गुरुवार, 25 मार्च 2010

लघुकथा

बलराम अग्रवाल की तीन लघुकथाएं

लड़ाई

दूसरा पैग चढ़ाकर मैंने जैसे-ही गिलास को मेज पर रखा—सामने बैठे नौजवान पर मेरी नजरें टिक गईं। उसने भी मेरे साथ ही अपना गिलास होठों से हटाया था। बिना पूछे मेरी मेज पर आ बैठने और पीना शुरू कर देने की उसकी गुस्ताखी पर मुझे भरपूर गुस्सा आया लेकिन…बोतल जब बीच में रखी हो तो कोई भी छोटा, बड़ा या गुस्ताख नहीं होता—अपने एक हमप्याला अजीज की यह बात मुझे याद हो आई। इस बीच मैंने जब भी नजर उठाई, उसे अपनी ओर घूरते पाया।
“अगर मैं तुमसे इस कदर बेहिसाब पीने की वजह पूछूँ तो तुम बुरा नहीं मानोगे दोस्त!” मैं उससे बोला।
“गरीबी…मँहगाई…चाहते हुए भी भ्रष्ट और बेपरवाह सिस्टम को न बदल पाने का नपुंसक-आक्रोश—कोई भी आम-वजह समझ लो।” वह लापरवाह अंदाज में बोला,“तुम सुनाओ।”
“मैं!” मैं हिचका। इस बीच दो ‘नीट’ गटक चुका वह भयावह-सा हो उठा था। आँखें बाहर की ओर उबल आयी थीं और उनका बारीक-से-बारीक रेशा भी इस कदर सुर्ख हो उठा था कि एक-एक को आसानी से गिना जा सके। मुझे लगा कि कुछ ही क्षणों में बेहोश होकर वह मुँह के बल इस टेबल पर बिछ जाएगा।
“है कुछ बताने का मूड?” वह फिर बोला। अचानक कड़वी डकार का कोई हिस्सा उसके दिमाग से जा टकराया शायद। उसका सिर पूरी तरह झनझना उठा। हाथ खड़ा करके उसने सुरूर के उस दौर के गुजर जाने तक मुझे चुप बैठने का इशारा किया और सिर थामकर, आँखें बंद किए बैठा रहा। नशा उस पर हावी होने की कोशिश में था और वह नशे पर; लेकिन गजब की ‘कैपिसिटी’ थी बंदे में। सुरूर के इस झटके को बर्दाश्त करके कुछ ही देर में वह सीधा बैठ गया। कोई भी बहादुर सिपाही प्रतिपक्षी के आगे आसानी से घुटने नहीं टेकता।
“मैं…एक हादसा तुम्हें सुनाऊँगा…।” सीधे बैठकर उसने सवालिया निगाह मुझ पर डाली तो मैंने बोलना शुरू किया,“लेकिन… उसका ताअल्लुक मेरे पीने से नहीं है…हम तीन भी हैं…तीनों शादीशुदा, बाल-बच्चों वाले…माँ कई साल पहले गुजर गई थी…और बाप बुढ़ापे और…कमजोरी की वजह से…खाट में पड़ा है…कौड़ी-कौड़ी करके पुश्तैनी जायदाद को…उसने…पचास-साठ लाख की हैसियत तक बढ़ाया है लेकिन…तीनों में-से कोई भी भाई उस जायदाद का…अपनी मर्जी के मुताबिक…इस्तेमाल नहीं कर सकता…।”
