गुरुवार, 12 फ़रवरी 2009

काव्य रचनाएं


पूर्णिमा वर्मन की पांच काव्य रचनाएं
गीत- कचनार के दिन
फिर मुँडेरों पर
सजे कचनार के दिन
बैंगनी से श्वेत तक
खिलती हुई मोहक अदाएँ
शाम लेकर उड़
चली रंगीन ध्वज सी ये छटाएँ
फूल गिन गिन
मुदित भिन-
भिन फिर हवाओं
में बजे कचनार के दिन
खिड़कियाँ, खपरैल, घर, छत
डाल, पत्ते आँख मीचे
आरती सी दीप्त पखुरी
उतरती है शांत
नीचे रूप
झिलमिल चाल
स्वप्निल फिर दिशाओं ने
भजे कचनार के दिन

गजल- दर्द में
दर्द में कुछ इस तरह आया करो
ठहरा-ठहरा चैन बरसाया करो
जब हवाओं में उमस होने लगे
खुशबुओं के फूल बन जाया करो
हर तरफ उड़ते हुए तूफ़ान हैं
एक तिनका ओट रख जाया करो
जब धुआँ तनहाइयों का घेर ले
याद की चादर में सो जाया करो
ज़िंदगी में दूर तक जाना तो है
छाँव में पल भर को सुस्ताया करो

फागुन के दोहे
ऐसी दौड़ी फगुनहट ढाणी चौक फलांग।
फागुन आया खेत गये पड़ोसी जान।।
आम बौराया आँगना कोयल चढ़ी अटार।
चंग द्वार दे दादरा मौसम हुआ बहार।।
दूब फूल की गुदगुदी बतरस चढ़ी मिठास।
मुलके दादी भामरी मौसम को है आस।।
वर गेहूँ बाली सजा खड़ी फ़स़ल बारात।
सुग्गा छेड़े पी कहाँ सरसों पीली गात।।
ऋतु के मोखे सब खड़े पाने को सौगात।
मानक बाँटे छाँट कर टेसू ढाक पलाश।।
ढीठ छोरियाँ तितलियाँ रोकें राह वसंत।
धरती सब क्यारी हुई अम्बर हुआ पतंग।।
मौसम के मतदान में हुआ अराजक काम।
पतझर में घायल हुए निरे पात पैगाम।।
दबा बनारस पान को पीक दयी यौं डार।
चैत गुनगुनी दोपहर गुलमोहर कचनार।।
सजे माँडने आँगने होली के त्योहार।
बुरी बलायें जल मरें शगुन सजाए द्वार।।
मन के आँगन रच गए कुंकुम अबिर गुलाल।
लाली फागुन माह की बढ़े साल दर साल।।
कविताएँ
वे भी होती हैं कविताएँ
जिन्हें कोई नहीं
पढ़ता गुलाब की पंखुरियों के
साथ सोती हुई नोटबुक में
कभी कभी
झाँकती पन्ने खुलने
पर घुल जातीं हैं रचनाकार के व्यक्तित्व
में वे जीने की वजह बनती हैं
संतोष के छप्पर रखते हुए हौले
वे रचनाकार को मिट्टी होने से बचाती हैं
उसकी मिट्टी को आकार देते हुए

पाँच हाइकु -

वसंत में

राग सुरंगी
छलके छल छल
झांझ चंग में
कोयल घोले
कुहुक कुहुक के
टोना वन में
हरषे होली
अबरक केसर
और रंग में
राधा मोहन
रसमय फागुन से
आँगन में
चलो सखी री
प्रियतम के घर
वृंदावन में
*******
जन्म : 27 जून 1955शिक्षा : संस्कृत साहित्य में स्नातकोत्तर उपाधि, स्वातंत्र्योत्तर संस्कृत साहित्य पर शोध, पत्रकारिता और वेब डिज़ायनिंग में डिप्लोमा।कार्यक्षेत्र : पीलीभीत (उत्तर प्रदेश, भारत) की सुंदर घाटियों जन्मी पूर्णिमा वर्मन को प्रकृति प्रेम और कला के प्रति बचपन से अनुराग रहा। मिर्ज़ापुर और इलाहाबाद में निवास के दौरान इसमें साहित्य और संस्कृति का रंग आ मिला। पत्रकारिता जीवन का पहला लगाव था जो आजतक साथ है। खाली समय में जलरंगों, रंगमंच, संगीत और स्वाध्याय से दोस्ती।संप्रति : पिछले बीस-पचीस सालों में लेखन, संपादन, स्वतंत्र पत्रकारिता, अध्यापन, कलाकार, ग्राफ़िक डिज़ायनिंग और जाल प्रकाशन के अनेक रास्तों से गुज़रते हुए फिलहाल संयुक्त अरब इमारात के शारजाह नगर में साहित्यिक जाल पत्रिकाओं 'अभिव्यक्ति' और 'अनुभूति' के संपादन और कलाकर्म में व्यस्त।प्रकाशित कृतियाँ : कविता संग्रह : वक्त के साथ (वेब पर उपलब्ध)ई मेल: abhi_vyakti@hotmail.com

