सोमवार, 27 अगस्त 2012

आलेख










मेरी अपनी बात
रूपसिंह चन्देल
        वरिष्ठतम कथाकार, चिन्तक-विचारक और सम्पादक राजेन्द्र यादव मानते हैं कि हिन्दी कविता मर रही है. कविता ही क्यों आज हिन्दी कहानी की स्थिति भी बहुत अच्छी नहीं है. कवि-कथाकार चेहरे पर उदासी लिए कहते सुने जाते हैं कि पाठक की रुचियां बदल गयी हैं. पाठक नहीं रहे. उनकी रचनाओं के पाठक क्यों नहीं रहे यह क्या वे नहीं जानते? जिन्हें हम विश्व के महान रचनाकार मानते हैं वे आज भी क्यों उतना ही पढ़े जाते हैं जितना वर्षों-वर्षों पहले  पढ़े जाते थे. वे सदैव पढ़े जाते रहेंगे. क्यों?
       वास्तविकता यह है कि रचनाकारों ने स्वयं को पाठकों से अपने को काट लिया है. पाठक क्या चाहता है या तो वे जानते नहीं या जानना नहीं चाहते.  चर्चा के फेर और फरेब में वे वह सब लिख रहे हैं जो पाठकों को स्वीकार नहीं.  ’कथादेश’ के अगस्त,२०१२ अंक में   शालिनी माथुर के आलेख ’व्याधि पर कविता या कविता की व्याधि’ (कथादेश – जून, २०१२) पर प्रकाशित  पाठकों की प्रतिक्रिया इस बात का प्रमाण है.  पाठकों से अधिक  क्या वे रचनाकार ईमानदार हो सकते हैं जो अपने-अपनों के बचाव में कलम भांजने लगते हैं! एक बार पुनः लियो तोलस्तोय का उदाहरण देना चाहता हूं. एक मित्र से संवाद के दौरान उन्होंने कहा, “मुझे आलोचकों की परवाह नहीं. मैं पाठकों के लिए लिखता हूं… रचनाकार को पाठक ही जिन्दा रखते हैं.” इस कथन में भाषा मेरी है लेकिन भाव लियो के ही हैं.
शालिनी माथुर का उपरोक्त आलेख मैंने ’रचना समय’ में २३ जून,२०१२ को प्रकाशित किया था (http://wwwrachanasamay.blogspot.in/2012/06/blog-post.html). इस पर पाठकों की प्रतिक्रियाएं  स्पष्ट हैं. इसी विषय को आधार बनाकर लिखा गया डॉ. दीप्ति गुप्ता का आलेख ’कविता को लगा कैंसर’ रचना समय में १० अगस्त,२०१२ को प्रकाशित हुआ (http://wwwrachanasamay.blogspot.in/2012/08/blog-post_10.html).  इस आलेख पर पाठकों ने खुलकर अत्यंत ईमानदारी से अपनी बात कही. लंदन के महेन्द्र दवेसर जी के पत्र  की मार्मिकता हृदयविदारक है. उसी क्रम में मैं डॉ. दीप्ति गुप्ता का एक और आलेख –’प्रतिवाद का प्रतिवाद’ प्रकाशित कर रहा हूं, जो प्रिंट मीडिया में पहले ही चर्चित हो चुका है. आशा है कि रचना समय के पाठक इस आलेख पर अपने सुस्पष्ट विचार लिखेंगे.
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प्रतिवाद का प्रतिवाद
~ डा. दीप्ति गुप्ता
शालिनी जी  के सुचिंतित आलेख के खिलाफ, अनामिका जी और अर्चना जी (‘कथादेश’: संपादन सहयोगी) आप दोनों के प्रतिवाद  पढ़े और यह जानकर खेद हुआ कि आपको यह बात कतई समझ  नहीं आ रही है कि ‘ब्रैस्ट कैन्सर’ तथा ‘स्तन’ जैसी निंदनीय कविताओं से साहित्य उपकृत नही अपितु अपकृत हो रहा है ! मैं फिर से दोहराना चाहूँगी कि अनामिका  और पवन करण  जी की कवितायेँ नारी के अस्तित्व और अस्मिता पे भारी चोट करती हुई हमारे सामने आयी  हैं ! कविता जैसी साहित्यक विधा हो या  नारी-विमर्श जैसा सार्वकालिक मुद्दा, वह किसी की बपौती नहीं  है कि जिसका जब जैसा मन आया, उसके साथ दुर्व्यवहार कर लिया और उसके नाम पर अपने मन का मैल निकाल दिया !
अनामिका जी, आगे बढ़ने से पहले, मैं जानना  चाहती हूँ  कि आपके द्वारा तीन पाश्चात्य लेखकों की पंक्तियों का हिन्दीकरण उद्धृत करने के  पीछे  औचित्य  और उद्देश्य  क्या है ??!!
   १)Memory. Imagination  and the  (M)Other  by Dr, Sue  Charlie  -an  irigarayan    reading  of   ‘Villette’ (लेखक का नाम ?)
    २)माफ़ कीजिएगा, दूसरे उद्धरण में आपने ‘विलेट’ को फ्रैंच  फेमिनिस्ट ‘इरिगेरी’  की कृति बना दिया है ! वस्तुत: ‘विलेट’ शेरेलैट ब्रौंट  का उपन्यास है ! आपने उनके  नाम का तो उल्लेख दोनों स्थानों में ही नहीं किया है ! मूल लेखक का नाम देने में कुछ परेशानी थी क्या ?
  ३) अमेरिकन  लेखक  टोनी मॉरिसन  का उपन्यास, ‘द बिलवेड’(The Beloved) जो Afro-American  slave  - Margret Garner के जीवन पर आधारित, कुछ अंतर कथाओं को तहत अन्य विषयों को समेटता हुआ ‘स्लेवरी’ से जुड़ा है ! यह वस्तुत: slavery के psychological  impacts   और माँ-बेटी के रिश्तों  की विचारशील गाथा है - इसे प्रस्तुत करने का क्या औचित्य था, यह मेरी तुच्छ बुद्धि की  समझ से परे है ! या के आप पाठकों  को शब्दों के जखीरे में  उलझा कर, उन्हें असली मुद्दे  से भटकाना चाहती थी ! जैसे कि वी.आई.पी.सिन्डरोम से अभिभूत  हुए लोग, मन ही मन ‘आदरयुक्त भय’ से, सामने  बोल रहे व्यक्ति के सामने ‘जी हाँ, जी हाँ’ करते नज़र आते हैं; वैसे ही आपने यहाँ ‘पाश्चात्य लेखक सिन्डरोम’ रच कर, अपनी बात को एक सशक्त जामा पहनने की कोशिश की है क्या ?! लेकिन जिन्होने थोडा बहुत भी पाश्चात्य साहित्य पढ़ा है, वे यहाँ इन अप्रासंगिक उल्लेखों से खीज ही महसूस करेगें !  अफसोस !                         
      आप जैसी  सुधी और नारी-विमर्श का परचम सम्हालने वाली साहित्यकार यदि संवेदनाहीन,विचारहीन ‘अरचनात्मक सृजन’ की पक्षधर होगीं तो साहित्य की सबसे सुकुमार विधा (कविता) क्यों न तलातल में जाएगी ? साहित्य की किसी भी विधा के माध्यम से अपने भावों और विचारों को, ‘मुक्त भाव’ से अभिव्यक्त करने का यह मतलब नहीं कि कोई भी इंसान - चाहे वह मर्द हो या औरत- अशिष्ट और असंस्कृत  हो जाए ! अनामिका जी और पवन करण जी  अपनी-अपनी कविताओं  के भाव, भाषा और अभिव्यक्ति पर ज़रा  तटस्थता से दृष्टिपात करें ! साहित्यिक और आम पाठक दोनों के दिलो-दिमाग में पहली बार(अभिधा), दूसरी बार(लक्षणा) तीसरी बार (व्यंजना) आप दोनों  की कविताओं  को पढने पर, एक ही अर्थ बारम्बार उतरता है, जो कविता की उन सामान्य विशेषताओं (विशिष्ट की तो बात ही भूल जाएँ)  संवेदनात्मकता, भावात्मकता, काव्यात्मकता और  कलात्मकता से  परे है, जिनके दायरे में पाठक कविता पाठ के समय सहज ही बंधता चला जाता है और कविता के  साथ तादात्म्य स्थापित कर लेता है ! आपकी  ‘ब्रैस्ट कैन्सर’ तथा  ‘स्तन’ कविताओं को पढकर पाठक और कविता के मध्य एक खाई बनती चली जाती है ! पाठक का भावनात्मक और मानसिक ज़ायका खराब कर, उसे  ऎसी कसैली अनुभूति देती हैं कि उसके दिलो-दिमाग पर  विकृती की तरंगे प्रहार करने लगती है ! अर्चना जी  और  अनामिका जी,  कविता का असली  और सही अर्थ वही होता है जो प्रथम पाठ में उभर कर आता है व दिल में  समा जाता है ! उसके बाद कविता के कितने भी पुनर्पाठ किए जाए, उस पहले अर्थ की ही गहरी और सघन परतें खुलती हैं ! अर्चना जी, आपने अपने लेख में  जो यह बात कही है कि कविता का अर्थ/भाव पहले अर्थ से, हट कर  भी समझा जा सकता है, तो यह मात्र रचना पर, सायास  अपने मन के भावों को आरोपित करने का खिलवाड है और कुछ नहीं ! विशेषकर जब कविता  से  बारम्बार, कुरूप और विकृत भाव  उभर कर आते हो  और उन पर अर्चना जी किसी तीसरे नेत्र से, बिना बात ही खूबसूरती के दर्शन करती  हुई, दूसरों को भी उसे दिखाने का निरर्थक प्रयास करती हो, तो, यह हरकत कुछ उसी तरह हैं जैसे  किसी खुशबू रहित फूल से ज़बरदस्ती  अनिर्वचनीय सुगंध को महसूस करने का निरर्थक प्रयास  करना ! ‘दिल के बहलाने को ग़ालिब ख्याल अच्छा है ....’!
   अर्चना जी की बात चलिए एक दफे मान भी ली जाए, तो इन कविताओं में  इक्का -दुक्का  श्लेष अलंकार भी तो नहीं है कि पाठक कंटेंट्स के एक से अधिक अर्थ लगा सके और दूसरा पाठ  कर सके !  भई, बड़ी ही दयनीय स्थिति है इन कविताओं की ! इन कविताओं की तो चाल भी और ताल भी इतनी बेढब और  अटपटी है कि काव्यप्रेमी पाठक संज्ञाशून्य सा महसूस करे ! अर्चना जी, किसी का बचाव करने का यह तात्पर्य  भी  नहीं कि आप सबको कविता पाठ करना सिखाने लगे ! जितने पाठकों ने ये कवितायेँ पढ़ी है, सभी ने इनके खिलाफ प्रतिक्रियाएं दी हैं ! जिनमें से कुछ ‘कथादेश’ में प्रमाण रूप में मौजूद है  ही और  उनके  अलावा सैकड़ों की संख्या में पत्रिका से बाहर घनीभूत होती जा रही है ! खेद और क्रोध के रूप में फूटी  ये सब प्रतिक्रियाएं  साहित्य के नियमित विचारशील और संवेदनशील साहित्यकारों एवं पाठकों की हैं ! वे दकियानूसी, रूढीवादी या कुन्द  बुद्धि पाठक नहीं हैं !  वे जीवन के किसी भी पक्ष को लेकर संकुचित और कुण्ठित सोच भी नहीं रखते यानी के उदार और विशद  दृष्टि वाले हैं लेकिन इसका मतलब  यह नहीं कि वे अशिष्टता और अभद्रता से लैस  रचनाओं को सर-आँखों पर लें  और साहित्य की गरिमा ध्वस्त करने वाले रचनाकारों की कुंठाओं और अनर्गल बातों को नज़रंदाज़ कर, उनकी कविताओं में जबरदस्ती सौंदर्य और संवेदनाएँ ढूंढ कर ‘वाह वाह’  करें  !
ब्रैस्ट कैन्सर’ और ‘स्तन’, इन दोनों ही कविताओं में न तो संवेदनाएँ है, न मर्मस्पर्शी  भाव हैं और न ही नारी-विमर्श है – आखिर ये हैं क्या ?
