की सीट रिकार्डरूम में लगवा दी है, जो बाथरूम के सामने है। यही नहीं सुधांशु के स्थान पर काम के लिए उन्होंने महानिदेशक साहब को एक सहायक निदेशक तुरंत पोस्ट करने के लिए कहा था। विनीत खरे की पोस्टिगं सुधांशु के स्थान पर कल हुई। फिलहाल सुधांशु को कोई काम नहीं दिया पाल ने।''
''इसका मतलब कि वह आज वापस आ गया है।''
''वह कौन?''
''सुधांशु।''
''आने पर ही यह सब हुआ....लेकिन यह अच्छा नहीं हुआ...।'' मीणा ने प्रीति के चेहरे पर दृष्टि गड़ाकर कहा, ''दुष्ट आदमी।''
''यहां सभी दुष्ट हैं।'' प्रीति बोली और वापस लौटने के लिए मुड़ी।
''लेकिन मैं दुष्ट नहीं हूं...सभी में तो मैं भी आ गया।''
प्रीति ने मीणा को घूरकर देखा और दरवाजा खोलने लगी।
''ऐसे न घूरो...यहां कुछ होने लगा है।'' मीणा ने छाती पर हाथ रखकर कहा और मुस्करा दिया। प्रीति ने उसके मुस्कराने पर ध्यान नहीं दिया और बाहर निकल गयी।
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श्रीवास्तव के जाने के बाद सुधांशु लंबे समय तक इस प्रतीक्षा में रहा कि इस आशय का आफिस आर्डर उसके पास भेजा जायेगा जिसमें उसके लिए आबंटित अनुभागों की सूचना होगी। उसे यह भी देखकर आश्चर्य था कि उसकी मेज बिल्कुल खाली थी। किसी अधिकारी की मेज पर सजे रहने वाले पेपर वेट, पेन-पेंसिल सहित पेन स्टैण्ड जैसी चीजें उस पर नहीं थीं और न ही किसी को बुलाने के लिए घण्टी की व्यवस्था थी। रिकार्ड रूम की उस व्यवस्था को उसने अस्थायी व्यवस्था माना, जैसा कि श्रीवास्तव ने कहा था, लेकिन उसमें बिजली की धण्टी न सही, सामान्य घण्टी तक नहीं थी।
'दो घण्टे बीत गये थे। एक बार बाथरूम जाने के अतिरिक्त वह कुर्सी पर ही बैठा रहा और बाथरूम आते-जाते लागों को देखता रहा।
रिकार्डरूम प्रथम तल पर था और वह बाथरूम स्टॉफ के लिए था। रिकार्ड रूम के सामने रिकार्ड सेक्शन था, जहां दफ्तरी और रिकार्ड क्लर्क बैठते थे और उनकी चकचक वह पिछले दो घण्टे से सुन रहा था। वे चार थे, तीन रिकार्ड क्लर्क, और एक दफ्तरी। वे आपस में बहस कर रहे थे डाक बांटने जाने को लेकर। किसी एक को मंत्रालयों तथा अन्य कार्यालयों में डाक लेकर जाना था, दूसरे को स्थानीय पोस्ट ऑफिस में पत्र डालने और रजिस्ट्री तथा स्पीड पोस्ट करवाने और शेष दो को वहीं बेैठकर ऑफिस की डाक व्यवस्थित करनी थी तथा दूसरे स्थानीय कार्यालयों से आयी डाक को छांटना और बांटना था।
रिकार्ड सेक्शन के साथ सटा हुआ था हिन्दी सेक्शन और उससे सटा हुआ था इंस्पेक्शन सेक्शन। ये तीनों अनुभाग एक बड़े हॉल में थे। बाथरूम जाते हुए हिन्दी सेक्शन के लोगों को सुधांशु ने सिर गड़ाए अनुवाद करते देखा था। रिकार्ड रूम और इन तीनों अनुभागों के मध्य एक गैलरी थी। वास्तव में गैलरी जैसा स्पष्टरूप से कुछ नहीं था। था यह कि जिस ओर रिकार्ड रूम था वह भाग अधिक चौड़ा था। रिकार्ड रूम के साथ सटे हुए दो ऑडिट सेक्शन थे और उस हिस्से के चौड़ा होने के कारण व्यवस्था इस प्रकार बनायी गयी थी कि चार फीट का भाग दोनों ओर के मध्य छूटा हुआ था जो गैलरी का प्रभाव देता था।
हिन्दी और ऑडिट अनुभागों में प्रवेश के लिए एक बड़ा गेट था। उस गेट से पहले दस गुणा दस का चौड़ा हिस्सा था, जिसके बायीं ओैर दायीं ओर दो-दो कमरे थे। बायीं ओर के एक कमरे में फोटोस्टेट मशीन लगी हुई थी और उसके बगल के कमरे में ऑडिट का एक लेखाधिकारी बैठा था। दायीं ओर के एक कमरे में हिन्दी अधिकारी और दूसरे में इंस्पेक्शन सेक्शन देखने वाला लेखाधिकारी थे।
सुधांशु ने जब 'के’ ब्लॉक में ज्वाइन किया था तब पूरा कार्यालय घुमाकर उसे दिखाया गया था। जब वह रिकार्डरूम की ओर गया था तब वहां के शोर से उसे ऐसा लगा था मानो वह किसी मछली बाजार में पहुंच गया था लेकिन अब पिछले दो घण्टे से वह उस शोर को सुनने के लिए विवश था।
'अब यह रोज का हिस्सा होगा। यह सोच समझकर किया गया है। मुझे मेरे कमरे में ही बैठा रहने दिया जा सकता था। मुझे यहां बैठाकर पाल ने यह संदेश देना चाहा है कि अपने अधीनस्थों से वह 'यस सर' के अतिरिक्त कुछ भी सुनना नहीं चाहता......अपने अस्तित्व को उसके अस्तित्व में विलीन करके...अपने स्व की हत्या करके ही कोई उसके साथ काम कर सकता है। भले ही मैं कमीशन न लेता, इसमेें उन्हें लाभ ही था....उनके कमीशन की राशि बढ़ जाती, लेकिन बिना किसी ऑडिट के मैं कांट्रैक्टर्स के बिल पास करता रहता। पाल और उसके गुर्गे यही चाहते थे। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि वे देशद्रोह कर रहे थे...वे इसे अपना हक मानते हैं...देशद्रोह की परिभाषा उन जैसे लोगों ने बदल ली है, लेकिन मुझे यहां बैठना मंजूर है....पाल की शर्तों पर काम करना .....झुकना स्वीकार नहीं।'
'लेकिन तुम जिस व्यवस्था का अंग हो सुधांशु वहां ईमानदार को मुंह की खानी पड़ती है। भ्रष्ट लोगों का संगठित समूह है। एक भ्रष्ट अधिकारी दूसरे के भ्रष्टायार को ढकने का काम करता है, वेैसे ही जैसे नेता....भले ही वह किसी भी दल का हो....सत्ता से बाहर वे भ्रष्टायार के लिए गला फाड़ते रहते हैं, लेकिन जब स्वयं सत्ता में आते हैं तब प्रतिपक्ष में रहते हुए उन्होंने जिन लोगों के विरुध्द आरोप लगाए थे, उनके विषय में चुप्पी साध लेते हैं, क्योंकि वे पिछली सरकार के दौरान हुए घोटालों से कहीं बड़े घोटाले करने लगते हैं। चोर...चोर ...मौसेरे भाई....।'
रिकार्ड रूम में अकेले बैठे सुधांशु ने सोचते हुए घण्टे-दर घण्टे बिता दिए। न कोई अधिकारी उससे मिलने आया और न ही स्टॉफ का कोई व्यक्ति। उसे धीरे-धीरे स्थिति स्पष्ट होती जा रही थी।
'कार्यालय का एक वर्ग पाल की भांति भ्रष्ट है और मेरे इस अपमान से वह प्रसन्न होगा, जबकि दूसरा वर्ग, जिसकी संख्या बड़ी है, मुझसे मिलने से इसलिए कतरा रहा होगा, क्योंकि पाल ने मेरे सामने के अनुभागों में अपने जासूस बैठा दिए होंगे, जो मुझसे मिलने आने वाले की सूचना उस तक पहुंचा देंगे और पाल मुख्यालय फोन करके उनका तबादला करवा देगा।'
अपरान्ह तीन बजे रिकार्ड रूम की देखरेख करने वाले क्लर्क के साथ श्रीवास्तव तेज कदमों से वहां आया। श्रीवास्तव को देखते ही सुधांशु उठ खड़ा हुआ। वह कुछ कहना ही चाहता था, लेकिन श्रीवास्तव ने जिस उपेक्षा का प्रदर्शन किया उससे सुधांशु भौंचक था। 'सुबह की श्रीवास्तव की सौजन्यता क्या नाटक थी?' उसने सोचा।
श्रीवास्तव ने कुछ पुस्तकें चुनी जिन्हें रिकार्ड क्लर्क ने रैक से निकाला और उन्हें थामकर वह श्रीवास्तव के पीछे हो लिया। पन्द्रह मिनट बाद रिकार्ड क्लर्क लोटा और उसके पास आकर पूछा, ''सर आपके लिए चाय लाऊं?''
''धन्यवाद'' तत्काल सुघांशु ने सोचा उसका नाम पूछ लेना चाहिए, क्योंकि कभी किसी बात की आवश्यकता होने पर उससे कहा जा सकता है।
''आपका नाम क्या है?''
''सर, रामभरोसे।''
''रामभरोसे, चाय नहीं, पानी ला सकते हैं?''
''क्यों नहीं सर।''
रामभरोसे छरहरे बदन का पांच फीट आठ इंच लंबा लगभग पैंतीस वर्षीय व्यक्ति था। उससे पानी के लिए कहते समय सुधांशु को खयाल आया कि उसे पानी पीने के लिए गिलास और जग तक नहीं दिये गये। रामभरोसे पानी ले आया तो उसने पूछा, ''मुझे गिलास और जग कोन देगा?''
