सोमवार, 21 जुलाई 2008

पुस्तक चर्चा



चित्र : अशोक गुप्ता

सम्बन्धों की लाशों पर गिद्धों का उत्सव

रमेश कपूर

उत्सव अभी शेष है(उपन्यास)
*अशोक गुप्ता,
शिल्पायन, १०२९५, लेन नं० १, वैस्ट गोरखपार्क,
शाहदरा -११००३२
पृष्ठ संख्या : २१४, मूल्य : २२५/-


संबन्ध अपनी सामाजिकता को ओढ़कर समय को क्रूर (कहां क्रूरतम माना जाए) चक्र के मध्य ही अपने आप को स्थापित करते हैं और वैयक्तिक आवश्यकताओं के साथ अपनी महत्ता सिद्ध करते हैं। इन मायनों में वे स्वयंसिद्ध होते हैं। किन्तु इस स्वयंसिद्ध होने में कितनी जद्दोजहद और कितना संघर्ष शामिल रहता है, यही देखना महत्वपूर्ण है। क्योंकि अधिकांश लोगों के लिए इसी जद्दोजहद---इसी संघर्ष और इसी महत्ता को जानना अथवा समझ पाना संभव नही हो पाता। तब तो और भी कठिन हो जाता है, जब वे वैयक्तिक स्तर पर एक-दूसरे की भावनाओं के साथ पूरी अंतरंगता से जुड़े हों… पूरी वचनबद्धता में जकड़े हों और संबन्धों को एक नए धरातल पर अपने-आपको परखने की प्रक्रिया में हों।

शायद ऐसे ही सम्बन्ध नीलकंठ और उसकी पत्नी रोहिणी के बीच हैं, जो वरिष्ठ कथाकार अशोक गुप्ता के सद्यः प्रकाशित प्रथम उपन्यास 'उत्सव अभी शेष है' में एक नया अर्थ खोजने का प्रयत्न करते हैं। हालांकि पति-पत्नी का यह संबन्ध अपने-आप में पूरी तरह सफल और आलोढ़ित दिखाई नहीं देता। ऐसा दिखाने की लेखक की कोई चेष्टा भी नहीं रही है। क्योंकि यही शायद लेखक का अभीष्ट भी है। लेकिन जैसी विस्फोटक स्थितियों का सामना उपन्यास के आरंभ में रोहिणी करती या जिनसे पाठक की पहली भिड़तं होती है, वे विस्मित कर देने वाली स्थितियां हैं ---- वीणा के पूरी तरह कस दिए गए तारों की तरह -- टूटने की कगार पर।

मदिरा--और शायद धन भी ---- और शायद अवसर भी पाने के नशे में आकंठ डूबे नीलकंठ को, बाजारू और शातिर औरतों के शरीर को भरपूर भोगने, लेकिन फिर भी उनमें वांछित आनन्द न ढूंढ़ पाने वाले अपने मित्र राठौर के समक्ष 'कापुरुष' की तरह अपनी पत्नी रोहिणी को परोस देने की मजबूरी झेलने में जो मक्कार साझेदारी निभानी पड़ती है, वह रोहिणी को भी हत्प्रभ कर देती है। इस तरह आरंभ होता है नैतिकता और अनैतिकता का वह अध्याय, जिसका प्रभाव (---- और तनाव- उपन्यास में देर तक ---(और दूर तक) दिखाई पड़ता है। इस तनाव को 'हैंडल' कर पाने की क्षमता और उसके प्रभाव पर हम आगे चर्चा करेंगे। फिलहाल प्रश्न नैतिकता-अनैतिकता का है। यह सच है कि एक इन्सान के अपने लिए जो चीज नैतिक है, वही दूसरे के संबन्ध में अनैतिक हो जाती है। यह फर्क वह दृष्टि लाती है, जो चीजों को देखती है। शायद इसीलिए ही पात्रों में किसी भी प्रकार का अवरोधबोध जागृत नहीं होता। सबके पास अपने हक में दिए जाने वाले तर्क (या कुतर्क) उपस्थित हैं। चाहे वह नीलकंठ हो, जो अपनी पत्नी को एक वस्तु समझकर राठौर के समक्ष प्रस्तुत करता है। और बड़े ही नाटकीय और धूर्त अपराधबोध से ग्रस्त होने का भ्रम पैदा करता है। इसके साथ ही वह पुनः वहीं , उसी बिन्दु पर लौट आना चाहता है, जहां से उसने अपने कायराना इरादों को अन्जाम दिया था। किन्तु लौटना उसके लिए इतना आसान नहीं सिद्ध होता। क्योंकि वापस लौटने की स्थितियां उतनी अनुकूल नहीं रह पातीं।

