
प्राण शर्मा की पांच लघुकहानियां
अक्ल के अंधे
प्रवीण कुमार के एक मित्र हैं--- हितैषी राय . कुछ-एक लोगों के साथ मिलकर उन्होंने एक कल्याणकारी संस्था बनायी. संस्था का नाम रखा -- 'जन कल्याण.'
हालांकि उनकी संस्था छोटी है , लेकिन उनकी भावी योजनाएं बड़ी हैं. फिलहाल उनकी योजना एक अनाथालय भवन निर्माण की है .
एक दिन हितैषी राय दान लेने के लिए प्रवीण के पास गए. बोले- "प्रवीण जी, आप मेरे परम मित्र हैं. हमारे शुभ कार्य अनाथालय के भवन-निर्माण के लिए दिल खोलकर दान दीजिए और दान देने के लिए अपने सेठ मित्रों के नाम भी सुझाइए."
दान देने के बाद प्रवीण कुमार ने नगर के उद्योगपति गिरधारी लाल का नाम सुझाया और बात-बात में यह भी बता दिया -- "गिरधारी लाल ऎसी तबियत के शख्स हैं कि दान देने के लिए उन्हें किसी मित्र के सिफारिशी ख़त की ज़रूरत नहीं पड़ती.
दूसरे दिन ही हितैषी राय अपने कुछ साथियों के साथ दान लेने के लिए गिरधारी लाल के पास पहुंच गये. रास्ते में उन्होंने अपने सथियों को सावधान कर दिया --'हमें गिरधारी लाल से यह कहने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है कि दान लेने के लिए प्रवीण कुमार ने हमे आपके पास भेजा है. खामखा प्रवीण कुमार का एहसान हम क्यों लें?
गिरिधारी लाल से मिलते ही हितैषी राय ने अपना और अपने साथियों का परिचय दिया और दान लेने के लिए भारी-भरकम पोथी खोल ली.
"हितैषी राय जी, मैंने तो आपकी संस्था 'जन-कल्याण' का नाम आज तक नहीं सुना और पोथी आप भारी-भरकम उठा लाये हैं." गिरिधारी लाल ने दान न देने की मानसिकता से कहा.
"सारा नगर जानता है कि आप दिल खोलकर दान देते हैं. आप इस नगर के राजा हरिश्चन्द्र हैं. " हितैषी राय बोले.
"पहले मैं ऎसा ही किया करता था. अब तो दान लेने वालों का तांता लग गया है. रोज कोई न कोई दान लेने आ जाता है. किसीकी अस्पताल बनवाने की योजना है तो किसी की वृद्धाश्रम . हमारे नगर में अस्पतालों और वृद्धाश्रमों को बनानेवालों की बाढ़-सी आ गयी है. बुरा नहीं मानिए, आपकी तरह कई लोग किसी न किसी योजना के साथ दान के लिए आ जाते हैं. दान लेकर वे कहां गायब हो जाते हैं, राम ही जाने. जाइये, आप किसी हमारे परिचित का पत्र लेकर आइये. हम आपको भी जरूर दान देगें."
मेहमान
घर में आए मेहमान से मनु ने पूछा --"क्या पीएगें, गर्म या ठंडा?"
"नही, कुछ नहीं." मेहमान ने अपनी मोटी गर्दन हिलाकर कहा.
"कुछ तो चलेगा?"
"कहा न कुछ नहीं."
'शराब?"
"वो भी नहीं"
"ये कैसे हो सकता है? आप हमारे घर में पहली बार पधारे हैं. कुछ तो चलेगा ही."
मेहमान इस बार चुप रहा.
मनु शिवास रीगल की महंगी शराब की बोतल अंदर से उठा लाया.
मेहमान की जीभ लपलपा उठी पर उसने पीने से न कह दी.
मनु के बार-बार कहने पर आखि़र उसने एक छोटा सा पैग लेना स्वीकार कर लिया. उस छोटे पैग का नशा मेहमान पर कुछ ऎसा तारी हुआ कि देखते ही देखते वो आधी से जिआदा बोतल खाली कर गया. मनु का दिल बैठ गया. मेहमान रुखसत हुआ. मनु मेज़ पर मुक्का मारकर चिल्ला उठा -- "मैंने तो इतनी महंगी शराब की बोतल उसके सामने रख कर दिखावा किया था लेकिन हरामी आधी से जिआदा गटक गया, गोया उसके बाप का माल था."
