शनिवार, 30 जुलाई 2011

धारावाहिक उपन्यास





गलियारे

(उपन्यास)

रूपसिंह चन्देल

चौथी किस्त - चैप्टर 7 और 8


(7)


सुधांशु को रवि के आई.ए.एस. में चयन की जानकारी एक अंग्रेजी समाचार पत्र में उसके साक्षात्कार को देखकर मिली, लेकिन वह उसे बधाई कैसे दे, वह यह सोचता रहा; क्योंकि रवि का पता उसके पास नहीं था। वह पुराने मकान मालिक के पास गया यह सोचकर कि शायद रवि ने उन्हें बता रखा हो, लेकिन वहां भी उसे निराशा हाथ लगी थी।
पिछली मुलाकात में जब सुधांशु ने रवि से उसका पता पूछा था तब रवि ने कहा था, ''जल्दी ही उस फ्लैट को खाली करना है। नए में जाऊंगा तब बता दूंगा।''
सुधांशु समझ गया था कि रवि पता देना नहीं चाहता। वह एकांत चाहता था। उसने पूरी तरह अपने को मित्रों से अलग कर लिया था। उसके साथ के दो छात्र, जो कभी उसके अच्छे मित्र रहे थे, हॉस्टल में ही रह रहे थे। उन्होंने पहले एम.फिल. फिर पी-एच.डी. के लिए अपना रजिस्ट्रेशन करवा लिया था। रवि यदा-कदा उनके पास आता था, लेकिन सिविल सेवा परीक्षा से कुछ माह पहले से वह उनसे भी नहीं मिला था। सुधांशु ने उन दोनों से भी ज्ञात किया लेकिन उन्हें भी कोई सूचना नहीं थी। उन्हें यह भी जानकारी नहीं थी कि रवि ने सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण कर ली थी।
सुधांशु की परीक्षाएं भी निकट थीं। उसकी व्यस्तता बढ़ गयी थी। ट्यूशन और परीक्षा की तैयारी में वह डूब गया। परीक्षा के पश्चात् वह कुछ दिनों के लिए गांव गया। लौटने के बाद परीक्षा परिणाम और भविष्य की चिन्ता ने रवि से मिलने के प्रयास को विराम दे दिया था।
इस बार वह पिता को यह समझाने में सफल रहा था कि दो वर्ष यदि वे उसका और साथ दे दें तो आगामी दो वर्षों में वह कुछ ऐसा कर सकने का प्रयास करेगा, जिससे उसे कोई ढंग की नौकरी मिल जाने की संभावना होगी। पिता यह जानते थे कि बी.ए. किए बिना क्लर्की भी नहीं मिलती। लेकिन अब....जब सुधांशु का बी.ए. सम्पन्न होने वाला था...वह आगे की पढ़ाई करके कौन-सी ऊंचे ओहदे की नौकरी पाने की बात सोच रहा है! पिता ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की, ''बेटा, नौकरी के लिए बी.ए. ही काफी नहीं?''
''है पिता जी, लेकिन अच्छी नौकरी के लिए आगे और पढ़ाई करनी होगी।''
''वो क्या?''
''पिता जी, मैं एम.ए. में प्रवेश लूंगा, लेकिन साथ में आई.ए.एस. की तैयारी भी करना चाहूंगा।''
''वो क्या होता है?''
सुधांशु चुप रहा। वह समझ नहीं पा रहा था कि पिता को वह कैसे समझाए! तभी उसे सूझा, ''पिता जी आप जिला कलक्टर के बारे में जानते हैं न!''
''हां, जिला का मालिक होत है। हमरे जमींदार बिपिन बाबू का बेटा शाइद वही है।''
''हां, पिता जी, बिपिन चन्द्र मिश्र के बेटा अमित मिश्र आजकल कहीं कलक्टर लगे हुए हैं। लेकिन आप बिपिन बाबू को अपना जमींदार क्यों कह रहे हैं! कभी रहे होगें ....।''
''यो मैं भी जानता हूं। जमींदारी कब की खतम हो चुकी, लेकिन इलाके में उन्हें आज भी लोग जमींदार कहकर पुकारते हैं।'' पिता कुछ देर के लिए रुके फिर बोले, ''भले आदमी हैं। जमींदारी जमाने में उन्होंने कभी किसी को दुख-तकलीफ नहीं दी। इसी का पुन्य है जो उनका लड़का इतने ऊँचे ओहदे पर पहुंचा।'' उन्होंने सुघांशु के चेहरे पर नजरें गड़ा दीं और पूछा, ''कहत हैं कि उसके आगे-पीछे बड़ा फोज-फाटा चलत हैं।''
''हां, कुछ सिपाही तो चलते ही हैं।''
''त तुम वही पढ़ाई की बात करि रहे हौ?''
''जी, पिता जी।''
''बहुत पइसा लागी बेटा। अपन के पास इतनी जायदाद भी नहीं।''
''पिता जी मैंने दिल्ली जाने के बाद आज तक आपसे पैसे मांगे कभी?''
पिता चुप रहे थे।
''पैसों की चिन्ता आप न करें। दो साल की बात है... ये दिन कष्ट के होंगे, बाकी आप मेरी चिन्ता न करें। मैं अपने लिए सारी व्यवस्था कर लूंगा।''
''तुम्हारी जिनगानी बनि जाए बेटा तो घर के दरिद्दर दूर हो जाएंगे। हम दोनों का का....आज हैं कल नहीं....तुम कहत हो तो दुई का हम चार बरस तक सबर करि लेब।''
''नहीं, पिता जी....इतने दिनों तक आपको इंतजार नहीं करना होगा।''
वह दृढ़ संकल्प के साथ दिल्ली वापस लौटा था।
******
चित्र : आदित्य अग्रवाल
(8)


