बुधवार, 20 मई 2009

कविता


विजय कुमार सत्पथी की पांच कविताएं

(१) सिलवटों की सिहरन
अक्सर तेरा साया
एक अनजानी धुंध से चुपचाप चला आता है
और मेरी मन की चादर में सिलवटे बना जाता है …..
मेरे हाथ , मेरे दिल की तरह
कांपते है , जब मैं
उन सिलवटों को अपने भीतर समेटती हूँ …..
तेरा साया मुस्कराता है और मुझे उस जगह छु जाता है
जहाँ तुमने कई बरस पहले मुझे छुआ था ,
मैं सिहर सिहर जाती हूँ ,कोई अजनबी बनकर तुम आते हो
और मेरी खामोशी को आग लगा जाते हो …
तेरे जिस्म का एहसास मेरे चादरों में धीमे धीमे उतरता है
मैं चादरें तो धो लेती हूँ पर मन को कैसे धो लूँ
कई जनम जी लेती हूँ तुझे भुलाने में ,
पर तेरी मुस्कराहट ,
जाने कैसे बहती चली आती है ,
न जाने, मुझ पर कैसी बेहोशी सी बिछा जाती है …..
कोई पीर पैगम्बर मुझे तेरा पता बता दे ,
कोई माझी ,तेरे किनारे मुझे ले जाए ,
कोई देवता तुझे फिर मेरी मोहब्बत बना दे.......
या तो तू यहाँ आजा ,
या मुझे वहां बुला ले......
मैंने अपने घर के दरवाजे खुले रख छोडे है ........

(२) मौनता

मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
जिसे सब समझ सके , ऐसी परिभाषा देना ;
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना.
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
ताकि ,मैं अपने शब्दों को एकत्रित कर सकूँ
अपने मौन आक्रोश को निशांत दे सकूँ,
मेरी कविता स्वीकार कर मुझमे प्राण फूँक देना
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
ताकि मैं अपनी अभिव्यक्ति को जता सकूँ
इस जग को अपनी उपस्तिथि के बारे में बता सकूँ
मेरी इस अन्तिम उद्ध्ङ्तां को क्षमा कर देना
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
ताकि ,मैं अपना प्रणय निवेदन कर सकूँ
अपनी प्रिये को समर्पित , अपना अंतर्मन कर सकूँ
मेरे नीरस जीवन में आशा का संचार कर देना
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
ताकि ,मैं मुझमे जीवन की अनुभूति कर सकूँ
स्वंय को अन्तिम दिशा में चलने पर बाध्य कर सकूँ
मेरे गूंगे स्वरों को एक मौन राग दे देना
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
ताकि मुझमे मौजूद हाहाकार को शान्ति दे सकूँ
मेरी नपुसंकता को पौरुषता का वर दे सकूँ
मेरी कायरता को स्वीकृति प्रदान कर देना
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
ताकि मैं अपने निकट के एकांत को दूर कर सकूँ
अपने खामोश अस्तित्व में कोलाहल भर सकूँ
बस, जीवन से मेरा परिचय करवा देना
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
ताकि , मैं स्वंय से चलते संघर्ष को विजय दे सकूँ
अपने करीब मौजूद अन्धकार को एकाधिकार दे सकूँ
मृत्यु से मेरा अन्तिम आलिंगन करवा देना
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
जिसे सब समझ सके , ऐसी परिभाषा देना ;
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना….

(३) आंसू

उस दिन जब मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ा ,
तो तुमने कहा..... नही..
और चंद आंसू जो तुम्हारी आँखों से गिरे..
उन्होंने भी कुछ नही कहा... न तो नही ... न तो हाँ ..
अगर आंसुओं कि जुबान होती तो ..
सच झूठ का पता चल जाता ..
जिंदगी बड़ी है .. या प्यार ..
इसका फैसला हो जाता...

(४) दर्द

जो दर्द तुमने मुझे दिए ,
वो अब तक संभाले हुए है !!
कुछ तेरी खुशियाँ बन गई है
कुछ मेरे गम बन गए है
कुछ तेरी जिंदगी बन गई है
कुछ मेरी मौत बन गई है
जो दर्द तुमने मुझे दिए ,
वो अब तक संभाले हुए है !!

(५) तू

मैं अक्सर सोचती हूँ
कि,
खुदा ने मेरे सपनो को छोटा क्यों बनाया
करवट बदलती हूँ तो
तेरी मुस्कारती हुई आँखे नज़र आती है
तेरी होटों की शरारत याद आती है
तेरे बाजुओ की पनाह पुकारती है
तेरी नाख़तम बातों की गूँज सुनाई देती है
तेरी क़समें ,तेरे वादें ,तेरे सपने ,तेरी हकीक़त ..
तेरे जिस्म की खुशबु ,तेरा आना , तेरा जाना ..
एक करवट बदली तो ,
तू यहाँ नही था..
तू कहाँ चला गया..
खुदाया !!!!
ये आज कौन पराया मेरे पास लेटा है...
****


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4 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

विजय कुमार सत्पथी की कविताएं इधर उधर पढ़ने को मिलती रहती हैं। "रचना समय" में छ्पी कविताओं में मुझे उनकी पहली कविता 'सिलवटों की सिहरन' और अन्तिम कविता 'तू' ने अधिक प्रभावित किया है।

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

विजय जी,
आप की कविताएँ पढीं,
'सिलवटों की सिहरन' और 'तू' कविताएँ बहुत अच्छी लगी.
बधाई!
लिखते रहिये...

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

विजय जी की कविताएँ पिछले कुछ दिनों में ही पढ़ीं.
'रचना समय' में छपी 'सिलवटों की सिहरन' और 'तू' कविता बहुत अच्छी लगीं. बधाई!

मुकेश कुमार तिवारी ने कहा…

विजय जी,

आँसुओं से सच या झूठ का फैसला, वाह बहुत खूब।

सादर,

मुकेश कुमार तिवारी