बुधवार, 8 अप्रैल 2009

लघुकथाएं



बलराम अग्रवाल की पांच लघुकथाएं

अपनी-अपनी जमीन

“बुरा तो मानोगे…मुझे भी बुरा लग रहा है, लेकिन…कई दिनों तक देख-भाल लेने के बाद हिम्मत कर रही हूँ बताने की…सुनकर नाराज न हो जाना एकदम-से…।” नीता ने अखबार के पन्ने उलट रहे नवीन के आगे चाय का प्याला रखते हुए कहा और खुद भी उसके पास वाली कुर्सी पर बैठ गई।
“कहो।” अखबार पढ़ते-पढ़ते ही नवीन बोला।
“पिछले कुछ दिनों से काफी बदले-बदले लग रहे हैं पिताजी…” वह चाय सिप करती हुई बोली, “शुरू-शुरू में तो नॉर्मल ही रहते थे—सुबह-सवेरे घूमने को निकल जाना, लौटने के बाद नहा-धोकर मन्दिर को निकल जाना और फिर खाना खाने के बाद दो-चार पराँठे बँधवाकर दिल्ली की सैर को निकल जाना। लेकिन…”
“लेकिन क्या?” नवीन ने पूछा।
“अब वह कहीं जाते ही नहीं हैं!…जाते भी हैं तो बहुत कम देर के लिए।” वह बोली।
“इसमें अजीब क्या है?” अखबार को एक ओर रखकर नवीन ने इस बार चाय के प्याले को उठाया और लम्बा-सा सिप लेकर बोला, “दिल्ली में गिनती की जगहें हैं घूमने के लिए…और पिताजी-जैसे ग्रामीण घुमक्कड़ को उन्हें देखने के लिए वर्षों की तो जरूरत है नहीं…वैसे भी, लीडो या अशोका देखने को तो पिताजी जाने से रहे…मन्दिर…या ज्यादा से ज्यादा पुरानी इमारतें,बस। सो देख ही डाली होंगी उन्होंने।”
“सो बात नहीं।” नीता उसकी ओर तनिक झुककर किंचित संकोच के साथ बोली,“मैंने महसूस किया है…कि…अपनी जगह पर बैठे-बैठे उनकी नजरें…मेरा…पीछा करती हैं…जिधर भी मैं जाऊँ!”
“क्या बकती हो!”
“मैंने पहले ही कहा था—नाराज न होना।” वह तुरन्त बोली,“आज और कल, दो दिन तुम्हारी छुट्टी है…खुद ही देख लो, जैसा भी महसूस करो।”
यों भी, छुट्टी के दिनों में नवीन कहीं जाता-आता नहीं था। स्टडी-रूम, किताबें और वह्। पिछले कई महीनों से पिताजी उसके पास ही रह रहे हैं। गाँव में सुनील है, जो नौकरी भी करता है और खेती भी। माँ के बाद पिताजी कुछ अनमने-से रहने लगे थे, सो सुनील की चिट्ठी मिलते ही नीता और वह गाँव से उन्हें दिल्ली ले आये थे। यहाँ आकर पिताजी ने अपनी ग्रामीण दिनचर्या जारी रखी, सो नीता को या उसको भला क्या एतराज होता। जैसा पिताजी चाहते, वे करते। लेकिन अब! नीता जो कुछ कह रही है…वह बेहद अजीब है। अविश्वसनीय। वह पिताजी को अच्छी तरह जानता है।
आदमी कितना भी चतुर क्यों न हो, मन में छिपे सन्देह उसके शरीर से फूटने लगते हैं। इन दोनों ही दिन नीता ने अन्य दिनों की अपेक्षा पिताजी के आगे-पीछे कुछ ज्यादा ही चक्कर लगाए; लेकिन कुछ नहीं। उसके हाव-भाव से ही वह शायद उसके सन्देहों को भाँप गए थे। अपने स्थान पर उन्होंने आँखें मूँदकर बैठे या लेटे रहना शुरू कर दिया।…लेकिन इस सबसे उत्पन्न मानसिक तनाव के कारण रविवार की रात को ही उन्हें तेज बुखार चढ़ आया। सन्निपात की हालत में उसी समय उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना जरूरी हो गया। डॉक्टरों और नर्सों ने तेजी-से उनका उपचार किया—इंजेक्शन्स दिये, ग्लूकोज़ चढ़ाया और नवीन को उनके माथे पर ठण्डी पट्टियाँ रखते रहने की सलाह दी…तब तक, जब तक कि टेम्प्रेचर नॉर्मल न आ जाए।
करीब-करीब सारी रात नवीन उनके माथे पर बर्फीले पानी की पट्टियाँ रखता-उठाता रहा। सवेरे के करीब पाँच बजे उन्होंने आँखें खोलीं। सबसे पहले उन्होंने नवीन को देखा, फिर शेष साजो-सामान और माहौल को। सब-कुछ समझकर उन्होंने पुन: आँखें मूँद लीं। फिर धीमे-से बुदबुदाये,“कहीं कुछ खनकता है…तो लगता है कि…पकी बालियों के भीतर गेहूँ खिलखिला रहे हैं…वैसी आवाज सुनकर अपना गाँव, अपने खेत याद आ जाते हैं बेटे…।”
यानी कि नीता की पाजेबों में लगे घुँघरुओं की छनकार ने पिताजी के मन को यहाँ से उखाड़ दिया! उनकी बात सुनकर नवीन का गला भर आया।
“आप ठीक हो जाइए पिताजी…” वह बोला,“फिर मैं आपको सुनील के पास ही छोड़ आऊँगा…गेहूँ की बालें आपको बुला रही हैं न…मैं खुद आपको गाँव में छोड़कर आऊँगा…आपकी खुशी, आपकी जिन्दगी की खातिर मैं यह आरोप भी सह लूँगा कि…छह महीने भी आपको अपने साथ न रख सका…।” कहते-कहते एक के बाद एक मोटे-मोटे कई जोड़ी आँसू उसकी आँखों से गिरकर पिताजी के बिस्तर में समा गए।
पिताजी आँखें मूँदे लेटे रहे। कुछ न बोले।
“सत-श्री अकाल!” निश्चिंत होकर उसने दहशतजदा सवारियों के स्वर में धीरे-से अपना स्वर मिलाया। सवारियों में से तो कोई-भी अब पीछे घूमकर देख ही नहीं रहा था।
अन्तिम संस्कार

