शनिवार, 19 नवंबर 2011

धारावाहिक उपन्यास

’गलियारे’
(उपन्यास)
रूपसिंह चन्देल
चैप्टर - ४१ से ४६


(41)

प्रीति के जाने के बाद सुधांशु के अंदर बवण्डर उठता और शांत होता रहा। जब वह पिछले दिन की बात सोचता उत्तेजित हो उठता, लेकिन कुछ देर बाद विचार उठता, ''मेरा भ्रम भी हो सकता है। मीणा आया, यह प्रीति ने स्वीकार किया...हालांकि सीधे तौर पर नहीं, लेकिन उसने उसके साथ संबन्ध बनाए यह उसने स्वीकार नहीं किया। मेरी आशंका पर उत्तेजित होकर वह चीखी....मुझे गालियां दी। नृपेन मजूमदार की बेटी...एक अपर सचिव की बेटी...जिसे अपने संस्कारों पर गर्व था....आखिर उत्तेजित हुई ही क्यों!' धीरे-धीरे शांत होते मन में यह प्रश्न पुन: भूचाल उत्पन्न कर देता, 'देहाती कहावत है...काने को काना मत कहो....वह आसमान सिर पर उठा लेता है। कहते हैं चोरी पकड़ी जाने पर चोर दो में से एक रास्ता अपनाता हैं। या तो वह चुप्पी साध लेता है और यूं प्रदर्शित करता है कि वह भोला-सरल है और सामने वाले को ऐसा बनकर प्रभावित करने का प्रयत्न करता है। सफल भी होता है। दूसरा रास्ता होता है अपने को सही सिध्द करने का......चीख-चिल्लाकर आसमान सिर पर उठाना और आरोप लगाने वाले को ही गलत सिध्द करना। यदि मनोवैज्ञानिकों से पूछा जाये तो वे शायद कहेंगे कि निर्दोष न कभी चुप्पी साधता है और न ही चीखता है। अर्थात दोंनो ही स्थितियां असामान्यता सिध्द करती हैं और उसके चोर अर्थात गलत होने को ही प्रमाणित करती हैं। जबकि जिसने कुछ किया ही नहीं होता वह सामान्य रहता है। न उत्तेजित होता है और न ही चुप।'
'लेकिन यह भी संभव है।' उसने आगे सोचा, 'झूठे आरोप से व्यक्ति उत्तेजि हो उठे....हो सकता है मैं गलत ही रहा होऊं। प्रीति इसीलिए उत्तेजित हो उठी हो। उत्तेजना में व्यक्ति विवके खो देता है।'
देर तक यही स्थिति रही उसकी।
'फिर मैं क्या करूं! जाऊं.....संबन्धों को एक-ब-एक समाप्त करना बुध्दिमानी नहीं....अभी जीना प्रारंभ भी नहीं हुआ....यदि प्रीति से गलती हुई है और यह गलती अनजाने हुई है....वह यह मान लेती है और भविष्य में वैसी गलती न करने का वचन देती है तो....।'
ल्ेकिन विचार ने तुरंत पलटा खाया, 'तुमने देखा क्या है जो यह सोचने लगे कि प्रीति से गलती हुई ही है। यह प्रश्न ही उठाना अपने आप में मूर्खता है।' अंतत: लंबी जद्दो-जहद के बाद उसने होटल से चेक आउट करने का निर्णय किया। चेक आउट करना ही था, लेकिन वह इसे शनिवार तक के लिए टाल रहा था। शनिवार वह कहीं मकान देखना चाहता था।
जब वह फ्लैट में पहुंचा आठ बज चुके थे। प्रीति घर में थी। उसने सफेद सलवार पर काले रंग का कुर्ता पहना हुआ था। उसके पहुंचते ही पानी देती हुई प्रीति ने पूछा, ''चाय बनाऊं या कोल्ड ड्रिंक लोगे।''
''मेहमान हूं?'' सुधांशु अभी भी अपने को प्रकृतिस्थ नहीं कर पा रहा था। वह ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठ गया था।
''चाय बनाती हूं। मैंने भी अभी तक नहीं पी। तब तक आप कपड़े बदल लें।'' प्रीति किचन की ओर चली गई।
वह देर तक सोचता रहा। बेडरूम में रखी आलमारी में उसके कपड़े थे, जहां जाने से वह बच रहा था, लेकिन सूटकेस में भरे कपड़े न केवल गंदे हो चुके थे बल्कि उनसे पसीने की गंध आ रही थी।
उसने कपड़े बदले और पुन: ड्राइंगरूम में आ बैठा। प्रीति चाय के साथ बिस्कुट भी ले आयी और सामने बैठ गयी।
देर तक दोनों के मध्य संवाद नहीं हुआ। छत पर मंडराते पंखे की ही बीच-बीच में चीं-चां की आवाज सुनाई दे जाती थी। सरकारी फ्लैट्स में पंखे भी सरकारी अर्थात सी.पी.डब्लू.डी. के होते हैं और सरकारी महकमों में....सी.पी.डब्लू.डी. भ्रष्ट महकमों में शीर्ष पर गिना जाता है। लेकिन ऐसा नहीं कि सभी अफसरों के फ्लैट्स के पंखों का वैसा ही हाल होता है। कुछ अधिकारियों के एक फोन पर सी.पी.डब्लू.डी. के कर्मचारी नंगे पांव दौड़ जाते हैं और रेंगता पंखा हो या कुछ अन्य मेण्टीनेंस ....वे उसे तुरंत दुरस्त करते हैं। लेकिन मामला हॉस्टल का था....जिसके प्रति उनका रवैया किसी बाबू के फ्लैट्स जैसा ही रहता है। हां, यदि उसमें रहने वाला अफसर जूनियर होते हुए भी पायेदार तैनाती पर होता है तब वे सिर के बल दौड़ते हैं और काम कर जाते हैं।'
सुघांशु ने उस दिन का अखबार उठा लिया और उसे देखने लगा। उसने एक बार भी प्रीति की ओर नहीं देखा। नहीं देखा यह कहना उचित नहीं। उसने दो बार उसे कनखियों से अवश्य देखा और दोनों ही बार पाया कि प्रीति उसी पर दृष्टि गड़ाए है। 'उसका इस प्रकार देखना यह सिध्द कर रहा है कि वह अपनी सफाई देना चाहती है।' उसने सोचा, 'अब तुम मनोवैज्ञानिक हो रहे हो।'
सुधांशु ने एक बार जो अखबार में दृष्टि गड़ाई तो तभी उठाई जब प्रीति ने उसे बिस्कुट लेने के लिए कहा। उसने एक बिस्कुट उठा लिया और छोटे-छोटे टुकड़े कुतरता हुआ चाय पीता रहा और सोचता रहा कि प्रीति उससे संवाद करने के लिए निश्चित ही शब्द तलाश रही है।
चाय जब समाप्त होने वाली थी, प्रीति बोली, ''चाय है अभी...और लेनी है?''
''नहीं.....।''
फिर कुछ देर की चुप्पी।
''माता जी की तबीयत की कोई सूचना?'' सुधांशु ने देखा यह पूछते समय प्रीति के चेहरे पर लालिमा दौड़ गयी थी। अर्थात बहुत जोर लगाने के बाद उसकी जुबान से यह शब्द निकले थे शायद।
''डाक्टरों ने जवाब दे दिया है। अब वह गांव में हैं।''
''ओह...। आपको फिर....।'' लेकिन आगे प्रीति कुछ नहीं कह पायी, जबकि कहना चाहती थी, 'आपको फिर जाना चाहिए।' सुधांशु ने भी उसके उस अधूरे वाक्य का यही अर्थ लिया। लेकिन बोला नहीं।
''आपको अचानक रिकार्डरूम में क्यों बैठाया गया और जो काम आप देख रहे थे वह भी ले लिया गया।''
''मेरी बला से....मैं भ्रष्टाचार में उनका साथ नहीं दे सकता।''
''भ्रष्टाचार..?''
''प्रधान निदेशक से लेकर चपरासी तक....ए.एफ.पी.ओ. सेक्शन की बात कर रहा हूं....रिश्वतखोरी में आकंठ डूबे हुए हैं...। और वही क्यों....जिसका दांव जहां लग रहा है....खा रहा है। विकास के नाम पर पूरे देश में भयानक भ्रष्टाचार बढ़ रहा है।'' सुधांशु ने सोचा था कि वह नहीं के बराबर संवाद करेगा और कोशिश करेगा कि संवाद ही न करना पड़े...लेकिन उसका निर्णय लड़खड़ा गया था। वह आश्चर्यचकित था। वैसे वह आश्चर्यचकित तब भी हुआ था जब छात्र जीवन में बचते घूमने के बावजूद प्रीति उसे घेरती थी और वह घिरता रहता था।
रात दोनों उसी चिरपरिचित बिस्तर पर सोये, लेकिन किसी अपरिचित की भांति।
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तार भेजने के एक सप्ताह बाद सुधांशु को पिता का तार मिला, ''स्वास्थ्य वैसा ही...डाक्टरों ने जवाब दे दिया।''
'मुझे जाना ही चाहिए। यदि यहां लाकर एम्स में दिखा दूं तो मन को संतोष होगा। होगा वही जो तय हो चुका है। मर्ज बढ़ चुका है, लेकिन मन में यह कसक नहीं रहेगी कि मैं मां का इलाज नहीं करवा सका। मां ने कितने कष्ट सहे हैं मेरे लिए....दोनों ने ही ...मां ने भी और पिता जी ने भी। आज ही मुझे पी.डी. से मिलना चाहिए। यद्यपि मैं उसकी शक्ल नहीं देखना चाहता, लेकिन....।'
और 'लेकिन' ने उसे अटका दिया। फिर भी वह इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि उसे मिलना ही होगा। वह सीट से उठा और पाल के पी.ए. के पास गया। पी.ए. एक लड़की थी। ...लड़की नहीं पैंतीस वर्षीया महिला। पी.ए. ने कहा, ''सर, अभी पी.डी. सर मीटिंग में हैं...मैं पूछकर आपको बता दूंगी।''
सुधांशु अपनी सीट पर लौट आया और पी.डी. द्वारा बुलाये जाने की प्रतीक्षा करता रहा, लेकिन उस दिन पाल ने उसे नहीं बुलाया। दूसरे दिन वह पुन: पी.ए. से मिला। पी.ए. ने उसे बैठाया और पाल के पास पूछने गयी। लौटकर बोली, ''सर ने कहा है कि आप पांच मिनट के लिए मिल सकते हैं।''
''पांच मिनट के लिए...।'' सुधांशु बुदबुदाया और सोचने लगा, 'पाल मुझे अपमानित करने का कोई भी अवसर छोड़ना नहीं चाहता।'
''ओ.के.।''
पाल ने सुधांशु के गुडमार्निंग का उत्तर न देकर कड़क आवाज में पूछा, ''किसलिए मिलना चाहते थे मिस्टर दास?''
