प्रेम चन्द
गर्ग
अप्रैल, १९७७
का एक दिन. दोपहर साढ़े बजे लगभग का समय. ऑफिस में मैं अपनी सीट पर कोई पुस्तक पढ़ रहा था.
उन दिनों मेरे पास नहीं के बराबर काम होता था. ऑफिस में मैं किसी से भी बातें नहीं
करता था. काम और पढ़ना. फैक्ट्री होस्टल में
रहता था इसलिए एस्टेट में किसी से भी जान-पहचान नहीं थी. होस्टल में भी दो तीन युवकों से केवल हाय-हलो तक ही सीमित था.
मुझे नहीं मालूम कब वह मेरी सीट के बगल में आ खड़े हुए थे. मैं पुस्तक पढ़ने में तल्लीन
था. उनकी ओर ध्यान नहीं गया. मेरे सामने सुनंदा मजूमदार बैठती थी. सुनंदा नाटे कद की---शायद
चार फुट नौ या दस इंच ---बहुत ही दुबली पतली युवती थी—मानो शरीर में मांस ही नहीं था.
चलती तो लगता कि वह गिर पड़ेगी. कंधे झुकाकर चलती लेकिन चलती तेज गति से थी. वह गोरी,
सौम्य और मृदु-भाषी थी. मेरठ विश्वविद्यालय
से उसने अंग्रेजी में एम.ए. किया था. उसकी हस्तलिपि भी उतनी ही सुन्दर थी जितना उसका
व्यवहार. मुझे लगता कि अपने दुबलेपन और लंबाई के कारण एक हीन ग्रंथि थी उसमें. उसके
पिता फैक्ट्री में फोरमैन थे और भाई भी शायद वहां था. उसका सरकारी मकान मैदान के सामने था, ऑफिस से जिसकी
दूरी दस मिनट थी. हमारे मध्य यदा-कदा ही संवाद होता. शायद इसका कारण मेरी हीनग्रन्थि
थी---अर्थात अंग्रेजी से एम.ए.युवती के साथ हिन्दी से एम.ए. करने वाला कैसे बात करे.
इस पर मैं आज अचंभित होता हूं कि लड़कियों से मैं क्यों बचकर रहता था. गंवई संकोच था
या कुछ और. शायद मेरे संघर्षों ने मुझे उस ओर सोचने का अवसर ही नहीं दिया था और वह
सब मेरी आदत में शामिल हो चुका था.
कुछ देर तक
मेरी कुर्सी के साथ उन्हें खड़ा देख सुनन्दा मजूमदार ने मुझे कहा, “आपसे कोई मिलने आया
है.”
मैंने पीछे
मुड़कर देखा तो सफेद कुर्ता-पायजामा में एक मध्यम कद के सज्जन को मुस्कराते पाया. मेरे
उनकी ओर देखते ही हाथ जोड़कर मुस्कराते हुए वह बोले, “चन्देल जी, मैं प्रेम चन्द गर्ग
हूं."
मैं उठ खड़ा
हुआ. कमरे में बैठाने की गुंजाइश नहीं थी. उस छोटे कमरे में किसी प्रकार ठुंसकर छः
लोग बैठते थे. वैसे भी वह प्रशासन विभाग का कमरा था, जिसमें मुझे किसी प्रकार जगह बनाकर बैठाया गया था, जबकि
मेरे लिए अलग कमरे की व्यवस्था होनी थी.
मेरे खड़ा होते
ही वह बोले, “आपको आपत्ति न हो तो हम दो मिनट बाहर चलकर बातें करें.”
मैं उनके साथ
ऑफिस के बाहर बराम्दे में आ गया. लंच का समय होने वाला था. फैक्ट्री में एक बजे से
दो बजे तक लंच होता. कर्मचारियों की साइकिलें पहले ही गेट की ओर दौड़ने लगती थीं. एक बजे फैक्ट्री का साइरन
बजते ही गेट खुल जाता और हुर्र करके भीड़ गेट से बाहर सड़क पर दौड़ पड़ती.
“मुझे भी साहित्य
और इतिहास से प्रेम है. यदा-कदा ऎतिहासिक लेख लिख लेता हूं, लेकिन केवल स्वान्तः सुखाय”
गर्ग जी बोल रहे थे, ”मुझे जानकारी मिली कि आप जैसा विद्वान फैक्ट्री में है तो आपसे
मिलने की उत्सुकता बढ़ गयी.”