अनामिका बहना, आप शालिनी जी की भाषा को ‘मर्दवादी फटकार’ कह रही हैं – एकबारगी यह कहने से पहले आप अपनी कविता की भाषा और  भाव भी  तो देखिए ! जब आप मर्दवादी भाषा में, मर्दवादी भाव कविता में  उडेलेगी तो शालिनी जी भी मर्दवादी भाषा में आपसे  बात करेगी, इसमें आपको आपत्ति क्यों ? आपका यह कहना कि आपने ऎसी नारियाँ नहीं देखी  जो शालिनी जी  के अनुसार, अपने वक्षस्थल से  आँचल  गिरा कर अपने को एक्सपोज करती हैं ! कोई  बात नही - अपनी और  पवन करन जी की कविता को देख लीजिए, वह वक्षस्थल से आँचल  गिरा कर अपने  को एक्सपोज करने वाली नारी की तरह  ही है जिसे   देखकर, लोग खुद शर्म से नज़रे नीची कर ले ! नारी विमर्श या प्रगतिशीलता या ब्रैस्ट कैंसर के नाम पर  ऎसी भोंडी कवितायेँ  लिखना, नग्नता नही तो और क्या है ? लफ्फाजी में निष्णात इंसान, दूसरे व्यक्ति के वस्त्र उतारे बिना भी, उसे नग्न  कर देता है - कुछ ऐसा ही आपकी और पवन जी की कविताएँ कर रही हैं ! ब्रैस्ट कैंसर से पीड़ित - अपीड़ित, हर नारी को आपने  इन कविताओं में निर्वस्त्र कर डाला है ! ‘नारी अंग’ (स्तनों ) को  बालापन से बडेपन की अवस्था तक, अनेक रूपों में प्रस्तुत  कर दिया है !  क्या यह शोभनीय है ? श्लाघ्य है ?  क्या यह  काव्य-विधा, नारी और ब्रैस्ट कैंसर जैसी गंभीर बीमारी के साथ भद्दा मजाक नहीं है ? आप उसमे कैंसर  की बात कर ही नहीं रही, सिर्फ  उन्नत पहाड़ जैसे स्तनों की  बात  कर रही हैं ! आप ईमानदारी से यह बता दीजिए कि इसे पढकर रोग  से  जूझ रही  नारी के प्रति सहानुभूति, करुणा, दर्द के एहसास जैसा  एक भी भाव आपके मन में उभरा ? नारी सौंदर्य और मातृत्व के प्रतीक अंगों को  ‘खुदे  फुदे नन्हे पहाड़ों  को ‘‘ हेलो, कहो, कैसी रही ??’ इस तरह संबोधित करना, मानो उनसे हँसी ठिठोली हो रही हो जबकि कैंसर जैसा गंभीर रोग उन्हें जकडे हुए हो और औरत  की जान पे बनी हो; क्या  ऎसी कविता सराहना योग्य है ? इसी तरह, पवन करण भी नारी के वक्षस्थल को शहद का छत्ता  और दशहरी आमो की ऐसी जोडी बताते  हैं जिनके  बीच वे  जब तब अपना  सर धंसा लेते  हैं या फिर उन्हें कामुक की तरह आँखें  गड़ा कर देखते रहते हैं – ये  कैंसर रोग  को,  स्तन पर झेल रही महिला के लिए उनकी  सम्वेदनशील नज़र है....वाह  क्या नज़र है , क्या  संवेदनशीलता है !! 
       अनामिका जी,  आपने शालिनी जी द्वारा आपत्ति जताने के प्रतिवाद में लिखा है कि  कलपना और कोसना  हीनतर प्रयोग हैं !  तो फिर  आप अपनी कविता में इस हीनतर प्रयोग को क्यों अपनाए हुए हैं - ‘दस वर्ष की उम्र से उनके पीछे पड़े थे’ / जिनकी वजह से दूभर हुआ सड़क पे चलना ...यह कोसना  और कलपना  नहीं है तो और क्या हैं ? आगे, आपकी मैं इस बात सहमत हूँ कि भाषा का  सार्थक प्रयोग ‘उदबोधन’ है, लेकिन अनामिका बहन, वह ‘उदबोधन’ तक  ही सीमित रहे तो बात समझ आती है - पर  जब वह ‘उदबोधन’ के बजाय निकृष्ट कामुक  ‘उत्तेजन’ बन जाए  तो हीनतर ही नहीं, घातक  भी होता है - साहित्य के लिए, पाठक के लिए और खुद रचनाकार के लिए ! आप माने न माने, सच्चाई यही है ! आपकी और पवन करण जी  की कविता  इस तरह  कौंधती है कि पाठक मन को  ‘उदात्त’  (जो कि काव्य विधा के सर्वोत्तम गुणों मे से एक  है)अवस्था में ले जाने के बजाय अनुदात्त और असात्त्विक मनोभूमि में ले जा कर पटक देती है ! जहाँ  एक ओर पवन जी की कविता कुत्सित भावों को जगाती है, वहाँ दूसरी ओर आपकी कविता कुत्सित और वितृष्णा, दोनों भावों को उद् बुद्ध   करती है ! यह कैसा खुराफाती उद् बोधन है अनामिका जी ? आपने  ठीक लिखा कि ईसामसीह  ने यह कहा कि - ‘हे ईश्वर इन्हें माफ करना, ये नहीं जानते कि  ये क्या कर रहे हैं ’ - ये  बात आप पर और पवन करण जी पर सही  उतरती है कि आप दोनों नहीं जानते कि आप ब्रैस्ट कैंसर जैसे गंभीर रोग से ग्रसित नारी के स्तनों पे कामुकता, हँसी ठिठोली, अपरिपक्व संवाद, उनके आकार प्रकार का वर्णन करते हुए – क्या कर रहे हैं ! एक गंभीर और दर्दनाक मुद्दे की कैसी  छीछालेदर की हैं आप दोनों ने ! हे ईशु, हे ईश्वर इन दोनों कवियों को माफ करना, भविष्य के लिए सद् बुद्धि देना  कि ये कभी  भी  न तो कविता के साथ, न किसी के रोग के साथ और  किसी रोगी के साथ इस तरह का खिलवाड करें ! आप भले ही, विषयान्तर करते हुए  अपने आलेख  में,  येशु, परमहंस आदि विभूतियों के कितने भी अप्रासंगिक उदाहरण दे दें, गोल-गोल घुमाकर सबको दिग्भ्रांत करने की कोशिश करें - इससे कुछ होने वाला नहीं ! आपकी कविता का सच तो पहली पंक्ति से ही, परनाले की  तरह उछलता हुआ बेरतीब सा बहा चला आता  है !
         आगे आपने  आपने ‘गुड़’ चुभलाने की आदत छुडवाने का ठीक उदहारण दिया है, वह भी आप पर सही उतरता है यानि के किसी की भाषा ठीक करनी हो तो, पहले  आप अपनी भाषा सुधारे, अपना लेखन सुधारे ! दूसरों की प्रतिक्रिया तो ‘क्रिया’ की अनुगूंज  होती है ! जैसी पहल करने वाले की ‘क्रिया’ होगी,  वैसी ही उसके बाद, दूसरों की ‘प्रतिक्रया’ होगी !
 पवन जी की कविता  का  सन्देश साफ है जिसे अर्चना जी  उद्धृत  करती हुई उसके समर्थन में बोलती दिखती है ! पवन करण जी के अनुसार, कैंसर पीड़ित नारी का एक स्तन न रहने पर उसके  प्रेमी-पति के मध्य रिश्ता भी खत्म होने लगता है – कविता में यह भाव सन्देश देता है कि रिश्ते मात्र दैहिक होते हैं ? यदि शरीर का कोई अंग छिन्न- भिन्न हुआ या उसका  सौंदर्य खत्म हुआ, तो अपनों का प्रेम भाव भी  खत्म हो जाता है. वाह, पवन जी !  क्या सच्चे और प्रगाढ़ रिश्ते इतने थोथे होते हैं ? अपना  प्रियजन  चाहे  औरत हो या बच्चा – गंभीर रोग से ग्रस्त होने पर उस पर अधिक ध्यान जाता है, उस पर अधिक ख्याल और प्यार उमडता है, उसके किसी भी  अंग के चले जाने के बाद, उसका पहले से भी अधिक ध्यान रखा जाने लगता है - खासतौर से उसकी भावनाओं का !
      अनामिका जी,  आप जिस ‘सम्वेदनशील धैर्य’ की बात कर रही हैं, यदि आपने कविता लिखने से पहले, खुद ‘संवेदनशील धैर्य’ की बात  समझी होती तो, आप ऎसी कविता न लिखती,  जो पाठक  मन में  गांठे डालती ! गांठे कुंठा की हों या कैंसर की, जिसके पडती हैं, उसके दुष्प्रभावों को तो उन्हें झेलने वाला ही  जानता है !
      भर्त्सना योग्य  वस्तु की ही भर्त्सना की जाती है ! आज तक  कालिदास, भवभूति, प्रसाद, निराला, महादेवी, पन्त,कीट्स, यीट्स की कविताओं की  तो किसी ने भर्त्सना नहीं की क्योंकि उन्होंने पोर्न या वितृष्णा जगाने वाली कविताएँ नहीं लिखी कभी -  कवि वे भी थे ! आपकी और पवन जी की कवितायेँ  पढने वाले को भर्त्सना के लिए उकसाती है ! दोष पढने वालों का नहीं हैं - दोष है आपके लेखन का ! यह मत भूलिए कि अगर आपकी नज़र में  आपकी कविता पढने वाले  पाठक ‘हडबडिया’  हो सकते हैं; तो  पाठकों  की नज़र  में आप  भी ‘हडबडिया’ और  ‘गडबडिया’ कवयित्री हो सकती हैं ! आपने प्रतिवाद किया है कि लडकियों में  उग्रता  वाला ‘वाई’ फैक्टर  नहीं होता - ज़ाहिर है  आप में भी नहीं  होगा, तो फिर आपने ‘वाई’ फैक्टर वाली कविता कैसे लिख डाली ?श्रुतियों –अनुश्रुतियों से भरी रुद्रवीणा  सी - पढ़ी-लिखी, चेतन,परिष्कृत  अनामिका जी की कलम से  ऎसी
अपरिष्कृत  और बेसुरी कविता कैसे निकली ?
  इस  ‘प्रतिवादी  आलेख’  में  आपने अश्वेत ‘ग्रेस निकोलस’  की  कविता का जो एक निहायत ही फूहड़ और शर्मनाक हिन्दीकरण, ‘कथादेश’ जैसी प्रतिनिधि  साहित्यिक पत्रिका में  पेश किया हैं - यह  पत्रिका  और हिन्दी काव्य साहित्य पर एक बदनुमा दाग है ! एकबारगी अश्लील कवितायेँ  तो उत्तेजना  पैदा करती है किन्तु आपकी और पवन जी की कवितायेँ  तो वितृष्णा पैदा करती हैं !
सिल्विया,हिटलर रेडह्यूज का जो आपने उल्लेख किया है वह कितना  अप्रासंगिक और बेमेल है ! कहाँ पति के प्रेम से वंचित पत्नी की पीड़ा  और कहाँ शारीरिक व्याधि  - कैंसर से पीड़ित औरत की वेदना ! दोनों के मनोविज्ञान और मानसिक पीड़ा  में अंतर होता है ! आपने आगे ‘ठेका’ लेने की बात कही है; अनामिका जी,  ठेका किसी  भी चीज़ का हो – वो भी लेखन के क्षेत्र में – वाकई बुरा होता है ! आपने कविता की उदात्तता, गरिमा  को कैंसर लगाने का  जो ठेका ले रखा है – उसे छोड़ दें,  तो शालिनी जी  और  हम  कविता की गरिमा और सहजता की  रक्षा के लिए ‘नैतिकता’ का  ठेका  एकदम छोड़ देगे ! सुकून भरी निस्तब्धता में जब  कर्ण कटु अभद्र सी आहट  होती है, सारी कायनात चौकन्नी  हो कर, उस खुरदुरे स्वर को चुनौती देने को तत्पर हो जाती है ! आपकी और पवन जी की कविता,  सबका सुकून चैन छीनता, एक ऐसा ही खुरदुरा स्वर है, जिसने  हमें चौकन्ना  बना कर चुनौती देने को तत्पर कर दिया है !
ब्रैस्ट कैंसर और स्तन  जैसी फूहड़ कविताओं  के पक्ष में आवाज़  उठाती, अर्चना जी; यह  बताएँ  कि आज  नारी, पितृसत्ता  की  गढ़ंतो  से जकडी  कहाँ बैठी है ? पितृसत्ता से मुक्त हुई, वह अपने  निर्णय, मानसिक और  भावनात्मक स्तर पर  खुद ले रही है !  बल्कि अब तो पति और पिता उसकी सलाह लेने लगे हैं ! वह उन्हें मशवरे देने लगी है ! पुरुष  भी नारी की क्षमता  और योग्यता के प्रति आस्थावान  हो गया है !  लेकिन  आज  नारियों की एक  जमात, मुक्त न होकर - ‘उन्मुक्त’  हुई, ‘स्वछन्द  उडती’ हुई,  रुग्ण  मानसिकता को लिए,  इंसानियत रहित व्यवहार करने पे तुली है ! निर्लज्ज होकर  अभद्र भाषा बोलती है, लिखती हैं और  अपरिष्कृत साहित्य  गढती है !
       अनामिका जी, पहले आपकी उन्मुक्त कविता  और उसके बाद प्रतिवाद स्वरूप, तीव्र गति से स्फुरित होता  आलेख – (बकौल आपके: ब्रैस्ट कैंसर को झेलते स्तनों  वाली) नारी की  मानसिक बेड़ियों की नहीं - अपितु उन्मुक्त, स्वच्छंद नारी के  बडबोलेपन  की  कहानी कह रहा है ! याद रखिए, कुतर्कों के सहारे, गलत बात को सही  सिद्ध नहीं किया जा सकता ! इसलिए हमारा नेक सुझाव  मानिए  और अपनी अतिवादी, मर्दवादी लेखनी को सम्हालिए तथा साहित्य को विकृत मत बनाइए ! प्रगति की बातें कीजिए किन्तु प्रगति के नाम पर  अझेल लेखन  मत कीजिए ! मन की तराजू में -  अपनी और पाठकों की -  दोनों की  बातों को तौल  लीजिए  और ईमानदारी से परखिए  कि कौन कितने पानी में है ! हाँ, चलते-चलते  अर्चना वर्मा जी से एक बात कहना चाहूँगी कि यदि आपको  लगता है विरोधी लेखकों का एक कार्टेल अभद्र और फूहड़ रचनाओं के विरुद्ध उठ खडा हुआ है, तो आपने उन्हें ‘कर्टेल’ (Curtail)  यानी उनकी काट-छांट  करने में कोई कसर छोडी  है क्या ! क्योंकि उक्त कविताओं के विपक्ष में आपके पास पहुंचे  सशक्त आलेखों को या तो आपने उड़ा  दिया, या  इक्का दुक्का को कतर-ब्यौत कर के, एक - आधे पेज पर छाप कर पेश  कर दिया ! यह कहाँ का न्याय है ?
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डॉ. दीप्ति गुप्ता
शिक्षा: आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी) एम.ए. (संस्कृत), पी.एच-डी (हिन्दी)
रुहेलखंड विश्वविद्यालय,बरेली, हिन्दी विभाग  में अध्यापन (1978 – 1996)
हिन्दी विभागजामिया मिल्लिया इस्लामियानई दिल्ली में अध्यापन  (१९९६ -१९९८)

