शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

आलेख













कौन है द्रौपदी
डॉ. सुमित्रा अग्रवाल
द्रौपदी महाभारत का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण स्त्री-पात्र तथा इसके कथानक का केन्द्रबिन्दु है। उसका व्यक्तित्व अन्य स्त्री-पात्रों की तुलना में इतना विशाल एवं महत्त्वपूर्ण है कि वह महाभारत के सम्पूर्ण कथानक को गति प्रदान करता है। द्रौपदी मूर्तिमती शक्ति है। आधुनिक नारी रोल मॉडल के लिए जब अतीत की ओर दृष्टिपात करती है तब द्रौपदी की छवि पुनः पुनः उसकी आँखों में कौंध उठती है। कौन है वह द्रौपदी? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिए जब हम महाभारत के पृष्ठ पलटते है तो वहाँ दर्शाया गया है कि द्रौपदी का जन्म यज्ञकुंड की अग्नि से हुआ है।
द्रौपदी के जन्म के विषय में महाभारतकार द्वारा प्रस्तुत कथा अपने आप में एक महत्त्वपूर्ण संकेत लिये हुए है। अतीत में द्रोण द्वारा अपमानित द्रुपद एक ऐसा पुत्र पाना चाहते थे जो युद्ध में दुर्जय और द्रोणाचार्य का विनाशक हो। तदर्थ महर्षि याज और उपयाज की सहायता से उन्होंने एक यज्ञ का आयोजन किया। उसी यज्ञ की अग्नि से देवता के समान तेजस्वी एक कुमार प्रकट हुआ। उसके अंगों की कान्ति अग्नि की ज्वाला के समान उद्भासित हो रही थी। उसके माथे पर किरीट सुशोभित था। उसके अंगों में उत्तम कवच धारण कर रखा था। हाथों में खड्ग, बाण और धनुष धारण किये वह बार-बार गर्जना कर रहा था। वह कुमार उसी समय एक श्रेष्ठ रथ पर जा चढ़ा, मानो युद्ध के लिए यात्रा करने को उद्धत हो। तत्पश्चात् यज्ञ की वेदी से एक कुमारी कन्या भी प्रकट हुई जो पांचाली कहलायी। सुन्दर कटिप्रदेश वाली उस कन्या के प्रकट होने पर भी आकाशवाणी हुई - `इस कन्या का नाम कृष्णा है। यह समस्त युवतियों में श्रेष्ठ एवं सुन्दरी है और क्षत्रियों का संहार करने के लिए प्रकट हुई है। यह सुमध्यमा समय पर देवताओं का कार्य सिद्ध करेगी। इसके कारण कौरवों को बहुत बड़ा भय प्राप्त होगा।' यह आकाशवाणी सुनकर समस्त पांचाल सिंहों के समुदाय की भाँति गर्जना करने लगे। उस समय हर्ष में भरे हुए उन पांचालों का वेग पृथ्वी नहीं सह सकी। इस प्रकार द्रुपद के महान यज्ञ में वे जुड़वाँ सन्तानें उत्पन्न हुईं। (महाभारत, आदिपूर्व)
महामुनि व्यास ने लौकिकता और अलौकिकता के जिस समवाय से द्रौपदी सदृश कालातीत पात्र का सृजन किया है उसमें उसका जन्म अलौकिकता की छाया में दर्शाया गया है। यह अलौकिकता इतनी अद्भुत है, इतनी प्रभावशाली है, इतनी विश्वसनीय है कि उससे प्रकीर्ण तीव्र प्रकाश की चौंध में द्रौपदी का वास्तविक जन्म-रहस्य दृष्टि से ओझल रह जाता है और सम्पूर्ण महाभारतीय कथा में तथा उसके पाठकों के मन में द्रौपदी का अस्तित्व अयोनिसम्भवा और अग्निकन्या के रूप में बना रहता है। वस्तुतः दिव्यजन्म एक स्वयं प्रकाशित प्रतीक है जो द्रौपदी के व्यक्तित्व को प्रकाशित कर रहा है।
सम्भवतः इस मिथक की रचना द्वारा महर्षि व्यास अपनी मानसपुत्री द्रौपदी के व्यक्तित्व को एक अद्भुत सामर्थ्य, एक विलक्षणता, एक गरिमा और एक सौन्दर्य प्रदान करना चाहते हैं। द्रौपदी का अलौकिक जन्म उसके व्यक्तित्व को अन्यों की दृष्टि में असाधारण बनाता है। जिससे उसकी असाधारणता को लोक की स्वीकृति और मान्यता मिल सकी है। द्रौपदी लौकिक ही है पर उसकी मानसिक सामर्थ्य अलौकिक है। यह अलौकिक मानसिक सामर्थ्य ही उसकी तेजस्विता का आधार है जो उसके व्यक्तित्व की प्रमुख पहचान है।
इस बिन्दु पर यह भी उतना ही निर्विवाद सत्य है कि एक मानवी का जन्म मानवी के गर्भ से ही सम्भव है। तब प्रश्न उठता है कि कौन है यह द्रौपदी? महाभारत यज्ञ की अग्नि से जन्म की मिथकीय कथा कहकर इस प्रसंग की लौकिकता पर अलौकिकता का एक आवरण डाल देता है। जिससे द्रौपदी की आनुवांशिकता मिथक की ओट में छिप जाती है।
महाभारत के अनुसार द्रुपद को ये दोनों जुड़वाँ सन्तान वनप्रान्तर में स्थित यज्ञवेदी पर मिली हैं (यज्ञ की अग्निशिखाओं से)। इससे स्पष्ट है कि इन दोनों सन्तानों का सम्बन्ध नगर और नगरजनों से न होकर वन और वन में रहनेवाले आदिवासियों से है और यज्ञ की अग्निशिखा से जन्म की जो कथा द्रौपदी के जन्म-रहस्य से जुड़ी है, उसका अभिप्राय सम्भवतः द्रौपदी के राजकन्या बनने की विधि का जुड़ाव अग्नि से दर्शाना है। यहाँ महाभारतकार का उद्देश्य अग्निशुद्धि की इस प्रक्रिया को मिथकीय कथा के द्वारा प्रस्तुत करना है। इस तथ्य की पुष्टि अनेक प्रमाणों के आधार पर की जा सकती है। आदिवासी समाज से द्रौपदी के घनिष्ठ सम्बन्ध की पुष्टि उसके कान्तिमान साँवले वर्ण, लहराते हुए नीले कचपाश और अनुपम देहयष्टि से होती है। उसके सौन्दर्य का मादक प्रभाव भी उसकी इस आनुवांशिकता से जुड़ा हो सकता है। यहाँ यह तथ्य भी महत्त्वपूर्ण है कि यज्ञवेदी से जन्म ग्रहण करने के समय द्रौपदी पूर्णयौवना अप्रतिम सुन्दरी है।
देहगत साम्य के अलावा उसके व्यक्तित्व के मनोवैज्ञानिक स्वरूप में भी आदिवासी कुल से जुड़ाव के पर्याप्त प्रमाण विद्यमान हैं। सर्वप्रथम नागरकन्या और आदिवासी कन्या की स्वतत्रताविषयक अवधारणा में पर्याप्त भेद होता है। नागरकन्या को स्वतंत्रता मिलती है एक बन्द निश्चित घेरे में; जबकि आदिवासीकन्या अपने चारों ओर के मुक्त स्वतंत्र परिवेश से सहज ही अपनी स्वतंत्रता को जोड़कर उसे परम्परासम्मत ढंग से पाती है। द्रौपदी की स्वतंत्र्येच्छा भी ऐसी ही है। द्रौपदी की अदम्य स्वतंत्र्येच्छा सिद्ध करती है कि घेरों में घिरा बन्द जीवन जीना उसका स्वभाव नहीं है। वह स्वतंत्र रही है, स्वतंत्र ही रहना चाहती है। आदिवासी कन्या की ही भाँति अपने मन और शरीर पर वह अपना अबाध अधिकार मानती है। सम्भवतः इसीलिए अपने `जोस्ती' करने के जन्मजात अधिकार का प्रयोग करते हुए वह कृष्ण से जोस्ती यानि सख्य स्थापित करती है। (खस कन्या के युवागृह (रिंगना) में किसी पुरूष साथी से मित्रता को `जोस्ती' कहते हैं। इसमें यौन-सम्बन्ध स्थापित किया भी जा सकता है और नहीं भी। प्रत्येक कन्या को जोस्ती का जन्मसिद्ध अधिकार है जो समाजसम्मत है। यार या जोस्त के नाम को बायीं बाँह पर गुदवाने की भी प्रथा है। जोस्ता आगे चलकर पति भी हो सकता है या जोस्त ही बना रह सकता है। (वुमन ऐंड पॉलीऐंड्री इन श्वाइन जौनपुर, जी.एस. भट्ट, पृ. 116) रोष और मान के चार आँसू उनके समक्ष बहाती है तथा अपने सुगन्धित कचपाश की शपथ में सखा को बाँधकर उनसे अपना अभीष्ट सिद्ध करवाती है। कृष्ण और द्रौपदी के सख्य के मध्य उसके पतियों और कृष्ण के संबंधों की कोई भी छाया नहीं है। स्वयं का अपमान करनेवाले जयद्रथ और कीचक की जिन कड़े शब्दों में वह भर्त्सना करती है तथा अपने शील की रक्षा का समस्त प्रबन्ध स्वयं करती है वह भी उसके इसी स्वतंत्रचेता स्वभाव के अनुरूप है।
आदिवासी समाज के बन्धन निसर्ग निर्मित होते हैं न कि मानव-निर्मित। उनका जीवन प्रकृति द्वारा संचालित होता है। उनका आचरण भी प्राकृतिक न्याय के नियमों के अनुरूप होता है। अतः निर्णय करने में लौकिक शिष्टाचार या अन्य तत्व आड़े नहीं आते। अपनी ही मानसिक ऊर्जा से वे निर्णय करते हैं- उन्हें कार्यान्वित करते हैं। आदिवासी समाज के मानस में न्याय और अन्याय, धर्म और अधर्म की अपनी ही एक अवधारणा होती है और एक बार जब वह अपने प्राकृत मूल्यबोध के अनुरूप अपनी धारणा निश्चित कर लेते हैं, फिर वह उस पर अडिग रहते हैं। द्रौपदी में भी यह प्रवृत्ति पायी जाती है। वह भी एक बार जब अपना मत निश्चित कर लेती है, फिर उस पर अडिग ही रहती है। परिवेश की समस्त प्रतिकूलताओं को अतिक्रमित करते हुए वह अपने अभीप्सित पथ पर आगे बढ़ती ही जाती है। पीछे मुड़कर देखना उसने कभी स्वीकार नहीं किया।
इसी के साथ आदिवासी समाज का प्राकृत न्यायबोध अत्याचार के प्रतिशोध को अनिवार्य मानता है। द्रौपदी के मानस को भी तीव्र प्रतिशोध भावना संचालित करती है। इसी भावना के अन्तर्गत वह मयसभा प्रसंग में दुर्योधन पर हँसती है, वन जाते समय कौरवों की पत्नियों के अमंगल वेश की भविष्यवाणी करती है, अपना अपमान करनेवाले जयद्रथ और कीचक को कड़ा दंड देती है तथा कौरवों से प्रतिशोध की अग्नि को अपने मन में तथा अपने पतियों के मन में निरन्तर तेरह वर्षों तक सुलगाये रहती है। यही नहीं, वनवास की अवधि में मिट्टी की वेदी बनाकर उस पर सोती है। द्रौपदी न केवल अपने अपमान का पूर्ण प्रतिशोध लेती है अपितु वह सदैव धर्म और न्याय को ही मुद्दा बनाती है। आम स्त्री के विपरीत न तो वह सहमती है और न ही करुणा की याचना करती है।
आदिवासी समाज में स्त्री एक व्यक्ति है, उतनी ही सचेतन जितना कि पुरुष, वहाँ वह न तो दोयम श्रेणी की नागरिक है और न केवल उपभोग्य वस्तु। वहाँ स्त्री-पुरूष की समानता में अन्तर मात्रा का है न कि नींव का। अपने जीवन को गति और दिशा देने में स्त्री की निश्चित सहभागिता रहती है। योनिशुचिता का मिथक उसके जीवन को घेर नहीं पाता है क्योंकि स्त्री योनिमात्र नहीं है। आदिवासी समाज में स्त्री काम और विवाह विषयक निर्णयों में तुलनात्मक रूप में अधिक स्वतंत्र है।
नागरी सभ्यता स्त्री को दोयम स्थान प्रदान कर उसे उपभोग की वस्तु समझती है। द्रौपदी की प्राकृतिक अस्मिताचेतना स्त्री के प्रति इस दृष्टिकोण का विरोध करती है। द्यूतपर्व की विडम्बना को अपनी आँखों से देखनेवाली द्रौपदी भीष्म, द्रोण आदि मनीषी पुरुषों को स्त्री को दासी समझने की प्रवृत्ति के प्रति किसी भी प्रकार का विरोध प्रकट किये बिना तटस्थ और निक्रिय देखती है। इसका अतिगम्भीर प्रभाव उसके संवेदनशील मन पर पड़ता है जो उसकी जाग्रत अस्मिताचेतना से युक्त परम्पराभंजक व्यक्तित्व के लिये स्वाभाविक ही है। उसके इस व्यक्तित्व की प्रतिच्छवि हमें आदिवासी स्त्री में मिलती है।
पंचपतिवरण का प्रसंग द्रौपदी के जीवन में आया आरोह नहीं है- अवरोह है। पर अपने व्यक्तित्व की अद्भुत सामर्थ्य द्वारा इस अवरोह को आरोह में परिवर्तित कर स्वयं को श्रेष्ठ पतिव्रताओं की पंक्ति में स्थापित कर द्रौपदी ने अपने बहुपतीत्व की सफलता सिद्ध की है। अत्यन्त विशिष्ट व्यक्तित्व से युक्त पाँचों पांडवों से द्रौपदी का बहुपतित्वयुक्त विवाह द्रौपदी के आकर्षण और उसकी सामर्थ्य में वृद्धि करता है। अपने पाँचों पतियों के साथ उसके सम्बन्ध सख्यपूर्ण हैं; उन पाँचों के साथ वह छठी बनकर रही है। सौन्दर्य, शक्ति, बुद्धिमत्ता, वीरता, संवेदनशीलता, आयु तक रुझान सदृश प्रत्येक बिन्दु पर भिन्न -भिन्न कक्षा पर खड़े पाँचों पांडवों का समन्वित साहचर्य द्रौपदी को समृद्ध बनाता है। युधिष्ठिर के साथ यदि वह बौद्धिक चर्चा करती है तो भीष्म के समक्ष कभी वह स्वामिनी बनती है, कभी बालिका। पति पर निहित जो अधिकारभावना किसी स्त्री को तुष्ट करती है वही अधिकारभावना द्रौपदी के हृदय में भीम के प्रति है। सखा अर्जुन के साथ वह जीवन के सारे सुखस्वप्न देखती है, उनके विरह में उत्कंठित होती है। उसके सामीप्य में पल्लवित और पुष्पित होती है। नकुल और सहदेव पर अपना ममत्व उँडेलकर वह उन्हें तृप्त करती है, स्वयं भी तृप्त होती है। महाभारत की इस सुकुमारी नायिका ने पांडवों की एकता अक्षुण्ण रखी, उन्हें एक सूत्र में बाँधे रखा, उन्हें शक्ति प्रदान की, इसी के साथ द्यूतप्रसंग में उसने उनका संरक्षण भी किया। अपने पतियों को कलंकपूर्ण दासता से मुक्ति दिलाकर हथियारों सहित उन्हें स्वतंत्र कराया है। स्त्री की गरिमा दर्शानेवाले प्रसंगों में इस प्रसंग का स्थान शीर्षस्थ है। बहुपतित्व के रूप में जीवन की द्रौपदी के समक्ष एक कसौटी रखता है। अर्जुन से विवाह का सुखस्वप्न देखनेवाली द्रौपदी उस स्वप्न के भंग होने पर अपना सन्तुलन नहीं होती अपितु पाँचों वीर पतियों से विवाह का अवसर मिलने पर प्रसन्न ही होती है। अपने स्वप्नभंग से उबरकर नवीन परिवेश में स्वयं को समायोजित कर लेती है। यह तथ्य उसके व्यक्तित्व की सहजता, लचीलेपन और व्यवहारकुशलता का अन्यतम प्रमाण है।
योनिशुचिता की परम्परागत आर्य अवधारणा से भिन्न द्रौपदी का विवाह पाँचों पांडवों से होता है और द्रौपदी अपने इस बहुपतित्वयुक्त विवाह का सहज और सफल निर्वाह करती है। उसकी यह सहजता, उसकी यह शक्ति उसे आर्यकुल से भिन्न आदिवासी कुल के समीप ले जाकर खड़ा कर देती है। ये परिस्थितिजन्य प्रमाण सिद्ध करते हैं कि बहुपतित्व द्रौपदी के लिए एक सहज प्रथा है और इसीलिए वह इसका सहज और सफल निर्वाह कर पायी है। इतना ही नहीं अपने गौरवस्मरण के प्रत्येक अवसर पर द्रौपदी अपने पाँच वीर पतियों का स्मरण करती है। इस बिन्दु पर आदिवासी समाज की यह मान्यता बरबस हमें याद आ जाती है| `जितना बड़ा पतियों का समूह, उतनी बड़ी स्त्री की प्रतिष्ठा।' और इसी के द्वारा द्रौपदी के बहुपतित्व के मूल भाव को समझा जा सकता है।
द्रौपदी का स्वयंवर-प्रसंग वह निष्पत्ति है जिसके आधार पर द्रौपदी के पूर्वजीवन की झिलमिल छवि का अंकन महाभारत के आधार पर किया जा सकता है और यह निष्पत्ति सिद्ध करती है कि महाभारत के पटल पर दिव्यजन्मा के रूप में जिसका आविर्भाव महामुनि व्यास ने कराया है उस द्रौपदी का पालन-पोषण अत्यन्त स्वतंत्र परिवेश में हुआ है। उस स्वतंत्र  परिवेश में खिली इस पद्मगन्धा नायिका ने न केवल स्वतत्रा का उपभोग किया है वरन् उसने अपनी स्वतंत्रता के निर्वाह की सामर्थ्य भी अर्जित की है। इसी अर्जित सामर्थ्य का चरम उत्कर्ष है स्वयंवर-प्रसंग में कर्ण का वरण न करने विषयक उसकी स्पष्ट निर्भीक उद्घोषणा।
पांचालदेश की राजकन्या के रूप में अपने अलौकिक सौन्दर्य, असाधारण गुणों और श्रेष्ठ  सामाजिक स्थिति के कारण द्रौपदी सहज ही सबकी प्रशंसा और स्वीकृति प्राप्त करती है। इस प्रशंसा और स्वीकृति ने उसके मौलिक व्यक्तित्व के विकास की ठोस भूमिका प्रस्तुत की और इसी सुदृढ़ भित्ति पर उसका आत्मविश्वास सबलतर होता गया है।
पांचाल के राजप्रसाद में परम क्षत्रिय पिता द्रुपद के सानिध्य में द्रौपदी का जो अग्नि व्यक्तित्व आकार ग्रहण करता है। वह अपने आत्मविश्वास में इतना दीप्त है कि स्वयंवर-प्रसंग में वह स्वयं के स्वयंवर को सम्पूर्ण अर्थछटा में स्वयंवर बना देती है। यों द्रौपदी वीर्यशुल्का है - शर्त के आधार पर मत्स्यवेध करनेवाले पुरूष का वरण उसके लिये अनिवार्य है। परन्तु अपने स्वतंत्र  व्यक्तित्व की विलक्षण सामर्थ्य के द्वारा द्रौपदी इस अनिवार्यता को सहज ही परे कर वीर्यशुल्क पर आधारित स्वयंवर को वास्तविक `स्वयं-वर' बना देती है।
द्रौपदी का साँवला वर्ण, अनुपम देहयष्टि, अदम्य स्वतंत्र्यचेतना, निर्भीक पारदर्शी स्वभाव, अखंड आत्मविश्वास, सहज प्राकृत न्याय के प्रति गहन आस्था, विशिष्ट मूल्यबोध, अन्याय का विरोध करने की प्रबल सामर्थ्य, स्त्री की गरिमा के प्रति सचेत दृष्टि, झरने की अजस्र धारा सदृश ऊर्जासम्पन्न गतिशील व्यक्तित्व तथा महाभारत का सांकेतिक जन्मसन्दर्भ - ये सब मिलकर इस मत की पुष्टि करते हैं कि द्रौपदी सुसंस्कृत नागर समाज की कन्या न होकर प्राकृत आदिवासी समाज की कन्या है। आदिवासी समाज की कन्या के रूप में व्यतीत बाल्यावस्था ने उसे उन चौखटों से परे रखा है जो एक नागरकन्या को घेरे रखती है। अपनी बाल्यावस्था में वह न केवल स्वतंत्र  रही है अपितु स्वतंत्रता के निर्वाह की शक्ति भी उसने अर्जित की है। महाभारत में वह शिशु रूप में नहीं युवती रूप में पदार्पण करती है, निर्मित हो नहीं रही है - निर्मित हो चुकी है, अपनी ही तरह से।
द्रौपदी के आदिवासी समाज से धीनाल जुड़ाव का एक सबल प्रमाण यह भी है कि केवल आदिवासी बहुपतित्वयुक्त प्रदेशों में ही द्रौपदी के मंदिर भी पाये जाते हैं।
इस आदिवासी कुल से सम्बद्ध आनुवंशिकता ने उसके मनस्विनी बनने की आधारभूमि प्रस्तुत की है। अग्नि से उसके जन्म की कथा संकेत करती है उसके आदिवासी समाज से नागर समाज में प्रस्तुत की, उसके मन के एक विशिष्ट भूमिका के निर्वाह के प्रति उन्मुख होने की। मानो इस अग्निस्नान में उसने अपनी सारी पूर्व इच्छाओं, आकांक्षाओं की आहुति देकर पिता द्रुपद के लक्ष्य को अपना जीवन लक्ष्य बना लिया और पिता के अपमान के प्रतिशोध को अपना जीवन ध्येय समझ लिया।
इन तथ्यों के आधार पर जब `द्रौपदी कौन है?' इस प्रश्न का उत्तर खोजने का प्रयास करते हैं तो स्पष्ट होता है कि द्रौपदी की आनुवंशिकता का गहन सम्बन्ध आदिवासी समुदाय से है। उसका राजसी स्वभाव यह सम्भावना जगाता है कि वह किसी आदिवासी समुदाय की राजकुमारी होगी जो कालान्तर में पांचालकुमार द्रुपदकन्या द्रौपदी के रूप में महाभारत के पृष्ठों में साकार होती है।