मैं मन ही मन
सोचने लगा कि ’मैं और विद्वान’—यह गलतफहमी गर्ग जी ने कैसे पाल ली. लेकिन चुप रहा.
“हम कुछ साहित्य
प्रेमी ’विविधा’ नामकी एक साहित्यिक संस्था चलाते हैं. मैं चाहूंगा कि आप जैसे विद्वान
युवक उससे जुड़ें.”
’फिर विद्वान’
मैं फिर सोचने लगा था. ’यह तो विद्वान शब्द का अपमान कर रहे हैं’, लेकिन फिर चुप रहा
और बोला, “मुझे विविधा से जुड़कर प्रसन्नता होगी.”
तभी फैक्ट्री
का हूटर बजा और गर्ग जी ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “चलता हूं. विविधा की अगली गोष्ठी की
सूचना आपको दूंगा.”
यह वह दौर था
जब मैं हर शनिवार रातभर कहानी लिखता और पसंद न आने पर फाड़कर फेंक दिया करता था. किसी
से परिचय न होने के कारण कहानी किसी को सुनाकर मंतव्य जानने की इच्छा दबी रहती थी.
’विविधा’ की आगामी गोष्ठी में मुझे बुलाया गया. शायद वह गर्ग जी के घर में थी. चार-पांच
लोग थे, सभी युवक. गर्ग जी की उम्र अनुमानतः चालीस के आसपास थी. उनके दो पुत्र थे जो
पढ़ रहे थे. उस दिन गोष्ठी में मैं एक श्रोता के रूप में सम्मिलित हुआ. गर्ग जी ने सबसे
मेरा परिचय करवाया. तय हुआ कि अगली गोष्ठी में मैं अपनी कहानी सुनाऊंगा. गोष्ठी माह
में एक रविवार को होती थी. अगली गोष्ठी में मैंने अपनी कहानी सुनाई. सभी ने उसे एक
स्वर से खारिज कर दिया. ’विविधा’ में पांच
लोग ही थे. गर्ग जी ने शालीनता प्रदर्शित करते हुए मध्यम मार्ग अपनाया. कहानी की कमजोरियों
की ओर संकेत करते हुए उसके कुछ अच्छे पहलुओं पर भी बात की.
गर्ग जी और
मुझे छोड़कर विविधा के दूसरे सदस्य दिल्ली में नौकरी करते थे. मेरे जुड़ने के बाद गोष्ठी विशेषरूप से कहानी केन्द्रित
हो गयी थी. एक दिन गर्ग जी ने गन्ना बेगम पर
एक आलेख सुनाया. गन्ना बेगम भरतपुर के जाट राजकुमार की प्रेमिका थी, जो महादजी सिन्धिया
के साथ युद्धों में शामिल हुई थी. वृन्दावनलाल वर्मा ने अपने उपन्यास ’महादजी सिन्धिया’
में उसका सुन्दर वर्णन किया है. उन दिनों तक मैंने वह उपन्यास पढ़ा नहीं था. गर्ग जी
ने जिसप्रकार अपने दस पृष्ठों के आलेख में उसे उद्धृत किया था उससे मैं आकर्षित हुआ.
मैंने उनसे अनुरोध किया कि आलेख वह मुझे कुछ
दिनों के लिए दे दें. मैं उसके आधार पर कहानी लिखना चाहता था. उन्होंने भले भाव से
आलेख मुझे दे दिया. मैंने उसके आधार पर ’आह ग़मए गन्ना बेगम’ कहानी लिखी और सरिता को
भेज दी. आश्चर्य पन्द्रह दिनों के अंदर कहानी का स्वीकृति पत्र आया जिसके साथ २५० रुपयों
का वाउचर था. उसे रसीदी टिकट लगाकर हस्ताक्षर करके लौटाने का निर्देश था जिससे मुझे
पारिश्रमिक के रूप में चेक भेजा जाए. मैं प्रसन्न था. मैंने वही किया. हालांकि उसमें
यह शर्त भी थी कि कहानी का कॉपी राइट दिल्ली प्रेस लेगा और उसे मैं कहीं अन्यत्र प्रकाशित
नहीं करवा सकूंगा. हालांकि मैंने उसे ही नहीं वहां प्रकाशित अन्य ऎतिहासिक कहानियों
को अपने पहले कहानी संग्रह ’पेरिस की दो कब्रें’ में प्रकाशित करवाया और केवल ’गन्ना
बेगम’ कहानी के प्रकाशन की ही अनुमति उनसे ली.