वाह री लक्ष्मी
"लक्ष्मी, देख लेना, एक दिन मेरा पांसा ज़रूर सीधा पड़ेगा. एक दिन मैं ज़रूर लॉटरी जीतूगां.तब मैं तुम्हें ऊपर से लेकर नीचे तक सोने-चांदी के गहनों से लाद दूंगा. तुम्हें सचमुच की लक्ष्मी बना दूंगा. सचमुच की लक्ष्मी.तुम्हें देख कर लोग दांतों तले अपनी उंगलियां दबा लेगें. अरी, दुर्योधन भी पहले धर्मराज युधिष्ठिर से जुए में हारा था. सब दिन होत न एक समान . भाग्य ने उसका साथ दिया. और वो पांडवों का राजपाट जीतकर राज कुंवर बन गया."
सुरेश के उत्साह भरे शब्द भी आग में घी का काम करते. सुनते ही लक्ष्मी तिलमिला उठती -- "भाड़ में जाए तुम्हारी लॉटरी. सारी की सारी कमाई तुम लॉटरी, घोड़ॊं और कुत्तों पर लगा देते हो . इन पर पानी की तरह धन बहाने की तुम्हारी लत घर में क्या-क्या बर्बादी नहीं ला रही है?तुम्हारा बस चले तो धर्मराज युधिष्ठिर की तरह तुम मुझे भी दांव पर लगा दो. "
सुरेश और लक्ष्मी में तू-तू, मैं - मैं का तूफ़ान रोज़ ही आता.
बुधवार था. रात के दस बज चुके थे. बी.बी.सी. पर लॉटरी मशीन से नम्बर गिरने शुरू हुए -- १, ५, ११, १६, २५, ४० और सुरेश की आंखें खुली की खुली रह गयीं. वह खुशी के मारे गगनभेदी आवाज़ में चिल्ला उठा --"आई ऎम ऎ मिल्लियनआर नाओ."
जुआ को अभिशाप समझने वाली लक्ष्मी रसोईघर से भागी आयी . सुरेश को अपनी बांहों में भर कर वो भी चिल्ला उठी -- "हुर्रे, वी आर मिल्लियनआर."
वक्त वक्त की बात
सरिता अरोड़ा की देवेन्द्र साही से जान-पहचान कॉलेज के दिनों से है. कभी दोनों में एक-दूसरे के प्रति प्यार भी जागा था.
आज देवेन्द्र साही का फ़िल्म उद्योग में बड़ा नाम है. उसने एक नहीं तीन-तीन हिट फिल्में दी हैं. उसकी फिल्में साफ़ -सुथरी होती हैं. सरिता अरोड़ा के मन में इच्छा जागी कि क्यों न वो अपनी रूपवती बेटी अरुणा को हेरोइन बनाने की बात देवेन्द्र से कहे. मन में इच्छा जागते ही उसने मुम्बई का टिकट लिया और जा पहुंची अपने पुराने मित्र के पास.
देवेन्द्र साही सरिता अरोड़ा के मन की बात सुनकर बोला -- "ये फ़िल्म जगत है. इसके रंग-ढंग बड़े निराले हैं. सुनोगी तो दांतों में उंगलियां दबा लोगी. यहां हर हेरोइन को पारदर्शी कपड़े पहनने पड़ते हैं. कभी-कभी तो उसे निर्वस्त्र भी-----."
तो क्या हुआ ? हम सभी कौन से वस्त्र पहन कर जन्मे थे? सभी इस संसार में नंगे ही तो आते हैं."
सरिता अरोड़ा अपनी बात कहे जा रही थी और देवेन्द्र साही सोचे जा रहा था कि क्या यह वही सरिता अरोड़ा है जो अपने तन को पूरी तरह से ढक कर कॉलेज आया करती थी.
बचत
मूसलाधार बारिश में विमला दौड़ी-दौड़ी सुकीर्ति के पास आयी. हांफते हुए बोली,"सुकीर्ति, कान्ले पार्क में सैन्स्बुरी सुपर स्टोर में बटर की सेल लगी है. ढाई सौ ग्राम की लारपाक बटर की टिकिया सिर्फ़ पचासी पेनिओं में. एक टिकिया के पीछे दस पेनिओं की छूट है. सुनहरी मौका है बटर खरीदने का. आ चलें खरीदने. "
स्टोक और कान्ले पार्क में पूरे छः मील का फासला . सुकीर्ति फिर भी तैयार हो गयी.
