अशोक आन्द्रे की पांच कविताएं
(१)
उम्मीद
जिस भूखण्ड से अभी
रथ निकला था सरपट
वहां पेड़ों के झुंड खड़े थे शांत,
नंगा कर गए थे उन पेड़ों को
हवा के बगुले
मई के महीने में.
पोखर में वहीं,
मछली का शिशु
टटोलने लगता है मां के शरीर को.
मां देखती है आकाश
और समय दुबक जाता है झाड़ियॊ के पीछे
तभी चील के डैनों तले छिपा
शाम का धुंधलका
उसकी आंखों में छोड़ जाता है कुछ अंधेरा
पीछे खड़ा बगुला चोंच में दबोचे.
उसके शिशु की
देह और आत्मा के बीच के
शून्य को निगल जाता है
और मां फिर से
टटोलने लगती है अपने पेट को .
(१)
उम्मीद
जिस भूखण्ड से अभी
रथ निकला था सरपट
वहां पेड़ों के झुंड खड़े थे शांत,
नंगा कर गए थे उन पेड़ों को
हवा के बगुले
मई के महीने में.
पोखर में वहीं,
मछली का शिशु
टटोलने लगता है मां के शरीर को.
मां देखती है आकाश
और समय दुबक जाता है झाड़ियॊ के पीछे
तभी चील के डैनों तले छिपा
शाम का धुंधलका
उसकी आंखों में छोड़ जाता है कुछ अंधेरा
पीछे खड़ा बगुला चोंच में दबोचे.
उसके शिशु की
देह और आत्मा के बीच के
शून्य को निगल जाता है
और मां फिर से
टटोलने लगती है अपने पेट को .
(२)
तरीका
मुर्दे हड़ताल पर चले गए हैं
पास बहती नदी ठिठक कर
खड़ी हो गई है!
यह श्मशान का दृश्य है.
चांडाल,
आग को जेब में छिपाए
मन ही मन बुदबुदाने का ढोंग करता
मंत्र पढ़ने लगा है,
अवैध-अनौतिक पैसा ऎंठने का
शायद यह भी एक तरीका हो!
(३)
तथाकथित नारी
निष्प्राण हो जाती है
मूर्ति की तरह तथाकथित नारी
जबकि तूफान घेरता है उसके मन को,
यह इतिहास नहीं/जहां
कहानियों को सहेज कर रखा गया हो....
एक-एक परत को
उघाड़ा गया है दराती-कुदालों से,
ताकि उसकी तमाम कहानियों की गुफ़ा में
झांका जा सके,
ताकि उन कहानियों में दफ़्न
मृत आत्माओं की शांति के लिए
कुछ प्रार्थनाओं को मूर्त रूप दिया जा सके,
उस निष्प्राण होती मूर्ति के चारों ओर
जहां अंधेरा ज़रूर धंस गया है,
आखिर कला की अपराजेयता की धुंध तो
छंटनी ही चाहिए न,
ताकि मनुष्य के प्रयोजनों का विस्तार हो सके.
कई बार घनीभूत यात्राएं उसकी
संभोग से समायोजन करने तक
आदमी, कितनी आत्माओं का
राजतिलक करता रहता है
हो सकता है यह उसके
विजयपथ की दुंदुभि हो
लेकिन नारी का विश्वास मरता नहीं
धुंए से ढंकती महाशून्य की शुभ्रता को
आंचल में छिपा लेती है
उस वक्त समय सवाल नहीं करता
उस खंडित मूर्ति पर होते परिहासों पर
शायद शिल्पियों की निःसंगता की वेदना को
पार लगाने के लिए ही तो इस तरह
कालजयी होने की उपाधि से सुशोभित
किया जाता है उसे,
आखिर काल का यह नाटक किस मंच
की देन हो सकता,
आखि़र नारी तो नारी ही है न,
मनुष्य की कर्मस्थली का विस्तार तो नहीं न,
मूर्ति तो उसके कर्म की आख्याओं का
प्रतिरूप भर है
तभी तो उसका आवा से गमन तक का सफ़र
जारी है आज भी,
इसीलिए उसकी कथाएं ज़रूर गुंजायमान हैं
शायद यही उसका प्राण है युगांतक के लिए
जो धधकता है मनुष्य की देह में
अनंतता के लिए.
(४)
पता जिस्म का
एक जिस्म टटोलता है
मेरे अंदर तहखाने में छिपे, कुछ जज़्बात
जिनकी क़ीमत
समय ने अपने पांवों तले दबा रखी है
उस जिस्म़ की दो आंखें एकटक
दाग़ती हैं कुछ सवालों के गोले
जिन्हें मेरी गर्म सांसें धुंआ-धुंआ करती हैं
उनकी नाक सूंघंती है
मेरे आसपास के माहौल को
जिसका पता मेरे पास भी नहीं है.
