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आग के नीचे सुलगते अंगारे
रूपसिंह चन्देल
वे जनता का पहले भी दोहन कर रहे थे और आज भी कर रहे हैं. पहले वे अंग्रेजों की सरपरस्ती में वह सब करते थे और आज राजनीति के माध्यम से खुलकर. पहले लूट का धन देश में अपनी ऎय्याशी में खर्च करते थे, लेकिन आज उसका बड़ा हिस्सा वे विदेशी बैंकों में अपनी भावी पीढ़ी के लिए सुरक्षित कर रहे हैं. ये वे लोग हैं जो कल के राजा,महाराजा, जमींदार और ताल्लुकेदार थे, लेकिन आज जनप्रतिनिधि के रूप में देश की राजनीति में अपनी बिसातें बिछाए बैठे हैं. इनके साथ उन लोगों का भी एक बड़ा भाग जुड़ गया है जो कल तक गांवों में चप्पलें चटकाते घूमते थे, घूरे में गोबर फेकते थे, या शहरों-कस्बों में आवारगर्दी करते थे.
देश की आजादी से बहुत पहले राजाओं, जमींदारों, जागीरदारों और पूंजीपतियों को इस बात का अहसास हो गया था कि उनके सरपरस्त अंग्रेजों के शासन की नाव एक दिन डूबेगी ही. ये वे लोग थे जिन्हें आजादी से कोई सरोकार नहीं था. जनता उनके लिए कीडॆ़-मकोड़ों की भांति थी और उनकी ऎय्याशी उन कीड़े-मकोड़ों के श्रम पर थी, जिन्हें उनके श्रम का केवल उतना ही मिलता था जिससे से वे जीने के लिए एक जून की रोटी खा सकते थे. लेकिन ’आजादी बहुत दूर नहीं’ के अहसास के साथ इस वर्ग ने राजनीति में घुसपैठ प्रारंभ कर दी थी. गौरांग-प्रभुओं के साथ संबन्धों का निर्वहण करते हुए ये राजनीति में प्रविष्ट हुए और आजादी के पश्चात राजनीति में इनकी पकड़ मजबूत होती गयी. गांधी जी ने इस खतरे को भांप लिया था.
वास्तव में देश की आजादी सत्ता का हस्तांतरण मात्र थी. सत्ता प्रभुता-सम्पन्नवर्ग के हाथ में कैद हो गयी थी. स्वच्छ छवि के लोग या तो बाहर हो गये थे या सत्ता में रहकर भी शक्तिहीन. कल तक जो अंग्रेजों
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आजादी से पूर्व प्रभुता-सम्पन्न लोगों द्वारा जनता की लूट में जो प्रत्यक्ष क्रूरता दिखाई देती थी उसका स्वरूप बदल गया. अब वह प्रत्यक्ष न रहकर अप्रत्यक्ष रूप से अधिक ही क्रूर हो गयी है. इस लूट में वे लोग अधिक निर्ममता से जनता को लूटने लगे जो आम जनता के मध्य से आए थे. कल तक जो लोहियावादी थे सत्ता हाथ में आते ही उन्होंने लोहियावाद को सिरहाने तहाकर रख दिया और लूट की फसल काटने में शामिल हो गए. एक गरीब की बेटी, कुछ ही वर्षों में करोड़ों-करोड़ों की मालकिन कैसे बन गयी! जब भ्रष्टाचार का बाजार गर्म हो, जनता लुट रही हो और कुछ कर पाने में अपने को असमर्थ पा रही हो उस स्थिति में अण्णा हजारे उसके लिए किसी देवदूत से कम बनकर अवतरित नहीं हुए. अण्णा को जो जन-समर्थन मिला और मिल रहा है वह इतिहास में दर्ज हो चुका है. भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता ने उन्हें अपने उद्धारक के रूप में देखा और लोग सड़कों पर उतर आए. ऎसी स्थिति में भ्रष्टाचारियों की परेशानी बढ़नी ही थी. अण्णा के आमरण अनशन तोड़ने के बाद ही दलगत राजनीति और विचारधारा से ऊपर उठकर एक स्वर में राजनेताओं ने उन पर हमला बोल दिया.
मैंने वातायन (अप्रैल,२०११ (www.vaatayan.blogspot.com) के अपने आलेख में लिखा था कि सरकार भले ही ’जन-लोकपाल विधेयक’ के लिए समिति गठित कर दे (जो कि हो चुकी है) लेकिन राजनीतिज्ञों की भरसक कोशिश उस विधेयक को पारित होने से रोकने की होगी. इसके लिए जनता को भ्रमित कर उसमें फूट डालने के निश्चित प्रयास किए जाएगें. फूट डालो और राज करो (भ्रष्टाचार जारी रखो), जैसाकि उनके गौरांग प्रभु करते थे. और वह कुटिल,घृणित और आपराधिक प्रयास प्रारंभ हो चुका है. जनता में ’सिविल सोसाइटी’ के प्रतिनिधियों (यहां तक कि अण्णा के विरुद्ध भी) की छवि खराब करने के लिए उन पर ऎसे आरोप लगाए जा रहे हैं जिनका कोई सिर-पैर नहीं है. यह एक सोची समझी रणनीति के तहत नहीं हो रहा, कहना कठिन है.