पिता को दम तोड़ते, तड़पते देखते रहने की उसमें हिम्मत नहीं थी; लेकिन इन दिनों, वह भी खाली हाथ, उन्हें किसी डॉक्टर को दिखा देने का बूता भी उसके अन्दर नहीं था। अजीब कशमकश के बीच झूलते उसने धीरे-से, सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की को खोला। दू…ऽ…र—चौराहे पर गश्त और गपशप में मशगूल पुलिस के जवानों के बीच-से गुजरती उसकी निगाहें डॉक्टर की आलीशान कोठी पर जा टिकीं।
“सुनिए…” पत्नी ने अपने अन्दर से आ रही रुलाई को रोकने की कोशिश करते हुए भर्राई आवाज में पीछे से पुकारा,“पिताजी शायद…”
उसकी गरदन एकाएक निश्चल पड़ चुके पिता की ओर घूम गई। इस डर से कि इसे पुलिसवाले दंगाइयों के हमले से उत्पन्न चीख-पुकार समझकर कहीं घर में ही न घुस आएँ, वह खुलकर रो नहीं पाया।
“ऐसे में…इनका अन्तिम-संस्कार कैसे होगा?” हृदय से उठ रही हूक को दबाती पत्नी की इस बात को सुनकर वह पुन: खिड़की के पार, सड़क पर तैनात जवानों को देखने लगा। अचानक, बगलवाले मकान की खिड़की से कोई चीज टप् से सड़क पर आ गिरी। कुछ ही दूरी पर तैनात पुलिस के जवान थोड़ी-थोड़ी देर बाद सड़क पर आ पड़ने वाली इस चीज और ‘टप्’ की आवाज से चौंके बिना गश्त लगाने में मशगूल रहे। अखबार में लपेटकर किसी ने अपना मैला बाहर फेंका था। वह स्वयं भी कर्फ्यू जारी होने वाले दिन से ही अखबार बिछा, पिता को उस पर टट्टी-पेशाब करा, पुड़िया बना सड़क पर फेंकता आ रहा था; लेकिन आज! ‘टप्’ की इस आवाज ने एकाएक उसके दिमाग की दूसरी खिड़कियाँ खोल दीं—लाश का पेट फाड़कर सड़क पर फेंक दिया जाए तो…।
मृत पिता की ओर देखते हुए उसने धीरे-से खिड़की बन्द की। दंगा-फसाद के दौरान गुण्डों से अपनी रक्षा के लिए चोरी-छिपे घर में रखे खंजर को बाहर निकाला। चटनी-मसाला पीसने के काम आने वाले पत्थर पर पानी डालकर दो-चार बार उसको इधर-उधर से रगड़ा; और अपने सिरहाने उसे रखकर भरी हुई आँखें लिए रात के गहराने के इन्तजार में खाट पर पड़ रहा।