हिन्दी विभागपुणे विश्वविद्यालय में अध्यापन (1999-2001)
विश्वविद्यालयी नौकरी के दौरानभारत सरकार द्वारा१९८९ में  मानव संसाधन विकास मंत्रालय’, नई दिल्ली में  शिक्षा सलाहकार पद पर तीन वर्ष के  डेप्युटेशन पर नियुक्ति (1989- 1992)
सम्मान : Fannstory.com – American   Literary  site   पर English Poems  ‘’All Time Best’  ’से  सम्मानित.
प्रकाशित कृतियाँ :
1. महाकाल से मानस का हंस  सामाजिक मूल्यों और आदर्शों की एक यात्रा, (शोधपरक - 2000)
2. महाकाल से मानस का हंस  तत्कालीन इतिहास और परिस्थितियों  के परिप्रेक्ष्य में,     (शोधपरक -2001)
3. महाकाल से मानस का हंस  जीवन दर्शन, (शोधपरक 200)
4. अन्तर्यात्रा काव्य संग्रह - 2005),
5. Ocean In The Eyes ( Collection of Poems - 2005)
6. शेष प्रसंग (कहानी संग्रह -2007),
7.  समाज और सँस्कृति के चितेरे  अमृतलाल नागर, (शोधपरक - 2007
8. सरहद से घर तक   (कहानी संग्रह,   2011),
9.  लेखक के आईने में लेखक  संस्मरण संग्रह शीघ्र प्रकाश्य
अनुवाद : राजभाषा विभागहिन्दी संस्थानशिक्षा निदेशालयशिक्षा मंत्रालयनई दिल्लीMcGrow Hill Publications, New Delhi,  ICSSR, New Delhi,  अनुवाद संस्थाननई दिल्लीCASP  Pune, MIT Pune,    Multiversity  Software  Company   Pune,    Knowledge   Corporation  Pune,   Unicef,  Airlines, Schlumberger   (Oil based) Company, Pune   के लिए अंग्रज़ी-हिन्दी अनुवाद  कार्य !

