रविवार, 9 सितंबर 2012

आलेख


जहां शुरू नहीं होती कविता.........

- राहुल ब्रजमोहन

‘‘यह बता पाना बेहद मुश्किल है कि कविता में शाब्दिक अभिव्यक्ति कहां खत्म होती है और दिक् का विस्तार कब शुरू हो जाता है।‘‘
इसके पहले किहम रिल्के की इस स्थापना पर सौंदर्यशास्त्रीय मिजाज से विचार करें, हमें कविता परिधि में साहित्य के उस समाजशास्त्रीय अवलोकन की जरूरत शिद्दत से महसूस हो रही है, जो कथ्य के प्रतिपाद्य-सत्य और उसके आद्य अतीत की लम्बी काल-सर्जित रेखा पर संतुलन साधना सिखाता है, यद्यपि यह साहित्य की नहीं, विशुद्ध रूप से समाज की जरूरत का मामला है.... साहित्य में इसीलिए भाषा के साथ होने वाला प्रश्नोत्तर और इस संवाद के उत्तर प्रश्न हमेशा ही प्रासंगिक होते हैं। इधर हिन्दी कविता में काफी कुछ उथल-पुथल हुई है। उसने अपना एक नया मुहावरा गढ़ा (या आहरित किया) है और अब वह अपनी उत्तुंग शिरोभंगिमा के साथ उस नीली घाटी में प्रवेश कर गई है, जहां उसे लगता है कि उसके पीछे सिर्फ जलते हुए वन का वसंत (दुष्यंत के शब्दों में) रह गया है और आधुनिकता के नवोद्यान में आश्रय पाने के लिए उसे एक ऐसे दैहिक विमर्श की अपरिहार्य आवश्यकता है, जो कविता को एक ‘ग्लाॅसी मेकओवर‘ का रूतबा सौंपे दें, जिसकी चैंध में हर रूखाई चिकनाई प्रतीत हो और आप चाह कर भी न बता पाएं कि कथ्य की लकीर पर कब शाब्दिक संवेदना दम तोड़ती है और कहां ‘देह का अनंग राग‘ शुरू हो जाता है।
‘कथादेश‘ में नई कविता पर पिछले दिनों प्रकाशित शालिनी माथुर के आलेख और तदनंतर आई प्रतिक्रियाओं की उन्मादी आमद से लगा, जैसे साहित्य में कोई बड़ी अनहोनी घट गई हो जो नहीं होनी चाहिए थी। चूंकि प्रतिवाद का स्वर कमोबेश शालिनी के विरोध में एक सा आक्रामक था लिहाजा यही प्रतीत हुआ कि कहीं कुछ ऐसा घटा है, जिसे घटने से रोका जा रहा था। सब चाहते थे कि वह न घटे और अब जबकि यह घट गया, तो हर तरफ अफरातफरी मच गई है... मैं कविता के विषय में अधिक नहीं जानता क्योंकि वह मेरे रचनाकर्म के दायरे से बाहर है। उस पर किसी प्राधिकारी सत्ता की तरह टिप्पणी करना मेरे लिए उचित नहीं होगा। फिर भी साहित्य के एक साधारण पाठक की हैसियत से मुझे लगता है कि शालिनी जो मुद्दे उठाए हैं, वह कतई अनावश्यक या अनामंत्रित नहीं कहे जा सकते। भले ही उनकी विवेचना सर्वग्राह्य न हों किन्तु उनके द्वारा प्रस्तुत प्रश्नों की सार्थकता संदिग्ध नहीं है। उन पर विचार विनियम बेहद जरूरी है।