उम्मीद

रिक्शेवाले को पैसे चुकाकर मैंने ससुराल की देहरी पर पाँव रखा ही था कि रमा की मम्मी और बाबूजी मेरी अगवानी के लिए सामनेवाले कमरे से निकलकर आँगन तक आ पहुँचे।
“नमस्ते माँजी, नमस्ते बाबूजी!” मैंने अभिवादन किया।
“जीते रहो।” बाबूजी ने मेरे अभिवादन पर अपना हाथ उठाकर मुझे आशीर्वाद दिया। माँजी ने झपटकर मेरे हाथ से ब्रीफकेस ले लिया और उसी सामनेवाले कमरे के किसी कोने में उसे रख आईं।
“मैं कहूँ थी न—पन्द्रह पैसे की एक चिट्ठी पर ही दौड़े चले आवेंगे!” ड्राइंग-रूम बना रखे उस दूसरे कमरे में हम पहुँचे ही थे कि वह बाबूजी के सामने आकर बोलीं,“दुश्मन को भी भगवान ऐसा दामाद दे।”
“भले ही उसको कोई बेटी न दे।” बाबूजी ने स्वभावानुसार ही चुटकी ली तो मैं भी मुस्कराए बिना न रह सका।
“तुम्हें पाकर हम निपूते नहीं रहे बेटा।” उनकी चुटकी से अप्रभावित वह भावुकतापूर्वक मेरी ओर घूमीं,“चिट्ठी पाते ही चले आकर तुमने हमारी उम्मीद कायम रखने का उपकार किया है।”
चिट्ठी पाते ही चले आने के उनके पुनर्कथन ने मुझे झकझोर-सा दिया। घर से मेरे चलने तक तो इनकी कोई चिट्ठी वहाँ पहुँची नहीं थी! मिट्टी के तेल की बिक्री का परमिट प्राप्त करने के लिए कुछ रकम मुझे सरकारी खजाने में बन्धक जमा करानी थी। समय की कमी के कारण रमा ने राय दी थी कि फिलहाल ये रुपए मैं बाबूजी से उधार ले आऊँ। अब, ऐसे माहौल में, इनकी किसी चिट्ठी के न पहुँचने और रुपयों के लिए आने के अपने उद्देश्य को तो जाहिर नहीं ही किया जा सकता था।
“दरअसल, आप लोग कई दिनों से लगातार रमा के सपनों में आ रहे थे।” मैं बोला, “तभी से वह लगातार आप लोगों की खोज-खबर ले आने के लिए जिद कर रही थी। अब…।” कहते हुए मैं बाबूजी से मुखातिब हो गया,“…आप तो जानते ही हैं दुकानदारी का हाल। कल इत्तफाक से ऐसा हुआ कि मिट्टी…” अनायास ही जिह्वा पर आ रहे अपने आने के उद्देश्य को थूक के साथ निगलते हुए मैंने कहा,“सॉरी, चिट्ठी पहुँच गई आपकी। बस मैं चला आया।”