एम.ए. में प्रवेश लेने के बाद सुधांशु को अंतर्द्वंद्व ने आ घेरा। अंतर्द्वंद्व था सिविल सेवा परीक्षा देने और अकादमिक क्षेत्र में जाने को लेकर। दोनों ही क्षेत्र आसान न थे। सिविल सेवा परीक्षा में प्रतिभाशाली बच्चों के भी छक्के छूट जाते थे। लगातार प्रयत्न के बावजूद उन्हें सफलता नहीं मिलती थी। अकादमिक क्षेत्र में जो अराजकता थी.... उसका जो नक्शा रवि ने एक दिन उसके समक्ष खींचा था वह उसे हतोत्साहित करता। वह अपने को प्रतिभाशाली छात्र नहीं मानता था, लेकिन 'अध्यवसायी' अवश्य मानता था।
एक दिन केन्द्रीय पुस्तकालय के बाहर विवेकानन्द की मूर्ति के निकट घास पर बैठा वह उसी विषय में सोच रहा था। अक्टूबर का महीना था। उस दिन क्लास नहीं थी। वह सुबह दस बजे लाइब्रेरी आ गया था और चार बजे तक पढ़ता रहा था। ऐसे दिनों में हॉस्टल में रहकर पढ़ने की अपेक्षा वह पुस्तकालय जाना उचित समझता था। प्रीति भी प्राय: लाइब्रेरी में उससे आ मिलती थी। उसके मित्रों की संख्या न के बराबर थी, बल्कि कहना चाहिए कि जो मित्र थे उनके साथ वह प्राय: नहीं रहता था। एक प्रकार से वह अंतर्मुखी था। वह प्रीति से मिलने के लिए भी कम ही उत्साहित रहता, लेकिन जब वह पुस्तकालय में उसे आ खोजती तब वह उसके साथ बाहर निकल जाता और घण्टे-दो घण्टे कब बीत जाते उसे पता नहीं चलता। उसे यह अपराध बोध होता कि इतने समय तक उसके बैग ने एक सीट घेर रखी, जबकि छात्र सीट खोजते भटकते रहते हैं।
उस दिन वह जब अंतर्द्वंद्व में ऊभ-चूभ हो रहा था उसी समय प्रीति ने पीछे से आकर इतनी जोर से हाय किया कि वह चौंक उठा। फीकी मुस्कान से उसने प्रीति का स्वागत किया।
''चेहरे पर मायूसी....कोई खास बात?''
''नहीं।'' संक्षिप्त उत्तर दिया सुधांशु ने।
''देखो, मैं इतनी बुद्धू नहीं कि चेहरे पढ़ नहीं सकती। सायक्लॉजी नहीं पढ़ी तो क्या... जनाब किसी गहरी चिन्ता में डूबे हुए थे।''
''चिन्ता....नहीं....।''
प्रीति उसके बगल में बैठ गयी। अपना बैग पैरों के आगे रखा और सुधांशु का हाथ दबाती हुई बोली, ''क्या सोच रहे थे?''
सुधांशु चुप रहा।
''नहीं बताओगे....मुझे इस योग्य नहीं समझते?''
''क्या मूर्खता है?''
''हां, मैं मूर्ख हूं। तुम्हारी समस्याओं में सींग गड़ाती हूं....मैं हूं ही कौन...?''
सुधांशु मुस्करा दिया।