“क्यों?” मैंने महसूस किया कि वह पुन: नशे से लड़ रहा है। आँखें कुछ और उबल आयी थीं और रेशे सुर्ख-धारियों में तब्दील हो गए थे।
“बुड्ढा सोचता है कि…हम…तीनों-के-तीनों भाई…बेवकूफ और अय्याश हैं…शराब और जुए में…जाया कर देंगे जायदाद को…।” मैं कुछ कड़ुवाहट के साथ बोला,“पैसा कमाना…बचाना…और बढ़ाना…पुरखे भी यही करते रहे…न खुद खाया…न बच्चों को खाने-पहनने दिया…बाकी दोनों भाई तो सन्तोषी निकले…लात मारकर चले गए स्साली प्रॉपर्टी को…लेकिन मैं…मैं इस हरामजादे के मरने का इन्तजार कर रहा हूँ…”
“तू…ऽ…” मेरी कुटिलता पर वह एकदम आपे-से बाहर हो उठा,“बाप को गालियाँ बकता है कुत्ते!…लानत है…लानत है तुझ जैसी निकम्मी औलाद पर…।”
क्रोधपूर्वक वह मेरे गिरेबान पर झपट पड़ा। मैं भी भला क्यों चुप बैठता। फुर्ती के साथ नीचे गिराकर मैं उसकी छाती पर चढ़ बैठा और एक-दो-तीन…तड़ातड़ न जाने कितने घूँसे मैंने उसकी थूथड़ी पर बजा डाले। इस मारधाड़ में मेज पर रखी बोतलें, गिलास, प्लेट नीचे गिरकर सब टूट-फूट गए। नशे को न झेल पाने के कारण आखिरकार मैं बेहोश हो गिर पड़ा।
होश आया तो अपने-आप को मैंने बिस्तर पर पड़ा पाया। हाथों पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। माथे पर रुई के फाहे-सा धूप का एक टुकड़ा आ टिका था।
“कैसे हो?” आँखें खोलीं तो सिरहाने बैठकर मेरे बालों में अपनी उँगलियाँ घुमा रही पत्नी ने पूछा।
“ये पट्टियाँ…?” दोनों हाथों को ऊपर उठाकर उसे दिखाते हुए मैंने पूछा।
“इसीलिए पीने से रोकती हूँ मैं।” वह बोली,“ड्रेसिंग-टेबल और उसका मिरर तोड़ डाला, सो कोई बात नहीं; लेकिन गालियों का यह हाल कि बच्चों को बाहर भगा देना पड़ा…रात को ही पट्टी न होती तो सुबह तक कितना खून बह जाता…पता है?”
मुझे रात का मंजर याद हो आया। आँखें अभी तक बोझिल थीं।
“वॉश-बेसिन पर ले-चलकर मेरा मुँह और आँखें साफ कर दो…।” मैं पत्नी से बोला और बिस्तर से उठ बैठा।


