गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

पुस्तक चर्चा




‘दक्षिण भारत के पर्यटन स्थल’ पर एक पाठक के पत्र के बहाने
रचनाकार को पाठकों पर ही भरोसा करना चाहिए
मैंने अनेक वरिष्ठ और समकालीन साहित्यकारों से आलोचना और समीक्षा को लेकर जब चर्चा की तब सभी ने इनकी दयनीय स्थिति और व्याप्त राजनीति पर चिन्ता व्यक्त की । स्व॰ कमलेश्वर जी ने उत्तेजित स्वर में कहा था - ‘‘आज आलोचना है ही कहां ?’’ उन्होंने यह भी कहा था कि पाठकों से बड़ा कोई आलोचक नहीं होता । महान रूसी लेख लियो तोल्स्तोय ने भी अपने एक मित्र से चर्चा के समय कहा था कि किसी भी लेखक को आलोचको की परवाह न करते हुए उसे अपने पाठकों पर ही भरोसा करना चाहिए ।
उपरोक्त विद्वानों की बातों को जब मैं अपनी पुस्तकों के संदर्भ में देखता हूं तब पाता हूं कि पाठक की ईमानदार प्रतिक्रिया पर शक की कोई गुजांइश नहीं होती । 12 मार्च 1999 को मेरे उपन्यास ‘ पाथरटीला ’ पर प्रकाशक की ओर से संगोष्ठी का आयोजन किया गया । अध्यक्ष वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र यादव और मुख्य अतिथि वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय थे । वक्ताओं में पंकज बिष्ट ,डा॰ कुमुद शर्मा , डा॰ ज्योतिश जोशी , महेश दर्पण , रमेश उपाध्याय , रामशरण जोशी , मैत्रेयी पुष्पा और हीरालाल नागर थे ।
प्रथम वक्ता के रूप में कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने कहना प्रारंभ किया , ‘‘ मैंने राजेन्द्र जी से पूछा कि आपने कहा था कि पाथरटीला में गांव है ..... कहां है गांव........? मुझे तो उसमें कहीं गांव नजर ही नहीं आया ......... ’’ अपने लंबे वक्तव्य में मैत्रेयी जी यही सिद्ध करने का प्रयास करती रहीं कि ‘पाथरटीला ’ में गांव नामकी की कोई चीज नहीं है अर्थात उनके अनुसार उसमें ग्राम्य जीवन चित्रित ही नहीं हुआ । यहां यह बता देना अनुचित न होगा कि मैंने उसके बाद भी कई बार मैत्रेयी पुष्पा को वक्तव्य देते सुना और हर बार उनके वक्तव्य का प्रारंभ राजेन्द्र यादव जी का उल्लेख करते हुए ही हुआ । शायद राजेन्द्र जी का नामोल्लेख उन्हें बल देता होगा । मनोविज्ञान की भाषा में इसे शायद एक साहित्यकार के अंदर जमी असुरक्षा का भाव ही कहेगें । ‘पाथरटीला’ की वास्तविकता यह है कि उसमें गांव के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । बाद के वक्ताओं ने इसे सिद्ध भी किया । मैत्रेयी जी की पीड़ा मैं समझ रहा था । ‘अहम सर्वोपरि ’ से ऐसे कुतर्कों का जन्म होता है । गांव क्या होता है इसे मेरी तरह गांव से जुड़कर ही जाना जा सकता है वर्ना वातानुकूलित घर में बैठकर लोग नकली गांव की ही सर्जना कर रहे हैं और अपने जोड़-जुगाड़ से चर्चा भी बटोर रहे हैं । मैत्रेयी जी ने जो कुछ कहा वह वही था जिसे हिन्दी की सड़ी राजनीति के रूप में हम जानते हैं । मेरे उपन्यास से केवल वही परेशान थीं ऐसा नहीं था । वे भी थे जिनके लिए मैंने दूसरों से बुराई ली थी और वे भी थे जो अपने पहले उपन्यास से अपने को हिन्दी का रांगेय राघव मानने लगे थे । उनमें से एक युवा उपन्यासकार भी थे जिनका पहला उपन्यास प्रकाशित हुआ था । यद्यपि उनका उपन्यास कम चर्चित नहीं रहा था लेकिन मेरे और उपन्यास के खिलाफ उन्होंने असफल कुत्सित षडयंत्र किए । मेरे प्रकाशक श्री जगदीश भारद्वाज ने कहा , ‘‘ आपको परेशान नहीं होना चाहिए । यह उसकी परेशानी है क्योंकि उसे अपने शब्दों पर विश्वास नहीं है । आपको प्रसन्न होना चाहिए क्योंकि आपके उपन्यास ने उसकी नींद हराम कर रखी है ......।’’

