रविवार, 17 जुलाई 2011

धारावाहिक उपन्यास





गलियारे


(उपन्यास)


रूपसिंह चन्देल


भाग-एक

(चैप्टर 3 और 4)



(3)

सुधांशु कुमार दास बनारस के एक गांव का रहने वाला था। पिता सामान्य किसान। इण्टर के बाद जब सुधांशु ने पढ़ना चाहा, पिता ने आर्थिक विवशता प्रकट करते हुए पढ़ाने से इंकार कर दिया। लेकिन सुधांशु अपनी प्रतिभा को गांव में पड़े रहकर नष्ट नहीं करना चाहता था। उसने किसी प्रकार पिता को इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वे उसे केवल दिल्ली तक जाने के लिए पैसों की व्यवस्था कर दें। बहुत कसमसाहट और जद्दोज़हद के बाद पिता तैयार हुए। एक बीघा खेत दो वर्ष के लिए रेहन रखे गए। सुधांशु ने दिल्ली की ट्रेन पकड़ी। ट्रेन में उसकी मुलाकात रवि कुमार राय से हुई जो पटना से ट्रेन में चढ़ा था। यह एक संयोग था। रवि का आरक्षण जिस गाड़ी से था वह उससे छूट गयी थी। उसके पास अगली ट्रेन में अनारक्षित यात्रा करने के अतिरिक्त कोई विकल्प नहीं था। सुधांशु रवि के डिब्बे में चढा और उसके बगल में जगह देखकर बैठ गया। लगभग दो घण्टे दोनों के संवादहीनता में बीते। इस दौरान रवि फ्रण्ट लाइन पत्रिका पढ़ता रहा। पढ़कर जब वह पत्रिका बैग में रखने लगा, सुधांशु ने पत्रिका पढ़ने की इच्छा प्रकट की। फ्रण्ट लाइन से सुधांशु का वह पहला परिचय था।
''श्योर।'' रवि ने पत्रिका उसे थमाते हुए कहा।
सुधांशु ने पत्रिका लेते हुए पूछा, ''आप दिल्ली जा रहे हैं?''
''जी।''
बात इससे आगे नहीं बढ़ी। सुधांशु पत्रिका के आलेखों से बहुत प्रभावित हुआ, लेकिन उसके मस्तिष्क में एक ही बात घूम रही थी कि वह साथ वाले युवक से दिल्ली के विषय में, खासकर दिल्ली विश्वविद्यालय के विषय में जानकारी कैसे प्राप्त करे! पढ़ते हुए भी वह आलेखों को आधा-अधूरा ही पढ़ता रहा। लगभग एक घण्टा बीत गया। अंतत: संकोच तोड़ वह बोला, ''मैं भी दिल्ली जा रहा हूं।''
''हुंह...।'' रवि ने उत्सुकता नहीं दिखाई। सुधांशु का दिल बैठ गया। आध घण्टा उसने इस उहापोह में बिता दिए कि साथ बैठे युवक से वह कुछ पूछे और वह उत्तर ही न दे। लेकिन उस अनजान शहर के बारे में जानना आवश्यक था उसके लिए। उसने अब तक केवल कस्बे को ही जाना था।
''आप दिल्ली में जॉब करते हैं?'' पूछते हुए उसके चेहरे पर घबड़ाहट थी।
''नहीं।'' युवक के संक्षिप्त उत्तर ने उसे पुन: निर्वाक कर दिया। कुछ देर बाद फिर द्विविधा में बीते। उसने फिर साहस बटोरा और बोला, ''दरअसल मैं पहली बार दिल्ली जा रहा हूं।''
''अच्छा।'' सुधांशु को लगा कि जैसे युवक उससे बात करने का इच्छुक नहीं है।
कुछ पल और बीते।
''आप वहां बहुत दिनों से रह रहे हैं?''
''छ: वर्षों से।'' सधांशु के लिए यह राहत की बात थी, क्योंकि युवक के शब्दों की संख्या बढ़ी थी। उसका उत्साह भी बढ़ा।
''मैं वहां विश्वविद्यालय में प्रवेश लेना चाहता हूं, लेकिन मुझे वहां के विषय में कुछ भी जानकारी नहीं है। आप कुछ गाइड कर देंगे?''
''कितने प्रतिशत मार्क्स हैं?''
''सेवण्टी सिक्स...।''
''ओ.के.।'' युवक ने पुन: चुप्पी ओढ़ ली। ट्रेन धड़धड़ाती रही। डिब्बे में यात्रियों का शोर था। दो यात्री सीट को लेकर झगड़ रहे थे और सुधांशु के चेहरे पर तनाव था। वह रह-रहकर पास बैठे युवक के चेहरे पर नजरें डाल लेता और फिर बिना पढ़े पत्रिका के पन्ने पर टिका लेता। साथ बैठा युवक कुछ सोच रहा था।