अनामिका की कविता को जिस हद तक संशय का लाभ दिया जा सकता है, वह उनके तर्कों के लिए मुमकिन नहीं है। अपने पक्ष में उनकी दलीलें इतनी पुष्ट और असंदिग्ध नहीं लगतीं। भाषा के जिन दो लक्ष्यों का जिक्र उन्होंने किया है, उन्हें वह कविताएं कतई पूरा नहीं करती जिन पर शालिनी को आपत्ति है। रूग्णता को रूपक बनाकर लिखी जा रही अधिकांश कविताएं उस संप्रभु व्यक्ति को सम्बोधित हैं, जिसे पण्य संस्कृति ने गढ़ा है, जो अपने आत्म से नहीं स्वेच्छाचारिता की देह से मुखातिब रहते हुए इरादतन वह खिड़की खुली रखना है जिससे रोशनी नहीं बल्कि ‘भोगाविष्ट’ दृष्टि ही भीतर आ सकती है। व्यक्ति की संप्रभुता अपनी सार्वजनिक नुमाइश में ही सार्थकता तलाश लेती है। उद्बोधन और प्रश्नकीलन-भाषा के यह दोनों ही प्रयोग इस व्यक्ति को लक्षित कर लिखी गई कविताओं के संदर्भ में अर्थहीन हैं। जो केवल शारीरिक पुलक को संवाद की अंतिम अभिलाषा मानता है। मर्यादा को अभिशप्त शब्द बनाकर आप रचना में कोई सौष्ठव नहीं पैदा कर सकते क्योंकि हर ‘आकार’ एक मर्यादित निग्रह काही परिणाम होता है।
अपने आलेख में शालिनी इसी निग्रह की एक शालीन मांग कर रही हैं, जिसे दरकिनार करने का मतलब साहित्य में सौष्ठव को दरबदर करना होगा। धर्मशास्त्र में ईश्वर की उपस्थिति के पक्ष में टाॅमस इक्वीनाॅक्स और विलियम पेली जैसे विद्वानों ने जिन युक्तियों का सहारा लिया है, वह साहित्य पर भी लागू होती है, क्योंकि साहित्य का भी अपना एक धर्म है। वह स्वातंत्र्य की प्रविधि में मर्यादा की परिधि का अतिक्रमण नहीं कर सकता। प्रयोजन और वर्जना-दोनों से आप अकारण पीछा नहीं छुड़ा सकते बल्कि बाज दफा तो वर्जनाहीनता ही रचना का प्रयोजन बन जाती है। जैसा कि शालिनी पूछती हैं-क्या मनोरंजन ही साहित्य की एकमात्र सार्थक निष्पत्ति हो सकती है? मनोरंजन भी ऐसा, जिसका एकमात्र रंजक तत्व कामोद्दीपन हो। अश्लीलता पर जब भी बहस छिड़ती है, तो उसके पक्ष में बहुधा यह समवेत स्वर उभर कर आता है कि ‘अमुक पूर्ववर्ती रचनाकार पर भी ऐसे ही आरोप लगे थे’ किन्तु कालांतर में वह बड़े लेखक सिद्ध हुए। यह तर्क उतना ही जराजीर्ण है जैसे कि कहा जाए हमारे अब्बा हुजूर भी की होल से झांकने का हूनर रखते थे। माशा अल्लाह कभी पकड़े भी गए, तो उनका जवाब था-‘हम अपनी आत्मा के भीतर झांक रहे थे की होल तो इत्तफाकन सामने आ गया।’
मंटो और तमाम ख्यातनाम रचनाकारों की विवादास्पद कहानियों के संदर्भ में मेबलडाॅज की उक्ति का सहारा अक्सर लिया जाता रहा कि ‘रूह तक पहुंचने का सबसे सुरक्षित और सुनिश्चित जरिया सिर्फ गोश्त से भरा जिस्म है।’ कई नामचीन लेखकों ने इसे सफाई से आजमाया फिर भी तलछट में बची रह गई थोड़ी सी अ-‘क्षर’’ दृष्टि बता सकती है कि अधिकांश आरोप निराधार नहीं थे। मंटो ने बेशक स्त्री के वक्षों पर ‘फाहा‘ जैसी दिलचस्प और मासूमियत से भरी कहानी लिखी, जो पवन करण और अनामिका की रचनाओं से कहीं बेहतर और उपर थी मगर यह भी सच है कि उनकी कुछ अन्य कहानियों (ठंडा गोश्त, नंगी आवाजें, बू, पढ़िए कलमा) में अश्लील ब्यौरे कथानक की निर्विवाद श्रेष्ठता के बावजूद पाठ में खलते हैं। उर्दू गद्य में उन दिनों यह चलन में था क्योंकि कृष्ण चंदर और राजेन्द्रसिंह बेदी की रचनाओं पर भी इसका असर नजर आता है। अगर यही कसौटी रखें, तो हिन्दी कविता हाल में जवान हुई है। मगर मेबल डाॅज उसका ‘आपात-निर्गम’ साबित नहीं होंगे, क्योंकि शालिनी माथुर ने सूसन ग्रिफिन को उद्धृत करते हुए उस लिहाफ की परतें हटा दी हैं, जिसके नीचे मादकता के नाम पर यौनिकता की धुंधकारी देह विकसित हो रही थी।
