वरिष्ठ कथाकार अशोक गुप्ता की दो कविताएं
(१) अंगारे का नाम
उस अंगारे को मेरा नाम नहीं मालूम
जो
मेरा पीछा कर रहा है ,
उसे बस इतना पता है
कि उसका काम
मुझे भस्म कर देना है.
उस अंगारे को
उसका नाम भी कहाँ पता है
जिसने दौड़ाया है अंगारे को
मेरी मृत्यु बना कर.
मैं चल रहा हूँ आगे आगे
पीछे पीछे अंगारा है
मैं रुकता हूँ कहीं
तो अंगारा भी रुकता है
न मैं सोता हूँ
न अंगारा
यह घटनाचक्र न जाने कब से जारी है.
अंगारा क्यों ठहर जाता है
मेरे ठहरने पर
तभी क्यों नहीं वह
चीते कि तरह झपट कर मुझे दबोच लेता
यह एक प्रश्न है.
अंगारा जानता है
कि
मेरी मुठ्ठी में आग है,
कविता है मेरी मुठ्ठी में
जिसकी फुहार
शांत कर सकती है कोई भी अग्निकांड
चाहे वह शहर में हो
या
आबादी के चित्त में...
अंगारा जानता है
कि
खाली है अंगारे की मुठ्ठी नितांत
उसे खाली करा लिया है उस नपुंसक वटवृक्ष ने
जिसने अंगारे को
मेरे पीछे दौड़ाया है.
आग
अंगारे के भी चित्त में है
लेकिन उसका नाम
शहर की आबादी से काटा जा चुका है
आबादी से कट जाने के बाद
आग में ताप भला कहाँ बचता है ?
अंगारा उस हालत में तो
चिंगारी भी नहीं होता.
अंगारा दरअसल
आबादी से जुड़ने का रास्ता खोज रहा है
जहाँ उसे उसका नाम
फिर से मिल जाय.
जो
मेरा पीछा कर रहा है ,
उसे बस इतना पता है
कि उसका काम
मुझे भस्म कर देना है.
उस अंगारे को
उसका नाम भी कहाँ पता है
जिसने दौड़ाया है अंगारे को
मेरी मृत्यु बना कर.
मैं चल रहा हूँ आगे आगे
पीछे पीछे अंगारा है
मैं रुकता हूँ कहीं
तो अंगारा भी रुकता है
न मैं सोता हूँ
न अंगारा
यह घटनाचक्र न जाने कब से जारी है.
अंगारा क्यों ठहर जाता है
मेरे ठहरने पर
तभी क्यों नहीं वह
चीते कि तरह झपट कर मुझे दबोच लेता
यह एक प्रश्न है.
अंगारा जानता है
कि
मेरी मुठ्ठी में आग है,
कविता है मेरी मुठ्ठी में
जिसकी फुहार
शांत कर सकती है कोई भी अग्निकांड
चाहे वह शहर में हो
या
आबादी के चित्त में...
अंगारा जानता है
कि
खाली है अंगारे की मुठ्ठी नितांत
उसे खाली करा लिया है उस नपुंसक वटवृक्ष ने
जिसने अंगारे को
मेरे पीछे दौड़ाया है.
आग
अंगारे के भी चित्त में है
लेकिन उसका नाम
शहर की आबादी से काटा जा चुका है
आबादी से कट जाने के बाद
आग में ताप भला कहाँ बचता है ?
अंगारा उस हालत में तो
चिंगारी भी नहीं होता.
अंगारा दरअसल
आबादी से जुड़ने का रास्ता खोज रहा है
जहाँ उसे उसका नाम
फिर से मिल जाय.
(२) नदी
नदी के लिए
कोई भी समय बुरा नहीं होता
नदी का बोध
काल से ऊपर होता है.
नदी
पहले ऊंचाई दे कर पाती है वेग
फिर
वेग दे कर विस्तार
और अंततः अस्तित्व दे कर
अथाह हो जाती है.
