शनिवार, 19 सितंबर 2009

आलेख



लघुकथा:वस्तुस्थिति
बलराम अग्रवाल
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘साहित्य का साथी’ में लिखा है कि ‘…उपन्यास और कहानी दोनों एक ही जाति के साहित्य हैं, परन्तु उनकी उपजातियाँ इसलिए भिन्न हो जाती हैं कि उपन्यास में जहाँ पूरे जीवन की नाप-जोख होती है, वहाँ कहानी में उसकी एक झाँकी मिल पाती है।’(पृष्ठ 69) तथा ‘मानव चरित्र के किसी एक पहलू पर या उसमें घटित किसी एक घटना पर प्रकाश डालने के लिए छोटी कहानी लिखी जाती है।’(पृष्ठ 70) स्पष्ट है कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के काल तक हिन्दी-क्षेत्र में ‘कहानी’ अथवा ‘छोटी कहानी’, अंग्रेजी में जिसे ‘शॉर्ट स्टोरी’ कहा जाता है, जीवन की एक झाँकी दिखाने वाली अथवा मानव चरित्र के एक पहलू पर प्रकाश डालने वाली कथा-रचना के अर्थ को ध्वनित करने वाली गद्यात्मक रचना थी। ‘सिद्धान्त और अध्ययन’ नामक पुस्तक में बाबू गुलाबराय भी लगभग ऐसा ही विचार व्यक्त करते हैं—‘छोटी कहानी एक स्वत:पूर्ण रचना है जिसमें एक तथ्य या प्रभाव को अग्रसर करने वाली व्यक्ति-केन्द्रित घटना या घटनाओं के आवश्यक उत्थान-पतन और मोड़ के साथ पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाला वर्णन हो।’
प्रारम्भिक समय के उपन्यास या कहानियाँ कोई दुर्लभ रचनाएँ नहीं हैं। जिज्ञासु पाठक आसानी से उन्हें प्राप्त कर सकते हैं। उन्हें देखने पर पता चलता है कि अंग्रेजी की ही नहीं, हिन्दी की भी प्रारम्भिक कहानियों का रूप-आकार आज के लघु-उपन्यास जितना विस्तृत हुआ करता था और तुलनात्मक दृष्टि से वह आकार उन दिनों के उपन्यास की तुलना में इतना छोटा हुआ करता था जितना कि लम्बी कहानी की तुलना में आज लघुकथा का आकार होता है। उन दिनों के आलोचक उपहासपूर्ण उलाहना दिया करते थे कि ‘जो कथाकार अपनी कथा को यथेष्ट विस्तार देने में अक्षम रहता है, वह अपनी उस रचना को ‘कहानी’(शॉर्ट स्टोरी) कहकर प्रचारित करने लगता है।’ यह बिल्कुल वैसी ही आशंका से युक्त बयान होता था जैसी आशंका से युक्त बयान लघुकथा के बारे में एक बार नरेन्द्र कोहली ने दिया था। जो भी हो ‘शॉर्ट स्टोरी’ ने अन्तत: अपनी स्वतन्त्र पहचान बनाई जो आज तक सम्मानपूर्वक कायम है। यहाँ यह बता देना आवश्यक ही है कि अपनी स्वतन्त्र-पहचान कहानी को (उपन्यास की तुलना में) मात्र अपने लघु-आकार के कारण ही नहीं मिली थी, बल्कि उसकी अपनी प्रभावपूर्ण क्षमताएँ, मौलिक विशेषताएँ तथा सामयिक पत्र-पत्रिकाओं द्वारा उसका प्रचारित होना आदि अन्य अनेकानेक कारण भी थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि उपन्यास में पात्रों और घटनाओं की न सिर्फ भरमार बल्कि प्रधानता रहती थी जबकि कहानी में ऐसा नहीं था। कहानीकार एक लक्ष्य तय करता था और उस लक्ष्य की प्राप्ति अथवा पूर्ति के लिए वह पात्रों और घटनाओं को एक योजनाबद्ध तरीके से प्रस्तुत करता था। इसप्रकार पात्र अथवा घटनाएँ, जो ‘कथा का आवश्यक हिस्सा’ होने के नाम पर तत्कालीन उपन्यास में बोझिलता का कारण बनने लगे थे, कहानी का धरातल पाकर अनुशासनबद्ध होने लगे। यह कहना भी गलत न होगा कि तत्कालीन आलोचकों द्वारा लगभग सिरे से उपेक्षित ‘कहानी’ ने पात्रों व घटनाओं को अनुशासनबद्ध कर पाने की अपनी गु्णात्मक क्षमता के कारण ही आम पाठकों के बीच अपनी उपस्थिति को लगातार दर्ज करने व किए रखने में सफलता प्राप्त की और उपन्यास को पीछे छोड़कर लम्बे समय तक रचनात्मक-साहित्य में केन्द्रीय-विधा की भूमिका निभाई।
