शनिवार, 7 जून 2008

संस्कृति, समाज और योग










साहित्य सृजन में योग की भूमिका



जवाहरलाल गुप्त ’चैतन्य’



भारतीय संस्कृति को संपूर्ण विश्व में एक विलक्षण संस्कृति के रूप में गौरव प्राप्त है. इसे सनातन संस्कृति के नाम से भी जाना जाता है जिसका तात्पर्य है कि भारतीय संस्कृति नित्य है और जीवन्तता से परिपूर्ण भी. सच कहिए तो इस संस्कृति का यही वैशिष्ट्य है कि यह हमारी जीवनशैली और उदात्त जीवन मूल्यों को युगों से अपने कलेवर में संजोए हुए है. हम भारतीयों के लिए कितने गर्व की बात है कि जिस योग का आज सम्पूर्ण विश्व इतनी सह्रदयता से गले लगाकर स्वागत कर रहा है वह योग भारत की सबसे सशक्त और जीवन्त परम्पराओं में से है. आज जब भारत सारे संसार में आर्थिक सुधार, फिल्म, फैशन, शिक्षा, आदि विविध क्षेत्रों में अपनी धाक जमा रहा है, योग के द्वारा हमारी बहुमूल्यवान संस्कृति और इसके टूटते हुए सांस्कृतिक, सामाजिक व साहित्यिक मूल्यों को बचाया जा सकता है. कहने की आवश्यकत नहीं आजकी अर्थप्रधान-प्रतिस्पर्धा की बढ़ती हुई मशीनी जिन्दगी में सच्चाई, साहस, ईमानदारी और धैर्य जैसी बातें अर्थहीन होती जा रही हैं. चाहे वह सार्वजनिक जीवन हो या सरकारी, मनुष्य का व्यक्तिगत आचरण हो अथवा साहित्यिक संरचना, निरन्तर घटते हुए मानवीय मूल्य किसी भी जागृत मानस को आन्दोलित कर देते हैं. सच पूंछिए तो आज मनुष्यता जैसे शब्द खोखले हो चुके हैं. जहां भारत की माटी सह्रदयता, सहयोग, संवेदना और समत्व के भावों से सुवासित थी, जहां के साहित्य में सत्य, अहिंसा, करुणा, निश्छल प्रेम और निर्मल रस की गंगा बहती थी वहां छल छद्म, अहंकार, स्वार्थपटुता और कठोर ह्रदय की कालिमा ने जमकर डेरा डाल लिया है. आइए योग के आलोक में इन विद्रूपताओं के समाधान पर किंचित विचार करें.


कहावत है-- जैसा बोओगे वैसा काटोगे, जब अपने इर्दगिर्द गन्दगी का परिवेश पैदा करोगे तो वैसे ही घातक वैक्टीरिया को प्रश्रय मिलेगा और मानसिक तनाव, डिप्रेसन, ह्रदयाघात जैसे भयावह रोग स्वाभाविक रूप से पैदा होंगे. ’महाभारत’ में मनुष्य को सभी प्राणियों में श्रेष्ठतम बताया गया है. भारत की पवित्र माटी में जन्में मनुष्य का अच्छा खासा जीवन जिसमें सत्य, सौन्दर्य और शिवत्व की प्रतिष्ठा चाहिए थी और जो आज दुर्भाग्य से नर्क बनता जा रहा है उसे हम योग के नियमित अभ्यास से बचा सकते हैं. हम इस बात के लिए बड़े भाग्यशाली हैं कि हमारे पूर्वजों ने योग जैसी अद्भुत परम्परा दी. योग से वस्तुतः आज की बीमारियों के सभी निदान सम्भव हैं. योगाभ्यासी आज की रुग्ण नकारात्मक जीवनशैली को बदलकर स्वस्थ, सानन्द और सकारात्मक कर देता है. गलत दिशा में प्रवाहित हो रही व व्यर्थ में क्षीण हो रही शक्ति को योग ओजस या ऊर्ध्वागामी सकारत्मक शक्ति में परिणत कर देता है. आज जगह जगह पर सुनने में आ रहा है कि कोरियाई मशीन द्वारा लोग बड़ी तादात में स्वास्थ्य लाभ प्राप्त कर रहे हैं. इस प्रक्रिया द्वारा अनेक बीमारियों को लाभ भी मिल रहा है. इसमें मेरुदण्ड में स्थित पांच केन्द्रों पर मशीन से तीव्र उष्मा देकर उन ऊर्जा केन्द्रों से नकारात्मक ऊर्जा को सकारात्मक में तब्दील कर देते हैं और वे केन्द्र रुकी हुई ऊर्जा को प्रवाहित करने लग जाते हैं. चूंकि सब कार्य मशीन द्वारा होता है अतः लोगों का विशेष आकर्षण होना स्वाभाविक ही है. लोग सुविधाभोगी हैं तो रास्ता ही चागते हैं. अंग्रेजी गोलियां खाकर लोग पहले ही तंग हो चुके थे.