विमला और सुकीर्ति अपने-अपने सिर पर छतरी ताने बस स्टॉप पर आ गयीं. कान्ले पार्क पहुंचने के लिए उन्होंने दो बसें पकड़ीं. पहले २७ नम्बर और फिर सिटी सेंटर से १२ नम्बर. दोनों ने डे ट्रिप टिकट लिया. लगभग दो घंटों के सफर के बाद वे कान्ले पार्क पहुंचीं.
लोगों की भारी मांग के कारण विमला और सुकीर्ति पच्चीस-पच्चीस टिकियां ही खरीद पायीं. पच्चीस - पच्चीस टिकियों से दोनों को ढाई-ढाई पाउंड का लाभ हो गया था. दोनों खुश थीं.
घर पहुंचते ही विमला और सुकीर्ति ने अपनी खुशी की वजह अपने पति्यों को बतायीं. पति बरस पड़े. "क्या खा़क ढाई-ढाई पाउंड की बचत की है तुम दोनों ने? अरे मूर्खों तुम दोनों बसों में फ्री तो गयी और आयी नहीं. ढाई-ढाई पाउंड बस के किराए का भी हिसाब लगाओ न!"
प्राण शर्मा का जन्म १३ जून १९३७ को वजीराबाद (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली में. पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी). १९५५ से लेखन . फिल्मी गीत गाते-गाते
गीत , कविताएं और ग़ज़ले कहनी शुरू कीं.
१९६५ से ब्रिटेन में.
१९६१ में भाषा विभाग, पटियाला द्वारा आयोजित टैगोर निबंध प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार. १९८२ में कादम्बिनी द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार. १९८६ में ईस्ट मिडलैंड आर्ट्स, लेस्टर द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार.
लेख - 'हिन्दी गज़ल बनाम उर्दू गज़ल" पुरवाई पत्रिका और अभिव्यक्ति वेबसाइट पर काफी सराहा गया. शीघ्र यह लेख पुस्तकाकार रूप में प्रकाश्य.
२००६ में हिन्दी समिति, लन्दन द्वारा सम्मानित.
"गज़ल कहता हूं' और 'सुराही' - दो काव्य संग्रह प्रकाशित.
Coventry CVESEB, UK3, Crakston Close, Stoke Hill Estate,
E-mail : pransharma@talktalk.net
अक्ल के अंधे
प्रवीण कुमार के एक मित्र हैं--- हितैषी राय . कुछ-एक लोगों के साथ मिलकर उन्होंने एक कल्याणकारी संस्था बनायी. संस्था का नाम रखा -- 'जन कल्याण.'
हालांकि उनकी संस्था छोटी है , लेकिन उनकी भावी योजनाएं बड़ी हैं. फिलहाल उनकी योजना एक अनाथालय भवन निर्माण की है .
एक दिन हितैषी राय दान लेने के लिए प्रवीण के पास गए. बोले- "प्रवीण जी, आप मेरे परम मित्र हैं. हमारे शुभ कार्य अनाथालय के भवन-निर्माण के लिए दिल खोलकर दान दीजिए और दान देने के लिए अपने सेठ मित्रों के नाम भी सुझाइए."
दान देने के बाद प्रवीण कुमार ने नगर के उद्योगपति गिरधारी लाल का नाम सुझाया और बात-बात में यह भी बता दिया -- "गिरधारी लाल ऎसी तबियत के शख्स हैं कि दान देने के लिए उन्हें किसी मित्र के सिफारिशी ख़त की ज़रूरत नहीं पड़ती.
दूसरे दिन ही हितैषी राय अपने कुछ साथियों के साथ दान लेने के लिए गिरधारी लाल के पास पहुंच गये. रास्ते में उन्होंने अपने सथियों को सावधान कर दिया --'हमें गिरधारी लाल से यह कहने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है कि दान लेने के लिए प्रवीण कुमार ने हमे आपके पास भेजा है. खामखा प्रवीण कुमार का एहसान हम क्यों लें?
गिरिधारी लाल से मिलते ही हितैषी राय ने अपना और अपने साथियों का परिचय दिया और दान लेने के लिए भारी-भरकम पोथी खोल ली.
"हितैषी राय जी, मैंने तो आपकी संस्था 'जन-कल्याण' का नाम आज तक नहीं सुना और पोथी आप भारी-भरकम उठा लाये हैं." गिरिधारी लाल ने दान न देने की मानसिकता से कहा.
