सोमवार, 21 जून 2010

पुस्तक चर्चा



हिन्दी की चर्चिता पत्रिका ’पाखी’ के जून अंक में वरिष्ठ कथाकार बलराम अग्रवाल द्वारा मेरे नवीनतम उपन्यास ’गुलाम बादशाह’ पर लिखी समीक्षा प्रकाशित हुई . समीक्षा यथावत यहां प्रस्तुत है. इसे ’पाखी’ के वेबसाइट : www.pakhi.in पर भी पढ़ा जा सकता है.

ब्यूरोक्रेसी का विद्रूप चेहरा

बलराम अग्रवाल

पुस्तक: गुलाम बादशाह(उपन्यास) उपन्यासकार:रूपसिंह चंदेल
प्रकाशक:आकाश गंगा प्रकाशन, नई दिल्ली-110002 मूल्य: 300 रुपए पृष्ठ संख्या: 216

‘रमला बहू’, ‘पाथरटीला’, ‘नटसार’ और ‘शहर गवाह है’ सरीखे अतिचर्चित उपन्यासों के रचयिता रूपसिंह चंदेल का सातवाँ उपन्यास ‘गुलाम बादशाह’ एकदम नई कथा और भावभूमि के साथ उपस्थित है।

उपन्यास का प्रारम्भ यद्यपि एक प्रतीकात्मक कथा से होता है जिससे यह आभास तो मिल ही जाता है कि आगे की कहानी ‘कलुवा’ जैसे शक्ति एवं प्रभुतासंपन्न लोगों पर केन्द्रित होने जा रही है। वह है भी, लेकिन उपन्यास के ‘प्रभुतासंपन्न लोगों’ की सीमा में येन-केन-प्रकारेण बहुत बार घसीटे जा चुके ‘राजनीतिज्ञों’ का कहीं जिक्र तक नहीं है। यही इस उपन्यास की कथा की नवीनता भी है और विशेषता भी। ‘गुलाम बादशाह’ को भारतीय ब्यूरोक्रेसी की कार्य एवं विचारपद्धति के एक पक्ष-विशेष को आम पाठक के सम्मुख रखने वाला अनुपम और विशिष्ट उपन्यास कहा जा सकता है। इस उपन्यास का विवेचन ‘गुलाम’ यानी कार्यालय और परिवार दोनों की जिम्मेदारियों तले दबे क्लर्क और उससे निचले स्तर के सभी कर्मचारी तथा ‘बादशाह’ यानी ब्यूरोक्रेट्स और उनकी चिरौरी को ही अपना जीवन-दर्शन बना लेने वाले चमनलाल हाँडा व नागपाल जैसे उनके सहायक के रूप में भी किया जा सकता है और इस रूप में भी कि सरकारी योजनाओं व नीतियों से जनता को लाभान्वित करने की दृष्टि से सरकार द्वारा अपने नुमाइंदे के रूप में नियुक्त ब्यूरोक्रेट्स अपने-आप को किस प्रकार बादशाह और जनता को गुलाम बना बैठता है। नैरेटर के शब्दों में—‘अंग्रेज चले गए थे लेकिन उनकी बादशाहत को देसी अफसर भोग रहे थे। भले ही नेता-मंत्री अपने को बादशाह मानते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि वे ब्यूरोक्रेसी के सामने बौने बादशाह हैं। और कर्मचारी… अपने कर्मचारियों को ये बादशाह गुलामों से अधिक आँकने को तैयार नहीं।’(पृष्ठ 32)

भारतीय ब्यूरोक्रेट्स की कार्य एवं विचारपद्धति कितनी क्रूर, मानवीय-संवेदना से हीन पूरी तरह अमानवीय, निरंकुश तथा अनुशासनहीन है—इस यथार्थ को उपन्यासकार रूपसिंह चंदेल ने बड़ी शालीनता के साथ प्रस्तुत किया है। यह शालीनता भी, कि अतिशय दलन और दमन के विरुद्ध किसी भी पात्र से उन्होंने जनवादी-किस्म के नारे नहीं उगलवाए हैं, इस उपन्यास की विशेषता है, सुन्दरता है। थोपे हुए नारे पाठक के भीतर प्रतिरोध की कोई चिंगारी पैदा न करके उसकी तीव्रता का हनन ही अधिक करते हैं।