कसाईघाट

बहू ने हालाँकि अभी-अभी अपने कमरे की बत्ती बन्द की है; लेकिन खटखटाहट सुनकर दरवाजा खोलने के लिए रमा को ही जाना पड़ता है। दरावाजा खुलते ही बगल में प्रमाण-पत्रों की फाइल दबाए बाहर खड़ा छोटा दबे पाँव अन्दर दाखिल होकर सीधा मेरे पास आ बैठता है। मैं उठकर बैठ जाता हूँ। उसकी माँ रजाई के अन्दर से मुँह निकालकर हमारी ओर अपना ध्यान केन्द्रित कर देखने लगती है।
“क्या रहा?” मेरी निगाहें उससे मौन प्रश्न करती हैं।
“कुछ खास नहीं। दयाल कहता है कि इंटरव्यू से पहले पाँच हजार नगद…!”
छोटे का वाक्य खत्म होते न होते बगल के कमरे में बहू की खाट चरमराती है,“ए, सो गए क्या?” पति को झकझोरते हुए वह फुसफुसाती महसूस होती है,“नबाव साहब टूर से लौट आए हैं, रिपोर्ट सुन लो।”
एक और चरमराहट सुनकर मुझे लगता है कि वह जाग गया है। पत्नी के कहे अनुसार सुन भी रहा है, अँधेरे में यह दर्शाने के लिए उसने अपना सिर अवश्य ही उसकी खाट के पाये पर टिका दिया होगा। इधर की बातें गौर से सुनने के लिए शान्ति बनाए रखने हेतु दोनों अपने-अपने समीप सो रहे बच्चों को लगातार थपथपाते महसूस होते हैं।
“सुनो, मेरे गहनों और अपने पी एफ की ओर नजरें न दौड़ा बैठना, बताए देती हूँ।” पति के सिर के समीप मुँह रखे लेटी वह फुसफुसाती लगती है।
बड़ा बेटा पिता का अघोषित-उत्तराधिकारी होता है। परिवार की आर्थिक-दुर्दशा महसूस कर बहू इस जिम्मेदारी से उसे मुक्त कराने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रही है; लेकिन सामाजिक उपेक्षा के भय ने बड़े को जबरन इसी खूँटे से बाँधे रखा है।
“अभी तुम सो जाओ।” मेरे मुँह से फूटता है,“सवेरे सोचेंगे।”
फाइल को मेज पर रख, कपड़े उतारकर छोटा अपनी माँ के साथ लगे बिस्तर में जा घुसता है। दरवाजा बन्द करके कमरे में आ खड़ी रमा भी मेरा इशारा पाते ही बत्ती बन्द कर अपनी माँ के पास जा लेटती है। घर में अजीब-सा सन्नाटा बिखर गया है। रिश्वत के लिए रकम जुटा पाने की पहली कड़ी टूट जाने के उपरान्त कसाईघाट पर घिर चुकी गाय-सा असहाय मेरा मन अन्य स्रोतों की तलाश में यहाँ-वहाँ चकराने लगता है।
सब ओर अँधेरा है।

सेक्युलर

गाँव में पता नहीं किस बात पर दो परिवारों में लाठियाँ चल गयीं। खूब सिर फूटे, हड्डियाँ टूटीं। औरतों के कपड़े फटे और...।
पुलिस पहुँची। कुछ को अस्पताल में डाल आई, कुछ को हवालात में डाल दिया। दोनों ओर के बचे-खुचे लोग अपने-अपने आकाओं की ओर दौड़े। एक ने ‘इस’ राजनीतिक-दल का दामन थामा तो दूसरे ने ‘उस’ के तलवे चाटे।
“ओ पाट्टी किस जाती को बिलौंग करता है?” ‘इस’ के नेता ने कान को कुरेदते हुए पूछा।
“अपनी ही जाती का है ससुरा।”
“अपनी ही जाती का पाट्टी से किस ग्राउंड पर लड़ोगे?” नेता हताश स्वर में बुदबुदाया।
“मतलब?”
“मतलब ये...ऽ...कि सबरन रहा होता तो...अब किसके खिलाफ बोलेंगे?”
“बोलेंगे न सरकार…” उनकी हताशा पर वह तुरन्त बोला,“वे लोग ‘उस’ पार्टी की सपोर्ट पा रहे हैं...पुलिस पर दवाब बनाकर बाहर भी निकाल चुके हैं अपने कई आदमियों को...।”
“अइसा!” यह सुनते ही सांसद-सर की बाँछें खिल उठीं,“तब तो समझो बन गया बात...। ऊ साला कम्यूनल पाट्टी...असान्ती फैलाया इलाके में... गाँव-बिरादरी को लड़ाया आपस में...दलितों पर जानलेवा हमला कराया...पुलिस भी दलितों को ही परेशान कर रही है...। बहुत तगड़ा बेस बन गया...वाह ! ...अब देख, मैं कैसे उनकी माँ-बहन को नंगा करता हूँ भरे सदन में...। कुल दस हजार लूँगा...ला, पेशगी निकाल...।”
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डॉ. बलराम अग्रवाल का जन्म २६ नवंबर, १९५२ को उत्तर प्रदेश के जिला बुलंदशहर में हुआ था. आपने हिन्दी साहित्य में एम.ए., अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा, और ’समकालीन हिन्दी लघुकथा का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन’ विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की.