आदमी और शहर

शहर से दूर, बाहरी इलाके में बना उसका रेलवे-स्टेशन। घटाटोप अँधेरी रात। प्लेटफॉर्म के उस दूसरे छोर पर अँधेरे में लपलपाता छोटा-सा एक अलाव और उसको घेरे बैठीं चार मानव आकृतियाँ। नाइट-शिफ्ट कर रहे सब-इंसपेक्टर जीवनसिंह ने उधर देखा। कौन लोग हैं?—वह अपने भीतर बुदबुदाया—रात, दो बजे वाली ट्रेन की सवारियाँ हैं या…चोरों-कंजरों का गैंग?
अपने बूटों की ठक-ठक से रात के सन्नाटे को भंग करता हुआ वह अलाव की ओर बढ़ा।
“राम-राम साबजी!” वह निकट पहुँचा तो वे चारों एक-साथ बोले।
“राम-राम भाई!” जीवनसिंह ने कड़क आवाज में अभिवादन स्वीकार किया; फिर पूछा,“यहाँ, प्लेटफॉर्म पर कैसे डेरा डाल लिया?”
“डेरा नहीं है जी!” उसकी इस बात पर उनमें-से एक ने जवाब दिया,“दो बजे तक का टैम बिताना है, बस।”
“बस!” अलाव के एकदम निकट पहुँचकर जीवनसिंह बोला,“ तब तक चलो, मैं भी हाथ सेंक लेता हूँ तुम लोगों के साथ बैठकर।” इतना कहकर वह वहीं बैठ गया। वह दरअसल तय कर लेना चाहता था कि वे लोग वाकई दो बजे वाली ट्रेन के इंतजार में हैं या…।
“अलाव तापने का मजा चुप बैठे रहने में नहीं है भाई!” बातों में लगाकर उन्हें कुरेदने की गरज से माहौल में छाई चुप्पी को तोड़ते हुए कुछ देर बाद वह बोला,“कुछ न कुछ बोलते जरूर रहो।”
“इस बेमजा जिन्दगी के बारे में क्या बोलें साबजी!” एक ने कहा।
“कुछ भी बोलो।” जीवनसिंह बोला,“यह बेमजा कैसे है, यही सुनाओ।”
“ठीक है जी,” दूसरा बोला,“एक किस्सा मैं आपको सुनाता हूँ।”
“सुनाओ।”
“किस्सा यों है कि—एक गाँव में पाँच दोस्त थे।” उसने सुनाना शुरू किया,“पाँचों पढ़े-लिखे। पाँचों बेरोजगार। अपनी बेरोजगारी और गाँववालों के तानों से तंग आकर एक दिन उन्होंने तय किया कि शहर में जाकर कुछ काम किया जाए। बस, उसी दिन वे शहर के लिए चल पड़े। गाँव और शहर के बीच में एक जंगल पड़ता था। बेहद घना और खतरनाक। गाँववाले लाठी-भाला जैसा कोई न कोई हथियार साथ लेकर ही उसमें घुसते थे। लेकिन काम की धुन में उन पाँचों ने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और हाथ हिलाते हुए घुस गए जंगल में। तेज कदमों से चलते हुए करीबन पूरा जंगल पार कर लिया था उन्होंने कि दाईं ओर से अचानक किसी शेर की भयानक दहाड़ उनके कानों में सुनाई पड़ी। एक पल के लिए पाँचों जहाँ के तहाँ ठिठक गए। डरी हुई निगाहों से उन्होंने एक-दूसरे को देखा। जंगल अब अधिक शेष नहीं बचा था। इसलिए उन्होंने शहर की ओर दौड़ लगा दी, बेतहाशा। पीछे-से शेर की दहाड़ लगातार उनका पीछा करती चली आ रही थी…।” इतना किस्सा सुनाकर उसने अपनी जेब-से बीड़ी का एक बंडल निकालकर जीवनसिंह के आगे कर दिया। बोला,“लो, बीड़ी पिओ साबजी।”