‘गुलाम बादशाह’ की कथा में यों तो पचास से ऊपर पात्रों का पदार्पण वृत्तांतानुरूप सहज रूप से होता है, लेकिन इसका मुख्य पात्र सुशांत है जो कथा कहने के लिए गढ़े गए भारत सरकार के एक काल्पनिक प्रर विभाग के मेरठ स्थित कार्यालय की ऑडिट शाखा में बतौर एलडीसी भर्ती हुआ है और विभागीय स्थापना कारणों से स्थानान्तरित होकर इन दिनों दिल्ली स्थित कार्यालय में कार्यरत है। केन्द्र सरकार के विभागों में ब्यूरोक्रेट्स की चेन को मोटे तौर पर बताने की दृष्टि से नैरेटर कहता है—‘…सुन्दरम उस विभाग का पाँचवाँ पाया था। पहला पाया मंत्री था, दूसरा सचिव, तीसरा मंत्रालय का वित्तीय सलाहकार, चौथा महानिदेशक और पाँचवाँ सुन्दरम।’ सुन्दरम यानी निदेशक।

देश के ब्यूरोक्रेट्स और उच्च पदस्थ उनके अधीनस्थ राजभक्ति का लबादा अपने चेहरे ही नहीं मनोमस्तिष्क पर लादे उठते-बैठते-घूमते हैं, सोते तो वे जैसे कभी हैं ही नहीं। उनकी इस वृत्ति के चलते सुशांत जैसे निम्नस्तरीय अधीनस्थों का पारिवारिक जीवन त्रास के अकथनीय दौर से गुजरता है। इस त्रास को सुशांत के मेरठ कार्यालय में कार्यरत संजना गुप्ता भी अनेक प्रकार से झेलती है। चंडीगढ़ कार्यालय में स्थानान्तरण पाने की उसकी आवश्यकता को मोहरा बनाकर यूनियन नेता प्यारेलाल शर्मा से लेकर संयुक्त निदेशक अनिल त्रेहन तक प्रभुताप्राप्त कोई पुरुष ऐसा नहीं है जो उसके शारीरिक व आर्थिक शोषण के लिए प्रयासरत न हो। त्रेहन के माध्यम से उपन्यासकार ने पुरुष ब्यूरोक्रेट्स के एक चरित्र-विशेष का खुलासा यों किया है—‘बोलता किसी से कुछ भी नहीं, लेकिन उसका उद्देश्य कर्मचारियों में भय उत्पन्न करना होता है और होता है महिला कर्मचारियों की टोह लेना।’(पृष्ठ 31) इनके चलते संजना जैसी कामकाजी महिलाओं की सामाजिक व पारिवारिक स्थिति इतनी दयनीय हो उठती है कि सहकर्मियों व मकान-मालकिन से लेकर स्वयं उसका पति तक उसके चरित्र पर संदेह करने लगता है। संजना के मुख से उसके दमन की कोशिशों के किस्से सुनकर क्रुद्ध सुशांत कह उठता है—‘इन सालों को सरे आम चौराहों पर खड़ा करके गोली मार देनी चाहिए। देश को खोखला कर रहे हैं ये ब्यूरोक्रेट्स। नेताओं और व्यापारियों के साथ इनकी साँठ-गाँठ ने देश को तबाही के गर्त में झोंक दिया है।’(पृष्ठ 60) इन गिद्धों के जालिम पंजों में न फँसने वाली संजना जैसी महिलाकर्मियों का क्या हश्र होता है? इच्छित एवं आवेदित चंडीगढ़ कार्यालय के स्थान पर उसे देहरादून स्थानान्तरित कर परेशान किया जाता है। इस स्थानान्तरण आदेश को निरस्त कर चंडीगढ़ देने के ‘उसके प्रार्थना-पत्रों को रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए (प्रशासन ने) उसे धमकाते हुए लिखा था कि यदि उसने देहरादून ज्वाइन नहीं किया तो उसके विरुद्ध सख्त प्रशासनिक कार्यवाई की जाएगी। दो वर्ष तक संघर्ष करने के बाद संजना हार गई थी। उसने त्यागपत्र दे दिया था। हारना ऐसे लोगों की नियति होती है।’(पृष्ठ 81)