अब आपको अगर इस बारे में योग की बात कहें तो आप आश्चर्य करेंगे. सहस्रों वर्ष पूर्व हमारे पूर्वजों ने योग में चक्रों के ध्यानाभ्यास की अद्भुत साधना बताई. यह साधना है तो बड़ी सूक्षम लेकिन पूरी शारीरिक व मानसिक दशा में आमूल परिवर्तन पैदा कर देती है. लोग प्रयः योग में आसन प्राणायाम आदि को तो जानते हैं लेकिन चक्रों से कम परिचित हैं . मेरुदण्ड, जो गुदा के स्थान से चलकर ऊपर कंठ तक जाती है,इसके सबसे नीचे वाले गुदा के पास स्थित केन्द्र को मूलाधार चक्र कहते हैं. यहां से अनेकों सूक्ष्म नाड़ियां पूरे शरीर में व्याप्त हैं जो ऊर्जा को प्रवाहित करती हैं. यहीं से तीन प्रमुख नाड़ियां इडा, पिंगला और सुषुम्ना निकलती हैं जोमेरुदंड के साथ-साथ चलकर सिर में स्थित ब्रह्मरन्ध्र से जा मिलती हैं. मेरुदंड के मध्य से सुषुम्ना नाडी सीधे सिर में चोटी की जगह स्थित सहस्रार चक्र से मिलती है. बायीं नासिकारन्ध्र से इडा जिसे चन्द्र नाडी (शीतल) व दायीं से पिंगला अर्थात सूर्य नाडी (गर्म) प्रवाहित होती है. सुषुम्ना यानी मेरुदंड ही शरीर का सारसर्वस्व है. पूरे शरीर में यहीं से ऊर्जा का प्रवाह होता है. इस पर मूलाधार चक्र से लेकर सहस्रार चक्र तक सात चक्र अर्थात ऊर्जा के सात केन्द्र स्थित हैं-- गुदामार्ग से एक अंगुल ऊपर मूलाधार चक्र, जननेन्द्रिय के मूल में स्वाधिष्ठानचक्र, नाभि के मूल में मणिपूरचक्र, ह्रदय के मूल में अनाहतचक्र, कंठ के मूल में विशुद्धिचक्र , भ्रूमध्य में (दोनों भौंहों के बीच ) आज्ञाचक्र, शीर्ष पर सहस्रारचक्र. इन्हें ऊर्जा का द्वार कहा जा सकता है. ये सभी केन्द्र जब योगाभ्यास द्वारा संचालित होते हैं तो पूरे शरीर को शक्ति प्रदान करते हैं और इन्हीं पर सारे शरीर का कार्यभार है.