''सर....।'' क्षणभर सोचते रहने के बाद रामभरोसे बोला, ''सर, स्टोर बाबू....। लिखकर देना होगा। आपका पी.ए.....सर...।''
रामभरोसे को द्विविधा में देख सुधांशु बोला, ''मुझे एक कागज ला दो...मैं ही लिख देता हूं।''
रामभरोसे हिन्दी अनुभाग में दौड़ गया और एक कागज ले आया। कुछ ही देर में वह गिलास, जग, तौलिया, धण्टी, कागज, पेन सेट आदि, जो कुछ भी सुधांशु ने लिखकर दिया था, ले आया।
शाम छ: बजे तक सुधांशु ने किसी प्रकार वक्त काटा और रामभरोसे के अतिरिक्त किसीसे भी उसका संवाद नहीं हुआ।
छ: बजे जब वह कार्यालय से जाने लगा, सीढ़ियां उतरते हुए ऊपर बैठने वाले लेखाधिकारी उसे मिले, जो अपने ब्रीफकेस थामे सीढ़ियां उतर रहे थे। उसे देख तीनों दुबककर खड़े हो गये और तीनों ने समवेत स्वर में उससे नमस्कार किया। तीनों को उत्तर देकर वह एक सीढ़ी और नीचे उतरा ही था कि उसे अपनी अटैची याद आयी। वह पलटा और उतरी सीढ़ियां चढ़कर वापस रिकार्डरूम की ओर बढ़ा। रामभरोसे किरमिच का थैला लटकाए गैलरी में उसे आता दिखा। निकट आने पर वह बोला, ''रामभरोसे, मेरी अटैची ए.के. भट्ट के पास रखी है...मैं गेट के बाहर रुकता हूं...आप उसे लेकर वहीं आ जाओ।''
''जी सर...अभी लाया।'' और रामभरोसे तेजी से सीढ़ियां उतरता भट्ट के कमरे की ओर लपक गया और वह गेट के बाहर खड़े होकर उसकी प्रतीक्षा करने लगा। रामभरोसे को लौटने में लगभग दस मिनट लगे और उस मध्य कार्यालय के हर स्तर के लोग उसके सामने से गुजरे। उसने अनुभव किया सभी उससे चेहरा छुपा रहे थे।
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सड़क पर पहुंचते ही मस्जिद के पास से उसने ऑटो लिया जिसने पन्द्रह मिनट में उसे प्रगति विहार हॉस्टल छोड़ दिया। डुप्लीकेट चाबी से दरवाजा खोल वह कमरे में पहुंचा तो देखकर हैरान हुआ कि दोनों कमरे अस्तव्यस्त पड़े हुए थे। सामान इधर-उधर बिखरा हुआ था। किचन में भी वही आलम था। बेड रूम में बेड पर प्रीति की नाइटी और गाउन पड़े हुए थे....बेड की चादर मुचड़ी हुई थी और तिपाई पर दूध पिये दो गिलास रखे थे। किचन में कॉफी के दो गंदे कप रखे थे। बेड के नीचे उसे एक गिलास दिखा। उसे उठाया तो शराब की गंध नाक के रास्ते फेफड़ों तक जा पहुंची। गिलास की तलहटी पर मामूली मात्रा में शराब शेष थी।
'प्रीति कब से शराब पीने लगी?' उसने सोचा, 'लेकिन कॉफी के दो कप....दूध के दो गिलास...मटन बिरियानी की दो प्लेटें...इसका मतलब यह कि प्रीति के अलावा यहां कोई और भी था ....कौन था?' सुधांशु का सिर चकराने लगा। वह ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठ गया और प्रीति के आने का इंतजार करने लगा।
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(38)
सुधांशु सोफे पर ही पसर गया था और दिनभर की थकान उसकी सोच को परे धकेल उस पर काबिज हो गयी थी। वह गहरी नींद में था और दुखस्वप्न का सिलसिला प्रारंभ हुआ ही था कि घण्टी बजी। स्वप्न में वह देख रहा था कि वह एक लंबे मैदान से गुजर रहा है, जिसमें बीच-बीच में झाड़-झंखाड़ हैं। वह कुछ ही आगे बढ़ा था कि सामने उसके अपने खेत दिखाई पड़े और खेतों में काम करते मां और पिता। वह मां के पास पहुंचा। कुछ कहना चाहता था, लेकिन लगा जैसे उसके मुंह में जुबान ही न थी। मां भी कुछ कहना चाहती थी, लेकिन वह भी एकटक उसे देख रही थी, बोल नहीं रही थी। पिता ने दूर से उसे देखा और काम करते रहे। अचानक दृश्य बदला और उसने अपने को अस्पताल में मां के बेड के पास पाया। उसके आगे कुछ देखता कि घण्टी बजी और वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। क्षणभर तक समझ ही नहीं पाया कि वह था कहां। प्रकृतिस्थ होने का प्रयत्न कर ही रहा था कि घण्टी दोबारा बजी।
सुधांशु ने दरवाजा खोला। प्रीति थी।
''हेलो, सो रहे थे?''
सुधांशु आंखें मलता सोफे पर बैठ गया। उत्तर नहीं दिया। प्रीति बेडरूम में गयी, पर्स मेज पर और ब्रीफकेस, जिसमें वह कर्यालय की आवश्यक फाइलें, जिन्हें वह घर में देखती थी, बेड पर रखा और बाथरूम में घुस गयी। बाथरूम से निकल तौलिया से हाथ-मुंह पोछती हुई उसने वहीं से सुघांशु से पूछा, ''चाय बनाऊं?''
सुधांशु ने उत्त्र नहीं दिया।
चाय का पानी चढ़ाकर प्रीति ड्राइंगरूम में आयी। हॉस्टल के दो कमरों के उस फ्लैट के पहले कमरे को उन्होंने ड्राइंगरूम दूसरे को बेडरूम बना रखा था। ड्राइंगरूम में ही एक ओर सुधांशु ने अपनी पसंदीदा साहित्यिक पुस्तकों का रैक रखा हुआ था। केन का छोटा सोफा और एक तिपाई थे वहां। शेष जगह इतनी कि लोग संभलकर निकल सकते थे।
''अरे, तुम फिर लेट गये। चाय नहीं पीनी? मैंने पानी चढा दिया है।''
''नहीं पीनी...धन्यवाद।''
चाय का पानी चढ़ाते समय प्रीति ने किचन में फैले बर्तन समेट दिए थे और बेडरूम में रखे कप वॉशबेसिन में डाल दिए थे। शराब का गिलास विम से साफ कर बर्तनों के बीच रख दिया था। उसे आशंका थी कि सुधांशु ने यह सब देखा होगा, 'लेकिन वह यह भी सोच रही थी कि सुधांशु का सूटकेस ड्रांइगरूम में ही पड़ा हुआ है फिर शायद ही वह किचन में गया हो। और यदि देखा भी होगा ....तो क्या अपनी जिन्दगी अपने ढंग से जीने का हक मुझे नहीं। पराश्रिता हूं नहीं कि पति के आगे-पीछे होती रहूं.....किसे बुलाना है, किससे मिलने जाना है....टिपिकल भारतीय महिलाओं की भांति पतियों से पूछकर हर काम करूं?'
किचन में काम करने की आहट सुधांशु को मिलती रही और वह सोचता रहा कि अवश्य प्रीति शराब का गिलास धोकर हटा रही होगी।
''तुमने फोन क्यों नहीं किया?'' कुछ लाड़ भरे स्वर में प्रीति ने पूछा।
सुधांशु आंखें बंद किए लेटा रहा। बोला नहीं।
''मां जी की तबीयत कैसी है?''
''ैजैसी थी।'' आंखे बंद किए हुए ही सुधांशु ने संक्षिप्त उत्तर दिया।
प्रीति किचन की ओर जाने लगी तो पुन: एक बार पूछा, ''तुम्हारे लिए भी चाय का पानी चढ़ाया हुआ है.....आधा कप ले लो....थकान दूर हो जायेगी।''
सुधांशु फिर भी नहीं बोला।
''यार, क्या बात है, बोलते क्यों नहीं?''
''क्या बोलूं?''
''यही कि चाय लाऊं या नहीं।''
''शराब है?''
''व्वॉट नानसेंस?''
''नानसेंस....थकान चाय की अपेक्षा शराब से जल्दी मिटती है। वह हो तो ले लाओ।'' सुधांशु उठ बैठा ।
''तुम लड़ने के मूड में हो?'' कहती हुई प्रीति किचन की ओर चली गई। दो मिनट में चाय लेकर लौटी...आधा कप चाय सुधंांशु के लिए भी लेती आयी। ''चाय पियो....थकान दूर हो जायेगी....गुस्सा भी।''
''चाय से थकान नहीं मिटेगी...शराब है तो....।''
''लगातार क्या बकवास किये जा रहे हो?'' सामने सोफे पर बैठती हुई प्रीति बोली।
''बकवास ?......बेड के नीचे जो शराब का गिलास पड़ा हुआ था...वह क्या था? किसने पी....कौन आया था यहां?''
''तुमसे मतलब...कौन आया...कौन नहीं....इसका उत्तर मैं क्यों दूं? मैं अधिकारी हूं...दफ्तर के काम से लोग आएंगे ...मैं सभी का लेखा-जोखा तुम्हें देती रहूं?''
''दफ्तर के काम से आने वाला यहां बैठकर कॉफी पीएगा....शराब नहीं।''
''किसीने शराब नहीं पी।'' प्रीति का स्वर ऊंचा था।
''नहीं पी....बेड के नीचे जो गिलास रखा था...।''
''कोई गिलास नहीं था।''
''ओह...।''
''मेरे पीछे मेरी जासूसी करने का क्या मतलब?''
''गिलास बेड के नीचे पड़ा हुआ था...उसे तुमने अभी हटा दिया....क्या नहीं था ?''
''था...उससे तुम्हें कोई मतलब नहीं।''
''क्यों नहीं है। यह घर किसी शराबी के लिए नहीं है।''
''प्रशासनिक सेवा में हो सुधांशु ....तुम शराब नहीं पीते इसका मतलब यह नहीं कि दूसरे भी न पियें।''
''लोग पियें....छककर पियें....उल्टी करें...नाबदान में गिरें...लेकिन वे मेरे घर में नहीं पी सकते।''
''यह घर तुम्हारा कब से हो गया?''
''क्या मतलब?''
''मतलब यह सुधांशु दास जी....।'' चाय समाप्त कर प्रीति ने कप तिपाई पर रखा, ''आपने एकमोडेशन के लिए आवेदन ही नहीं किया था....वह तो डी.पी. की सलाह पर मैंने किया और डी.पी. की सिफारिश पर वहां के निदेशक ने तुरंत कार्यवाई करते हुए मेरे नाम से इसे एलाट किया....तो यह घर किसका हुआ!'' सुधांशु के क्रोध को शांत करने के उद्देश्य से प्रीति मुस्कराई।
''ओह!'' क्षणभर चुप रहकर सुधांशु बोला, ''समझ गया।''
''क्या समझ गये?''
सुधांशु कुछ कहता उससे पहले ही प्रीति बोली, ''अवश्य समझना चाहिए। आप जैसे.....शंकालु व्यक्ति ही बाल की खाल निकालने में प्रवीण होते हैं....छिन्द्रानिवेषण में आनंद लेते हैं।''
प्रीति का 'तुम' से 'आप' कहना सुधांशु ने अनुभव किया।
''शंका निर्मूल नहीं है।''
''दरअसल इसमें आपका दोष नहीं, जिस परिवेश में आप पले-बढ़े और जिस पृष्ठभूमि से आप आए हैं...दोष वहां छुपा हुआ है।''
''यह सब तुम्हें पहले से ही पता था....फिर भी....।''
''मुझे यह ज्ञात नहीं था कि वर्षों दिल्ली जैसे महानगर में रहनेवाला व्यक्ति, आई.ए.एस. करने वाला व्यक्ति आज भी गंवई-गांव की सड़ांध अपने मस्तिष्क में लिए घूम रहा है...यही नहीं वह इतना कमजोर, मूर्ख और जिद्दी है कि उसे दफ्तर में नापसंद किया जाता है। उसे एक अपमानजनक जगह पर बिना काम के बैठा दिया जाता है....।''
''प्रीति मैं शंकालु, कमजोर और मूर्ख हूं, लेकिन चरित्रभ्रष्ट नहीं....समझौतापरस्त भी नहीं।''
''कहना क्या चाहते हो?''
''समझ सकती हो तो समझो और समझ नहीं रही ऐसा नहीं है। जो डी.पी. मीणा जैसे धूर्त और लंपट व्यक्ति के प्रभाव में हो उसे मुझमें मूर्ख के ही दर्शन होंगे।''
प्रीति तिलमिला उठी।
''आप डी.पी. के लिए ऐसा नहीं कह सकते। आपने उन पर जो आरोप लगाए....उसके....क्या प्रमाण हैं आपके पास।''
''प्रमाण....पलंग के नीचे पड़ा शराब का गिलास....। मीणा नहीं तो कौन आया था यहां?....किसने पी यहां शराब....कॉफी.....और....और....।''
''यू ब्रूट....मुझ पर लांछन लगाते हुए शर्म नहीं आ रही....अपनी पत्नी पर लांछन....।'' चाय का कप फर्श पर पटकती हुई प्रीति चीखी, ''यू गेट लास्ट....आय कांट लिव विद यू....बास्टर्ड....गेट लास्ट......गेट.....ला ऽ..ऽ...स्ट...।'' उसने अपना चेहरा हाथों से ढक लिया और बेडरूम में बेडपर ढहकर फफककर रोने लगी।
सुधांशु ने सूटकेस उठाया, दरवाजा खोला और सीढ़ियां उतर नीचे आ गया। कुछ दूर पैदल चलने के बाद उसे एक खाली ऑटो मिला। इशारा कर उसे रोका, ''लक्ष्मीनगर।''
ऑटोवाले ने न नुकर किया, लेकिन उसके ना-नुकर पर सुधांशु ने ध्यान नहीं दिया। ऑटो में बैठा रहा। दो मिनट तक उसके उतर जाने की अपेक्षा करने के बाद ड्राइवर ने ऑटो आगे बढ़ा दिया।
सुधांशु जब कोमलकांत विराट के कमरे में पहुंचा रात के दस बज चुके थे। विराट के कमरे में ताला बंद था, 'रात डयूटी पर है शायद।' सीढ़ियों पर सूटकेस रख सुधांशु सोचता रहा, 'कुछ देर प्रतीक्षा कर लेना उचित होगा...पान खाने जा सकता है। उसे पान का शौक है...।'
सूटकेस सीढ़ियों से उठाकर उसने कमरे के दरवाजे से सटाकर रखा और नीचे उतरने लगा पान की दुकान तक जाकर विराट को देख आने के लिए। गर्मी अधिक थी। वहां खड़ा रहना कठिन हो रहा था। वह चार सीढ़ियां ही उतरा था कि सूटकेस का खयाल कर लौट पड़ा। 'कोई ले जा सकता है...बहुत कुछ है उसमें...यहां लोग आंख का काजल तक पोछ डालते हैं।' उसने सोचा, 'लेकिन कब तक विराट की प्रतीक्षा करूंगा। नहीं आया तब....कुछ देर करना ही चाहिए....सूटकेस में अधिक वजन नहीं है, उसे लेकर ही नीचे जाना उचित होगा।' उसने सूटकेस उठाया और सड़क पर आ गया।
सुधांशु दस कदम ही आगे बढ़ा था कि सामने से विराट आता दिखा।
''अरे, आप? बहुत खूब...। कहां से सवारी आ रही है?''