उपन्यास में ब्यूरोक्रेसी के एक नहीं अनेक घिनौने चेहरे देखने को मिलते हैं। अपने सहायक चमनलाल हाँडा के माध्यम से दबाव डलवाकर अनिल त्रेहन कार्यालय के क्लास फोर कर्मचारी नन्दलाल की अठारह वर्षीया बेटी कुसुम से अपने घर में नौकरानी का काम कराने लगता है और एक दिन मौका पाकर उसका बलात्कार भी कर देता है। इस मामले का पटाक्षेप पुलिस प्रशासन के अधिका्रियों का त्रेहन के पक्ष में बिक जाने, संघर्षशील यूनियन पदाधिकारियों को स्थानान्तरण आदेश पकड़ा दिये जाने और तत्काल प्रभाव से कार्यमुक्त कर तुरन्त ही देहरादून, रुड़की, अम्बाला, दिल्ली आदि स्थानों से बुलाए गए कर्मचारियों को उनके स्थान पर ज्वाइन कराकर उनका मनोबल तोड़ने के प्रयास से होता है। यही नहीं, त्रेहन को पदोन्नत करके मेरठ से बंगलौर भेज दिया गया। मेरठ के एक कार्यालय को जम्मू कार्यालय के साथ जोड़ दिया गया और दूसरे को पूना कार्यालय के साथ। ‘बाबुओं की भाषा में प्रशासन ने मेरठ कार्यालयों का ओवरहॉल कर दिया था।’(पृष्ठ 128) तथा ‘अभिप्राय यह कि रासुल विभाग का केवल एक कार्यालय ही मेरठ में रहना था और उसे भी पूरी तरह यूनियन की गतिविधियों से मुक्त रहना था।’(पृष्ठ 129)

विभाग के एक सौ पचासवें स्थापना दिवस को मनाने की संस्तुति हेतु मंत्री को पत्र लिखा जाता है। मंत्री द्वारा तत्संबंधी कार्यक्रमों पर खर्च होने वाली रकम के बारे में पूछे जाने पर कहा जाता है कि—‘एक करोड़ रुपए की व्यवस्था सरकार द्वारा विभाग के बाह्य खर्चों के लिए स्वीकृत धन से कुछ खर्चों की कटौती करते हुए किया जाएगा। मंत्रालय पर धन का बोझ नहीं डाला जाएगा। महानिदेशक ने ऐसा लिखकर अपनी राष्ट्रभक्ति का परिचय दिया था…’(पृष्ठ 144) ब्यूरोक्रेसी का यह एक और घिनौना चेहरा है। उसे पता है कि किसी भी प्रकार का खतरा उठाए बिना धन को कैसे और कहाँ-कहाँ से खींचा जा सकता है। इस गंगा में बहुतों के पाप धुल जाते हैं। नाम भी मिलता है और दाम भी; लेकिन निम्न श्रेणी कर्मचारियों का यहाँ भी भरपूर दलन, दमन और तिरस्कार होता है। वे न सिर्फ तिरस्कृत रहते है बल्कि त्रस्त और अपमानित भी होते हैं। इस तिरस्कार, त्रास और अपमान को न झेल पाने के कारण प्रशासन अनुभाग-एक का सेक्शन ऑफीसर सतीशचन्द्र आत्महत्या कर लेता है। ‘उसकी जेब से पुलिस को सुसाइट नोट नहीं बल्कि उसका सस्पेंशन ऑर्डर मिला, जिसमें कुमार राणावत के हस्ताक्षर थे।’(पृष्ठ 161)