हिन्दी कविता की असली चिंता मन-शरीर की विभक्त व्यंजना के बीच पल रहे उस अनैतिक रचना-शास्त्र की पड़ताल पर केन्द्रित होनी चाहिए, जिसकी ओर सूसन ग्रिफिन का आकलन इंगित करता है। देह को आत्मीय-संवेग से पृथक कर उसे एक ‘प्लेथिंग‘ में बदलना किसी रचना का मंतव्य नहीं हो सकता क्योंकि कविता सिर्फ शब्दों का खेल नहीं है--शारीरिक अवयवों और चिलमन से लगे बैठे इरादों का भी नहीं।
दुर्भाग्यवश हमारे यहां राजनीतिक धरा पर भी विमर्श इतनी जल्दी वैयक्तिक बहस मं नहीं बदलता, जितना कि साहित्य के जगत में। शालिनी के आलेख को निजी धरातल पर एक फ्रंटल-अटैक की तरह देखे जाने की कोई जरूरत नहीं थी। खासकर तब जब हम साहित्य में भाषा की फुल-फ्रंटल मुद्रा के साथ अवसन्न खड़े हैं। संभवतः शालिनी से यह भूल अवश्य हुई है कि अपने आलेख के अंतर्मन उन्होंने जिन दो कविताओं का हवाला दिया, वह एक ही परिप्रेक्ष्य के धरातल पर भी देखी जा सकती हैं। अतः उन्हें एक रूग्ण काव्य के संदर्भ में परस्पर आरूढ़ (जक्स्टापोज) भी किया जा सकता है। बेशक अनामिका की कविता में इरोटिक एलीमेंट अवश्य मौजूद है। और रचना का मूल अभीष्ट समूची कविता में दृश्य की परिधि से ओझल नहीं होता। समस्त बलाघात देह पर ही है मगर स्मृतियों का आश्रय लेकर।
दूसरी ओर पवन करण की कविता को लें, जो देह के एक मांसल सत्य को भाषा के पाॅपुलिस्ट मुहावरे में ‘चुहल’ की तरह प्रस्तुत करती है। भले ही कविता के अंत में त्रासदी का एक दृश्यचित्र यत्नपूर्वक जोड़ा किन्तु वह वैसा ही है, जैसे सिनेमाघर में घंटे भर अश्लील फिल्म चलने के बाद स्वास्थ्य मंत्रालय का कोई सरकारी संदेश दिखाकर उसे फिल्म्स डिवीजन की भेंट बता दिया जाए। पवन की पूरी कविता का समूचा प्रणय संवाद ही यौन अभिमुख है। कवि अपने पात्रों के जरिए लगातार एक ललचाऊ सेक्सुअल बिल्ड अप की सृष्टि करता है। नायिका अपने पुरूष सहचर को बदस्तूर दैहिक प्रलोभन दे रही है।
घर पहुंचकर जांच लेना इन्हें (वक्षों को)।ं  युवती अपने पुरूष सहचर को इस शैशणेतर गतिविधि का खुला आमंत्रण दे रही है। पुरूष उसकी वात्सल्य वाहिनियों को ‘शहद के छत्ते‘ और ‘दशहरी आम‘ जैसी विशुद्ध यौनार्थक उपमाओं से नवाज रहा है और वह (नायिका) आल्हादित है। इस चीप ‘बर्बल फोरप्ले‘ का वह मजा ले रही है, जिसकी परिणति अंततः दैहिक संसर्ग में होना है। नायिका भी यही चाहती है-वह अपने साथी से प्रेम मांग ही नहीं रही। लिहाजा एक वक्ष के न रहने पर वह उसकी अपेक्षा कैसे रख सकती है, जो (कविता के स्त्री-पुरूष के बीच) कभी उपस्थित ही नहीं था। यदि किसी त्रासदीवश पुरूष को अपने ‘अंग-विशेष’ से वंचित होना पड़ता, तब नायिका उसके प्रति वैसी ही उदासीन प्रतिक्रिया दर्शाती, जैसी पुरूष दर्शा रहा है। उन दोनों के दरम्यान ‘वैसा कुछ‘ था ही नहीं, जिसके बगैर उनके बीच ‘कितना कुछ‘ हट जाए। भाव की कोई अगोचर सृष्टि थी ही नहीं, जो गोचर मांसल उपस्थिति के अंग भंग के बाद भी बची रह पाती।
