स्व. कन्हैयालाल नन्दन की आत्मकथा का एक अंश
कवि-पत्रकार स्व. कन्हैयालाल नन्दन की आत्मकथा के दो खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं. पहला खण्ड – ’गुजरा कहां कहां से ’ ’राजपाल एण्ड संस, मदरसारोड,कश्मीरी गेट, दिल्ली – ११० ००६से प्रकाशित हुआ, नदंन जी के अनुसार (दूसरे खंड की भूमिका), जिसे पाठकों का अपार प्यार मिला. उससे उत्साहित होकर उन्होंने दूसरा खण्ड लिखा जिसे –’कहना जरूरी था’ शीर्षक से सामयिक प्रकाशन , दरिया गंज , नई दिल्ली – ११० ००२ ने २०१० में प्रकाशित किया. प्रस्तुत है इसी खण्ड से एक महत्वपूर्ण अंश.
कोरा कागज कोरा ही रह गया
वह कोशिश भी मैंने तब की जब मैंने भारतीजी के मन में यह पूरी तरह स्थापित कर दिया कि कानूनी तौर पर मेरी गलतियां निकालकर और मुझे दोषी करार देकर वे मुझे ’टाइम्स ऑफ इंडिया’ से नहीं निकाल सकते. मेरे इस विश्वास के पीछे बहुत बड़ा हाथ था – इस्टैब्लिशमेंट डिपार्टमेंट के पहले उपप्रमुख और बाद में प्रमुख बने श्री कनैयालाल लालचंदानी का, जो मेरी संवेदनशीलता, मानसिक त्रास, मेरी सज्जनता और मेरी सहृदयता , सभी के गहरे प्रशंसक थे. मेरी कर्मनिष्ठा से वे ’धर्मयुग’ में एक-एक कदम से परिचित थे और भारतीजी के भेजे शिकायत-पत्रों के भी वे श्रेष्ठतम गवाह थे. उन्होंने तो मुझे यहां तक कह रखा था कि कोई भी बात मुझे इतनी गंभीरता से नहीं लेनी चाहिए कि वह मेरे स्वास्थ्य पर असर डाले. जहां तक नौकरी का सवाल है, उनके शब्द थे – ’मेरे रहते भारतीजी आपका कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे, ऎसा मैं आपको वचन देता हूं.”
मैंने उनसे जिरह की कि भारतीजी जब जान जाएंगे कि आप मेरे प्रति सहृदय हैं, तो वे मेरे खिलाफ किसी इंक्वायरी में आपको नहीं रहने देंगे. इस पर उनका कहना था कि “नंदन जी, ऎसी स्थिति तभी आएगी, जब ’टाइम्स ऑफ इंडिया’ मुझे नौकरी से निकाल देगा और यदि ऎसी स्थिति भी आई, तो मैं उनके नौकरी छोड़ने तक की स्थिति पैदा कर दूंगा.”
बहरहाल, इस सीमा तक की आश्वस्ति ने मुझे और मेरे जीवन को काफी सहज बना दिया था, लेकिन मैं आश्वस्ति की अभिव्यक्ति भी अपने व्यवहार से नहीं होने देना चाहता था. शायद भारतीजी भी बहुत कुछ इस बात को समझ गए थे कि कंपनी के कायदे-कानून ऎसे हैं कि वे मुझे तो क्या, अब एक मामूली क्लर्क आर.डी. शाह तक को नहीं निकाल सकते. भले कोई खुद ही हारकर नौकरी छोड़ जाए तो बात दूसरी है.
कुछ इन्हीं स्थितियों में मैंने एक दिन अपने मन को टटोला और जब उस दिन का सारा काम समाप्त हो अया, तो मैंने भारतीजी से इंटरकाम पर उनसे कुछ विचार-विमर्श करने की अनुमति मांगी. उन्होंने केबिन में आने को कहा, तो मैं एक कोरा कागज लेकर उनके पास पहुंचा और बोला, “डॉ. साहब, मैं आपसे एक बात करना चाहता हूं कि आप मुझे रोज-रोज जलील होने की स्थितियों में डाल देते हैं, मैं इसके योय व्यक्ति नहीं हूं. आप मुझे नहीं रखना चाहते, निकालना चाहते हैं, तो प्रेम से निकालिए, जलील करके नहीं. इसलिए आप मुझे निकालिए तो प्रेमपूर्वक. यह कोरा कागज मैं दस्तखत करके आपको सौंपता हूं, आप इस पर जो चाहें लिख लें.”