26 टिप्‍पणियां:

Manoshi Chatterjee मानोशी चटर्जी ने कहा…

पूर्णिमा जी की कवितायें सरल और मोहक होती हैं। एक अच्छी कवियित्री ही नहीं, एक सुंदर मन की स्वामिनी भी हैं पूर्णिमा जी।

सुभाष नीरव ने कहा…

गीत, ग़ज़ल, दोहे, कविता, हाइकु ! वाह ! क्या बात है। एक साथ सभी रंग के कविता पुष्पों की खुशबू से परिचित करा दिया आपने इस वसंत के मौसम में! बहुत सुन्दर रचनाएं हैं और सुन्दर ही प्रस्तुति ! कवयित्री और चन्देल को बधाई !

Dr.Bhawna Kunwar ने कहा…

Bahut prabhavshali,sundar rachnayen han.. purnimaji ,prastutkarta dono ko bahut sari badhaiyan..

अविनाश वाचस्पति ने कहा…

सुंदर मन के साथ

बेहतरीन अभिव्‍यक्ति की

अनुगूंज बिखेरती हैं

पूर्णिमा जी।

सहज साहित्य ने कहा…

पूर्णिमा जी कविताएँ लिखती नहीं ,वरन् कविताएँ उनकी लेखनी से अनायास झरती हैं ;एक पहाड़ी झरने की तरह ।
पांचों रचनाएँ ऐसी ही हैं ।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

बेनामी ने कहा…

रूप सिंह जी

पूर्णिमा जी तो सभी विधाओं में पारंगत है । दोहे बहुत अच्छे लगे सिर्फ़ एक दोहे " आम बौराया आँगना’ में १४ मात्राएं हो रहीं है । ग़ज़ल में भी कफ़िया ’जाया’ का प्रयोग कई बार होने से थोडा़ खटक रहा है । अच्छी रचनाओं के लिए बधाई ।

शरद तैलंग

बेनामी ने कहा…

POORNIMA VERMAN JEE KEE SABHEE
RACHNAAYEN-GEET,KAVITA,DOHE HAYKU
AUR GAZAL ATMIYTAA SE PADH GAYAA
HOON.YUN TO SABHEE RACHNAAON MUN KO
CHOOTEE HAIN LEKEN HAYKU KEE KYA
BAAT HI! BASANT KO SAAKAAR KAR RAHE
HAIN VE.UNKE SHER KAA YE MISRAA--
"HAR TARAF UDTE HUE TOOFAAN HAIN"
YUN HOTA" HAR TARAF TOOFAAN HEE
TOOFAAN HAI" TO KHIL UTHTAA.

बेनामी ने कहा…

EK KAAFIA KAA PRAYOG GAZAL MEIN
KAEE BAAR KIYAA JAA SAKTAA HAI.YE
KOEE DOSH NAHIN HAI.
"AAM BAURAAYAA AANGNAA"MEIN
14 MAATRAYEN HAIN LEKIN "BAURAAYAA"
SHABD KE"BAU" KE SWAR KO GIRAAYAA
JAA SAKTAA HAI.TULSI DAS,SURDAS,
KABIR DAS SABNE SWAR KEE MAATRAA
KO GIRAAYAA HAI.AAJKAL SABHEE KAVI
SWAR KO GIRAA RAHE HAIN.URDU SHAYREE MEIN ISE SAHEE MAANAA GAYAA
HAI.