इस सबके बावजूद पाठकों ने ‘पाथरटीला’ को इस प्रकार सिर-माथे लिया कि यह उपन्यास मेरे नाम का पर्याय बन गया ।

उपरोक्त बातें मेरी पुस्तक ‘ दक्षिण भारत के पर्यटन स्थल ’ पर प्राप्त एक पाठकीय पत्र ने लिखने के लिए मुझे विवश किया । इस पुस्तक के विषय में यह बताना उचित लग रहा है कि इसका प्रथम संस्करण 2000 में और चौथा 2009 में प्रकाशित हुआ । यह मेरी एक ऐसी पुस्तक है जिसे प्रकाशनोपरांत कभी किसी पत्र-पत्रिका में समीक्षार्थ प्रस्तुत नहीं किया गया । यह यात्रा संस्मरणों की पुस्तक है जिसका शीर्कष मैंने - ‘ सागर के आसपास ’ रखा था लेकिन प्रकाशक ने विशेष अनुरोध के बाद व्यावसायिक कारणों से इसका शीर्षक बदल लिया । निश्चित ही उसे इसका लाभ भी मिला और मुझे अप्रत्याशित पाठक मिले । इसे पढ़कर अयोध्या से बद्रीनाथ उपाध्याय ने मुझे जो पत्र लिखा उसे मैं रचना समय के मित्रों को पढ़वाने के उद्देश्य से ज्यों का त्यों यहां प्रस्तुत कर रहा हूं ।

प्रसंगतः यहां ऐसी ही एक घटना का उल्लेख अनुचित न होगा । यह बात 2000 की है । विवरण लंबा है । केवल इतना ही कि जालना (महाराष्ट्र ) के एक महाविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक कमलेश ठाकुर ( अब डाक्टर ) ने हैदराबाद में ,जहां के वह मूलतः निवासी हैं , मेरा कहानी संग्रह ‘आखिरी खत’ पढ़ा और निर्णय किया कि वह मेरे साहित्य पर पी-एच.डी. करेंगें और उन्होंने वह किया । ये उदाहरण तोल्स्तोय और कमलेश्वर की बातों को सही सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं और ऎसी घटनाओं ने सदैव अपने पाठकों के प्रति मेरे विश्वास को मजबूत किया है ।

प्रस्तुत है बद्रीनाथ उपाध्याय का पत्र जो कल ही मुझे प्राप्त हुआ है । पत्र में लेखक तिथि का उल्लेख करना भूल गये हैं ।

’दक्षिण भारत के पर्यटन स्थल’
नीलकंठ प्रकाशन
१/१०७९ ई महरौली; नई दिल्ली-११००३०
मूल्य : २००/- पृष्ठ - १८७

आदरणीय परम श्रध्येय रूप सिंह जी चन्देल ,

सादर प्रणाम ।
सर्वप्रथम मैं आपको अपनी तरफ से ‘‘ दक्षिण भारत के दर्शनीय (पर्यटन ) स्थल ’’ ऐसी अद्वितीय पुस्तक लिखने के लिये कोटिशः धन्यवाद देता हूं तथा विद्यादायिनी मां सरस्वती से यह प्रार्थना करता हूं कि वह आपकी लेखनी को और जन कल्याण की ओर लिखने में सहायता प्रदान करे ।