इस संसार में आनन्दपूर्वक जीने के लिए मूलाधारचक्र का सक्रिय होना अति आवश्यक है क्योंकि यह अनन्त शक्ति का भंडार है. इसके अवरुद्ध हो जाने से अनेकानेक बीमारियों का जन्म होता है. आसन, प्राणायाम, बन्ध, व ध्यानाभ्यास के द्वारा ये चक्र सक्रिय होते हैं. मूलाधार में प्रसुप्त शक्ति (कुंडलिनी) जगकर मेरुदंड में स्थित सुषुम्ना नाड़ी के रास्ते चलकर सिर के शीर्ष पर स्थित सहस्रकमलदल में परम सत्य का साक्षात्कार करती है तथा मनुष्य में अपार शक्ति भर उठती है. इसके लिए विधिवत साधना करनी पड़ती है. जाड़े के दिनों में सूर्य की ओर पीठ करके मेरुदंड को ऊष्मा देकर चक्रों पर ध्यान करना चाहिए. बुद्धिजीवियों को आज्ञाचक्र यानी शिवनेत्र पर प्रकाशपुंज या ओम का ध्यान करने से बड़ी उपलब्धियां होती हैं. भावनाशील भक्तों के लिए ह्रदय के अन्तरतम गहराइयों में अपने इष्ट का ध्यान करने का विधान है. कंठ पर स्थित विशुद्धिचक्र के आन्दोलित होने से विद्या व वैदुष्य की छिपी हुई शक्ति जग जाती है व रचनाकार में अद्भुत क्षमता विकसित हो जाती है. ऎसा लगता है मानॊ संपूर्ण सर्जनात्मक शक्तियों का एक पारावार उमड़ पड़ा हो. यह सब कुछ मौलिक और स्वतः उद्भूत होता है. वास्तव में ऎसी परम शान्त व सौमनस्य स्थिति में ही सच्चा साहित्य लिखा जा सकता है. क्योंकि जो लिखा जाएगा वह छल छद्म से परे बिल्कुल विशुद्ध व मौलिक होगा. ह्रदय के गंभीर भावों से सना हुआ होगा. पठनीय होगा. संगीतज्ञों, राजनेताओं, व अभिनेताओं को इससे अभूतपूर्व सकारात्मक परिवर्तन हो सकता है. आज्ञाचक्र प्र ध्यान करने से मस्तिष्क में स्थित पीनियल व पिच्यूटरी ग्रन्थियां खुल जाती हैं जिससे मेरुदंड में हार्मोंन्स का स्राव होता है. अचेतन व अर्द्धचेतन मस्तिष्क के जगजाने से विद्या व बुद्धि का छिपा हुआ रहस्य खुल जाता है. अद्भुत साधना है. योग्य आचार्य के सानिध्य में बैठकर प्रेम और धैर्य से शान्तिपूर्वक ईगो का परित्याग करके यह साधना करनी चाहिए.



जानेमाने ह्रदयरोग विशेषज्ञ डा नरेश त्रेहान हमेशा योग और ध्यान पर बड़ा जोर देते हैं और इसके अभ्यास के लिए बार-बार कहते हैं. योग में अब पहले जैसी बात नहीं रही जब लोग इसके नाम से डरते थे. योग कोई संत - महात्माओं तक सीमित रहने वाली चीज नही, यह तो आपकी जीवनशैली है.