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क्या द्रौपदी मनस्विनी बन पाई है?
डॉ. सुमित्रा अग्रवाल
महाभारत ने अपने महाकाव्य की नायिका द्रौपदी को विशेषण दिया है - `मनस्विनी'। मनस्विनी यानि अपने अच्छे मन द्वारा संचालित जीवन जीने में समर्थ स्त्री। सद्सद्विवेक द्वारा जो सद् और असद् का भेद समझकर असद् को छोड़कर सद् की ओर कदम बढ़ाती है, ऐसा नहीं है कि मानवीय दुर्बलतायें उसमें नहीं होती पर अपने सजग आत्मनियंत्रण द्वारा उन दुर्बलताओं से ऊपर उठकर वह सत्य की ओर ही उन्मुख होती है।
व्यक्ति दो प्रकार के होते हैं - मनसोक्त तथा मनस्वी। मनसोक्त व्यक्ति वह व्यक्ति है जो वही करता है जो मन कहता है। मनस्वी व्यक्ति वह व्यक्ति है जो अपने मन की इच्छा पर अपने विवेक द्वारा नियंत्रण कर करणीय कर्तव्य का पालन करता है। इसी प्रकार निर्णय भी दो प्रकार के होते हैं| प्रथम प्रकार के अंतर्गत वे निर्णय समाहित हैं जो अंतःस्फूर्ति के आधार पर लिखे जाते हैं, द्वितीय प्रकार के अंतर्गत वे निर्णय आते हैं जो विवेक के आधार पर लिखे जाते हैं, द्वितीय प्रकार के अंतर्गत वे निर्णय आते हैं जो विवेक के आधार पर लिखे जाते हैं; संकल्पशक्ति के आधार पर लिये जाते हैं। मनुष्य का मन प्रगल्भ है, वह वायु के समान क्षणमात्र में अपनी इच्छा के अनुकूल निर्णय करता है। परंतु चूंकि मनुष्य एक विवेकशील प्राणी है अतः वह अपने विवेक के अनुरूप निर्णय करता है जिसमें उसकी संकल्पशक्ति सहायक होती है। मनस्वी व्यक्ति वह है जो अपनी संकल्पशक्ति के आधार पर मन को रोककर विवेक आधारित निर्णय करता है।
इस निकष के प्रकाश में द्रौपदी की प्रतिमा का अवलोकन करने पर प्रतीति होती है कि महाभारतकार की मानसकन्या द्रौपदी प्रारंभ से ही मनस्विनी है। उसके मनस्विनी बनने की प्रक्रिया का बीजारोपण उसकी आदिम आनुवांशिकता में निहित कतिपय विशिष्टताओं से होता है और फिर पांचालराज द्रुपद के घर में मिले अनुकूल परिवेश के कारण इस प्रक्रिया को धार और गति मिलती है। यह प्रक्रिया निरंतर गतिमान रही है। सर्वप्रथम स्वयंवर प्रसंग में कर्ण को वरण करने का निषेध कर वह अपने मनस्विनी रूप का प्रकाशन करती है। इसी प्रसंग में पुनः एक बार वह अपने इस वैशिष्ट्य को प्रमाणित करती है। स्वयंवर के पश्चात् सर्वश्रेष्ठ धनुर्धारी सव्यसाची अर्जुन को वरण करने विषयक उसका सुखस्वप्न जब भंग होता है तब मननस्विनी द्रौपदी ने उस स्वप्नभंग की छाया द्वारा अपने नवीन दांपत्य को धुंधला नहीं होने दिया है अपितु अपने पांचों वीर पतियों को उत्फुल्ल भाव से स्वीकार कर अपने व्यक्तित्व की शक्ति को सिद्ध किया है। उसके पश्चात् इन्द्रप्रस्थ में जब पांडवों की पटरानी के रूप में द्रौपदी सुख-समृद्धि के शिखर पर विजयमान है उसी समय उसके स्वप्नपुरूष अर्जुन ने जब कृष्णभगिनी सुभद्रा को इन्द्रप्रस्थ के अंतःपुर में उसकी सपत्नी के रूप में ला खड़ा किया तब भी इस दंश को भुलाकर वह सुभद्रा को गले लगाती है।
उसके मनस्विनी रूप का उद्घाटन द्यूतप्रसंग में पूर्णतः हुआ है। अपने जीवन की चरम विडंबना के समय द्रौपदी न तो गिड़गिड़ाती है और न ही अपनी भावनाओं के वश होकर अपना अपमान करने वाले कौरवों को शाप देकर अपनी क्षमता गंवाती है अपितु इस विषम परिस्थिति में भी उसका बुद्धिवाद जागृत रहता है और वह एक ऐसा प्रश्न पूछती है जिसका उत्तर पूरी सभा में किसी के पास नहीं। उसने यह चिंता भी कभी नहीं की कि उसके मन का समर्थन या विरोध कौन-कौन करता है या तथ्यों की कितनी रंगछटायें उसके सम्मुख आई हैं। उसका अटल निश्चय है कि सामर्थ्य से बुरी जो बात है वही कहानी है। पुनः अपने स्त्रीत्व का अपमान करनेवाले जयद्रथ को क्षमा करते समय, स्वयं पर बलात्कार करने का प्रयास करनेवाले कीचक को मृत्युदंड दिलवाते समय द्रौपदी महाभारतकार द्वारा दिये गये `मनस्विनी' विशेषण को सार्थक करती है। परंतु गतिशील ऊर्जा संपन्न व्यक्तित्व से युक्त द्रौपदी यहीं नहीं रुकती; इसके पश्चात् विकास की अगली भावभूमि पर वह खड़ी दिखाई देती है| अश्वत्थामा को क्षमा करते समय। इस संदर्भ में दृष्टव्य है कि एक मन ऐसा भी है जो इतना पावन है कि बीच का रास्ता-विवेक का रास्ता-उसके संदर्भ में आता ही नहीं है। उसकी इच्छा उतनी ही शुद्ध होती है जितनी विवेक के रास्ते आनेवाली इच्छा शुद्ध होती है। ऐसे मन से युक्त व्यक्ति को मनःपूत कहते हैं। मनःपूत अर्थात् ऐसे व्यक्तित्व जो मन से ही पवित्र हो। उस मनःतूप के कारण असत्य तथा अशिव और असुंदर के प्रति उसकी कोई गति हो ही नहीं सकती। जीवन में मिली यातना ने द्रौपदी के व्यक्तित्व का परिष्कार किया है और निरंतर चली इस परिष्कार की प्रक्रिया द्वारा अर्जित शुद्धता और परिपक्वता के फलस्वरूप द्रौपदी का मनःपूत व्यक्तित्व विकास के अंतिम सोपान पर स्थित हो अपने प्रिय पांचों पुत्रों का सोते समय वध करनेवाले अश्वत्थामा को क्षमा करता है। इस अभूतपूर्व क्षण में उसके मातृत्व का विस्तार पुत्रहन्ता को भी अपनी परिधि में ले लेता है। यातना की अग्नि में तपती द्रौपदी संभवतः वैसी ही यातना की अग्नि में गुरूपत्नी को झुलसते हुए नहीं देखना चाहती है या अश्वत्थामा के विवश प्रतिशोध के मर्म को उसने समझ लिया है। पर मनःपूत अवस्था में उसके व्यक्तित्व की यह परिणति उसके व्यक्तित्व परिष्कार की समग्र प्रक्रिया की संगति में ही है।
द्रौपदी मनस्विनी तो प्रारंभ से ही है पर जीवन में मिले विलक्षण अनुभवों की अग्नि में तपकर यह अग्निकन्या निरंतर परिष्कृत होती गई है। अग्नि जलाती है - पवित्र भी करती है। जीवन में पाई अनुभूतियों ने उसे जलाया भी है। पवित्र भी किया है। इस अग्नि में तपकर बाहर निकली द्रौपदी इतनी पवित्र है कि कृष्ण के साथ सरव्य का अभिनव संबंध वह स्थापित कर पाती है। मन की यही पवित्रता उसके सौंदर्य को भी एक अलौकिक दिव्यता की आभा प्रदान करती है जिसकी ओर बार-बार महाभारत में संकेत किया गया है। उसका मनःपूत व्यक्तित्व अपने पूर्ण प्रकर्ष में महाभारत युद्ध के अंत में अश्वत्थामा को क्षमा करने के प्रसंग में उभर आया है जहाँ वह मानुषी की लौकिक भूमिका को अतिक्रांत कर एक अलौकिक भूमिका पर स्वयं को अधिष्ठित करती है।
यहाँ एक प्रश्न यह भी उठता है कि अपने समय से भिन्न या विपरीत व्यक्तित्व द्रौपदी ने कैसे पाया? इस प्रश्न पर विचार करते समय जो तथ्य हमारे सामने आते हैं वे ये हैं कि अग्नि सदृश तेजस्वी व्यक्तित्व से युक्त महाप्राज्ञा द्रौपदी की आंतरिक प्रवृत्ति अपने काल की सामान्य प्रवृत्ति से पर्याप्त भिन्न है। उसका तेजस्वी व्यक्तित्व दृढ़ संकल्पशक्ति से युक्त है, अपनी इस दृढ़ संकल्पशक्ति का वह निरंतर परिष्कार करती है। अपने तेज पर छाया डालनेवाले किसी भी शक्ति का प्राणपण से विरोध करना और अपने अपमान का प्रतिशोध लेना उसके लिये अनिवार्य है। उसका आत्मविश्वास इतना दीप्त है कि कोई संशय कभी भी उसे नहीं घेरता। प्रत्येक कठिन क्षण में मनस्विनी द्रौपदी का निर्भय अचूक है, अडिग है, स्वतंत्र है, इन क्षणों में वह न सहमती है, न करूणा की याचना करती है अपितु अपनी जागृत अस्मिताचेतना द्वारा उस कठिन क्षण का सामना करती है। द्यूतप्रसंग उसकी इस विशिष्टता का अप्रतिम उदाहरण है। इस प्रसंग में धृतराष्ट्र उदार बनते हैं पर द्रौपदी लाचार नहीं बनती। यह मनस्विनी धृतराष्ट्र के आग्रह पर भी तीसरा वर नहीं मांगती और अपने पतियों को उनके शास्त्रों सहित स्वतंत्र कराकर उनके भावी पराक्रम का मार्ग प्रशस्त कर तीसरा वर मांगने से इंकार कर देती है। इस क्षण के निचाट सूनेपन में वही मन उसे उसकी मर्यादा सुझा देता है।
नागरी सभ्यता स्त्री को दोयम स्थान प्रदान कर उसे उपभोग की वस्तु समझती है। द्रौपदी की जागृत अस्मिता चेतना स्त्री के प्रति इस दृष्टिकोण का तीव्र विरोध करती है। द्यूतपूर्व की विडम्बना को अपनी आँखों से देखनेवाली द्रौपदी ने भीष्म, द्रोण आदि मनीषी पुरूषों को स्त्री को दासी समझने की प्रवृत्ति के प्रति किसी भी प्रकार का विरोध प्रकट किये बिना निक्रिय और तटस्थ देखा तो यह मनस्विनी उनसे जो प्रश्न पूछती है वह उसकी जागृत अस्मिताचेतना का प्रतीक और उसके परंपराभंजक व्यक्तित्व के अनुकूल ही है। वह प्रश्न मानो सनातनकाल से नारी की इयत्ता से जुड़कर पुरूष समाज से उत्तर मांग रहा है। मनस्विनी - द्रौपदी नारी को पुरूष जितनी ही स्वतंत्र और प्रतिष्ठित मानती है इसलिये नारी की छवि पर प्रहार करनेवाले किसी भी प्रयास का यह वीरांगना प्राणपण से विरोध करती है। उसकी यह मुखर अधिकार संचेतनता तथा विरोध करने का सामर्थ्य उसे अपने समय से बहुत आगे ले जाती है और उसे अपने समय से भिन्न व्यक्तित्व प्रदान करती है।