मैंने आपकी यह पुस्तक जिला पुस्तकालय से लाकर पढ़ी है । हजारों पुस्तकों के बीच में से मैंने आपकी यह पुस्तक पढ़ने को चुनी । उस समय मैंने यह सोचा था कि इस पुस्तक में दक्षिण भारत के मंदिरों के बारे में जिक्र होगा । परन्तु जब मैंने पुस्तक पढ़नी शुरू की तो आपके द्वारा अपने परिवार की मनःस्थिति एवं व्यक्तियों के विचारों को शब्दरूप में लिखने की शैली को देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया । आपने शुरूआत के दो-तीन खण्डों में जिस प्रकार रेलवे में व्याप्त अव्यवस्था का जिक्र किया उसकी तारीफ मैं शब्दों से नहीं कर सकता । मैं तो शुरू में समझ ही नहीं पाया कि आप दक्षिण भारत के बारे में लिखने जा रहे हैं या ट्रेन की यात्रा के सम्बद्ध में ।

परन्तु धीरे-धीरे मैं जैसे-जैसे आपकी यात्रा के बारे में आगे पढ़ने लगा तो जैसे मैं उसमें डूब गया । मुझे ऐसा लगने लगा कि मैं भी अपरोक्ष रूप से आपके परिवार के साथ दक्षिण भारत की यात्रा कर रहा हूं । मुझे भी देशाटन का बहुत शौक है । प्रकृति के बीच में अपने आप को पाकर मुझे बहुत खुशी होती है । आपकी यह पुस्तक पढ़कर मुझे केरल जाने की बहुत इच्छा है । देखिये प्रभु मेरी यह इच्छा कब पूरी करता है ।

मैं विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूं , एक साफ्टवेयर इंजीनियर भी हूं । साथ ही साथ उत्तर प्रदेश सरकार के अंतर्गत राजस्व विभाग में कार्य कर रहा हूं । मुझे पुस्तकों के पढ़ने का शौक हैं । नयी चुनौतियों को स्वीकार करने में मुझे खुशी होती है । यह मेरा स्वयं का परिचय है ।

आपने पुस्तक में इतना सब कुछ लिख दिया है कि एक आम आदमी अब दक्षिण भारत के उन स्थलों की आसानी से बिना गाइड के ही यात्रा कर सकता है । आपने जितने सुन्दर शब्दों का प्रयोग किया है उसे देखकर एक बार आपसे मिलने की प्रबल इच्छा हो रही है । मैं चाहता हूं कि एक बार आप भगवान राम की नगरी अयोध्या में जरूर आयें और यहां के बारे में भी लिखकर आम आदमी को भगवान राम की पवित्र नगरी के बारे में अवश्य बतायें । आपके शब्दों का जादू श्रद्धालुओं को काफी सहयोग प्रदान करेगा एवं उनके अन्दर अयोध्या आने की प्रेरणा देगा । मैं अयोध्या का रहने वाला हूं । आपको अपने स्तर से सभी सुविधा देने का प्रयास करूंगा । आप सपरिवार अयोध्या पधारने की कृपा करें । यहां मैं आपका स्वागत करूंगा ।

बस मुझे आपकी किताब में केवल केरल के एक बीच को बताते समय कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग मिला जिसको यदि आप नहीं करते तो मेरे अपने अनुसार शायद और उचित होता ।
अंत में , मैं आपको इतनी अच्छी यात्रा वृत्तांत लिखने के लिये धन्यवाद देता हूं । आपकी अन्य किताबें मैं खोजकर अवश्य पढ़ूंगा । मैं कोई साहित्य का आदमी नहीं हूं । यह मेरी टूटे-फूटे शब्दों में भावना मात्र है । आशा है आप मेरी गल्तियों को अपनी महानता का परिचय देकर माफ कर देगें ।
धन्यवाद ।
भवदीय
ह॰/-
बद्रीनाथ उपाध्याय रानोपाली (पुलिस चौकी के पास)अयोध्या फैजाबाद (उ0प्र0 ) - 224123मे0 09450775146

9 टिप्‍पणियां:

बलराम अग्रवाल ने कहा…

भाई बद्रीनाथ उपाध्याय ने बड़ी विनम्रता के साथ यह सिद्ध कर दिखाया है कि वे और कुछ चाहे न हों, साहित्य के पाठक बहुत अच्छे हैं। किसी भी लेखक को ऐसे पाठक का मिल जाना यह उम्मीद कायम करता है कि साहित्य अगर जन-भावनाओं को व्यक्त करने वाला है तो संवेदनशील पाठक उसे अवश्य ही मिलते हैं। आपको इस सफलता पर बहुत-बहुत बधाई।

रश्मि प्रभा... ने कहा…

yah patra aapki uplabdhiyon samman hai, aur main bhi iska samman karti hun.....