''वह सब बाद में....पहले यह बताओ...मेरे रात यहां रहने पर आपको कोई...।''
''क्या बात करते हैं सुधांशु भाई...आपके लिए कष्ट...।'' सुधांशु के कंधे पकड विराट बोला, ''पहले यह बताओ, आ कहां से रहे हो?'' वह वहीं रुक गया।
''घर गया था....मां अस्वस्थ हैं ......।''
''क्या हुआ अम्मा को?''
''कैंसर ...।''
''सो सैड।'' क्षणभर रुककर विराट ने पूछा, ''सीधे स्टेशन से आ रहे हो ?''
''दफ्तर से।''
''इतनी लेट...।''
''बस यूं ही...।'' सुघांशु विराट की बात टाल गया।
''भाभी दिल्ली में नहीं हैं।''
''हूं...ऊं...।'' सुधांशु इस प्रश्न को भी टालते हुए बोला, ''बहुत दिनों से आपसे मिला नहीं था....इसलिए...।''
''अहो भाग्यम...सुधांशु जी, भाभी जब भी दिल्ली में न हों....टूर पर हों...आप मेरे यहां ही आ जाया करियेगा। ये सरकारी नौकरी भी मौज की होती है....अफसर लोग खूब टूर बनाते रहते हैं। अपने मां-पिता से मिलने जाना है और उस स्टेशन में उनके विभाग का कोई छोटा-सा भी कार्यालय है तो टूर...मुफ्त आना-जाना और वहां के स्टॉफ की सेवा अलग....भई सुधांशु जी...नौकरी आपकी ही है....यहां तो हम अखबार के दफ्तर में मजदूरी कर रहे हैं। जरा भी अकड़ दिखायी कि सम्पादक बाहर का रास्ता दिखाने में वक्त बरबाद नहीं करता। वह नहीं दिखायेगा तो मैनेजमण्ट से कहकर दिखवा देता है। वह जो चाहेगा, करना होता है...।'' धाराप्रवाह बोलने के बाद विराट को याद आयी सुधांशु के भोजन की बात।
''कविवर, आप कार्यालय से सीधे आ रहे हैं....हाथ में सूटकेस है....मतलब यह कि आप स्टेशन से सीधे कार्यालय गये थे....घर की चाबी आपके पास रही नहीं होगी और भाभी के बारे में भी आपको दिल्ली पहुंचकर पता चला होगा। कोई बात नहीं मित्र....सही जगह आ गये हो...चिन्ता छोड़ो...यह लो चाबी।'' विराट ने जेब से कमरे की चाबी निकाली, ''चलकर हाथ मुंह धोओ... फ्रेश हो...मैं आपके लिए खाना लेकर आता हूं।''
''खाने की चिन्ता न करें आप।''
''आप भी कैसी बात करते हैं सुधांशु भाई। माना कि आप बड़े अफसर हैं और मैं फटीचर पत्रकार-कवि-लेखक, लेकिन आप मेरे पास आएं और भूखे रहें....कितना बड़ा पाप होगा....आप चलो....मैं आया।''
आध घण्टा बाद विराट छोले-भटूरे और आर.सी. की बोतल के साथ लौटा। सुधांशु कपड़े बदल कुर्सी पर उस दिन के जनसत्ता के पन्ने पलट रहा था। विराट के कमरे के साथ ही किचन और बाथरूम थे। सुधांशु से बिना बात किए वह किचन में गया और प्लेट में छोले-भटूरे लाकर सुधांशु के सामने रख गया।
''अपने लिए नहीं लाए?''
''मैं खाना खाकर ही लौट रहा था। आप शुरू करो.....पानी लाया।'' विराट बोला और फ्रिज खोलकर, जो उसने एक सप्ताह पहले ही खरीदा था, पानी की बोतल तिपाई पर रख दी, ''शुरू करो।'' कहता हुआ वह किचन में जा घुसा। लौटा तो उसके हाथ में आर.सी और दो गिलास थे। एक ट्रे में दालमोठ थी। सुधांशु के सामने गार्डन चेयर पर बैठते हुए उसने बोतल, गिलास और नमकीन तिपाई पर रखा और झुककर बोतल की डॉट खोलने लगा। डॉट खोलकर वह दो पेग बनाने लगा।
''दूसरा किसके लिए विराट?''
''कैसे कवि हो...एक पेग लेकर देखो....खाने का.आनंद आ जाएगा।''
''नहीं भाई, मैं मुंह नहीं लगाउंगा।''
''खाना खाते जाओ...और बीच-बीच में सिप करते जाओ....भोजन का असली आनंद मिलेगा। नुकसान नहीं करेगी। गिलास में शराब ढाल सुधांशु को दिखाते हुए उसने कहा, ''इतनी दवा है। इससे अधिक नशा....। आप बस इतनी लें....मेरे आग्रह को टालेंगे नहीं....फिर हम कविताएं सुनेंगे एक-दूसरे की।''
''मैंने न पीने की शपथ ली है।''
''यार, यह शपथ भाभी जी से ली है न! लेकिन दवा के रूप में लेने की शपथ थोड़े ही ली है....नशे की ली है। सो वह है नहीं।'' गिलास सुधाशु के सामने रख विराट बोला।
सुधांशु के अंतर्मन में आत्ममंथन चल रहा था, 'लूं या नहीं....शपथ मैंने किसी से नहीं स्वयं ही से ली है....और कुछ घण्टे पहले जो घटित हुआ....कुछ घण्टे पहले ही क्यों... आज सुबह से ही मेरे साथ जो हो रहा है....उसमें एक-दो पेग मानसिक राहत देंगे। लोग यही कहते हैं....अनुभव करके देखना चाहिए।''
''खाना खत्म करके थोड़े ही लोगे सुधांशु भाई। लेते जाओ साथ-साथ।''
सुधांशु ने गिलास उठाया और एक हल्का-सा घूंट लिया। लगा गला छिल गया है। थोड़ी देर बाद उसने दूसरा घूंट लिया। दिमाग में झन्नाहट हुई....लगा दिनभर का अपमान वह भूलता जा रहा है। सुखद। उसने गिलास खाली कर दिया। सामने सुधांशु का गिलास खाली देख विराट ने पुन: उसमें शराब और पानी भर दिया।
''लो....बस आज इतना ही। इससे अधिक मैं स्वयं आपको लेने नहीं दूंगा। पहला दिन है....इतने में ही टुन्न हो जाओगे।''
जब दोनों बिस्तर पर गये, विराट सुधांशु से कविताएं सुनाने का आग्रह करने लगा।
''दिनभर का थका हुआ हूं। सोना चाहूंगा...कविताएं फिर कभीं''
''कोई गिला नहीं।'' विराट बोला और कमरे की बत्ती बुझाकर टेबल लैंप जला लिया और सुघांशु से पहले खर्राटे भरने लगा, जबकि सुधांशु के दिमाग में प्रीति और डी.पी.मीणा देर तक घूमते रहे और घूमता रहा चमनलाल पाल का चेहरा।
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(39)
कॉलेज के दिन, प्रीति के साथ बीते क्षण और उसके बाद घटित घटनाएं सुधांशु के मस्तिष्क पटल पर घूमती रहीं। टेबल लैंप की मंद रोशनी में वह विराट के खर्राटे और बजती नाक सुनता रहा और सोचता रहा अपनी स्थिति को न समझ पाने के बारे में। लेकिन क्षणांश में उसका विचार पलटा, 'स्थिति मैं भलीभांति समझता था...और इस विषय में बार-बार प्रीति को कहा भी था कि हमारे स्टेटस मेल नहीं खाते....कि मैं एक किसान ...गरीब किसान का बेटा हूं...लेकिन गलती मेरी ही है। मैंनें व्यक्ति पहचानने में त्रुटि की और आज भी मुझमें इतनी समझ पैदा नहीं हुई कि व्यक्ति की पहचान कर सकूं। मुझे सोचना चाहिए था कि मीणा क्यों आगे बढ़-चढ़कर प्रीति की मदद कर रहा है, क्यों अविलंब मुख्यालय में ज्वायन करने की अनुमति महानिदेशक से प्राप्त की.....उसने सरकारी मकान की सलाह ही नहीं दी बल्कि उसके लिए सिफारिश की...मीणा को मैंने तेज लेकिन सहृदय माना था...लेकिन क्या मीणा ही दोषी है? माना कि प्रकृति से पुरुष लंपट होता है...अधिकांश अपनी उस प्रकृति पर विजय पा लेते हैं...सामाजिक या आत्मिक भाववश, कुछ अवसर मिलने पर उसका लाभ उठाते हैं लेकिन उसके लिए प्रयास नहीं करते...सहजरूप में उपलब्ध स्त्री ही उनकी भोग्या होती है, लेकिन कुछ ऐसे होते हैं जिनमें स्त्री को आकर्षित करने के विशेष गुण होते हैं। वे छल-छद्म, साम-दाम, दण्ड-भेद का सहारा लेते हैं। नारी कितना भी दंभ भरे कि पढ़-लिखकर स्वावलंबी बनकर उसने अपना मार्ग प्रशस्त कर लिया है, कि वह जागरूक है, कि वह पुरुषों की दृष्टि पहचानती है, कि वह अपनी रक्षा में समर्थ है, लेकिन डी.पी.मीणा जैसे लोगों के समक्ष उनके समस्त अस्त्र-शस्त्र व्यर्थ हो जाते हैं, क्योंकि ऐसे लोगों को उनके अस्त्र-शस्त्रों को कुंद करने के गुण आते हैं।'
'लेकिन क्या प्रमाण है तुम्हारे पास कि प्रीति का मीणा के साथ अनुचित संबन्ध बन गया है। संभव है वह केवल खा-पीकर चला गया हो।' सुघांशु के मन के एक कोने से आवाज उठी।
'फ्लैट की स्थितियां इस बात का सबूत थीं कि केवल खा-पीकर ही वह नहीं गया....प्रीति ने भी उसे बढ़ावा ही दिया होगा...।'
'प्रीति के प्रति तुम्हारा ऐसा सोचना पुरुषीयर् ईष्या है।'
'नहीं, ऐसा नहीं है। प्रीति ने अप्रत्यक्षरूप से स्वीकार किया कि....।' इसी समय उसे विराट का बुदबुदाना सुनाई पड़ा। अस्पष्ट बुदबुदाना...फिर मुस्कराना। वह उसकी ओर देखने लगा। विराट फिर खर्राटे लेने लगा तो, 'गलती मेरी थी। मुझे प्रीति के साथ विवाह नहीं करना चाहिए था। हमारी पृष्ठभूमि भिन्न थीं ...प्रीति से अधिक दोषी मैं ही हूं। जबर्दस्ती वह मुझे बांध नहीं लेती। शायद मेरे अंदर भी एक एडीशनल सेक्रेटरी की बेटी से विवाह कर लेने का उत्साह था। अब इतना सब होने के बाद उसके साथ रहना हर दिन मरने जैसा होगा...नहीं अब उसके साथ नहीं रह सकता। उसने टेबल लैंप के विपरीत दिशा में करवट ली और सोने का उपक्रम करने लगा।