उसके होंठ कुछ पूछने को
हिलते हैं आगाह करने के लिए
उसके कान मना कर देते हैं सुनने को,
मैं उस जिस्म़ की खुदाई करता हूं,
और खाली समय में ढूंढता हूं
अपने रोपे बीज को,
जो अंधेरे में पकड़ लेता है मेरा गला
पाता हूं कि वह और कोई नहीं,
मेरे ही जिस्म़ का पता है
जहां से एक नए सफ़र का दिया
टिटिमा रहा है
(५)
आंतरिक सुकून के लिए
एक पर्वत से दूसरे पर्वत की ओर
जाता हुआ व्यक्ति/कई बार फ़िसल कर
शैवाल की नमी को छूने लगता है.
जीवन खिलने की कोशिश में
आकाश की मुंडेर पर चढ़ने के प्रयास में
अपने ही घर के रोशनदान की आंख को
फोड़ने लगता है
मौत जरूर पीछा करती है जीवात्माओं का
लेकिन जिन्दगी फिर भी पीछा करती है मौत का
सवारी गांठने के लिए,
सवारी करने की अदम्य इच्छा ही व्यक्ति को
उसकी आस्था के झंडे गाड़ने में मदद करती है.
कई बार उसे पूर्वजों द्वारा छोड़े गये,
सबसे श्रेष्ठ शोकगीत को,
गुनगुनाने के लिए लाचार भी होना पड़ता है.
जबकि समुद्र समय की चुप्पी को तोड़ने के लिए
चिघाड़ता है अहर्निष,
आखिर व्यक्ति तो व्यक्ति ही है
इसलिए उसे गीत तो गाने ही पड़ेंगे
चाहे शुरू का हो या फिर/अंतिम यात्रा की बेला का,
क्योंकि कंपन की लय/टिकने नहीं देगी उसे,
जीवन उसे खामोश होने नहीं देगा
उत्तेजित करता रहे चीखने-चिल्लाने के लिए.
उसके आंतरिक सुकून के लिए.
३ मार्च, १९५१ को कानपुर (उत्तर प्रदेश) में जन्म. अब तक निम्नलिखित कृतियां प्रकाशित :
फुनगियों पर लटका एहसास, अंधेरे के ख़िलाफ (कविता संग्रह), दूसरी मात (कहानी संग्रह), कथा दर्पण (संपादित कहानी संकलन), सतरंगे गीत , चूहे का संकट (बाल-गीत संग्रह), नटखट टीपू (बाल कहानी संग्रह).
लगभग सभी राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित.
'साहित्य दिशा' साहित्य द्वैमासिक पत्रिका में मानद सलाहकार सम्पादक और 'न्यूज ब्यूरो ऑफ इण्डिया' मे मानद साहित्य सम्पादक के रूप में कार्य किया.
संपर्क : १८८, एस.एफ.एस. फ्लैट्स, पॉकेट - जी.एच-४, निकट मीरा बाग, पश्चिम विहार, नई दिल्ली - ११००६३.
फोन : ०१११-२५२६२५४४
मोबाईल : ०९८१८९६७६३२
०९८१८४४९१६५
तरीका
मुर्दे हड़ताल पर चले गए हैं
पास बहती नदी ठिठक कर
खड़ी हो गई है!
यह श्मशान का दृश्य है.
चांडाल,
आग को जेब में छिपाए
मन ही मन बुदबुदाने का ढोंग करता
मंत्र पढ़ने लगा है,
अवैध-अनौतिक पैसा ऎंठने का
शायद यह भी एक तरीका हो!
(३)
तथाकथित नारी
निष्प्राण हो जाती है
मूर्ति की तरह तथाकथित नारी
जबकि तूफान घेरता है उसके मन को,
यह इतिहास नहीं/जहां
कहानियों को सहेज कर रखा गया हो....
एक-एक परत को
उघाड़ा गया है दराती-कुदालों से,
ताकि उसकी तमाम कहानियों की गुफ़ा में
झांका जा सके,
ताकि उन कहानियों में दफ़्न
मृत आत्माओं की शांति के लिए
कुछ प्रार्थनाओं को मूर्त रूप दिया जा सके,
उस निष्प्राण होती मूर्ति के चारों ओर
जहां अंधेरा ज़रूर धंस गया है,
आखिर कला की अपराजेयता की धुंध तो
छंटनी ही चाहिए न,
ताकि मनुष्य के प्रयोजनों का विस्तार हो सके.