PRAN SHARMA ने कहा…

AAPKEE TARAH ADHIKAANSH VIDWAANO
KAA MAT HAI KI LEKHAK KEE KISEE
RACHNAA KO KOEE AALOCHAK NAHIN
UTHAATA HAI.USKO UTHAANE MEIN
PAATHAK KAA HAATH HOTAA HAI TAB
JAAKAR VAH LOKPRIY KAHLAATEE HAI.
AAPKAA LEKH HAMESHA HEE VICHAARNIY
HOTA HAI SHAYAD ISEELIYE AAPKE
LIYE BADHAAEE MUN SE NIKALTEE HAI.

सुरेश यादव ने कहा…

भाई चंदेल जी,बद्रीनाथ उपाध्याय का पत्र बड़े बड़े आलोचकों पर पाठक के भारी पड़ने की गवाही है.एक रोशनी है उन तमाम लेखकों के लिए जो आलोचकीय समर्थन की अँधेरी गुफा में पाठक को खो चुके है.एक तमाचा है उन विचारकों पर जो हिंदी के साहित्य और पाठक के बीच रिश्ते को महत्व देने के लिए तैयार ही नहीं हैं.इस पत्र में यह अहसास भी छुपा है कि सहजता ही पाठक को आकर्षित करती है जो लेखकीय इमांन से ही उपजती है.आप को मेरी हार्दिक बधाई .

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

भाई श्री रूप सिंह चंदेल जी
साहित्यकारों के बीच
ऐसी राजनीति और कटुता क्यों रहती है ?
क्या पता :-((
...
आप सही दिशा में सदा की भांति अग्रसर हों स्वयं , स्वभावानुसार तटस्थ रहते हुए
अपनी रचनाधर्मिता से जुड़े रहें इस शुभकामना सहित
विनीत,
- लावण्या

निर्मला कपिला ने कहा…

साहित्य मी इस तरह का दुराव मन को क्षुब्ध करता है। मगर पाठक ही तय करते हैं कि कौन सही है और कौन गलत। आपका लेखन सदा प्रभावित करता है क्षमा चाहती हूँ कुछ तबीयत नासाज़ रही अभी तक पत्रिका साहित्य अमृत नही पढ पाई एक दो दिन मे पढती हूँ । शुभकामनायें

सहज साहित्य ने कहा…

भाई चन्देल जी , आदमी या तो बेईमान होता है या ईमानदार । फ़िर चाहे वह क्षेत्र साहित्य का हो , राजनीति का हो , धर्म का हो या पुलिस का : बेईमान हमेशा बेईमान ही रहेगा । साहित्य में बेईमानी को छिपाने के लिए शब्दाडम्बर का सहारा मिल जाता है । छोटे दिल वाले तथाकथित बड़े साहित्यकार यदि आत्मा की आवाज़ सुनकर निष्पक्ष हो जाएँ तो साहित्य- पटल से और पाठ्य पुस्तकों से गायब हो जाएँगे ।सामान्य पाठक इनको न पहले पढ़ता था और न अब पढ़ता है । केवल पुरस्कार जुगाड़ने से कोई साहित्यकार नही बन जाता है । इनके मरने के साथ इनका साहित्य भी मर जाता है ।
रामेश्वर काम्बोज 'हिमांशु'

बेनामी ने कहा…

आप अयोध्या जरुर जाएं | पाठकों को एक और अच्छी किताब मिलेगी |
मैं भी यही मानती हूँ कि रचना का सही मूल्यांकन पाठक ही करता है | मेरी भी कहानियाँ यदि शोध के लिए ली gai हैं तो उनके पीछे पाठक -तत्व ही है|

इला प्रसाद

सुभाष नीरव ने कहा…

ऐसे संवेदनशील पाठक यदि किसी लेखक को मिल जाएं तो उस लेखक को किसी आलोचक की टिप्पणी अथवा किसी पुरस्कार की कोई ज़रूरत नहीं।