राॅबर्ट फ्राॅस्ट ने नृत्य को मनुष्य की एक क्षैतिज कामना की उध्र्वाभिमुख अभिव्यक्ति कहा था। साहित्य में यौन एक निम्नाश्रयी-कामना (बेस डिजायर) का दृश्य के दायरे में स्फुरण है, जिसकी उपस्थिति अपरिहार्य र्तो नहीं कही जा सकती। वह बेशक एक जाॅनर के रूप में बनी रहे मगर उसे केन्द्रीय सत्ता घोषित करना उचित नहीं है। इरोटिका को साहित्य के फिटनेस रेजीमन की तरह पेश करने पर हम ‘फिल्दी‘ और ‘हैल्दी‘ का फर्क भी भूल जाएंगे। कदाचित् शालिनी माथुर की असली चिंता यही है, प्रथम दृष्टया वह शब्द के संसार को ‘पैथ लैब‘ में तब्दील नहीं होने देना चाहतीं, तो उनका आग्रह अवांछनीय करना कुहासे को कैनवस समझ लेना है, आखिर ’कवितारंभ‘ और ’यौवनारंभ’ के बीच कुछ तो अंतर किया जाना चाहिए। दोनों का डोमेन नेम ‘प्यूबिस’ नहीं हो सकता। इंटरनेट से आई इस तरह की ‘पैथाॅलाजिकल पोएट्री’ का सबसे बड़ा खतरा यह है कि कविता के पात्र में अंग विच्छेद के बाद कुछ सामान्य रहे, न रहे ‘कविता के भाष्य’ में इसके परिणामस्वरूप हुआ व्याधि स्थानांतरण (मेटास्टेसिस) अपरिवर्तनीय हो जायेगा। मासिक धर्म, ल्यूकोरिया, आत्मरति इत्यादि पर कविताएं पहले भी लिखी गईं मगर उन्हें कभी भी साहित्य की मूलधारा नहीं समझा गया।
रोग विज्ञान को काव्य की विषयवस्तु बनाते हुए यह खतरा बराबर कायम रहता है कि व्यंजना और वीभत्स के पासंग में कहीं विवेक की उपस्थिति धूमिल न पड़ जाए। आप बेशक ‘उस औरत की बगल में लेटकर‘ (धूमिल) या ‘पड़ा रहूं स्त्री की जंघाओं के बीच (श्रीकांत वर्मा) जैसी पंक्तियों का हवाला दें मगर अपने प्रतिवेदन में इन्हें मूल कथ्य की आवर्ती धारा (लीटमोटिफ) की तरह पेश नहीं किया जा सकता। कविता में ऐसी पंक्तियों की मौजूदगी व्यतिरेक की तरह ही रहनी चाहिए। उपरोक्त कवि इन पंक्तियों की वजह से महान् नहीं हुए। साहित्य का स्नायुतंत्र व्यतिक्रम से संचालित नहीं होता। शालौट ब्रोन्टे ने अपने अध्यापक के साथ दैहिक आकर्षण के फलस्वरूप एक कहानी लिखी थी--लांजरेटीट्यूड जिसका भावार्थ था कि ‘मेरे (लेखिका के) अंतर्वस्त्र तुम्हारे (शिक्षक के) प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हैं कि तुमने उन्हें सलीके से उतारा।‘ कितने लोग इस कहानी के बारे में जानते होंगें जो बेल्जियम के किसी संग्रहालय में धूल खा रही थी ? वहीं इसी परिवार की सदस्य एमिली बोन्टे के कालजयी उपन्यास ‘वूदरिंग हाइट्स’ को क्या भुलाया जा सकता है? लाॅर्ड बायरन के कृतित्व को क्या हम उनके अपनी सौतेली बहन आॅगस्टा के साथ अनैतिक सम्बन्ध की पृष्ठभूमि में याद रखेंगें ? 