पारुल "पुखराज" ने कहा…

poornima di ko padhna hameshaa acchha lagta hai

योगेंद्र कृष्णा Yogendra Krishna ने कहा…

अच्छी, विविधरंगी आस्वाद की कविताओं के लिए पूर्णिमा जी को बधाई। और उन्हें प्रस्तुत करने के लिए चंदेल जी आपको भी।

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

पूर्णिमा जी की कविताएँ ताज़ा हवा के झोंकें सामान है अंतर्मन तक प्रफुल्लित हो गया --उस झोंकें ने कई तरह की खुशबूएं समेटी हुई हैं. बहुमुखी प्रतिभा की धनी पूर्णिमा जी को बधाई और साथ ही साथ चंदेल जी को भी --चंदेल जी, ऐसी सुंदर प्रस्तुतियों की आशा रहेगी.

श्रद्धा जैन ने कहा…

दर्द में कुछ इस तरह आया करो
ठहरा-ठहरा चैन बरसाया करो

Wah kya gazal kahi hai
Punima ji ko padhna bhaut achha lagta hai unki tarif karna suraj ko diye dikhane jaisa hai

Ila ने कहा…

इन तमाम कविताओं में "कविताएँ " शीर्षक कविता सबसे खूबसूरत है!
इला

बेनामी ने कहा…

प्रकृति का अनुपम सौन्दर्य एवं पूर्णिमा जी की भावाभिव्यक्ति ,दोनों के मिश्रण से ये रचनाएं और भी सुन्दर हो गई हैं । मैं जब भी उनकी कोई रचना पढ़ती हूं, लगता है प्रकृति का एक नया रूप देखा है। पूर्णिमा जी आपको तथा रूप सिंह जी को धन्यवाद ।

शशि पाधा

बेनामी ने कहा…

पूर्णिमा दीदी,

ये बहुत ही अच्छे लगे:

"फूल गिन गिन
मुदित भिन-
भिन फिर हवाओं
में बजे कचनार के दिन "

"खिड़कियाँ, खपरैल, घर, छत
डाल, पत्ते आँख मीचे
आरती सी दीप्त पखुरी
उतरती है शांत
नीचे"
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दीदी, ये समझ नहीं आया कि कचनार के साथ ये tulip garden कि फोटो क्यों लगा दी :) कचनार तो खुद ही बहुत सुन्दर फूल हैं। हमारे condo में ढेर कचनार हैं, अभी उनकी छ्टा देखते ही बनती है। और खुशबू के तो क्या कहने!
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"ऋतु के मोखे सब खड़े पाने को सौगात।
मानक बाँटे छाँट कर टेसू ढाक पलाश।।

ढीठ छोरियाँ तितलियाँ रोकें राह वसंत।
धरती सब क्यारी हुई अम्बर हुआ पतंग।।"

"दबा बनारस पान को पीक दयी यौं डार।
चैत गुनगुनी दोपहर गुलमोहर कचनार।।"

वाह! वाह!
इ का, इत्ता-इता रंग डार दियन हैं आप तो !!

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"संतोष के छप्पर रखते हुए हौले
वे रचनाकार को मिट्टी होने से बचाती हैं "

वाह!
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"कोयल घोले
कुहुक कुहुक के
टोना वन में"

बहुत ही अच्छा लिखा है, मजा आ गया !

आपकी शार्दुला

ashok andrey ने कहा…

priya bhai chandel
aapke blog par poornima jee ki kavitaayen padin bahoot achchi lagin inn sundar kavitaon ke liya me poornima jee ko tatha apko badhaai deta hoon

ashok andrey

बेनामी ने कहा…

पूर्णिमा जी की सभी विधाओं में लिखी हुई रचनाएँ सीधी सरल होने की वजह से मुझे बहुत ही पसंद हैं। ग़ज़लें बहुत ही बढ़िया।

मेरी प्रेरणास्रोत भी हैं।

आपकी
दीपिका जोशी 'संध्या'

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

पूर्णिमा जी की रचनाएँ ताज़ा हवा के झोंकें सामान महसूस हुई हैं जिसमें कई तरह की खुशबू आ रही है--एक ही स्थान पर कविता ,ग़ज़ल , हाइकु , दोहे -अंतर्मन तक प्रफुल्लित हो गया. चन्देल जी ,
इस तरह की रचनाएँ देते रहिये. पूर्णिमाजी
बहुत-बहुत बधाई
सुधा ओम ढींगरा