अस्तित्व दे कर अथाह होना
नदी होना होता है
नदी के लिए कोई भी समय
बुरा नहीं होता
****कोई भी समय बुरा नहीं होता
नदी का बोध
काल से ऊपर होता है.
नदी
पहले ऊंचाई दे कर पाती है वेग
फिर
वेग दे कर विस्तार
और अंततः अस्तित्व दे कर
अथाह हो जाती है.
अस्तित्व दे कर अथाह होना
नदी होना होता है
नदी के लिए कोई भी समय
बुरा नहीं होता
नाम वही, यानी अशोक गुप्ता, जन्मा देहरादून में 29 जनवरी 1947 को, कविताओं को लेकर अब तक बस कच्ची पक्की हाजिरी, भले कवितायें मन ही मन हमेशा पकती रहीं.
मेरा कवि निश्चित रूप से मेरे कथाकार से पहले जन्मा लेकिन कथाकार पता नहीं कैसे दौड़ कर आगे पहुँच गया. एक बार कथाकार होने का नाम पहन कर बहुतों ने कवि को आगे नहीं आने दिया, उनमें शायद मैं खुद भी रहा, लेकिन हैरत है कि कवि मरा नहीं बल्कि कभी कहानियों में घुस कर आगे आता रहा तो कभी स्वतंत्र रूप से.. .
पहल, आउटलुक हिंदी, समकालीन भारतीय साहित्य, गगनांचल, जनसत्ता और परिकथा सहित बहुत सी लघु पत्रिकाओं में कविताएँ छपीं है, रेडियो ने भी कई कई बार प्रसारित किया है, फिर भी मुझे यही लगता रहा है कि मैं अपने कवि के साथ अन्याय कर रहा हूँ. यहाँ मेरी कोशिश इसी आग्रह की पुकार को सुनना है, लेकिन इस कोशिश में मैं पाठकों के साथ अन्याय कर जाऊँ, यह मुझे मंजूर नहीं होगा. इस लिए यहाँ मेरा परिचय एक नवागंतुक भर पाएं और मेरी कविताओं के बारे में बेबाक कहें.
मेरा कवि निश्चित रूप से मेरे कथाकार से पहले जन्मा लेकिन कथाकार पता नहीं कैसे दौड़ कर आगे पहुँच गया. एक बार कथाकार होने का नाम पहन कर बहुतों ने कवि को आगे नहीं आने दिया, उनमें शायद मैं खुद भी रहा, लेकिन हैरत है कि कवि मरा नहीं बल्कि कभी कहानियों में घुस कर आगे आता रहा तो कभी स्वतंत्र रूप से.. .
पहल, आउटलुक हिंदी, समकालीन भारतीय साहित्य, गगनांचल, जनसत्ता और परिकथा सहित बहुत सी लघु पत्रिकाओं में कविताएँ छपीं है, रेडियो ने भी कई कई बार प्रसारित किया है, फिर भी मुझे यही लगता रहा है कि मैं अपने कवि के साथ अन्याय कर रहा हूँ. यहाँ मेरी कोशिश इसी आग्रह की पुकार को सुनना है, लेकिन इस कोशिश में मैं पाठकों के साथ अन्याय कर जाऊँ, यह मुझे मंजूर नहीं होगा. इस लिए यहाँ मेरा परिचय एक नवागंतुक भर पाएं और मेरी कविताओं के बारे में बेबाक कहें.
3 टिप्पणियां:
"अस्तित्व दे कर अथाह होना
नदी होना होता है"
इन पंक्तियों के सम्मुख मौन क्यों न रहूँ !
नदी कविता को अपनी प्रिय कविताओं में शुमार करना चाहता हूँ । कविता का प्रभाव भर गया है मन में । धन्यवाद ।
बहुत अच्छी कविताएं हैं। कथाकार अशोक गुप्ता को अपने कवि मन पर भी ध्यान केन्द्रित करना होगा।
नदी के लिए कोई भी समय
बुरा नहीं होता.nice.........nice........sach hai.
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