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सुबह जल्दी ही सुधांशु की नींद खुल गयी। रातभर गर्मी और तनाव के कारण उसे भलीभांति नींद नहीं आयी थी। जब भी नींद आयी दुखस्वप्न आते रहे। स्वप्न जिनको समझना कठिन था उसके लिए। उठने पर उसने उन्हें याद करने का प्रयत्न किया, लेकिन एक भी स्वप्न उसे याद नहीं आया। याद रहा तो केवल इतना ही कि हर स्वप्न उसे डरावना लगता रहा। वह बिस्तर पर बैठ सोचता रहा और निष्कर्ष निकाला कि मां की दारुण बीमारी, अमपानजनक विभागीय स्थितियां और प्रीति के कारण उत्पन्न स्थिति की पीड़ा ही उन अबूझ स्वप्नों का आधार थे। उसने कोमलकांत विराट की ओर देखा, जो सीधा लेटा तब भी खर्राटे ले रहा था। उसने घड़ी देखा, पांच बजे थे। खिड़की के बाहर उजाला स्पष्ट था।
साढ़े पांच बजे उसने सोचा कि विराट को जगा दे, लेकिन यह विचार त्याग टहलने जाने के लिए कपड़े बदले और दरवाजे पर ताला लगा सीढ़ियां उतर गया। मकान पन्द्रह फुट की गली में था जो पांच मिनट पैदल चलने पर विकास मार्ग से जुड़ती थी। वह उसी गली में विकास मार्ग की ओर बढ़ा। वहां की सभी गलियां एक-सी थीं और अनजान व्यक्ति के भटकने का भय था।
विकास मार्ग पर उतनी सुबह भी वाहन तेज गति से दौड़ रहे थे। क्षणभर वह खड़ा सोचता रहा कि कहां टहले। किसी पार्क की जानकारी उसे नहीं थी और विकास मार्ग इस योग्य नहीं था। वह कुछ देर तक सोचता खड़ा रहा। लोग सर्विस लेन में इधर-उधर आते-जाते दिखे उसे। 'क्या ये लोग यहीं टहल रहे हैं।' प्रश्न उसके दिमाग में कौंधा, 'नहीं भी टहल रहे हों तो भी....यहीं टहलना सुरक्षित रहेगा।' वह आगे बढ़ा। यद्यपि उस लेन में भी इक्का-दुक्का दोपहिया वाहन और रिक्शा आ-जा रहे थे, लेकिन लोग चल रहे थे बेफिक्र...वह भी चलता गया आगे आने वाली लाल बत्ती तक, जिसके बारे में उसे बताया गया था कि वह मधुबन चौक था। वहां से वापस लौटा और तेजगति से गुरुद्वारे तक गया। रास्ते में फुटपाथ पर अखबार वालों को अखबार सहेजते और दो पान के दुकानदारों को दुकानें खोलते देखा।
गुरुद्वारा में कुछ सरदार सपरिवार आ-जा रहे थे और गुरुवाणी का वाचन हो रहा था। वह पलटा और विराट के मकान की गली में मुड़ गया। उस गली के कोने के मकान पर 'करिअर पॉइण्ट' का बड़ा-सा बोर्ड लटक रहा था, जिसपर सी.ए.,सी.एस. और आई.सी.डब्लू.ए. की कोचिगं की सूचना थी। विराट ने बताया था कि लक्ष्मीनगर ऐसे इंस्टीटयूट्स के लिए विशषरूप से विख्यात है। नोएडा, फरीदाबाद और गुड़गांव से बच्चे वहां कोचिगं के लिए आते थे।
लौटकर दरवाजा खोलने की आवाज से विराट जागा...अंगड़ाई ली और बोला, ''टहलने गये थे गुरू ....।''
''हां, लेकिन पता ही नहीं था कि पार्क कहां है....सर्विस लेन में टहला....।''
''ऐसी कॉलोनियों में पार्क नहीं होते मित्र.....और दिल्ली के चारों ओर ऐसी ही बस्तियां हैं...दिल्ली सरकार को लोग टैक्स देते है, लेकिन इनमें सुविधाओं के लिए उन्हें तरसना होता है। यह तो फिर भी लााख गुना बेहतर है, क्योंकि कई राजनीतिज्ञ यहां रहते हैं....खैर छोड़ो...चाय पियोगे?''
''पीना चाहूंगा...आप जब तक चाय बनाओ मैं स्नान कर लेता हूं।''
''पन्द्रह मिनट रुक जाओ...मैं फ्रेश हो लूं....।''
''ओ.के....अखबार कब तक आता है?''
''सात के आस-पास।''
''पत्रकार के घर भी सात बजे....।''
''यार, काहे के पत्रकार....डेस्क पर काम करने वाला अपने को कुछ भी समझे, लेकिन उसकी औकात सरकारी दफ्तर के क्लर्क से अधिक नहीं होती।'' कहता हुआ विराट बाथरूम-कम टायलेट की ओर लपक गया।
सुधांशु स्नानकर जब निकला चाय तैयार थी। स्नान करते समय वह जिस प्रश्न पर विचार करता रहा था उसका सामना बाहर आते ही उसे करना पड़ा। चाय उसके सामने रखते हुए विराट ने पूछा, ''भाभी कितने दिनों के लिए टूर पर गयी हैं?''
''मैं उनके दफ्तर में नहीं हूं।'' सुधांशु ने फिर टालने की कोशिश की।
''जब तक वह टूर पर होंगी तब तक आप इधर ही आ जाया करना। डुप्लीकेट चाबी मैं दे दूंगा।''
''शायद आवश्यकता नहीं होगी।''
''परेशान बिल्कुल मत होना। विराट के दिल में भी विराट जगह है और कमरे में भी...कहो तो दूसरी चाबी मकान मालिक के पास छोड़ता जाऊं।''
''नहीं।'' क्षणभर बाद सुधांशु बोला, ''फिर भी अपना फोन नंबर लिखकर दे दो।''
''मुझे लौटने में प्राय: देर हो जाती है....ग्यारह भी बज जाते हैं। जाता ही यहां से ग्यारह बजे हूं.....एक बार सोच लो...।''
''आप परेशान न हों...आवश्यकता हुई तब फोन कर लूंगा।''
विराट चुप रहा। अखबार आ गये थे...जनसत्ता और टाइम्स आफ इंडिया।
''आप अखबार देखो....मैं आपके लिए ब्रेकफास्ट तैयार कर देता हूं।''
''विराट जी....परेशान न हो...दफ्तर में कैण्टीन है।''
''यार कैण्टीन का खाना कोई खाना होता है।''
''वहां अच्छा खाना मिलता है... नाश्ता भी ...।''
''ओह, मैं यह भूल ही गया था कि जनाब क्लास वन अफसर हैं और यह कि प्ररवि विभाग में हैं। आप लोगों के लिए विशेष व्यंजन बनते होंगे वहां और बाबुओं के लिए अलग।''
''ऐसा नहीं है.....सभी के लिए एक जैसा...।''
''कोई बात नहीं....वहां भी नाश्ता कर लेना। अपने लिए मुझे कुछ करना ही होगा...ब्रेड और मक्खन चलेगा। शुध्द शाकाहारी नाश्ता?''''
''ओ.के.।''
''नाश्ते के बाद चाय।''
''ओ.के.।''
ठीक आठ बजते ही सुधांशु ने सूटकेस उठाया और नीचे आ गया।
''मैं नीचे चलता हूं।''
''वापस नहीं आउगां।'' और दोनों ठठाकर हंस दिए।
''आने के लिए संकोच नहीं करना...बता देना फोन पर....।'' विराट सीढ़ियों पर रुक गया। सुधांशु ने उत्तर नहीं दिया।
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नीचे उतरकर सुधांशु ने अनुभव किया कि उसने बहुत बड़ी गलती कर दी थी। उसे सुबह छ: बजे ही निकल लेना चाहिए था। कहीं आशियाना खोजना ही होगा....व्यवस्था होने तक किसी होटल में रुकना होगा। अब....? दफ्तर पहुंचने में डेढ़ घण्टा है और दफ्तर के आसपास के होटल थ्री और फाइव स्टार हैं...उसकी औकात से बाहर। तत्काल उसे विचार कौंधा, ''रविकुमार राय के यहां सूटकेस रखने जाना होगा और शाम ऑफस से निकलकर पहाड़गंज या करोल बाग के किसी होटल में।
'लेकिन रवि के यहां प्रश्नों की झड़ी लग सकती है।' सुधांशु ने सोचा, 'देखा जाएगा....कहीं होटल खोजने का अब वक्त नहीं है। रवि के यहां बापूधाम जाने के लिए ऑटो लेना होगा....।' सोचता हुआ सुधांशु विकास मार्ग पर आ गया। ऑटो से जब वह रवि के यहां पहुंचा, रवि ऑफिस जाने के लिए तैयार होकर नाश्ता कर रहा था। स्टॉफ कार बाहर खड़ी थी और ड्राइवर गाड़ी पर कपड़ा मार रहा था।
घण्टी बजाते ही पन्द्रह वर्षीया एक युवती, जो शक्ल सूरत से आदिवासी दिख रही थी, ने दरवाजा खोला।
''रवि जी हैं?''
''हैं...मैं पूछती हूं।''
ड्राइंगरूम में नाश्ता करते हुए रवि ने सुधांशु की आवाज पहचान ली थी। उसने वहीं से आवाज दी, ''आ जाओ सुधांशु।''
सुधांशु को देख रवि उठ खड़ा हुआ, ''अरे....बाहर से आ रहे हो या प्रीति ने घर से निकाल दिया?''
''बनारस से आ रहा हूं।'' अपने स्वभाव के विपरीत वास्तविकता छुपान के लिए सुधांशु को झूठ बोलना पड़ा।
''खैरियत तो है?''
''मां बीमार हैं।''
''क्या हुआ आण्टी को?''
'' डाक्टरों ने कैंसर बताया है।''
''ओह....।'' कुछ देर तक रवि चुप रहा फिर पत्नी से बोला, जो सुधांशु से हाथ जोड़कर नमस्कार कर रही थी, ''बीना, सुधांशु के लिए नाश्ता लाओ।''
''नहीं भाई साहब....मैं दफ्तर जाउंगा...नाश्ता कर चुका हूं।''
''मैं तुम्हे दफ्तर छोड़ दूंगा.....नाश्ता न सही एक कप चाय या कॉफी तो ले ही सकते हो...।''
''कॉफी ले लूंगा।''
''बीना....जल्दी कॉफी बनवाओ।'' रवि ने घड़ी देखी....समय हो रहा है।'' वह सुधांशु की ओर मुड़ा और उसकी मां के इलाज के विषय में चर्चा करने लगा।
कॉफी आने के बाद रवि ने विषय बदलते हुए पूछा, ''प्रीति कैसी है?''
''ठीक है।'' यह कहते हुए सुधांशु का चेहरा विवर्ण हो उठा। रवि ने इस पर ध्यान दिया। लेकिन बोला नहीं।
'कुछ गड़बड़ है....सुधांशु कुछ छुपा रहा है।' रवि ने सोचा।
''ट्रेन से आए?'' रवि ने पूछा।
''हां, लेट थी।''
रवि मुस्कराया। जिसे सुधांशु ने देखा और समझ गया कि रवि ने सोच-समझकर यह बात पूछी थी। ट्रेन से आया व्यक्ति इतना धुला-पुछा नहीं हो सकता।
''दफ्तर कैसा चल रहा है?''
''कोई समस्या नहीं है।''
''तुम्हारा पी.डी., सुनते हैं बहुत भ्रष्ट है।''
''मुझसे क्या मतलब। आप जानते हैं कि इस देश में पचास प्रतिशत ब्यूराक्रेट्स भ्रष्ट हैं, जिनमें दस प्रतिशत ऐसे हैं जो करोड़ों में खेल रहे हैं और चूंकि वे मंत्रियों की मिलीभगत से खा-कमा रहे हैं, इसलिए उनके विरुध्द कुछ नहीं होता, जबकि फंसते वे हैं जो कम कमा पाते हैं।''
''भ्रष्टाचार जिन्दाबाद सुधांशु।'' रवि ने कॉफी का प्याला मेजपर रखते हुए कहा, ''एक अज्ञात पत्र गृहमंत्री के पास आया था तुम्हारे पी.डी. के विरुध्द, क्या नाम है उसका....?''