कई बार घनीभूत यात्राएं उसकी
संभोग से समायोजन करने तक
आदमी, कितनी आत्माओं का
राजतिलक करता रहता है
हो सकता है यह उसके
विजयपथ की दुंदुभि हो
लेकिन नारी का विश्वास मरता नहीं
धुंए से ढंकती महाशून्य की शुभ्रता को
आंचल में छिपा लेती है
उस वक्त समय सवाल नहीं करता
उस खंडित मूर्ति पर होते परिहासों पर
शायद शिल्पियों की निःसंगता की वेदना को
पार लगाने के लिए ही तो इस तरह
कालजयी होने की उपाधि से सुशोभित
किया जाता है उसे,
आखिर काल का यह नाटक किस मंच
की देन हो सकता,
आखि़र नारी तो नारी ही है न,
मनुष्य की कर्मस्थली का विस्तार तो नहीं न,
मूर्ति तो उसके कर्म की आख्याओं का
प्रतिरूप भर है
तभी तो उसका आवा से गमन तक का सफ़र
जारी है आज भी,
इसीलिए उसकी कथाएं ज़रूर गुंजायमान हैं
शायद यही उसका प्राण है युगांतक के लिए
जो धधकता है मनुष्य की देह में
अनंतता के लिए.
(४)
पता जिस्म का
एक जिस्म टटोलता है
मेरे अंदर तहखाने में छिपे, कुछ जज़्बात
जिनकी क़ीमत
समय ने अपने पांवों तले दबा रखी है
उस जिस्म़ की दो आंखें एकटक
दाग़ती हैं कुछ सवालों के गोले
जिन्हें मेरी गर्म सांसें धुंआ-धुंआ करती हैं
उनकी नाक सूंघंती है
मेरे आसपास के माहौल को
जिसका पता मेरे पास भी नहीं है.
उसके होंठ कुछ पूछने को
हिलते हैं आगाह करने के लिए
उसके कान मना कर देते हैं सुनने को,
मैं उस जिस्म़ की खुदाई करता हूं,
और खाली समय में ढूंढता हूं
अपने रोपे बीज को,
जो अंधेरे में पकड़ लेता है मेरा गला
पाता हूं कि वह और कोई नहीं,
मेरे ही जिस्म़ का पता है
जहां से एक नए सफ़र का दिया
टिटिमा रहा है
(५)
आंतरिक सुकून के लिए
एक पर्वत से दूसरे पर्वत की ओर
जाता हुआ व्यक्ति/कई बार फ़िसल कर
शैवाल की नमी को छूने लगता है.
जीवन खिलने की कोशिश में
आकाश की मुंडेर पर चढ़ने के प्रयास में
अपने ही घर के रोशनदान की आंख को
फोड़ने लगता है
मौत जरूर पीछा करती है जीवात्माओं का
लेकिन जिन्दगी फिर भी पीछा करती है मौत का
सवारी गांठने के लिए,
सवारी करने की अदम्य इच्छा ही व्यक्ति को
उसकी आस्था के झंडे गाड़ने में मदद करती है.
कई बार उसे पूर्वजों द्वारा छोड़े गये,
सबसे श्रेष्ठ शोकगीत को,
गुनगुनाने के लिए लाचार भी होना पड़ता है.
जबकि समुद्र समय की चुप्पी को तोड़ने के लिए
चिघाड़ता है अहर्निष,
आखिर व्यक्ति तो व्यक्ति ही है
इसलिए उसे गीत तो गाने ही पड़ेंगे
चाहे शुरू का हो या फिर/अंतिम यात्रा की बेला का,
क्योंकि कंपन की लय/टिकने नहीं देगी उसे,
जीवन उसे खामोश होने नहीं देगा
उत्तेजित करता रहे चीखने-चिल्लाने के लिए.
उसके आंतरिक सुकून के लिए.
३ मार्च, १९५१ को कानपुर (उत्तर प्रदेश) में जन्म. अब तक निम्नलिखित कृतियां प्रकाशित :
फुनगियों पर लटका एहसास, अंधेरे के ख़िलाफ (कविता संग्रह), दूसरी मात (कहानी संग्रह), कथा दर्पण (संपादित कहानी संकलन), सतरंगे गीत , चूहे का संकट (बाल-गीत संग्रह), नटखट टीपू (बाल कहानी संग्रह).
लगभग सभी राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित.
'साहित्य दिशा' साहित्य द्वैमासिक पत्रिका में मानद सलाहकार सम्पादक और 'न्यूज ब्यूरो ऑफ इण्डिया' मे मानद साहित्य सम्पादक के रूप में कार्य किया.
संपर्क : १८८, एस.एफ.एस. फ्लैट्स, पॉकेट - जी.एच-४, निकट मीरा बाग, पश्चिम विहार, नई दिल्ली - ११००६३.
फोन : ०१११-२५२६२५४४
मोबाईल : ०९८१८९६७६३२
०९८१८४४९१६५
2 टिप्पणियां:
Sashakt kavitaon ke liye Ashok jee
ko badhaaee.
क्या लिखूं...समझ ही नहीं आता....बस इतना कि द्रवित हो गया जी...बस..!!
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