सम्प्रति :  पूर्णतया रचनात्मक लेखन को समर्पित  और पूना में स्थायी  निवास !
मोबाइल : 098906 33582
ई मेल पता: drdeepti25@yahoo.co.in

शुक्रवार, 10 अगस्त 2012

आलेख


 कविता को लगा कैंसर

डा.दीप्ति गुप्ता

एक लंबे समय से मैं साहित्य की वह विधा, जिसे साहित्य  का प्राण कहा जाता है; पढती आई हूँ और विश्वविद्यालय में पढाती  भी आई हूँ ! जी हाँ, मैं ‘कविता’  की ही बात कर रही हूँ ! कम से कम शब्दों  में यदि इसे  व्याख्यायित करें तो – ‘ह्रदय के कोमलतम  भावों की सौन्दर्यपरक  अभिव्यक्ति कविता कहलाती है’ - कोमलतम भाव यानी सौंदर्य, प्रेम, सुख-दुःख संबंधी वे  शाश्वत भाव  जो जीवन की हर अनुभूति में  समाए होते हैं ! साहित्य के प्रणेताओं द्वारा कविता  के सदियों से प्रतिष्ठित इस कालजयी  रूप को दिलो-दिमाग में संजो कर, आज  कविता  के  नाम पर, जब हम अश्लील, फूहड़  और बेतुक बंदी  को  झेलते हैं  तो दिमाग में  एक ऐसा बवंडर उठ खडा होता है जिसे रोकने के लिए स्वयं से जंग  लड़नी पडती है !  आज कुछ खास कवि, कविताएं लिख रहे है या  इस विधा की आड़ में अपने रुग्ण भावों का जखीरा पेश कर रहे हैं, समझ  नहीं  आता ! ?

कविता – छंद-बद्ध और छंद-मुक्त – दोनों तरह  की हो सकती है किन्तु  भावों और संवेदनाओं की प्रधानता दोनों तरह  की कविताओं की पहली शर्त है ! यदि छंद  की लयात्मकता कविता में नहीं है तो निश्चित रूप से भावों की लयात्मकता तो मिलेगी ही ! महाकवि निराला की तमाम कवितायेँ  छंद  से अधिक भावात्मक लयबद्धता  का सुन्दर उदाहरण हैं ! लेकिन इस सबसे से भी एक महत्वपूर्ण  बात जो कविता  को कविता  बनाती है, वह है – उसमें तैरते भावों का पाठक के साथ ऐसा  अपनत्वपूर्ण  संवाद - जो  पाठक के उदात्त भावों  को स्पर्श कर, उन्हें स्पंदित करे ! उस उदात्त मनस्थिति में कविता, पाठक के ह्रदय को अपनी गिरफ्त में  इस तरह ले लेती है कि कुछ देर बाद सामान्य स्थिति में आने पर भी, उसकी  छाप  अंतर्मन पे लंबे समय के लिए अंकित हो जाती है ! सच्ची  और अच्छी कविता का यह एक सहज  गुण है !

लेकिन तमाम  सहजाताओं से भरी, निर्मल निश्छल कविता आज, पवनकरण  और अनामिका  जैसे  रचनाकारों  के कारण  इतनी असहज  और विकृत हो गई है कि रुग्ण और विकलांग नज़र आती है ! इन दोनों  कवियों की ‘ब्रेस्ट  कैंसर’  जैसे गंभीर  और संवेदनशील विषय पर इतनी अश्लील और उथली कवितायेँ  सामने आई कि  उन्हें पढते हुए भी शर्म आती है ! उनकी आलोचना में कलम चलाने में भी दिल पे जोर पडता है ! किन्तु  साहित्य सेवी  और साहित्य प्रेमी  होने के नाते, कविता जैसी सी सुकोमल और संवेदनशील विधा की  रक्षा करना  अपना फ़र्ज़ बनता है तो कितना भी दिल पे जोर पड़े, उसके रूप को नष्ट-भ्रष्ट  करने वालों की कलम  पे रोक तो लगानी ही  पड़ेगी तदहेतु आलोचना अपेक्षित है ! आज ज़माना कितना बदल गया है कि गलत बात कहने वाले सीना तान कर  अभद्र बाते कहते नहीं हिचकते और  सही बात के पक्षधर, दूसरों की गलती पे शर्म से गड़े हुए, लंबे समय तक संज्ञा शून्य से,  उसके बारे  सोचते  बैठे रह कर, तब मन ही  मन उन अभद्र बातो  के उल्लेख के प्रति  संकोच  से भरे हुए, गलत का विरोध  कर पाते हैं !

 एक कविता संग्रह में पवनकरण जी  की  कविता ‘स्तन’ और ‘ फरवरी २०१२ के ‘पाखी’  के स्त्रीलेखन  विशेषांक में अनामिका जी की ब्रेस्ट कैंसर’ पर कविता पढ़ी  और पढ़ कर मेरे दिलो-दिमाग  का  ज़ायका  बिगड गया ! क्योंकि उनमें कैसर पीड़ित महिला के प्रति न करुणा, न सहानुभूति, या उसकी पीड़ा का उल्लेख  या कैंसर जैसे भयंकर रोग से मुक्ति दिलाने के लिए दुआ और प्रार्थना जैसा  कोई कोमल भाव....अगर  कुछ था तो बस  अश्लीलता, कामुकता का अजस्र  बहाव  तथा थोथी  और छिछली बातों का भंडार !

ब्रेस्ट कैंसर  हो या किसी  अन्य अंग का कैसर,  उससे पीड़ित व्यक्ति जीवन-मरण की  जिस उहापोह , पल-पल जिस भावनात्मक दारुण पीड़ा  तथा एक निर्मम शून्य  और सन्नाटे से गुज़रता है, उसे  बड़ी शिद्दत के साथ कविता में  इस तरह उतारा जा सकता है  कि वह पाठक  की सम्वेदनाओं को स्पर्श  करता  हुआ, उसे भोगने वाले  की पीड़ा का एहसास कराए ! लेकिन  इन दोनों कवियों  की  कवितायेँ जिस बेदर्दी से पाठक की और ब्रेस्ट कैंसर  पीडित की  आशाओं पे पानी फेरती हुई, कुत्सित भावों का तमाशा पेश करती हैं, उसे पढकर वितृष्णा होती है ! ब्रेस्ट कैसर  एक ऐसा शब्द है, ऐसा विषय है, ऐसा रोग है जिससे पीड़ित इंसान के बारे में सुनकर मन में संवेदना जागती है. अधिकतर  लोग संवेदना को  जानते तो हैं, पर ‘समझते’ नही ! संवेदना  यानी  ‘दूसरे की वेदना  को समान  रूप से अनुभूत करना’  और जब वह कविता में  उतरे तो – उसे पढ़ कर पाठक संवेदना  के माध्यम से, मानसिक  और भावनात्मक रूप से – कैसर  ग्रस्त इंसान की वेदना से तादाम्य स्थापित कर  सके ! लेकिन खेद है कि पवनकरण  और अनामिका जी , जैसे संवेदनशील  कवियों ने इस विषय  पर, बड़े ही स्थूल स्तर पे कवितायेँ लिखी ! वे कवितायेँ इतनी विरूप और कुरूप  है कि  पाठक  को संज्ञा  शून्य  सा कर देती है ! उन्हें पढ़ कर मैंने तो अपने को बीमार  सा  महसूस किया ! उनमें उदारता से उडेले गए अभद्र विचारों और अभिव्यक्ति के बोझ तले  मेरा  जैसे  सांस लेना मुहाल हो गया ! ये कवितायेँ हैं या  कि औघड़ता का नग्न तांडव ?

हिन्दी साहित्य का इतिहास उठाकर देखें तो कविता  क्रमश: छायावाद , हालावाद, प्रगतिवाद, प्रयोगवाद, प्रतीकवाद, अभिव्यंजनावाद (इटली के दार्शनिक क्रोशे की देन) से होती हुई  ‘नई कविता ’ के रूप में ढली  और  तदनंतर  ‘अकविता’ बनती  गई, जिसमे नए भावों, नए तथ्यों, नए विषयों  को ‘यथार्थ’  की भूमि  पे प्रतिष्ठित किया गया  ! यथार्थ चिंतन ने आधुनिक काल के कवियों को  नवीन विषयों की परिकल्पना  की विशेष प्रेरणा दी ! कवियों ने आस पास की परिस्थितियों  से प्रेरित  होकर  व्यक्ति सत्यों को  ‘इस ‘नई कविता  और  ‘अकविता’  में प्रस्तुत किया ! इसका  परिणाम 

यह  हुआ कि  उनका  सोच, चिंतन, उनकी अभिव्यक्ति, चित्र सभी यथार्थ से अनुस्यूत हो गए ! तदनंतर  यथार्थ का  विकृतिकरण  होने लगा और  यथार्थवाद  का यह दर्पण अतियाथार्थाता  से ही किरच-किरच हो गया ! कविता अपशब्दों की सीमा तक पहुँच गई ! अज्ञेय  जी ने  जिन  आदर्शों  की प्रतिष्ठा की थी, ‘नई कविता’ और ‘अकविता’ उनको छिन्न-भिन्न कर उग्रता से फूट निकली ! आज २१ वी  सदी में  वही उग्रता और अपशब्द पवन करण और अनामिका जी की कविताओं में  और भी भयंकर रूप से अश्लील और अभद्र होकर मुखर हुए हैं  और ‘ब्रेस्ट कैंसर’ पर कविता के रूप में हमारे सामने आए ! ये तो थोड़े से ही उदाहरण हैं !
  