“नहीं, मैं बीड़ी नहीं पीता।” जीवनसिंह बोला।
“पीते तो हम भी नहीं हैं।” बंडल में से चार बीड़ियाँ निकालकर उन्हें अलाव की आँच से सुलगाते हुए वह बोला।
“नहीं पीते तो बंडल क्यों रखते हो साथ में?” जीवनसिंह ने पूछा।
“कभी-कभार भीतर का धुआँ भी तो बाहर निकाला होता है न साबजी!” उसने कहा।
“ठीक है…” हथेलियों को अलाव की आग पर सेकने के बाद उन्हें आपस में रगड़ते हुए जीवनसिंह ने उत्सुकतापूर्वक पूछा,“फिर क्या हुआ?”
“फिर?…वे दौड़ते रहे, दौड़ते रहे तब तक…जब तक कि उन्हें दहाड़ सुनाई देनी बन्द न हो गई।” सुलगी हुई बीड़ियों को बारी-बारी अपने साथियों की ओर बढ़ाते हुए उसने आगे सुनाना शुरू किया,“जब दहाड़ सुनाई देनी बन्द हो गई तो उसके बाद एक जगह बैठकर सबने अपनी टूटी हुई साँसों को जोड़ा। कुछ सँभले, तो उन्होंने पाया कि वे सिर्फ चार रह गए हैं। सब सन्न रह गए। पाँचवाँ कहाँ गया? उसे शायद शेर खा गया—ऐसा सोचकर एक ने दूसरे की ओर ताका। उसकी आशंका से सहमत दूसरे से तीसरे और तीसरे ने चौथे की ओर देखा। उसे खोजने के लिए वापस जंगल में घुस जाने की हिम्मत उनमें से किसी के भी अन्दर नहीं थी। कुछ भी कर नहीं सकते थे इसलिए उसकी याद में वहीं बैठकर वे खूब रोए। रोते-रोते उन्होंने तय पाया कि—‘शेर अगर भूखा हो, तो किसी पर दया नहीं करता, बेरोजगार पर भी नहीं। यानी कि प्राणी की पहली जरूरत भोजन है, दया नहीं।’ बस, उन्होंने तुरन्त अपने-अपने आँसू पोंछ डाले और भूखे शेर की तरह शहर में घुस गए।”
इतना कहकर वह चुप हो गया।
“फिर?” जीवनसिंह ने पूछा।
“फिर क्या?…शहर उनसे ज्यादा भूखा और निर्दय था।” तीसरा बोला,“जो-जो उसमें घुसा वो-वो शहर के गाल में समाता रहा। इस तरह से वह उन चारों को चट कर गया…कहानी खत्म!”
“खत्म!…कहानी खत्म?” इतना सुनना था कि जीवनसिंह होठों ही होठों में बुदबुदाया और फफक-फफककर रो पड़ा।
“आप को क्या हुआ साबजी?” उसको रोता देखकर चारों ने एक-साथ पूछा।
“कुछ नही।” किसी तरह अपनी रुलाई को रोककर उसने बोलना शुरू किया,“आज तक मैं समझता रहा कि उस दिन सबसे पीछे मुझे छोड़ डरकर भाग गए मेरे सभी दोस्त शहर में जिंदा होंगे। वो मुझे ढूँढ रहे होंगे और कभी न कभी मिलेंगे जरूर। …लेकिन आज…आज तुम्हारे मुँह से उन सब के मारे जाने की कहानी सुनकर रोना रुक नहीं पा रहा है…काश, वे समझ पाते कि भूख के दिनों में आदमी की पहली जरूरत चौकन्ना रहना और धीरज से काम लेना है, जानवर बन जाना नहीं…।”