"सारा नगर जानता है कि आप दिल खोलकर दान देते हैं. आप इस नगर के राजा हरिश्चन्द्र हैं. " हितैषी राय बोले.
"पहले मैं ऎसा ही किया करता था. अब तो दान लेने वालों का तांता लग गया है. रोज कोई न कोई दान लेने आ जाता है. किसीकी अस्पताल बनवाने की योजना है तो किसी की वृद्धाश्रम . हमारे नगर में अस्पतालों और वृद्धाश्रमों को बनानेवालों की बाढ़-सी आ गयी है. बुरा नहीं मानिए, आपकी तरह कई लोग किसी न किसी योजना के साथ दान के लिए आ जाते हैं. दान लेकर वे कहां गायब हो जाते हैं, राम ही जाने. जाइये, आप किसी हमारे परिचित का पत्र लेकर आइये. हम आपको भी जरूर दान देगें."
मेहमान
घर में आए मेहमान से मनु ने पूछा --"क्या पीएगें, गर्म या ठंडा?"
"नही, कुछ नहीं." मेहमान ने अपनी मोटी गर्दन हिलाकर कहा.
"कुछ तो चलेगा?"
"कहा न कुछ नहीं."
'शराब?"
"वो भी नहीं"
"ये कैसे हो सकता है? आप हमारे घर में पहली बार पधारे हैं. कुछ तो चलेगा ही."
मेहमान इस बार चुप रहा.
मनु शिवास रीगल की महंगी शराब की बोतल अंदर से उठा लाया.
मेहमान की जीभ लपलपा उठी पर उसने पीने से न कह दी.
मनु के बार-बार कहने पर आखि़र उसने एक छोटा सा पैग लेना स्वीकार कर लिया. उस छोटे पैग का नशा मेहमान पर कुछ ऎसा तारी हुआ कि देखते ही देखते वो आधी से जिआदा बोतल खाली कर गया. मनु का दिल बैठ गया. मेहमान रुखसत हुआ. मनु मेज़ पर मुक्का मारकर चिल्ला उठा -- "मैंने तो इतनी महंगी शराब की बोतल उसके सामने रख कर दिखावा किया था लेकिन हरामी आधी से जिआदा गटक गया, गोया उसके बाप का माल था."
वाह री लक्ष्मी
"लक्ष्मी, देख लेना, एक दिन मेरा पांसा ज़रूर सीधा पड़ेगा. एक दिन मैं ज़रूर लॉटरी जीतूगां.तब मैं तुम्हें ऊपर से लेकर नीचे तक सोने-चांदी के गहनों से लाद दूंगा. तुम्हें सचमुच की लक्ष्मी बना दूंगा. सचमुच की लक्ष्मी.तुम्हें देख कर लोग दांतों तले अपनी उंगलियां दबा लेगें. अरी, दुर्योधन भी पहले धर्मराज युधिष्ठिर से जुए में हारा था. सब दिन होत न एक समान . भाग्य ने उसका साथ दिया. और वो पांडवों का राजपाट जीतकर राज कुंवर बन गया."
सुरेश के उत्साह भरे शब्द भी आग में घी का काम करते. सुनते ही लक्ष्मी तिलमिला उठती -- "भाड़ में जाए तुम्हारी लॉटरी. सारी की सारी कमाई तुम लॉटरी, घोड़ॊं और कुत्तों पर लगा देते हो . इन पर पानी की तरह धन बहाने की तुम्हारी लत घर में क्या-क्या बर्बादी नहीं ला रही है?तुम्हारा बस चले तो धर्मराज युधिष्ठिर की तरह तुम मुझे भी दांव पर लगा दो. "
सुरेश और लक्ष्मी में तू-तू, मैं - मैं का तूफ़ान रोज़ ही आता.
बुधवार था. रात के दस बज चुके थे. बी.बी.सी. पर लॉटरी मशीन से नम्बर गिरने शुरू हुए -- १, ५, ११, १६, २५, ४० और सुरेश की आंखें खुली की खुली रह गयीं. वह खुशी के मारे गगनभेदी आवाज़ में चिल्ला उठा --"आई ऎम ऎ मिल्लियनआर नाओ."
जुआ को अभिशाप समझने वाली लक्ष्मी रसोईघर से भागी आयी . सुरेश को अपनी बांहों में भर कर वो भी चिल्ला उठी -- "हुर्रे, वी आर मिल्लियनआर."