''यार तुम्हारे चेहरे पर मुर्दनी अच्छी नहीं लगती। खिला-खिला चेहरा सबको अच्छा लगता है।''
''जब चेहरा हो ही ऐसा तब कोई करे क्या?''
''कहना क्या चाहते हो?''
''यही कि अपना तो चेहरा है ही पिटा हुआ।''
''सुबह से कोई और नहीं मिला?'' सुधांशु के चेहरे पर नजरें टिका वह बोली, ''क्या सोच रहे थे?''
''ओह प्रीति! तुम तो जान के ही पीछे पड़ गयी।''
''अभी क्या हुआ है...?''
''मतलब?''
''मतलब की खाल बाद में उधेड़ना....फिलहाल चाय पिलाओ। एक हफ्ते बाद मिले हो।''
सुधांशु प्रीति से प्राण बचाना चाहता था। उसका प्रस्ताव सुनते ही वह तपाक से उठा, बैग संभाला, चप्पलें पैरों में डालीं, हॉस्टल से जब वह पुस्तकालय आता चप्पलें पहनकर आता, और उठ खड़ा हुआ।
''किधर चलें?''
''आर्ट फैकल्टी के सामने पार्किंग के पास।''
''वहां बैठने की जगह नहीं है।''
''यार, फुटपाथ तो है।''
''नॉन-कॉलिजिएट के सामने भी चाय मिलती है।''
''वहां खुलापन नहीं है।''
''ओ.के.।''
* * * * *
चाय पीते हुए सुधांशु ने अपने अंतर्द्वंद्व की चर्चा की।
''ओह।'' प्रीति खिलखिलाकर हंस दी।
सुधांशु को कोफ्त हुई।
'खाए-अघाए लोगों को ही हंसना आता है।' उसने सोचा, और एक निष्कर्ष उसके मस्तिष्क में घूम गया, 'मुझे प्रीति से एक दूरी बना लेनी चाहिए। हमारे वर्ग अलग हैं। पृष्ठभूमि के अंतर को पाटा नहीं जा सकता।''
''कहां खो गए जनाब?'' सुधांशु को गंभीर और सोच में डूबा देख प्रीति ने पूछा।
''यों ही......।''
''खैर, छोड़ो....मेरी मोटी अक्ल में जो बात आती है वह यह कि यदि तुम सिविल सेवा परीक्षा के लिए गंभीर हो तो पूरी तरह अपने को उसमें झोंक दो।....कम से कम तीन अटैम्ट मिलेंगे तुम्हें।''
''पांच मिलेंगे।''
''यार, तीन भी कम नहीं होते....यदि तीन प्रयासों में कोई सिविल सेवा परीक्षा में नहीं सफल हो पाता तो मेरा अपना मानना है कि उसे उस दिशा में प्रयत्न छोड़ देना चाहिए।''
''क्यों?''
''क्योंकि तीन वर्षों में वह अपनी योग्यता को आजमा चुका होता है। आगे उसमें कहां से छप्पर फाड़कर विशेषता आ जाएगी!'' वह रुकी, ''और यह भी तय है कि वह तीन प्रयासों में ही इतना निचुड़ चुका होगा कि आगे अधिक उत्साह नहीं बचेगा। कम से कम मुझमें तो नहीं ही बचेगा।''
''हुंह।''