कुछ लोग सत्ता में रहकर देश को लूट रहे हैं तो कुछ उससे बाहर रहकर. ये दलाल किश्म के लोग हैं जो देश के लिए कहीं अधिक खतरनाक हैं, क्योंकि इनका अपना कोई दीन-ईमान नहीं होता. अण्णा या उनके साथ संबद्ध लोगों के विरुद्ध दुष्प्रचार करने वाले लोगों ने क्या कभी यह जानने का प्रयत्न किया कि उनके प्रत्येक आरोप (यहां तक कि प्रत्येक शब्द ) से जनता पर क्या प्रतिक्रिया हो रही है. इनका हर वक्तव्य जनता में उनकी विश्वसनीयता (हांलाकि वे विश्वनीय थे ही कब) पर ही प्रश्नचिन्ह नहीं लगाता बल्कि उनके प्रति उसकी घृणा में अभिवृद्धि ही करता है. भले ही सभी राजनीतिज्ञ भ्रष्ट नहीं हैं, लेकिन एक बड़ी संख्या ऎसे लोगों की है. ऎसे लोगों की परेशानी स्वाभाविक है. एक बार ’जन-लोकपाल विधेयक’ बनते ही देश को लूटने की उनकी गतिविधियों पर विराम भले ही न लगे, लेकिन अंकुश अवश्य लगेगा. यही नहीं अब तक की उनकी लूट का पर्दाफाश होने पर लूट के छिनने और सख्त सजा होने का भय भी उन्हें सता रहा है. वे इस मुगालते में हैं कि उनके विषय में जनता नहीं जानती, लेकिन आज की जनता कितना जागरूक है इसका प्रमाण अण्णा के साथ उसकी एक-जुटता से उन्हें ज्ञात हो जाना चाहिए.
मेरे मित्र सुभाष नीरव का कहना है कि भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए सैकड़ों-हजारों अण्णा हजारे की आज आवश्यकता है. मेरा मानना है कि एक अण्णा ही पर्याप्त हैं, लेकिन यदि उनके सद्प्रयासों को भ्रष्ट राजनीतिज्ञों द्वारा सफल नहीं होने दिया गया तब इस देश के युवाओं को भगतसिंह, चन्द्रशेखर आजाद और बिस्मिल आदि के नक्शे-कदम पर चलने से रोक पाना कठिन होगा. इसलिए सत्ता के मद में चूर राजनीतिज्ञों को राख के नीचे सुलगते अंगारों को समझ लेना चाहिए और ’जन-लोकपाल विधेयक’ के बनने में रोड़े अटकाने से बाज आना चाहिए.
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समीक्षा त्रमासिक का जनवरी-मार्च,२०११ अंक.
समीक्षा त्रैमासिक का नया अंक नए कलेवर में प्रकाशन की पूर्व परम्परा के अनुरूप ही प्रकाशित हुआ
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’सांच कहौं---’ में गोपाल राय ने प्रेमचंद कहानी रचनावली (प्रकाशक साहित्य अकादमी) पर विस्तृत चर्चा की है. साथ ही ऋषभचरण जैन की जन्म-शती पर चर्चा करते हुए उन्होंने उनके वक्तित्व और कृतित्व पर विशद प्रकाश डाला है. दिनेश कुमार ने ’लेखा-जोखा हिन्दी साहित्य: वर्ष २०१०’ में हिन्दी साहित्य की विभिन्न विधाओं की चर्चा की है. अपूर्वानंद ने मुक्तिबोध की पुस्तक ’जब प्रश्नचिन्ह बौखला उठे’ और ’शेष अशेष’ ,अमिताभ राय ने ’अज्ञेय रचना संचयन’ (सं. कन्यैयालाल नन्दन) और ’मोहन राकेश संचयन (सं. रवीन्द्र कालिया), रीता सिन्हा ने ’लगता नहीं है दिल मेरा’ (कृष्णा अग्निहोत्री), और ’और—और—औरत’ (कृष्णा अग्निहोत्री), राजकुमार ने ’नेम नॉट नोन’ (सुनीलकुकार लवटे), अरविन्द कुमार मिश्र ने ’तीन अतीत’ (वीरेन्द्र जैन), योजना रावत ने ’मार्था का देश’ (राजी सेठ), अनिता पोपटराव नेरे ने ’मीरा नाची (मृदुला गर्ग) की पुस्तकों पर समीक्षाएं प्रस्तुत कर अंक को महत्वपूर्ण बनाया है. इनके अतिरिक्त श्रीराम तिवारी, बजरंगबिहारी तिवारी, सुषमा कुमारी, पूनम सिन्हा, मजुंल उपाध्याय, आनंद शुक्ल, शिवनारायण, कृष्णचंद्र लाल ,हरदयाल आदि की समीक्षाएं भी उल्लेखनीय हैं.
समीक्षा – सम्पादक : सत्यकाम
प्रबंध संपादक : महेश भारद्वाज
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