बहुत देर की चुप्पी के बाद युवक बोला, ''साइंस थी...या..।''
''आर्ट्स...।''
''कॉलेजों के फार्म भरने होंगे....।''
''कहां से मिलेंगे फार्म?''
''मिल जाएगें...कैम्पस में ही... कल से फार्म भरने का प्रॉसेस शुरू हो रहा है। सही समय पर दिल्ली जा रहे हो।'' सुधांशु को लगा कि युवक अब अपने खोल से बाहर आ रहा है।
''मैं अंदाज से ही जा रहा था। कभी अखबार में पढ़ा था कि जून में दिल्ली विश्वविद्यालय के एडमिशन फार्म भरने का काम शुरू होता है। याद था....।''
''किसमें प्रवेश चाहते हो?'' सुधांशु को युवक अब बेहतर मूड में दिखा।
''अंग्रेजी या हिस्ट्री ऑनर्स।''
''किस कॉलेज में....?''
''मुझे वहां के कॉलेजों के विषय में बिल्कुल ही जानकारी नहीं है।''
''कैम्पस के किसी न किसी कॉलेज में आपको प्रवेश मिल जाएगा। लेकिन फार्म सभी कॉलेजों के भरने होंगे....बल्कि कैम्पस के बाहर के कॉलेजों के भी...।''
''जी...।'' सुधांशु क्षणभर बाद बोला, ''स्टेशन से सीधे विश्वविद्यालय चला जाऊंगा।'' उसने युवक की ओर देखा, ''कितनी दूर होगा स्टेशन से...?''
''पहली बार दिल्ली जा रहे हो?''
''जी ...बताया था। कस्बे से बाहर दो बार निकला....बनारस गया था। गांव से कस्बा तीन मील है....जहां मेरा इण्टर कॉलेज है। पैदल आना-जाना होता था। बनारस भी कॉलेज की ओर से गया था... उसे भी अधिक नहीं जान पाया।''
''ओह....।'' युवक ने सुधांशु के चेहरे पर नजरें गड़ा दीं, ''आप बनारस के हैं…?''
''जी।'' कुछ रुककर सुधांशु बोला, ''जी, बनारस से मेरा गांव पचास किलोमीटर है।''
''दिल्ली में कोई जानकार नहीं है ?''
''जी नहीं....पहले ही कहा था....मेरे लिए बिल्कुल अपरिचित-अनजान शहर है।''
युवक ने पुन: दीर्घ निश्वास ली।
''आप कहां के रहने वाले हैं?''
''रांची का ...पटना में पढ़ता था।''
''दिल्ली में आप....?''
सुधांशु की बात छीन ली युवक ने, ''मैंने वहां से अंग्रजी में एम.ए. किया है। अब आई.ए.एस. की तैयारी कर रहा हूं।''
''वेरी गुड।'' सुधांशु के मुंह से अनायास निकला। वह समझ नहीं पाया कि क्या कहे। वह युवक के चेहरे की ओर देखता रहा और सोचकर प्रसन्नता अनुभव करता रहा कि संभवत: वह एक भावी आई.ए.एस. के साथ बैठा है।
काफी देर बाद सुधांशु बोला, ''सर, दिल्ली में कोई ऐसी जगह.... मेरा मतलब है....धर्मशाला जैसी कोई जगह, जहां मैं महीना-दो महीना ठहर सकूं।''
''यार, तुम मुझे 'सर' क्यों कह रहे हो?'' युवक सहज स्वर में बोला, “मैं तुम्हारी समस्या समझ सकता हूं... पहली बार जा रहे हो न !''
''जी।'' सुधांशु को युवक के तुम में आत्मीयता दिखी।
''मेरा नाम रविकुमार राय है। तुम मेरे साथ चल सकते हो। कोई परेशानी नहीं।''
''आप मेरे लिए परेशानी...।''
''कोई परेशानी नहीं... मैं विश्वविद्यालय यूनियन में सचिव हुआ करता था... एक-दूसरे की सहायता से ही दुनिया चल रही है।'' युवक अब पूरी तरह खुल गया था।
''मैं...मैं...।'' सुधांशु भावुक हो उठा।
''मित्र, परेशान न हो... मेरे साथ चलना... बाद में कोई न कोई व्यवस्था हो जाएगी।''
*****

(4)

