सोमवार, 3 नवंबर 2008

उपन्यास अंश



शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास 'गुलाम बादशाह'
का एक अंश

उस दिन की सुबह

रूपसिंह चन्देल

उसके लिए उस दिन की सुबह और दिनों की सुबहों से अलग थी.

आसमान में तारे धूमिल पड़ रहे थे, लेकिन मकानों की छतों पर रात का धुंधलका पसरा हुआ था. उसने नीचे सड़क पर झांककर देखा, बिजली के खम्भों पर लट्टू जल रहे थे और गलियों में दिन भर धमा-चौकड़ी करने वाले कुत्ते चार मकान छोड़कर बिरला मिल की ओर मुड़ने वाली गली के मुहाने पर एक कुतिया को घेरे हुए खड़े थे. उसने गिनती की, छः थे. कुतिया घबड़ाई हुई थी. वह निकल भागने के प्रयास में असफल रहने पर ज्यादती के लिए तत्पर एक कुत्ते पर दांत किटकिटाती भूंकने लगती थी.

पांच मिनट छत पर टहलने के बाद उसने पुनः नीचे नजर दौड़ाई. धुंधलका तेजी से छट रहा था. उसे कुतिया थकी हुई दिखाई दी. गुर्राने और दांत किटकिटाने के बजाय अब वह दयनीय स्वर में किकियाने लगी थी. लेकिन कुत्तों को उस पर तरस नहीं आ रहा था. सभी उस पर अपना अधिकार जता रहे थे. परिणाम- स्वरूप वे आपस में ही भिड़ने लगे थे. कुतिया ने शायद स्थिति समझ ली थी और जैसे ही दो जोड़ों को एक-दूसरे पर आक्रमण-प्रत्याक्रमण करते उसने देखा, वह निकल भागी. दो कमजोर कुत्ते जो अपने साथियों को लड़ता देख खिसककर एक ओर खड़े हो गये थे, कुतिया के पीछे दौड़ पड़े थे. उस पर अधिकार मानने में वे अब तक अपने को असफल पा रहे थे. कुतिया का भाग निकलना लड़ रहे कुत्तों ने कुछ देर बाद अनुभव किया और आपस में एक दूसरे को लानत-मलानत भेजते हुए कहा, "स्सालो, हम आपस में लड़कर अपने सिर फोड़ रहे हैं और सिद्दी-पिद्दी उसे ले उड़े."

"हम लड़ें ही क्यों , अभी समझौता कर लेते हैं." एक बोला.

"क्या---- क्या करोगे समझौता?" कलुआ जो उनमें अधिक ताकतवर था गुर्राया.

"यही कि हमें एक-एक कर उससे मिलना चाहिए."
"हुंह." कलुआ ने सिर झिटका. उसका सिर अभी तक भिन्ना रहा था और उसका मन कर रहा था कि वह पास खड़े तीनों की मरम्मत कर दे.

'वह मेरे साथ थी और खुश थी. उसे कोई आपत्ति भी न थी, लेकिन इन स्सालों ने सारा गुड़ गोबर कर दिया. पता नहीं कहां गली से आ मरे. अब वह इतना घबड़ा गयी है कि शायद ही कभी मेरे साथ आये.' कलुआ ने सोचा और बोला, "चलकर देखते हैं वह गयी कहां?"

"हां" तीनों ने एक स्वर में कहा.

"लेकिन उससे मैं ही पहले मिलूंगा." कलुआ की बात पर तीनों ने सिर हिलाकर पूंछ नीचे गिरा दी.

और चारों चौराहे की ओर दौड़ गये.

सड़क पर नीचे झांकते हुए उसने कुत्तों के विषय में अनुमान लगाया . उसने अपने मकान मालिक को कुत्तों के पीछे दूध लेने जाते देखा.

********

प्रतिदिन की भांति वह उस दिन भी पौने पांच बजे उठ गया था. पत्नी भी उसकी पांच बजे उठ जाती थी, लेकिन उस दिन उसे आफिस नहीं जाना था, इसलिए वह निश्चिंत थी और सो रही थी.