भारतीजी उस समय पेंसिल-रबड़ हाथ में लेकर अपने डमियों के शिड्यूल की उठापटक कर रहे थे. चौथे पेज को चौदहवें पर और चौदहवें को चौंतीसवें पेज पर. ’धर्मयुग’ के स्वरूप को सुष्ठ बनाने के लिए वे अक्सर ऎसा करते ही रहते थे. उनके एक हाथ में रबड़ थी और एक हाथ में पेंसिल. मेरी बात सुनते ही वे इस कदर नाराज हुए कि हाथ की रबड़ डमी पर जोर से पटककर मारी और बोले, “गेटआउट फ्राम हीयर, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है.” उन्होंने रबड़ इतने जोर से पटकी थी कि वह मेज से उछलकर केबिन के एक कोने में जाकर पड़ी.
मैंने सहमकर रबड़ उठाई, क्योंकि मैंने जानबूझकर ’ आ बैल मुझे मार’ किया था, और चुपचाप उनकी मेज पर रखकर केबिन से गेटआउट हो गया. मेरा कोरा कागज मेरे हाथ में मुझे उस शाम लगातार चिढ़ाता रहा और भारतीजी का सख्त नाराज होकर रबड़ पटकना एवं उस गुस्से की अभिव्यक्ति रबड़ की उछाल में करते हुए मुझे गेटआउट कहना, रह-रहकर मेरे दिमाग में घूमता रहा. भारतीजी ने इतनी जोर से शायद ही कभी किसी को ’गेट-आउट’ कहा हो.
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--- कहना जरूरी था – कन्हैयालाल नंदन
सामयिक प्रकाशन
३३२०-२१, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग,
दरियागंज, नई दिल्ली – ११० ००२
पृष्ठ : १७६, मूल्य : २५०
******
पत्रिका
’समीक्षा’ पत्रिका अपने नए कलेवर में
४३ वर्ष पहले हिन्दी के वरिष्ठ और चर्चित आलोचक डॉ. गोपाल राय ने ’समीक्षा’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया था. पुस्तक समीक्षा केन्द्रित इस पत्रिका ने कम समय में ही इतनी चर्चा प्राप्त की कि यह डॉ. राय के नाम का पर्याय बन गई. विश्वविद्यालय से अवकाश ग्रहण करने के बाद डॉ. राय जब दिल्ली आ गए तब पत्रिका का उनके साथ दिल्ली आना स्वाभाविक था. लेकिन दिल्ली आने के बाद पत्रिका उस प्रकार चर्चा में नहीं रही, जिसप्रकार वह पटना काल में रही थी. कारण जो भी रहे हों, लेकिन पत्रिका का प्रकाशन नियमित होता रहा. लंबे समय तक इसके प्रकाशन का दायित्व ’अभिरुचि प्रकाशन’ के श्री श्रीकृष्ण जी निभाते रहे और इस कार्य में डॉ. हरदयाल की अहम भूमिका रही. श्रीकृष्ण की अस्वस्थता के कारण ’अभिरुचि प्रकाशन’ के बंद हो जाने के बाद पत्रिका का प्रकाशन अन्यत्र से होने लगा … जो संतोषजनक नहीं था.
हाल में सामयिक प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली के महेश भारद्वाज के इस पत्रिका से जुड़ने के बाद पत्रिका के स्वरूप में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ---- एक प्रकार से कायापलट कहना होगा. न केवल सामग्री के स्तर पर बल्कि कलेवर के स्तर पर भी. भारद्वाज की भूमिका इस पत्रिका में प्रबन्ध सम्पादक की है . सामग्री का चयन और सम्पादन सत्यकाम (डॉ. राय के पुत्र) करते हैं और उसका प्रकाशन और वितरण महेश भारद्वाज. महेश एक सुरुचि सम्पन्न युवा प्रकाशक हैं और प्रकाशन के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग करना उन्हें पसंद है…… ’समीक्षा’ में यह प्रतिभाषित है.