रविकुमार राय ने मुखर्जीनगर में दो कमरों का फ्लैट किराए पर ले रखा था। घर से समृद्ध था। पिता जमींदार थे। यद्यपि एक व्यक्ति के लिए दो कमरों की आवश्यकता न थी। एम.ए. करने तक वह विश्वविद्यालय के जुबली हॉस्टल में रहा था। यूनियन में सक्रियता के कारण मित्रों का दायरा बड़ा था और हॉस्टल में उसका कमरा उसकी उपस्थिति-अनुपस्थिति में मित्रों से भरा रहता था। वह चाहता तो एम.ए. करने के बाद भी हॉस्टल में बना रह सकता था, जैसा कि प्राय: सीनियर छात्र करते थे, लेकिन जब उसने आई.ए.एस. की तैयारी का निर्णय किया, हॉस्टल छोड़ दिया। उसने मित्रों से भी अपने को अलग करने का प्रयत्न किया, लेकिन न चाहते हुए भी कुछ ऐसे मित्र थे जो जब-तब उसके यहां पहुंच ही जाते थे। पहुंच ही नहीं जाते थे, रात ठहर भी जाते थे। प्रारंभ में वह एक कमरे के एकमोडेशन में रहता था, लेकिन जब वह अपने को मित्रों से नहीं बचा पाया, उसने दो कमरों का एकमोडेशन ले लिया।
सुधांशु के लिए रवि देवदूत सिद्ध हुआ। रवि ने न केवल उसके एडमिशन में सहायता की, प्रत्युत सेशन शुरू होते ही विजयनगर और मुखर्जीनगर में आठवीं और दसवीं के कुछ बच्चों के ट्यूशन भी उसे दिलवा दिए। दो महीने में ही सुधांशु इस स्थिति में पहुंच गया कि विजय नगर में एक कमरा किराए पर ले लिया और मुखर्जीनगर के टयूशन छोड़ विजयनगर में ही चार और ट्यूशन पकड़ लीं। हिन्दू कॉलेज में उसे हिस्ट्री ऑनर्स में प्रवेश मिल गया था। छ: महीनें बीतते न बीतते ट्यूशन में उसके विद्यार्थियों की संख्या बढ़ गयी थी।
* * * * *
रविकुमार राय को आई.ए.एस. के पहले प्रयास में सफलता नहीं मिली। सुधांशु जब-तब उसके यहां जाता और जब भी जाता उसे पढ़ता हुआ पाता। पहले प्रयास की असफलता ने रवि को केवल अपने कमरों तक सीमित कर दिया था। उसने विश्वविद्यालय जाना और मित्रों से मिलना छोड़ दिया था। जाने पर सुधांशु से भी वह अधिक बात नहीं करता था।
उन्हीं दिनों सुधांशु का परिचय प्रीति मजूमदार से हुआ। हुआ यों कि कॉलेज में वार्षिक उत्सव की तैयारी चल रही थी। सुधांशु भले ही छात्रों से अलग-अलग रहता था, लेकिन सांस्कृतिक कार्यक्रमों में उसकी रुचि थी। इण्टर के दौरान उसने वहां के सांस्कृतिक कार्यक्रम में भाग लिया था और कॉलेज की ओर से प्रस्तुत किए गए एक हिन्दी नाटक में अभिनय भी किया था। इस बात का उल्लेख उसने अपने एक-दो सहपाठियों से किया था। यही नहीं सेकण्ड इयर में उसे सितार सीखने की धुन सवार हुई। उसके पड़ोसी कमरे में प्रीतीश बनर्जी नाम का छात्र रहता था, जो उसी के कॉलेज में थर्ड इयर में पढ़ता था। प्रीतीश उन छात्रों में था जिनकी दुनिया अपने तक ही सीमित रहती है। प्राय: शाम पांच बजे के आस-पास प्रीतीश के कमरे से उभरते सितार का मधुर स्वर सुधांशु का ध्यान आकर्षित करता और वह मंत्रमुग्ध हो जाता।
लंबे समय तक यह सिलसिला चला। वह समय सुधांशु के ट्यूशन पढ़ाने जाने का होता था। आखिर एक दिन उसने प्रीतीश का कमरा नॉक किया। सितार ठहर गया। प्रीतीश ने दरवाजा खोला। पहली बार दोनों छात्र एक-दूसरे से उन्मुख थे, ''यस?'' प्रीतीश बोला।
''सॉरी फॉर डिस्टरबेंस...।''
प्रीतीश चुप रहा। सुधांशु ने अनुभव किया कि एक कलाकार के रियाज़ के समय उसे बाधित नहीं करना चाहिए था।
''मैं एक बात पूछना चाहता हूं....आपको सितार बजाता सुन...।'' वह क्षणभर के लिए रुका, ''क्या आप मुझे सितार बजाना सिखा सकते हैं?''
''नहीं।'' रूखा-सा उत्तर था प्रीतीश का। सुधांशु बुझ गया। लेकिन तभी उसने प्रीतीश को कहते सुना, ''पास में कमला नगर है, वहां गंधर्व महाविद्यालय की ब्रांच है.... आप वहां सीख सकते हैं।''
''थैंक्स।''
और सुधांशु ने कमला नगर के गंधर्व महाविद्यालय में प्रवेश ले लिया। कुछ अड़चन थी। वहां सितार की कक्षाओं का जो समय था वही समय उसकी ट्यूशन का था और यह संभव नहीं था कि एक बैच को ट्यूशन पढ़ाकर वह कमला नगर जाता और फिर दूसरे-तीसरे बैच को पढ़ाने के लिए पुन: विजयनगर। उसके पढ़ाने के अच्छे परिणाम का लाभ यह हुआ था कि एक वर्ष में ही वह पांच-पांच बच्चों के तीन बैच पढ़ाने लगा था। उसने किसी प्रकार दोनों में सामंजस्य स्थापित किया और सितार सीखने लगा।