  कविता में शास्त्रीय दृष्टि से रस  हो न हो, लय हो ना हो, लेकिन  रस  का  मूल उत्स ‘बिम्ब’  ज़रूर होना चाहिए ! अनुभूति जितनी  जीवंत, तीव्र  और सजीव  होगी, बिम्ब उतना ही स्वच्छ और प्रभावशाली होगा !  कहने का तात्पर्य यह है कि यदि  कविता में छंद नही हैं; भावनात्मक लय भी नहीं  है, तो कम से कम बिम्ब तो हो !  लेकिन पवनकरण और अनामिका जो परिपक्व कवि  हैं, उनकी कविताओं में बिम्ब तक नहीं है ! क्यों ? जब अनुभूति की तीव्रता, प्राणवत्ता ही  इन कविताओं में नहीं  है,  तो बिम्ब कहाँ से उभरेगा ?  इन दोनों ही कवियों  की इस समानता  की दाद  देनी पड़ेगी कि  दोनों में किसी को भी कैंसर रोग  से पीड़ित  इंसान के मानसिक, शारीरिक और भावनात्मक कष्ट व पीड़ा से  कोई सरोकार नहीं अपितु  उरोजों का कामुक, अश्लील चित्रण करना, उनसे ओछा वार्तालाप  करना  ही,  उनका  ध्येय  प्रतीत  होता है ! ब्रेस्ट कैंसर के बहाने कविता में शुरू से अंत तक  ब्रेस्ट यानि स्तन  पर ही उनकी दृष्टि करुणा या चिंतन के तहत नहीं अपितु वासना और विकृति के तहत गडी नज़र आती है ! मुझे कुछ कहने की ज़रूरत नहीं, उनके तो शब्द बोल रहे हैं,  उनकी अभिव्यक्ति  तरह तरह के फूहड उपमानों के साथ उरोजों  को प्रस्तुत कर रही है जिससे उनकी कविताएं,  एक पोर्न  चित्रावली  आँखों के सामने चलाने लगती है ! जब बोल्ड मूवीज बनती  हैं तो कम से कम सेंसर बोर्ड उन्हें  एडल्ट मूवीज की श्रेणी में रख कर ‘ए’ सर्टिफिकेट तो देता है ! परन्तु  यहाँ तो इन कविताओं के लिए न तो कोई सेंसर बोर्ड बना है और न किसी तरह का ‘ए’ सर्टिफिकेट है ! सिनेमा  जैसी विधा में तो खुली अश्लीलता एकबारगी ‘ए’ सर्टिफिकेट के तले चल भी जाती है जबकि आलोचना उसकी भी खूब होती यहाँ तक कि  सेंसर बोर्ड की  मति पे भी सवाल उठाए जाते है,  लेकिन कविता  जैसी  सुकोमल, भावप्रधान  उदात्त  विधा में अश्लीलता न  तो अनुमित  होती  है और  न स्वीकार्य !  फिर भी कुछ  जांबाज़ कवि कविता का चीर हरण करते रहते है  और वरिष्ठ  कवि वर्ग सहनशील बने देखते रहते है ! अच्छाई  राम  की  तरह  रावण का यानी बुराई का सामना करने  को तैनात क्यों  नहीं हो जाती ?  क्या बात आड़े आती है – मुझे तो यह बात आज तक समझ नहीं आई ?  एक आदमी सामने खडा भद्दी गलियां दे रहा है, आप  उसे   उसके ही जोड़ की गालियाँ मत दीजिए, परन्तु साहस से उसका  मुँह  कम से कम इस दबंगई से  तो बंद कीजिए कि गाली देने की बात तो  बहुत दूर, मुँह खोलना  भी भूल जाए !

अब  दोनों कविताओं की  स्कैनिंग कर,  उन पर अलग अलग थोड़ा  विस्तार से  सोच-विचार  करना  होगा  ! पवन करण नारी के वक्षस्थल को शहद का छत्ता  और दशहरी आमो की ऐसी जोडी बताते  हैं जिनके  बीच वे  जब तब अपना  सर धंसा लेते  हैं या फिर उन्हें कामुक की तरह आँखें  गड़ा कर देखते रहते हैं – ये  कैसर रोग  को,  स्तन पर झेल रही महिला के लिए उनकी  सम्वेदनशील नज़र है....वाह  क्या नज़र है , क्या  संवेदनशीलता है !!  उन्हें कैसर रोग  से ग्रस्त महिला के दुःख और अवसाद से कुछ लेना-देना नहीं – वे तो उरोजों के  आकार और आकृति को देख रहे हैं - उन की उपमा  शहद के  छत्ते और आम से  दे रहे हैं ! ‘रोगी स्तनों’  की इस तरह की उपमाएं  हमने तो पहली बार पढ़ी ! फिर  उनसे खेलने की बात करते हैं  ! इससे अमानवीय  और निकृष्ट बात और क्या हो सकती है ?  यदि  वे अपने बचाव में अब यह  दलील देने लगे कि वे श्रृंगार  काल के कवियों  की  तरह श्रृंगार रस  से ओत प्रोत कविता लिख रहे हैं, तो मैं  उन्हे  बताना चाहूगी कि  श्रृंगार  काल के बिहारी, केशव, आदि कवियों ने, संस्कृत के कालिदास ने  श्रृंगार रस का  बड़ा ही शालीन और भद्र चित्रण किया है - पवन जी  की तरह  वितृष्णा पैदा करने वाला नहीं ! उसे पढकर सौन्दर्यपरक श्रृंगार  की अनुभूति होती है ना कि पोर्न साहित्य की ! सबसे अधिक  ध्यान  देने योग्य बात यहाँ ये है कि श्रृंगार  काल के कवियों  ने उन कमनीय नायिकाओं का वर्णन किया जो कैंसेर जैसे जान लेवा रोग से ग्रस्त नहीं थी और जीवन की जंग नहीं लड़ रही थीं ! वरना वे संवेदनशील कवि, ऎसी पीड़ित नारी का,  जो ऐसे रोग के कारण भावनात्मक और मानसिक अवसाद व हताशा  से गुजर रही होती है,  उसका कभी श्रृंगारपरक वर्णन  न करते – कामुकता भरी   अभिव्यक्ति  तो बहुत दूर  की बात है ! उसकी  वेदना, पीड़ा  पर  ही उनकी दृष्टी केंदित होती !  यहाँ हमारे परम आघुनिक बिंदास कवि  ब्रेस्ट कैंसर से पीड़ित  नारी के रोग की व्यथा-कथा कहने के बजाय,  उसे खिलौना कह कर , नारी का मखौल उड़ा रहे हैं !  उसके प्रति सहानुभूति, करुणा या सम्वेदना  से  उन्हें कोई लेना देना नहीं !

आज नारी विमर्श के समर्थक  रचनाकार यदि  नारी पर, इस तरह की अश्लील  रचनाएँ  समाज और साहित्य को भेंट चढाने लगेगें  तो शीघ्र ही  समाज और साहित्य  में भी कैंसर के जाले झूलते नज़र आयेगें !  ‘साहित्य’ सदियों से  - समाज और मानव-जाति  को स्वस्थ दिशा, स्वच्छ  दृष्टि देता आया है – उनका ‘हित’ करता आया  है, तभी  ‘साहित्य’ नाम से  जाना गया ! ऐसा नहीं कि साहित्य ने जीवन में घट रहे यथार्थ  को नकारा, साहित्य ने उसका भी चित्रण किया, लेकिन जीवन में वरेण्य क्या है, समाज को होना कैसा चाहिर, वह आदर्श  प्रस्तुत  करके सदैव सद् मार्ग  का सन्देश पाठकों को दिया, सही सोच दी,  दिशा  दी  !  लेकिन आज साहित्य के कुछ सर्जक समाज को सही दिशा देने के बजाए, सही दिशा से भटका रहे हैं !  सत्यम, शिवम, सुन्दरम देने के बजाए, असत्यम, अशिवम और असुन्दरम  दे रहे हैं ! तभी तो पवन करण और अनामिका,

चिंता उपजाने वाले, हँसी-खुशी छीन लेने वाले, शरीर को क्षत-विक्षत कर देने वाले जानलेवा  रोग – ‘कैंसर’ से  ग्रस्त  नारी  पर, एक बेढब  कविता, नारी- विमर्श का मन्त्र गुनगुनाते हुए, शान के साथ  परोस रहे हैं ! आकाश की ओर सर उठा कर, जैसे कोई विजय गीत गा रहे हो !  ऎसी कविता लिखने का क्या औचित्य है ?  वे इस बात का ज़रा  खुलासा  करें  ! उनका  संवेदनशील कवि-मनस कहाँ खो  गया है जो  एक बार भी उन्हें उस नारी की पीड़ा , उसकी मानसिक यंत्रणा  और भावनात्मक खालीपन की याद  नहीं दिलाता, जो शरीर के किसी भी अंग के अलग  कर दिए जाने पर उपजता है और दिल में घर करके बैठ जात्ता है ! दूसरे  की  जान पे बनी है और इन  दोनों रचनाकारों को हँसी मजाक सूझ रहा है तभी पवन करण के लिए उरोज एक खिलौना हैं खुशी का  साधन है  और अनामिका  उनके शरीर से विलग हो जाने के बाद – उन्हें मानो पछाड़ देकर, खुश होती हुई, उन पे व्यंग कस रही है – ‘कहो कैसी रही ...?’

एक हिस्से  को गँवा देने के बाद  कैंसर रोग पीड़ित नारी के जीवन में  हमेशा के लिए जो ‘कमी’ आ जाती है – पवन जी उस कष्ट का कोई उल्लेख न करके, अपने उस नारी के साथ  रिश्ते में आई ‘कमी’  का  रोना रो  रहे हैं ! उनका  उस नारी के  साथ रिश्ता कितना  उथला  था कि एक  अंग  का उच्छेद   होते ही – रिश्ता भी उच्छिन्न हो गया !  बहुत खूब !