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द्रौपदी, नारी का एक सचेतन और मनस्वी रूप
डॉ. सुमित्रा अग्रवाल
महाकवि व्यास की मानस कन्या, योगिराज, कृष्ण की परमसखि, पाण्डुपुत्रों की अभिसारिका और महाभारत जैसे विश्व के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थ की महानायिका द्रौपदी स्त्री रूप में सदियों से एक किंवदन्ती की तरह स्थापित है।
प्रस्तुत है `अक्षरा' में महाभारत काल के एक सजीव और गौरवपूर्ण अध्याय का पुनार्पण करता हुआ श्रेष्ठ व्याख्याकार सुमित्रा अग्रवाल का यह आलेख जो उस महानायिका को समझने में तथा आज प्रचलित नारी-विमर्श के संदर्भ में दिशा प्रदान करेगा।                          - सम्पादक
``या नः श्रुता मनुष्येषु स्त्रियो रूपेण सम्मताः।
तासामेतादृशं कर्म न कस्याश्चन शश्रुष ।।1।।
क्रोधाविष्टेषु पार्थेषु धार्तराष्ट्रेषु चाप्यीत।
द्रौपदी पाण्डुपुत्राणां कृष्णा शान्तिरिहाभवत् ।।2।।
अप्लवेऽम्भसि मग्नानामप्रतिष्ठे निमज्जताम्।
पाञ्चाली पाण्डुपुत्राणां नौरेषा पारगाभवत् ।।3।।
(सभापर्व के अन्तर्गत द्यूतपर्व - बहत्तरवाँ अध्याय)
``मैंने मनुष्यों में जिन सुन्दरी स्त्रियों के नाम सुने हैं, उनमें से किसी ने भी ऐसा अद्भुत कार्य किया हो, यह मेरे सुनने में नहीं आया। कुंती के पुत्र तथा धृतराष्ट्र के पुत्र सभी एक दूसरे के प्रति अत्यंत क्रोध में भरे हुए थे, ऐसे समय में यह द्रुपदकुमारी कृष्णा इन पांडवों को परम शांति देनेवाली बन गयी। पांडव नौका और आधार से रहित जल में गोते खा रहे थे अर्थात् संकट के अथाह सागर में डूब रहे थे, किन्तु यह पाञ्चाली राजकुमारी इनके लिये पार लगानेवाली नौका बन गयी।''
यों तो संपूर्ण महाभारत में अनेक स्थानों पर अनेक व्यक्तियों द्वारा व्यास की मानसकन्या द्रौपदी के लिये अनेक प्रशंसापूर्ण उद्गार अभिव्यक्त किये गये हैं पर द्यूतसभा में उसके द्वारा दर्शाये गये धैर्य, संयम, सहिष्णुता और गरिमा से अभिभूत हो कर्ण के द्वारा अभिव्यक्त उद्गार अद्भुत हैं। जीवन में कभी-कभी ऐसा भी क्षण आता है जब व्यक्ति अपनी सहज प्रवृत्ति और पूर्वाग्रह को छोड़कर उस क्षण का सत्य अभिव्यक्त करने के लिये स्वयं को बाध्य पाता है। कर्ण के जीवन का यह ऐसा ही क्षण है। जो कर्ण अभी कुछ क्षणों पूर्व कटु से कटुतम और अश्लील से अश्लील शब्दों में द्रौपदी की निंदा कर रहा था, उसे `वेश्या' तक कह रहा था - वही कर्ण इस क्षणविशेष में स्वयं को द्रौपदी को अलौकिक सामर्थ्य से अभिभूत पाता है और इसी विशिष्ट मनःस्थिति में सत्य अनायास उसकी वाणी में फूट पड़ता है।
द्रौपदी महाभारत के अरण्य में खिला एक ऐसा पुष्प है जिसका वर्ण न्यारा है, गंध अत्यंत तीव्र और मादक है तथा जिसका सौन्दर्य भी अपनी अलग ही छटा लिये हुए है। वह इस दुनिया का है भी और नहीं भी है। महाभारत की द्रौपदी लौकिक ही है, यों अलौकिकता भी उसमें है पर वह अलौकिकता उसकी विश्वसनीयता को ठेस नहीं पहुँचाती है। अभिजात्य उसमें भरपूर है पर वह अभिजात्य भी उसको जकड़ नहीं पाता है। इस परम सौंदर्यवती का सौन्दर्य अभिनव है, मादक है पर उसका जीवन उसके सौन्दर्य द्वारा संचालित नहीं है, न ही वह अपने इस लोकोत्तर सौन्दर्य पर निर्भर है। इस महाप्राज्ञा की बुद्धिमत्ता उसके व्यक्तित्व को एक धार देती है पर यह बुद्धिमत्ता एक आदिम गंध से भी युक्त है। इस बुद्धिमत्ता ने द्रौपदी को अपने मूल्य दिये हैं, अपने निकष दिये हैं- जिन पर वह जीवन को तौलती है। उसका विवेक उसे दुर्योधन की दुर्दशा पर हंसने से नहीं रोकता तो साथ ही अपने प्रिय पुत्रों का वध करनेवाले अश्वत्थामा को क्षमा करने के लिए भी प्रेरित करता है। जिस अदम्य साहस ने उसे पाँचों पांडवों की भार्या बनना स्वीकार करने के लिये प्रेरित किया है उसी साहस ने परंपरा को एक अभिनव मोड़ देकर अपने केशपाश की शपथ में सखा कृष्ण को भी बांध लेने की सामर्थ्य दी है। पारदर्शिता उसके व्यक्तित्व का अभिन्न अंग है, मन की बात मन में रखना उसका स्वभाव नहीं है पर साथ ही धैर्य अद्भुत है। इसी धैर्य ने द्रौपदी को वस्त्रहरण जैसे दारूण यातना में भी बिना चटखे, बिना टूटे बाहर आने की क्षमता दी है। स्वातंत्र्येच्छा उसकी प्रबल है। इसी स्वातंत्र्येच्छा ने द्रौपदी को अज्ञातवास का समय सैरंध्री के रूप में स्वयं निर्भर होकर व्यतीत करने के लिये प्रेरित किया और यही स्वातंत्र्येच्छा उसे अपने जीवन का प्रत्येक निर्णय स्वयं करने और जीवन को अपनी दृष्टि से आंकने की क्षमता भी देता है। जिजीविषा उसमें भरपूर है। यह जिजीविषा उसे न कभी हतास होने देती है न दिशाहारा और यही प्रत्येक कठिन परिस्थिति से उसे उबार भी लेती है। व्यक्तित्व उसका तेजस्वी है- बाह्य तेजस्विता जन्मना है तो आंतरिक तेजस्विता अर्जित है। पर यह तेजस्विता भी उसके जीवन का साध्य नहीं है। यह केवल साधन है उस अत्यंत स्वशासी, आत्मनिर्भर, मौलिक और कालजयी व्यक्तित्व की प्राप्ति का। अपने जीवन की नियामक स्वयं बनकर वरण की स्वतंत्रता को उसने सर्वोपरि स्थान दिया है फिर भले ही परिवेश स्वयंवर सभा का हो, कुम्हारगृह के आंगन का हो, अज्ञातवास की विभीषिका की परछाई तले सांस लेते वनप्रांतर का हो, विराट के राजमहल का हो या कुरूक्षेत्र की युद्धभूमि का हो। द्रौपदी का यह स्वशासी स्वभाव अपनी देह और अपने मन पर अन्य किसी का नियंत्रण स्वीकार नहीं करता। पांडवों सदृश तेजस्वी पतियों के जीवन में भी द्रौपदी ने अपना एक विशिष्ट स्थान रखा है और उनके निर्णयों को उसने अपनी ही तरह से प्रभावित भी किया है। कुरूक्षेत्र का युद्ध यद्यपि सत्ता के उत्तराधिकार का युद्ध है पर पांडवों के हृदय में इस युद्ध की चिन्गारी सुलगाये रखने में द्रौपदी का विशिष्ट योगदान है।
द्रौपदी भारतीय इतिहास की एक ऐसे विशिष्ट नायिका है जो अपनी एक स्वतंत्र अस्मिता रखती है। महाभारतकार ने अपनी इस नायिका का व्यक्तित्व ऐसा गढ़ा भी नहीं है कि वह छायासदृश पति का अनुसरण करे। जब-जब उसकी अस्मिता को ठेस पहुँचती है तब-तब उसने अपनी अस्मिता की रक्षा का सशक्त प्रयास किया है - रूढ़ियों और परंपरा को अतिक्रांत करके भी, द्यूतप्रसंग में स्वयं को दांव पर लगाने के औचित्य पर प्रश्नचिन्ह लगाती हुई द्रौपदी पूछती है कि यदि मुझे दांव पर लगाने के पूर्व युधिष्ठिर स्वयं को हार गये थे तो उन्हें मुझे दांव पर लगाने का क्या अधिकार था? उद्योगपर्व में जब कौरवों-पांडवों में संधि के लिए प्रयास किया जा रहा है तब भी अपने पतियों के संधि-प्रयास को देखते हुए भी द्रौपदी श्रीकृष्ण से अपने अपमान के प्रतिकार का आग्रह करती है। कृष्ण, युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, सहदेव, नकुल और कर्ण - अपने जीवन में आनेवाले इन सातों पुरूषों से अपने विशिष्ट संबंधों के कारण द्रौपदी का समग्र व्यक्तित्व इन्द्राधनुष की भांति विविध रंगछटाओं से शोभायमान हुआ। तत्कालीन समाज की पतिव्रत्य और सदाचार-व्यभिचार संबंधी धारणायें ठीक अद्यतन युग सदृश नहीं है। इस संक्रांतिकाल में अनेक पुरातन प्रथायें अपना अस्तित्व खो रही हैं तो अनेक नवीन प्रथायें अस्तित्व में आ भी रही हैं। इसीलिये द्रौपदी का विलक्षण व्यक्तित्व एक विलक्षण जीवनानुभव से गुजरता है।
द्रौपदी के व्यक्तित्व की एक अन्य विशिष्टता है - अपने व्यक्तित्व के आधार पर गौरव अर्जित करने की सामर्थ्य। भारतीय संस्कृति में नारी का गौरव सामान्यतः उसके मातृत्व पर अवलंबित है। पर द्रौपदी का गौरव उसके मातृत्व का अपेक्षी नहीं है। अप्रतिम सुन्दरी, परम बुद्धिमती, तेजस्विनी, धृष्टद्युम्न की प्रिय बहिन, पांडवों की सहधर्मचारिणी वीर अर्जुन की प्रेयसी, पूर्णपुरूष कृष्ण की सखी और इन्द्रप्रस्थ की ऐश्वर्यमयी साम्राज्ञी - इन्हीं रूपों में महाभारत में द्रौपदी अवतरित होती है। युधिष्ठिर ने उसके लिये जिन विशेषणों का प्रयोग किया है वे हैं - प्रिया, परमदर्शनीया, पतिव्रता और महाप्राज्ञा द्रौपदी की लौकिकता, अलौकिकता, बुद्धिमत्ता, स्वातंत्र्येच्छा, तेजस्विता, परंपरा पर आघात करने की प्रवृत्ति, जीवन में मिली यातना, यातना से गुजरते हुए भी बरती गयी सहिष्णुता, धैर्य और इन सबके साथ ही स्वयं की अस्मिता के प्रति अभिव्यक्ति उत्कट आग्रह ने उसके व्यक्तित्व को एक अनोखा आकर्षण प्रदान किया। व्यास ने अपनी मानसकन्या द्रौपदी को एक विशिष्ट व्यक्तित्व प्रदान किया है। उसका अंतःव्यक्तित्व जितना तेजस्वी और प्रभावशाली है, उतना ही तेजस्वी और प्रभावशाली उसका बाह्य व्यक्तित्व भी है। द्यूतपूर्व में उसे दांव पर लगाते समय युधिष्ठिर ने सात श्लोकों में द्रौपदी का जो मनोरम शाब्दिक वर्णन अंकित किया है अत्यंत प्रभावशाली है। स्थितप्रज्ञ युधिष्ठिर कहते हैं-
``जो न नाटी है न लंबी न कृष्णवर्णा है न अधिक रक्तवर्णा तथा जिसके केश नीले और घुंघराले हैं, उस द्रौपदी को दांव पर लगाकर मैं तुम्हारे साथ जुआ खेलता हूँ। उसके नेत्र शरदऋतु के प्रफुल्ल कमलदल के समान सुन्दर एवं विशाल हैं। उसके शरीर से शारदीय कमल के समान सुगन्ध फैलती रहती है। वह शरदऋतु के कमलों का सेवन करती है तथा रूप में साक्षात् लक्ष्मी के समान है। पुरूष जैसी स्त्री प्राप्त करने की अभिलाषा रखता है - उसमें वैसा ही दयाभाव है, वैसी ही रूप सम्पत्ति है तथा वैसे ही शील-स्वभाव है। वह समस्त सद्गुणों से संपन्न तथा मन के अनुकूल और प्रिय वचन बोलने वाली है। मनुष्य धर्म, काम और अर्थ की सिद्धि के लिये जैसी पत्नी की इच्छा रखता है, द्रौपदी वैसी ही है। वह ग्वालों और चरवाहों से भी पीछे सोती और सबसे पहले जागती है। कौन-सा कार्य हुआ और कौन-सा नहीं हुआ, इन सबकी वह जानकारी रखती है। उसका स्वेदबिन्दुओं से विभूषित मुख कमल के समान सुन्दर और मल्लिका के समान सुगन्धित है। उसका मध्यभाग वेदी के समान कृश दिखाई देता है। उसके सिर के केश बड़े-बड़े हैं मुख और ओष्ठ अरूणवर्ण के हैं तथा उसके अंगों में अधिक रोमावलियाँ नहीं है। सुबलपुत्र! ऐसी सर्वांङ्सुन्दरी सुमध्यमा पाञ्चाल कुमारी द्रौपदी को दांव पर रखकर मैं तुम्हारे साथ जुआ खेलता हूँ, यद्यपि ऐसा करते हुए मुझे महान कष्ट हो रहा है।''
आज की आधुनिक नारी जब पीछे मुड़कर देखती है तब उस प्राचीन मिथकीय इतिहास में उसे सभा में खड़ी न्याय मांगती अपने अधिकार के लिये संघर्ष करती मनस्विनी द्रौपदी प्रतिमानस्वरूप दिखायी देती है। वधू की परंपरागत भूमिका के घेरे से बाहर आकर द्रौपदी एक आत्मस्थित मनस्विनी स्त्री की भूमिका में संचरण कर अपनी अस्मिता की रक्षा का दायित्व स्वयं पर ले लेती है और सारे परंपरागत प्रतिमानों को अतिक्रमित करती हुई एक नये क्षितिज को स्पर्श करती है। द्रौपदी के व्यक्तित्व की यही चिरंतन आधुनिकता उसे परंपराभंजक नवोन्मेषशालिनी प्रतिभा के मानस से जोड़ देती है - ``मैंने जब कहानी लिखने के लिये कलम पकड़ी तो यह मेरे जेहन का तकाजा था कि मेरी कहानी की किरदार वह औरत होगी जो द्रौपदी की तरह भरी सभा में कोई सवाल पूछने की जुर्रत रखती हो।
(द्रौपदी से द्रौपदी तक - अमृता प्रीतम, पृष्ठ 10-11)
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क्या द्रौपदी मनस्विनी बन पाई है?
डॉ. सुमित्रा अग्रवाल
``मैंने जब कहानी लिखने के लिये कलम पकड़ी तो यह मेरे जेहन का तकाजा था कि मेरी कहानी की किरदार वह औरत होगी जो द्रौपदी की तरह भरी सभा में कोई सवाल पूछने की जुर्रत रखती हो.... इसलिये कह सकती हूँ कि मेरी कहानियों में जो भी किरदार हैं, उन औरतों के किरदान जिन्दगी से ही लिये हुये हैं, लेकिन उन औरतों के जो यथार्थ और यथार्थ का फासला तय करना जानती है - यथार्थ जो है, और यथार्थ जो होना चाहिये - और वह जो द्रौपदी की तरह भरी सभा में वक्त के निजाम से कोई सवाल पूछने की जुर्रत रखती है।''1
अमृता प्रीतम का उपर्युक्त मंतव्य यह सोचने के लिये प्रेरित करता है कि ऐसा क्या है इस प्राचीना द्रौपदी में जो आज की अति आधुनिक और स्वतंत्रचेता लेखिका के लिये भी वह रोलमॉडल बनकर उसके मानस में विराज रही है और इसी के साथ नित नये रूप धारणकर, नये सवालों के साथ काल के समान खड़ी हो रही है। उसके सवालों की धार पहले भी बड़ी पैनी थी, आज भी वह उतनी ही पैनी है। कहाँ से पाई उसने यह धार? कब तक उसका सवाल हवा में यों ही खड़ा रहेगा? भविष्य की नारी भी क्या उसके सवालों की ध्वनि में अपने सवालों के बीज देखेगी?
कैसी है यह द्रौपदी? इस प्रश्न का उत्तर खोजने के लिये जब समुद्र के समान विशाल, वहन और गंभीर महाभारत खोलते हैं तो यज्ञ की अग्नि से बाहर आती पूर्णयौवना, सर्वांगसुंदरी, नित्ययौवना द्रौपदी दिखाई देती है। उसका प्रादुर्भाव और अधिक असाधारण बनाने के लिये कवि ने एक चमत्कार की सृष्टि की है जो द्रौपदी की महानता और शक्तिमत्ता को प्रकर्ष तक पहुँचाता है। यज्ञ की ज्वालाओं से अपनी मानसपुत्री द्रौपदी को आविर्भूत होते दर्शाकर महामुनी व्यास ने लौकिकता पर अलौकिकता का दर्शन देते हुये उसे एक अभिनव व्यक्तित्व प्रदान किया है। महाभारत के पटल पर उसका अविर्भाव देवों, यक्षों और मानवों द्वारा समान रूप से काम्य स्त्री के रूप में हुआ है। युधिष्ठिर के शब्दों में एक पुरूष जैसी स्त्री की कामना करता है - द्रौपदी वैसी ही है। आकर्षण उसका दुनिर्वार है, कमनीयता लुब्ध करनेवाली है, बुद्धिमत्ता चमत्कृत करनेवाली है, धैर्य अभिभूत करनेवाला है और तेजस्विता प्रखर है। उसका गतिशील उर्जासंपन्न स्त्रीत्व, परिवेश से समायोजन की उसकी अद्भुत क्षमता, जागृत विवेक, समर्थ मनस्विता, सहज मनःपूत व्यक्तित्व सभी मिलकर उसे एक ऐसे तेजोवलय में स्थापित करते हैं जो उसके जन्मना तेजराशि रूप के अनुरूप ही है। वह मानो सीता, मैत्रेयी और रति का सम्मिलित नारी विग्रह है। महाभारत में उसका स्त्रीत्व इतना प्रभावशाली है कि उसके समक्ष द्रौपदी के स्त्री-जीवन की विविध भूमिकायें नेपथ्य में चली जाती हैं और केवल उसका सचेतन स्त्रीत्व सम्मुख रह जाता है।
भारतीय स्त्रीत्व के समस्त आदर्शों का मूर्त रूप होने पर भी वह लौकिक ही है। हिमालयी बहुपतित्वयुक्त प्रदेशों में वह देवी की स्थानापन्न है। उसके नाम पर बलि दी जाती है, पूर्वकाल में वहाँ पांडवनृत्य में उसकी भूमिका का निर्वाह करनेवाली अभिनेत्री उसके नाम पर बलि दी गई बकरी का खून पीती थी और द्रौपदी की आत्मा द्वारा अविष्ट होकर अपनी भूमिका का निर्वषन पूर्ण जीवंतता के साथ करती थी। इसीलिये प्रत्येक स्त्री के अंदर द्रौपदी सांस लेती है - अपनी ही तरह से। यही उसके सार्वकालिक आधुनिक व्यक्तित्व का केंद्रबिंदु है।
द्रौपदी मे एक सनसनाता चैतन्य है, एक ऐसी उर्मि है कि अपने स्थान और काल को लांघकर अपने युग के विभूतिपुरूष श्रीकृष्ण से वह सख्य स्थापित कर पाती है। यह सख्य उसके व्यक्तित्व का पूरक बनकर उसे समृद्ध करता है। यह उर्मि उसे नित नवीना बनाये रखती है और यह पूर्णता, यह समृद्धि, यह संपन्नता, उसके आकर्षण में एक दीप्ति उत्पन्न करती है। जीवन के अन्य सभी रूढ़, सम्बन्ध व्यक्ति को पूर्ण करते हैं पर उस पूर्णता के पश्चात् भी कुछ ऐसा रह जाता है जो उसमें समा नहीं पाता। उसी कुछ को द्रौपदी ने इस सख्य में समो दिया है।
एक आधुनिक स्त्री का मानस स्वकेन्द्रित होता है। उसी स्वकेन्द्रित मानस के द्वारा लिये गये निर्णय को वह सुविधा के अनुसार भिन्न-भिन्न व्यक्तियों से पूर्ण कराती है और इस सारे आयोजन के केन्द्र में स्वयं स्थित रहती है। द्रौपदी का आधुनिक मानस भी स्वयं केन्द्र में स्थित रहकर अपने द्वारा लिये निर्णयों को अन्य शक्तियों की सहायता से पूर्ण करता है। महाभारत की नायिका द्रौपदी अपने समय से भिन्न या विपरीत व्यक्तित्व अर्जित कर सकी है। उसकी विशिष्ट आनुवंशिक तथा पारिवेशिक शक्तियाँ इस संदर्भ में उसकी सहायक हुई हैं। `स्व' से निर्मित स्वातंत्र्यचेतना का विकास वह इस सीमा तक करती है कि उसके प्रकाश में एक स्वतंत्र जीवनस्वप्न वह न केवल देखती है अपितु उसके आधार पर अपने जीवन और परिवेश का मूल्यांकन भी करती है, विदुषी, पंडिता, महाप्राज्ञा द्रौपदी इसी विशिष्ट संदर्भ में `मनस्विनी' है। यह मनस्विनी युधिष्ठिर द्वारा हारे गये तेरह वर्षों के काल को मुट्ठी से सरकने नहीं देती - उसे बांधे रखती है।
महाभारतकालीन समाज में स्त्री का स्थान पतनोन्मुख था उसके गौरव की दीप्ति धुंधली पड़ती जा रही थी। पर स्त्री के इस दासत्वकाल में द्रौपदी एक प्रज्वलित दीपशिखा के रूप में महाभारत के पटल पर उभरती है। वह अदम्य स्वातंत्र्यचेतना द्वारा परिचालित है। अपने स्वयंवर को यह मनस्विनी अपने अपार मनोबल से वास्तविक `स्वयं-वर' बना देती है। विवाह के पश्चात् उसका बहुपतित्व उसे कुंठित नहीं बनाता - उसकी प्रभा में और भी दीप्ति ला देता है। पांडवों सदृश्य अमित तेजस्वी वीरों की पत्नी के रूप में वह अपने गौरव का स्मरण महाभारत में अनेक स्थलों पर करती है जिससे स्पष्ट है कि यह बहुपतित्व द्रौपदी की सामर्थ्य में श्रीवृद्धि कर उसे और अधिक गौरवशालिनी और अधिक समर्थ तथा और अधिक आकर्षक बनाता है। भिन्न-भिन्न व्यक्तित्व से युक्त अपने पांचों पतियों को एकसूत्र में आबद्ध रखने में समर्थ द्रौपदी की प्रशंसा महाभारत के अनेक प्रमुख व्यक्तियों ने की है, अपने सफल बहुपतित्व से समर्थ बनी द्रौपदी युगपुरूष कृष्ण की सखी बनती है। सखी बनकर इस सख्य को वह केवल भावात्मक आयाम तक सीमित नहीं रखती अपितु जीवन के प्रत्येक आयाम में वह इस सख्य को मूर्त रूप प्रदान कर सखा कृष्ण का आवाहन करती है।
द्रौपदी का बहुपतित्व उसकी सामर्थ्य में किस प्रकार वृद्धि कर उसे भारतीय इतिहास पुराण की सर्वश्रेष्ठ स्त्री के रूप में प्रतिष्ठित करता है - इस तथ्य की स्थापना के क्रम में एक अन्य सत्य उद्घाटित हुआ कि आदिवासी स्त्री की मूल्य संकल्पना, प्रखर स्वातंत्र्यचेतना और बहुपतित्व के निर्वाह की अद्भुत सहज क्षमता महाभारत की द्रौपदी में उसी रूप और मात्रा में विद्यमान है। यह सत्य इस तथ्य का संकेतन है कि द्रौपदी की आनुवांशिकता का घनिष्ठ सम्बन्ध इस स्वतंत्र समर्थ आदिवासी स्त्री से है और उसका अग्नि से जन्म उसके व्यक्तित्व के अग्निसंस्कार का संकेतक है। परिस्थिति जन्य प्रमाण इस अवधारणा का समर्थन करते हैं।
द्रौपदी को देखकर प्रतीत होता है कि द्रौपदी यानि व्यास महामुनि के मन की स्त्री विषयक कल्पना तो नहीं है? महामुनि को अभिप्रेत वास्तविक स्त्री संभवतः द्रौपदी के रूप में उन्होंने साकार की है। इसलिये वह `है' `जैसी ही है' - बनती नहीं गई है। स्त्रीत्व के सारे सौन्दर्य, सारे माधुर्य, सारी शालीनता, स्त्री में निहित स्त्रीत्व की धारदार अस्मिता, स्वत्व का प्रचंड भान अखंड सेवावृत्ति - इन सबका प्रतीक है द्रौपदी। द्रौपदी जो भारतीय बहुपतित्व की आनंदप्रद देवी भी है। 
द्रौपदी की प्रासंगिकता और आधुनिकता की दृष्टी से मृणाल कुलकर्णी के विचार महत्त्वपूर्ण है जिन्होने दूरदर्शन के धारावाहिक `द्रौपदी' में द्रौपदी के पात्र को जीवन्त किया है। उनकी दृष्टी में, ``पूरे विश्व में वह अपने हक के लिये अकेली लड़ती है। वास्तव में द्रौपदी के अन्दर सीता, गार्गी और क्लियोपेट्रा का अद्भुत संगम नजर आता है। द्रौपदी ही महाभारत की धुरी है। उसी के चारों और महाभारत की समूची कहानी घूमती है। वह पांडवों की शक्ति और प्रेरणा है। द्रौपदी अपने समय से बहुत आगे थी वास्तव में वह हर समय की महिला का प्रतिनिधित्व करती है। यही वजह है कि द्रौपदी का पात्र आज भी प्रासंगिक है।''2
स्त्री की बदलती तस्वीर की बात उठने पर संदर्भित किया गया है द्रौपदी को। कुरूसभा में द्रौपदी ने जो प्रश्न उठाया है वह आज भी उठाया जा रहा है - नये संदर्भों में, नये रूपों में। इस विषय में मृदुला गर्ग सदृश विचारशील लेखिका का मंतव्य दृष्टव्य है - ``मुझे लगता है, द्रौपदी के प्रश्न का उत्तर हमें मध्यवर्ग की औरत के बजाय श्रमिकवर्ग की औरत ही दे सकती है। वह जानती है कि उसका मूल्य उसकी कल्याणकारी शक्ति में निहित है। उसे अपने प्रभाव का दायरा बढ़ाना होगा, जिसमें घर-गृहस्थी से आगे बढ़कर वह परिवेश और पर्यावरण को भी समेट सके। उसके लिये जरूरी है कि सरकार स्थानीय पर्यावरण के रखरखाव, प्रबंध और नवीनीकरण का अधिकार महिलाओं को दे दें।''3
अपनी इसी आधुनिकता के कारण महाभारत की बीजस्वरूपा प्राचीना द्रौपदी आधुनिक भारतीय साहित्य में अनेक रंगों में, अनेक रूपों में स्वयं को अभिव्यक्त कर रही है। यह उसके व्यक्तित्व की शक्ति है कि अनेक प्रतिष्ठित मनस्वी सर्जकों ने उसके बहुआयामी व्यक्तित्व को अनेक नवीन आयामों में देखा है। ये सभी नवीन आयाम मिलकर जिस प्रतिमा का निर्माण करते हैं वह प्रतिमा अत्यंत अनूठी है। आधुनिक भारतीय भाषाओं में द्रौपदी के मिथकीय पुनःसर्जन में उसके व्यक्तित्व की जिस विशिष्टता को प्रमुखता से रेखांकित किया गया है वह है उसकी शक्तिमत्ता, उसकी तेजस्विता, उसकी सनातन आधुनिकता। असमिया महाभारत से लेकर अति नवीन सृजनों तक उसकी यह विशिष्टता बनी रही है। कहीं वह पांडवों की विजयिनी सेना का नेतृत्व कर रही है, कहीं भारतमाता के रूप में अन्याय के प्रतिकार की शपथ ले रही है, कहीं पांडवों की गांडीव शक्ति है और कहीं वीरांगना क्षत्राणीरूप होकर युद्धकथाओं को सुनकर पुलकित हो रही है। सभी स्थानों पर वह पांडवों को चैतन्य करनेवाली ऊर्जा है। वह कृष्णप्रीति के रंग में रंगी है पर साथ ही मनस्विनी स्वयंसिद्धा है। उसका मनःपूत व्यक्तित्व अपनी ही पवित्रता से शुचितासंपन्न है।