विजय तिवारी " किसलय " ने कहा…

रूप सिंह चंदेल जी
अभिवंदन
आपके ब्लॉग पर मैं पहली बार आया और पूर्णिमा जी को पढ़ कर भाव विभोर हो गया>>>
गीत- कचनार के दिन एक शब्द चित्र जैसी रचना है,पढ़ते जाएँ और दृश्य सामने उभरता जाता है :-
"खिड़कियाँ,खपरैल घर,छत
डाल, पत्ते आँख मीचे
आरती सी दीप्त पखुरी
उतरती है शांत
नीचे"

गजल- दर्द में
वाकई दर्द भी पवन और आत्मीय हो
तो उसका एहसास भी सुखद होता है :-
"जब धुआँ तनहाइयों का घेर ले
याद की चादर में सो जाया करो"

फागुन के दोहों में पूर्णिमा जी ने क्षेत्रीय भाषा के
शब्दों का बखूबी और सटीक प्रयोग किया है,
कोई भी शब्द अनागत नही लगा. :-
"सजे माँडने आँगने होली के त्योहार।
बुरी बलायें जल मरें शगुन सजाए द्वार।"

कवितायें शीर्षक से लिखी कविता में भी भाव
अच्छे हैं , और सच भी कहा है पूर्णिमा जी ने ......
"कवितायें रचनाकार के व्यक्तित्व में
जीने की वजह बनती हैं"

वसंत के विस्तृत भावों को भी हाइकू जैसे
माइक्रो काव्य में पिरोकर पाठकों को रुचिकर
लगना पूर्णिमा जी की शैली की विशेषता ही
कही जायेगी
पूर्णिमा जी को पहली बार पढ़ा ,बहुत अच्छा लगा.
पूर्णिमा जी को बहुत बहुत बधाई
और आपको प्रस्तुति के लिए भी उतना ही धन्यवाद
- विजय

IRFAN ने कहा…

पूर्निमा जी की प्रस्तुति बहुत सहज और सरल है.कचनार का ज़िक्र बहुत खूबसूरती से बयां किया है.
गज़ल भी उम्दा है.उन्हें बधाई!

बेनामी ने कहा…

पूर्निमा जी की प्रस्तुति बहुत सहज और सरल है.कचनार का ज़िक्र बहुत खूबसूरती से बयां किया है.
गज़ल भी उम्दा है.उन्हें बधाई!

अनिल पाण्डेय ने कहा…

मैं तो पूर्णिमा जी की लेखनी का मुरीद हूं। वो सही जगह पर सटीक शब्‍दों का प्रयोग करती हैं। दूसरा यह कि उनकी कविताओं को पढ़कर मन में दृश्‍य उभरने लगते हैं।

बेनामी ने कहा…

thanks for mrs. burmans poems.i hav'nt met her or read any of her e- mags. but i liked her address in response to 'jayjaywanti samman' and was pleasantly surprised to know that a housewife has been able to do so much for hindi. pl. convey to her my appreciation. i will try to access her mags later- a.k.

अजित कुमार

बेनामी ने कहा…

रूप सिंह जी,

प्रकृति का अपार सौन्दर्य एवं पूर्णिमा जी की भावाभिव्यक्ति, दोनों के सम्मिश्रण से सभी रचनायें हृदय को छू लेती हैं । शब्दों की तूलिका से सजाये चित्र एक सुन्दर दृशय प्रस्त्तुत करते हैं। सुन्दर रचनायें, सुन्दर प्रस्तुति । बहुत बहुत धन्यवाद ।

शशि पाधा

Girish Kumar Billore ने कहा…

adbhut
vistrit tippani sameekha ke roop men baareeki se padkar doongaa

संगीता पुरी ने कहा…

दिन में खोला .... पढ भी नहीं पायी थी कि लाइट चली गयी .... आपकी सभी कविताएं इतनी अच्‍छी लगी कि क्‍या बताउं .... बिल्‍कुल सीधी सादी सरल भाषा में इतना सुंदर प्रस्‍तुतीकरण ... मान गई आपको।