इस तथ्य की लेशमात्र भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि काल अथवा परिस्थितियों के जिन दबावों ने पूर्वकालीन कथाकारों को उपन्यास से कहानी की ओर उन्मुख किया था, लगभग उन जैसे दबावों के चलते ही बीसवीं सदी में आठवें दशक के कथाकारों और कुछेक कथातत्वदर्शियों को कहानी के प्रचलित ढाँचे में परिवर्तन की आवश्यकता महसूस हुई। उन्होंने महसूस किया कि ‘…गल्प अथवा छोटी कहानी केवल एक प्रसंग को लेकर उसकी एक मार्मिक झलक दिखा देने का ही उद्देश्य रखने लगी है। वह जीवन का समय-सापेक्ष चतुर्दिक चित्र न अंकित कर केवल एक क्षण में घनीभूत जीवन-दृश्य दिखाने लगी है।’(साहित्यालोचन/श्यामसुन्दर दास)
‘‘मेरी प्रिय कहानियाँ’ की भूमिका-स्वरूप ‘‘प्रतिवेदन’ में अज्ञेय जी द्वारा मार्च 1975 में लिखित ये पंक्तियाँ देखें—‘बिना कहानी की सम्यक परिभाषा के कहा जा सकता है कि कहानी एक क्षण का चित्र प्रस्तुत करती है। क्षण का अर्थ आप चाहे एक छोटा कालखण्ड लगा लें, चाहे एक अल्पकालिक स्थिति, एक घटना, डायलॉग, एक मनोदशा, एक दृष्टि, एक(बाह्य या आभ्यंतर) झांकी, संत्रास, तनाव, प्रतिक्रिया, प्रक्रिया…इसीप्रकार चित्र का अर्थ आप वर्णन, निरूपण, संकेतन, सम्पुंजन, रेखांकन, अभिव्यंजन, रंजन, प्रतीकन, द्योतन, आलोकन—जो चाहें लगा लें, या इनके जो भी जोड़-मेल। बल्कि और-भी महीन-मुंशी तबीयत के हों तो ‘प्रस्तुत करना’ को लेकर भी काफी छानबीन कर सकते हैं। इस सबके लिए न अटककर कहूँ कि कहानी क्षण का चित्र है और क्षण क्या है, इसी की हमारी पहचान निरन्तर गड़बड़ा रही है या संदिग्ध होती जा रही है।’ और इसी के साथ ‘नयी कहानी’ के उन्नायकों में से एक कथाकार-आलोचक-संपादक राजेन्द्र यादव की यह टिप्पणी भी दृष्टव्य है—‘सड़े आदर्शों और विघटित मूल्यों की दुर्गंधि से भागने की छटपटाहट बौद्धिक मुक्ति का प्रारम्भ थी। वैयक्तिकता की खोज और प्रामाणिक अनुभूतियों का चित्रण, आरोपित लक्ष्यों, नकली परिवेश और हवाईपने से ऊबा हुआ कथाकार अपने और अपने परिवेश के प्रति ईमानदार रहना चाहता है इसलिए उसने अनदेखे अतीत और अनभोगे भविष्य से नाता तोड़कर अपने को ‘यहाँ और इसी क्षण’ पर केन्द्रित कर दिया, उसका अपना ‘यही क्षण’, जो उसका कथ्य है, तथ्य है और उसका अपना जीवन-मूल्य है।’