उस कहानी के स्वीकृत होने के बाद ऎतिहासिक कहानियां
लिखने का सिलसिला प्रारंभ हुआ. यह सिलसिला अगले पांच वर्षों तक जारी रहा और मैंने दस
ऎतिहासिक कहानियां लिखीं. लेकिन ऎतिहासिक कहानियों के साथ सामाजिक कहानियां लिखना भी
जारी रहा था और वे कहानियां ’जनयुग’ और ’वीर अर्जुन’ अखबारों में प्रकाशित हो रही थीं.
गोष्ठी में मैं सामाजिक कहानियां ही सुनाता. ऎतिहासिक कभी नहीं पढ़ी. प्रेम चन्द
गर्ग के संपर्क में आने के कारण ही मेरा झुकाव ऎतिहासिक पात्रों की ओर हुआ था. बाद
में मैंने तीन किशोर उपन्यास –’ऎसे थे शिवाजी’(१९८५), ’अमर बलिदान’ (करतार सिंह सराभा
पर केन्द्रित(१९९२). इसे विस्तार देकर मैंने ’करतार सराभा’ नाम से २०१७ में बड़ा उपन्यास
लिखा,जिसे प्रवीण प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया), ’क्रान्तिदूत अजीमुल्ला खां’
९१९९२) और ’खुदीराम बोस’( उपन्यास – १९९७) लिखे. आज सोचता हूं कि यदि गर्ग जी न मिले
होते तब शायद मैं यह सब नहीं लिखता.
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गर्ग जी प्रायः
त्यौहारों से पहले मेरे पास आते और बोलते, “अमुक दिन आप मेरे घर लंच पर आमंत्रित हैं.”
याद नहीं कि वे कौन-से त्यौहार थे, लेकिन वर्ष में कम से कम तीन-चार त्योहारों को मुझे
उनके यहां जाना पड़ता. वह कहते, “मेरे यहां यह नियम है कि किसी एक बैचलर को हम भोजन
अवश्य करवाते हैं. आपसे बेहतर मुझे कौन मिलेगा.” मैं जानता था कि मेरे अकेले होने के
कारण वह इस बहाने मुझे भोजन के लिए बुलाते थे. व्यवहार में इतने सरल कि कभी उन्हें
क्रोधित होते नहीं देखा. जब मैंने उनसे ’विविधा’ के एक सदस्य के प्रेम प्रसंग की चर्चा
की जो अपने फ्लैट के सामने रहने वाली एक युवती के साथ प्रेम में डूबे हुए थे तब गर्ग
जी ने कहा था कि “चन्देल जी, समाज में हर तरह के लोग हैं---“ और लंबी चुप्पी साध ली
थी. ऎसे विषयों में वह बात नहीं करते थे.
अप्रैल,१९७८
में गर्ग जी से जानकारी मिली कि विविधा की
ओर से बाबा नागार्जुन को बुलाने का निर्णय हुआ है. यह विचार गर्ग जी के एक अफसर संतराज
सिंह का था, जो कविताएं लिखते थे. उनकी कविताएं न कहीं छपती थीं और अफसरी अहंकार में
न वह कभी गोष्ठी में सम्मिलित होते थे. वह मार्च १९७९ की गोष्ठी में सम्मिलित हुए थे
और उनकी कुंठा वहां उभरकर सतह पर आ गयी थी. अप्रैल के एक रविवार बाबा आए और सीधे संतराम
सिंह के घर उतरे. इस बारे में अपने संस्मरण ’बाबा का गुस्सा’ में मैंने विस्तार से
चर्चा की है.
नवंबर,१९७७
में एक दिन गर्ग जी मेरे होस्टल आए और बताया कि फैक्ट्री के कुछ उत्साही लोगों के साथ
मिलकर वह राम प्रसाद बिस्मिल की बहन शास्त्री देवी का स्वागत करना चाहते हैं. उन्हें
कुछ राशि भी भेंट करना चाहते हैं, क्योंकि उन दिनों वह भयानक गरीबी में जीवन यापन कर
रही हैं. विषय पर विस्तार से प्रकाश डालने के बाद बोले, “मैं चाहता हूं कि आप चन्दा
उगाही का काम करें. मैं दो टीमें बना रहा हूं. आप होस्टल के आसपास के ब्लॉक्स से चन्दा
एकत्रित करें. दूसरी टीम मैं टाइप टू,टाइप थ्री और हटमेण्ट वाले मकानों में भेजूंगा.”