''चमन लाल पाल....।''
''हां, उसके भ्रष्टाचार के विरुध्द सी.बी.आई चांज के लिए....। मेरे पास से गुजरा ....मैंनें अपनी टिप्पणी देकर आगे भेज दिया....वापस लौटकर मेरे पास नहीं आया। क्या एक्शन हुआ....पता नहीं।''
''उसकी पहुंच ऊंची है....मंत्रियों तक...।''
''चलें....।'' रवि उठ खड़ा हुआ।
''मैं यह सूटकेस छोड़ जा रहा हूं। शाम आकर ले जाऊंगा।''
''बीना, रवि का सूटकेस संभालकर रखवा देना।'' रवि सुधांशु की ओर मुड़ा, ''आओ चलें।''
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रास्ते में रवि और सुधांशु में मात्र इतनी ही बात हुई कि रवि ने सुधांशु की मां के इलाज के विषय में पुन: चर्चा की और जानना चाहा कि डाक्टरों ने क्या राय व्यक्त की थी।
''अधिक संभावना नहीं है....अधिक से अधिक चार माह। तकलीफ पहले से ही रही होगी...मां ने या तो छुपाया या उन्हें पता ही नहीं चला।''
''पता ही नहीं चला होगा।'' कुछ रुककर, मानो कहने में रवि को संकोच हो रहा था, ''उन्हें यहां एम्स में दिखा दो...।''
''सोचता मैं भी हूं। लेकिन समस्या यह है कि मां आना नहीं चाहतीं। वह घर के पास....।''
''मैं समझ सकता हूं। पुराने लोगों को अपनी मिट्टी से अधिक ही प्यार होता है। गांव-घर छोड़ना नहीं चाहते....मेरे मां-पिता का भी यही हाल है। आये तो एक सप्ताह में ही भागने की सोचने लगते है॥''
''सर को कहां छोड़ना है, सर?'' ड्राइवर ने सड़क पर नजरें गड़ाए हुए पूछा।
''के' ब्लॉक...।'' रवि बोला, ''पहले सुधांशु को छोड़ दो...।''
''जी सर।''
ड्राइवर ने तीन मूर्ति की ओर गाड़ी मोड़ी और सेनाभवन के पास से होते हुए पांच मिनट में उसने के' ब्लॉक के गेट पर गाड़ी रोक दी।
''मिलते रहा करो सुधांशु...मेरी व्यस्तता तो तुम जानते ही हो...।''
''जी भाई साहब।'' सुधांशु ने रवि से हाथ मिलाया और गाड़ी से उतर ऑफिस की ओर बढ़ा। वह गेट में प्रवेश करने ही वाला था कि उसकी नजर मस्जिद के पास खड़े अरुण कुमार भट्ट पर पड़ी। भट्ट के हाथ में चमकता हुआ ब्रीफकेस था। उसके साथ दो लोग खड़े हुए थे, जिनके हाथ में चमड़े के बैग थे। भट्ट ने उसे देखा लेकिन अनदेखा करता हुआ दोनों व्यक्तियों से बातें करता रहा।
'कांट्रैक्टर्स के प्रतिनिधि होंगे।' सोचता हुआ सुधांशु ऑफिस की गैलरी में आ गया। वह अपनी सीट पर जाने के लिए सीढ़ियां चढ़ने ही वाला था कि सामने बाथरूम से प्रदीप श्रीवास्तव को निकलते देखा। उसने गुडमॉर्निंग कहा, लेकिन श्रीवास्तव यूं तना हुआ अपने चेम्बर की ओर मुड़ गया मानो उसने सुधांशु को देखा ही नहीं था।
'ये सरकारी भैंसे हैं। औगी मारने पर ही सुनते हैं.......जल्लाद हैं...कल कैसे मीठे स्वर में बातें कर रहा था...ओर कुछ देर बाद कैसे गिरगिट की भांति इसने रंग बदल लिया था....।' उसने सोचा।
वह सीट पर पहुंचा तो पाया कि रात भर में ही मेज पर धूल जमा हो चुकी थी। दरअसल उसके पीछे खिड़की में कूलर के अगल-बगल कुछ लगाया नहीं गया था। वहां से हवा के साथ धूल आती थी। खिड़की पर पर्दा भी नहीं था। सुबह से दोपहर तक वहां धूप विराजमान रहती थी। गर्मी थी...कूलर था, लेकिन उसमें पानी नहीं था। उसने निर्णय कर लिया था कि वह उसमें पानी भरने के लिए किसी से नहीं कहेगा। सिर पर पंखा न होता तो वहां बैठना कठिन होता। उसके पास पुराना कपड़ा भी नहीं था, जिससे मेज की धूल झाड़ लेता। तभी रामभरोसे प्रकट हुआ, ''सर, चाय...पानी?''
''रामभरोसे जी.....कोई गंदा कपडा होगा तो देंगे।''
''सर काम बताएं।''
''मेज साफ करना है।''
''अभी किये देता हूं सर।'' रामभरोसे गंदा कपड़ा ले आया, जो स्याही से आधा भीगा हुआ था, लेकिन स्याही सूखी हुई थी। मेज साफ कर रामभरोसे ने पुन: पूछा, ''सर चाय!''
''पानी ले आओ....बस...।'' सुधांशु ने ड्राअर से निकालकर जग और गिलास रामभरोसे को देते हुए कहा, ''कोई परेशानी न हो तो!''
''सर, परेशानी कैसी! यह तो हमारा फर्ज है सर। कल तक मैं चपरासी ही था। परीक्षा पास की और बन गया रिकार्ड क्लर्क।''
''बहुत अच्छा हुआ।''
''सर, यह सब न होता।'' सुधांशु के कुछ निकट आकर फुसफुसाते हुए स्वर में रामभरोसे बोला, ''परीक्षा मुख्यालय में हुई थी....भट्ट की दाल नहीं गली। यहां होती तो सर मुझ जैसे छोटे लोगाें से भी पास करवाने के नाम पर दो-चार हजार रुपये वह ऐंठ लेता।''
सुधांशु चुप रहा। 'दीवारों के भी कान होते हैं...फिर यह तो रिकार्ड रूम है, जहां रैक्स की ही दीवारें हैं। इस रामभरोसे से भी कल ही परिचय हुआ है...हो सकता है इसे मेरी जासूसी के लिए पाल ने लगाया हो।''
''पानी ले आओ।''
''जी सर, अभी लाया।'' रामभरोसे दोड़ गया और पांच मिनट में लौट आया। गिलास मेज पर और जग स्टूल पर रखता हुआ बोला, ''सर, आप बुरा न मानें तो कुछ कहूं।''
सुधांशु रामभरोसे की ओर देखने लगा।
''सर आपके साथ जो हुआ....अच्छा नहीं हुआ। पूरे दफ्तर के बाबुओं में गुस्सा है, लेकिन वे मजबूर हैं। यहां यूनियन नहीं है और होती भी तो वे आपके लिए नहीं लड़ते। वे स्टॉफ के लिए लड़ते। पाल हरामी.....।'' उसने जुबान काटी, ''और ये श्रीवास्तव महा कमीना ...घुन्ना और आप इसे कम न समझेंगे सर। जड़ें काटने में यह सबसे आगे रहता है....।''
सुधांशु फिर भी चुप रहा और सोचता रहा, 'अमूमन स्टॉफ के लोग अफसरों के सामने ऐसी बातें करने से बचते हैं.....अनुशासनहीनता है यह....लेकिन शायद रामभरोसे भी मेरी तरह ही दुखी है.....इसीलिए उसने यह सब इस भाषा में कहने का साहस किया।
''सर, चाय ले आऊं?''
''नहीं।'' सुधांशु ने उसे पुन: रोका, ''आपको पीना है?'
''ंअभी नहीं सर।''
''सर, एक बात बताऊं!''
''हां।''
''आप यह न सोचेंगे कि स्टॉफ के लोग आपसे कन्नी काटते हैं। बड़ी इज्जत है सभी की नजरों में आपकी....सर आप पहले अफसर हैं जिन्होंने ठेकेदारों की मनमानी रोकने की कोशिश की, और इतने कम समय में आप लोंगो की नजरों में भले और ईमानदार अफसर के रूप में जम गए....लेकिन ये पाल, श्रीवास्तव, और भट्ट ...इनके भय से लोग न आपकी सराहना कर पाते हैं और न आपके सामने अपना आदर प्रकट कर पाते हैं। इनके जासूस दफ्तर में फैले हुए हैं...छोटे-से लाभ के लिए भी लोग जासूसी करते हैं। भट्ट किसी को एक बोतल रम प्रर विभाग की कैण्टीन से दिला देता है और वह भी मुफ्त में नहीं, प्रर विभाग के किसी जवान के कोटे से उसको मिलने वाले भाव पर....सर आप जानते हैं कि बाजार में वही रम एक सौ दस-बीस की मिलती है जबकि एक जवान को पचास-पचपन की। साल में एक रम और वह आदमी भट्ट के लिए काम करने लगता है।''
रामभरोसे ने भट्ट को उधर ही लपककर आते देखा और चुप हो गया। भट्ट लंबे डग भरता झूमता हुआ आया और सुधांशु को नमस्कार कर आफिस आर्डर उसके सामने रखकर तनकर खड़ा हो गया। ऑफिस आर्डर सुधांशु और विनीत खरे के काम के बटवारे को लेकर था। विनीत खरे को ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन के साथ प्रशासन का काम भी सौंपा गया था। उसे वे सभी अनुभाग दिए गये थे, जिन्हें भट्ट संभालता था। साथ में कुछ अतिरिक्त अनुभाग भी थे। सुघांशु को अब रिकार्ड सेक्शन और हिन्दी सेक्शन का इंचार्ज बनाया गया था। हिन्दी सेक्शन तक बात ठीक थी, हालांकि वह सेक्शन एक हिन्दी अधिकारी के अधीन था, जिसे सीधे श्रीवास्तव को रपट देनी होती थी। हिन्दी अनुभाग का काम बाहर भेजे जाने वाले और बाहर से आने वाले कुछ पत्रों के अंग्रेजी से हिन्दी और कभी-कभी हिन्दी से अंग्रेजी अनुवाद करना होता था। वर्ष में एक बार हिन्दी की कार्य प्रगति रपट मंत्रालय को भेजनी होती थी और दो या तीन वर्षों में हिन्दी संसदीय समिति की बैठक आयोजित कर दफ्तर की हिन्दी प्रगति प्रदर्शित करने का काम करता था।
हिन्दी संसदीय समिति विशेषाधिकार प्राप्त समिति थी, जिससे संबध्द लोग देश के विभिन्न कार्यालयों के दौरे करते थे। उन्हें पंच सितारा होटल में ठहराया जाता था। उनको हवाई यात्रा का संवैधानिक अधिकार प्राप्त था। प्राय: गर्मियों में वे ठण्डी जगहों में अवस्थित कर्यालयों का निरीक्षण करते, जबकि सर्दियों में दक्षिण भारत जाते। जिस स्टेशन पर होते हैं कार्यालय उन्हें उस स्थान और उसके आसपास के क्षेत्रों का भ्रमण करवाता है। आभिप्राय यह कि हिन्दी संसदीय समिति को नियमानुसार जो सुविधाएं मिलनी चाहिए विभाग या कार्यालय उससे कई गुना अधिक उपलब्ध करवाता है। बड़ा से बड़ा फन्ने खां अफसर, अपने कार्यालय में जिसका आतंक व्यप्त होता है, हिन्दी संसदीय समिति के समक्ष हाथ जोड़े एक टांग पर खड़ा रहता है। समिति का कोप भाजन बनने से बचने के लिए यदि समिति का कोई सदस्य उसे मुर्गा बन जाने के लिए कह दे तो वह बन जाने को तैयार रहता है। समिति यदि उसके विरुध्द केवल यह लिख दे कि उक्त अधिकारी ने अपने कार्य में कोताही बरती....हिन्दी के विकास की ओर ध्यान नहीं दिया तो उसके लिए मंत्रालय उसे कठोर दण्ड देने के लिए अपनी कमर कस लेता है। उसे स्थानांतरण से लेकर डिमोशन तक का सामना करना पड़ सकता है।
सुधांशु के हिन्दी सेक्शन का कार्यभार सौंपने के पीछे पाल की विशेष योजना थी। दो महीने के अंदर हिन्दी संसदीय समिति का दौरा उस कार्यालय में होना था। तारीख तय हो चुकी थी और ऐसा पहली बार हुआ था कि समिति गर्मियों मेें दिल्ली के उस कार्यालय का दौरा कर रही थी।
''सर।'' तने हुए भट्ट बोला।
सुधांशु ने ऑफिस आर्डर पर सरसरी दृष्टि डाली और हस्ताक्षर कर दूसरी प्रति भट्ट को लौटा दी। रामभरोसे भट्ट के आते ही अपनी सीट पर जा बैठा था।
ऑफिस आर्डर मेज पर रख सुघांश सोचने लगा, 'कितना विचित्र काम.....हिन्दी सेक्शन ठीक... रिकार्ड सेक्शन ...दोनों ही सेक्शन सामने हैं। लेकिन डिस्पैच-रिसीप्ट देखने का काम एक सहायक निदेशक करे...यह अपमान ही है मेरा। जिस कार्य को एक वरिष्ठ बाबू या अधिक से अधिक अनुभाग अधिकारी को करना चाहिए वह मैं...एक सहायक निदेशक...।' क्रोघ की लहर उसके मस्तिष्क में उभरी, लेकिन तभी मन ने कहा, 'सुघांशु, धैर्य से काम लो... आगे पता नहीं और कैसी स्थितियों का सामना करना होगा...धैर्य से ही उन स्थितियों से जूझा जा सकता है। फिर क्रोध तो तुम्हारी प्रकृति नहीं...और कर भी लो तो क्या उससे कुछ होने वाला है।' वह कुर्सी से उढ़क गया और सोचने लगा, ''कितना खराब वक्त है मेरा...मां मृत्यु से लड़ रही है। मैं उसके पास नहीं रह सकता...दफ्तर मुझे हर कदम पर अपमानित करने पर तुला हुआ है और प्रीति के साथ जीवन जीने का स्वप्न भी कमजोर कांच के बर्तन की भांति टूट कर बिखर गया है। विभाग का चयन मैं नहीं कर सकता था। वह अधिकार मुझे नहीं था। मेरी रैंक से ही तय होना था। मैं सोच भी नहीं सकता था कि सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार-रिश्वतखोरी इतने गहरे तक जमा हुआ है। उसके विरुध्द सोचने-कुछ करने वाले को ही रास्ते से हटा दिया जाता है। लेकिन मुझे इससे इतनी पीड़ा नहीं...मुझ जैसे कितने ही और होंगे जो मुझसे भी अधिक अपमान, पीड़ा और प्रताड़ना सह रहे होंगे...लेकिन प्रीति...।'