इन दोनों ही वक्तव्यों में कहानी के परम्परागत कथ्य, रूप-स्वरूप, प्रस्तुति और परिभाषा में बदलाव के संकेत हैं; और इस तरह के संकेत उस काल के लगभग हर कहानी-विचारक के वक्तव्य में देखने को मिलते हैं। यह अनायास नहीं था कि जिस काल में अज्ञेय, राजेन्द्र यादव और उनकी समूची कथा-पीढ़ी ‘यहाँ और इसी क्षण’ पर केन्द्रित ‘एक क्षण के चित्र’ को कहानी कह रही थी, नई पीढ़ी के कतिपय कथाकार उसी ‘एक क्षण के चित्र’ को निहायत ईमानदारी, श्रम और कथात्मक बुद्धिमत्ता के साथ लघुकथा के रूप में प्रस्तुत करने का कौशल दिखा रहे थे। कहानी के कभी इस तो कभी उस आन्दोलन में दशकों तक पलटियाँ मारकर थक चुकी तत्कालीन कथा-पीढ़ी उसके परम्परागत स्वरूप के बारे में अपनी आभ्यन्तर अस्वीकृति को वक्तव्यों से आगे यदा-कदा ही कथात्मक अभिव्यक्ति दे पा रही थी(‘अपने पार’ और ‘हनीमून’—राजेन्द्र यादव) और टॉप-ऑर्डर आलोचकों की अस्वीकृति व उदासीनता से आहत हो उस दिशा में सार्थकत: आगे नहीं बढ़ पा रही थी। लघुकथा से जुड़े कथाकारों ने ऐसी प्रत्येक अस्वीकृति और उदासीनता का सामना बेहद धैर्यशीलता के साथ रचनात्मकता से जुड़े रहकर किया और विधा को सँवारने, सर्वमान्य-सामान्य बनाने व पूर्व पीढ़ी को इस धारा से जोड़े रखने में सफल रहे। इस संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय यह भी है कि लघुकथा को उच्च-स्तर पर प्रचारित करने का श्रेय, हिन्दी कहानी के कथ्यों को प्रेमचंदपरक कथ्यों से आगे सरकाने की साहसपूर्ण, सक्रिय और सकारात्मक पहल करने वाले कथाकारों में से एक—कमलेश्वर को जाता है। कहानी के तत्कालीन जड़-फॉर्म को तोड़ने की पहल करते हुए ‘सारिका’ के कई अंकों को उन्होंने ‘लघुकथा-बहुल अंक’ के रूप में प्रकाशित किया। यह एकदम अलग बात है कि कुछेक रचनाओं को छोड़कर अधिकांशत: उनकी वह पहल व्यंग्यपरकता के नाम पर छिछली चुटकुलेबाजी और पैरोडीपन में ही उलझी रही। नि:संदेह यह भी लघुकथा से गंभीरतापूर्वक जुड़े तत्कालीन कथाकारों का ही बूता था कि हास्यास्पद लघुकथाएँ लिखकर ‘सारिका’ में छपने या छपते रहने के मोह में वे नहीं फँसे और गुणात्मक व गंभीर लेखन से नहीं डिगे।
समकालीन उपन्यास और कहानी दोनों के बारे में एक बात अक्सर कही जाती रही है कि व्यक्ति-जीवन में आज इतनी विविधताएँ घर कर गई हैं कि जीवन को उसकी सम्पूर्णता में जीने की बजाय मनुष्य उसके खण्डों में जीने को अभिशप्त है। अर्थात जीवनचर्या ने आज मानव-व्यक्तित्व को खण्ड-खण्ड करके रख दिया है। आम आदमी आज अनैतिक, अवैधानिक या असामाजिक कार्यों से अपनी सम्बद्धता को जीवनयापन सम्बन्धी विवशताओं के कारण ही स्वीकार करता है, सहज और सामान्य रूप में नहीं। अब, लघुकथा भी चूँकि जीवन और व्यक्तित्व दोनों को यथार्थत: अभिव्यक्त करने वाली विधा है इसलिए उसमें खण्डित व्यक्ति-जीवन और खण्डित-व्यक्तित्व का चित्रण सर्वथा स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन यहाँ ध्यान देने और सावधानी बरतने की बात यह है खण्डित-व्यक्तित्व के चित्रण की यह अवधारणा एक कथाकार के रूप में हम पर इतनी अधिक हावी न हो जाए कि हमारी लघुकथाओं में हर तरफ अराजक चरित्र ही नजर आते रहें तथा सहज और सम्पूर्ण मनुष्य की छवि उनमें से पूरी तरह गायब ही हो जाए। बेशक, बिखर चुके जीवन-मूल्यों के बीच रह रहा कथाकार अपने भोगे हुए अनुभव और देखे हुए सत्य को ही अभिव्यक्त करेगा, लेकिन उसकी यथार्थपरक अन्तर्दृष्टि, अन्तश्चेतना, विवेकशीलता और जीवन-मूल्यों के प्रति उसकी निष्ठा की परीक्षा भी इसी बिन्दु पर आकर होगी।