पवन करण जी  की ‘स्तन’ कविता , सीधी सीधी एक पोर्न कविता है जिसका भावों, संवेदना और (सहा) अनुभूति आदि  से दूर-दूर तक कोई वास्ता नहीं !  अचरज मिश्रित बात यह है कि पवन करण जी की यह  कविता  ‘ब्रेस्ट कैंसर’ को झेलने वाली ‘संगीता रंजन’ को समर्पित  है ! पहले  भयंकर  ‘ब्रेस्ट कैंसर’ को झेलना, फिर इस भयंकर कविता को झेलना – कैसा लगा  होगा उनको ? उनकी भावनात्मक और मानसिक वेदना का तो कविता में कहीं  छींटा भी  नहीं  महसूस हुआ उलटे एक  खिलंदडी  के  से भाव से यह कविता  लिख कर उन्हें समर्पित  कर दी गई ! उनकी  आतंरिक  पीड़ा और वेदना  को महसूसते हुए यदि इस  कविता  को लिखते  तो, इसी कविता  की बात ही कुछ और होती ! पवन करण जी ने अपनी स्थूल सोच कविता में इस  बेदर्दी  से  थोपी है कि उस में चित्रित  नारी को अपनी तरह स्थूल  दृष्टि वाला बना दिया है ! तभी तो वह  पुरुषवादी  नज़र से अपने अंगों देख कर, परवर्ट बनी  हर्षित होती  दीखती  है  और  बाद में एक हिस्से के कट जाने पर उसका  दुःख भी  उसी स्थूलता के साथ पाठक के सामने आता  है – भावनात्मक  तल पर नहीं !  कहा गया है कि – Our  any  creation  reflects  our  thoughts,  our  sensitivity, our insight  and much  much  more. इस  दृष्टि से यदि हम पवन करण जी की कविता का  जायजा ले तो,  उसमें संवेदना, चिंतन और  अंतर्दृष्टि जैसी  किसी चीज़ के दर्शन  नहीं होते !  होते भी कैसे, उस सोच, उस  कुत्सित भावना के ही तो दर्शन होगें जो उनके अंतर्जगत में तैर  रही है ! रचनाकर  जैसा  हैं,  रचना के  आईने  में उसका वैसा ही तो अक्स दिखेगा ! सोच अच्छी  और बुरी कैसी भी हो सकती है ! उस पे किसी तरह की पाबंदी न कभी लगी है, न लगेगी- मनोवैज्ञानिक, मनोविश्लेषक, समाजशास्त्री, साहित्यशास्त्री  सभी इस बात पर एकमत हैं ! जब कायनात में अच्छे  और बुरे का द्वन्द्व है तो मानव स्वभाव में भी होगा ! इसलिए ऐसा  नहीं हैं कि अच्छे इंसान में सब अच्छा ही भरा होगा  और बुरे में सब  बुरा ही होगा ! लेकिन देखा यह जाता है कि इंसान में  कौन से भाव और विचार – सकारात्मक  या नकारात्मक – बहुतायत से स्पंदित रहते है, मुखर  रहते हैं ! भावों के प्रकार की इस मुखरता से ही उसके और उसकी गतिविधियों, क्रिया-कलापों  का  सकारात्मक व उत्तम  होना सिद्ध होता है ! यहाँ वर्त्तमान सन्दर्भ में विचारणीय  यह है कि रचनाकार  का सृजन के प्रति, समाज के प्रति, जीवन के प्रति एक उत्तरदायित्व बनता है, उसका  एक नैतिक कर्तव्य होता है कि जो भी सकारात्मक, स्वस्थ, शिव और सुन्दर है, उसे जीवन और समाज के मद्दे नज़र,  सबसे पहले सृजन में उतारना,  फिर सृजन के माध्यम से समाज  और जीवन में उतारना  तथा इस तरह, अस्वस्थ और नकारात्मक का निराकरण करना ! हमारे आसपास  समाज में, जीवन में जो भी नकारात्मक रात  और दिन की  तरह आता है, जाता है, उसको नज़रंदाज़  नहीं  करना, वरन उसका भी  उल्लेख करना, उसके विषाक्त प्रभावों  को दर्शाना  और उसके साथ-साथ

कदम-दर- कदम सकारात्मक व  स्वच्छ सन्देश पे सृजन की  इति करना ! जिससे  मानव जीवन और उससे  रचा हुआ समाज भटके नही वरन बेहतर से बेहतर बने ! हमारे धर्मशास्त्रों  में हमारे हर छोटे से छोटे और बड़े से बड़े कार्य का उद्देश्य सुख और शांति  की उपलब्धि बताया  गया है ! इसलिए लेखक  जो समाज का प्राणी है, उसका यह नैतिक और रचनात्मक कर्तव्य बनता है कि  वह अपनी लेखनी से जो भी ‘सकारात्मक’ है, वह पाठकों को, समाज को दे – न कि नकारात्मक, अश्लील और भोंडी  चीजे इधर उधर छितरा कर वातावरण खराब करे ! इसलिए यदि कोई  लेखक मात्र एकांगी रूप से कुत्सित और अभद्र बिंदुओं पे केंद्रित होकर, उनका यशगान करे, उनकी महिमा गाए, तो समझिए  कि उसकी लेखनी अस्वस्थ  है !  ऐसे रचनाकारों की जमात एक दिन साहित्य और समाज को ले डूबेगी ! इस सन्दर्भ में पवन करण की कविता  ‘स्तन’ जिस ठंडेपन से स्त्री मांसलता  को पेश करती है, वह निहायत ही  खेद का विषय है ! कोई भी विचारशील ‘सहृदय’ – जिसमे लेखक, पाठक, तथा अन्य  सम्वेदनशील  सामजिक  आते हैं – इस तरह के अपसंस्कृत लेखन का स्वागत नहीं करेगा ! ऐसे लेखन का अपनी-अपनी कलम चला कर कड़ाई से विरोध होना चाहिए !  स्त्री और  उसकी देह को  एक ‘आब्जेक्ट’  के रूप में खिलौने की तरह  देखना, उसके सारे अंग बरकार हो, सुन्दर  हो तो उसे ‘उपयोगी’ करार देना और उसका  कोई अंग कैंसर रोग के कारण छिन्न हो कर छीन जाए तो उसे अनुपयोगी  घोषित  कर देना – और उस नारी से दूरी जताना , नारी जाति  का सरासर अपमान है ...?  नारी मात्र  एक देह  ही क्यों – वह ‘भावना’ और  ‘संवेदना’  पहले है ! नारी भावना के तल पे  अधिक  जीती है न कि शरीर के तल पे ! शरीर के तल पे तो वह पुरुष के द्वारा ही लाई  जाती है – उसमें भी उसके  भाव उभर-उभर आते हैं ! पवन करण जी द्वारा नारी पर अपनी स्थूल मांसल दृष्टि को थोपना  और उसके सुकोमल शरीर से अपनी  सोच जैसी एक संवेदनाहीन, लज्जाविहीन स्त्री की सर्जना करना और फिर कैसर की सर्जरी के बाद, जब वह एक अंग खो बैठे तो उससे ढाढस बंधाने के बजाए, उसकी उपेक्षा  करना और इन सब बातों को निर्ममता से कविता  के  रूप में पन्नों पे  घसीटना... कहाँ तक उचित  और मानवीय है ? क्या यह भावनात्मक नृशंसता नहीं है ? या यह पवन जी पे आज की उपभोक्ता संस्कृति  का प्रभाव है ‘यूज  एंड थ्रो’ !
  पवन करण जी  की  तरह  ही अनामिका जी  की  कविता ‘ब्रेस्ट कैंसर ‘ की शुरुआत इस तरह होती है :

दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया मैंने /दूध पिलाया मैंने /हाँ बहा दी दूध की नदियाँ /तब जाकर  मेरे  इन उन्नत पहाड़ों की गहरी गुफाओं में जाले लगे /
इन पक्तियों से दूध ले साथ ममता  और स्त्रीत्व कम, दंभ ज्यादा उमड़ता  नज़र आता है ! बार-बार  ‘दूध पिलाया मैंने, दूध पिलाया मैंने, ‘ की उद्घोषणा  करके, वे क्या कहना  या समझाना  चाहती हैं – यह समझ नहीं आया ! कम से कम मुझ मंदमति को तो स्पष्ट नहीं हुआ ! उन्हें भी स्पष्ट है या नहीं, वे जाने ! फिर  यह अभिव्यक्ति ‘तब जाकर  मेरे इन उन्नत पहाड़ों में जाले लगे ‘ – इससे तो ऐसा  अर्थ ध्वनित  हो रहा है कि वे कैंसर रूपी जाले को गले लगाने के लिए कब से प्रयास रत  थी  और प्रतीक्षा में थी, तब कहीं जाकर  एक दिन उनकी मेहनत रंग लाई और  उन्नत पहाड़ों में कैंसर घर कर पाया ! यह कैसी कामना है ? कौन स्त्री चाहेगी कि उसके वक्षस्थल में, जो कि ममता का उत्स माना  जाता है – वह कैंसर जैसे रोग से ग्रस्त हो जाए ! यह विक्षिप्तता की निशानी है या ज़बरदस्ती शहीद  होने का भाव ? कैसर को इस तरह निमंत्रण ? अनामिका जी की ये पंक्तियाँ तो यह ही संवाद करती नज़र  आई ! इसके आगे वे लिखती हैं : ‘कहते हैं महावैद्य/ खा रहे हैं मुझको ये जाले / और मौत  की चुहिया  मेरे  पहाड़ों में  इस तरह  छिप कर  बैठी है/ कि यह निकलेगी तभी/ जब पहाड़ खोदेगा कोई....’