लेखन व सम्पादन : समकालीन हिन्दी लघुकथा के चर्चित हस्ताक्षर. सभी स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, लघुकथा आदि प्रकाशित. अनेक रचनाएं विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित व प्रशंसित . भारतेम्दु हरिश्चन्द्र , प्रेमचंद, प्रसाद, शरत, रवींद्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी आदि वरिष्ठ कथाकारों की चर्चित/ज़ब्त कहानियों के संकलनों के अतिरिक्त कुछेक लघु-पत्रिकाओं व लघुकथा-विशेषांकों का संपादन. प्रेमचंद की लघुकथाओं के संकलन ’दरवाज़ा’ (२००५) का संपादन. ’अडमान-निकोबार की लोककथाएं’(२००१) का अंग्रेजी से अनुवाद व पुनर्लेखन.

हिन्दीतर भारतीय कथा-साहित्य की श्रृंखला में ’तेलुगु की सर्वश्रेष्ठ कहानियां’ (१९९७) तथा ’मलयालम की चर्चित लघुकथाएं’ (१९९७) के बाद संप्रति तेलुगु की लघुकथाओं पर कार्यरत. अनेक विदेशी लुघुकथाओं पर कार्यरत. अनेक विदेशी लघुकथाओं व कहानियों के अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित.

अनेक वर्षों तक रंगमंच से जुड़ाव. कुछ रंगमंचीय नाटकों हेतु गीत-लेखन भी. हिन्दी फीचर फिल्म ’कोख’ (१९९४) के संवाद-लेखन में सहयोग.

कथा-संग्रह ’सरसों के फूल’ (१९९४), ’दूसरा भीम’ (१९९६) और ’चन्ना चरनदास’ (२००४) प्रकाशित.
सम्प्रति : स्वतन्त्र लेखन .

हिन्दी
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सम्पर्क : एम-७०, नवीन शाहदरा, दिल्ली -११००३२.
फोन . ०११-२२३२३२४९
मो. ०९९६८०९४४३१

2 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

Dr.BALRAM AGARWAAL MERE PRIY
LEKHAKON MEIN HAIN.VAH PRAYA
APNEE HAR RACHNAA MEIN KOEE
N KOEE GAHRAAYEE KEE BAAT KAH
JAATE HAIN.UNKEE APNEE-APNEE
ZAMEEN,ANTIM SANSKAAR,UMMEED,
KASAAEE GHAR AUR SECULAR JAESEE
UTKRISHT LAGHU KATHAAYEN "RACHANA
SAMAY"PAR PADH KAR BADAA SUKHAD
LAGAA HAI.HAR LAGHU KATHA MEIN
BADEE KATHA LAGEE HAI MUJHE.
" UMMEED "TO MERE EK NAZDEEKEE
DOST KEE KAHAANI HAI.BALRAM
AGARWAAL JEE NE BADEE KHOOBSOORTEE
SE KAHAANI KAA TAANAA-BAANAA BUNA
HAI.DHERON BADHAAEEYAN.

Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

हाल ही में आप के ब्लाग को पढ़ नहीं पाई थी, अति व्यस्तता ने बलराम जी की इतनी बढ़िया लघु कथाओं को पढ़ने से कुछ दिनों तक वंचित कर दिया था . आज ही इन्हें पढ़ा -क्या कहूँ ..एक -एक लघु कथा जीवन की सच्चाई, कठोरता की दास्ताँ है. अपने आप में जिंदगी के अध्याय समेटे हुए --उत्कृष्ट कथाएँ --आप दोनों को ढेरों बधाईयाँ.