वक्त वक्त की बात
सरिता अरोड़ा की देवेन्द्र साही से जान-पहचान कॉलेज के दिनों से है. कभी दोनों में एक-दूसरे के प्रति प्यार भी जागा था.
आज देवेन्द्र साही का फ़िल्म उद्योग में बड़ा नाम है. उसने एक नहीं तीन-तीन हिट फिल्में दी हैं. उसकी फिल्में साफ़ -सुथरी होती हैं. सरिता अरोड़ा के मन में इच्छा जागी कि क्यों न वो अपनी रूपवती बेटी अरुणा को हेरोइन बनाने की बात देवेन्द्र से कहे. मन में इच्छा जागते ही उसने मुम्बई का टिकट लिया और जा पहुंची अपने पुराने मित्र के पास.
देवेन्द्र साही सरिता अरोड़ा के मन की बात सुनकर बोला -- "ये फ़िल्म जगत है. इसके रंग-ढंग बड़े निराले हैं. सुनोगी तो दांतों में उंगलियां दबा लोगी. यहां हर हेरोइन को पारदर्शी कपड़े पहनने पड़ते हैं. कभी-कभी तो उसे निर्वस्त्र भी-----."
तो क्या हुआ ? हम सभी कौन से वस्त्र पहन कर जन्मे थे? सभी इस संसार में नंगे ही तो आते हैं."
सरिता अरोड़ा अपनी बात कहे जा रही थी और देवेन्द्र साही सोचे जा रहा था कि क्या यह वही सरिता अरोड़ा है जो अपने तन को पूरी तरह से ढक कर कॉलेज आया करती थी.
बचत
मूसलाधार बारिश में विमला दौड़ी-दौड़ी सुकीर्ति के पास आयी. हांफते हुए बोली,"सुकीर्ति, कान्ले पार्क में सैन्स्बुरी सुपर स्टोर में बटर की सेल लगी है. ढाई सौ ग्राम की लारपाक बटर की टिकिया सिर्फ़ पचासी पेनिओं में. एक टिकिया के पीछे दस पेनिओं की छूट है. सुनहरी मौका है बटर खरीदने का. आ चलें खरीदने. "
स्टोक और कान्ले पार्क में पूरे छः मील का फासला . सुकीर्ति फिर भी तैयार हो गयी.
विमला और सुकीर्ति अपने-अपने सिर पर छतरी ताने बस स्टॉप पर आ गयीं. कान्ले पार्क पहुंचने के लिए उन्होंने दो बसें पकड़ीं. पहले २७ नम्बर और फिर सिटी सेंटर से १२ नम्बर. दोनों ने डे ट्रिप टिकट लिया. लगभग दो घंटों के सफर के बाद वे कान्ले पार्क पहुंचीं.
लोगों की भारी मांग के कारण विमला और सुकीर्ति पच्चीस-पच्चीस टिकियां ही खरीद पायीं. पच्चीस - पच्चीस टिकियों से दोनों को ढाई-ढाई पाउंड का लाभ हो गया था. दोनों खुश थीं.
घर पहुंचते ही विमला और सुकीर्ति ने अपनी खुशी की वजह अपने पति्यों को बतायीं. पति बरस पड़े. "क्या खा़क ढाई-ढाई पाउंड की बचत की है तुम दोनों ने? अरे मूर्खों तुम दोनों बसों में फ्री तो गयी और आयी नहीं. ढाई-ढाई पाउंड बस के किराए का भी हिसाब लगाओ न!"
प्राण शर्मा का जन्म १३ जून १९३७ को वजीराबाद (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली में. पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी). १९५५ से लेखन . फिल्मी गीत गाते-गाते

१९६५ से ब्रिटेन में.
१९६१ में भाषा विभाग, पटियाला द्वारा आयोजित टैगोर निबंध प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार. १९८२ में कादम्बिनी द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार. १९८६ में ईस्ट मिडलैंड आर्ट्स, लेस्टर द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार.
लेख - 'हिन्दी गज़ल बनाम उर्दू गज़ल" पुरवाई पत्रिका और अभिव्यक्ति वेबसाइट पर काफी सराहा गया. शीघ्र यह लेख पुस्तकाकार रूप में प्रकाश्य.
२००६ में हिन्दी समिति, लन्दन द्वारा सम्मानित.
"गज़ल कहता हूं' और 'सुराही' - दो काव्य संग्रह प्रकाशित.
Coventry CVESEB, UK3, Crakston Close, Stoke Hill Estate,
E-mail : pransharma@talktalk.net