आधुनिक स्त्री-विमर्श जिस शक्तिस्वरूपा, स्वयंसिद्धा, मनस्विनी नारी की प्रतिमा सामने रखकर अपनी बात कह रहा है वह प्रतिमा महामुनि व्यास ने महाभारत में हजारों वर्षों पूर्व ही गढ़कर लोकमानस में प्रस्थापित कर दी थी। यह द्रौपदी निरंतर मेरे मन में बसी रही, नित्य नवीन रूपों में मन के आकाश में उदित होती रही और इसी क्रम में पुनः अमृता प्रीतम की द्रौपदी मन के आकाश में आ खड़ी होती है-
``मैं जन्म जन्म की द्रौपदी हूँ
 मैं पाँच तत्व की काया....
 किसी एक तत्व से ब्याही हूँ....
 जुए की वस्तु की तरह
 राजसभा में आई थी
 इस जन्म में भी वह कौरव हैं
 वही चेहरे, वही मोहरें,
 और उन्होंने वही बिसात बिछायी है
 मैं वही पांच तत्व की काया
 मैं वही नारी द्रौपदी...
 आज जुए की वस्तु नहीं हूँ
 मैं जुआ खेलने आयी हूँ....
 मैं जन्म-जन्म की द्रौपदी हूँ।
 पूरा समाज कौरवों ने जीत लिया
 और नया दांव खेलने लगे
 तो पूरी सियासत दांव पर लगा दी।
 मैंने दाएँ हाथ से समाज हार दिया
 बायें हाथ से सियासत हार दी
 लेकिन कौरव दुहाई देते हैं-
 कि पांच तत्व... मेरे पांच पांडव हैं
 मैं भरी सभा से उठी हूँ
 और पाँचों जीतकर लायी हूँ...
 मैं जन्म जन्म की द्रौपदी हूँ।''4