योग में आसन प्राणायाम आदि सभी का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध है परन्तु प्राणायाम का विशेष महत्व है. प्राणायाम माने प्राण को आयाम देना. प्राण अर्थात जीवनशक्ति , वह अनमोल चीज जिसे हम सांस द्वारा ग्रहण करते हैं. प्राणायाम के द्वारा सांस के रूप में मात्र आक्सीजन ही नहीं, अपितु अन्य अनेकों तत्व शरीर के अन्दर ग्रहण किए जाते हैं जो हमारे शरीर को ऊर्जा से ओतप्रोत कर देते हैं. योगशास्त्र में हमारे शरीर में ७२००० नाड़ियां बतायी गयी हैं जो सामान्यतः मलयुक्त रहती हैं , निष्क्रिय पड़ी रहती हैं. हठयोग प्रदीपिका में कहा है -- मल से सनी हुई नाड़ियों में भला वायु को कैसे जगह मिल सकती है. ये नाड़ियां प्राणायाम करने से क्रियाशील होकर शरीर को ऊर्जस्वित ही नहीं नयी कोषिकाओं का निर्माण करती हैं, पुरानी को भी अनुप्राणित करती हैं और शनैः शनैः शरीर की रोगनिरोधक क्षमता को बढा़ती हैं. हमारा यह शरीर प्रकृति का एक विलक्षण उपहार है. यह एक दिव्य मंदिर है उसे अवांछित आहार-विहार व विचारों से अपवित्र न करें. नियमित प्राणायाम की क्रिया के द्वारा निर्मल व जीवन्त रखें. शायद इसी अज्ञानता के कारण लोगों को योग का पर्याप्त लाभ नहीं मिल पाता. प्राणायाम प्रत्येक व्यक्ति के लिए कितना अपरिहार्य है मेरे पास शब्द नहीं हैं. आज जो हम मनुष्य की पीड़ा देख रहे हैं इसके अभ्यास से बह शारीरिक व मानसिक दोनॊं दुर्बलताओं पर विजय पा सकते हैं. क्योंकि प्राण की धारा जब सहज होकर हमारे नासिकारन्ध्रों से प्रवाहित होने लगती है तो आपका विचारों के संसार से भटकाव धीरे-धीरे प्रशान्त होने लगता है. विचार माने मन जोकि ठिकाने लग जाता है. महर्षि वसिष्ठ कहते हैं कि मन के स्पन्दन के साथ प्राण प्रवाहित होता है -- (योगवासिष्ठ). इतना ही नहीं प्राण और मन के प्रवाह के साथ ह्रदय का भी गहरा सम्बन्ध है. जब हम एक बार श्वास-प्रश्वास लेते हैं तो ह्रदय चार बार धड़कता है. प्राण का प्रवाह जितना सहज होगा, मन की गति भी उतनी शान्त होगी और ह्रदय की धड़कन भी उतनी ही सामान्य होगी, और हम स्वस्थ रहेगें. जब भी मौका मिले थोड़ा अपनी सांस को देखे, इसका खूब अभ्यास कीजिए बड़ा मजा आएगा. धीरे-धीरे आप स्वस्थ, सकारात्मक ही नहीं ध्यानस्थ हो जाएगें.

Jawaharalal Gupt 'Chaitanya'

C-3/36, Sadatpur Extension, Delhi-110094
Tel. no.011-22064406

Pustak sampadan mein dilli vishvavidyalay se P.G.diploma. Penman publishers ki sthapana. Bharatiya sanskriti va yoga ki 30 se jyada pustakein america va bharat se angareji mein prakashit.Hindi va sanskrit se hindi va angreji mein anekon pustakein anoodit. Yoga mein gahari paith. yoga ke mula granthon ka anuvad. Haal mein 'tantra, mantra, yog aur spritual bliss' evam 'miraculous effects of bhuta-shuddhi and chakra meditation' prakashit.


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मोबाइल नं० ०९८९१००३२९६




2 टिप्‍पणियां:

J.L. Gupta 'Chaitanya' ने कहा…

Respected Dr Sahib
Thanks a lot for placing my aricle on Yoga in Hindi in such a nice manner.
J.L.GUPTA

Ila ने कहा…

योग सम्बन्धी इस लेख में जो जानकारियाँ हैं उनमें नया तो कुछ नहीं और वे धीरे धीरे आम जन तक पहुंचती भी जा रही हैं | कई योग गुरु और संस्थाएं इस दिशा में कार्यरत हैं | किंतु , इस तरह की जानकारियाँ यदि ब्लाग्स पर भी इस सुंदर -सहज सरल रूप में आ रही हैं तो यह एक स्वागत योग्य प्रयास है |

इला