उपन्यास क्योंकि जीवन के खण्ड-विशेष की विस्तृत झाँकी प्रस्तुत करने वाली कथा-विधा है इसलिए ‘गुलाम बादशाह’ में नागरिक एवं पारिवारिक जीवन के भी अनेक प्रहसन हैं और वे सब अलग से चस्पाँ न होकर कथा के मूल प्रवाह का हिस्सा बनकर सामान्य रूप में ही सामने आते हैं। समापन कथा के तौर पर संयुक्त निदेशक दिलबाग सिंह के विलासी चरित्र, उसकी मृत्यु, मृत्योपरांत उसकी विधवा को अनुकंपा नियुक्ति दिलाने-देने की नौकरशाही चिन्ताएँ, भाग-दौड़, दलन और दमन की नीति के अन्तर्गत सुशांत जैसे कर्मठ कर्मचारी के गुवाहाटी स्थानान्तरण तथा मधुसूदन सहाय के त्यागपत्र को रखा गया है। उपन्यास का समापन एक वर्ष बाद ही सुशांत के गुवाहाटी से लेह स्थानान्तरण, सतीशचन्द्र की विधवा को अनुकंपा-नियुक्ति आवेदन को अग्रसारित न करके दिलबाग की विधवा को वरीयता देना, रिश्वतखोरी के मामले में अमेरिकी पुलिस द्वारा अनिल त्रेहन की गिरफ्तारी, दायें भाग में…मुँह से लेकर पैर तक उसके लकवाग्रस्त हो जाने और व्हील-चेयर में ही पेशाब निकल जाने जैसी घिनौनी शारीरिक स्थिति में पहुँच जाने जैसी कुछ सूचनाओं के साथ होता है जिनसे ब्यूरोक्रेसी के कपटपूर्ण और संवेदनहीन चरित्र का तो खुलासा होता ही है, यह भी स्थापित होता है कि—जो जस करहि सो तस फल चाखा।

समीक्षक:बलराम अग्रवाल,एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मोबाइल:9968094431

रविवार, 6 जून 2010

पुस्तक चर्चा


डॉ० सुधा ओम ढींगरा की सद्यः प्रकाशित काव्य पुस्तक

धूप से रूठी चॉंदनी से पांच कविताएं

हाल में कवि-कथाकार और पत्रकार डॉ० सुधा ओम ढींगरा की कविता पुस्तक ’धूप से रूठी चांदनी’ शिवना प्रकाशन, सीहोर (मध्य प्रदेश) से प्रकाशित हुई है. रचनाएं ही नहीं पुस्तक भी अपने रूपाकार में आकर्षक है. प्रस्तुत हैं पुस्तक से पांच कविताएं :

१)आँगन

भीतर का आँगन
जब गन्दला गया,
तो एक झाड़ू बनाया
जिसके तीलें हैं सोच के
बंधा है विवेक के धागों से.

बुहार दी उससे ....
अतृप्त इच्छायों की धूल,
कुंठाओं की मिट्टी,
वेदनाओं का कूड़ा,
जलन की कर्कट.

झाड़ दीं उससे...
विद्रूपताओं और
वर्जनाओं से सनी
मन की खिड़कियाँ,
निखर आया है अब
मेरा आँगन.

खिड़कियों से
झाँकती धूप और
सरकती चाँदनी
का अलौकिक सुख,
कभी भीतर कदम रखना.

२)नींद चली आती है.....

बाँट में,
अपने हिस्से का सब छोड़,
कोने में पड़ी
सूत से बुनी वह
मंजी अपने साथ ले आई,
जो पुरानी, फालतू समझ
फैंकने के इरादे से
वहाँ रखी थी.

बेरंग चारपाई को उठाते
बेवकूफ लगी थी मैं,
आँगन में पड़ी
बचपन और जवानी का
पालना थी वह.

नेत्रहीन मौसी ने
कितने प्यार से
सूत काता, अटेरा औ'
चौखटे को बुना था,
टोह- टोह कर रंगदार सूत
नमूनों में डाला था.

चौखटे को कस कर जब
चारपाई बनी
तो हम बच्चे सब से
पहले उस पर कूदे थे.

उसी चारपाई पर मौसी संग
सट कर सोते थे,
सोने से पहले कहानियाँ सुनते
और तारों भरे आकाश में,
मौसी के इशारे पर
सप्त ऋषि और आकाश गंगा ढूँढते थे.

और फिर अन्दर धंसी
मौसी की बंद आँखों में देखते--
मौसी को दिखता है----
तभी तो तारों की पहचान है.

हमारी मासूमियत पर वे हँस देतीं
और करवट बदल कर सो जातीं,
चन्दन की खुश्बू वाले उसके बदन
पर टाँगें रखते ही
हम नींद की आगोश में लुढ़क जाते.

चारपाई के फीके पड़े रंग
समय के धोबी पट्कों से
मौसी के चेहरे पर आईं
झुरियाँ सी लगते हैं.

जीवन की आपाधापी से
भाग जब भी उस
चारपाई पर लेटती हूँ,
तो मौसी का
बदन बन वह
मनुहार और दुलार देती है .