--यही स्थिति चन्द्रा की भी है, जो अपने पति की अनुपस्थिति में अपनी दैहिक जरूरतों को नीलकंठ से पूरी करती है। वह भी नैतिकता-अनैतिकता के द्वंद्व से पर है। न वह अपने पति के प्रति अपराधबोध से ग्रस्त है, न ही रोहिणी के प्रति।

--याफिर राठौर, जो नीलकंठ की पत्नी को 'किसान स्क्वैश' के एक उत्पाद की तरह 'इट इज डिफरेंट' कहकर उसे चटकारे लेकर चखता है और नीलकंठ को अपनी पत्नी को पुनः शीशे में उतार लेने कामशविरा देताहै।

लगता है कि उपन्यास के सारे संबन्ध बाजारवाद से ही संचालित होते हैं। एक 'बिकाऊ' चीज की तरह। यह हमारे वर्तमान समाज का बदला हुआ चेहरा है। न कहीं कोई लगाव---- न कहीं कोई भावना--- न कोई सामाजिक मूल्य… मात्र एक उत्पाद। शानदर 'पैकेजिंग' में लिपटा। चमचमाता---आकर्षित करता--- निमंत्रण देता। --- समाज और सामाजिक बन्धनों की संरचना में जिस तरह का बदलाव--- और जिस तरह का अवमूल्यन हमारे आसपास दिखाई पड़ता है, उसी की पड़ताल करता है यह उपन्यास। अवमूल्यन की ज्ञान पगडंडी से रोहिणी अपने लिए एक नया मार्ग तलाशने का प्रयास करती है और उसकी तलाश राजबीर तक जाकर रुक जाती है, जो हमेशा खामोश रहकर रोहिणी को हालात से लड़ते---- और लड़खड़ाते देखता है और उसकी असह्यता की स्थिति में आगे बढ़ कर उसका हाथ थाम लेता है।

इस नई शुरूआत में स्त्री के स्वावलम्बन और स्वतंत्रता का प्रश्न भी खड़ा होता है, जो इस उपन्यास की आधारशिला बनता है। यहां फिर वही प्रश्न है कि आखिर स्त्री अपनी स्वतंत्रता चाहती किससे है ? अपने समाज से, जो उसे गर्त में धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ता ? या अपने उस संबन्ध से, जो पहले ही बिस्तर पर कुचल दिया गया था?-- या फिर अपने-आपसे, जो वह चाहकर भी नहीं कर पाती? -- या फिर अपनी देह से, जिसके कारण ही वह इतनी बड़ी त्रासदी झेलती है-- और जिसका अधिकार वह किन्हीं कमजोर-कंपकंपाते क्षणों में --- बेहद मासूम चुप्पियों के बीच राजबीर को सौंप देती है? यहीं वह महत्वपूर्ण बिन्दु है, जो उपन्यास का प्रस्थान बिन्दु बनते-बनते रह जाता है। क्योंकि रोहिणी के लिए सम्बन्धों के होने--- उनके टूटने-बिखरने --- और पुनः उठ खड़े होने के बीच एक नया रास्ता तलाश करने का निर्णय उसका अपना नहीं है। क्योंकि सम्बन्धों को तोड़ने का निर्णय भी उसका अपना नहीं है। क्योंकि इस निर्णय के पीछे उसका अपना कोई चुनाव--- या विचार नहीं है। ऐसा भी इसलिए है क्योंकि अपने साथ होने वाली किसी भी ज्यादती --- या त्रासदी--- या धोखाधड़ी के लिए उसके अन्तस्तल में किसी भी प्रकार का कोई प्रतिरोध नहीं है । प्रतिरोध होता तो संभव है प्रतिशोध भी होता, जो परिस्थितियों से लड़-झगड़ कर अपने अस्थित्व --- अपने 'होने' को सिद्ध करता। कम से कम तब वह स्वयं को एक 'वस्तु' मात्र में परिवर्तित नहीं होने देता।