दूसरे वर्ष के वार्षिकोत्सव में कॉलेज की ओर से 'मैकबेथ' का मंचन होना था और उसमें एक भूमिका उसे भी मिली थी। प्रीति मजूमदार उससे एक वर्ष जूनियर थी। वह अंग्रेजी ऑनर्स से ग्रेज्यूएशन कर रही थी। नाटक में प्रीति भी अभिनय कर रही थी। रिहर्सल के दौरान सुधांशु का परिचय उससे से हुआ था।
'मैकबेथ' में अभिनय के अतिरिक्त सुधांशु का प्रीतीश बनर्जी के साथ सितार बजाने का कार्यक्रम भी था। और दोनों में ही उसने वाह-वाही पायी थी।
वार्षिकोत्सव के बाद प्रीति मजूमदार से मिलने का सिलसिला चल निकला था। कक्षाएं समाप्त होने के बाद प्रीति उसे कैण्टीन खींच ले जाने का प्रयत्न करती, लेकिन प्रारंभिक कुछ अवसरों के बाद उसने कैण्टीन जाने या कमला नगर-जवाहर नगर के किसी रेस्टॉरेण्ट में जा बैठने से एक दिन स्पष्ट इंकार कर दिया।
''मेरा साथ पसंद नहीं?'' एक दिन प्रीति ने पूछा।
''ऐसा नहीं है।''
''आप अब कहीं भी जाने से इंकार करने लगे हैं।''
देर तक चुप रहने के बाद सुधांशु बोला, ''प्रीति, सच जानना चाहोगी?''
''क्यों नहीं।''
''मैं इन जगहों में जाना-बैठना अफोर्ड नहीं कर सकता।'' उसका चेहरा उदास हो उठा। प्रीति ने उसके चेहरे पर दृष्टि गड़ा दी, ''इसका मतलब है कि आप अपने में और मुझमें अंतर करते हैं।''
''एक छात्र के रूप में नहीं ....लेकिन पारिवारिक स्थितियां हमारी भिन्न हैं। मैंने आज तक यह नहीं जाना कि आपके पिता क्या करते हैं या पारिवारिक स्थिति क्या है आपकी, लेकिन अनुमान लगा सकता हूं। हां, मैं आज आपको स्पष्ट कर दूं कि मेरे पिता एक साधारण किसान हैं और मैं उनसे बिल्कुल ही आर्थिक सहायता नहीं लेता। लेना चाहूं भी तब भी नहीं...क्योंकि वह कर सकने की स्थिति में ही नहीं हैं।''
''यू आर सो ग्रेट सुधांशु....मेरी दृष्टि में आपका महत्व बहुत बढ़ गया। मेरे पिता भी सेल्फ मेड व्यक्ति हैं... वह मिनिस्ट्री ऑफ एजूकेशन में एडीशनल सेक्रेटरी हैं। मुझे तुम्हारी साफगोई अच्छी लगी।'' प्रीति ने अपना होठ काटा। उसके मुंह से सुधांशु के लिए 'तुम' फिसल गया था। सच यह था कि वह सोच समझकर 'तुम' बोली थी। लेकिन सुधांशु को सहज देख वह आगे बोली, ''कभी पिता से मिलवाउंगी....ही इज सो नाइस....सो डिवोटेड टु हिज वर्क....सुबह आठ बजे निकल जाते हैं ऑफिस के लिए और रात नो बजे से पहले नहीं लौटते।''
''मैं समझ सकता हूं।''
''डैड अपने सिद्धांतों से टस से मस नहीं हो सकते.... मुझे वेंकटेश्वर कॉलेज में भी एडमिशन मिल रहा था, लेकिन मैंने पहले ही उन्हें स्पष्ट कर दिया था कि साउथ कैम्पस तभी चुनूंगी जब नार्थ के किसी कॉलेज में प्रवेश नहीं मिलेगा। और जब यहां मिल गया तब उन्होंने कहा था, ''प्रीति तुम यह मत सोचना कि स्टॉफ ड्राइवर तुम्हे छोड़ने कॉलेज जाया करेगा। 'यू' स्पेशल लो या किसी दूसरी बस से जाओ-आओ। नृपेन मजूमदार दूसरे अफसरों की भांति सरकारी सुविधा का दुरुपयोग नहीं करेगा।' तो ऐसे हैं मेरे डैड।''
''आप रहती कहां हैं?''
''लोधी एस्टेट।''
''सीधी छब्बीस नंबर बस है वहां से।''
''हूं।'' क्षणभर चुप रहकर प्रीति बोली, ''सुधांशु, मेरा नाम प्रीति है...आप नहीं।''
''ओ.के.....प्रीति....।''
''किसी दिन डैडी से मिलने चलना।''
''रात नौ बजे के बाद मिलेंगे न वे।''
''ओह....यह तो मैं भूल ही गयी थी।'' वह कुछ सोचने लगी, फिर बोली, ''ऐसा कर सकते हो....किसी सण्डे को आ जाओ घर।''
''सोचकर बताउंगा।'' सुधांशु बोला, ''जिस सण्डे को वे ऑफिस नहीं जाएगें...।''
''तुम्हें कैसे पता कि डैडी सण्डे को भी ऑफिस जाते हैं।''
''कर्मठ अधिकारियों के विषय में कहा जाता है कि वे ऐसा करते हैं और बीस प्रतिशत अधिकारियों-कर्मचारियों की बदौलत सरकार चलती है।''
''यह आंकड़ा सही नहीं है, लेकिन यह चर्चा तो है ही कि सरकार के कुछ ही अफसर और कर्मचारी काम करते हैं।''
''और आपके डैडी उनमें से एक हैं।'' सुधांशु के चेहरे पर मुस्कान तैर गयी थी।
*****