शालिनी माथुर के आलेख को हमें साहित्य की केन्द्रीय धारा के अपदस्थ हो जाने की संभावना से उपजी आकुलता के परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए, भले ही उनका परिप्रेक्ष्य यह न भी रहा हो। मुख्यधारा के उच्छ्रिष्ट से आप्लावित हो जाने की आपदा से हर साहित्य शुभेच्छु को सतर्क और संवेदी होना जरूरी है अन्यथा अनचाही दिशाओं से भी अवांछित धाराओं का निर्बाध समावेश उसे प्राणहीन और रोगग्रस्त कर डालेगा। साहित्य ही क्यों जीवन के हर प्रणालीगत ढांचे पर यह चेक एण्ड बैलेंस सिस्टम होना ही चाहिए। अनामिका ने अपने प्रतिवाद में ‘सेल्फ राइटियसनेस’ के औचित्य को गैरजरूरी ठहराया है किंतु बगैर एक ‘राइटियस सेल्फ’ (उपयुक्त आत्म) के साहित्य की सत्ता और एक निरंकुश सत्ता के बीच कोई फर्क ही नहीं रह जाएगा। आप चाहे उस राइटियस सेल्फ को ‘सेल्फ राइटियस सेल्फ‘ नाम दें पर इससे उसकी उपयोगिता प्रश्नांकित नहीं की जा सकती। इमर्सन ने इसके लिए ‘आंतरिक निर्णय‘ शब्द का प्रयोग किया था। बहरहाल, अपने पक्ष में अनामिका ने ग्रेस निकोलस की जिस कविता का उल्लेख किया है, जिसका मूल अंग्रेजी नेट पर उपलब्ध है वह उन्हें चाहे अश्लील प्रतीत न होती हो किंतु मुझे ‘श्लील’ तो कतई नहीं लगी। यद्यपि पाठ को पढ़ने में भूल संभव है किन्तु पाठ की बहुलार्थकता के शिरोकवच में लेखक अपनी विकृति को वरेण्य सत्य की तरह नहीं दर्शा सकता। साहित्य ‘नाभि के नीचे नीचे लहराते काले समंदर‘ की ध्वनियों को पकड़ने के लिए नहीं, मत्र्य मुख के ऊपर विद्यमान अमूर्त आकाश की निरभ्र सत्ता से समवेत होने का लक्ष्य लेकर पैदा होता है। उसकी चुनौती न्यूनीकृत दैहिक आकांक्षाओं से संवाद नहीं, अमरता की मौन उपस्थिति के संकेत को समझना है। पाठ के अर्थ-अनर्थ तो होते रहेंगे......... शेक्सपियर की इन पंक्तियों का अर्थ आज तक नहीं निरूपित हो सका-
‘‘लोग मर गए और कीड़ों ने उन्हें खा लिया.... मगर प्रेमवश नहीं।‘‘
कौन बता सकता है, लेखक का तात्पर्य यह था कि लोग प्रेमवश नहीं मरे अथवा कीड़ों ने उन्हें प्रेमवश नहीं खाया अथवा भक्ष्य बनाकर कीड़ों ने लोगों के प्रति अपना प्रेम ही निभाया हो?
इसके बावजूद अर्थ निरूपण की एक अदृश्य आचार संहिता तो साहित्य में सदा से मौजूद रही है, जो पाठ और कुपाठ के अंतर को ही नहीं, उस ज्ञानात्मक संवेदना को भी अभिव्यक्त करती है, जिसके रहते हम काव्य के आराध्य-सत्य और त्याज्य सत्य का चयन कर सकते हैं। पाश ने लिखा था-
‘मैं इतिहास के ताला लगे दरवाजे पर बैठा अतिथि हूं
बारहमासा से वर्जित कोई कुसगुन हूं
जिससे कुछ भी शुरू या खत्म नहीं होता
कविता नहीं, मेरी आवाज़ केवल गंदगी पर बरसती वर्षा है
तुम्हारे लिए न आशीष, न नसीहत
मेरे शब्द धुलाई करते हुए भी बदबू फैला रहे हैं‘‘
कवि के शब्द कुछ भी हों, हम इसके अभिप्रेत की परिमार्जित रोशनी में आसानी से बता सकते हैं कि कविता यहां से शुरू होती है और यहां पर खत्म। फिलहाल कविता का बिम्ब विधान ऐसी राह चल पड़ा है, जहां रूप और विरूप की पड़ताल कुछ मुश्किल जरूर हो गई है।
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-राहुल ब्रजमोहन
22, 21/ सेक्टर-ए,
साईंनाथ काॅलोनी, इंदौर
0731-4038677

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