नैतिकता-अनैतिकता की ज्ञान विस्फोटक उदासीनता का प्रभाव यह कि तमाम सम्बन्ध उस संवेदनशील स्थिति पर आकर ठहर जाते हैं, जहां अपराधबोध जैसी किसी सम्भावना की गुंजाइश ही नहीं रह जाती। इन परिस्थियों में यह पता ही नहीं चल पाता कि तमाम पात्र सम्बन्धों को किस धरातल पर स्थापित करना चाहते हैं। प्रेम में देह को ढूंढना चाहते हैं या देह में प्रेम को ? क्योंकि प्रेम को प्रेम के स्तर पर --- और देह को देह के स्तर पर जानने का प्रयास तो कहीं है ही नहीं। यहां तक कि राजबीर-रोहिणी का प्रेम-प्रसंग (यदि इसे वास्तव में एक प्रेम-प्रसंग माना जाए तो) भी इससे अछूता नहीं है। क्योंकि वह भी एक समझौते के फलस्वरूप ही पनपा है। किसी मजबूरी की तरह जो एक विकल्पहीन स्थिति में मात्र ओढ़ने-बिछाने -- ढोते जाने की प्रक्रिया बन जाता है। ऐसे में, यदि हर व्यक्ति की कमियों-खूबियों को एक तरफ रख दें, तो वे किसी 'फ्रायडीय' अवधारणा से ग्रस्त महसूस होने लगते हैं। जिनका प्रत्येक क्रिया-कलाप --- या प्रत्येक हरकत-- प्रत्येक सोच यौनिक क्रियाओं या प्रतिक्रियाओं से संचालित होती है।

और यह मानने में हमें बिल्कुल भी संकोच नहीं करना चाहिए कि उनका यह आचरण मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं है। यहीं लेखक उनके (पात्रों के) मनोविज्ञान को पकड़ने में कहीं न कहीं बहुत बड़ी चूक कर गया है। यहां महादेवी वर्मा का यह उदाहरण देना भी आवश्यक जान पड़ता है कि -"महत्वपूर्ण सिर्फ यह नहीं कि क्या लिखा गया है बल्कि यह अधिक महत्वपूर्ण है कि कैसे लिखा गया है।"

शायद इसी चूक के कारण पात्रों में पूर्ण तथ्यपरकता नहीं आ पाई जिसकी यहां बहुत आवश्यकता थी। लेखक स्वयं 'भीतर की बात' उभारने में बहुत सक्षम है, जिसकी साक्षी हैं उनकी कहानियां, जो मनोवैज्ञानिक कसौटी पर अपनी उपादेयता सिद्ध करती हैं। किन्तु यहां पात्रों का मनोविज्ञान--- या उनका व्यवहार --- या उनकी सोच स्वय उनके ही अनुकूल नहीं बैठती। वरना क्या कारण है कि चन्द्रा जैसी शातिर औरत, जो अपनी बात कह गुजरने में माहिर है--- जो बात से घायल को फुसलाने-बहलाने की कला जानती है--- जो अपनी इसी काबलियत के दम पर नीलकंठ को बांधती और भोगती है किन्तु रोहिणी की त्रासदी जानकर किसी संवेदनशील भारतीय नारी की तरह व्यथित होकर रो उठती है--- और उसे अपनी ही देह से घिन आने लगती है। उसकी यह मनःस्थिति भी उसके शातिराना व्यवहार की तरह नाटकीय है।

और क्या कारण है कि रोहिणी चन्द्रा के साथ अपने पति के अवैध सम्बन्धों को भली-भांति जानते हुए भी चन्द्रा के साथ अत्यन्त सहजता के साथ उसकी 'सहेली' बनकर रहती है। और अपने सुख-दुःख को उसके साथ बांटती नजर आती है। अनैतिकता को यह सीधा-सीधा उसका मौन समर्थन नहीं तो फिर क्या है? इससे क्या वह किसी भी प्रकार की शिकायत किसी से भी करने से अपना अधिकार नहीं खो बैठती? स्त्री-विमर्श की राह में यही क्या सबसे बड़ी बाधा नहीं है? उदासीनता का यह प्रकटीकरण क्या यथार्थ-परकता को संदेहास्पद नहीं बना देता?