महेश भारद्वाज के प्रबंध सम्पादकत्व में ’समीक्षा’ का दूसरा अंक हाल में प्रकाशित हुआ है, जिसमें सुरेन्द्र चौधरी को याद करते हुए डॉ. गोपाल राय का आलेख ’सांच कहौं--- ’, डॉ. नामवर सिंह की आलोचना पुस्तक –”हिन्दी का गद्यपर्व’ पर रवि श्रीवास्तव की समीक्षा, परमानन्द श्रीवास्तव की आलोचना पुस्तक ’ रचना और आलोचना के बदलते तेवर’ पर पूनम सिन्हा की समीक्षा, सहित कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक आदि विधाओं की लगभग १७ अन्य पुस्तकों की पुस्तकों की समीक्षा को इस अंक में स्थान दिया गया है.
’समीक्षा’ – (जुलाई-सितम्बर २०१०)
कवि-पत्रकार स्व. कन्हैयालाल नन्दन की आत्मकथा के दो खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं. पहला खण्ड – ’गुजरा कहां कहां से ’ ’राजपाल एण्ड संस, मदरसारोड,कश्मीरी गेट, दिल्ली – ११० ००६से प्रकाशित हुआ, नदंन जी के अनुसार (दूसरे खंड की भूमिका), जिसे पाठकों का अपार प्यार मिला. उससे उत्साहित होकर उन्होंने दूसरा खण्ड लिखा जिसे –’कहना जरूरी था’ शीर्षक से सामयिक प्रकाशन , दरिया गंज , नई दिल्ली – ११० ००२ ने २०१० में प्रकाशित किया. प्रस्तुत है इसी खण्ड से एक महत्वपूर्ण अंश.
कोरा कागज कोरा ही रह गया
वह कोशिश भी मैंने तब की जब मैंने भारतीजी के मन में यह पूरी तरह स्थापित कर दिया कि कानूनी तौर पर मेरी गलतियां निकालकर और मुझे दोषी करार देकर वे मुझे ’टाइम्स ऑफ इंडिया’ से नहीं निकाल सकते. मेरे इस विश्वास के पीछे बहुत बड़ा हाथ था – इस्टैब्लिशमेंट डिपार्टमेंट के पहले उपप्रमुख और बाद में प्रमुख बने श्री कनैयालाल लालचंदानी का, जो मेरी संवेदनशीलता, मानसिक त्रास, मेरी सज्जनता और मेरी सहृदयता , सभी के गहरे प्रशंसक थे. मेरी कर्मनिष्ठा से वे ’धर्मयुग’ में एक-एक कदम से परिचित थे और भारतीजी के भेजे शिकायत-पत्रों के भी वे श्रेष्ठतम गवाह थे. उन्होंने तो मुझे यहां तक कह रखा था कि कोई भी बात मुझे इतनी गंभीरता से नहीं लेनी चाहिए कि वह मेरे स्वास्थ्य पर असर डाले. जहां तक नौकरी का सवाल है, उनके शब्द थे – ’मेरे रहते भारतीजी आपका कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे, ऎसा मैं आपको वचन देता हूं.”
मैंने उनसे जिरह की कि भारतीजी जब जान जाएंगे कि आप मेरे प्रति सहृदय हैं, तो वे मेरे खिलाफ किसी इंक्वायरी में आपको नहीं रहने देंगे. इस पर उनका कहना था कि “नंदन जी, ऎसी स्थिति तभी आएगी, जब ’टाइम्स ऑफ इंडिया’ मुझे नौकरी से निकाल देगा और यदि ऎसी स्थिति भी आई, तो मैं उनके नौकरी छोड़ने तक की स्थिति पैदा कर दूंगा.”