''सर, मुझे एक सप्ताह का अवकाश चाहिए....मां को लाकर एम्स में दिखाना चाहता हूं। उन्हें कैंसर है।''
''कैंसर...उसका इलाज कहीं नहीं है। अपना और दफ्तर का समय नष्ट करेंगे आप और अपना पैसा भी...मुझे आपको यह याद दिलाने की आवश्यकता नहीं मिस्टर दास कि जल्दी ही 'हिन्दी संसदीय समिति' यहां आने वाली है। आपको काम की कतई चिन्ता नहीं है। नहीं है तो आप रिजाइन क्यों नहीं कर देते....इत्मीनान से जाइये घर और करवाइये मां का इलाज।'' पाल का स्वर और अधिक रूखा हो उठा था, ''अवकाश नहीं मिलेगा।''
सुधांशु ने एक शब्द भी नहीं कहा और पाल आगे कुछ कहता उससे पहले ही वह उसके चेम्बर से बाहर निकल आया। उसका चेहरा लाल था और लग रहा था कि वह रो देगा। गैलरी पार करते और ऊपर जाने के लिए सीढ़ियां चढ़ते हुए उसे आंखों के सामने धुंधलका-सा प्रतीत होता रहा। एक सीढ़ी पर उसके पैर लड़खड़ाये भी। सीट पर पहुंंच वह आंखें बंद कर कुर्सी पर उढ़क गया और देर तक उढ़का रहा। उसे प्यास लग रही थी। रिकार्ड रूम में बाहर की अपेक्षा गर्मी अधिक थी। खिड़की से आती हवा गर्म थी। वह देर तक आंखें बंद किये बैठा सोचता रहा, 'कितना क्रूर है पाल...पाल ही क्यों इस विभाग के रक्त में ही क्रूरता व्याप्त है। और यहीं क्यों दूसरे विभाग भी अछूते नहीं हाेंगे...सर्वत्र एक-सी स्थिति है। अंग्रेज गये, लेकिन उनसे विरासत में मिली क्रूरता घटने के बजाय बढ़ी है। आज ही अखबार में था कि दो पुलिस वालों ने एक छोले-भठूरे वाले का ठेला इसलिए पलटकर उसके सामान को बिखरा दिया, क्योंकि पहले उसने उन्हें मुफ्त में छोले-भठूरे देने से इंकार किया फिर हफ्ता देने से। अब सिपाही हफ्ता नहीं....ठेले वालों से प्रतिदिन उगाही करते हैं। सड़क के किनारे-पटरी पर बैठने वाले ...गली मोहल्ले में फेरी लगाने वालों से पुलिस पैसे वसूलती है। सड़क पर ट्रैफिक पुलिस चालान काटने के बजाय अपनी जेब गर्माती है। उन्हें प्रतिमाह एक निश्चित रकम अपने उच्चाधिकारियों को पहुंचानी होती है, जिसका एक हिस्सा मंत्री जी के खाते में जमा होता है। अधिसंख्य मंत्री भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैें। छोटभैय्या नेता तक कमाने में लगे हुए हैं। और नेता ....वही बन सकता है जिसके खाते में कुछ अपराध ...हत्या-बलात्कार-लूट-खसोट दर्ज होते हैं। उन्हीं में से ही तो मंत्री बनते हैं।.... फिर पाल जैसे क्यों चूकें....इनकी चाकू हमारे जैसों की गर्दनों पर ही चलती है।'
''सर...यह फाइल...।'' इंस्पेक्शन सेक्शन के सेक्शन अफसर की आवाज से सुधांशु चौंका। सेक्शन अफसर उसके चेहरे की रंगत देख परेशान था।
सुधांशु ने हाथ के संकेत से फाइल मेज पर रखने के लिए कहा। फाइल रख सेक्शन अफसर वापस जाने के लिए मुड़ा तो भर्राये स्वर में सुधांशु बोला, ''मिस्टर वर्मा, किसी से कहें कि मेरा पानी का जग भर दे...।''
''सर, जग मुझे दे दीजिए।'' वर्मा ने हाथ बढ़ाया।
''आप नहीं.......।''
''कोई बात नहीं सर...मैं पानी मंगवा देता हूं।''
सुधांशु ने जग वर्मा की ओर बढ़ा दिया।
''सर, गिलास भी दे दीजिए....साफ करवा दूंगा।''
गिलास लेने के बाद वर्मा ने पूछा, ''सर, चाय लेंगे? कैण्टीन वाला लड़का इधर ही है।''
''लेना चाहूंगा।''
''मैं उसे इधर ही भेजता हूं। तब तक पानी मंगवा देता हूं।''
कैण्टीन का चायवाला नेपाली लड़का किसन एक कप थामे हुए आया और, ''सर चाय।'' कहता हुआ उसकी मेज पर चाय का कप रखकर खड़ा हो गया। सुधांशु ने धन्यवाद कहा तो किसन ससंकोच बोला, ''सर, कुछ लेंगे..समोसा बहुत अच्छे हैं....ब्रेड पकौड़े भी हैं।''
''नहीं.....शुक्रिया।''
किसन वापस लौट गया। वर्मा ने अपने सेक्शन के रिकार्ड क्लर्क से पानी भेजवा दिया था। पानी पीने के बाद सुधांशु को लगा कि उत्तेजना कुछ शांत हुई है। वह चाय पीता रहा और सोचता रहा, 'ऐसे कब तक चलेगा सुधांशु...यह जल्लाद...यह पाल मुझे हलाल करने पर तुला हुआ है। यह मेरा भविष्य बरबाद कर देगा....मेरी गोपनीय रपट खराब कर देगा...। मैंने इसलिए नहीं रात-दिन एक करके आई.ए.एस. की परीक्षा उत्तीर्ण की थी....कि मैं सारी जिन्दगी सहायक निदेशक ही बना रहूं। विभाग में एक-दो मामले ऐसे हैं...जो अपने वरिष्ठों की हां-हुजूरी नहीं करते...कम से ऐसे वरिष्ठाें की जो भ्रष्ट हैं और उसकी सजा वे भुगत रहे हैं। अमित कपूर और सुहास बनर्जी के मामले इसी विभाग के हैं...दोनों की जिन्दगी बदबाद कर दी उनके सीनियर्स ने। दोनाें अपने समय के ब्रिलियंट छात्रों में थे....नौकरी में भी उनके रिकार्ड अच्छे थे, लेकिन फंस गये पाल जैसों के अधीन....मेरी ही जैसी स्थिति में और आज उनके साथ के.....उनके बैच के लोग निदेशक बने बैठे हैं। निदेशक ही नहीं वरिष्ठ निदेशक और वे दोनों संयुक्त निदेशक से आगे नहीं बढ़ पा रहे। डी.पी.सी. (डिपार्टमेण्टल प्रमोशन कमिटी) में उनके नामों पर विचार ही नहीं किया जाता। कपूर ने कैट में केस भी डाल रखा है। इसे कपूर की अनुशासनहीनता मानकर विभाग ने उनके खिलाफ दूसरे मामले तैयार कर दिए हैं। और सुहास बनर्जी...उन्होंने अपना मानसिक संतुलन ही खो दिया है। तो यह पाल मुझे भी वैसी ही स्थिति में पहुंचा दे...उससे पहले मुझे 'के' ब्लॉक से निकल जाना चाहिए। लेकिन कैसे....?'
'यदि मैं अपने स्थानांतरण की अर्जी देता हूं तो यह पाल के पास ही भेजी जायेगी। उसकी टिप्पणी उस पर दर्ज होगी और कभी भी मेरे अनुकूल नहीं होगी। दूसरा विकल्प है कि स्थानांतरण के लिए मैं महानिदेशक रामचन्द्रन से मिलूं....लेकिन ऐसे मामलों में महानिदेशक से मिलने के लिए पाल से ही अनुमति मांगनी होगी। यदि मैं पी.ए. के माध्यम से एक अधिकारी होने के नाते महानिदेशक से मिल भी लूं और अपनी बात कह भी दूं तब वह उलट पूछ लेंगे कि मुझे 'के' ब्लॉक में ज्वायन किए अधिक समय नहीं हुआ, फिर स्थानांतरण क्यों मांग रहा हूं। कारण बताउंगा तब वह निश्चित ही पाल से पूछेंगे और पाल को मेरे विरुध्द एक और धारदार औजार हाथ लग जायेगा। महानिदेशक स्थानांतरण के लिए मंत्रालय को मेरी अर्जी रिकमेण्ड करेंगे यह गारण्टी नहीं, लेकिन पाल अनुशासनहीनता के लिए मुझ मेमो थमा देगा, जिसकी प्रविष्टि मेरी निजी फाइल में भी दर्ज होगी। और मेरी वार्षिक गोपनीय रपट खराब करने के लिए उतना ही पर्याप्त होगा।'
'कितना दुर्वह है जीवन' उसने दीर्घ निश्वास ली और वर्मा द्वारा लायी फाइल देखने लगा, जिसमें सप्ताह भर की डाक की रिसीप्ट और डिस्पैच मात्र दिखाई गयी थी। पांच मिनट लगे उसे फाइल देखने और हस्ताक्षर करने में।
वह पुन: सोचने की प्रक्रिया में आने ही वाला था कि नीचे से एक चपरासी आया, ''सर, श्रीवास्तव जी के पी.ए. के पास अपाका फोन है।''
सुघांशु हड़बड़ाकर उठा। 'फोन पिता जी का होगा....अवश्य कुछ अशुभ समाचार होगा। मैंने श्रीवास्तव के पी.ए. का ही नंबर दिया था और पी.ए. को भी कह दिया था...।' वह तेजी से सीढ़ियां उतरता श्रीवास्तव के पी.ए. के कमरे में....कमरा कहना उचित नहीं होगा उसे....एक कमरे को प्लाई वुड से पार्टीशन करके पी.ए. के लिए छोटा-सा केबिन बना दिया गया था। केबिन इतना छोटा था कि पी.ए. की मेज कुर्सी ही बमुश्किल वहां समा सके थे। किसी अन्य के बैठने की गुजांइश नहीं थी, जबकि पाल के पी.ए. का कमरा एक बड़ा हॉल था, जिसे भी प्लाईवुड से पार्टीशन करके दो हिस्सों में बांटा गया था। दरवाजे से घुसते ही विजिटर्स के लिए बड़ा-सा सोफा था और उसके और पी.ए. के हिस्से के बीच पर्दा लहराता था। फर्श पर जे.डी. के कमरे से निकली हुई कॉलीन बिछी थी।
''सर......आप इधर आ जायें।'' पी.ए. विनम्रतापूर्वक केबिन से बाहर निकल आया।
फोन विराट का था।
'सुधांशु जी...आज शाम सात बजे मेरे यहां आ जाओ....आना अवश्य... मैं जल्दी में हूं...। सुकांत दिल्ली में है। सात बजे मेरे यहां आ रहा है। मैं ऑफिस से बोल रहा हूं।''
सुधांशु कुछ कहता उससे पहले ही विराट ने फोन काट दिया। वह क्षणभर के लिए द्विविधा में रहा, लेकिन जिस मानसिक संताप में वह जी रहा था उससे कुछ समय के लिए ही सही मुक्ति के लिए उसने विराट के यहां जाने का निर्णय लिया और श्रीवास्तव के पी.ए. से बोला, ''आप एक कष्ट करियेगा....मुख्यालय में प्रीति दास को फोन करके कह दीजिए कि मैं आज रात ग्यारह बजे तक घर पहुंचूंगा...एक मित्र के यहां जाउंगा।''
''जी सर।''
दिल्ली आने के बाद विभाग के अधिकारियों से वह सामंजस्य बैठा नहीं पाया था और अन्य लोगों से उसका परिचय नहीं था। रविकुमार राय अत्यधिक व्यस्त रहता था इसलिए उससे वह अब तक मात्र दो बार ही मिला था। वह घूम-फिरकर साहित्य की दुनिया में ही त्राण खोजने का प्रयत्न करता, लेकिन वर्तमान स्थिति में लिखना-पढ़ना असंभव हो गया था। विराट से बात कर उसे सुकून मिलता था, इसलिए सुकांत के आने के समाचार से उसने अधिक न सोच लक्ष्मीनगर जाने का निर्णय कर लिया था।
उस रात जब सुधांशु प्रगतिविहार हॉस्टल पहुंचा बारह बजकर दस मिनट हुए थे। वह नशे में धुत था और उसके पैर लड़खड़ा रहे थे। उस दिन पहली बार प्रीति को सुधांशु के मुंह से शराब की गंध आयी, लेकिन उसने कुछ कहा नहीं। अधिक कुछ कहने की स्थिति सुधांशु ने बनने ही न दी थी। वह वहां रहने तो आ गया था, लेकिन दोनों के संबन्ध पहले जैसे नहीं रहे थे। तनाव था और उस तनाव ने दोनों के मध्य निर्वाक दूरी बना रखी थी। प्रीति ने दूरी मिटाने के संकेत दिए, लेकिन सुधांशु ने उस ओर ध्यान नहीं दिया। प्रीति स्पर्श के लिए तरसती रही और सुघांशु उदासीन बना रहा।
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(42)
एक सप्ताह बीत गया। तनाव बरकरार रहा घर-दफ्तर ...दोनों स्थानों में। प्रीति से नहीं के बराबर संवाद होता था सुधांशु का। मां के समाचारों के लिए वह तरस रहा था। वह प्रतिदिन पिता जी के फोन और तार का इंतजार करता लेकिन कुछ भी नहीं आ रहा था। हिन्दी संसदीय समिति के आने के दिन निकट आ रहे थे। कार्यालय की साफ-सफाई शुरू हो गयी थी। वह ऊपर बैठता था, लेकिन खिड़की से सब देख पा रहा था। नई कालीनें खरीदी जा रही थीं। उसे स्पष्ट था कि पुरानी कालीनों को छोटे अधिकारियों के कमरों में सटा दिया जाएगा। पी.सी. (पार्लियामेण्ट कमिटी) के लिए आठ लाख का बजट सैंक्शन हुआ था, यह बात हिन्दी अधिकारी ने उसे बताया था, ''खर्च चार से अधिक का नहीं है....शेष का क्या होगा ईश्वर ही जानता है सर।' हिन्दी अधिकारी मुदित शर्मा ने कहा तो वह मुस्कराकर बोला, ''आपके कार्याकाल में कितनी बार पीसी यहां आयी है?'