और क्या कारण है कि रोहिणी की दस वर्षीय बेटी सरस्वती किसी विद्वान व्यक्ति की तरह धाराप्रवाह प्रवचन देने से चूकती नहीं और चाहती है --"मेरी एक बात सुन लो पहले। इतने दिन से नहीं कहा मैंने, आज बताती हूं। पापा, ताई की नीयत हमें खेत , मकान और नकदी कुछ भी देने की नहीं है। वह बार-बार कहती है कि मेरे जीते जी इसमें से सूत भी किसी को नहीं मिलेगा। सब सुनते हैं इस बात को । बुआ भी सुनती हैं। मेरा वहां रहना खटकता था ताई की आंख में। उन्हें लगता था कि मैं किसी भी समय उनके इस इरादे को समझ कर आपको बुला सकती हूं--- वह डरती थीं कि मैं उनके इरादे उन्हें बताकर तुम्हारे हक में आवाज न बटोर लूं।"(पृष्ठ - 195)

उपन्यास में पात्रों की पारिवारिक पृष्ठभूमि या शैक्षणिक परिवेश को देखते हुए आम बोलचाल में जम कर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग आश्चर्य पैदा करता है। यहां तक कि रोहिणी भी अंग्रेजी भाषा की ज्ञाता होने का भ्रम पैदा करते हुए कहती है कि "साथ सोने से बड़ा सुख साथ रोने में होता है--- शायद इसीलिए अंग्रेजी में 'स्लीप' का नाद 'वीप' से जुड़ता है। रोज - ब-रोज की जिन्दगी में रोना अपने सही माने में कहां जीता है आदमी---- सिर्फ 'क्राई' करता है। (पृष्ठ - 193)

शब्दों का ऐसा विश्लेषण वास्तव में कोई विलक्षण व्यक्ति ही कर सकता है। इसके कारणों की पृष्ठभूमि की चर्चा करने से पहले मैं उपेन्द्रनाथ अश्क के दो खण्डों में प्रकाशित श्रेष्ठ कृतित्व 'अश्क 75 - दूसरा खण्ड' में स्वयं अश्क जी का मानना है कि 'लेखक के जीने का उसके लेखन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। वह जैसे जीता है, जिस दृष्टि से जीता है, जिन्दगी से उसकी जो आकांक्षा है, उसी के अनुसार उसका लेखन ढलता है। --- और 'जिन्दगी को लिखने के लिए जिन्दगी का सीधा सम्पर्क जरूरी है।

यह प्रसंग कृतित्व में समाज के सीधे प्रभाव और चित्रण में आता है, जो सीधे-सीधे भाषा के साथ जुड़ता है और औपन्यासिक परिवेश व पात्रों को गढ़ता है। जबकि 'उत्सव----' में लेखकीय निष्कर्षों ने तो परिवेश को क्षति पहुंचाई ही है, भाषा भी सभी पात्र वही बोलते हैं, जो लेखक की अपनी भाषा है। यह प्रत्यक्ष रूप से पत्रों के जीवन में हस्तक्षेप है, जिससे सब लेखकों को बचना चाहिए ताकि कृति में यथार्थपरकता को बनाए रखा जा सके। यदि ऐसा होता तो यह संभव ही नहीं था कि चन्द्रा , राठौर , नीलकंठ के परिवार, राजबीर-रोहिणी, सरस्वती-आशीष , जिनमें आततायी और पीड़ित सभी सम्मिलित हैं , एक साथ किसी उत्सव का आयोजन करते, जो अन्ततः सम्बन्धों की लाश पर किन्ही गिद्धों के उत्सव से अधिक कुछ नहीं है---- और जिसके सम्बन्ध में पूरे विश्वास के साथ यह कहा जा सके कि 'इट इज डिफरेन्ट'।


ए-4/14, सैक्टर-18,



रोहिणी, दिल्ली-110089



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29 जनवरी 1947 को देहरादून में जन्म। इंजीनियरिंग और मैनेजमेण्ट की पढ़ाई। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान ही साहित्य से जुड़ाव ।

अब तक सौ से अधिक कहानियां, अनेकों कविताएं, दर्जन भर के लगभग समीक्षाएं, दो कहानी संग्रह, एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। एक उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य। बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा Daughter of the East का हिन्दी में अनुवाद।

सम्पर्क : बी -11/45, सेक्टर 18, रोहिणी, दिल्ली - 110089
मोबाईल नं- 09871187875

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