यह सहज ही जाना-पहचाना तथ्य है कि अपने दीर्घकालीन अनुभवों से मनुष्य ने जाना कि यह प्रकृति स्वयं तो परिवर्तनशील है ही, वह खुद भी उसे बदल सकता है। सहज अनुभवों के आधार पर ही उसने यह भी जाना कि उसके चारों ओर फैली यह सृष्टि जैसी आज नजर आती है, सदा वैसी ही नहीं थी। मनुष्य के इस अध्ययन और आकलन ने विज्ञान को जन्म दिया, उसे कर्मठता प्रदान की और इसी के बल पर उसने प्रकृति के अनेक स्रोतों को अपने अनुरूप ढालने की पहल की। प्रकृति-प्रदत्त विपरीत परिस्थितियों से हार मान लेने की बजाय उसने उनसे जूझने और उन पर विजय प्राप्त करने की हिम्मत स्वयं में पैदा की। इस प्रकार उसने यथार्थ को नया अर्थ प्रदान किया और उससे एक सक्रिय संपर्क स्थापित करने में सफल रहा। यहीं पर उसने प्रकृति से अपने भेद की नींव रखी और इसी कारण उसमें काल-चेतना समाविष्ट हुई। इस प्रकार वह वास्तविक यथार्थ के सक्रिय संपर्क में आया और प्रकृति, समाज और उसके स्वयं के बीच के संबंध इसी यथार्थ के अंग बन गए। रूप-कथा, परी-कथा और पौराणिक आख्यानों से उपन्यास, कहानी और समकलीन लघुकथा इसी बिन्दु पर प्रथक होते हैं। पूर्वकालीन लघुकथाओं में किसी सार्वकालिक, सामान्य और चिरन्तन सत्य की अभिवयक्ति होती थी, जबकि समकालीन लघुकथा में विशेष और युगीन ही नहीं, वैयक्तिक सत्य की भी अभिव्यक्ति होती है। समकालीन लघुकथा में व्यंजित यथार्थ एक गतिशील और परिवर्तनशील यथार्थ है। इसमें मानव के सुख-दुख, आशा-आकांक्षाएँ विशिष्ट काल और संदर्भ में अंकित होते हैं।
राजेन्द्र यादव लघुकथा को कहानी का ‘बीज’ बताते हैं। अब, ‘बीज’ को अगर स्थूल अर्थ में ग्रहण करें तो इसे नासमझी ही माना जाएगा; क्योंकि उन जैसे पके और पघे विचारक के प्रत्येक शब्द या वाक्य को स्थूल अर्थ में ग्रहण नहीं किया जाना चाहिए। हम यों भी तो सोच सकते हैं कि यह सिर्फ कहानी का नहीं, बल्कि समूची कथा-विधा का ‘बीज’ है जो वस्तुत: लघुकथा में भी उतना ही निहित है जितना कि कहानी या उपन्यास या नाटक आदि अन्य कथा-विधा में; और इसको सिद्ध किए बिना कथा के परमतत्व की सिद्धि सम्भव नहीं है। अगर लघुकथा ‘बीज’ है तो हर कथा-रचना के अन्तर में कम से कम एक लघुकथा विद्युत-तरंग की तरह विद्यमान है और पैंसठोत्तर-काल की तो अनगिनत कहानियाँ ऐसी हैं जो अन्यान्य प्रसंगों के सहारे विस्तार पाई हुई लघुकथा ही प्रतीत होती हैं। इस दृष्टि से देखें तो लघुकथा को कहानी का ‘बीज’ क्या, सीधे-सीधे उसकी शक्ति कहना भी न्यायसंगत है।
ऊपर उद्धृत वाक्यांशों विशेषत: अज्ञेयजी और यादवजी के कथनांशों को कथा के प्रांगण में लघुकथा के कदमों की स्पष्ट आहट के रूप में पहचाना और रेखांकित किया जाना चाहिए था, लेकिन आलोचकीय दायित्वहीनता का निर्वाह करते हुए इन्हें न सिर्फ पहचाना नहीं गया बल्कि तिरस्कृत भी रखा गया।