''सर दूसरा अवसर है।''
उसने कुछ नहीं कहा। वह शर्मा को भी संदेह से परे नहीं मानता था। उससे कुछ भी एप्रूव होने के बाद शर्मा स्वयं पहले श्रीवास्तव और फिर पाल के पास ले जाता था। वह उन स्वामिभक्त अधिकारियों में था जो उच्चाधिकारी के संपर्क में बने रहने में गर्व अनुभव करते हैं। पाल के दो मीठे वचन उसके लिए शंकराचार्य के उपदेश से कम नहीं होते और सप्ताह ही नहीं महीने भर तक उसका चित्त प्रसन्न रहता है।
शर्मा ने अंग्रेजी में गुड सेकण्ड डिवीजन में आगरा विश्वविद्यालय से एम.ए. किया था। उसे अपने अंग्रेजी-हिन्दी ज्ञान पर गर्व था। उसकी हस्तलिपि अच्छी थी और उसे लगता कि पी.डी. उससे प्रसन्न था। इस बात की चर्चा वह कितनी ही बार अपने सहयोगियों से कर चुका था, ''पी.डी. सर ने पीठ थपथपाते हुए कहा कि तुम हिन्दी के विकास के लिए उल्लेखनीय कार्य कर रहे हो शर्मा।''
पी.डी. ने एक बार उससे ऐसा कहा था। यदि उसने लिखकर दिया होता तब निश्चित ही शर्मा उसे फ्रेम करवाकर अपने ड्राइंगरूम में रख लेता।
शर्मा फूले चौड़े गालों वाला मध्यम कद का सांवला पचपन साल के आस-पास का एक गदबदा व्यक्ति था, जिसने विभाग में ऑडिटर अर्थात यू.डी.सी. के रूप में प्रवेश किया था, लेकिन उसे क्लर्की में आनंद नहीं आ रहा था। वह कुछ बौध्दिक काम करना चाहता था, विभाग में उसकी गुंजाइश नहीं थी। लेकिन तभी उसने एक सर्कुलर देखा जिसमें विभाग में अनुवादकों के लिए आवेदन मांगे गये थे। शर्मा ने आवेदन किया और चुना गया। कुछ दिन तक मुख्यालय में कनिष्ठ फिर वरिष्ठ अनुवादक के रूप में काम करने के बाद प्रमोशन पर उसे 'के' ब्लॉक भेज दिया गया। उसने प्रारंभ से ही नौकरी की प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष शर्तों को समझ लिया था और उनके पालन का प्रयत्न करता था। वह मुरादाबाद का रहने वाला था और नि:संतान था और संतानहीनता की ग्रंथि का शिकार था। उस ग्रंथि के कारण उसे दूसरे का कुछ भी अच्छा चुभने लगता था, लेकिन प्रकट में वह उसकी प्रशंसा के लिए शब्दकोष के अलंकृत शब्द खोज लेता। परन्तु जब भी अवसर देखता उसकी बुराई करने में नहीं चूकता था और उस खूबसूरती के साथ कि जिस व्यक्ति से उस प्रशंसित की बुराई करता उसे यह भ्रम रहता कि शर्मा उस व्यक्ति की बुराई कर रहा था, तटस्थता दिखा रहा था या प्रशंसा कर रहा था।
यद्यपि सुधांशु को शर्मा के विषय में अधिक जानकारी नहीं थी....वास्तव में उसे उस कार्यालय के लोगों के विषय में ही जानकारी नहीं थी और न ही उसे इसमें रुचि थी, लेकिन अनुभव से उसने जाना था कि यदि बिना पूछे ही कोई किसी से दूसरे के विषय में नकारात्मक चर्चा करता है या रहस्यमय प्रश्न उछालता है, जैसा कि शर्मा ने उसके सामने पार्लियामण्टरी कमिटी के लिए प्राप्त राशि को लेकर उछाला था तब उस व्यक्ति से सावधान रहना चाहिए। उसके यह कहने पर, ''आपके लिए यह सब पहेली नहीं होना चाहिए शर्मा जी।' शर्मा का चेहरा उतर गया था।
शर्मा के वापस जाने के बाद सुधांशु सोचने लगा, 'यह व्यक्ति निश्चित ही पी.डी. का जासूस होगा....भले ही पीडी ने इसे मेरी जासूसी के लिए नियुक्त नहीं किया हो, लेकिन इसे मेरी स्थिति की जानकारी है और अपने नंबर बढ़ाने के लिए मेरी प्रतिक्रिया को नमक मिर्च लगाकर वह पाल से कह सकता है। आजकल वैसे भी यह अधिक ही उससे मिलता रहता है।'
'मुझे सभी से सावधान रहना चाहिए।'
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उस रात डिनर के बाद जब सुधांशु अखबार पढ़ने लगा, क्योंकि सुबह पूरा अखबार वह नहीं पढ़ पाता था, उस समय प्रीति उसके सामने सोफे पर आ बैठी। उसके हाथ में कुछ फाइलें थीं जिन्हें वह मेज पर रखे बैग में रखती रही। फाइलें रखने के बाद पांच मिनट तक वह चुप अखबार पढ़ते सुधांशु को देखती रही। सुघांशु ने समझ लिया कि वह उसे देख रही है। पांच मिनट बाद वह बोली, ''कल सुबह की फ्लाइट से मुझे टुअर पर कलकत्ता जाना है।''
''ओ.के.।'' सुधांशु बोला और अखबार पढ़ने लगा।
''आज ही डी.जी. सर ने वहां जाकर वहां के कार्यालय के कंप्यूटराइजेशने के लिए सर्वे करने के लिए कहा था।'' वह सफाई देने लगी।
''हुंह।''
संवाद यहीं समाप्त हो गया। प्रीति तैयारी में लग गयी। सुबह पांच बजे स्टॉफ कार आकर उसे ले जाने वाली थी। छ: बजे एयर पोर्ट पर रिपोर्टिंग थी और सात बजे इंडियन एयरलांइस की फ्लाइट।
अगले दिन सुबह सुधांशु ने रिकार्ड सेक्शन के बाबू को बुलाकर कहा, ''जितने भी ऑफिस आर्डर मुख्यालय से आया करें उन्हें एक फोल्डर में डालकर पहले मुझे दिखा दिया करो उसके बाद पी.डी. के पास भेजा करो।''
''सर, यदि किसी अफसर के नाम से कोई लिफाफा हो ....।''
''केवल वही डाक मुझे दिखाओ जो आप खोलकर पी.डी. के पास भेजते हो। किसी के नाम से आए लिफाफे खोलने के लिए आपको नहीं कह रहा हूं।''
''जी सर।''
रिकार्ड सेक्शन में दिन भर डाक आती थी और पी.डी. के आदेशानुसार दिन में दो बार उसका वितरण किया जाता था। सुबह आने वाली डाक बारह बजे से साढ़े बारह बजे और दोपहर बाद की डाक तीन से चार बजे के मध्य पी.डी. यानी पाल को प्रस्तुत की जाती थी।
''सर, एक निवेदन है...आप डाक जल्दी देख लिया कीजिएगा....पी.डी. सर डाक समय से न पहुंचने पर मुसीबत खड़ी कर देते हैं।''
''ठीक है।''
सुबह की डाक बारह बजे सधांशु को प्रस्तुत की गई, जिसे वह स्वयं दस मिनट में रिकार्ड सेक्शन में जाकर दे आया।
दरअसल एक अधिकारी होने के नाते डाक का फोल्डर उसे भी प्रस्तुत किया जाना चाहिए था। कार्यालय के नियमानुसर पी.डी. के बाद डाक जे.डी. संयुक्त निदेशक) फिर डी.डी. (उप निदेशक) होते हुए ए.डी. (सहायक निदेशक) के पास जानी चाहिए....केवल उन गोपनीय पत्रों को छोड़कर जिन्हें केवल पी.डी. (प्रधान निदेशक) या जे.डी. तक ही जाना होता या उन्हें जो किसी के नाम से होते थे। अतिगोपनीय पत्रों को पी.डी. निकाल लेता था और संबध्द अधिकारी को सौंपकर कार्यवाई के निर्देश देता था। लेकिन उसे रिकार्ड रूम में बैठा देने के बाद इस मामले में भी उसकी उपेक्षा की जाने लगी थी। डाक का फोल्डर उस तक नहीं पहुंचता था। विनीत खरे, जो उससे जूनियर था, तक जाकर भट्ट के पास भेज दिया जाता, जो डाक का वितरण संबध्द अनुभागों में करवाता था। अब जबकि रिकार्ड सेक्शन उसी के अधीन था पी.डी. के पास भेजे जाने से पहले उसने डाक देखने का निर्णय किया।
उस दिन अपरान्ह जो डाक उसके समक्ष आयी उसमें दो ऑफिस ऑर्डर थे। एक प्रीति के उसी दिन कलकत्ता जाने और कार्य समाप्त कर चार दिन बाद लौटने का था और दूसरा डी.पी. मीणा के दो दिन बाद कलकत्ता जाने और प्रीति के लौटने वाले दिन ही मुख्यालय लौटने का था। प्रीति कब लौटेगी यह न उसने उससे पूछा था और न ही उसने उसे बताया था। वैसे अमूमन ऐसे टुअर के आदेशों में लिखा जाता है कि अफसर अमुक दिन जाएगा और कार्य समाप्ति के पश्चात लौटेगा। लेकिन उस ऑर्डर में लौटने की तिथि तय कर दी गई थी।
उस दिन शाम जब वह कार्यालय से निकलने वाला था एक चपरासी दौड़ता हुआ उसके पास आया। वह श्रीवास्तव का चपरासी था, ''सर पी.ए. साहब के पास आपका फोन है।''
'विराट का ही होगा।' उसने पिछले दिन की भांति कोई हड़बड़ी नहीं दिखाई। आराम के साथ सामान ब्रीफकेस में रखा और ब्रीफकेस मेज पर छोड़ नीचे उतरा। छ: बजने में पन्द्रह मिनट शेष थे। उसे देख पी.ए. केबिन से बाहर निकल आया। पी.ए. के चेहरे पर तनाव देख उसने अनुमान लगाया कि उसे अवश्य ही किसी बात परश्रीवास्तव से डांट पड़ी होगी।
उसने बिना किसी हड़बड़ी के फोन का रिसीवर उठाया तो वह कट चुका था।
''यह तो कट गया।''
''ओह।'' पी.ए. ने खेद प्रकट किया।
''किसका था?''
''सर, आपके घर से था।''
''घर से....।'' सुधांशु चीख उठा, ''कोई संदेश....?''
''सर, आपकी मदर सीरियस हैं।''
''ओह।'' वह पी.ए. की सीट पर बैठ गया और फोन आने की प्रतीक्षा करने लगा। दस मिनट तक वह सीट पर बैठा रहा, लेकिन फोन नहीं आया। इस बीच श्रीवास्तव बाथरूम जाते और लौटते हुए उधर से निकला और उसने उसे पी.ए. की सीट पर बैठा और पी.ए. को बाहर खड़ा देखा। लौटते समय श्रीवास्तव ने पी.ए. को अपने पास आने का आदेश दिया। पी.ए. डर गया और समझ भी गया कि श्रीवास्तव उसे क्यों बुला रहा था। नोट बुक और पेंसिल थाम वह श्रीवास्तव के चेम्बर में पहुंचा तो श्रीवास्तव ने कड़क आवाज में उससे पूछा, ''यह साहब तुम्हारे केबिन मेें क्या कर रहे हैं?''
''सर, उनके घर से फोन आया था....कट गया....दोबारा आने का....।''
''आपने इन्हें अपना नंबर इस्तेमाल क्यों करने दिया? ई.पी.बी.एक्स. नंबर भी तो है।''
''सॉरी सर।''
''जाओ और ध्यान दो कि कोई गोपनीय पत्र इनके हाथ न लगे....और भविष्य में अपना फोन इस्तेमाल मत होने दो।''
''यस सर।''
''सभी फाइलें....डाक्यूमेण्ट्स मेज से हटा दो।''
''सर हटा चुका हूं....उसके बाद...।''
''अधिक नहीं बोलो....।''
''सॉरी सर।''
पी.ए. सिर पर पैर रखकर श्रीवास्तव के चेम्बर से बाहर निकला और अपने केबिन की ओर लपका। सुधांशु को उसी चिन्तित मुद्रा में बैठा देखा तो बोला, ''सर, अब शायद ही आए....आएगा तब मैं आपको बुला दूंगा....वैसे संदेश यही था कि आपकी मदर....।''
''हुंह।'' सुधांशु उठ खड़ा हुआ। वह असमंजस में था कि क्या करे। 'उसे घर जाना ही चाहिए...मेरे पहुंचने तक मां जीवित भी मिलेंगी या....।' वह कांप उठा। चेहरे पर दो बूंदें टपक गयीं। वह गैलरी में खड़ा रहा क्षणभर तक इस उहापोह में कि स्टेशन छोड़ने से पहले अनुमति लेना आवश्यक है और इसके लिए वह श्रीवास्तव के पास जाए या पाल के पास। जाना पाल के पास ही होगा। वह कार्यालय का इंचार्ज है। उसे ही अनुमति का अधिकार है। उसकी अनुपस्थिति में श्रीवास्त से पूछा जा सकता है। वह पाल के पी.ए. के कमरे की ओर बढ़ा। पाल के पी.ए. का कमरा खाली था। इलेक्ट्रानिक टाइपराइटर प्लास्टिक के कवर से ढका हुआ था। मेज साफ थी। न कोई फाइल न कोई कागज। पी.ए. का पर्स तक मौजूद नहीं था, 'मतलब पी.डी. दफ्तर में नहीं है।' उसने सोचा, फिर भी पाल के चेम्बर की ओर बढ़ा। चेम्बर के दरवाजे पर कुंडी लगी हुई थी। दरवाजे के ऊपर जलने वाली लाल या हरी बत्ती गुल थी और चपरासी की कुर्सी खाली थी, जो दरवाजे के साथ सटी रखी होती थी।
'पी.डी. चले गये।' सुधांशु ने सोचा, 'श्रीवास्तव भी जाने वाले होंगे।' वह तेजी से श्रीवास्तव के पी.ए. के कमरे की ओर बढ़ा। पी.ए. सामान समेट रहा था।
''आप श्रीवास्तव जी को बता दें कि मैं उनसे तुरंत मिलना चाहता हूं...बहुत आवश्यक है अभी मिलना।'' यह कहते हुए उसने अनुभव किया कि उसका गला भरभरा रहा था।
''जी सर।'' पी.ए., जो अपना लंच बॉक्स बैग में रख रहा था, उसे मेज पर छोड़ श्रीवास्तव के चेम्बर की ओर बढ़ गया और एक मिनट में ही लौट आया, ''सर, बिल्कुल जाने को तैयार खड़े हैं। गाड़ी लग चुकी है। चपरासी उनका ब्रीफकेस लेकर जा चुका है। सर, आप लपक कर मिल लें।''
सुधांशु को लगा कि वह एक क्लास वन अफसर नहीं उस दफ्तर का चपरासी है। दुखी मन और दुखी हो उठा, लेकिन मिलना अपरिहार्य था। वह श्रीवास्तव के चेम्बर में बिना नॉक किये प्रविष्ट हुआ। श्रीवास्तव चहल-कदमी कर रहा था।
''यस, मिस्टर दास।'' उसकी ओर देखे बिना ही श्रीवास्तव बोला।
''सर, कुछ देर पहले आपके पी.ए. के पास घर से फोन आया था, मां सीरियस हैं। मेरा अनुमान है कि वे शायद अब जीवित नहीं रहीं।''
''आप कैसे कह सकते हैं कि वे जीवित नहीं हैं।''
''मेरा अनुमान है....।''
''आपने फोन अटेण्ड किया था?''