उसे लगा कि मस्तिष्क शून्य हो गया है। प्रीति का चेहरा उसके सामने घूमने लगा।
'मुझे शाम फ्लैट में जाना चाहिए? कहते हैं पति-पत्नी में नोक-झोंक होती ही रहती है। लेकिन क्या वह मात्र नोक-झाेंक थी। प्रीति ने स्पष्ट संकेत दिया कि मैं उसके योग्य नहीं। उसने यह भी जता दिया कि मीणा के साथ उसकी नजदीकी अपराध नहीं। शराब का गिलास....मुचड़ा बिस्तर...बेडरूम में रखे कॉफी के प्याले....निश्चित ही प्रीति के योग्य मैं नहीं था। हालांकि उसके पिता एक अच्छे छवि के अधिकारी थे....मेरी ही भांति शेल्फमेड और प्रीति अपने पिता से प्रभावित भी थी, लेकिन यह सब शादी तक ही रहा। सही कहना होगा कि आई.ए.एस. में आने तक रहा, लेकिन जैसे ही उसका चयन हुआ उसका रंग बदलने लगा था।'
'भावुक होना अच्छा है, लेकिन अति भावुक व्यक्ति सदैव धोखा खाता है। विश्वासघात का शिकार होता है। अति भावुक सामने वाले व्यक्ति को समझने का प्रयास ही नहीं करता, वह सहजता से उस पर विश्वास कर लेता है और दूसरा उसका इस्तेमाल कर अनुपयोगी होने पर उसे दूध की मक्खी की भांति अपने से अलग कर देता है। कई बार अपमानित करके...। प्रीति ने ऐसा क्यों किया....मैं उसे कितना चाहता था, लेकिन देहरादून पोस्ट होते ही उसने एक दूरी बनानी प्रारंभ कर दी थी। मैंने समझा क्यों नहीं! जिन बातों के लिए प्रारंभ में मैं उसे आगाह करता था और वह हंसी में उड़ा देती थी....बाद में उसे कचोटने लगी होंगी। मेरा गरीब किसान परिवार से होने के विषय में उसने देहरादून पोस्ट होने के बाद सोचना प्रारंभ किया होगा। यदि ऐसा था भी तो वह मुझे कह देती....मैं उसके जीवन से अपने को अलग कर लेता, लेकिन उसे मीणा जैसे धूर्त और लंपट के साथ नैकट्य स्थापित नहीं करना चाहिए था। कितना पीड़ाजनक है यह सब।' एक दीर्घ निश्वास लिया सुधांशु ने।
''सर, अब गाज मुझ पर आ गिरी।''
''हुंह।'' विचार श्रृखंला टूट गयी। रामभरोसे सामने खड़ा था।
''सर, भट्ट ने अभी-अभी मुझे बुलाकर हुक्म दिया कि मैं दिल्ली केैण्ट चला जाऊं....वहां के सहायक निदेशक कार्यालय में ज्वायन करने...।''
''हुंह....।''
''सर, आप जानते हैं...ऐसा क्यों किया गया!''
''समझ सकता हूं।'' अभी भी अपने विचारों में खोये हुए सुधांशु ने कहा।
''सर, श्रीवास्तव से कहकर भट्ट ने मेरा ट्रांसफर करवा दिया है। आपसे बातें करते देखा था उसने....श्रीवास्तव ने मैडम प्रीति दास को फोन करके कहा....सर।''
''हूं....अ...।'' प्रीति का नाम सुन सुधांशु ने रामभरोसे की ओर देखा।
''सर, प्रीति मैडम से आप कह दें....वह चाहें तो मुझे मुख्यालय बुला लें...। मेरे लिए दिल्ली केैण्ट दूर पड़ेगा। मैं फरीदाबाद रहता हूं सर।''
''रामभरोसे, आप अभी वहीं जाकर ज्वायन कर लो। हालात को समझो....।''
''सर....।'' रामभरोसे रुआंसा हो उठा।
''मैं ठीक कह रहा हूं।''
''जी सर.....।'' रामभरोसे हाथ मलता हुआ वहां से चला गया।
उसके जाते ही सुधांशु पुन: विचारों की अंधी गुफा में प्रवेश कर गया।
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भाग पांच
-40-
दिनभर सुधांशु प्रीति और अपने विषय में सोचता रहा। कार्यालय में उसके साथ जो हो रहा था उसे वह भूल गया था। रामभरोसे के जाने के बाद उसके लिए चाय या पानी ला देने वाला भी अब कोई नहीं था। उसके स्थान पर एक नया रिकार्ड क्लर्क आया, लेकिन वह उसे नमस्ते कहकर नदारत हो गया था। जब भी वह कार्यालय के बारे में सोचना प्रारंभ करता प्रीति का व्यवहार याद आ जाता या मां का चेहरा घूमने लगता। 'वह कैसी होगी...पिता अकेले क्या कर पा रहे होंगे?' वह सोचने लगता। दिनभर के चिन्तन के बाद उसने निर्णय किया कि वह एक क्लास वन अधिकारी है....उसके जूनियर विनीत खरे को यदि चपरासी उपलब्ध है तो उसके लिए भी एक चपरासी की व्यवस्था की जानी चाहिए। साथ ही उसे भी कमरे में बैठने का अधिकार है। वह उठकर हिन्दी कक्ष में गया। उसने हिन्दी अधिकारी मुदित शर्मा को अपने पास आने के लिए कहा। शर्मा उसके पीछे उसकी सीट तक आया। स्वयं सीट पर बैठते हुए सुधांशु ने कहा, ''शर्मा जी, मेरी ओर से मेरे लिए एक चपरासी और बैठने के लिए कमरे का उल्लेख करते हुए एक नोट तैयार कर लाएं।''
''जी सर।''
''अभी तैयार कर लायें और हिन्दी की जो भी प्रगति रिपोर्ट्स हैं वह कल प्रस्तुत करें।''
''यस सर।''
शर्मा चला गया तो वह पुन: सोचने लगा कि अभी भी कुछ नहीं बिगड़ा है। प्रीति को समझाया जा सकता है। दोनों के जीवन का प्रश्न है। गलती इंसान से ही होती है, लेकिन गलती करने वाले को संभलने के अवसर भी दिए जाने चाहिए और उसे भी इस विषय में सोचते हुए अपने को संभाल लेना चाहिए। अल्पना शर्मा का मामला उसके सामने है। मुझसे पांच वर्ष सीनियर है। इस समय चण्डीगढ़ में उपनिदेशक है। इंटेलीजेंस ब्यूरो के एक बड़े अधिकारी की बेटी....दुबली और सुन्दर अल्पना को जब मैंने देखा था तब वह बेहद स्मार्ट थी। ओ.एन.जी.सी के किसी अधिकारी ....कोई श्रीवास्तव था...से प्रेम विवाह किया था। एक बच्ची है अल्पना के, लेकिन वैवाहिक जीवन दो वर्ष से अधिक नहीं चला। इस विभाग के लंपटों के संपर्क में आयी और एक बार पैर फिसला तो अपने को संभाल नहीं पायी। फिसलती गयी और आज उसकी स्थिति यह है कि यूं चलती है मानो क्षय रोग की मरीज है।'
'वैसे लंपट किस विभाग में नहीं हैं। पुरुष प्रकृति से ही लंपट होता है और ऐसे पुरुषों की संख्या नगण्य है जो स्त्री के प्रति सहज रह पाते हैं। लेकिन प्ररवि विभाग, खासकर अधिकारी वर्ग में लंपटों की संख्या अधिक है। मैं पटना में था तब मुझे बताया गया था कि प्रर विभाग में ऑडिट में जाने वाले अधिकारियों को प्रर विभाग के लोग न केवल थ्री स्टार होटलों में ठहराते हैं बल्कि होटल मैनेजर के माध्यम से वे यह संदेश भी देते हैं कि उनके रात मनोरंजन के लिए समस्त सुविधाएं उपलब्ध हैं। ऐसा इसलिए कि प्रर विभाग की खरीद में वे जो करोड़ों के घोटाले करते हैं उसे ऑडिट अधिकारी बिना किसी नुक्ताचीनी के पास कर दें। एक बार भी यदि अधिकारी उसके विरुध्द टिप्पणी देगा तो महीनों ही नहीं वर्षों के लिए मामला लटक जाने के खतरे के साथ ही घोटालेबाज प्रर विभाग के अधिकारियों की नौकरियों पर भी बन आने का खतरा होता है। प्रर विभाग द्वारा समस्त सुविधाओं को भोगने वाला अधिकारी कैग के ऑडिट में उन अनियमिताओं से बचने के लिए उन्हें रास्ता सुझाता है और बदले में चलते समय अपनी जेब भी गर्माता है। जेब उसके साथ गये बाबुओं की भी गर्मायी जाती है। रात मनोरंजन के साधन भले ही उन्हें उपलब्ध न करवाये गये हों।'
'भ्रष्टाचार में संपूर्ण व्यवस्था डूबी हुई है।'
''सर नोट...।'' हिन्दी अधिकारी की आवाज सुनकर सुधांशु चौंका। उसने नोट पढ़ा और हस्ताक्षर करके उसे तुरंत श्रीवास्तव के पास भेज देने का निर्देश हिन्दी अध्किारी को दिया। फिर घड़ी पर दृष्टि डाली...सवा पांच बजे थे। 'मुझे लोधी रोड नहीं जाना चाहिए। मुझे कोई होटल खोजना होगा। लेकिन मेरा अधिकांश सामान लाधी रोड में ही है।' उसने सोचा, 'किसी दिन लंच के बाद आधा दिन का अवकाश लेकर सामान होटल ले जाउंगा।'
छ: बजे वह उठा और नाक की सीध में गेट की ओर बढ़ा। बाबुओं की भीड़ बसों के लिए लपक रही थी। बस उसे भी लेनी थी, लेकिन उसने कुछ देर पैदल चलकर केन्द्रीय सचिवालय से बस लेने का निर्णय किया और साउथ ब्लॉक के गेट की ओर बढ़ा।
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सुधांशु ने करोल बाग के एक होटल में कमरा लिया। होटल सामान्य श्रेणी का था। अच्छे में वह रह नहीं सकता था। रात ढाबे में खाना खाने के बाद उसने बनारस उस अस्पताल में फोन मिलाया जहां मां इलाज के लिए भर्ती थीं। बहुत देर बाद नर्स की आवाज सुनाई दी। उसने मां का वार्ड, कमरा नंबर और नाम बताकर अनुरोध किया कि वह उसके पिता से बात करवा दे, जो वहीं पास ही वार्ड के बाहर मरीजों के रिश्तेदारों के बीच उसे मिल जाएंगे।
कुछ देर तक फोन होल्ड करवाने के बाद नर्स बोली, ''सुबोध दास नाम का कोई व्यक्ति बाहर नहीं है।''
''सिस्टर, आप एक बार मां के कमरे में जाकर देख लें....प्लीज ...मैं दिल्ली से बोल रहा हूं।''
क्षणभर की चुप्पी के बाद रिसीवर में आवाज गूंजी, ''उन्हें आज छुट्टी दे दी गई है।''
उसने फोन काट दिया और होटल लौटकर बिस्तर पर ढहकर मां, पिता और अपने भावी जीवन के विषय में सोचने लगा। उसने सोने का प्रयास किया, लेकिन नींद नहीं आयी। मां और पिता के चेहरे सामने आ उपस्थित हुए। खेतों में काम करती मां, घर में खाना पकाती, घर की सफाई करती मां, उसे डांटती और प्यार करती मां, पिता के साथ जानवरों के लिए चारा-पानी में उलझी मां और पिता। पिता के चेहरे पर दाढ़ी उगी हुई थी जब वह मां को देखने गया था। दुबले हो गए थे।
'मैंने कोन-सा सुख दिया मां-पिता को। मेरे लिए....मेरी जिन्दगी बनाने के लिए कौन-से कष्ट नहीं सहे उन्होंने....जो नौकरी मेरी जैसी पृष्ठभूमि वाले युवकों के लिए स्वप्न होती है, उसे पाकर भी, और उसे पाने का श्रेय मां-पिता के खून-पसीना बहाते उनके अथक श्रम को है, मैंने उन्हें क्या दिया! पटना लाकर उन्हें रखना चाहा, लेकिन रख नहीं सका। क्या वे सच ही रहना नहीं चाहते थे या प्रीति के अपने प्रति शुष्क व्यवहार ने उन्हें गांव जाने के लिए प्रेरित किया था। मुझे उसी समय कारण जानना चाहिए था, लेकिन तब कार्यालय के प्रति....विभाग के प्रति अपनी कर्तव्यनिष्ठा ने इस दिशा में सोचने के अवसर ही नहीं दिए थे, लेकिन विभाग ने मुझे क्या दिया!'