यह तो मानना ही पड़ेगा कि आज का लेखक अपनी रचना के सूत्र यथार्थ जीवन की बेहद पथरीली और ऊबड़-खाबड़ जमीन से खींचकर लाता है। प्रत्येक रचनाकार अपनी रचना के लिए अपनी परम्परा से और अपने परिवेश से प्रेरणा पाता है; और समाज में जो वृत्तियाँ उसे अपने अनुशीलन से अथवा अपने वातावरण से थोड़ी-बहुत उपलब्ध होती हैं, उनका सृजन पर थोड़ा-बहुत कॉन्शस-अनकॉन्शस, उलटा या सीधा असर पड़ता ही है। यह असर उसके निजी व्यक्तित्व के वैशिष्ट्य से नियमित और रूपान्तरित भी होता है और उसके कृतित्व को सम्पन्नता भी दे सकता है या उसे हानि भी पहुँचा सकता है। यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि यह जरूरी नहीं है कि इस प्रकार का स्वाध्याय उसकी अपनी विधा की रचनाओं तक ही सीमित रहे और न ही यह जरूरी है कि वह किसी विधा-विशेष की सभी उपलब्ध कृतियों का अनुशीलन करे। इस सब का नियमन तो रचनाकार की रुचि द्वारा ही होगा। इस प्रकार प्रत्येक रचनाकार का सृजन एक अत्यन्त जटिल रूप ग्रहण कर लेता है जिसमें कितनी ही धाराओं से आकर विभिन्न प्रभाव संश्लिष्ट हो जाते हैं।
आज का कथानायक मधुर कल्पनाओं के बीच कुछेक आदर्शों की रक्षा या स्थापना हेतु पाठक का मनोरंजन मात्र नहीं करता, बल्कि व्यवस्थाजन्य विकृतियों के खिलाफ आमजन के अन्तर्मन में दबी पड़ी हर स्तर की प्रतिहिंसा को खुले रूप में संसार के सामने रखता है। उसने यह जान लिया है कि भ्रष्ट और आततायी चरित्र वाले लोगों पर भावुकतापूर्ण करुणा बरसाने वाले शब्द अब बेअसर हैं। ऐसे शब्द याचना के हों या धिक्कार के, न तो उनकी सोई हुई चेतना को जगा सकते हैं और न ही उनकी आत्मा का परिमार्जन कर सकते हैं। समाज का कल्याण किसी भी प्रकार अब याचना-भरे शब्द नहीं कर सकते हैं। इसलिए भ्रष्ट चरित्रों के सुधार का एकमात्र उपाय यही बचा है कि इनके भीतर जमा हो चुके मल और उसकी दुर्गन्ध को ऐन इनकी आँखों और नथुनों के आगे सरका दिया जाए, ताकि ये अपनी ही गन्दगी और दुर्गन्ध से बचकर भागे फिरें लेकिन भागने न पाएँ। यही आज का यथार्थ है यही यथार्थवादी दृष्टि। अत: अन्य अनेक कारणों के साथ-साथ यह भी एक कारण है कि हिन्दी की ‘पहली लघुकथा’ की दौड़ में ‘अंगहीन धनी’ व ‘अद्भुत संवाद’(दोनों रचनाएँ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, ‘परिहासिनी’ 1876) ही अग्रणी ठहरती हैं। ये दोनों ही रचनाएँ इस दृष्टि से उस चेतना से लैस हैं जो सार्वकालिक है और जो आज भी समकालीनता को आलोकित किए हुए है। जो आलोचक मित्र ‘परिहासिनी’ को चुटकुलों और हास-परिहास की पुस्तक कहकर विवेचन से खारिज कर दे रहे हैं उनके पुनर्विचार हेतु यहाँ इन दोनों में से एक ‘अंगहीन धनी’ को इस दृष्टि से उद्धृत कर रहा हूँ कि वे कृपया बताएँ कि यह रचना चुटकुला या हास-परिहास की रचना किस कोण से है:
अंगहीन धनी
एक धनिक के घर उसके बहुत-से प्रतिष्ठित मित्र बैठे थे। नौकर बुलाने को घंटी बजी। मोहना भीतर दौड़ा, पर हँसता हुआ लौटा।
और नौकरों ने पूछा,“क्यों बे, हँसता क्यों है?”
तो उसने जवाब दिया,“भाई, सोलह हट्टे-कट्टे जवान थे। उन सभों से एक बत्ती न बुझे। जब हम गए, तब बुझे।”