बहरहाल, इस सीमा तक की आश्वस्ति ने मुझे और मेरे जीवन को काफी सहज बना दिया था, लेकिन मैं आश्वस्ति की अभिव्यक्ति भी अपने व्यवहार से नहीं होने देना चाहता था. शायद भारतीजी भी बहुत कुछ इस बात को समझ गए थे कि कंपनी के कायदे-कानून ऎसे हैं कि वे मुझे तो क्या, अब एक मामूली क्लर्क आर.डी. शाह तक को नहीं निकाल सकते. भले कोई खुद ही हारकर नौकरी छोड़ जाए तो बात दूसरी है.
कुछ इन्हीं स्थितियों में मैंने एक दिन अपने मन को टटोला और जब उस दिन का सारा काम समाप्त हो अया, तो मैंने भारतीजी से इंटरकाम पर उनसे कुछ विचार-विमर्श करने की अनुमति मांगी. उन्होंने केबिन में आने को कहा, तो मैं एक कोरा कागज लेकर उनके पास पहुंचा और बोला, “डॉ. साहब, मैं आपसे एक बात करना चाहता हूं कि आप मुझे रोज-रोज जलील होने की स्थितियों में डाल देते हैं, मैं इसके योय व्यक्ति नहीं हूं. आप मुझे नहीं रखना चाहते, निकालना चाहते हैं, तो प्रेम से निकालिए, जलील करके नहीं. इसलिए आप मुझे निकालिए तो प्रेमपूर्वक. यह कोरा कागज मैं दस्तखत करके आपको सौंपता हूं, आप इस पर जो चाहें लिख लें.”
भारतीजी उस समय पेंसिल-रबड़ हाथ में लेकर अपने डमियों के शिड्यूल की उठापटक कर रहे थे. चौथे पेज को चौदहवें पर और चौदहवें को चौंतीसवें पेज पर. ’धर्मयुग’ के स्वरूप को सुष्ठ बनाने के लिए वे अक्सर ऎसा करते ही रहते थे. उनके एक हाथ में रबड़ थी और एक हाथ में पेंसिल. मेरी बात सुनते ही वे इस कदर नाराज हुए कि हाथ की रबड़ डमी पर जोर से पटककर मारी और बोले, “गेटआउट फ्राम हीयर, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है.” उन्होंने रबड़ इतने जोर से पटकी थी कि वह मेज से उछलकर केबिन के एक कोने में जाकर पड़ी.
मैंने सहमकर रबड़ उठाई, क्योंकि मैंने जानबूझकर ’ आ बैल मुझे मार’ किया था, और चुपचाप उनकी मेज पर रखकर केबिन से गेटआउट हो गया. मेरा कोरा कागज मेरे हाथ में मुझे उस शाम लगातार चिढ़ाता रहा और भारतीजी का सख्त नाराज होकर रबड़ पटकना एवं उस गुस्से की अभिव्यक्ति रबड़ की उछाल में करते हुए मुझे गेटआउट कहना, रह-रहकर मेरे दिमाग में घूमता रहा. भारतीजी ने इतनी जोर से शायद ही कभी किसी को ’गेट-आउट’ कहा हो.
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--- कहना जरूरी था – कन्हैयालाल नंदन
सामयिक प्रकाशन
३३२०-२१, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग,
दरियागंज, नई दिल्ली – ११० ००२
पृष्ठ : १७६, मूल्य : २५०
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पत्रिका
’समीक्षा’ पत्रिका अपने नए कलेवर में
४३ वर्ष पहले हिन्दी के वरिष्ठ और चर्चित आलोचक डॉ. गोपाल राय ने ’समीक्षा’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया था. पुस्तक समीक्षा केन्द्रित इस पत्रिका ने कम समय में ही इतनी चर्चा प्राप्त की कि यह डॉ. राय के नाम का पर्याय बन गई. विश्वविद्यालय से अवकाश ग्रहण करने के बाद डॉ. राय जब दिल्ली आ गए तब पत्रिका का उनके साथ दिल्ली आना स्वाभाविक था. लेकिन दिल्ली आने के बाद पत्रिका उस प्रकार चर्चा में नहीं रही, जिसप्रकार वह पटना काल में रही थी. कारण जो भी रहे हों, लेकिन पत्रिका का प्रकाशन नियमित होता रहा. लंबे समय तक इसके प्रकाशन का दायित्व ’अभिरुचि प्रकाशन’ के श्री श्रीकृष्ण जी निभाते रहे और इस कार्य में डॉ. हरदयाल की अहम भूमिका रही. श्रीकृष्ण की अस्वस्थता के कारण ’अभिरुचि प्रकाशन’ के बंद हो जाने के बाद पत्रिका का प्रकाशन अन्यत्र से होने लगा … जो संतोषजनक नहीं था.