मैं मना नहीं
कर सकता था. उन दिनों मैं खाली था. ठंड प्रारंभ हो चुकी थी. दो दिन बाद गर्ग जी मुझे
रसीद बुक थमा गए. अगले दिन से मैंने चन्दा
उगाही का काम प्रारंभ किया. लोगों को देर तक समझाना पड़ता कि रामप्रसाद बिस्मिल कौन
थे और उनकी बहन का क्रान्ति कार्यों में क्या योगदान था. लोग मुंह फैलाकर सुनते और
पांच रुपए का नोट थमा देते. कोई ही था जिसने दस रुपए दिए थे. कई लोग अगले दिन पर टाल देते थे. उनके यहां मैं दोबार नहीं
गया. याद नहीं कि पन्द्रह दिन खर्च करने के बाद मैंने कितना चन्दा एकत्रित किया था.
२५ दिसंबर को शास्त्रीदेवी को सम्मानित किया
गया. २२ दिसम्बर से २६ दिसम्बर तक वह गर्ग जी के घर रही थीं, जहां उनसे बात करने का
मुझे अवसर मिला था. उन पर मेरा संस्मरण मेरी पुस्तक ’साहित्य,संवाद और संस्मरण’ (भावना
प्रकाशन) में सम्मिलित है. वह भारी शरीर की
लगभग अस्सी वर्ष की थीं, जिन्होंने देश की आजादी के लिए भाई के साथ क्रान्तिकारी कार्यों
में अपना योगदान दिया था, लेकिन देश के कृतघ्न नेताओं और सरकारों ने किसी भी क्रान्तिकारी
के लिए कुछ नहीं किया. उन दिनों उनकी बहू टीबी का शिकार थी और वह दिल्ली के उत्तम नगर
में चाय की दुकान चलाकर अपना और परिवार का पालन कर रही थीं. उनका बेटा भी दुकान में बैठता था. वह भी बीमार रहता था.
वास्तव में
गर्ग जी क्रान्तिकारियों से बहुत प्रेरित थे. उनके कारण ही मैं क्रान्तिकारियों की
ओर आकर्षित हुआ. उनके माध्यम से मुझे सावरकर की आत्मकथा तथा ’१८५७ का
प्रथम स्वातंत्र्य समर’ पढ़ने को मिले. यशपाल का झूठा सच, दिव्या और भगवती चरण वर्मा
का चित्रलेखा भी गर्ग जी ने फैक्ट्री पुस्तकालय से मुझे उपलब्ध करवाया था. बाद में
मैं भी उसका सदस्य बन गया और स्थानांतरण पर दिल्ली आते समय सावरकर की पुस्तकें मेरे
साथ चली आयीं. आज भी वे मेरे पास हैं. ’१८५७
का प्रथम स्वातंत्र्य समर’ मेरे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुई.
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२८ जून,१९७९
को मैंने गाजियाबाद शिफ्ट किया. दैनिक यात्री
के रूप में मुरादनगर आने-जाने लगा. मेरे शिफ्ट होने से पहले ही विविधा संस्था के कार्यक्रम
स्थगित हो चुके थे. गर्ग जी से मुलाकात भी यदा-कदा होने लगी थी जब वह कभी लंच में घर
जाते हुए या घर से लौटते हुए मेरे ऑफिस मिलने आ जाते थे. लेकिन वह मुलाकात चंद मिनटों
की होती थी. मैंने मुरादनगर से अपना स्थानांतरण
दिल्ली करवा लिया. मुझे आर.के.पुरम के मुख्यालय में पोस्ट किया गया, जहां मैंने १९
जुलाई,१९८० को ज्वाइन किया. मुझे गाजियाबाद से दिल्ली शिफ्ट करना आवश्यक हो गया. दिल्ली में मकान
खोजना और वह भी बिना जान-पहचान बहुत टेढ़ी खीर थी, लेकिन खोजा और १० ए/२२, शक्तिनगर
में ११ अक्टूबर,१९८० को शिफ्ट हो गया. इस मकान में अचानक एक रविवार गर्ग जी आए. उस
दिन वह बिस्मिल जी की बहन शास्त्री देवी से मिलने उत्तम नगर गए थे. उनके दो पत्र मेरे
पास सुरक्षित हैं. पहला पत्र ८ जनवरी,१९९२ का है. उसे मैं यहां अविकल प्रस्तुत कर रहा हूं.