मोहना का यह जवाब शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर ब्रिटिश-दासता में जकड़े देश के तत्कालीन धनिकों, जमीदारों और प्रतिष्ठितों के सामन्तवादी चरित्र का खुला चिट्ठा है। यह हँसने या हँसाने वाला नहीं, बल्कि आत्म-साक्षात्कार कराने वाला, मनो-मस्तिष्क को विवशतापरक क्रन्दन से छिन्न और खिन्न कर देने वाला सांकेतिक वाक्य है। इस रचना का वैशिष्ट्य भी यही है कि इसे सपाट उद्बोधक रचना के तौर पर लिखने की बजाय भारतेंदुजी ने गहन सांकेतिक शैली प्रदान की है। संकेत यह है कि सोलह हट्टे-कट्टे जवान जब कमरे में जल रही एक बत्ती तक स्वयं बुझाने की जेहमत नहीं उठा सकते, तब ब्रिटिश-दासता से मुक्ति के लिए लड़ना तो दूर उसके बारे में वे आखिर सोच भी कैसे सकते हैं! कहना न होगा कि भारतेंदुजी का यह संकेत ही आगे चलकर महात्मा गाँधी का कार्य-सिद्धान्त भी बना। दक्षिण अफ्रीका में स्वाधीनता-आंदोलन की शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा था कि ब्रिटिश-दासता के तले अमीर से अमीर और गरीब से गरीब हर भारतीय समान रूप से दास है। इस दासत्व के चलते न कोई किसी का मालिक है, न कोई किसी का नौकर; और इसीलिए दासता से मुक्ति हेतु सभी को समान रूप से साथ चलना होगा। इस आंदोलन में घरों में पाखाना साफ करने के लिए आने वाले सफाई कर्मचारी की भागीदारी भी उतनी ही होगी, जितनी कि उस अमीर की जिसके घर का पाखाना वह साफ करता है।
किसी भी रचना का विवेचन स्थूलत: नहीं बल्कि उसके रचनाकार व रचनाकाल दोनों की विविध परिस्थितियों की विवेचना के मद्देनजर किया जाना चाहिए।
*****
डॉ. बलराम अग्रवाल का जन्म २६ नवंबर, १९५२ को उत्तर प्रदेश के जिला बुलंदशहर में हुआ था. आपने हिन्दी साहित्य में एम.ए., अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा, और ’समकालीन हिन्दी लघुकथा का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन’ विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की.लेखन व सम्पादन : समकालीन हिन्दी लघुकथा के चर्चित हस्ताक्षर. सभी स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, लघुकथा आदि प्रकाशित. अनेक रचनाएं विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित व प्रशंसित . भारतेम्दु हरिश्चन्द्र , प्रेमचंद, प्रसाद, शरत, रवींद्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी आदि वरिष्ठ कथाकारों की चर्चित/ज़ब्त कहानियों के संकलनों के अतिरिक्त कुछेक लघु-पत्रिकाओं व लघुकथा-विशेषांकों का संपादन. प्रेमचंद की लघुकथाओं के संकलन ’दरवाज़ा’ (२००५) का संपादन. ’अडमान-निकोबार की लोककथाएं’(२००१) का अंग्रेजी से अनुवाद व पुनर्लेखन.हिन्दीतर भारतीय कथा-साहित्य की श्रृंखला में ’तेलुगु की सर्वश्रेष्ठ कहानियां’ (१९९७) तथा ’मलयालम की चर्चित लघुकथाएं’ (१९९७) के बाद संप्रति तेलुगु की लघुकथाओं पर कार्यरत. अनेक विदेशी लुघुकथाओं पर कार्यरत. अनेक विदेशी लघुकथाओं व कहानियों के अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित.अनेक वर्षों तक रंगमंच से जुड़ाव. कुछ रंगमंचीय नाटकों हेतु गीत-लेखन भी. हिन्दी फीचर फिल्म ’कोख’ (१९९४) के संवाद-लेखन में सहयोग.कथा-संग्रह ’सरसों के फूल’ (१९९४), ’दूसरा भीम’ (१९९६) और ’चन्ना चरनदास’ (२००४) प्रकाशित.