''नहीं सर, पी.ए. ने किया था। उसके संदेश से ही मैं ऐसा सोच रहा हूं...।''
श्रीवास्तव ने टेबल पर रखे फोन का बज़र दबाया। पी.ए. ने फोन उठाया तो उसे आने का आदेश दिया। पी.ए. के आने पर पूछा, ''मिस्टर दास का फोन आपने अटेण्ड किया था?''
''यस सर।''
''क्या बताया गया था?''
''सर, यही कि साहब की मदर सीरियस हैं। उसके बाद फोन कट गया....अभी तक नहीं आया।''
''ओ.के।'' श्रीवास्तव ने पी.ए. को जाने का इशारा किया।
''आप क्या कहना चाहते हैं मिस्टर दास। मेरे पास वक्त कम है। वाइफ के साथ कहीं जाना है।''
''सर, मैं घर जाना चाहता हूं....एक सप्ताह का अवकाश चाहिए।''
''वह तो पी.डी. सर से पूछे बिना नामुमकिन है।''
''सर, यदि मां....।'' सुधांशु का गला रुंध गया। उसे लगा वह रो देगा, लेकिन वह जिस पद पर था उस व्यक्ति को खुलकर आंसू बहाना भी मना होता है.....पद की गरिमा का प्रश्न....गरिमा भले ही बाथरूम के बाहर बैठा देने से नष्ट होती हो, लेकिन तब भी घुटने के अतिरिक्त अपनी पीड़ा व्यक्त करना अपराध माना जाता है।
श्रीवास्तव पुन: टहलने लगा था और बार-बार घड़ी भी देखता जा रहा था।
''आप एक प्रार्थना-पत्र, जिसमें सारे विवरण लिख दें...फोन आने...किसने अटैण्ड किया, क्योंकि वह उसका गवाह होगा, और मां की स्थिति बताकर स्टेशन छोड़ने की अनुमति देना आदि लिखकर भट्ट को दे दें। मैं भट्ट को कह दूंगा...ओ.के.....सॉरी...मुझे जल्दी है। आपके साथ मेरी हमदर्दी है। और ईश्वर से प्रार्थना है कि वह आपकी मां को शीघ्र ही स्वस्थ करे।''
सुधांशु ने श्रीवास्तव को धन्यवाद कहा और उसके पी.ए. के कमरे की ओर बढ़ा जिससे कागज लेकर उसे प्रार्थना-पत्र लिखना था। श्रीवास्तव भट्ट से कुछ भी कहे बिना गाड़ी में जा बैठा था।
दास का आभिप्राय समझ पी.ए. मन ही मन खीजा, क्योंकि उसे पन्द्रह-बीस मिनट का विलंब होने वाला था। कागज लेकर सुधांशु पी.ए. की सीट पर बैठकर प्रार्थना-पत्र लिखने लगा, लेकिन तत्काल उसे याद आया कि कहीं भट्ट चला न जाये। पाल के जाने का समाचार दफ्तर में फैलते ही लोग जाने लगते थे। जो देर तक बैठते थे वे भी छ: बजते ही गेट पर नजर आते । उसने पी.ए. से कहा, ''एक तकलीफ करेंगे आप मेरे लिए?''
''जी सर।''
''भट्ट को बोल आएं कि मैं पांच मिनट में एप्लीकेशन लिखकर ला रहा हूं। श्रीवास्तव जी ने उन्हें कह दिया होगा। मेरे आने तक वह रुके रहें।''
''जी सर।''
पी.ए. ने लौटकर बताया, ''सर भट्ट मुझे गैलरी में मिले ....बोले श्रीवास्तव जी ने उन्हें कुछ नहीं कहा और वह रुक नहीं सकते, क्योंकि उन्हें अपनी बेटी को कत्थक के कार्यक्रम में लेकर जाना है, जो सात बजे प्रारंभ होगा।''
''फिर...?'' प्रार्थना-पत्र लिखते हुए सुधांशु के हाथ रुक गये।
''आप पांच मिनट रुकें...मैं आपको ही दे दूंगा। आप सुबह श्रीवास्तव जी को दे देंगे।''
''जी सर।''
सुधांशु जब तक एप्लीकेशन लिखता रहा, पी.ए. बेचेनी के साथ केबिन के बाहर टहलता रहा। कार्यालय बंद करने वाले चपरासी और बाबू उसके पास आए और बोले, ''का हो पी.ए. साहब ...सारा दफ्तर चला गया आप यहां क्यों मक्खी मार रहे हो? आज हमें भी जल्दी घर जाने दो।''
पी.ए. ने सुधांशु की ओर इशारा किया तो दोनों सकपका गये।
पी.ए. को एप्लीकेशन देकर सुधांशु ने कार्यालय बंद करने वाले चपरासी से पूछा, ''रिकार्डरूम बंद कर आए?''
''जी सर।''
''मेरा ब्रीफकेस मेज पर रखा है, जाकर ले आओ।''
चपरासी दोड़ता हुआ सीढ़ियां चढ़ने लगा और दो मिनट में सुधांशु का ब्रीफकेस ले आया। सुधांशु ने उन सभी को धन्यवाद दिया और गेट की ओर बढ़ा यह सोचते हुए कि कनॉट प्लेस के जिस एजेण्ट से वह एयर टिकट बुक करवाता है, वह मिल गया तो रात की किसी भी फ्लाइट से बनारस चला जाएगा।
लेकिन उसे अगले दिन सुबह की सहारा की टिकट मिली। जब वह गांव पहुंचा, मां की अत्येंष्टि की जा चुकी थी। उसका मन चीत्कार कर उठा। जिन्दगी में पहली बाद वह फूट-फूटकर रोया।
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(43)
सुधांशु ने चार दिन के अवकाश के लिए आवेदन किया था। अगले दिन प्रदीप श्रीवास्तव के पी.ए. ने सुघांशु का प्रार्थना पत्र श्रीवास्तव को देते हुए कहा, ''सर, यह एप्लीकेशन सुधांशु सर मुझे देकर गये थे...।''
''मैंने भट्ट को देने के लिए कहा था।''
''सर, भट्ट साहब जा चुके थे।''
''हुंह।'' श्रीवास्तव ने सुधांशु की एप्लीकेशन लेकर मेज पर पेपरवेट से दबा दिया और पीए. से बोला, ''भट्ट को भेज दो।''
भट्ट को एप्लीकेशन देते हुए श्रीवास्तव बोला, ''नोट के साथ इसे मेरे पास भेज दो।''
भट्ट ने अपनी ओर से एक नोट लिखा और सुधांशु की एप्लीकेशन उसके साथ नत्थी कर उसे श्रीवास्तव को देने जाने लगा, लेकिन एक बार पुन: एप्लीकेशन और नोट पढ़ने का विचारकर वह कुर्सी पर बैठ गया। एप्लीकेशन पुन: पढ़ने के बाद उसे अपने पर कोफ्त हुई। 'सुधांशु दास ने इस पर अपना लीव एड्रेस तो लिखा ही नहीं।' वह सोच रहा था, 'इस बात का उल्लेख मुझे नोट में करना होगा। पी.डी. सर बाल की खाल निकालते हैं...सुधांशु दास के मामले में वह अधिक ही सतर्कता बरतेंगे...।'
भट्ट ने पहले वाला नोट फाड़ दिया और दूसरा लिखने लगा, जिसके अंत में उसने लिखा कि मिस्टर दास ने अपना अवकाश कालीन पते का उल्लेख अपने प्रार्थना-पत्र में नहीं किया है। नोट के साथ प्रार्थना पत्र नत्थी कर उसे एक खाली फाइल कवर के साथ टैग कर श्रीवास्तव को देने गया। श्रीवास्तव ने उसे मेज पर रख देने का इशारा किया और किसी से फोन पर बातें करता रहा।
फोन पर वार्तालाप समाप्त कर श्रीवास्तव ने भट्ट के नोट के नीचे अपना नोट लिखा, जिसपर विशेषरूप से उसने सुधांशु द्वारा पते का उल्लेख न करने का जिक्र किया और चपरासी से उसे चमनलाल पाल के पास भेज दिया।
पाल को भट्ट से कल की घटना की सूचना पहले ही मिल चुकी थी और उसे यह भी भट्ट ने बता दिया था कि दास की एप्लीकेशन को नोट के साथ उसने जे.डी. के पास भेज दिया है। पाल श्रीवास्तव की टिप्पणी के साथ एप्लीकेशन आने की प्रतीक्षा कर रहा था। जैसे ही सुधांशु की एप्लीकेशन उसके पास पहुंची, उसने श्रीवास्तव के नोट के नीचे अपना नोट लिखा, ''अवकाश स्वीकृत। अवकाश कालीन पता दर्ज न करने के लिए मिस्टर दास के लौटने पर उनसे स्पष्टीकरण मांगा जाए और संतोषजनक उत्तर न मिलने पर अनुशासनात्मक कार्यवाई की जाए।'
फाइल कवर पांच मिनट में श्रीवास्तव के पास वापस पहुंच गया और उसने अपनी टिप्पणी के साथ उसे भट्ट के पास भेज दिया जो उन दिनों एएफपीओ सेक्शन के साथ प्रशासन एक अनुभाग का काम भी देख रहा था। भट्ट ने आवश्यक बॉक्स में फाइल सुरक्षित रख दी।
इधर सुधांशु के प्रकृतिस्थ होने पर पिता सुबोध दास ने उससे कहा, ''बेटा, मुझे अफसोस है कि तुम अम्मा के अंतिम दर्शन नहीं कर पाये, लेकिन अधिक रोकने से मिट्टी के खराब होने का खतरा था। वैसे भी कल चार बजे शाम उनकी मृत्यु हुई थी।......अब तो जो होना था हो गया....बेटा मन को धीरज दो और उनके बचे कारज पूरा करो।''
सुधांशु पिता की बातें सुनता रहा। पिता ही आगे बोले, ''अम्मा की तेरहवीं करने का निर्णय किया है। तुम कितने दिन की छुट्टी लेकर आए हो?''