1. द्रौपदी से द्रौपदी तक - अमृता : एक नजरिया/इमरोज
2. नवभारत टाइम्स, मृणाल कुलकर्णी 15/10/2001
3. मृदुला गर्ग, नवभारत टाइम्स 15/10/2001
4. द्रौपदी से द्रौपदी तक - अमृता : एक नजरिया/इमरोज
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डॉ. सुमित्रा अग्रवाल


13 सितंबर 1947 को कराची पाकिस्तान में जन्म
राजस्थान यूनिवर्सिटी से महाभारत की द्रौपदी और आधुनिक रूप विषय पर 2007 में डी.लिट् के लिए थीसिस जमा किया गया‌।
1992 में एस.एन.डी.टी. यूनिवर्सिटी, मुंबई से नरेश मेहता के काव्य में मिथकीय चेतना विषय पर पीएच-डी. जिसके लिए 3 वर्ष तक जीआरएस प्राप्त।
मुंबई यूनिवर्सिटी के स्नातकोत्तर विभाग में व्याख़्याता तथा सोफिया कॉलेज में व्याख्याता के रूप में अध्यापन।
प्रकाशन :
नरेश मेहता के काव्य में मिथकीय चेतना शीर्षक से आनंद प्रकाशन द्वारा 1994 में पुस्तक प्रकाशित
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में 15 रिसर्च पेपर तथा 50 से अधिक समीक्षाएँ तथा लेख प्रकाशित
संप्रति :
बहुपतित्व : एक तुलनात्मक अध्ययन – खस आदिवासी समाज तथा महाभारत की द्रौपदी के विशेष संदर्भ में
संपर्क :
बी/604, वास्तु टावर
एवरशाइन नगर, मलाड (पश्चिम)
पिन : 400 064
मो. 98921 38846
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रविवार, 9 सितंबर 2012

आलेख

’रचना समय” में प्रकाशित शालिनी माथुर के बहुचर्चित आलेख ’व्याधि पर कविता या कविता पर व्याधि’ (http://wwwrachanasamay.blogspot.in/2012/06/blog-post.html) और डॉ. दीप्ति गुप्ता के आलेख ’प्रतिवाद का प्रतिवाद’ (http://wwwrachanasamay.blogspot.in/2012/08/blog-post_6208.html) के क्रम में प्रस्तुत है वरिष्ठ कथाकार, चित्रकार और पत्रकार प्रभु जोशी का बहुचर्चित आलेख ’कविता का कहीं कोई मगध तो नहीं?’. आग्रह है कि इसके साथ ही प्रकाशित राहुल ब्रजमोहन का आलेख भी आप अवश्य पढ़ें.



'कविता का कहीं कोई मगध तो नहीं ?'

प्रभु जोशी

'कथादेश' के ताजा अंक को देखकर यह सुखद विस्मय हुआ कि मूलत: कहानी पर केन्द्रित एक पत्रिका ने अपने पृष्ठों पर कविता को लेकर, इस उत्तर-औपनिवेशिक समय में, सर्वथा नये कोण से एक ऐसी बहस को जन्म दे दिया है, जिसे जरूरी तौर पर किसी कविता-केन्द्रित पत्रिका से बहुत पहले उठना चाहिए था
कदाचित यह वहां इसलिए सम्भव नहीं हो सका, चूंकि एक लम्बे कालखण्ड से वहां से बहस बिदा हो चुकी है
और अब बहस इस पर भी नहीं होती कि बहस क्यों नहीं हो रही है ? दरअसल , यह क्षम्य है क्योंकि उनकी किंचित् अपरिहार्य-सी विवशताएं हैंमसलन, सम्प्रति वे एक दूसरे की कविता के 'श्रेष्ठ' और 'श्रेष्ठतर' बताने की परिश्रम-साध्य तार्किक युक्तियों को आविष्कृत करने में लगे हुए हैंनतीजतन उनके पास अवकाश का ही सबसे बड़ा अभाव है वे यदा-कदा अपनी उन एक-सी जान पड़ने वाली पत्रिकाओं के पृष्ठों पर, परस्पर एक दूसरे से मिथ्या-असहमति प्रकट करते रहते हैं, जबकि अप्रत्यक्ष रूप से वे एक दूसरे से पूरी तरह सहमत हैं
वस्तुत: वहां. उन सब के बीच एक अप्रकट समन्वय हैएक ऐसा मतैक्य है, जिसके पार्श्व में हितों की अखण्ड सूत्रबद्घता हैवे मोलियर के पात्रों की तरह एक दूसरे को बधाइयां देते हुए बरामद किये जा सकते हैं


बहरहाल कहना न होगा कि उनके बीच मूल-समस्या 'महानता' के निर्धारण की है
सबके अपने-अपने महान हैं , और गाहे-ब-गाहे जिनका 'महा-मस्तकाभिषेक' चलता रहता है
सबके अपने-अपने 'कुलश्रेष्ठ' हैं तथा यह चेतावनी जारी कर दी गई है कि उनके 'रचे हुए' की 'मौलिकता' और 'महानता' के प्रति सभी प्रकार की आशंकाओं को पूर्णत: स्वाहा करने के बाद ही कोई उनकी कविता के निकट आये
यह आकस्मिक नहीं कि, कविता के कुछेक 'कुलशील' तो ऐसे भी हैं, जो ऐसे अप्रत्याशित खतरे का पूर्वानुमान लगा कर अपने काव्य-कुटुम्बियों के सदस्यों की कविता के विषय में होठों को 'अद्रभुत' शब्द से ही खोलते हैं
और यदि उनके लिए इस शब्द को प्रतिबंधित कर दिया जाये तो वे हमेशा के लिए गूंगे ही हो जायें


यह अब कतई विस्मय की बात नहीं कि कविता के क्षेत्र् में 'प्रतिमान' शब्द को अब पूरी तरह लज्जास्पद बना दिया गया है
और आलोचना-दृष्टि की बात करने वालों को ताकीद कर दी गई है कि वे इस शब्द से एक किस्म की 'हाइजीनिक-डिस्टेंस' बनाकर रखें
यह अवश्यम्भावी है, ताकि आप 'समझ की रूग्णता' के शिकार होने से बचे रह सकें
......कहना न होगा कि अब उस 'काल' की तो कभी की अन्त्येष्टि हो चुकी है, जिसमें कभी कविता के नये पुराने 'प्रतिमानों' की कागारौल मची रहती थी
अब 'प्रतिमान' नहीं बस 'पैराडाइम' हैं, जो साहित्य में पूर्व 'प्रतिमानों' के मरणासन्नता की सर्वज्ञात सूचना है
'पैराडाइम' सुविधाजनक प्रविधि से 'दाये' या 'बाये' शिफ्ट होता रहता है
हालांकि, एक 'विचारधारा' के पराभव के पश्चात बायीं तरफ शिफ्ट होने में किंचित अड़चनें उठ आती हैं
अत: अब किसी भी कोण के शिफ्ट को अनिवार्यत: बायां ही मान लिये जाने का अभूतपूर्व और अघोषित प्रस्ताव है
और, अब वामांगियों को विषयवस्तु बनाकर जो कुछ भी रचेगा, वह स्तुत्य ही होगा
चूंकि यह 'दबी हुई अस्मिताओं' का उदयकाल है
कुल मिलाकर निश्चय ही 'घनमंथन' की इस परिस्थिति की निर्मिति में वामालोचना की वयोवृद्घावस्था ने भी काफी हद तक इमदाद की है
फिर नव-उदारवाद के आगमन के साथ ही उन्हें अवकाश पर भी भेज दिया गया है


बहरहाल, 'कथादेश' के दो अंकों में कदाचित् साहित्य में पहली दफा ''कविता और पोर्नोग्राफी'' के अप्रत्यक्ष गठजोड़ पर हो रही इस तरह की जिरह को पढ़कर मुझे साठ के दशक की यूरो-अमेरिकी गर्ली-मेगजींस का स्मरण हो आया, जिनमें पोर्न-इंडस्ट्री की पूंजी लगी हुई थी
यह प्रिंट में पोर्न को प्रविष्टि दिलाने का ही सुविचारित उपक्रम था, ताकि उसे एक यथेष्ट कानून-सम्मत हैसियत हासिल हो सके


उन महिला पत्रिकाओं में उनके सम्पादकीय एकांश के कर्मचारी ही हर अंक में नित नये नामों से चिट्टिठयां लिखा करते थे
पत्र्-सम्पादक नामक स्तंभ में वे स्वयं ही स्त्रियां बनकर अपनी यौन संबंधी समस्याओं के विषय में विस्तार से निर्भीक भाषा में लिखते थे कि उनके स्तन का आकार या कुचाग्रों का रंग ऐसा-वैसा होता जा रहा है
योनि संकुचन की शिथिलता बढ़ गयी है...संसर्ग में आनन्द का चरमोत्कर्ष चला गया है.....'बताइये मैं क्या करूं ?' बाद में वे ही ऐसे प्रश्नों के सन्दर्भ में 'विज्ञान का मुखौटा' लगाकर मिथ्या-गंभीरता के साथ उत्तर तैयार कर के छापते थे, जो उत्तरोत्तर, भाषा के 'सेन्सुअस-इडियम' से अलंकृत किये जाने लगे कि जिसके चलते स्त्रियों से ज्यादा पुरूष पाठकों के 'यौनिक-आनंद' का पाठ-विस्तार होने लगा.