संप्रति: स्वतत्र लेखन.e-mail: 2611ableram@gmail.com
सम्पर्क : एम-७०, नवीन शाहदरा, दिल्ली -११००३२.फोन . ०११-२२३२३२४९मो. ०९९६८०९४४३१

10 टिप्‍पणियां:

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

उम्दा आलेख. बहुत बढ़िया विश्लेषण, पार आकार थोड़ा ज़्यादा बड़ा हो गया है. ऐसा लगता है कि डॉ. द्विवेदीयुगीन आलोचकों से प्रभावित हो गया है. थोड़ा छोटा होता तो सबके लिए पठनीय होता.

nisha bhosle ने कहा…

aalekh bahut pasand aaya.pathniya hai.laghukatha ek sashakt vidha hai. yah rachnakar par nirbhar karta hai ki vah apni abhivyakti is tarah se prastut kare ki rachna paathak par vanchit prabhav chod sake aur use sochne ke liye majboor kar sake.
balram ji alaw me mujhe yah lekh padhne ka avasar mila .
nisha

सुभाष नीरव ने कहा…

भाई बलराम, लघुकथा को लेकर तुम्हारी चिंता जायज है, उससे मैं भी सहमत हूं। लेकिन इतनी सी बात समझाने के लिए तुमने उदाहरण सहित कुछ अधिक ही विस्तार दे डाला है। खैर, बात को समझाने के लिए आलेख कुछ तो आकार लेगा ही। पर यार इन चिंताओं से लघुकथा के आम पाठक को क्या लेना देना। जो लघुकथा लेखन करते हैं, मुझे लगता है, वे भी इस तरह की बातों पर अब अधिक ध्यान नहीं देते। कुछ लेखकों को छोड़ दें तो अधिकांश लेखक भी ऐसे लेखों को पढ़ना पसन्द नहीं करते। पढ़ कर उसे अमल में लाने की बात तो दूर की है। खैर, चूँकि तुम स्वयं लघुकथा लेखन से काफी अरसे से जुड़े हुए हो और अभी भी इस विधा में रचनारत हो, इसलिए तुम इस विधा के विकास और बेहतरी के लिए निरंतर सोचते रहते हो। जो चिंताएं तुम अपने आलेखों में व्यक्त करते हो, अगर ध्यान से देखा जाए तो तुम्हारी लघुकथाएं भी उन चिंताओं से मुक्ति का राह सा बनाती दीखती हैं। कहने का तात्पर्य यह है मेरे भाई कि तुम्हारी कथनी और करनी में मुझे फर्क नजर नहीं आता। इसी तरह अपने रचना कर्म में लगे रहों, कहते हैं न कि रस्सी के बार बार घिसने से पत्थर पर भी लकीर बन जाती है।

PRAN SHARMA ने कहा…

SHREE BALRAM AGRAWAL JEE KAA LEKH
PASAND AAYAA HAI.UNHONNE BAKHOOBEE
UPNYAS ,KAHANI AUR LAGHUKATHA KAA
VISHLESHAN KIYAA HAI.UNKEE ACHCHHEE
PAKAD HAI.
EK PRASHN HAI MERE MUN MEIN
VO YE KI KYA KAARAN KI UPNYAS,
KAHANI AUR LAGHUKATHA SIMATTEE JAA
RAHEE HAIN YANI UNMEIN KISSAGOEE
RAHEE HEE NAHIN.UPNYAS AB KAHANI
LAGNE LAGAA HAI AUR KAHANI LAGHUKATHA.LAGHUKATHA KEE TO POOCHHIYE HEE MAT.EKAADH PANKTI MEIN LAGHUKATHA SAMAAPT.EK BAAR
MERE MITR MERE PAAS AAYE .BOLE-
" MAINE EK LAGHUKATHA LIKHEE HAI."
MAINE KAHAA-" SUNAAEEYE."
UNKEE LAGHUKATHA KEE KATHAVASTU
THEE-- KYON
LAGHUKATHA SUNAKAR VE KAHNE LAGE- " AB AAP SOCHIYE IS EK SHABD
KEE LAGHUKATHA KE BAARE MEIN".
KAHANI MEIN JAB KISSAGOEE NAHI
AUR LAGHUKATHA MEIN JAB KATHA NAHIN
TO UNKAA AUCHITYA HEE KYA?

सुभाष नीरव ने कहा…

भाई प्राण जी, आपकी बात भी खरी है। "लघु कथा" में तो स्पष्टत: "कथा" शब्द जुड़ा है, फिर उसमें 'कथाततत्व' तो होना परम अनिवार्य है। इसके बिना तो लघुकथा लघुकथा नहीं हो सकती, कुछ और हो तो हो ! हाँ, इस कथा तत्व को कहानी वाले कथातत्व के कैसे विलगाया जाए, और उसमें कैसे कसावट लायी जाए, यह तो लेखक के स्वयं के रचना-कौशल पर निर्भर करता है। 'कहानी' और 'उपन्यास' में किस्सागोई कथातत्व में प्रवाह और पठनीयता लाती है, इसलिए यह किस्सागोई मुझे तो इन दोनों विधाओं - कहानी और उपन्यास - के लिए अनिवार्य तत्व लगती है।

बलराम अग्रवाल ने कहा…

आदरणीय भाई चन्देलजी,
आलेख प्रकाशित करने के लिए धन्यवाद। जैसाकि इन्द्रदेव सांकृत्यायन व अन्य पाठकों ने लिखा है, लेख वाकई लम्बा है। इसे वस्तुत: इससे छोटा मैं कर नहीं सका। आखिर यह लेख है, लघुकथा नहीं।
सभी टिप्पणीकर्ताओं का आभार कि उन्होंने इसे राय देने योग्य समझा, सराहा।
एक बात आ0 प्राणजी से इस अनुरोध के साथ कि मेरी इस बात को वे अन्यथा न लेकर विमर्श का ही हिस्सा मानें--आप अपने मित्र को कृपया दुनिया की सबसे छोटी कविता अवश्य पढ़ाएं। वह यों है--'I
Why?'
और उनसे यह अवश्य पूछिए कि एक शब्द "क्यों", इस रचना को उन्होंने लघुकथा ही क्यों कहा? दुनिया का सबसे छोटा, मात्र एक शब्द का, उपन्यास क्यों नहीं कहा?