''एक हफ्ते की....।''
''छुट्टी तो बढ़ावैं का पड़ी बेटा। तेरह दिन मा तेरहवीं.... तुम एक हफ्ता की छुट्टी और बढ़ा देव।''
सुधांशु सोच में पड़ गया। मां के अंतिम दर्शन नहीं कर पाया, लेकिन उनकी आत्मा की शांति के लिए उनकी तेरहवीं तक रुकना ही चाहिए....मेरे पास छुट्टियां हैं और ऐसे अवसर पर कोई भी छुट्टियां देने से इंकार नहीं करेगा...पाल भी नहीं।' लेकिन तभी उसे पिछली यात्रा से लौटने के बाद की पाल की कही बात याद आयी, 'विभाग ने आपकी मां का ठेका नहीं लें रखा मिस्टर दास।' लेकिन इस बार मामला ही और है। मुझे आज ही कस्बे से एक सप्ताह के लिए अवकाश बढ़ा देने के लिए तार भेज देना चाहिए। लेकिन जब तक मैं कस्बे के पोस्ट आफिस पहुंचूंगा...वह बंद हो चुका होगा। तार कल भी भेजा जा सकता है।'
और सुधांशु ने अगले दिन तार देकर एक सप्ताह के लिए अवकाश बढ़ाने का अनुरोघ प्रधान निदेशक पाल को भेज दिया। उसने मां की मृत्यु और तेरहवीं के लिए अवकाश बढ़ाने का कारण बताया था, लेकिन जब एक विशेष फोल्डर में रखकर पी.ए. ने तार पाल के पास प्रस्तुत किया वह फुंकार उठा। पी.ए. को बुलाया और डिक्टेशन लिखने का आदेश दिया। उसने चार पंक्ति का पत्र डिक्टेट किया, जिसमें कहा गया था कि माननीय प्रधान निदेशक ने आपके अवकाश बढ़ाने के प्रार्थना पत्र पर सहानुभूतिपूर्वक वियार किया, लेकिन हिन्दी संसदीय समिति के आगमन को दृष्टिगत रखते हुए आपकी उपस्थिति अपरिहार्य मानकर अधो-हस्ताक्षरकर्ता को आपको सूचित करने का निर्देश दिया कि आपके पूर्व प्रार्थना-पत्र के आधार पर आपको प्रदत्त अवकाश के आगे अवकाश स्थगित करने की अनुमति आपको नहीं दी जा सकती। अत: आप अविलंब कार्यालय में उपस्थित हों।''
डिक्टेशन देने के बाद पाल ने टेलीग्राम पी.ए. को देते हुए कहा, ''डिक्टेशन टाइप करके इसके साथ भट्ट को दे देना। उसे कहना कि मुझसे बात कर ले।''
''यस सर।''
डिक्टेशन और टेलीग्राम भट्ट को देते हुए पी.ए. ने कहा, ''आप इसके साथ तुरंत पी.डी. सर से मिल लें।''
पाल ने डिक्टेशन चेक करने के बाद भट्ट से कहा, ''इसे विनीत खरे के हस्ताक्षर से स्पीड पोस्ट से सुधांशु दास को भेज दो।''
''सर, एप्लीकेशन में उन्होंने अपना लीव एड्रेस नहीं दिया।''
''मिस्टर दास ने कार्यालय में अपना स्थयी पता लिखा होगा।''
''जी सर।''
''फिर...मेरा मुंह क्यों तक रहे हो। जाकर काम करो।''
सुधांशु के तार ने पाल के दिमाग को गर्मा दिया था। 'पार्लियामण्टरी कमिटी आने वाली है और यह व्यक्ति पुरानी परंपराओं से चिपका हुआ है। दिल्ली में तीन-चार दिनों में सब कुछ सम्पन्न हो जाता है.....तेरह दिन....।' यह सोचते ही उसकी बौखलाहट बढ़ गयी थी।
''जी सर।'' भट्ट यूं भागा मानो पुलिस उसके पीछे थी।
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पत्र सुघांशु को तेरहवीं से एक दिन पूर्व मिला। रजिस्टर्ड डाक से भेजा गया वह पत्र कदम-कदम चला। एक दिन वह प्रधान निदेशक कार्यालय के रिकार्ड सेक्शन में पड़ा रहा, क्योंकि वह वहां पहुंचा तब था जब सेक्शन के लोग जाने वाले थे। अगले दिन वह जी.पी.ओ. में आराम करता रहा...और इस प्रकार जब पहुंचा तब सुधांशु के लिए समय से पहुंचने के अवसर उसने छीन लिए थे। सुधांशु का आरक्षण बनारस से अगले दिन था। उसने रजिस्ट्री स्वीकार की और हस्ताक्षर के नीचे तारीख डाल दी। उसे आंशका पहले से ही थी कि पाल उसके अवकाश बढ़ाने से चिढ़ जाएगा, बल्कि वह व्यक्तिगत रूप से अगले दिन मिलकर अवकाश पर जाने की अनुमति न लेने से ही चिढ़ चुका होगा और अवकाश बढ़ाने के तार ने घी में आग का काम किया होगा। उसने भविष्य में घटित होने वाली किसी भी अप्रिय घटना को मस्तिष्क से निकालने का प्रयत्न किया और पिता के साथ तेरहवीं की व्यवस्था में जुट गया। वास्तव में व्यवस्था उसी को करना था, क्योंकि पिता तेरहवीं में बैठे हुए थे। कुछ करने की अनुमति उन्हें नहीं थी। सुधांशु को ही घर, जानवर, निमंत्रण, हलवाई आदि की व्यवस्था करनी थी। यद्यपि उसके सहयोग के लिए पास-पड़ोस के लोग सन्नध्द थे। गांव में सुधांशु के प्रति लोगों में प्रेम और आदर था। गांव का नाम रौशन किया था उसने आई.ए.एस. बनकर। लोगों को आशाएं थीं उससे....अपने बच्चों को लेकर। जैसाकि सभी गांव के लोगों को गांव के किसी युवक के अच्छे पद पर पहुंचने पर होती है। जब तक वह आशा उन्हें बनी रहती है उनकी दृष्टि में वह गांव का हीरो रहता है, लेकिन जब अपनी तमाम उलझनों, व्यस्तताओं, विडंबनाओं और सीमाओं के कारण वह युवक गांव के लोगों की आशाएं पूरी नहीं कर पाता गांव वालों की दृष्टि में उसका महत्व घटने लगता है। कुछ सक्षम स्थिति में होने पर भी कन्नी काट लेते हैं। गांव से अपने को विमुक्त कर लेते हैं, लेकिन बहुत-से ऐसे होते हैं जो अनेक कारणों से कुछ कर नहीं पाते और दोनों ही गांव वालों की आलोचना का शिकार होने लगते हैं।
सुधांशु से अभी तक लोगों को अपेक्षाएं थीं। ''अभी वह खुद ही व्यवस्थित हो रहा है। उस पर मां की गमी......इससे उसे उबरने में बखत लगेगा......लेकिन औरों की तरह नहीं है वह.......जरूर कुछ करेगा अपना सुधांशु।'' यहां तक कि जो विद्यार्थी सुधांशु के कक्षाएं-दर कक्षाएं फलांगने पर डाह करते थे अब वे भी उसकी प्रशंसा करने लगे थे और गांव का हर घर उसे अपनी डयोढ़ी एक बार लांघता देखना चाहता था। लेकिन सुधांशु ने अपने को अपने घर तक ही सीमित कर लिया था। उसने आते ही पिता की सहायता के लिए गांव के ही एक गरीब अधेड़ को काम पर रख लिया था, जिसका नाम ममतू था। ममतू चालीस के लगभग मझोले कद, कृष्णवर्ण, चमकती आंखों और दोहरे बदन का व्यक्ति था, जिसके तीन बच्चे....दो लड़के और एक लड़की और पत्नी.....पांच का परिवार था उसका। कमाई का ठोस आधार नहीं था। लड़की छोड़ पूरा परिवार मजदूरी करता था। पढ़ने की उम्र में लड़के जमींदारों के घर दिनभर काम करते थे। ममतू के प्रति गांव में रहते हुए सुधांशु सहृदय रहा करता था, और यही कारण था कि उसकी सहायता करने के विचार से गांव आते ही उसने उसे अपने यहां काम करने का प्रस्ताव किया। ममतू के लिए यह मुंह मांगी मुराद थी। ममतू और उसकी पत्नी ने जानवरों, खेत और घर के कामों का भार अपने सिर ले लिया था।
तेरहवीं का कार्यक्रम निर्विघ्न समाप्त हो गया। इस दौरान कितनी ही बार उसने कार्यालय में घटित होने वाली स्थिति की कल्पना की और सोचा कि प्रीति के दिल्ली लौटने के पश्चात मां की मृत्यु का समाचार क्या उसे नहीं मिला होगा! घर में मेरी अनुपस्थिति पर उसने मेरे कार्यालय से मेरे बारे में जानने का प्रयत्न नहीं किया होगा! वह आ नहीं सकती थी....आना भी नहीं चाहती होगी, लेकिन टेलीग्राम द्वारा शोक संदेश ही भेज देती।' उसने सोचा, 'उसके पास गांव का पता नहीं होगा। होना चाहिए। नहीं था तो वह मेरे कार्यालय से ले सकती थी। मुख्यालय में सभी क्लास वन अधिकारियों की निजी फाइलें हैं जिसमें उनका सारा विवरण दर्ज होता है। प्रीति तो वहीं है। लेकिन उसके लिए रिश्तों का कोई महत्व नहीं रहा अब। फिर मैं ही क्यों रिश्तों को ढोता रहूं,! केवल समाज को दिखाने के लिए कि हम पति-पत्नी हैं। जब उसने पत्नी धर्म की धज्जियां उड़ा दीं तब....श्रीवास्तव के कहने पर मैं फ्लैट में रहने चला गया....किसलिए....केवल सामाजिक भयवश....रिश्तों को पुन: स्थिापित करने.....मन में भावना नहीं थी। गलतियां इंसान से ही होती हैं, यदि इंसान गलती को मान ले और पुन: उसे न होने देने का निर्णय करे तो पुरानी स्थिति बहाल करना असभंव नहीं....एक परिवार छिन्न-भिन्न होने से बचता है...मैंने यही सोचा था, लेकिन लगता नहीं कि प्रीति भी ऐसा ही सोचती है। शायद वह मुझे कवच की भांति धारण किए रखना चाहती है, लेकिन मैं क्यों बनूं उसका कवच....यदि वह इतना ही स्वार्थग्रस्त है तब मैं उसकी स्वार्थपूर्ति का साधन क्यों बनूं! मुझे अपने संबन्धों की गहनता से समीक्षा करने की आवश्यकता है।'
'मैं कितने मोर्चों पर लड़ूं! क्ार्यालय में पाल, घर में प्रीति और अब पिता की समस्याएं। मां थीं तब निश्चिंतता थी, लकिन अब पिता जी अकेले गांव में रहें यह उचित नहीं होगा। मुझे प्रीति से अलग व्यवस्था करना ही होगा...पिता जी को दिल्ली ले जाना ही उचित होगा।' और चलते समय उसने पिता से अपना विचार व्यक्त किया। सुनकर सुबोध बोले, ''सुधांशु तुम मेरी चिन्ता छोड़ो....गांव के बिना मैं जी नहीं सकूंगा। गांव मेरे रक्त में बसा हुआ है। तुम्हारे पास मैं तुम्हारी अम्मा के साथ पटना में रहकर देख चुका हूं। शहर में मेरा दम घुटता ह,ै बेटा। तुम दोनों सुखी रहो....कभी-कभी बहू के साथ गांव के चक्कर लगा जाया करना। कभी मन ऊबेगा और तुम नहीं आ पाओगे तब मैं भी आ जाया करूंगा...दो-चार दिनों के लिए...लेकिन शहर ...वह भी दिल्ली जैसे शहर....जहां लोग दौड़ रहे होते हैं.....जिन्दगी भाग रही होती है.....वहां मुझ जैसे गंवई-गांव के आदमी का दम घुट जाएगा। यहां रहकर दस साल जी लूंगा तो वहां....।' पिता के सामने उसके तर्क नहीं चले थे। पिता के तर्कों के उत्तर में उसने कहा, ''आप जहां सुकून अनुभव करें....वहीं रहें।''
''तुमने ममतू को मेरी मदद के लिए लगा दिया है....यही बहुत है। तुम सुखी रहो....।'' और सुबोध की आंखें गीली हो गयीं थीं, ''सुख के दिन जब आए तब तुम्हारी अम्मा साथ छोड़ गयीं। अच्छे लागों के साथ यही होता है। खूब साथ निभाया उसने....।'' सुबोध सिसकने लगे। सुधांशु भी अपने को रोक नहीं पाया और वह भी सिसक उठा।
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(44)

यह अप्रत्याशित था, लेकिन घटित हुआ। लखनऊ और शाहजहांपुर के बीच एक स्थान पर रेल दुर्घटना हो गयी थी। किसी एक्सप्रेस ट्रेन की टक्कर मालगाड़ी से हुई थी। दुर्घटना रात के समय घटी और स्थान किसी गांव के स्टेशन के निकट जंगल का था। दुर्घटना इतनी भीषण थी कि एक्सप्रेस गाड़ी की चार बोगियां उलट गयी थीं और शेष ट्रेन पटरी से उतर गयी थी। इंजन दौड़कर पटरी से दूर जमीन में जा धंसा था। दोनों गाड़ियों के ड्राइवरों सहित कितने लोगों की मृत्यु हुई थी इसका सही अनुमान नहीं था। केबिनमैन ने दोनों ओर के सिग्नल लाल कर दिए थे और स्टेशन मास्टर से बात करने का प्रयत्न किया था, लेकिन केबिन में मौजूद फोन की सांसे उखड़ी हुई थीं। केबिनमैन टार्च लेकर लाइन के किनारे स्टेशन की ओर दौड़ा था स्टेशन मास्टर को सूचित करने के लिए। स्टेशन पहुंचने पर उसे स्टेशन मास्टर अपने कमरे में नहीं मिला था। एक खलासी सामान ढोने वाली हाथगाड़ी पर लेटा ऊंघता दिखा था। स्टेशन पर सौ वॉट के दो बल्ब टिमटिमा रहे थे, जिनकी बीमार रोशनी में केवल चीजों का आभास ही मिल पा रहा था। स्टेशन मास्टर के कमरे में टयूबलाइट जल रही थी और उसकी मेज पर लॉगबुक और उस पर पेन रखा हुआ था। 'मास्टर जी यहीं कहीं होंगे।' केबिनमैन ने सोचा और बेचैनी से टहलने लगा। पांच मिनट गुजर गये, लेकिन स्टेशन मास्टर का पता नहीं था। एक्सप्रेस गाड़ी आने का समय हो रहा है।' केबिनमैन परेशान हो उठा। वह दौड़कर खलासी के पास चहुंचा, ''क्यों रे हरबू, मास्टर जी कहां गये?'' वह स्टेशन मास्टर को मास्टर जी कह रहा था।
''घर गये होंगे।''