हाँ चन्दन के साथ अब
बारिश, धूप में पड़े रहने
और त्यागने के दर्द की गंध
भी आती है,
पर उस बदन पर टांगे
फैलाते ही नींद चली आती है.....

३)अच्छा लगता है ......

बचपन में,
गर्मियों की रातों में,
खुली छत पर
सफेद चादरों से
ढकी चारपाइयों पर
लेटकर किस्से- कहानियाँ सुनना
और तारों भरे आकाश में
सप्तऋषि, आकाशगंगा और
ध्रुव तारा ढूँढना
अच्छा लगता था......

चंद्रमा में छिपी आकृति
आकार लेती नज़र आती,
कभी उसकी माँ
सूत कातती लगती
तो कभी हमारी दादी दिखती.

मरणोपरांत लोग तारे हो जाते हैं,
बड़े- बूढ़ों की बात को सच मान,
तारों में अपने बजुर्गों को ढूँढना,
दादा, दादी और वो रही नानी,
ऐसा कह कर
उनको देखते रहना...
अच्छा लगता था......

विज्ञान,
बौद्धिक विकास
और भौतिक संवाद ने
बचपन की छोटी-छोटी
खुशियाँ छीन लीं,
शैशव का विश्वास
परिपक्वता का अविश्वास बन...
अच्छा नहीं लगता है....

हर इन्सान में
एक बच्चा बसता है,
अपनी होंद का एहसास दिला
कभी -कभी वह
बचपन में लौट जाने,
बचपन दोहराने को
मजबूर है करता ,
वो मासूमियत,
वो भोलापन,
ओढ़ लेने को जी चाहता है,
तारों भरे आकाश में
बिछुड़ गए अपनों को फिर से
ढूँढना अच्छा लगता है.....

मेरे शहर में तारे
कभी -कभी झलक दिखलाते हैं,
खुले आकाश में फैले तारों को
हम तरस -तरस जाते हैं,
जब कभी निकलते हैं तो
फीकी सी मुस्कान दे इठलाते हैं,
पराये-पराये से लगते हैं
फिर भी उनमें अपनों को
खोजना अच्छा लगता है.......

४) आवाज़ देता है कोई उस पार......

सुन सोहणी उसे,
उठा माटी का घड़ा,
तैर जाती है
चनाव के पानियों में,
मिलने अपने महिवाल को
खड़ा है जो नदी के उस पार.....

सस्सी भटकती है थलों में
सूनी काली रातों में,
छोड़ गया था पुन्नू
सोती हुई सस्सी को,
पुन्नू-पुन्नू है पुकारती
शायद सुन ले उसकी आवाज़
खड़ा है जो मरू के उस पार.....
फ़रहाद ने तोड़ा पहाड़
नदी दूध की निकालने,
शर्त प्यार की पूरी करने,
तड़प रहा है मिलने शीरीं से
पहुँच न पाया उस तक
खड़ी है जो पहाड़ों के उस पार......
साहिबा ने छोड़ा घर- बार
छोड़े भाई और परिवार,
भाग निकली मिर्ज़ा संग
गीत में हेक जब लगाई उसने
खड़ा है जो झाड़ियों के उस पार......
हीर पाजेब अपनी दबा
ओढ़नी से मुँह छुपा,
चुपके से मिलने निकल पड़ी
मधुर स्वर राँझे का जब उभरा
खड़ा है दूर जो घरों के उस पार.........

५)नियति

द्रौपदी सी वह
झूठ,
धोखा,
बेईमानी,
ईर्ष्या,
बेवफाई
से पाण्डवों द्वारा
प्रेम की बिसात पर
रोज़ दांव पर लगती है....

प्रणय में छली जाती है,
प्रीत रुपी दुर्योधन
वादों के दुष्शासन से
चीर हरण करवाता है ...

निवस्त्र पीड़िता को
कोई कृष्ण बचाने नहीं आता. ..

क्या औरत की नियति
हर युग में लुटना ही है....

*****



धूप से रूठी चॉंदनी
शिवना प्रकाशन
पी.सी.लैब, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट
बस स्टैंड, सीहोर-४६६००१ (म.प्र.), भारत
मूल्य : रु.३००/- , पृ. ११२