PRAN SHARMA ने कहा…

MAIN JAB PAANCH -CHHE SAAL KAA THA
MEREE DADI HAR ROZ RAAT KO KAHANI
SUNAAYAA KARTEE THEE.SUNANE SE
PAHLE VE POOCHHA KARTEE THEE-
" BADEE KAHANI SUNAAOON YA CHHOTEE?" UNKEE SUNAAYEE CHHOTEE
KAHANI MEIN BHEE KATHA TATTV YANI
KISSA HOTA THA,AESA KISSA JO MUN KO
BAANDHE RAKHTHA THAA.AAJ PAATHKON
KO SHIKAAYAT HAI KI UPNYAS AUR
KAHANI KEE TARAH LAGHUKATHA BHEE
" PAHELEE" BANTEE JAA RAHEE HAI.
KYA KAARAN HAI KI PREM CHAND,
KRISHNA CHANDRA ,MANTO,BHAGWATI
CHARAN VERMA,AMRIT LAL NAAGAR,
JAINENDRA KUMAR JAESE KAHANIKARON
KEE KAHANIYAN AAJ BHEE PATHAK PADHTE AUR YAAD KARTE HAIN?KYA KAARAN HAI KI AB KAA PATHAK KAHANI-
KAR SE KATTA JAA RAHAA HAI,USSE
DOOR HO RAHAA HAI? KYA KAARAN HAI KI AB KE SMOOCHE KATHA SAHITYA
( UPNYAAS,KAHANI AUR LAGHUKATHA)
MEIN AVRODH SAA AA GAYAA HAI? KYON
KOEE PAATHAK ADHIKAANSH KAHANION
KE PAHLE PARAGRAPHS SE AAGE NAHIN
BADH PAATAA HAI?DARASL KAHANI VAHEE
PATHNIY HAI JISMEIN KATHATATTV HAI,
AESA KATHATATTV MUN KO BAANDH RAKHNE MEIN SAKSHAM HO.AGAR KAHANI-
KAR KAHANI KAA TAANAA-BAANAA NAHIN
BUN SAKTA, BEHTAR HAI KI VO KAHANI
SE DOOR HEE RAHE.

Randhir Singh Suman ने कहा…

एक धनिक के घर उसके बहुत-से प्रतिष्ठित मित्र बैठे थे। नौकर बुलाने को घंटी बजी। मोहना भीतर दौड़ा, पर हँसता हुआ लौटा।
और नौकरों ने पूछा,“क्यों बे, हँसता क्यों है?”
तो उसने जवाब दिया,“भाई, सोलह हट्टे-कट्टे जवान थे। उन सभों से एक बत्ती न बुझे। जब हम गए, तब बुझे।nice

महावीर ने कहा…

श्री बलराम जी ने बहुत ही सार्थक विश्लेषण किया है. लेख में आगे पढ़ने की जिज्ञासा बनी रहती है. लघुकथा का इतिहास, विभिन्न काल में लघुकथा के रूप और समकालीन लघुकथा पर जो विवेचन किया है, निस्संदेह बहुत उपयोगी है. लघुकथा के आकार, कथ्य और उसकी विशेषताओं पर दिए गए विचार आजके लघुकथाकारों के लिए बहुत सहायक और लाभदायक सिद्ध होंगे.
'यहाँ और इसी क्षण' से लघुकथा लेखन में एक सही दिशा देती है जिसकी आज भी कई लेखकों में इस की कमी महसूस होती है.
" ध्यान देने और सावधानी बरतने की बात यह है खण्डित-व्यक्तित्व के चित्रण की यह अवधारणा एक कथाकार के रूप में हम पर इतनी अधिक हावी न हो जाए कि हमारी लघुकथाओं में हर तरफ अराजक चरित्र ही नजर आते रहें तथा सहज और सम्पूर्ण मनुष्य की छवि उनमें से पूरी तरह गायब ही हो जाए। बेशक, बिखर चुके जीवन-मूल्यों के बीच रह रहा कथाकार अपने भोगे हुए अनुभव और देखे हुए सत्य को ही अभिव्यक्त करेगा, लेकिन उसकी यथार्थपरक अन्तर्दृष्टि, अन्तश्चेतना, विवेकशीलता और जीवन-मूल्यों के प्रति उसकी निष्ठा की परीक्षा भी इसी बिन्दु पर आकर होगी।" - बहुत सार्थक पंक्तियाँ हैं.
'अंगहीन' के उद्धरण से यह भी भ्रम टूट जाता है कि 'अंगहीन' जैसी सांकेतिक शैली में लिखी हुई कथाएँ केवल हास-परिहास के लिए ही नहीं हैं.
बधाई स्वीकारें.

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

बेहद सुन्दर आलेख -- सही विश्लेषण !