केबिनमैन घर की ओर दौड़ा तो स्टेशन मास्टर को पैण्ट संभालते आते देखा। स्टेशन मास्टर का पेट गड़बड़ था और वह उस एक्सप्रेस ट्रेन के गुजरने के लिए रुका रहा था। उसके गुजरते ही वह घर की ओर लपका था। पेट में ऐसी घुड़घुड़ाहट हो रही थी कि बैठते ही बम फटने लगे थे और उसे दुर्घटना का आभास तक नहीं मिला था।
''सर, जल्दी कीजिए....अभी जो एक्सप्रेस गुजरी थी केबिन से आगे भयानकरूप से दुर्घटनाग्रस्त हो गयी है। मैं उधर न जाकर पहले आपको बताने आया....आप सभी स्टेशनों को सूचित कर दें...दूसरी एक्सप्रेस गाड़ी आने में अभी आध घण्टा है।''
स्टेशन मास्टर का चेहरा आतंक से फैल गया। बोल नहीं फूटे।
''सर, मैं उधर ही जा रहा हूं....आप आगे जहां भी सूचना दे सकते हैं...दें....पता नहीं वहां क्या हाल होगा।'' केबिनमैन ने स्टेशन मास्टर के चेहरे पर दृष्टि डाली....उसका चेहरा राख हो रहा था।
दरअसल स्टेशन मास्टर दुर्घटना के समाचार से इतना घबड़ा गया था कि उसके मुंह से आवाज नहीं निकली।
केबिनमैन दुर्घटना स्थल की ओर दौड़ गया।
दुर्घटना इतनी भीषण थी और उसकी आवाज इतनी तेज कि आसपास के गांवों तक पहुंची थी और जब केबिनमैन वहां पहुंचा चारों ओर से टार्च और लालटैनें लिए ग्रामीणों को दौड़कर आते देखा। कुछ ने मशालें जला रखी थीं।
'दुर्घटना की इतनी भीषण आवाज को स्टेशन मास्टर कैसे सुन नहीं सके थे।' केबिनमैन आश्यर्यचकित था। यदि उसे यह जानकारी होती कि पेट की गड़बड़ और फूटते बमों ने स्टेशन मास्टर के होश उड़ा रखे थे तो वह वैसा नहीं सोचता।
सुधांशु की ट्रेन को दुर्घटना स्थल से तीन स्टेशन पहले रोक दिया गया। रेलवे ट्रैक खाली होने तक आठ धण्टे लगे। अनेक गाड़ियों को कानपुर के रास्ते दिल्ली भेजा गया लेकिन उसकी ट्रेन ऐसे स्थान पर रुकी हुई थी कि उसका रास्ता बदलना संभव नहीं था। ट्रेन दस घण्टे विलंब से नई दिल्ली पहुंची। कार्यालय का समय समाप्त हो चुका था, जबकि सुधांशु को उस दिन कार्यालय पहुंचना आवश्यक था। जिस स्टेशन पर उसकी ट्रेन को रोका गया था वहां से ट्रंकाल करना संभव नहीं था।
'आज कार्यालय न पहुंचना पाल की दृष्टि में अक्षम्य अपराध है। लेकिन ऐसी स्थिति में कोई कर भी क्या सकता है। मैं अपना टिकट सुरक्षित रखूंगा.....वह ट्रेन दुर्घटना के विषय में चाहे तो पता कर सकेगा।' नई दिल्ली स्टेशन पर उतरते हुए सुधांशु ने सोचा।
'आखिर मैंने ऐसा क्या किया जिससे पाल मेरे विरुध्द है?' ऑटो मे बैठते ही विचार उसके दिमाग में घूमने लगे।
'किया ...तुमने कांट्रैक्टर्स के बिल रोके....उनकी अनयमितताएं पकड़ीं। बिना माल सप्लाई किए प्रस्तुत बिलों को रोककर उनके विरुध्द कठोर कार्यवाई की सिफारिशें की....यह सब उस व्यक्ति से जो स्वयं ठेकेदारों की जेब में बैठा है। भ्रष्टाचार के विरुध्द बोलना इस देश में अपराध की श्रेणी में गिना जाने लगा है। बदलते समय में अपराध की परिभाषा बदलने लगी है। जो अपराधी है वह शेर की भांति सीना ताने विचरण करने के लिए सवतंत्र है और उसके विरुध्द उंगली उठाने वालों को वह अपना शिकार समझता है। यह आजादी भी व्यवस्था ने उसे दे रखी है, क्योंकि उसका संबन्ध सत्ता के गलियारों तक है। सत्ता....जो जनता के वोट के बल पर संसद और विधानसभाओं में काबिज होती है...वह किस प्रकार वोट के लिए नोटों का खेल खेलती है...यह अब छुपा नहीं रहा। तमिलनाडु जैसे राज्यों में बड़ा-छोटा नेता जनता के वोट खरीदने के लिए करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाते हैं, क्योंकि एक बार सत्ता हाथ आने पर उसके सौ गुना उनकी जेब में होने की गारण्टी सत्ता उन्हें देती है। बात तमिलनाडु ही क्यों...कोई भी राज्य पीछे नहीं....कोई भी नेता पीछे नहीं.....चाहे केन्द्र के लिए चुनाव लड़ने वाला हो या राज्य के लिए। बहुमत के अभाव में सरकार बचाने के लिए सांसद....विधायक खरीदे जाते हैं.... करोड़ों कहां से आते हैं...जनता का धन जनप्रतिनिधियों की जेब में जाता है और वहां से स्विस बैंकों में....देश आजाद कहां है! मुलाम था तब अंग्रेज शिकारी थे...... आज अपने ही राजनीतिज्ञों से लेकर भ्रष्ट ब्यूरोक्रेट्स....पूंजीपति...सभी शिकारी हैं। अपने-अपने ढंग से वे जनता का शिकार कर रहे हैं और जनता किंकर्तव्यविमूढ़ है। ये शिकारी इतना क्रूर हैं कि अपने विरुध्द कहने वालों को समाप्त करने के सभी हथकंडे अपनाते हैं....।' वह सोचता रहता कि ऑटोवाले ने उसे टोका, ''साहब, किधर मोड़ना है।''
उसने उसे प्रगतिविहार हॉस्टल का रास्ता बताया।
ऑटो का किराया चुकता करते हुए उसकी दृष्टि सफेद मारुति आठ सौ पर जा टिकी, जो उसके फ्लैट की सीढ़ियों के पास खड़ी थी। 'यह गाड़ी नंबर मैंने पहले भी देखा है। कहां ?' पर्स से रुपये निकालते उसके हाथ क्षणभर के लिए रुक गये। उसने उचटती नजर ऑटो ड्राइवर पर डाली, जो अपनी सीट पर बैठा पर्स की ओर देख रहा था... 'पैसे मिलें और वह जाये' वाले भाव से।
'कहां देखा...।' सुधांशु ने गहनता से सोचा और तभी उसे याद आया कि उस गाड़ी को उसने मुख्यालय यानी महानिदेशालय के बाहर खड़ा देखा था। यह याद आते ही उसने पर्स से रुपये निकाले, गिने और ऑटोवाले को पकड़ाकर अपना सूटकेस और बैग उतार सीढ़ियां चढ़ने लगा।
फ्लैट के दरवाजे पर पहुंच उसने बैग नीचे रखा और दरवाजे को नॉक किया। अंदर दो लोगों की आवाजें उसे सुनाई दीं। एक प्रीति की थी और दूसरी को उसने पहचानने का प्रयत्न किया। नॉक करते ही आवाजें फुसफुसाहटों में बदल गयीं।
''समबडी इज देअर?' प्रीति की फुसफुसाती आवाज थी।
''शायद।'' पुरुष स्वर। फिर शांति।
दो मिनट बीत गये। दरवाजा नहीं खुला। सुधांशु ने पुन: नॉक किया। किसीके कदमों की आवाज और पीछे से प्रीति की फुसफुसाहट ''जस्ट वेट डी.पी.। मैं गाउन डाल लूं।''
'ओह! तो डी.पी. मीणा है।' सुधांशु को लगा कि उसका दिमाग चकरा रहा है। वह गिर जायेगा, लेकिन संभलने में उसने समय नष्ट नहीं किया। फर्श पर रखा बैग उठाया और धड़धड़ाता हूुआ सीढ़ियां उतर गया। ऑटो ड्राइवर तब तक गया नहीं था। गाड़ी मोड़कर वह फ्लैट के सामने एकांत पाकर अंधेरे का लाभ उठाता पेशाब कर रहा था। ऑटो की ओर बढ़ते हुए सुधांशु ने पिच से डी.पी. मीणा की गाड़ी पर थूका और लपककर ऑटो में बैठ गया। ड्राइवर पैण्ट की चेन चढ़ाता हुआ लौट आया था।
''मित्र, लक्ष्मीनगर चलना है।''
''लक्ष्मीनगर... साहब...।'' ड्राइवर द्विविधा में पड़ गया।
''यहां से तो चलो....आगे बात करेंगे।'' ड्राइवर ने जब ऑटो स्टार्ट किया, सुघांशु को फ्लैट की बालकनी से डी.पी.मीणा झांकता दिखाई पड़ा।
सुधांशु का दिल तेजी से धड़क रहा था और घृणा से भरा हुआ था। 'विश्वासघात' शब्द उसके मस्तिष्क को मथे डाल रहा था।
''खान मार्केट की ओर से ऑटो ले लेना। शायद कोई पी.सी.ओ. की दुकान खुली हो...एक फोन करना है।''
''जी साहब।'' ड्राइवर उधर ही से जा रहा था।
खान मार्केट में उस समय भी अच्छी रौनक थी। एक दुकान से सुधांशु ने कोमलकांत विराट को पहले धर फोन किया, लेकिन विराट घर में नहीं था। उसने जनसत्ता कार्यालय मिलाया, ज्ञात हुआ कि विराट कुछ समय पहले ही घर के लिए निकला था।
'घर पर ही मिलेगा।' सोचता हुआ सुधांशु लौट आया।
जब वह लक्ष्मीनगर विराट के धर पहुंचा विराट ताला खोल रहा था। सुघांशु को देखते ही बोला, ''आइये कवि...आज मैं आपको दिन भर याद करता रहा। आपके कार्यालय फोन मिलाया तो ज्ञात हुआ कि आपकी माता जी की तबीयत गंभीर थी....आप घर गये हैं। कैसी है तबीयत अम्मा जी की?''
''शी इज नो मोर।''
''ओह, आय एम सॉरी सुधांशु। ईश्वर अम्मा की आत्मा को शांति प्रदान करे और दुख सहने के लिए आपको बल दे।'' विराट ने कमरे का दरवाजा खोला तो अंदर से गर्मी के भभके ने उनका स्वागत किया।
''आज गर्मी कुछ अधिक है।'' विराट बोला, ''घर से आ रहे हो?''
''हां।'' सुधांशु ने बैग और सूटकेस सोफे पर पटका और बोला, 'ठण्डा पानी पिलाओ विराट....प्यास से दिमाग फटने को हो रहा है।''
''एक मिनट।'' विराट ने पंखा चलाया, फिर खिड़की का पर्दा हटाकर कूलर चला दिया, ''इधर...कूलर के सामने बैठो....आराम मिलेगा। दिनभर बंद रहने से कमरा तप जाता है। पन्द्रह मिनट में ठंडा हो जाएगा।''
सुधांशु कूलर के सामने बैठ गया।
''भोजन तो करोगे?''
''इच्छा नहीं है।''
''इच्छा को रखो ताक पर....मुझे भूख लग रही है। बहुत सही समय पर आये हो। आध घण्टा लगेगा...एगकरी और चावल बनाता हूं....। जब तक अण्डे उबलेंगे ...चाय बना लूं?''
''नहीं।''
''कोल्डड्रिंक ले लो। फ्रिज में रखा है।''
''आवश्यकता नहीं है।''
''कमरा ठंडा हो गया है। नहाना चाहो तो....।''
''नहीं, उसकी भी आवश्यकता नहीं है।'' विराट की बात बीच में ही काट दी सुधांशु ने।
''कपड़े बदलकर बेड पर आराम करो...बाकी बातें बाद में....भोजन के समय करेंगे।''
विराट भोजन पकाने में व्यस्त हो गया और सुधांशु कपड़े बदलकर बेड पर लेट गया। उसके मस्तिष्क में तूफान चल रहा था और वह निरंतर प्रीति और मीणा के विषय में सोच रहा था...'आज सब समाप्त हो गया। यह सब कल्पनातीत है।' मन के एक कोने से आवाज आयी, 'लेकिन यह कटु सत्य है। इसे स्वीकार करो और प्रीति के साथ घुट-घुटकर जीवन बिताओ या अपने जीवन में उसके आने को एक हादसा मान उसे भूल जाओ। उससे मुक्ति ही तुम्हारे जीवन का त्राण हो सकती है। जब उसने तुम्हारी चिन्ता नहीं की....संबन्धों की पवित्रता की परवाह नहीं की...पिछली बार इसे मेरी मात्र आशंका करार दिया था....लेकिन अब वास्तविकता आंखों के सामने थी....जानकर भी जहर पी लूं...मैं शिव नहीं....सामान्य इंसान हूं....छल-छद्म से प्रभावित होने वाला सामान्य इंसान।'
'मुझे करना क्या होगा!' उसने करवट ली और आंखें बंद कर लीं। अभी तक आंखें खोले दीवार की ओर देखता रहा था, जहां कलेण्डर लटका हुआ था। वह सोचने लगा, 'कल किसी होटल में...फिर कहीं कमरा किराये पर लेकर....अलग...प्रीति की छाया से दूर।'
'हमारा अलग रहना विभाग में चर्चा का विषय नहीं बनेगा? उसने आंखें खोल लीं, 'दूसरों की परवाह कर अपनी आत्मा पर प्रहार करूं....उसे मार लूं....नहीं। विभाग में वैसे भी चर्चा कम नहीं...पाल ने मुझे रिकार्ड रूम में बैठा दिया...इस पर क्या लोगों ने जुगाली नहीं की होगी। कोई आप पर अत्याचार करता रहे और आप उसे बर्दाश्त कर उसके सामने घुटने टेके रहें यह भी उतना ही बड़ा अपराध है जितना बड़ा उसका आप पर अत्याचार करना। अपराधी वह भी है जो अपराध करने वाले को बर्दाश्त करता है और उसे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष बढ़ावा देता है। उदाहरण के लिए सत्ता के शीर्ष पर बैठा व्यक्ति कितना ही ईमानदार क्यों न हो, लेकिन यदि वह अपने भ्रष्ट मंत्रियों को बर्दाश्त करता है....और वह भी महज इसलिए कि वह सत्ता सुख भोगता रहे तो देश के लिए वह भी उतना ही गुनाहगार है जितना उसके मंत्री....बावजूद इसके कि वह बेहद-बेहद ईमानदार व्यक्ति है।' उसने पुन: आंखें बंद कर लीं।
'बहुत हुआ....अब बिल्कुल नहीं....।'
''अरे क्या बहुत हुआ....क्या बिल्कुल नहीं कविवर।'' विराट बेड के पास खड़ा पूछ रहा था।
सुधांशु हड़बड़ाकर उठ बैठा। उसका चेहरा पसीने से तरबतर था, ''कुछ नहीं....मुझे याद नहीं मैंने क्या कहा। थकान के कारण तंद्रिल अवस्था में मुंह से निकल गया होगा।''
''ऑफिस से आ रहे हो?''