'मुझे पुन: अवकाश के लिए आवेदन करना चाहिए।' वह सोचता रहा। अवकाश के लिए आवेदन करते ही पाल बौखला उठेगा, फिर.....गांव में मां के स्वास्थ्य की जानकरी प्राप्त करने का प्रयत्न करना चाहिए। बनारस में प्ररवि का कोई कार्यालय नहीं है....होता तो क्या मैं वहां के अधिकारी इंचार्ज को अनुरोध कर सकता था कि वह किसी को मेरे गांव भेजकर मां के स्वास्थ्य की जानकारी प्राप्त कर मुझे बताए! मेरे प्रति पाल के दुर्व्यवहार की कहानी क्या वहां नहीं पहुंचती! इस विभाग के सभी प्रथम श्रेणी अधिकारी देश के किसी भी कोने में किसी अधिकारी के साथ घटित ऐसी बातों को एक कोने से दूसरे कोने तक पहुंचाते रहते हैं। उनमें परनिन्दा सुख की प्रवृत्ति किसी भी आम व्यक्ति जैसी ही होती है। पद ही उनके बड़े होते हैं और उनका यह बड़ापन अपने अधीनस्थों या आम जनता के प्रति गंभीर रहने तक ही होता है। निजी जीवन में वे सब दयनीय और निम्न विचारों का शिकार होते हैं। कोई ही कर्म-धर्म में सामजंस्य बनाकर चलने वाला होता है। शेष सभी उन तमाम अवगुणों का शिकार होते हैं जो किसी भी साधारण जन में पाया जाता है।'
रात दो बजे तक वह करवटें बदलता रहा, सोचता रहा और सामने दीवार पर टंगी घड़ी देखता रहा। आंखें बोझिल हो रही थीं और दो बजे के बाद आंखों की बोझिलता ने कब उसकी सोच प्रक्रिया पर आधिपत्य जमाया वह जान नहीं पाया। वह सोया तो स्वप्नों की दुनिया में प्रवेश कर गया। उसने स्वप्न देखा कि वह गांव गया है। घर में ताला बंद है। अटैची पड़ोस में रख वह मां-पिता को खोजता खेतों की ओर गया। दूर से ही खेतों में काम करते पिता और मां दिखायी दिए। पास ही पीपल के पेड़ से बंधे उसके बैल खड़े दिखे और उनके निकट खड़ी थी बैलगाड़ी। यह सब वैसा ही था जैसा उसने कॉलेज जाने से पहले देखा था। उसने तेज चलने का प्रयत्न किया, लेकिन गांव से नहर तक तेज चलने वाले उसके कदम भारी हो चुके हैें। वह दौड़ने का प्रयत्न करता है लेकिन दोड़ नहीं पाता। हर कदम उसे बोझ प्रतीत होता है और मां तक पहुंचना कठिन। मां-पिता दिख रहे हैं, लेकिन उनके निकट पहुंचने के उसके प्रयत्न व्यर्थ हो रहे हैं। वह चैतू पासी के बाग के खिरनी के पेड़ के पास रुक जाता है। गांव में वही एक मात्र खिरनी का पेड़ था। बचपन में उसने लुक-छिपकर उसकी खिरनी खायी थीं, लेकिन वह पेड़ अब सूख रहा था। पेड़ पर दृष्टि गड़ा वह उस पर अफसोस प्रकट करता है और पुन: आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है। लेकिन पैर हैं कि उठ ही नहीं रहे। वह नाले के किनारे खड़े शीशम के पेड़ों और राजाराम पासी के खेत के बीच की पगडण्डी पर रुक जाता है और वहीं से पिता को आवाज देता है। और उसे प्रसन्नता होती है कि पिता ने उसकी आवाज सुन ली है। उन्होंने हाथ के इशारे से उसे आने के लिए कहा है, और वह आगे बढ़ना भी चाहता है, लेकिन कदम हैं कि बढ़ ही नहीं रहे। वह परेशान हो उठता है। जितना ही मां-पिता तक पहुंचने का प्रयत्न करता है, उतना ही कदम भारी प्रतीत होते हैं। वह पुन: चीखकर पिता को आवाज देता है।
आवाज का प्रभाव होता है। पिता हाथ में हसिया थामे उसकी ओर आते दिखाई दे रहे हैं। वह प्रसन्न है, लेकिन यह क्या....मां साथ नहीं हैं। पिता निकट आते हैं....और निकट आते हैं। वह भी दो कदम आगे बढ़ने का प्रयत्न करता है और पिता और उसके मध्य दस फुट की दूरी रह जाती है। वह चीखकर पूछता है, ''मां कहां हैं पिता जी....कुछ देर पहले वह दिखाई दे रही थीं......लेकिन अब.....।''
पिता निर्वाक उसे देखते रहते हैं देर तक और वह उत्तर सुनने के लिए विकल उन्हें देखता रहता है। लेकिन तभी पिता गर्दन झुका लेते हैं और वापस जाने के लिए मुड़ ज़ाते हैं। वह चीखकर पुन: पिता से मां के विषय में पूछना चाहता है, लेकिन पिता जा चुके होते हैं। वह घबड़ा उठता है और उसकी नींद खुल जाती है। वह हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसके हृदय की धड़कन तेज थी। उसने आंखें मलीं और घड़ी देखा। पांच बजे थे।
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अगले दिन सुधांशु ने रिकार्ड अनुभाग से तार का फार्म मांगकर पिता के नाम मां के स्वास्थ्य की जानकारी देने के लिए फार्म भरा और रिकार्ड अनुभाग के कलर्क को पेैसे देकर उसे तुरंत भेज देने के लिए कहा। तार में कार्यालय का फोन नंबर लिखकर पिता को कहा कि वह चाहें तो कस्बा जाकर उसे उक्त नंबर पर फोन करके सूचना दे दें।
काम कुछ था नहीं। रिकार्ड सेक्शन का कार्य वह क्या देखता। डाक आती और जाती थी और उसका रिकार्ड तैयार करना वहां के ऑडिटर और रिकार्ड क्लर्क का काम था। डाक बाटने के लिए स्टॉफ अलग था और कार्य की प्रगति देखने के लिए इंस्पेक्शन सेक्शन के सेक्शन अफसर को जिम्मदारी सोंपी गई थी। उसने उस सेक्शन अफसर को बुलाकर कहा कि कोई भी डाक, जाने या आने वाली, के वितरण में विलंब नहीं होना चाहिए....और उत्तर में मुंहफट सेक्शन अफसर ने कहा, ''सर, आज तक ऐसा नहीं हुआ....मैं दो वर्षों से सेक्शन देख रहा हूं। आगे भी नहीं होगा।''
हिन्दी अध्किारी संसदीय समिति संबन्धी दो फाइलें उसकी मेज पर रख गया था। उनमें कार्य प्रगति को प्रदर्शित किया गया था। वर्ष में कितने पत्र हिन्दी में भेजे गए और कितने बाहर से आए। कितने पत्रों या अन्य सामग्री का हिन्दी में अनुवाद किया गया और हिन्दी दिवस किस उत्साह से मनाया गया। कितनी प्रतियोगिताएं आयोजित की गर्इं और कितने पुरस्कार दिए गये....आदि।
'कितना दुर्भाग्यपूर्ण है कि देश की राजभाषा के साथ ऐसा होता है। चौदह सितम्बर को हिन्दी दिवस के रूप में जाना जाता है। विचित्र विडंबना है। वर्ष में एक दिन हिन्दी में काम करने की घोषणाएं की जाती हैं। अफसर से लेकर क्लर्क तक हिन्दी में काम करने के संकल्प व्यक्त करते हैं। कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। हर कार्यालय में हजारों रुपये खर्च कर दिए जाते हैं केवल उस दिवस को मनाने के नाम पर ....आमजन के धन का दुरुपयोग...कुछ प्रतियोगिताएं...कुछ पुरस्कार और बाबू से लेकर अफसर तक प्रसन्न कि उन्होंने हिन्दी के प्रति अपने कर्तव्य निभा दिए। यदि भूल से भी किसी बाबू ने हिन्दी में कोई नोट तैयार किया तो अधिकारी संबध्द अनुभाग अधिकारी या उसके लेखाधिकारी को उसका अंग्रेजी तर्जुमा करवाने के लिए कहता है। वर्ष भर काम अंग्रेजी में और एक दिन रोना हिन्दी विकास का....।'
फाइलें देखने के बाद उसने उन्हें मेज पर बायीं ओर रख दिया। दूसरे अफसरों की भांति देखने के बाद फाइलों को फर्श पर पटकना वह अनुचित मानता था। उन दो फाइलों के बाद शेष दिन उसका मां-पिता और प्रीति के विषय में सोचते हुए बीता। कार्यालय का कोई अफसर न उससे मिलने आया और न ही वह गया। शाम दस नंबर बस लेकर वह सीधे होटल गया और रात जल्दी ही सो गया।
अगला दिन भी उसका उसी प्रकार बीता।
बनारस से लौटने के तीसरे दिन प्रीति उसके कार्यालय आयी। प्रीति उसके पास न आकर प्रदीप श्रीवास्तव के पास गयी। श्रीवास्तव के चपरासी ने आकर उसे कहा, ''सर, श्रीवास्तव सर आपको बुला रहे हैं।''
अपने प्रति श्रीवास्तव की उपेक्षा वह अनुभव कर चुका था। वह सोचने लगा, 'अवश्य कुछ खास बात है।'
चपरासी खड़ा रहा।
''साथ लेकर आने का हुक्म है श्रीवास्तव जी का?''