हाल में सामयिक प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली के महेश भारद्वाज के इस पत्रिका से जुड़ने के बाद पत्रिका के स्वरूप में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ---- एक प्रकार से कायापलट कहना होगा. न केवल सामग्री के स्तर पर बल्कि कलेवर के स्तर पर भी. भारद्वाज की भूमिका इस पत्रिका में प्रबन्ध सम्पादक की है . सामग्री का चयन और सम्पादन सत्यकाम (डॉ. राय के पुत्र) करते हैं और उसका प्रकाशन और वितरण महेश भारद्वाज. महेश एक सुरुचि सम्पन्न युवा प्रकाशक हैं और प्रकाशन के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग करना उन्हें पसंद है…… ’समीक्षा’ में यह प्रतिभाषित है.
महेश भारद्वाज के प्रबंध सम्पादकत्व में ’समीक्षा’ का दूसरा अंक हाल में प्रकाशित हुआ है, जिसमें सुरेन्द्र चौधरी को याद करते हुए डॉ. गोपाल राय का आलेख ’सांच कहौं--- ’, डॉ. नामवर सिंह की आलोचना पुस्तक –”हिन्दी का गद्यपर्व’ पर रवि श्रीवास्तव की समीक्षा, परमानन्द श्रीवास्तव की आलोचना पुस्तक ’ रचना और आलोचना के बदलते तेवर’ पर पूनम सिन्हा की समीक्षा, सहित कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक आदि विधाओं की लगभग १७ अन्य पुस्तकों की पुस्तकों की समीक्षा को इस अंक में स्थान दिया गया है.
’समीक्षा’ – (जुलाई-सितम्बर २०१०)
सम्पादक – सत्यकाम
प्रबंध सम्पादक – महेश भारद्वाज
प्रबंध कार्यालय
सामयिक प्रकाशन
३३२०-२१ जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग,
दरियागंज, नई दिल्ली-११००२
फोन नं ०११-२३२८२७३३
सम्पादकीय कार्यालय
एच-२, यमुना, इग्नू, मैदानगढ़ी,
नई दिल्ली – ११००६८
फोन : ०११-२९५३३५३४
प्रबंध सम्पादक – महेश भारद्वाज
प्रबंध कार्यालय
सामयिक प्रकाशन
३३२०-२१ जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग,
दरियागंज, नई दिल्ली-११००२
फोन नं ०११-२३२८२७३३
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एच-२, यमुना, इग्नू, मैदानगढ़ी,
नई दिल्ली – ११००६८
फोन : ०११-२९५३३५३४
2 टिप्पणियां:
'कोरा कागज कोरा ही रह गया'का अंश बहुत रोचक है । बड़ी कुर्सी पर बैठकर व्यक्ति यदि सहिष्णुता खो देता है तो वह और अधिक बौना हो जाता है । समीक्षा पत्रिका कई वर्ष पहले पढ़ी थी । आज अपने पुन: पढ़ने की जिज्ञासा पैदा कर दी है । पर दाक द्वारा दिल्ली में पत्रिका मँगवाना मुझे कठिन लगा है क्योंकि डाक से पत्रिका गायब हो जाना आम बात है ।
"KORA KAAGAZ KORA HEE RAH GAYA"
LEKH MEIN KANHAIYA LAL NANDAN KEE
DUKH - VYATHA PADHEE HAI . KAHTE
HAIN , BHARTI JEE UCCHHRINKHLTAA SE
KABHEE SAMJHAUTA NAHIN KARTE THE.
UNKEE KARYA SHAILEE EK SAINIK
AFSAR KE SAMAAN THEE . UNKEE KATI-
BADDHTA SARVPRASIDDH HAI.
" SMEEKSHA " PATRIKA KAA PUNA
PRAKASHAN SWAGATYOGYA HAI .
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