2 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

उपन्यास अपनी शुरुआत में यानी पहले दो चैप्टर्स में बहुत रोचकता लिए हुए है, यही रोचकता पाठक को बांधने और उसे आगे बढ़ने में मदद करती है। कहानी-उपन्यास में यदि पाठक को बांधने की शक्ति नहीं होगी तो वह बिदक जाता है और चाहे रचना कितनी भी सशक्त क्यों न हो, वह उसे पढ़ना छोड़ देता है। तुम्हारे हर उपन्यास में रोचकता और पठनीयता का यह गुण मौजूद रहता है, इसमें भी है, आगे के चैप्टरों में पूरी आशा है कि होगा ही।
यार ! तुमने उपन्यास का नाम बहुत ही सटीक और प्रतीकात्मक चुना है। उपन्यास के शुरूआती चैप्टर से लगता है कि इसमें सरकारी दफ़्तरों के गलियारे अधिक होंगे, पर क्या गलियारे वहीं होते हैं। आज किस्म किस्म के गलियारे हमारे चारों ओर व्याप्त हैं- सत्ता के, राजनीति के, धर्म के ! पाखंड के…। आदमी के अपने भीतर भी बहुत सारे गलियारे होते हैं जिसमें वह ताउम्र भटकता रहता है! प्रेम, तृष्णा, भूख, यश, दौलत, गरीबी, परिवार, समाज, देश के अनेकानेक गलियारों में आज मनुष्य भटक रहा है। मालूम नहीं, इस उपन्यास की अप्रोच कहां तक है, लेकिन यदि यह उपन्यास बाहर के ही नहीं, आदमी के भीतर के गलियारों तक भी पहुंच पाया तो नि:संदेह एक अनौखा उपन्यास होगा। चलिए देखते हैं, क्या होता है? उत्सुकता तो तुमने जगा ही दी है।

ashok andrey ने कहा…

tumhaara upanyaas sahi gati pakad raha hai aur iski rochakta bhee barkaraar hai ummeed haiki aage bhee isi tarah logon ko bandhte hue chale gee,esi kamnaa ke saath shubhkamnaen deta hoon.