हिंदी में एक बड़ा पुराना  और प्रसिद्ध मुहावरा है – ‘खोदा पहाड़  निकला चूहा /निकली चुहिया ‘ उस मुहावरे का कविता में प्राकारंतर से अनामिका जी  ने प्रयोग करके जो व्यंजना भाव लाना  चाहा है,  वह तो कहीं खो गया और अभिधा  अर्थ ही  चुहिया  की तरह फुदक फुदक कर सामने  आया ! ‘खोदा पहाड़  निकला चूहा’ में चूहे को एक अमहत्वपूर्ण, निरर्थक वस्तु के अर्थ  में  प्रयोग किया जाता है ! जब कि  अनामिका जी द्वारा मुहावरे के तहत चुहिया को कैंसर जैसे  भारी भरकम गंभीर रोग के उपमान के रूप में प्रयुक्त करना एक तरह का विरोधाभास पैदा करता है ! पहाड जब खुदे  और कैंसर रोग  ना निकले, तब यह  मुहवारानुमा अभिव्यक्ति अधिक समीचीन लगती लेकिन यहाँ तो वह बहुत ही अटपटी और अप्रासंगिक लगती है ! फिर अनामिका जी ने जो यह लिखा है कि  महाववैद्य यानी ‘कैंसर स्पेशलिस्ट’ जब  पहाड खोदेगा.. जैसे  एक डाक्टर / वैद्य हाथ में कुदाल लिए खोदने के  लिए तैयार खड़ा  हो – ऐसा हास्यास्पद बिम्ब ज़ेहन में बनता है – डाक्टर ना हुआ  बेचारा   खुदाई करने  वाला मज़दूर हो गया.....! खैर आगे वे अपनी तमन्ना का

दूसरा फलक उघाडती हैं और लिखती हैं – ‘निकलेगी चुहिया  तो देखूंगी मैं भी’.....इससे वीभत्स और रुग्ण मनोकामना क्या  होगी  कि शल्य चिकित्सा के बाद चीर फाड  के कारण  खून से सने उरोजों को वे सर्जरी प्लेट में देखने को बेताब होगीं ! उनके शब्दों में -  ‘खुदे  फुदे नन्हे पहाड़ों  को ‘..... मतलब  कि जो उन्नत से नत बने सर्जरी प्लेट में पड़े होगें...कितनी अमानवीय कल्पना और कामना है कवयित्री की ! आगे उनसे उरोजों से  संवाद  की  बात लिखती हुई कहती हैं – कि  वे हंस कर चिहुक कर उन निर्जीव स्तनों  को मुँह चिढाती हुई पूछेगी – 

 

‘ हेलो, कहो, कैसी रही ??’
‘कैसी रही’ यह अभिव्यक्ति कितनी  ओछी और छिछोरी  है ! अपने शरीर के अंग को क्या इस  तरह -  पहले चुनौती और फिर मुँह चिढाना – किया जाता है ?  उन ममता  के स्रोतों से क्या अनामिका जी की कोई शर्त लगी थी  कि पहले वे उनमे जाले लगाने की कामना  करती हैं;  जब जाले  लग जाते हैं तो उन्हे  चीर फाड कर खोदने की चुनौती देती  है  और जब वे शरीर से अलग  कर दिए गए  तो उनसे ‘हैलो, हाय’  कहती हुई तंज  से बात करती हैं  कि देखो मैंने तुम्हें कैसी पछाड़  दी  और तुम्हें खुदवा कर , उन्नत से नत, क्षत विक्षत कर दिया !अंतत:  मैंने तुमसे  छुट्टी  पा ली ‘ – इस पंक्ति  तक आते आते कवयित्री की इन ममता के स्रोतों के प्रति वो गर्वोक्ति / दम्भोक्ति छूमंतर हो गई जो पहली दो पंक्तियों में उन्होंने जताने की कोशिश  की  थी – ‘दूध  की नदियाँ  बहा  दी मैंने, दूध पिलाया मैंने’  आदि आदि ! जिन्होंने ‘प्राणतत्व’ दुग्ध  की नदियाँ बहाई , ज़ाहिर हैं नन्हे  शिशुओं को जीवन दान दिया, उनकी भूख तृप्त की – अब उन  ममता के स्रोतों के लिए कोई कृतज्ञता  नहीं, उन्हें  खोदने  का कोई गम नहीं, पीड़ा नहीं, जो नारी के  स्त्रीत्व और ममता का प्रतीक माने गए हैं, उन्हें वे कुछ पंक्तियों में  ‘आफत और बला’ के रूप में देखती हैं;  वे – जो ‘दस वर्ष की उम्र से उनके पीछे पड़े थे’ / जिनकी वजह से दूभर हुआ सड़क पे चलना ...’ ये कैसी  कुत्सित भाव उकसाने वाली अभिव्यक्तियाँ हैं ? ये तो  पाठक के दिमाग में जानबूझकर कामुक  बिम्बों  को उभारना हुआ ! फिर लिखती है ‘बुलबुले  अच्छा हुआ फूटे’!  बुलबुले फोडने के बजाय यदि  वे चुहिया के मरने, निर्जीव होने की बात पर कलम  अधिक  केंद्रित  करती – तब  तो कैंसर से मुक्ति  पाने की बात पाठक तक  पहुँच सकती थी ! पर वे तो पवन करण जी कि तरह ही, उन्नत पहाड़ों पे  शुरू से आखिर तक दृष्टि  गडाए हुए  हैं, उन्हीं से उनका तल्ख़ और तुर्श संवाद चल रहा है ! कभी उन्हें पहाड़ तो,  कभी धराशायी खुदे- फुदे पहाड, तो कभी बुलबुले  बना  रही हैं ! इतना ही नहीं, अंत तक पहुँचते पहुंचते वे ‘ब्लाउज में छिपे तकलीफों के हीरे ‘ बन जाते हैं,  तकलीफ  अनामिका जी को कैंसर से होनी चाहिए थी  ना कि  वक्षस्थल से !कोसना  ही था तो तरह तरह से  वक्षस्थल को कोसने के बजाए,  रोग को कोसना चाहिए था !  इस हीरे की परिकल्पना ने मुझे चौंकाया कि – ये नवीन इतना कीमती आरोपण किस लिए ! शीघ्र ही आगे  की पंक्तियों से खुलासा हुआ – कि स्मगलर  और हीरे के मध्यम से  स्तनों को हीरा  ज़रूर कहा गया लेकिन ‘अवैध हीरे’’  जिन्हें रखना खतरे से खाली नहीं , जो अवैध  व्यापार  द्वारा हासिल किए जाते है ! अब आप ही सोचिए यह क्रिमिनल टाइप  की उपमा – शरीर  में सहज रूप से विकसित ‘ममता के, स्त्रीत्व के  प्रतीक’ के लिए शोभनीय है ? वे जो शिशु और माँ के बीच प्रगाढ़ रिश्ते का आधार होते हैं,  जीवन स्रोत होते हैं – ‘दूध का क़र्ज़ चुकाना है, माँ के दूध  की कसम,  माँ का दूध पिया है तो सामने आ (ताकत और चुनौती का प्रतीक)  इन उक्तियों  के उत्स हैं,  उन्हें  ये इस तरह हिकारत की नज़रों से देख रही  हैं कि जैसे वे सच में  स्मगल्ड हों ! जिन्हें वे इतने वर्षों तक धरोहर  की  तरह सहेजती रहीं ! लेकिन कैंसर  लगे चमक खो देने  वाले हीरों को तो  ‘स्मगलर डान’ भी नहीं लेगा – जिसकी वो अमानत थे ! वो इनसे  लगे हाथ अगर यह पूछ ले  कि इन्हें कैंसर कैसे लगा , इन  हीरों की चमक  कहाँ  उड़ा दी  गई ?  सम्हाल के नहीं रखा  गया इस धरोहर को, तब क्या  होता? अनामिका जी नारी होकर इतनी संवेदना हीनं करुणा विहीन कविता  ‘ब्रेस्ट कैंसर’ जैसे गंभीर विषय पर कैसे लिख सकी, मैं तो यह सोचकर हैरत में हूँ ! उनकी कविता में न तो कैंसर के प्रति क्षोभ, न रोगग्रस्त अंग के प्रति  ममता,  अपनेपन का भाव,  कैसर द्वारा उसे छीन लिए जाने पर, न अवसाद, न निराशा, उलटे उत्सव का भाव,  हँसी, ठिठोली है ! समूची कविता में नज़र आती है तो पुरुष वादी मांसल नज़र,  स्थूल दृष्टि , वैसी ही शब्दावलि, !  अंत  की पंक्ति  में वे कहती हैं  - ‘मेरी स्मृतियाँ ‘वे कौन  सी  स्मृतियों की बात कर रही हैं – जो दस वर्ष की उम्र से उनके ज़ेहन में उरोजों के साथ –साथ उभरी थी और तब से वे उनसे पीछा छुडाने को आतुर थी, सिस्टम से बाहर करने  को  बेचैन थीं ?क्योंकि विकसित होने पे  उरोज स्मगल्ड हीरे बन गए थे जिन्हें छुपाना  मुश्किल हो रहा था – कितनी बेतुकी उपमा है यह !‘दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया’ - इससे कवयित्री  का क्या तात्पर्य  है ? इसका ज़रा खुलासा करें वें  !  ममता की स्मृतियों को दूध पिलाया  कहा  होता; तो एकबारगी बात गले उतरती , एक सलोना सुंदरा बिम्ब भी बन कर आता ! इसी तरह  दूध की  नदियाँ बहा दी’...यह भी बड़ी उग्रवादी  सी  अभिव्यक्ति लगी !  जैसे दुश्मन का सर, हाथ पैर काट कर कोई खून की नदियाँ बहा दे और फिर गर्व से कहे कि मैंने  दुनिया के लिए खून की नदिया बहा दी  और सबका भला किया ! इस तरह कि उक्तियाँ अभिव्यक्तियाँ तो वीर रस, रौद्र रस  की कविताओं में शोभा देती हैं  लेकिन वक्ष स्थल से दूध की नदियाँ  बहा दी – इससे एक विचित्र  सा विरोधी बिम्ब बनता है बल्कि बनता भी नहीं, बनते-बनते पीछे लौट जाता है !