गुलामयुग
गुलाम ने एक रात स्वप्न देखा कि शहजादे ने बादशाह के खिलाफ बगावत करके सत्ता हथिया ली है। उसने अपने दुराचारी बाप को कैदखाने में डाल दिया है तथा उसके लिए दुराचार के साधन जुटाने वाले उसके गुलामों और मंत्रियों को सजा-ए-मौत का हुक्म सुना दिया है।
उस गहन रात में ऐसा भायावह स्वप्न देखकर भीतर से बाहर तक पत्थर वह गुलाम सोते-सोते उछल पड़ा। आव देखा न ताव, राजमहल के गलियारे में से होता हुआ उसी वक्त वह शहजादे के शयन-कक्ष में जा घुसा और अपनी भारी-भरकम तलवार के एक ही वार में उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।
सवेरे, दरबार लगने पर, वह इत्मीनान से वहाँ पहुँचा और जोर-जोर से अपना सपना बयान करने के बाद, बादशाह के भावी दुश्मन का कटा सिर उसके कदमों में डाल दिया। गुलाम की इस हिंसक करतूत ने पूरे दरबार को हिलाकर रख दिया। सभी दरबारी जान गए कि अपनी इकलौती सन्तान और राज्य के आगामी वारिस की हत्या के जुर्म में बादशाह इस सिरचढ़े गुलाम को तुरन्त मृत्युदण्ड का हुक्म देगा। गुलाम भी तलवार को मजबूती से थामे, दण्ड के इंतजार में सिर झुकाकर खड़ा हो गया।
शोक-संतप्त बादशाह ने अपने हृदय और आँखों पर काबू रखकर दरबारियों के दहशतभरे चेहरों को देखा। कदमों में पड़े अपने बेटे के कटे सिर पर नजर डाली। मायूसी के साथ गर्दन झुकाकर खड़े अपने मासूम गुलाम को देखा और अन्तत: खूनमखान तलवार थामे उसकी मजबूत मुट्ठी पर अपनी आँखें टिका दीं।
“गुला…ऽ…म!” एकाएक वह चीखा। उसकी सुर्ख-अंगारा आँखें बाहर की ओर उबल पड़ीं। दरबारियों का खून सूख गया। उन्होंने गुलाम के सिर पर मँडराती मौत और तलवार पर उसकी मजबूत पकड़ को स्पष्ट देखा। गुलाम बिना हिले-डुले पूर्ववत खड़ा रहा।
“हमारे खिलाफ…ख्वाब में ही सही…बगावत का ख्याल लाने वाले बेटे को पैदा करने वाली माँ का भी सिर उतार दो।”
यह सुनना था कि साँस रोके बैठे सभी दरबारी अपने-अपने आसनों से खड़े होकर अपने दूरदर्शी बादशाह और उसके स्वामिभक्त गुलाम की जय-जयकार कर उठे। गुलाम उसी समय नंगी तलवार थामे दरबार से बाहर हो गया और तीर की तरह राज्य की गलियों में दाखिल हो गया।
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जन्म : 26 नवम्बर, 1952 को उत्तर प्रदेश(भारत) के जिला बुलन्दशहर में जन्म।
शिक्षा : एम ए (हिन्दी), अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा, आयुर्वेद रत्न।
पुस्तकें : प्रकाशित पुस्तकों में कथा-संग्रह ‘सरसों के फूल’(1994), ‘ज़ुबैदा’(2004) तथा ‘चन्ना चरनदास’(2004। ‘दूसरा भीम’(1997) बाल-कहानियों का संग्रह है। ‘संस्कृत नाट्य:चिन्तन परम्परा और समाज’ (अप्रकाशित), ‘समकालीन हिन्दी लघुकथा का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन’ (अप्रकाशित)।
सम्पादन व अन्य : मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ(1997) के अतिरिक्त प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी आदि वरिष्ठ कथाकारों की कहानियों/उपन्यासों के लगभग 15 संकलनों एवं कुछेक पत्रिकाओं का संपादन/अतिथि संपादन। ‘अण्डमान व निकोबार की लोककथाएँ’ का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद व पुनर्लेखन(2000)। इनके अलावा ‘सहकार संचय’(जुलाई,1997) व ‘आलेख संवाद’(जुलाई,2008) के लघुकथा-विशेषांकों का अतिथि संपादन। अनेक वर्षों तक हिन्दी-रंगमंच से जुड़ाव। कुछेक रंगमंचीय नाटकों हेतु गीत-लेखन भी।
हिन्दी ब्लॉग्स: जनगाथा(Link:http://www.jangatha.blogspot.com),
कथायात्रा(Link:
http://kathayatra.blogspot.com)
लघुकथा-वार्ता(Link:
http://wwwlaghukatha-varta.blogspot.com)
सम्प्रति : अध्ययन और लेखन।
संपर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032 (भारत)
दूरभाष : 011-22323249 मो0 : 09968094431
ई-मेल :
2611ableram@gmail