रति रोगों की समस्या के समाधान के बहाने , धीरे-धीरे इन पत्रिकाओं में सेक्स को इतना 'ट्रांसपेरेण्ट' बनाया जाने लगा कि हिन्दी के हमारे 'खुला खेल फरूक्काबादी' वाले जुमले का सफल चरितार्थ होने लगा अब युवतियां पुरूष मित्रों से अपने संसर्ग की इच्छा समस्या और सलाह को समूचे सांस्कृतिक संकोच को तोड़कर रखने लगी और जब आर्गेज्म को लेकर समस्याएं रखी जाने लगीं तो थोड़े ही वक्त में वे पत्रिकाएं लगभग 'सॉफ्ट पोर्न' की रूप-सज्जा में आ गयीं और उन्होंने बिक्री के मार-तमाम अकल्पित कीर्तिमान बनाने शुरू कर दिये....... बहरहाल, दुर्भाग्यवश प्रिंट में हमारे यहां स्त्री-यौनिकता का ऐसा सार्वदेशीय खुलापन हासिल करने में मार-तमाम कई अड़चने थीं, लेकिन भला हो कि भारत में एड्स का छींका सौभाग्यवश अमेरिका के 'सेण्टर फॉर डिसीज कण्ट्रोल' की कृपा से ऐसा टूटा कि हम बहुत जल्दी उन तमाम गर्ली-मेगजींस को पछाड़ने की हैसियत में आ गये 'नाको' के कण्डोम-प्रमोशन कार्यक्रम ने इस उपलब्धि में आशाजनक अभिवृध्दि की । ये माध्यमिक शाला के बच्चों तक में ज्ञानार्जनार्थ वितरित किये गये बिल क्लिण्टन के भारत आगमन पर बैंगलोर में कण्डोम के स्वागत द्वार बनाये गये टेलिजेनिक पिता विज्ञापनों में अपने सुपुत्र् को एड्रस नामक महारोग से बचाने के लिये उसकी जीन्स की जेब में चुपचाप कण्डोम रखकर अपनी विज्ञानवादी भूमिका में आ गया बदचलनी बदलकर उत्तर-आधुनिक जीवनशैली कहलाने लगी । मांए सैक्सी कहला कर दर्पवती होने लगीं
वस्त्र देह पर गनीमत होने लगे । फैशन ने भारतीय स्त्री की देह का नया लोकार्पण किया । प्रोढ़ाओं का यौनिक-निजता को ढांपते रहने वाला पल्ला उड़ा और युवतियों के लिये 'डॉगी-फक' की फैण्टसी फार्म करने वाली जीन्स की 'बैक-फिटिंग' आने लगी । यह पोर्न इंडस्ट्री के भारत में प्रवेश पूर्व का प्रशस्तीकरण-प्रक्रिया थी । क्योंकि जितनी विदेशी पूंजी के लिए हमने अपनी अर्थ-व्यवस्था के दरवाजे खोले, उससे कई गुना राजस्व चीन अमेरिका से सेक्सटॉयज के व्यापार से अर्जित कर लेता है । एक हम हैं कि इस क्षेत्र् में ठिठके और ठहरे हुए हैं फिर हमारे यहां सेक्स-वर्जनाओं की बहुत सारी बाधाएं हैं । वे स्पीड ब्रेकर्स हैं । यदि इसे एक गतिमान समाज बनाना है तो उनकी 'सिद्घान्तिकी' बताती है कि 'सामाजिक आघात' ही 'सामाजिक विकास' है । भारत को इस दिशा में शीघ्र ही कार्यवाही करना है  कहना न होगा कि बाजार के वर्चस्व के बढ़ने के साथ ही यह सम्भव भी होने लगा है । सांस्कृतिक संकोच की बिदाई बेला का पूर्वरंग है ।

जब भाई आशुतोष कुमार ने अपने आलेख में पोर्नोग्राफिक होने के लांछन से इरादतन बदनाम की जा रही हिन्दी की श्रेष्ठतम कविताएं उद्धृत कीं तो सचमुच ही मैंने उन्हें पहली बार अविकल रूप में पढ़ा और पाया कि हिन्दी में कैंसर एक नयी 'काव्य-युक्ति' बनकर ऐन्द्रिकता से निर्विघ्न क्रीड़ा के लिए ''उपर्युक्त नई और निर्द्वन्द संकोचहीनता'' के साथ मनोवांछित स्पेस निर्मित करने में सफलतापूर्वक इमदाद कर रहा है । यह रोग और कविता के मध्य नया सहकार है जो कविता की दुनिया को पहली बार इस सूत्र् से सेन्सुअसली सम्पन्न बना रहा है ।

बहरहाल , अब हम 'स्तन' नामक कविता के आन्तरिक स्थापत्य को देखें तो वहां, उसकी आरंभिक चालीस पंक्तियां प्रकारान्तर से 'प्लेजर विथ बेबी बूब्स' का ही वितान रचती है । अत: 'स्तन' कविता की संरचना के बारे में यदि मैं अपनी स्थानीय मालवी बोली में बताऊं तो कहना होगा, 'ये तो मांड्रणा में टिपकी धर देणे का काम है । ' अर्थात् आप मांडना तो अपनी मन-मर्जी का चाहे जैसा बनाइये बस उसके अंत में कहीं 'टिपकी' (बिन्दी) लगा दीजिये । यह आपके किये धरे को 'अनालोच्य' बनाने की चतुराई होगी । यह आपके 'चित्रवण' को लेकर उठ सकने वाली किसी भी किस्म की आपत्तियों को छीन लेगी । इसलिए कविता में अपनी आरंभिक-संरचना में कवि कुचों से पूर्वरंग की तरह कितनी ही किस्म की 'कुचमात' करता रहे और चाहे कविश्रेष्ठ के लिये यही कविता का आत्यन्तिक अभीष्ट भी हो, लेकिन अंत में करुणा का तिनके की आड़ की तरह उपयोग कर लीजिए
यह आलोचना के खतरे से परिचित होना तथा संभावना को सफलता से दुहना होगा । यह आपत्ति उठाने के लिए मुंहतोड़ उत्तर का आधार होगा । क्योंकि 'करुणा का आचमन' अवशिष्ट की भी शुद्धि करके उसे स्वीकार्य बना देगा । दरअसल कविता में यह अपनी 'चतुराई पर आश्वस्त' कवि का स्वयं को जरूरत से ज्यादा मेधाग्रस्त समझ लेने का संकट है ।

यह पुरुषवादी नहले पर , स्त्री-वादी दहला मारने की तसल्ली है ।

दूसरी कविता 'ब्रेस्ट कैंसर' है । दोनों ही कविताओं में 'दुद्घुओं' से भाषा से भाषा में पैदा किये जाने वाले खेल में स्वयं को पारंगत समझने वाले कवि का युक्ति-प्रदर्शन है । शायद इसे ही विटगेंस्टाइन ने 'भाषा के छुट्रटी पर जाने से पैदा हुई मौज' कहा है । यहां कविता में मौज ही प्रतिपाद्य है । यहां ध्यान देने की एक महत्वपूर्ण बात और भी है । देखें कि दोनों ही सर्जक अतिरिक्त रूप से सतर्क हैं कि वहां कहीं शिशु न आ धमके । क्योंकि कविता में आते ही वह कमबख्त दुधमुंहा उसकी 'अमानत' होने के दावे को खारिज कर देगा, क्योंकि 'जैविक-रूप' से तो वे उसकी ही अमानतें हैं । उन पर उसका 'बॉयोलॉजिकल-'पजेशन' है । उसके जीवन-मरण का प्रश्न जुड़ा है उनसे । वह सस्पेन्शन ऑफ सेक्‍सुएल्टी की अवांछनीय-स्थिति निर्मित कर देगा । कविता में व्यर्थ ही 'यौनिकता' और 'मातृत्व' का द्वैत खड़ा कर देगा । क्योंकि अभी तक संसार में कहीं भी ऐसी स्त्री का बिम्ब नहीं है जिसमें 'मैथुन और मातृत्व' एक साथ रख दिये गये हों । यहां तक कि कोई पोर्नोग्राफर भी ऐसा धृष्टतम दुस्साहस नहीं कर पाया है कि स्तनपानरत स्त्री को सम्भोगरत चित्रित कर दे । न कहो 'सृजनात्मक-स्वायत्तता' को वर्जनाहीन धु्रवान्त तक ले जाने का जो नया स्त्रैण-शौर्य ऐसी कविता में देह के जिस चातुर्य के साथ दिगम्बरत्व का दिग्दर्शन करा रहा है वह कुछ भी करवा सकता है
बहरहाल , स्त्री स्तनों के साथ वहां , कविता से धात्री के रूप में तयशुदा ढंग से विस्थापित कर दी गई है । केवल कुचवती है , जो स्त्री को केवल शिश्न-कीलित ऑब्जेक्ट में अवघटित कर देता है ।

कविद्वय जानते हैं कि वस्तुत: बच्चा कविता में दाखिल होते ही कविता के निर्धारित स्थापत्य को ध्वस्त कर देगा । उसकी किलकारी से कविता कामाश्रयी होने की रंजकता से हाथ धो बैठेगी । यौनानंद का नियोजित 'उपादानी वृत्त' टूट जायेगा । वह 'रमणीत्व' की ऐन्द्रिकता से पैदा होने वाले 'सुख मे प्रवंचना' खड़ी कर देगा । इसलिए स्पष्टत: दोनों की कविता का अभीष्ट भिन्न नहीं है । अलबत्ता, दूसरे नम्बर की कविता पहले नम्बर की कविता को चुनौती देती है जैसे कहती है, ''यह विषय स्त्री का है, कवि बाबू ! अत: देखो, एक नयी स्त्रैण युक्ति से ऐसे विषय पर कविता की चमकीली गढ़न्त कैसे संभव होती है । आओ , मैं बताती हूं । '' इस कविता में पवनकरण की कविता को पीछे छोड़ने का सृजन-संकल्प है । यह पुरुषवादी नहले पर स्त्री-वादी दहला मारने की तसल्ली है । पहली कविता की अपेक्षा यहां इस कविता में सर्जक के पास अपने 'स्त्री-वर्चस्व' की निर्भीकता भी है । वह निर्द्वन्द होकर कुचों से क्रीड़ा रचती है । यह 'माय वैजाइना माय रूल' की पोर्नोग्राफिक मुनादी का साहस है . जिसके चलते स्त्री की यौनिक-निजता का पोर्न-उद्योग के व्यापक हित में लोकार्पण कराना संभव हुआ था ।

पहली कविता में तो मात्र् एक को ही खो देने का हादसा था । यहां एक के बजाय दोनों को खो देने से कवि के लिये कविता में 'क्रीड़ा का वृत्त' वृहद होने की गुंजाइशें बनीं । यह मेसेक्टटॉमी पर एकाग्र कविता है । यहां मेरा मन्तव्य दोनों कविताओं के बीच तुलना करने का कतई नहीं है । 'श्रेष्ठ' और 'श्रेष्ठतर' के पंगे का प्रश्न मेरे लिये सर्वथा निर्मूल है । यह कवि बिरादरी के कौटुम्बिक कलह का आन्तरिक प्रकरण है । पर दूसरी कविता में स्त्री में रजोनिवृत्ति के बाद सेक्स को लेकर जो खिलन्दड़पन अपने पूर्ण प्राकट्रय पर होता है, उसका भी यथोचित योगदान है । घरों में हमें रजोनिवृत प्रौढ़ा चाचियों मासियों व बुआओं की नवोढ़ाओं से होने वाली चुहल में इसके स्पष्ट दर्शन मिलते हैं ।

बहरहाल तुलनाएं सिर्फ उनके मंसूबों की है , जो कि अपनी प्रकृति में 'रचना-साम्य' के लिये दोनों सर्जकों को पूर्णत: वशीभूत कर के रखते हैं । क्योंकि दोनों ही कवि 'गोपन' को खोलने की 'थ्रिल' को करुणा के कतरों से छुपाने का स्वांग रचते हुए , उन्हें खोलकर उनसे खेलने को ही अपना 'काव्याभीष्ट' बनाते हैं । वही उनका और कविता का प्रतिपाद्य है । यहां नवगीतकार नईम की बात याद आ रही है , जिसमें वे गोश्तखोरी की ओर संकेत करते हुए कहते हैं , ' ईद-बकरीद बस तो बहाना है । ' यह वैसा ही चातुर्य है, जो करुणा का कारोबार करते हुए फिल्मों के पेशेवर लोग दृष्य-भाषा के माध्यम से दर्शक की 'यौनेत्तजना' से इस तरह खेलते हैं कि दृश्य से आंख से ज्यादा अन्तर्वस्त्र् भीग उठें ।

निश्चय ही ऐसे में टिप्पणीकर्ता ने इसमें चतुराई से छुपा ली गई 'पोर्नोग्राफिक-नीयत' को पढ़ लिया । उसके पाठ को महान रचनाओं पर 'पोर्नो' होने के लांछन लगाना मानते हुए कविता बिरादरी के पारखियों का एक समूह सहसा तमतमा उठा
दरअसल , पोर्नोग्राफर शब्द के सहारे चित्रात्मक ढंग से 'मिथ्या-यौन तुष्टि' की तरफ ले जाता है । जबकि, 'विजुअल-लैंग्विज' का पोर्नोग्राफर धीरे-धीरे स्त्री को राजी करता है, स्वयं को खोलने के लिए
वह स्वयं को खोलती है और बाद इसके, खुद से खुलकर खेलने लगती है । अपनी यौनिकता भर से नहीं , यौनांगों से खेलते हुए वह 'अन्य' को 'आनन्द' का उपभोक्ता बना लेती है , जो फ्रेम और टेक्स्ट से बाहर है । उसमें पीड़ा और प्रश्नों से भरा कोई सांस्कृतिक संकोच नहीं होता । उसका खिलन्दड़ापन ही माल का सौंदर्यीकरण है । वह जितना खेल के वृत्त का विस्तार करेगी , उतना ही वह उपभोक्ता की तसल्ली का दायरा वृहद बनता जायेगा .यह 'ब्रेस्ट कैंसर' के लेबल के साथ 'वुमन-सेक्सुअल्टी' की सेंसुअसनेस की पण्य-उद्देश्य के लिये की गई प्रीतिकर पैकेजिंग है
इन बातों को ध्यान में रखकर देखें तो लगता है, यहां कविता से मंजा हुआ चातुर्य झलकता है । इस कविता का कवि कुचों को उम्र के दस वर्षों में ले जाता है । पहाड़ों पर चढ़ता है । दूध की नदियां बहाता है । पहाड़ खोद कर चुहिया को पकड़ कर लाता है । ज्वैलथीफ के फिल्मी-स्मगलर की तर्ज पर वहां से हीरे निकालता है -- यानी एक शब्द की छाया से दूसरे शब्द की तरफ फलांगते हुए , कई-कई तरह से 'दुद्घुओं' से पर्याप्त दिलेरी के साथ खेलता है । वह कभी उन्हें एब्सट्रैक्ट में ले जाता है फिर कंक्रीट में ले आता है । मुहावरे के परम्परागत अर्थ की छांह में छुपता है और फिर अर्थ से बाहर निकल कर 'अनर्थ का आनंद' पैदा करता है । यह शब्द में सेक्सुअल की सोलो पर्फार्मेंस है । एक 'इमेजिनेटिव सिन्थेसिस' से 'भाषान्ध' बनाने की अचूक तकनीक है ।