मुरादनगर
८-१-९२
बन्धुवर चन्देल
जी,
सप्रेम नमस्कार।
आपके द्वारा
प्रेषित पत्र एवम आपके दो कहानी संग्रह यथा समय मिले. इतने वर्षों पश्चात पत्र और आपकी
भेंट पाकर हृदय गदगद हो गया. ऎसा लगा मानो साक्षात आप ही मिल गए हों. कुछ दिन पूर्व
अमर उजाला दैनिक के रविवासरीय संस्करण में आपकी कहानी ’आदेश’ तथा आपकी इन्हीं दो पुस्तकों
की समालोचना प्रकाशित हुई थी तभी से मेरा मन आपको पत्र लिखने का था किन्तु पता मालूम
न होने के कारण ऎसा करना संभव नहीं हो पाया. आपके एक पत्र से तो मुझे ऎसा आभास हुआ
था कि आप पत्रकार कॉलोनी (सादतपुर से आभिप्राय) स्थित अपने निजी आवास में जाने वाले
हैं. आप वहां चले ही गए होंगे, ऎसा समझकर मैं पत्र न डाल सका. अब बन्धुवर श्रूद्धानन्द त्यागी (जो आपका पत्र तथा पुस्तकें
लाए हैं) एक ऎसा सम्पर्क सूत्र बन गए हैं जिनके द्वारा पत्रों आदि का आदान प्रदान होता
ही रहेगा. ऎसी आशा ही नहीं विश्वास है.
जुलाई, १९८९
में मुरादनगर में प्रातः आठ बजे फैक्ट्री आते समय एक स्कूटर द्वारा टक्कर लग जाने के
कारण मेरी जांघ की अस्थिभंग हो गई थी. आपरेशन के बाद चलने फिरने योग्य तो हो गया, किन्तु
ट्रेन, बस के द्वारा कहीं आने-जाने में असमर्थ ही हूं. अतः मेरा तो दिल्ली आना संभव
ही नहीं रहा. आप ही किसी रविवार सपरिवार आने की कृपा करें.
अब आपकी कहानी
वास्तव में अत्यंत उच्च स्तर तक पहुंच गई हैं. अभी तक सब कहानियां तो नहीं पढ़ सका हूं
किन्तु जो भी पढ़ी हैं वे मर्मस्पर्शी होने के साथ-साथ अन्याय तथा शोषण की सभी परतों
को उजागर करती हैं. विशेषरूप से “हारा हुआ आदमी’, ’आदेश’ तथा ’आखिर कब तक’ कहानियां
तो वास्तव में ही प्रेम चन्द तथा यशपाल की परम्परा में हैं. ’आखिर कब तक’ तो मुरादनगर
के वातावरण पर है ही.
आशा है पत्र
व्यवहार चलता रहेगा.
आपका अपना,
(हस्ताक्षर)
प्रेमचन्द गर्ग
दूसरा पत्र
१३ जुलाई,१९९२ का है. कार्यालय में मेरे एक सहयोगी मुरादनगर में प्लॉट खरीदना चाहते
थे. मैंने इस विषय में गर्ग जी को लिखा जिसके उत्तर में उन्होंने वह पत्र लिखा था,
जिसमें उन्होंने सूचित किया कि कवि वेदप्रकाश सुमन के दो प्लॉट हैं जिनमें से वह एक
बेचना चाहते हैं. उन्होंने मेरे सहयोगी को १९ जुलाई,१९९२ को मुरादनगर आकर प्लॉट देखने
के लिए कहा था. मुझे याद आ रहा है कि मेरे साथ स्कूटर में मित्र मुरादनगर गए थे लेकिन
मुरादनगर की स्थिति देखकर प्लॉट खरीदने का विचार उन्होंने स्थगित कर दिया था. बाद में
जानकारी मिली थी कि वेदप्रकाश सुमन की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी थी.
प्रेम चन्द
गर्ग से उसके बाद सम्पर्क नहीं रहा. कुछ वर्षों बाद एक मित्र ने एक दिन सूचना दी कि उनकी मृत्यु हो गयी थी. यह जानकारी बहुत विलंब
से मिली थी. विविधा संस्था से जुड़ना मेरी साहित्यिक यात्रा के लिए एक वरदान सिद्ध हुआ
और उससे जोड़ने का श्रेय प्रेम चन्द गर्ग को था.
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