''बनारस से....रास्ते में ट्रेन दुर्घटना हो गयी थी। गाड़ी दस घण्टे विलंब से पहुंची। ऑफिस नहीं जा पाया।''
''भाभी कहीं गई हैं?''
''हुंह।'' सुधांशु इस प्रसंग को यहीं विराम देना चाहता था, ''भोजन तैयार हो गया ?''
''अभी लाया।'' विराट किचन की ओर बढ़ गया।
खाना परोसते हुए विराट ने पूछा, ''सुधांशु जी, शोक से लौटे हैं आप...पूछना धृष्टता लग रही है लेकिन....बुरा न मानें तो एक-एक पेग हो जाये।''
सुधांशु ने सिर हिलाकर स्वीकृति दी। 'दिमाग जिस दुर्घटना से बोझिल है, एक पेग राहत देगा।' उसने सोचा और एक ही पर उसने विराम नहीं लिया। वे दोनों बोतल समाप्त होने तक पीते रहे और जब सुधांशु बेड पर गया आर.सी. के पांच पेग उसके पेट में पहुंच चुके थे। उसके बाद उसे होश नहीं रहा कि वह कहां था।
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उपसंहार
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घटनाएं इतनी तेजी से घटीं कि उसकी कल्पना सुधांशु कर ही नहीं सकता था। उसने यह तो सोचा था कि उसके अवकाश बढ़ा लेने से चमनलाल पाल ने अपने नाखून और तेज और नोकीले कर लिए होंगे और कार्यालय में उसके कदम रखते ही उसका क्रोध उस पर फट पड़ेगा, लेकिन बात यहां तक पहुंच जाएगी उसने नहीं सोचा था। सुबह जब वह सोकर उठा हल्का सिर दर्द था। 'रात अधिक पी गया था। उसने सोचा, 'मुझे पीना नहीं चाहिए था। पीकर अपने को भूलने-भुलाने का तर्क उचित नहीं है। जो कुछ हुआ उसके लिए मैं स्वयं जिम्मेदार हूं, लेकिन पिता और समाज के प्रति मेरी कुछ जिम्मेदारियां हैं, पीकर उनसे मैं भटक जाउंगा। यदि पिता जी को पता चले तो वे क्या सोचेगें! वह कल्पना ही नहीं कर सकते कि मैंने शराब पी थी। मुझे अपने को संभालना चाहिए। पटना में भी विराट, सुकांत आदि पीते थे...सिन्हा ने कितनी ही बार कहा था, 'कैसे अफसर हो सुधांशु जी। एक घूंट लेकर देखो...पीकर साहित्य अच्छा लिखा जाता है।' सिन्हा की बात का मैंने खंडन किया था, 'मैं नहीं समझता कि महान रचनाएं लिखते समय उनके रचयिता धुत रहे थे....और सच यह है कि जो ऐसा मुगालता पालते हैं मुझे नहीं लगता कि वे कभी अच्छी रचनाएं लिख पाते हैं...जब मस्तिष्क ही स्वस्थ नहीं होगा तब विचार स्वस्थ कैसे हो सकते हैं!' उसने कहा था।
''यह बहस का मुद्दा हो सकता है।'' सिन्हा ने ठहाका लगाया था, ''आप कोल्ड ड्रिंक से ही काम चलाइये सुधांशु जी।''
'लेकिन वही मैं अब विराट के कहने मात्र से पीने बैठ गया। शायद इसलिए.....क्योंकि पटना में जीवन इतना अशांत नहीं था....घात-प्रतिघात और विश्वासघात जैसा कुछ नहीं घटित हुआ था। कार्यालय में शांति थी। सभी प्रशंसा करते थे....कोई खींचतान नहीं थी। ऐसा नहीं कि वहां रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार नहीं था। उतना ही था जितना प्ररवि विभाग के किसी भी कार्यालय में है या कहना चाहिए कि उससे बिल्कुल कम नहीं जितना अन्य सरकारी महकमों में पाया जाता है। वहां प्रर व प्ररवि विभाग के अधिकारियों के बीच सांठ-गांठ थी। लेकिन मुझे जिन अनुभागों का काम सौंपा गया था वे इस सबसे मुक्त थे।'
'लेकिन तनाव का अर्थ यह नहीं कि कोई अपने संस्कारों को ताक पर रख दे और वह सब करने लगे जिसके विषय में उसने कभी सोचा भी न हो। यदि सोचा भी हो तो उसे हेय दृष्टि से देखा हो।' बिस्तर पर पड़े-पड़े ही वह सोचता रहा और खर्राटे लेते विराट को देखता रहा, 'कितना मस्त जीवन है पट्ठे का। शादी की नहीं.....फिलहाल करने का विचार भी नहीं...जबकि मुझसे तीन वर्ष बड़ा है। फिर मैंने ही क्यों की....यदि रुका होता तब शायद प्रीति की वास्तविकता प्रकट हो चुकी होती। क्या उसने मुझे साधन के रूप में इस्तेमाल किया....क्या उसे मुझ जैसे एक मूर्ख की आवश्यकता थी। मैंने नहीं ही किया होता यदि मुझे इसकी यह वास्तविकता पता चल जाती कि उसके जीवन का लक्ष्य मौज-मस्ती है। सिध्दांत, नैतिकता और संस्कारों का उसके लिए कोई महत्व नहीं। भले ही शादी तक इसने उनके मुखौटे चढ़ा रखे थे, लेकिन शादी के बाद धीरे-धीरे वे उतरने लगे थे। तो क्या पिता नृपेन मजूमदार और कमलिका मजूमदार भी बेटी को समझ नहीं पाये थे!'
'ऐसा हो नहीं सकता। उन्होंने बहुत सोच-समझकर मेरे साथ उसके विवाह का निर्णय किया होगा। वे जानते रहे होंगे और उन्होंने सोचा होगा कि मुझ जैसे गरीब और संस्कारवान युवक के साथ ही प्रीति का निर्वाह हो सकता है। फिर भी अपनी बेटी के इस अध:पतन की कल्पना उन्हें कतई नहीं रही होगी। और यदि होती तब भी वे वही करते जो प्रीति चाहती। उसने सोचा होगा कि वह मुझे नियंत्रित कर लेगी....मनमानी कर सकेगी। और यही उसकी भूल थी। इस भूल की कीमत उसे कितनी चुकानी होगी नहीं जानता लेकिन अपनी भूल की कीमत मुझे चुकानी ही होगी।'
'मुझे अब करना क्या चाहिए!' सुधांशु पुन: उलझन में पड़ गया। रविवार तक विराट के साथ रहूं या पुन: किसी होटल की शरण लूं और विराट की सहायता लेकर कहीं एकमोडेशन किराए पर लूं। आज सामान विराट के यहां छोड़कर ऑफिस के बाद प्रापर्टी डीलर्स से मिलकर जगह तलाश करूंगा। कुछ दिनों बाद पिता जी को ले आने का प्रयत्न करूंगा...। लेकिन प्रीति के साथ रहना तो दूर उसकी शक्ल भी देखना मुझे स्वीकार नहीं। वह अब शायद ही प्रदीप श्रीवास्तव या किसी अन्य अधिकारी से दबाव डालने का प्रयत्न करे। उसे आभास हो गया होगा कि रात दरवाजा खटखटाने वाला मैं था। संभवत: डी.पी. ने मुझे जाते हुए देखा भी था...।'
सुधांशु बेड से जब उठा एक दृढ़ संकल्प उसके मन में था प्रीति के साथ अपने संबन्धों को लेकर। उसके कार्यालय के लिए निकलने तक विराट सोया हुआ था। उसने उसे जगाया और सूचित किया कि उस दिन भी वह उसके यहां ही आएगा।
''दूसरी चाबी लेते जाओ....मेरा क्या ठिकाना। पत्रकारिता की जिन्दगी....बहुत रात हो जाती है।''
उसने चाबी ली और सीढ़ियां उतर गया था।
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कार्यालय में अपनी सीट पर बैठे उसे आध घण्टा भी नहीं हुआ था कि लंबे डग भरता झूमता हुआ अरुण कुमार भट्ट बाथरूम की ओर की सीढ़ियों से ऊपर आता दिखाई पड़ा। उसके हाथ में गत्ता चढ़ा एक पतला रजिस्टर था, जिसमें से एक कागज झांक रहा था। दूर से ही भट्ट ने मुस्कराकर उसे गुडमार्निंग कहा।
'वेरी गुडमार्निंग' वह भट्ट के चेहरे की ओर देखने लगा।
''सर ये आर्डर रिसीव कर लें।'' भट्ट उसकी मेज के पास तनकर खड़ा हो गया।
भट्ट ने उसके सामने रजिस्टर खोला और आर्डर उसकी ओर बढ़ा दिया। पत्र मुख्यालय से भेजा गया ट्रांसफर आर्डर था। विषय के अंतर्गत केवल 'ट्रांसफर-एस्टै्रब्लिशमेण्ट' लिखा था। लेकिन दूसरी पंक्ति में बोल्ड अक्षरों में अपना नाम देखते ही उसके चेहरे पर गंभीरता पसर गयी।
उसने ट्रांसफर आर्डर ले लिया। उसे मद्रास के प्रधान निदेशक कार्यालय स्थानांतरित किया गया था। आर्डर में डी.पी. मीणा के हस्ताक्षर थे। लिखा था कि मुख्यालय यह सूचित करते हुए हर्ष अनुभव कर रहा है कि मंत्रालय ने प्रधान निदेशक कार्यालय मद्रास के लिए उसका स्थानांतरण करने का निर्णय किया है। मंत्रालय के निर्देशानुसार उसे तत्काल प्रभाव से प्रधान निदेशक कार्यालय 'के' ब्लॉक से कार्यमुक्त किया जाता है और सरकारी नियमानुसार उसे दस दिन के ज्वाइनिंग समय, व्यवधान, सामान ले जाने और यात्रा आदि भत्तों का प्रवधान है।'
सुधांशु पत्र पढ़ ही रहा था कि भट्ट बोला, ''सर, आप नीचे आकर अपना रिक्यूजीशन भर दें.......जिससे शाम तक आपको भत्तों का भुगतान किया जा सके।''
''रिक्यूजीशन फार्म यहीं भेज दीजिए....भरकर भेजवा दूंगा।''
''सर, अन्यथा नहीं लेंगे..।'' भट्ट ने उसी प्रकार तने हुए कहा, ''... अगर आप सेक्शन में आ जायेंगे तब सब फटा-फट हो जायेगा।''
''ठीक है।''
भट्ट चला गया।
स्थानांतरण से एक क्षण के लिए सुधांशु विचलित हुआ था, लेकिन तत्काल सोचा था, 'मैं तो यही चाहता था...पाल की छाया से मुक्ति....प्रीति से दूर.....।' मन में एक राहत का भाव उत्पन्न हुआ, लेकिन वह अधिक देर तक टिका नहीं। उसके अंदर एक टीस उठी...लगा कुछ दरक गया है। अपूर्णता के एहसास ने उसे आ घेरा। वह अतीत में खोने वाला ही था कि हिन्दी अधिकारी ने आकर कहा, ''सर नीचे से इंटरकॉम आया था कि आप जाकर जल्दी से अपना रिक्यूजीशन भर दें।''
''ओ. के.।'' उसने दीर्घ निश्वास ली और उठ खड़ा हुआ और एडमिन सेक्शन में जाने के लिए बाथरूम की ओर की सीढ़ियां उतरने लगा।
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शाम पांच बजे तक सुधाशु कार्यालय में रहा। भट्ट के बाद कैशियर ही उससे मिलने आया। उस दिन उसने स्वयं कूलर तक जाकर पानी का गिलास भरा। स्टॉफ के लोग उससे कतराते रहे थे.... बल्कि एक प्रकार का सन्नाटा उसने उनमें अनुभव किया था। रिकार्ड सेक्शन और हिन्दी सेक्शन में होने वाला शोरगुल उस दिन थमा रहा था। लोग फुसफुसाकर बातें कर रहे थे। 'शायद मेरे ट्रांसफर का आतंक सभी पर छाया हुआ है।' उसने सोचा। उससे मिलने न कोई अधिकारी आया, न ही किसी ने बुलाया और ना ही स्टॉफ के किसी सदस्य ने उसकी ओर रुख किया, जबकि वह अनुभव कर रहा था कि उसके ट्रांसफर की खबर कार्यालय में सभी को थी। यही नहीं दिल्ली के सभी कार्यालयों में भी यह खबर आग की लपट की भांति फैल चुकी होगी और संभव है कि बाहर ...कम से कम पटना तो पहुंची ही होगी। पटना वालों के लिए यह चौंकाने वाली खबर रही होगी।
'लेकिन नहीं, इस खबर ने किसी को भी नहीं चौंकाया होगा। स्टॉफ को अफसरों के आने-जाने से अधिक फर्क नहीं पड़ता। पड़ता उन्हे्रं कुछ अवश्य है जो किसी अफसर से लाभान्वित हो रहे होते हैं, लेकिन ऐसे लोगों को भी अधिक इसलिए नहीं क्योंकि अफसरों से लाभ उठाना उनके रक्त में होता है। जो भी आता है उसीसे वे नैकटय स्थापित कर लेते हैं। भ्रष्ट और रिश्वतखोर एक दूसरे को तुरंत पहचान लेते हैं। वे एक ही गलियारे से गुजरने वाले राही होते हैं...गलियारे जो देश को पतन के अंधकार तक ले जा रहे हैं। गलियारे जहां पाल जैसे लोग सुरक्षित और आश्वस्त हैं। ये आजादी के बाद का वह इतिहास रच रहे हैं जिसकी कल्पना गांधी, सुभाष, भगतसिंह और उनके साथियों ने नहीं की थी।' बीच-बीच में वह प्रीति के विषय में भी सोचने लगता।