हमारे समीक्षकों का वृद्घ-वृन्द जो अपनी तकनीक-विरक्त दयनीयता को ''स्वयं के भीतर बचा कर रख ली गई मनुष्यता'' के रूप में विज्ञापित करता है । वे नहीं जानते कि ये 'मौलिकता' की कथित 'मार्मिकता' से भरी कविताएं सिर्फ सिन्थेटिक कविताएं हैं-जो साइबर स्पेस को खंगालते रहने की अभ्यस्तता से बहुतेरी गढ़ी जा सकती हैं । इस खदान से कविता के कई चमकीले हीरे जवाहरात निकाल कर उसकी द्युति से हिन्दी आलोचना के अधिपतियों को अभिभूत करते हुए 'भाषान्ध' बनाया जा सकता है
आप गूगल का आश्रय लेकर 'ब्रेस्ट केंसर' को लेकर लिखी गयी कविताओं की राई ढूंढने जायेंगे तो वह आपके कम्प्यूटर के डेस्कटॉप पर राइयों का पहाड़ लगा देगा । आप अपने माउस की मदद से उस पहाड़ में से कविता के काम की चुहिया निकाल लीजिये । भाषा की इतनी पूंजी तो आपके पास होनी ही चाहिये कि चुटकी भर 'रसना' से आप बारह गिलास बना लें
......वहां एक नहीं दोनों स्तनों की शल्यक्रियाओं से की जाने वाली 'बाई-लेटरल मेसटक्टॉमी' पर अलग से कविताएं भरी पड़ी हैं, जिनका किसी भी साहित्यिक दृष्टि से कोई काव्य-मूल्य नहीं है । वहां 'गेट-वेल' पोएट्री है, जो रस्मी तौर पर रोगियों के बीच नर्सों और शुभाकांक्षी-समूहों द्वारा अस्पताल के वोर्डों में वितरित की जाती हैं, ताकि उनकी जिजीविषा और आत्मबल बढ़े
वे रोगी के लिए की जाने वाली लैंग्विज-थैरेपी का हिस्सा है । वहां हर किस्म की व्याधियों पर लिखी गई कविताओं का जखीरा भरा पड़ा है, जिसको उठाकर कोई 'चतुर कविताभ्यासी' अन्य रोगों पर हिन्दी के वृद्घ समीक्षकों को चमत्कृत कर डालने वाली कविताएं थमा कर , महानता की कतार में खड़े होने के लिए , उनके हाथों से इतिहास के दरवाजे का गेटपास छीन सकता है
'वी ऑर क्रैक्ड पॉट्रस' रजस्वला होने के साथ स्त्री से जुड़ जाने वाले नियमित रक्तस्राव को लेकर तंजिया कविताएं हैं । रजोनिवृति पर भी मसखरी करती कई कविताएं हैं । और तो और आप मासिक धर्म के रक्त से सने सेनेट्री नेपकिन को लेकर कविता और पेण्टिंग्स दोनों ही बरामद कर सकते हैं । पेण्टिंग में अचानक कर दी गई मूर्खता जैसा भी सौन्दर्य नहीं है । वहां 'दुद्घू' और 'पद्दू' पर भी पोएट्री है । बहरहाल कई कई तरह की बीमारियों की सनसनी और सच्चाई से लथपथ ऐसी कई संभावनाशील कविताएं और कवि वहां हचर-हचर कर रहे हैं । सड़ांध में स्वाद निर्माण करने की व्यंजन विधि में निष्णात हिन्दी के कुछ अतिरिक्त प्रतिभाशाली कवि वहां से वांछित क्षेत्र् की सामग्री उठायें और उसमें अपने पास से 'मिथ्या-भावमयता' भर कर कई ताजा 'भरवाँ' कविताएं बना सकते हैं । वे गर्मागर्म भी रहेंगीं और आस्वाद के स्तर पर आलोचक के मुखारविन्द से विशेषणों को लार की तरह लगातार टपकाएंगी ।

कहने की जरूरत नहीं कि ऐसी तमाम चमकीली कविताएं किसी दिन मौलिकता के संदर्भ में 'विश्वास को इरादतन मुअत्तल' करने का काम करेंगी । यदि ऐसी 'सिन्थेटिक' कविताओं की फसल को आलोचना की टेढ़ी नजरों से बचाने के लिए कोई भाषा के कांटेदार तर्कों की बागड़ करेगा तो वह स्वयं संदिग्ध हो जायेगा । यह गंजे के सिर पर टोपी का इंतजाम की कोशिश कही जायेगी । ' डोंट ट्राय टू कीप द कैप्स ऑन बाल्ड हेड' ।

हिन्दी में साठ के दशक की 'अकविता'

यहां मैं साठ के दशक का स्मरण करना चाहता हूं, जब योरप में आमतौर पर और अमेरिका में खासतौर पर 'कल के विरुद्घ बिना किसी कल' वाली पीढ़ी 'विचारहीनता के विचार' की सुरंग में फंस चुकी थी । उस वक्त की अंधी कोख से जन्मी थी, 'एंटी-पोयट्री' जिसके विकृत अनुकरण में हिन्दी में 'अकविता-आंदोलन' खड़ा हो गया था । तब कविता स्त्री की जांघ में पीप और मवाद ढूंढ रही थी । कवि सड़क पर चलती हर स्त्री को छेद की तरह देख रहा था । मरे हुए बत्तखों की सी लटकती छातियों पर हस्तमैथुन से वीर्याभिषेक कर रहा था । उस समय की अमेरिकी 'एण्टी-पोएट्री' में 'ब्लैक-पोएट्री' नाम की कविता का फैलाया हुआ 'घृणा का समाजशास्त्र' अपने कपड़े उतार रहा था । नग्नता और फूहड़ता विकृति का नया कीर्तिमान बन रही थी । वह सर्जन नहीं उत्सर्जन था । साथ ही साथ अकहानियों की धमचक भी शुरू हो गई थी । जिसमें समुद्र तट की रेत में श्वेत-स्त्री के साथ संभोग करते हुए, पात्र् को 'वह अमेरिका की ले रहा है', जैसा शौर्यानुभव हो रहा था । शायद तभी धर्मवीर भारती ने 'चिकनी सतहें बहते आन्दोलन' तथा कमलेश्वर ने 'ऐय्याश प्रेतों का विद्रोह' नामक लेख बहुत आक्रामकता के साथ लिखे थे । लेकिन यहां हिन्दी आलोचना के सामाजिक विवेक की सराहना की जाना चाहिए कि उसने 'बेहतर के लिए मेहतर' की भूमिका निभाई और नाबदान को समय रहते निर्ममता के साथ साफ कर दिया था । 'विजप' ( गंगाप्रसाद विमल , जगदीश चतुर्वेदी और श्याम परमार ) की उस कवित्रयी की उन रचनाओं का आज कोई अता-पता नहीं है । लोगों को सिर्फ राजकमल चौधरी की ''मुक्ति-प्रसंग'' भर की स्मृति है । चन्द्रकान्त देवताले आदि जल्दी ही अलग हो गये थे - और स्वयं को व्यापक सामाजिक-आर्थिक परिप्रेक्ष्य से जोड़कर आज अपने समय के एक महत्वपूर्ण कवि होने का सम्मान अर्जित किये हुए हैं ।

इसकी वजह यही थी कि आलोचना के पास तब व्यापक सामाजिक-आर्थिक संदर्भों में सृजन को नाथने का प्रतिबद्घ संकल्प था
कुछ निश्चित प्रतिमान थे । लगता है दुर्भाग्यवश वैसी साहसिक आलोचना अब नहीं रह गयी है । नयी 'दमित अस्मिताओं’ की अभिव्यक्ति के नाम पर आ रही ऐसी फूहड़ता के बारे में कुछ भी बोलते हुए आलोचना की अब घिग्घी बंध जाती है ।

आलोचना गोलमोल भाषा में अपना छद्रम-वक्तव्य देकर बच निकलती है । या फिर मारे डर के वह उल्टे उनकी आरतियों और स्तुतिगान की तैयारियों में जुट जाती है ।

दरअसल सृजनात्मकता के क्षेत्र् में ऐसी दारुण दयनीयता इसलिए भी आ गयी है कि वामपंथ के पराभव के पश्चात के इस उत्तरआधुनिक दौर ने आलोचकों के हाथों से वे उपकरण छीन कर घूरे पर फेंक दिये हैं, जिनसे वे 'सृजन' को कठोरता के साथ कसौटी पर रखते थे । तब वे समूचे सृजन क्षेत्र् को विचार से दहकते सवालों को नोंक पर रखते हुए पूछते थे '' तुम्हारे पैमाने और प्रतिमान क्या हैं ? '' पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है ? '' लेकिन , बकौल नोम चोमस्की 'अब राजनीति एक बड़ा निवेश हो गयी है और हरेक की जेब में अब अपने-अपने सुभीते और साइज का जनतंत्र है । अब मार्केट-फ्रेण्डली फ्रीडम का फण्डा है । चयन को ही सृजन की स्वतंत्रता की तरह बताया जा रहा है । इसलिए कविता व्यापक जन-संदर्भों के सवालों से मुक्त हो गयी है । नतीजतन कवि तथा कविता में कैरियरिज्म' ने 'विषय वैचित्र्य' की अनियन्त्रि‍त लिप्सा भर दी है । वह वहां जाना चाहता है, जहां कभी कोई गया नहीं और कोई जाएगा भी नहीं । यह संस्कृत के 'अगम्यागमन' का ही संकल्प है । वही अब नया 'काव्याभीष्ट' है । फिर भारत जैसे अत्यन्त जटिलता से अंतरग्रथित समाज में सामाजिक-सांस्कृतिक निषेधों को तोड़े जाने से जो 'थ्रिल' बनती है, वह अब बहुत बिकाऊ सिद्घ हो रही है । भारतीय अंग्रेजी में ऐसे लेखन को लगे हाथ प्रकाशक सर पर उठाने के लिए आगे आ जाता है । अत: 'इनसेस्ट' अर्थात्र रक्त-संबंधियोंसे सेक्स का चित्रण बहुत सेलेबल है । याद कीजिए कि कैसे 'ब्लू-बेडस्प्रडे' के प्रकाशन का सौदा तत्काल सत्तर लाख में हो गया क्योंकि वह सहोदरा से सेक्स को चित्रित्त करता था । यदि ऐसे साहित्य को हिन्दी में अनूदित कर दिया जाये तो उसकी औकात उस पल्प-लिट्रेचर की रह जायेगी जो रेलों तथा छात्रवासों में पढ़ने भर की होंगी । हकीकत ये है कि अब 'फैशन' और 'उपभोग' साहित्य में शिफ्ट हो गया है । यह निश्चय ही 'विचारहीनता के विचार' की सर्वग्रासी अवस्था है । बहरहाल ऐसे समय में 'विचार' की बात करने का अर्थ 'दिगम्बरों' के मुहल्ले में लॉण्ड्री खोलने की जिद करना है ।

कुछ वर्षों से 'माय मॉम्स लवर', 'माय मॉम्स न्यू ब्वाय फ्रेण्ड', 'डोण्ट टेल इट टू मॉम' शीर्षकों वाली कविताओं और कहानियों ने साइबर-बिजनेस में करोड़ों की संख्या में 'हिट्स' दीं । अब तो इन टाइटिल के वीडियो आ गये हैं और उनकी क्लिप्स को अपने ब्लैक-बेरी के जरिये मित्रें को भेजना युवा पीढ़ी का नया उत्तर-आधुनिक सांस्कृतिक-आदान-प्रदान है । 'सविता भाभी' की अपने प्रेमियों के साथ सेक्स-कथा ग्राफिक्स और एनीमेशन में खासा व्यवसाय कर चुकी है । यदि हिन्दी का कोई कवि ऐसे विषयों को कविता में शामिल करके अपनी प्रतिभा के विस्फोट का चमत्कार पैदा करने लगे और हम उसकी प्रेरणा के मुख्य स्रोतों से अनभिज्ञ हैं तो यह हमारी आलोचना की सूचना सम्पन्नता की दरिद्रता का प्रमाणीकरण है । यह सामाजिक संदर्भों के इलाके का नया अंधत्व है, जिन्हें चमत्कार की चौंध ने 'फोटोफोबिया' पैदा कर दिया है । उनसे ऐसी चमक में विकृतियों की शक्लों की शिनाख्त नहीं हो पा रही है । यह उनके द्वारा गन्धाते गोबर में गालिब का दिग्दर्शन कर लिया जाना है ।

अब बिजूकों के दिन लद गये !

अब अंत में थोड़ी बातें 'ब्रेस्ट कैंसर' नामक कविता की रचयिता विदुषी अनामिका की प्रति-टिप्पणी को लेकर
टिप्पणी पढ़कर लगा कि उनमें भरपूर कवि-चातुर्य तो है , लेकिन टिप्पणी की भाषा में भी यथेष्ट चतुराई है
वे टिप्पणी के आरंभ में पहले ही अंग्रेजी की छतरी तान कर रख देती हैं । बीच टिप्पणी में डराने के लिए एक अश्वेत कवयित्री की कविता का बिजूका भी गाड़ देती हैं । लेकिन अब बिजूकों के दिन लद गये । वीरेन्द्र कुमार बर्नवाल, जिन्होंने सबसे ज्यादा अफ्रीकी तथा ब्लैक लिट्रेचर खंगाला है , वे बता सकते हैं कि वहां की हालत क्या है । रोजन कॉज ने ब्लैक कविता में जहां-तहां छितरायी हुई इस तरह की फूहड़ता की पर्याप्त सफाई की है । नेट-युग में अब ऐसे बिजूकों से शायद ही हिन्दी का कोई प्रबुध्द पाठक डरता हो । बहरहाल, वे शालिनी माथुर की टिप्पणी से जागृत अपने क्रोध की 'धधक' को कोमल के ‘कौशल' से 'केमोफ्रलैज' करती हुई , बाहर से बहुत विनम्र जान पड़ती हैं, लेकिन जिस तरह शुरू में ही बहनापे को छोड़ कर , प्रेमचन्द के भाई साहब में काया प्रवेश करते ही , उनके भीतर की उस ज्ञान-वर्चस्व प्रदर्शन की लालसा लगे हाथ लपक कर बाहर आ गयी , वे अपनी सहोदरा की विवेचनात्मक टिप्पणी को 'कोसने और कलपने' का पर्याय बता कर उसे खारिज करने का अप्रकट उपक्रम करती हैं । फिर कविता के स्वभाव को स्त्री का स्वभाव का पर्याय बताने लगती हैं । हालांकि कविता का अगर यही स्वभाव है, तो उन कविताओं का क्या होगा, जो गरेबान पकड़ कर सच को उगलवाने के लिए आगे आती रही हैं ? खैर ऐसे में मुझे सहसा भोपाल स्कूल की समीक्षा-भाषा के स्वांग की याद हो आयी । जहां स्वामीनाथन की कलाकृति या कृष्णबलदेव वैद की कहानियों पर बातें शुरू करते हुए कहा जाता था 'उनकी कृति का कहें कि प्रकारान्तर से क्वचित् यह स्वभाव ही रहा आया है कि वे पाठक से सहसा सम्वाद के लिए तैयार ही नहीं होतीं । अपितु वह उसकी तरफ इरादतन अपनी पीठ फेरे रहती हैं
उन्हें शनै: शनै: राजी करना होता है
' ज्ञान चतुर्वेदी ने इस चतुराई पर अपनी निर्मल विनोदी टिप्पणी में कहा 'क्या ये यह कहना चाहते हैं कि इनकी कृतियों को औरतों की तरह पटाने की जरूरत होती है ? यानी पाठकजी आयें फिर कविताजी की पीठ पर हाथ फेरें । गुदगुदी करने लगें । तब न कहो कविता जी बुरा ही मान जाएं । तब क्या होगा ? ..........बहरहाल, गनीमत थी कि वे अपनी टिप्पणी में मिथिला तक ही गई और खजुराहो या अजंता-एलोरा की गुफाओं में नहीं घुसीं । वर्ना जब भी हमारे यहां यौनिकता के फूहड़पन पर टिप्पणी की जाती है, तो विद्वज्जन तर्काकाश में उड़ कर तुरत वहां पहुंच जाते हैं । और उनकी ही छत्तों और शिखरों पर चढ़ कर टीवी एंकर्स की तरह बोलने लगते हैं--ये देखिये .. यहां पत्थरों में मूर्तियों के स्तन भारी हैं , इनके नितम्ब भी भारी हैं और ये सम्भोगरत भी हैं........अब आप ही बताइये कि क्या ये अश्लील हैं ?