कई महीने बाद वह सुबह के सुहानेपन का आनंद ले रहा था. हालांकि वर्षों से उसके जागने का वही समय था, लेकिन जागने के साथ ही आठ बजे की बस पकड़ने की चिन्ता उसे आ घेरती थी. साढ़े नौ बजे दफ्तर पहुंचने का तनाव बिस्तर छोड़ने के साथ ही प्रारंभ हो जाता था. सप्ताह में शनिवार-रविवार का अवकाश उसने कई महीनों से नहीं जाना था. प्रतिदिन रात दफ्तर उसके साथ आता था. सोते हुए भी दफ्तर साथ रहता था.

उसने अंगड़ाई ली. छत में कुछ और देर टहला . छत बड़ी थी, जिसमें केवल उसके दो कमरे और टीन शेड की छोटी-सी किचन और उतना ही छोटा टॉयलेट-कम बाथरूम था. बाथरूम की दीवारें सीली और झड़ रही थीं. उस पर एस्बेस्टेस की चादरें पड़ी हुई थीं. बारिस होने के समय चादरों से पानी टपकता रहता. ऎसे समय टॉयलेट के लिए जाते हुए छोटा छाता लगाकर बैठना होता या सिर पर पुरानी तौलिया डालनी होती.

छत पर टहलते हुए आसमान में उड़ते पक्षियों को वह देखता रहा और सोचता रहा, 'कितने निश्चिंत----- कितने स्वतंत्र ! न इन्हें किसी अफसर का भय, न काम की चिन्ता. काश ! मैं एक परिन्दा होता----- पूरी दुनिया के आकाश को नापता घूमता. न सीमाओं की समस्या होती न प्रवेश पर प्रतिबंध. कॊई पासपोर्ट - वीज़ा नहीं.'

एक कौआ पड़ोसी मकान की दीवार पर आ बैठा. उसके कर्णकटु स्वर ने ध्यान भंग किया. उसने हाथ उठाकर कौवे को भगाना चाहा, वह उछलकर कुछ दूर हटकर बैठ गया और क्षणभर की चुप्पी के बाद फिर चीख उठा.

"कुमार राणावत की तरह क्यों चीख रहा है रे कमीने?" उसने सोचा उसने कौवे को नहीं अपने बॉस कुमार राणावत को गाली दी थी. मन के अंदर दबा गुबार निकल गया था.

कौवा फिर चीखा.

"चीख बेटे----- आज और कल भी----." उसे याद आया आज शनिवार है और राणावत कल भी बम्बई रहेगा और उसे कल भी दफ्तर नहीं जाना होगा.

'कितनी सुखद है सुबह !' उसने सोचा, 'मैं कब से ऎसे दिन के लिए तरस रहा था. बच्चे भूल ही गये होगें कि मैं भी इस घर में रहता हूं. सुबह उन्हें तयार कर देना मात्र क्या उनके प्रति पैतृक जिम्मेदारी की इति मान ली जाय !'

'नौकरी छोड़ क्यों नहीं देते. कोई और नौकरी क्यों नहीं कर लेते !' मन ने कई बार, बल्कि हजारों----- हो सकता है लाखों बार - यह बात कही थी. रात सोने से पहले यह बात मन में अवश्य उठती है. सुबह उठने से लेकर दफ्तर से निकलने तक दिन में कितनी ही बार मन यह प्रश्न उठाता है, लेकिन---- और यह 'लेकिन' कितने प्रश्नों से घिरा हुआ है. इतने वर्षों की सरकारी नौकरी ने उसे इस योग्य नहीं रहने दिया कि वह किसी अन्य जगह जा सकता. कारण यह नहीं कि वह कम योग्य था, या वह निकम्मा था---- काम नहीं करता था---. काम, सुबह साढ़े नौ बजे से रात आठ बजे तक वह प्रायः काम में ही लगा रहता. गर्दन दुख जाती. लेकिन वह जब यह कहा जाता सुनता कि सरकारी बाबू काम नहीं करते तब उसे दुख होता. उसके अपने कार्यालय के कितने ही लोग थे जिनकी गर्दनें उसीकी भांति दुखती थीं. कई स्पांडिलाइटस का शिकार थे और कुछ उस कतार में. डिप्रेशन का शिकार लोगों की संख्या शायद अधिक थी, लेकिन वे सब हत्बुद्धि वहां बने रहने के लिए अभिशप्त थे, क्योंकि जो काम वे करते उसकी पूछ किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में न थी. अब वे वही कर सकते थे और गधों -खच्चरों की भांति उस बोझ को ढोते हुए जीवन की गाड़ी घसीटने के लिए विवश थे.