'क्या उसे मेरे ट्रांसफर की सूचना नहीं होगी! ल्ेकिन मैं उसके विषय में सोच ही क्यों रहा हूं...नहीं मुझे उसे पूरी तरह दिल-दिमाग से निकाल देना चाहिए। भूल जाना होगा सुधांशु। उसने विश्वासघात किया है....एक अक्षम्य अपराध।'
'लेकिन मुझे उसके यहां से सामान लेने जाना ही होगा। यह अच्छा है कि चाबी मेरे पास है। आज समय नहीं मिला तब कल चला जाऊंगा.....लेकिन कल यदि वह ताला बदल दे......उसे आज ही ट्रांसफर की जानकारी हुई होगी....लेकिन जानकारी पहले से भी हो सकती है। मीणा ने उसे अवश्य बताया होगा। लेकिन हो सकता है कि मंत्रालय से आदेश आने के तुरंत बाद महानिदेशक ने मीणा को पत्र भेजने का आदेश दिया हो और मंत्रालय से आदेश आज ही आया हो। लेकिन मेरी स्थानंतरण की प्रक्रिया प्रारंभ होने के समय से ही मीणा इस बात को जानता रहा होगा। 'के' ब्लॉक से मेरे स्थानातंरण के लिए पाल ने महानिदेशक को कहा होगा......मंत्रालय केवल पदोन्नति के समय स्वयं स्थानातंरण करता है शेष स्थानातंरण मुख्यालय की अनुशंसा पर किये जाते हैं। पाल के कहने के बाद महानिदेशक ने मीणा को स्थानातंरण का मसौदा मंत्रालय को भेजने का आदेश दिया होगा। इससे मीणा निश्चित ही प्रसन्न हुआ होगा....।'
प्रीति और मीणा के प्रति उसकी घृणा बढ़ गयी। वह बाथरूम तक गया और वॉशबेसिन में थूककर मुंह धोया।
पांच बजे कैशियर ने आकर उसके भत्तों का भुगतान किया। पैसे जेब में रखकर वह कार्यालय से बाहर आ गया। दिमाग तेजी से चल रहा था। उसने पैण्ट की जेब टटोली...दो चाबियां थीं। स्पष्ट था कि एक प्रगति विहार हॉस्टल की थी। उसने दोनों चाबियां निकाल लीं ...देखा और आश्वस्त हुआ कि प्रीति के फ्लैट की चाबी थी उसके पास। मस्जिद के पास कुछ दूरी पर एक टैक्सी स्टैण्ड था। उसने टैक्सी ली और हॉस्टल पहुंचा। रास्ते में सोचता रहा, 'यदि प्रीति फ्लैट में मौजूद हुई तब....मुझे अपना सामान लेना है...उसका नहीं। होगी तब क्या वह मुझे मेरा सामान ले जाने से रोग सकेगी। मुझे सोफा-बेड-मेज-कुर्सी और किचन का कोई सामान नहीं लेना....यह सब ले जाकर मैं क्या करूंगा। मद्रास में मुझे गृहस्थी नहीं जोड़नी....केवल कपड़े और पुस्तकें ही समेटना है।'
फ्लैट में वही ताला बंद था जिसकी चाबी सुधांशु के पास थी। ताला खोल वह अंदर गया तो उसे यह अहसास हुआ कि किताबें और कपड़े वह कैसे ले जायेगा। बैग या सूटकेस तो है नहीं । क्षणभर ही उसने सोचने में नष्ट किया और बेड कवर उठा लिया। 'यह भी मेरा ही है।' उसने सोचा और बीस मिनट में उसने कपड़े, पुस्तकें, डायरी, फाइलें, पासपोर्ट, बैंक की पास बुक और चेक बुक आदि बेड कवर में बांधा। वजन अधिक था, इसके लिए उसे ड्राइवर को नीचे से सहायता के लिए बुलाकर लाना पड़ा।
जब वह प्रीति के फ्लैट से बाहर निकला सवा छ: बजे थे। उसने राहत की सांस ली।
उस रात भी विराट के साथ उसने चार पेग पी और सब कुछ भूलकर गहरी नींद सोया।
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प्रधान निदेशक कार्यालय 'के' ब्लॉक में उस दिन एक साथ दो घटनाएं घटी थीं। पहली यह कि सुबह सुधांशु को ट्रांसफर आर्डर पकड़ाया गया था और दूसरी तब घटी जब सुधांशु उस दफ्तर को अलविदा कह अकेला दफ्तर से बाहर निकला था, जो कि उस कार्यालय के इतिहास में पहली बार हुआ था। स्टॉफ के लोग प्राय: स्थानातंरित होकर बेगाने की भांति जाते ही रहते थे, लेकिन उस प्रकार जाने वाला वह पहला आई.ए.एस. अफसर था। वह जानता था कि सभी उगते सूर्य को सलाम करते हैं, लेकिन वह तो उगने से पहले ही बुझ रहा था...स्टॉफ के रिक्रियेशन क्लब के लोगों तक को उसकी याद नहीं आयी जो कार्यालय से अवकाश ग्रहण करने या स्थानांतरण पर जाने वाले अफसर से लेकर चपरासी तक की विदाई पार्टी आयोजित करते थे।
टैक्सी लेकर सुधांशु प्रगतिविहार हॉस्टल की ओर रवाना ही हुआ था कि कार्यालय मे शोर मचा कि चमनलाल पाल का प्रमोशन महानिदेशक पद पर हो गया है। महीने की अंतिम तिथि को महानिदेशक सी.रामचन्द्रन के अवकाश ग्रहण से एक दिन पूर्व पाल को महानिदेशक से कार्यभार ग्रहण करना होगा। इस आशय का पत्र कुछ देर पहले ही पाल को मिला था। चेहरे पर साल-छ: महीने में एक बार मुस्कान लाने वाले पाल का चेहरा खिल उठा था और समाचार पूरे दफ्तर में फैल गया था। सभी अफसर पहले 'मैं' के तर्ज पर पाल को बधाई देने पहुंच रहे थे। बाबू भी कैसे पीछे रहते। उन्हें इस बात की प्रसन्नता थी कि पाल के आतंक से उन्हें चंद दिनों बाद मुक्ति मिल जायेगी।
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सुधांशु ने निर्धारित तिथि को मद्रास में ज्वाइन किया। उसके ज्वाइन करने के दो दिन बाद उसे प्रीति का फोन मिला, जिसने उस पर अपने दस हजार रुपये उड़ा ले जाने का आरोप लगाया। सुधांशु के इंकार के बावजूद वह अपनी बात पर अड़ी रही और बहुत सख्त लहजे में बोली, ''हमारे संबन्ध जब इतने कटु हो चुके थे तब मेरी अनुपस्थिति में किस अधिकार से आप मेरे फ्लैट में गये थे। जब आपने यह उचित नहीं समझा कि जिसके साथ आपने विवाह किया उसे अपने स्थानातंरण की बात बताते....चर्चा करते....आप चोरी से यूं भागे मानो मैं आपको बांध लेती। आपने अपने सारे अधिकार स्वयं खोये....सामान के साथ मेरे रुपये भी ले उड़े....।''
''मैं केवल अपनी पुस्तकें, कपड़े, बैंक के कागजात और पासपोर्ट आदि ही लाया हूं...मुझे ....।''
''अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि विराट और उसके साथियों ने आपको बरबाद कर दिया.....।''
''और आपको किसने बरबाद किया...?'' सुधांशु संतुलन बनाये नहीं रख सका।
''यू शट अप....रॉस्कल....यू बीस्ट...तुम जैसे व्यक्ति की शक्ल भी मैं देखना पसंद नहीं करती....।'' और प्रीति ने फोन काट दिया।
दिन भर परेशान रहा था सुधांशु। वहां के गेस्ट हाउस में ठहरा था वह और शाम वहां जाते समय उसने रम खरीदी थी और देर रात तक पीता रहा था।
घटनाएं तेजी से घट रही थीं। मद्रास में उसे एक महीना ही बीता था कि पिता की मृत्यु की सूचना मिली। सूचना चार दिन बाद प्रधान कार्यालय 'क'े' ब्लॉक नई दिल्ली के माध्यम से मिली थी। स्पष्ट था कि पिता की अत्येंष्टि की जा चुकी थी। वह गांव गया और घर-खेत ममतू को देखभाल करने...कमाने-खाने के लिए देकर वापस लौट आया। उसके बाद वह कभी गांव नहीं गया। मद्रास कार्यालय में काम करने का उसका रिकार्ड अच्छा रहा और नियत समय पर उसे प्रमोशन मिला। आगे भी वह प्रमोशन पाता रहा, लेकिन उसके साथ ही उसके पीने की मात्रा भी बढ़ती गई। उसने अपने को घर-दफ्तर तक ही सीमित कर लिया था। सदैव विभाग के अधिकारियों से दूरी बनाकर रखी। उसके पास यदि कोई मिलने आया, प्रेम से किला, लेकिन घर का रास्ता उसने किसीको नहीं बताया। हर प्रमोशन के साथ वह अलग शहरों में स्थानातंरित होता रहा। प्राय: वह अकेले ही पीता और घर में पीता। पीते हुए वह अपने अतीत पर सोचता और ऐसा करते हुए कई बार उसे घण्टो बीत जाते। वह भोजन करना भूल जाता और अंत में एक बात कहता, 'मैंने गलत निर्णय लिया था....।''
लिखना-पढ़ना उसका पूरी तरह छूट गया था। हालांकि कभी-कभी वह चाहता कि कुछ लिखे, लेकिन विचार स्थिर नहीं रह पाते थे। विराट और उसके साथियों से संपर्क टूट चुका था। यहां तक कि रविकुमार राय से भी उसने संबन्ध तोड़ लिया था। उसने अपने को एक प्रकार से पिंजरे में कैद कर लिया था जहां वह था, दफ्तर था और शराब थी। बढ़ती उम्र के साथ वह इतना पीने लगा कि उसके फेफड़े खराब हो गये। किडनी में भी समस्या पैदा हो गयी। वह प्राय: अस्पताल के चक्कर लगाने लगा। उसने सदैव यह प्रयास किया कि प्रीति से कभी उसकी मुलाकात न हो....यहां तक कि विभागीय विषय पर कभी चर्चा का अवसर भी न आए। न उसने तलाक के विषय में सोचा और न प्रीति ने।
दो वर्ष पहले सुघांशु प्रमोशन पाकर निदेशक बनकर मेरठ पोस्ट हुआ। मेरठ पोस्ट होते ही उसके अस्पताल के चक्कर बढ़ गये थे। डाक्टरों ने उसे शराब से तौबा करने की सलाह दी ,लेकिन उसने डाक्टरों की एक न सुनी। उसने अपनी तीमारदारी के लिए एक नौकर रख लिया था जो उसके सर्वेण्ट क्वार्टर में रहता था। वह सुधांशु को डाक्टरों के कहे अनुसार चलने का सुझाव देने का साहस नहीं जुटा पाता था। वह वही करता जैसा सुधांशु उसे कहता। प्रतिदिन रात सुधांशु उसे पेग बनाने का आदेश देता। वह पीता और कुछ-कुछ बुदबुदाता, जिसके कुछ कतरे ही नौकर सुन पाता, 'मैंने गलत निर्णय किया....मैंने गलत....।''
सुधांशु इतना कमजोर हो चुका था कि चलते समय उसके पैर डगमगाते रहते थे। और उस दिन उस पर सांघातिक हृदयाघात हुआ। मेरठ मेडिकाल कॉलेज के डाक्टरों ने उसकी स्थिति नाजुक बतायी थी। डाक्टर उसे ऑपरेट करने पर विचार कर रहे थे। तभी उसे कुछ समय के लिए होश आया था और वह अपने पास से गुजर रही डाक्टर को प्रीति समझ बैठा था। लेकिन बमुश्किल एक घण्टा बाद वह पुन: बेहोश हो गया था।
और देर रात प्ररवि विभाग का सुधांशु दास नामका वह इंसान इस संसार से विदा हो चुका था।
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सोमवार को कार्यालय पहुंचने पर प्रीति को सुधांशु की मृत्यु का समाचार मिला। बताने वाले ने उसे यह भी बताया कि सुधांशु की अंत्येष्टि कार्यालय वालों ने अगले दिन यानी रविवार शाम तक उसकी प्रतीक्षा करने के बाद कर दी थी।
दीर्घ निश्वास ले प्रीति शुक्रवार को चन्द्रभूषण को दिया डिक्टेशन देखने लगी थी जिसे चन्द्रभूषण ने टाइप कर उस दिन कार्यालय से जाने से पहले उसकी मेज पर उसकी कुर्सी के ठीक सामने रख दिया था।
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रूपसिंह चन्देल
बी-3/230, सादतपुर विस्तार,
दिल्ली-110 094
मोबाइल नं. 9810830957

1 टिप्पणी:

ashok andrey ने कहा…

bhai chandel ab to maine poora upanyaas pad liya hai.haan mai sochtaa hoon ki upanyaas ke ant ko aur bhee doosra mod diya jaa sakta thaa jahaan priti ko aakash ki aur gehre sannate ki taraph dhodaaya jaa sakta thaa. kher yeh meri soch hai,gar tum chaaho to ise post karna yaa phir delet kar dena,baki milne par.veise yeh poora upanyaas ghane beehad men bhatkane ki bajay bahut kuchh sochne ko majboor karta hai jo iski saphalta ka dhyotak hai,jiske liye men badhai deta hoon apni shubhkamnaon ke saath.