आगे देखें ... वे दृष्टि में मर्दवाद के महीन लांछन के लिए टिप्पणीकार को 'शालिनी बाबू' भी कहती हैं । उन्हें ईसा का क्रूसीफिकेशन भी याद हो आया । यहां तक कि लगे हाथ फासीवाद तक भी याद आ गया । टक्कर के पुरुष और स्त्री की यौनिकता जगा पाने की जैविक चुनौतियों के पार्श्व में खड़े 'आर्गेज्म' को भी वे टिप्पणी में ले आयीं है । पोर्न का सारा व्यवसाय ही 'आर्गेज्म' को रचने या आविष्कृत करने की प्रविधि पर ही टिका है । कहना ना होगा कि किसी दिन ऐसे ही 'पवन-वेग' से भरा कोई नया 'अतिरिक्त-प्रशंसा का शिकार' हिन्दी कविता का नया सम्भावनाशील हस्ताक्षर अपनी बाजारीकृत दिव्यता के साथ इस विषय पर अनामिका और पवन को पछाड़ता हुआ दृश्य में अपना कीर्ति कलश स्थापित कर सकता है ।

कुल मिलाकर कविता की इन विदुषी की प्रति-टिप्पणी पढ़कर मुझे लगा कि उनके भीतर क्रोध का छुपा हुआ तारत्व तो इतना है कि यदि उनके पास भाषा का कोई बघनखा होता तो वे चतुराई से ऐसी टिप्पणी का पेट चीर कर उसकी अंतडि़यां निकाल कर बाहर कर देतीं ।

मुझे उनकी ऐसी चतुराई देखकर संयोगवश हमारे गांव में हर वर्ष दीवाली के समय आने वाला एक अत्यन्त दक्ष तमाशबीन याद आता है, जिसको सामने जमीन पर रख गया सिक्का उठाना होता था तो वह पहले उस सिक्के के चारों ओर दौड़-दौड़ कर बनेठी घुमाता । फिर हवा में कोड़ा घुमाकर खुद की पीठ पर भी मार लेता बाद इसके उस सिक्के के ऊपर से चारों दिशा में से पचीसों गुलांटियां लगाता रहता और थक कर अंत में उस सिक्के को उठाता था
कुल मिलाकर, वह इन करतबों के प्रदर्शन से दर्शकों में यह बोध पैदा करने की जुगत भिड़ाया करता था कि कितने-कितने जतन के बाद पहुंच पाया है वो सिक्के के पास
यह संघर्ष का हासिल है
भोपाल में अशोक-युग के 'पूर्वग्रह' में कविताओं की समीक्षा की यही प्रविधि होती थी
इस प्रविधि के अनुकरण से हिन्दी में कई प्रतिभाग्रस्त समीक्षक पैदा हुए जिन्होंने कई तिलों में 'ताड़त्व' और वामनों में 'विराटत्व' भरने की कोशिशें कीं
वहां समीक्षा भाषा में गंभीरता का 'उर्ध्‍व-उत्कीर्णन' होता था
कविता 'प्रश्नकीलन' करती रहती थी
आलोचना में शब्दाम्बर की इस वृत्ति पर ज्ञान चतुर्वेदी ने एक टिप्पणी भी लिखी थी - '’प्रश्नकीलन से उत्पन्न अर्थ-सीलन‘’
जिससे कविता की कठिनता की विवेचना के लिए और और कठिन भाषा में लिखी जा रही समीक्षा भाषा पर उपालम्भ था
उसमें एक पंक्ति थी कि '' कहीं ऐसा तो नहीं कि गोरखपुर का कल्याण अपने नये गेट-अप में भारत-भवन से निकलने लगा हो और मैं गलती से वही उठा लाया होउं ? ''

दरअसल , यह भाषा की चतुराई की सतही इलेक्ट्रोप्लेटिंग है
यह ऐसी कलई है, जो पढ़ते ही खुल जाती है
मुझे काव्य-विदुषी अनामिका की कविता तथा टिप्पणी के तिलस्म को देख कर भवानीप्रसाद मिश्र की एक काव्य पंक्ति याद आ गयी -''चतुर मुझे कुछ नहीं भाया , ना स्त्री , ना कविता
'' चतुराई निश्चय ही आपके चिंतन और अभिव्यक्ति दोनों को ही संदिग्ध बनाती है
एक कवि को अपनी कविता पर स्वयम् ही स्वस्थ-संदेह करना आना चाहिये कि क्या रूग्णता पर लिखी ऐसी सिन्थेटिक कविता मृत्यु के भय या विभीषिका के विरूद्घ खड़ी रह सकती है ? '’ हलो ! कहो कैसे हो । कैसी रही ? ‘' की मसखरी क्या मृत्यु से निबट सकती है
वे पाठकीय विवेक का गलत आकलन कर रही हैं


हालांकि जीवन में अपनी रचनात्मकता के बीच हर बड़ा रचनाकार, एक बार 'ईश्वर', 'समय' और 'मृत्यु' से भिड़े बगैर नहीं रहता है
अलबत्ता ये कि कोई भी इन तीनों से भिड़े बिना बड़ा ही नही होता
न वह , न उसकी रचना
क्योंकि ये तीनों प्रश्न शताब्दियों से कला और साहित्य क्षेत्र् के रचनाकर्म के लिए चुनौती की तरह बने रहे हैं । यदि इन दो कवियों की कविता इतनी बड़ी हैं तो फिर इस बात का कैसा डर कि उनके विरोध में मात्र एक टिप्पणी के प्रकाशन से इतनी थरथरा गयीं कि उस कविता को बचाने के लिए हांक लगानी पड़े और वो लोग आपातकालीन सहायता के लिए दौड़ पड़े जो इन दो कविताओं की रक्षा के प्रश्न से 'कीलित' हैं । बहरहाल जरा गौर से देखें तो यह प्रकरण वस्तुत: पोर्न के आक्षेप से बचने भर की हलातोल नहीं है । इसे लोक-विवेक से जांचें तो समस्या बुढिया के मरने के अफसोस की नहीं बल्कि चिन्ता तो यह है कि मौत ने घर देख लिया है । इसलिये काव्य-कुटुम्ब की घबड़ाहट अनुचित तो कतई नहीं है । उन्हें डर है कि ऐसी दंश मारती 'शालिनी-भैया मार्का' आलोचना का कैंसर अन्य कविताओं के भीतर भी वायरस की तरह घुस जायेगा । तब तो ऐसी 'कैंसर-कीलित' कविताओं की उत्तरजीविता ही संदिग्ध हो जायेगी । बहरहाल जो कविता ऐसी टिप्पणी के खिलाफ नहीं लड़ सकी तो वह कैंसर के खिलाफ कैसे और कितनी दूर तक लड़ पायेगी ?

हैलन गार्डनर ने कहीं लिखा था 'सच्चा समालोचक कभी कवि पर छत्र् लगाकर नहीं चलता ' लेकिन यहां तो समालोचक छत्र् ही नहीं, रक्षा-पाठ व उसका पारायण करता हुआ अंगरक्षक बन जाता है । कवि पर पुरस्कारों की बौछारें भी कर दी जाती है । इससे कविताओं को आलोचना का अभयदान प्राप्त हो जाता है । वे कविता के कवच-कुण्डल बन जाते हैं । जबकि हकीकतन , जो प्रसंशाएं कवि को बिलकुल आरंभ में मिल जाती हैं , वे बाद में उसके साथ बहुत बुरी तरह से पेश आती हैं , यह नहीं भूलना चाहिए ।

सृजन के क्षेत्र् में एक बात यह भी है, जिसे नहीं भुलाया जाना चाहिए कि 'महानों' के रचे हुए में भी बहुत कूड़ा होता है । प्रेमचन्द ने सात सौ कहानियां लिखीं है, लेकिन आज चर्चा में वे बस दस-पन्द्रह ही आती हैं । पिकासो का सारा 'रचा हुआ' महान नहीं है और ना ही हुसैन का । उनका बहुत सारा ऐसा है , जिसका दर्जा 'कलर्ड गारबेज' से ज्यादा नहीं है । हर 'रचा' या 'लिखा' हुआ कृति का दर्जा या कृति का सम्मान हासिल नहीं कर सकता । बर्गसाँ ने रचनात्मकता के क्षेत्र् में सर्जन के आत्म की परिपक्वता के स्तर के संदर्भ में कहा था 'टू चेंज मीन्स टू मैच्योर एण्ड टू मैच्योर मींस टू क्रिएट एण्ड रिजेक्ट अवर ओन सेल्फ । सो टू से दि प्रॉसेस आव क्रिएशन इज इनेविटेबली अ प्रॉसेस ऑफ रिजेक्शन टू । '

बहरहाल , यदि आपने सृजनात्मकता के इलाके में उतरने के बाद स्वयं के रचे हुए को रद्द करने का वस्तुगत विवेक अर्जित नहीं किया तो वक्त की छलनी खुद उसे छान कर घूरे पर फेंक देगी । गांधी के आत्म विवेक ने तो सैकड़ों बार अपनी धारणाओं को डिस-ओन कर दिया था ।

अंत में पता नहीं भाई आशुतोष कुमार इस सारी बहस में सनी लियोन को क्यों ले आये । साहित्य के बाणभट्रटों के समक्ष सिने जगत के महेश भट्रटों की-सी आर्थिक विवशताएं थोड़े ही हैं कि वे सनी लियोन का प्रतिष्ठा मूल्य बनाये । 'जिस्म-दो' में भट्रट की पूंजी लगी हुई है , अत: पोर्न इंडस्ट्री की इस ''भग-वती'' की आरती अर्चना उनके लिए जरूरी है, लेकिन हिन्दी जगत के सर्जनात्मक लोगों का ऐसा कोई पूंजी आधारित प्रोजेक्ट नहीं , जिसके चलते वे पोर्न का 'प्रतिष्ठा-मूल्य' बढ़ाने के लिए आगे आयें । आशुतोष भाई आपकी ऐसी कोशिशों से मुझे लग रहा है कि कहीं पवन करण प्रेरणा ग्रहण करके ' प्रिय पोर्न-पुत्री के नाम पिता का पत्र ' शीर्षक से कविता लिखने न बैठ जायें । क्योंकि 'सिन्थेटिक कविता' नेट-प्रसूता होतीं है । वे तुरन्त ही कवि की गोद में चढ़ने के लिये मचल उठती है ।

बहरहाल विचार के कुरूक्षेत्र में न अस्त्र की जरूरत पड़ती है, न शस्त्र की । विचार स्वयं में ही अस्त्र भी है और शस्त्र भी है । विचार से 'मगध' डरता है , ऐसी सूचना श्रीकान्त वर्मा की कविताओं से बरामद हुई थीं
लेकिन 'सृजनात्मकता' भी विचार से डरने लगे, यह ज्यादा विचारणीय है । ये खतरनाक संकेत हैं ।

दिल्ली में कविता का कहीं कोई 'मगध' तो नहीं बनने लगा है.......?
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प्रभु जोशी


जन्म: १२ दिसंबर, १९५० देवास (मध्य प्रदेश) के गाँव पीपल राँवा में।

शिक्षा: जीवविज्ञान में स्नातक तथा रसायन विज्ञान में स्नातकोत्तर के उपरांत अंग्रेज़ी साहित्य में भी प्रथम श्रेणी में एम.ए.। अंग्रेज़ी की कविता स्ट्रक्चरल ग्रामर पर विशेष अध्ययन।

कार्यक्षेत्र: पहली कहानी १९७३ में धर्मयुग में प्रकाशित। 'किस हाथ से', 'प्रभु जोशी की लंबी कहानियाँ' तथा उत्तम पुरुष' कथा संग्रह प्रकाशित। नई दुनिया के संपादकीय तथा फ़ीचर पृष्ठों का पाँच वर्ष तक संपादन। पत्र-पत्रिकाओं में हिंदी तथा अंग्रेज़ी में कहानियों, लेखों का प्रकाशन। चित्रकारी बचपन से। जलरंग में विशेष रुचि।

लिंसिस्टोन तथा हरबर्ट में आस्ट्रेलिया के त्रिनाले में चित्र प्रदर्शित। गैलरी फॉर केलिफोर्निया (यू.एस.ए.) का जलरंग हेतु थामस मोरान अवार्ड। ट्वेंटी फर्स्ट सेन्चरी गैलरी, न्यूयार्क के टॉप सेवैंटी में शामिल। भारत भवन का चित्रकला तथा म. प्र. साहित्य परिषद का कथा-कहानी के लिए अखिल भारतीय सम्मान। साहित्य के लिए म. प्र. संस्कृति विभाग द्वारा गजानन माधव मुक्तिबोध फेलोशिप।

बर्लिन में संपन्न जनसंचार के अंतरराष्ट्रीय स्पर्धा में आफ्टर आल हाऊ लांग रेडियो कार्यक्रम को जूरी का विशेष पुरस्कार धूमिल, मुक्तिबोध, सल्वाडोर डाली, पिकासो, कुमार गंधर्व तथा उस्ताद अमीर खाँ पर केंद्रित रेडियो कार्यक्रमों को आकाशवाणी के राष्ट्रीय पुरस्कार। 'इम्पैक्ट ऑफ इलेक्ट्रानिक मीडिया ऑन ट्रायबल सोसायटी' विषय पर किए गए अध्ययन को 'आडियंस रिसर्च विंग' का राष्ट्रीय पुरस्कार।

संप्रति: दूरदर्शन इंदौर में कार्यक्रम निष्पादक।

संपर्क : prabhu.joshi@gmail.com

प्रभु जोशी -- 0731 255 1719 / 094253 46356 /