''तीन प्रयासों में हुआ तो उत्तम वर्ना हेड के बंगले की घास खोदने के लिए तैयार रहना।''
''उसके यहां कोई घोड़ा तो होगा नहीं...घास किसके लिए खोदूंगा!'' सुधांशु मुस्करा दिया।
''अपने लिए।''
सुंधांशु फिर चुप रहा।
''उसे सब्जीमण्डी की ताजी सब्जी...फल ले जाकर दिया करना और खुद उसके बंगले के लॉन की घास....।'' प्रीति खिलखिला उठी, फिर बोली, ''यार, सुना है कि जिन्हें प्राध्यापकी चाहिए होती है...वे ऐसा ही कुछ करते हैं। प्राध्यापकी पाने के लिए और भी कुछ करना होता हो, यह तो पता नहीं लेकिन सुनती हूं कि किसी के अण्डर में पी-एच.डी करने के लिए गाइड के तलवे अच्छी तरह सहलाने पड़ते हैं।'' उसने सुधांशु के चेहरे की ओर देखा, ''इसीलिए मैंने तय किया है कि मैं कुछ बनूं या नहीं, लेकिन यह प्राध्यापकी और पी-एच.डी मेरे वश में नहीं।'' उसने फिर सुधांशु के चेहरे की ओर देखा, ''तुम्हें पता है या नहीं, लेकिन लड़कों की अपेक्षा लड़कियों के लिए अकादमिक क्षेत्र में स्थितियां अधिक ही चुनौतीपूर्ण हैं।''
''इतनी माताएं-बहनें लेक्चरर-रीडर-प्राफेसर बनी घूम रही हैं.....।''
''कुछ को तलवार की धार पर अवश्य चलना पड़ा होगा...।'' क्षणभर के लिए वह रुकी, फिर बोली, ''हफ्ते भर पहले टाइम्स ऑफ इंडिया में एक समाचार छपा था...हिन्दी विभाग के एक प्रोफेसर साहब की करतूत के बारे में..... अपनी एक एम.फिल. की छात्रा को लगातार फोन करके उससे अश्लील बातें करते थे। उनकी मंशा क्या रही होगी...... समझा जा सकता है। यही नहीं...प्रोफेसर साहब .....शायद कोई त्रिपाठी महाशय हैं....एक प्रगतिशील संस्था से जुड़े हुए हैं.....संस्था की पत्रिका का सम्पादन भी देखते हैं।....तो यह सब है....और इसी सबके बीच से रास्ता निकालना होता है।''
''शिक्षण जगत की स्थितियां भयानक हैं।''
''सुधांशु, दो-चार मछलियां ही तालाब को गंदा करने के लिए पर्याप्त होती हैं। विश्वविद्यालय में ऐसे लोगों की संख्या दस-पन्द्रह प्रतिशत होगी.... तो जनाब जी-जान लगा दो सिविल सेवा परीक्षा के लिए...शेष बाद में सोचना। भूल जाओ सब कुछ।''
''ठीक कहा....तुम्हें भी....।''
''व्वॉट?'' प्रीति ने उसकी बात बीच में ही काटी, ''मैं नर्क तक तुम्हारा पीछा न छोड़ने वालीं'' और वह पुन: ठठाकर हंसने लगी।
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