6 टिप्‍पणियां:

Urmi ने कहा…

सारी लघुकथाएं बहुत बढ़िया लगा! आपने इतनी सुन्दरता से प्रस्तुत किया है जो काबिले तारीफ़ है! बधाई!

सुरेश यादव ने कहा…

लड़ाई,आदमी और शहर,गुलामयुग -बलराम अग्रवाल की तीनो लघु कथाओं को पढ़ा ऊपर की दो पहले पढ़ी हुई थीं तीसरी को पहली वार पढ़ा है.लड़ाई को आज समझा है अपने आप से लड़ते हुए आदमी को जो आइना सही तस्वीर दिखता है इसी तरह टूटता है आदमी और शहर -सन्देश देता है कि शहर के द्वारा खाए हुए कभी भी जंगल के शेर द्वारा खाए हुए जीवन सिंह जितने जिन्दा कभी नहीं बचाते हैं ,अलवत्ता यह लघु कथा की वजाय कहानी के निकट है.गुलाम युग सत्ता की भूख को पूरी ऊँचाई पर लेजाकर गुलामों की ताकत को सहज रूप में व्यक्त करती है .तीनों लघु कथाओं का चयन न केवल इस लिए महत्वपूर्ण है कि सभी सशक्त अवं संवेदन शील हैं वल्कि इस लिए अधिक महत्वा पूर्ण है कि व्यक्ति से लेकर समाज और राष्ट्र तक का परिदृश्य पूरी वैचारिक ऊंचाई के साथ उपस्थित हो जाता है इस चुनाव केलिए चंदेल जी को धन्यवाद बलराम अग्रवाल जी को रचनात्मक कौशल के लिए बधाई.

सहज साहित्य ने कहा…

गुलामयुग-साँस रोककर पढ़नेवाली लघुकथा है । अभी तक भाई बलराम जी ने जो लिखा है, यह उससे बहुत आगे की रचना है ।युग -सत्य को बहुत सूक्ष्मता से इस कथा के द्वारा उद्घाटित किया है । इस लघुकथा की शक्ति बहुत दूर तक मार करने वाली है ।रामेश्वर काम्बोज

विजयशंकर चतुर्वेदी ने कहा…

तीनों लघु कथाएं अच्छी हैं जिनमें गुलाम युग ख़ास भाई. वैसे भी बलराम जी का हिन्दी लघुकथा के क्षेत्र में ऐतिहासिक योगदान है. प्रस्तुतीकरण के लिए आपका धन्यवाद! अपने सभी ब्लोग्स के जरिये चंदेल जी आप ऐसा काम कर रहे हैं जिसका इतिहास समय लिखेगा.

सुभाष नीरव ने कहा…

बलराम अग्रवाल का लिखने का अपना अलग अंदाज है, वह अलग अंदाज इन तीनों रचनाओं में भी आसानी से देखा जा सकता है। अपनी बात को जिस गहरी रचनात्मकता के साथ वह रेखांकित करते है, वह मुझे कई बार बड़ी महत्वपूर्ण लगती है। अपनी बात जैसे तैसे कह भर देना ही काफी नहीं है। लेखक चलताऊ हथकंडे अपनाकर रचना को प्रभावकारी और ह्र्दयस्पर्शी नहीं बना सकता, उसके लिए गहरा चिंतन और रचना में गहरे उतरना भी बेहद ज़रूरी होता है। बलराम अग्रवाल के पास गहरा चिंतन भी है और रचना में गहरे उतरना भी उन्हें खूब आता है। अब "शहर और आदमी" को ही ले लें। भले ही यह लघुकथा कम कहानी के अधिक नज़दीक लगती रचना है पर जिस गहरी रागात्मकता से इसे खूबसूरत ढ़ग से लिखा गया है, वह इस रचना को बेहद असरदार बना देता है और इस रचना में हमारा(कटु) यथार्थ जिस फैन्टेसी के साथ उभरकर सामने आता है, वह इसे भीड़ से अलग बनाता है। आजकल शहर जंगल के कहीं अधिक खतरनाक हो गए हैं। आदमी एकबार जंगल से तो बचकर आ भी सकता है पर शहर के पैने पंजों और दांतों से उसका बचना असंभव है।

उमेश महादोषी ने कहा…

''भूख के दिनों में आदमी की पहली जरूरत चौकन्ना रहना और धीरज से काम लेना है, जानवर बन जाना नहीं…।” ........... बलराम अग्रवाल जी कई बार अपनी लघुकथाओं में महत्वपूर्ण स्थापनाएं स्थापित करते हैं, यह एक ऎसी ही स्थापना है। इससे लघुकथा समृद्ध हुई है। ......... तीनों लघुकथाएं प्रभावी हैं।