''नहीं सर।'' चपरासी अचकचा गया।
''चलो...मैं आ रहा हूं।''
चपरासी चला गया तो वह बाथरूम गया और वहां से बाथरूम के बगल से जाने वाली सीढ़ियां उतरने लगा। यह नीचे...किसी अफसर के पास जाने का छोटा रास्ता था...जो पतली सीढ़ियों से गुजरता था। श्रीवास्तव का चेम्बर सीढ़ियों से नीचे उतरते ही लाल रंग की बिछी कार्पेट वाली गैलरी में दाहिनी ओर था। चेम्बर के बाहर लाल बत्ती जल रही थी। अर्थात पहले से ही या तो कोई अंदर था या श्रीवास्तव किसी अतिमहत्वपूर्ण कार्य में व्यस्ता था जिससे किसी के भी अंदर न आने के लिए उसने बत्ती जला दी थी।
सुधांशु ने दरवाजा नॉक किया।
''कम इन।'' श्रीवास्तव की आवाज थी, जो हंसते हुए उसने कहा था। उस क्षण वह प्रीति की किसी बात पर हंस रहा था।
दरवाजा खोल अंदर धंसते ही सुधांशु परेशान हो उठा। सामने प्रीति बैठी थी।
''आओ सुधांशु....कैसे हो?'' श्रीवास्तव का स्वर उसे सुनाई तो दिया लेकिन प्रीति की उपस्थिति से वह इतना उलझन में था कि समझ नहीं पाया कि श्रीवास्तव ने कहा क्या था।
''बैठो...।'' सामने कुर्सी पर प्रीति के बगल में बैठने का इशारा करते हुए श्रीवास्तव बोला। सुधांशु हैरान था कि ऊपर रिकार्डरूम में बैठा आने के बाद से श्रीवास्तव ने उसके प्रति जो रुख अपना रखा था आज उसके विपरीत उतना ही मधुर हो गया था जितना वहां छोड़ने जाने से पूर्व था। कुछ गड़बड़ है।' उसने सोचा।
श्रीवास्तव ने पी.ए. को बज़र देकर तीन चाय भेजने का आदेश दिया और सुधांशु और प्रीति की ओर मुड़कर बोला, ''आप दोंनो यों बैठे हैं जैसे एक-दूसरे से अपरिचित हैं। खैरियत तो है?''
सुधांशु गंभीर रहा। कुछ बोला नहीं, प्रीति श्रीवास्तव के कथन पर केवल मुस्करा दी।
''आपके बैठने के लिए जल्दी ही कुछ व्यवस्था करवाता हूं मिस्टर दास। ऊपर तो खासी गर्मी होगी?''
''सर, कोई फर्क नहीं पड़ता।''
''ऐसा?'' श्रीवास्तव ने अपने प्रति इसे व्यंग्य समझा।
सुधांशु चुप रहा।
''मिस्टर दास, आप बेहद कर्मठ और जीवट वाले व्यक्ति हैं। रिकार्डरूम में खड़ा होना भी कठिन होता है गर्मी में, लेकिन आप वहां....।''
''सर, गांव का हूं। गांव वालों को हर स्थिति से जूझने की आदत होती है।''
''वेरी नाइस...आपके विचार बहुत उच्च हैं। विभाग को आप जैसे कर्मठ और ईमानदार अफसर पर गर्व है।''
''धन्यवाद सर।'' सुधांशु सोचने लगा, 'तभी न केवल मुझे वहां बैठाया गया है बल्कि काम के नाम पर कुछ भी नहीं दिया गया। यह ईमानदारी और कर्मठता की सजा है न कि विभागीय गर्व का पुरस्कार।'
''प्रीति,'' श्रीवास्तव प्रीति की ओर उन्मुख हुआ, ''हेडक्वार्टर में सब ठीक ....आप प्रसन्न हैं।''
''जी सर।''
''रामचन्द्रन जैसा महानिदेशक मिलना कठिन है प्रीति। बेहद सीधे....अपने में गुम....।'' श्रीवास्तव ने दोनों को सुनाते हुए कहा।
''जी सर, बहुत ही भले व्यक्ति हैं।'' प्रीति बोली।
''आपको एडमिन के अलावा और भी कुछ कार्य सौंपा गया है?''
''सर, कंप्यूटर सेक्शन....आजकल रामचंन्द्रन साहब इसी काम में लगे हुए हैं ....बहुत कठिनाई से यहां आ पायी हूं। वह पूरे विभाग का कंप्यूटरीकरण करना चाहते हैं। छोटे-से छोटे कार्यालय में काम कंप्यूटर में होता देखना चाहते हैं।''
''यह अच्छी बात है।''
''आजकल उसी के लिए मीटिंग्स का दौर चलता रहता है। मुझे और डी.पी. मीणा सर को इन्वाल्व कर रखा है।'' डी.पी. मीणा का नाम लेते समय प्रीति ने सुधांशु की ओर कनखियों से देखा। ''इसके लिए अब हमें टूर पर भी जाना होगा।'' क्षणभर के लिए रुकी प्रीति। उसने सुधांशु पर दृष्टि डाली और बात जारी रखते हुए बोली, ''इसके अलावा गुड़गांव में कार्यालय की बिल्डिंग बनाने के लिए भी गहमागहमी है....बहुत ही व्यस्तता है सर।''
''सो तो होगी ही....मुख्यालय जगह ही ऐसी है।''
सुधांशु चुप दोनों की बातें सुन रहा था। प्रीति ने मीणा का नाम लेते समय जब कनखियों से उसकी ओर देखा था तब भी वह निर्विकार बना रहा था।
''अब असली मुद्दे पर आना चाहिए। पी.डी. साहब कभी भी इंटरकॉम बजा सकते हैं।'' श्रीवास्तव बोला।
प्रीति ने पुन: कनखियों से सुधांशु की ओर देखा।
तभी चपरासी चाय ले आया। श्रीवास्तव चुप हो गया। चपरासी ने तीनों के सामने चाय रखी और लौट गया। श्रीवास्तव ने क्रमश: प्रीति और सुधांशु की ओर देखा और बोला, ''सुधांशु ...आप आजकल कहां रह रहे हैं?''
''सर, मैंने दफ्तर में अपना पता लिखा रखा है।''
''यह मेरे प्रश्न का उत्तर नहीं हुआ।'' श्रीवास्तव का स्वर उत्तेजित था, ''आप एक जिम्मेदार अफसर हैं। आपको वही कहना चाहिए जो सच हो।''
सुधांशु चुप रहा।
''मैनें आपसे कुछ पूछा है मिस्टर दास।''
सुधांशु को बार-बार उसे मिस्टर दास कहा जाना चुभ रहा था। उसे लग रहा था मानो श्रीवास्तव उस पर कोड़े बरसा रहा था।
''होटल में।''
''कहां?''
'कमाल है। यह सब पूछने का हक इस व्यक्ति को किसने दिया। यह कह देना चाहिए।' सुधांशु ने सोचा, 'मेरा जीवन है, जहां चाहूं रहूं।' लेकिन कहा नहीं।
''करोल बाग में।''
''लेकिन कार्यालय में आपने जो पता लिखवाया है वह लोधी एस्टेट के प्रगतिविहार हॉस्टल का है।''
''जी सर।''
''आप वहां क्यों नहीं रह रहे और नहीं रह रहे तो आपने यह सूचना कार्यालय को क्यों नहीं दी। आप जानते हैं कि ऐसा न करना यानी पता छुपाना या गलत पता देना कानूनन अपराध है। कार्यालय से कोई भी सूचना छुपाने पर कार्यालय को अनुशासनात्मक कार्यवाई का अधिकार है।''
सुधांशु चुप सोचता रहा, 'फिर कर्यालय ने कायवाई की क्यों नहीं .....करनी चाहिए ....ऊब गया हूं इस कार्यालय से...मुझे ट्रांसफर कर दो...।'
''क्या बात है प्रीति....सुधांशु आपसे रूठे हुए हैं?'' श्रीवास्तव मुस्कराया।
''सर, इन्हीं से पूछें....।''
सुधांशु क्रोध से उबलने लगा। 'कितना झूठ ...इसको कुछ नहीं मालूम ....सारा दोष मेरे सिर...। लेकिन इसे यह मुकदमा श्रीवास्तव की अदालत में ले आने के लिए किसने सुझाया! मुझे नीचा दिखाना चाहती है। स्वयं को निर्दोष सिध्द करना चाहती है। मैं इसके साथ एक क्षण के लिए भी नहीं रह सकता।'
''सुधांशु, अभी आप युवा हैं....युवावस्था में पति-पत्नी के बीच खट-पट होती रहती है, लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि आप पत्नी को बिना बताए कहीं बाहर रहें। यदि पत्नी ऐसा करे तब आप क्या सोचेंगे। आप भाग्यशाली हैं कि आपको प्रीति जैसी नेक पत्नी मिली है। इनकी प्रशंसा मैंने अपर महानिदेशक और महानिदेशक से भी सुनी है। इंटेलिजेण्ट और परिश्रमी...।''
''सर, निकम्मा तो मैं ही हूं।'' सुधांशु का चेहरा लाल था।
''यह आप क्या कह रहे हैं?'' श्रीवास्तव ने सुधांशु से यह सुनने की आशा नहीं की थी। वेैसे भी इतने वरिष्ठ के समक्ष कनिष्ठ अफसर दो टूक बोले और वह भी तब जब वह सीधे उसका मातहत हो....उस विभाग की कार्यशैली में असंभव था।
''आप भी उतने ही परिश्रमी और इंटेलीजेण्ट हैं मिस्टर दास। आप यह न समझें कि आपसे ए.एफ.पी.ओ. ग्रुप का कार्य लेकर रिकार्डरूम में बैठाकर आपके गुणों की अवमानना की गई है। कभी-कभी हमारे पी.डी. सर ऐसा करते हैं और वे ऐसा उसी के साथ करते हैं जिसे वह बेहद चाहते हैं। आप उनके बेटे की भांति हैं। मैं तो आपको अपने छोटे भाई की तरह मानता हूं। मेरा यही सुझाव है कि आपस में एक-दूसरे को समझो मिस्टर सुधांशु दास ...पति-पत्नी का रिश्ता बहुत नाजुक होता है...उसे संभालकर रखना होता है। यह तभी संभव है जब एक कहे और दूसरा सुनकर उसे हवा में उड़ा दे। हो सकता है, मुझे मालूम नहीं वास्तविकता क्या है आपकी नाराजगी की, लेकिन हो सकता है प्रीति ने किसी बात पर आपसे कुछ कह दिया हो, इसका अर्थ यह नहीं कि आप घर छोड़ दें। यदि छोड़ भी आए तो भी इतने दिनों में वह क्रोध शांत हो जाना चाहिए। आप आज घर जायें। होटल में रहकर जीवन नहीं काटा जा सकता।'' श्रीवास्तव के लंबे वक्तव्य को सुधांशु ने सुना, बोला कुछ नहीं।
''आप होटल जाकर अभी चेक आउट कर आयें....चपरासी को साथ ले जायें...वह आपका सामान आपके घर पहुंचा देगा।''
''चपरासी की आवश्यकता नहीं सर....मैं कर लूंगा।''
''वेरी गुड।'' श्रीवास्तव उठ खड़ा हुआ, ''आशा करता हूं कि सब कुछ ठीक होगा।''
श्रीवास्तव के खड़े होते ही प्रीति और सुधांशु भी उठ खड़े हुए।
''ओ.के. गुडलक प्रीति...सुघांशु।''
''थैंक्स सर।'' प्रीति बोली। उसके चेहरे पर मुस्कान थी। लेकिन सुधांशु चुप था। दोंनो बाहर निकले तो गैलरी में प्रीति बोली, ''शाम मैं जल्दी आ जाऊंगी ...आप होटल से चेक आउट कर आइये।''
सुधांशु के अंदर उथल-पुथल चल रही थी। उसने प्रीति की ओर देखा, जिसका अर्थ था, 'देखूंगा', लेकिन बोला कुछ नहीं।
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