ऐसा है कि कविता जब उचित बिम्ब न बना सके, भावों को न जगा सके , सकारात्मक सोच  स्पंदित न कर सके, शीर्षक के साथ तालमेल में  न हो – ‘ब्रेस्ट कैंसर ‘ इन दो शब्दों में से ब्रेस्ट के ही ऊपर अधिक नज़र हो,  कैसर के ऊपर नाम मात्र की पंक्तियां हों – रोगी के अवसाद , दुःख, कष्ट, पीड़ा की तस्वीर  दिल में न बना सके , तो  वह कविता नही अपितु अनर्गल, अर्थहीन  प्रलाप होता है ! पवन करण और अनामिका जी  की कविता इसी श्रेणी  में आती हैं !
पवन करण और अनामिका जी की  एक गंभीर विषय पर ऎसी उथली, छिछली  और भोंडी कविताओं को पढ़ कर मेरा दिल अवसाद और चिंता से भर गया कि  यह कैंसर रोग  अब शीघ्र ही  साहित्य को लगने वाला  है और साहित्य में भी इसने  सबसे पहले  ‘कविता कामिनी’ को बेदर्दी  से धर दबोचा है ! साहित्य के महावैद्यों से अपील है कि वे अविलम्ब  कविता में लगने वाले इन जालों  की  रोक थाम  के उपाय करें; वरना  धीरे - धीरे यह कैंसर रोग कविता से होता हुआ सम्पूर्ण साहित्य में लग जाएगा !

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पाठकों के सुझाव और मांग पर  अनामिका और पवन करण की आलोच्य कविताएं नीचे प्रस्तुत हैं:


ब्रैस्ट कैंसर
 अनामिका

दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया मैंने
हाँ,बहा दी दूध की नदियाँ , तब जाकर
मेरे इन उन्नत पहाड़ों की गहरी गुफाओं में जाले लगे !      
कहते हैं महावैद्य खा रहे हैं मुझको ये जाले
और मौत की चुहिया मेरे पहाड़ों में इस तरह छिपकर बैठी है
कि यह निकलेगी तभी, जब पहाड़ खोदेगा कोई
निकलेगी चुहिया तो देखूंगी मैं भी
सर्जरी की प्लेट में रखे, खुदे - फुदे नन्हे पहाड़ों से
हँस कर  कहूँगी – हैलो, कहो, कैसे हो ? कैसी रही ?
अंतत: मैनें  तुमसे पा ही ली छुट्टी
 दस बरस की उम्र से तुम मेरे पीछे पड़े  थे
अंग-संग  मेरे लगे ऐसे
दूभर हुआ सड़क पर चलना !
 बुलबुले, अच्छा हुआ फूटे !
कर दिया  मैंने तुम्हें अपने सिस्टम के बाहर
s मेरे ब्लाउज में छिपे मेरी तकलीफों के हीरे
हेलो, कहो, कैसे हो ?
जैसे कि स्मगलर  के जाल में ही बुढा गई लड़की
 करती है कार्यभार पूरा अंतिम वाला
 झट अपने ब्लाउज से बाहर किए
और मेज़ पर रख दिए अपनी  तकलीफ  के हीरे !
अब मेरी कोई नहीं लगती ये तकलीफें
तोड़ लिया है उनसे अपना रिश्ता
जैसे कि निर्मूल आशंका के सताए, एक कोख के जाए,
तोड़ लेते हैं सम्बन्ध 
और दूध का रिश्ता पानी हो जाता है !  
जाने दो, जो होता है, सो होता है,
मेरे किए जो हो सकता था, मैंने किया
दुनिया की सारी स्मृतियों को दूध पिलाया मैंने
हाँ,बहा दी दूध की नदियाँ , तब जाकर
मेरे इन उन्नत पहाड़ों की गहरी गुफाओं में जाले लगे !
लगे तो लगे, उससे क्या  !
दूधो नहाएँ  और पूतों फलें
मेरी स्मृतियाँ !  

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स्तन

 पवन करण

इच्छा होती है तब वह धंसा लेता है
उनके बीच अपना सिर
और जब भरा हुआ होता है तो
उनमें छुपा लेता है अपना मुँह
कर देता है उसे अपने  आँसुओं से तर
वह उससे कहता, तुम यूँ  ही बैठी रहो सामने
मैं इन्हें जी भर के देखना चाहता हूँ
और तब तक उन पर आँखें गडाये रहता
जब तक वह उठ कर भाग नहीं जाती सामने से
या लजा कर अपन हाथों से छुपा नहीं लेती उन्हें
अंतरंग क्षणों में उन दोनों को   
हाथों में थाम कर उससे कहता है
ये दोनों तुम्हारे पास  अमानत हैं मेरी
मेरी खुशियाँ , इन्हें सम्हाल कर रखना      
वह इन दोनों को कभी शहद के छत्ते
तो कभी दशहरी आमों की जोडी कहता
 न बहस, ना उनके बारे में उसकी बातें
सुन-सुन कर  बौराई
वह भी जब कभी खडी होकर आगे आईने के
इन्हें देखती अपलक तो झूम उठती
वाकई कई दफे सोचती
इनदोनों को एक साथ उसके मुँह में भर दे
और मूँद ले अपनी आँखें
वह भी घर से निकलती इन दोनों पर   
डाल ही लेती अपनी निगाह
ऐसा करते हुए हमेशा उसे कालेज में
पढ़े बिहारी याद आते
उस वक्त इनके बारे में
सुने गए का नशा सा हो जाता दोगुना
वह उसे कई दफे सबके बीच भी
उनकी तरफ कनखियों से देखता पकड़ लेती
वह शरारती पूछ भि लेता सब ठीक तो है
वह कहती हाँ जी हाँ  
घर पहुँच कर जाँच लेना
मगर रोग ऐसा घुसा उसके भीतर
कि उनमें से एक को लेकर ही हटा देह से
कोई उपाय भि ना था सिवा इसके
ओपचार ने उदास होते हुए समझाया
अब वह इस बचे हुए के बारे में कुछ नहीं कहता उससे
वह उसकी तरफ देखता है
और रह जाता है कसमसा कर मगर
उसे है समय महसूस होता है
उसकी देह पर घूमते उसके हाथ
क्या ढूंढ रहे हैं कि उस वक्त वे
उसके मन से भी अधिक मायूस हैं
उसे खो चुके एक के बारे में भले ही            
एक-दूसरे से न कहते हों वह कुछ
मगर वह विवश जानती है
उसकी देह से उस, एक के हट  जाने से
लिटाना कुछ हट गया उनके बीच से !  
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डॉ. दीप्ति गुप्ता

शिक्षा: आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी) एम.ए. (संस्कृत), पी.एच-डी (हिन्दी)
रुहेलखंड विश्वविद्यालय,बरेली, हिन्दी विभाग  में अध्यापन (1978 – 1996)

हिन्दी विभाग, जामिया मिल्लिया इस्लामिया, नई दिल्ली में अध्यापन  (१९९६ -१९९८)

हिन्दी विभाग, पुणे विश्वविद्यालय में अध्यापन (1999-2001)

विश्वविद्यालयी नौकरी के दौरान, भारत सरकार द्वारा, १९८९ में  मानव संसाधन विकास मंत्रालय’, नई दिल्ली में शिक्षा सलाहकार पद पर तीन वर्ष के  डेप्युटेशन पर नियुक्ति (1989- 1992)
सम्मान : Fannstory.com – American   Literary  site   पर English Poems  ‘’All Time Best’  ’से  सम्मानित.

प्रकाशित कृतियाँ :

1. महाकाल से मानस का हंस सामाजिक मूल्यों और आदर्शों की एक यात्रा, (शोधपरक - 2000)
2. महाकाल से मानस का हंस तत्कालीन इतिहास और परिस्थितियों  के परिप्रेक्ष्य में,     (शोधपरक -2001)
3. महाकाल से मानस का हंस जीवन दर्शन, (शोधपरक 200)
4. अन्तर्यात्रा ( काव्य संग्रह - 2005),
5. Ocean In The Eyes ( Collection of Poems - 2005)
6. शेष प्रसंग (कहानी संग्रह -2007),
7.  समाज और सँस्कृति के चितेरे अमृतलाल नागर, (शोधपरक - 2007
8. सरहद से घर तक   (कहानी संग्रह,   2011),
9.  लेखक के आईने में लेखक संस्मरण संग्रह शीघ्र प्रकाश्य
 
अनुवाद : राजभाषा विभाग, हिन्दी संस्थान, शिक्षा निदेशालय, शिक्षा मंत्रालय, नई दिल्ली, McGrow Hill Publications, New Delhi,  ICSSR, New Delhi,  अनुवाद संस्थान, नई दिल्ली, CASP  Pune, MIT  Pune,    Multiversity  Software  Company   Pune,    Knowledge   Corporation  Pune,   Unicef,  Airlines,  Schlumberger   (Oil based) Company, Pune   के लिए अंग्रज़ी-हिन्दी अनुवाद  कार्य !

अगस्त, २०११ में  साकेत, दिल्ली से १४ भाषाओं में प्रकाशित ‘द संडे इंडियन’ पाक्षिक पत्रिका द्वारा  भारत और विदेश में बसी हिन्दी साहित्य के उत्थान और विकास में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली सर्वश्रेष्ठ लेखिकाओं में चयनित !

सम्प्रति पूर्णतया रचनात्मक लेखन को समर्पित  और पूना में स्थायी  निवास !
मोबाइल : 098906 33582
  
ई मेल पता: drdeepti25@yahoo.co.in