'लेकिन मैं इतनी खूबसूरत सुबह यह सब क्यों सोच रहा हूं. मुझे दरवाजे में ताला बंद कर चुपचाप नीचे उतर जाना चाहिए था. घर से आध फर्लांग की दूरी पर लंबा-- चौड़ा रौशन पार्क है. आस-पास के लोग---- बल्कि दो-तीन किलोमीटर से चलकर लोग वहां पहुंचते हैं----- टहलने के लिए. टहलने वालों की भीड़ सुबह नौ बजे तक वहां रहती है. छुट्टी वाले दिनों में स्कूली बच्चे वहां खेलते हैं.

'आज बच्चों के स्कूल की छुट्टी भी है. रात ही कह देना चाहिए था कि सुबह रौशन पार्क चलेगें. अमिता भी घोड़े बेचकर सो रही है. मुझे आफिस जाना होता तो इस समय किचन में बर्तन खटक रहे होते.'

'बच्चों के साथ पार्क में बैडमिंटन खेले हुए लंबा समय बीत गया.---- कोई बात नहीं----- शाम को जायेगें. शाम को भी वहां अच्छी रौनक होती है.----- आज और कल का दिन बच्चों के नाम.' इस विचार से उसके मन में खुशी उत्पन्न हुई , जो महीनों से दबी हुई थी.

सड़क पर आमद-रफ्त तेज हो गयी थी. कुछ लोगों की आवाजें आ रहीं थीं. कुछ लोग उसके मकान के सामने की गली से होकर पार्क जाते थे. एक युवक, युवक ही कहना होगा----- वैसे वह पैतीस वर्ष से अधिक होगा; लेकिन उसने शरीर को मेण्टेन किया हुआ था, प्रतिदिन 'किट' और 'टी शर्ट' में दौड़ता हुआ, तेज नही, मद्धिम गति से पार्क जाता है. पार्क में लगभग दो घण्टे बिताकर जब वह लौटता तब पसीने से तरबतर होता----- भले ही जनवरी की कड़ाके कि ठण्ड हो. वह उससे ईर्ष्या करता है और सोचता है कि क्या उसकी जिन्दगी में भी ऎसे दिन आयेगें ! यदि आयेगें भी, तब------ तब क्या उस नौजवान की भांति उसमें गति और उत्साह होगा !'

हवा का तेज झोंका आया, और उसकी बनियायन को छूता हुआ निकल गया. हवा में ठण्ड की हल्की खुनक थी. उसने देखा, सामने दीवार पर बैठा कौवा अब वहां न था. उसके स्थान पर एक गौरय्या आ बैठी थी. सूर्य की किरणें पड़ोसी मकान की छत पर रखी पानी की टंकी पर आ बैठी थीं. बगुलों का एक झुण्ड उत्तर-पश्चिम की ओर दौड़ता हुआ जा रहा था.

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'गुलाम बादशाह' उपन्यास शीघ्र ही
प्रवीण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली से
प्रकाश्य है.

3 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

Gulaam baadshah kaa ek ansh "us
din kee subah"padhaa.Us din kee
subah vakaee aur dinon kee subahon
se alag hee lagaa.Seedhee-saadee
aur muhavredaar bhasha mein kutton
aur kuttia ka prasang bahut hee
ziaadaa rochak hai.Badhaaee.

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद ने कहा…

पुस्तक अंश पढ़कर लगता है कि पुस्तक का पाठ्क वर्ग खुले दिल से इसका स्वागत करेगा। शुभकामनाएं।

उमेश महादोषी ने कहा…

उपन्यास के अंश रुचिकर हैं, निश्चित ही उपन्यास भी अच्छा होगा।