शनिवार, 13 अगस्त 2011

धारावाहिक उपन्यास


’गलियारे’

(उपन्यास)

रूपसिंह चन्देल


चैप्टर - ११ और 12


(11)
एम.ए. के दूसरे वर्ष सुधांशु ने अधिक परिश्रम किया। उसे प्रो. शांतिकुमार के शब्द याद आ रहे थे, ''सिविल सेवा परीक्षा आसान नहीं है सुधांशु। मैंने उसके फेर में युवकों को जीवन बर्बाद करते देखा है। अंतत:...।''
'सिविल सेवा परीक्षा उत्तीर्ण करने का स्वप्न नहीं त्यागना, लेकिन केवल उसे ही लेकर बैठे रहना मुझ जैसे अर्थाभाव में जीने वाले के लिए उचित नहीं होगा।' उसने सोचा, 'एम.फिल. में भी अपने को रजिस्टर्ड करवा लूंगा और सिविल सेवा परीक्षा के लिए भी...।'
एम.ए. में उसे प्रथम श्रेणी मिली। प्रीति ने हॉस्टल फोन कर परिणाम जाना और यह जानकर कि उसे चौसठ प्रतिशत अंक मिले वह चीखी थी, ''वेल डन सुधांशु...तुमने बाजी मार ली।''
''खाक...बाजी मारी...।'' सुधांशु बहुत प्रसन्न नहीं था। उसे आशा थी कि गोल्ड मेडल उसे ही मिलेगा। लेकिन गोल्ड मेडल मिला था विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के एक प्रोफेसर के पुत्र को। वह उसे जानता था और यह भी जानता था कि वह इतना प्रतिभाशाली नहीं था कि गोल्ड मेडल उसे मिलता।
'क्या परीक्षा परिणामों में भी धांधली होती है।' उसने सोचा, 'होती ही होगी...इस देश में कुछ भी संभव है। यह विश्वविद्यालय अपवाद कैसे रह सकता है। बॉटनी डिपार्टमेण्ट के विभागाध्यक्ष को अपने पुत्र के अंकों में हेरा-फेरी करने के कारण ही पद से हाथ धोना पड़ा था।'
'लेकिन कितने लोगों की चोरी पकड़ में आती है। कुछ खुल्लमखुल्ला यह सब करते रहते हैं...डंके की चोट पर और उनका बाल भी बांका नहीं होता। वर्षों तक यहां के एक हिन्दी विभागाध्यक्ष ने प्रतिवर्ष यही किया...उनसे लाभान्वित होने वालों में छात्राएं ही थीं विशेष रूप से। लेकिन वही, जिन्हें उनकी शर्तें स्वीकार थीं। उनके द्वारा नियुक्त की गई छात्राओं की खासी संख्या है यहां के कॉलेजों में और आज भी एक-दो कृतज्ञ छात्राएं उनके बुढ़ापे की लाठी बनी हुई हैं। उनके बूते ही वह व्यक्ति हिन्दी के कार्यक्रमों में शिरकत करता है। उनके कंधे पर हाथ रख वह बहुमंजिले भवनों की मंजिल-दर मंजिल सीढ़ियां चढ़ता कार्यक्रमों की अध्यक्षता करता है। विश्वविद्यालय प्रशासन...वी.सी...उसके बारे में जानते थे, लेकिन वह ऊंची पहुंच वाला व्यक्ति था। उसका एक निकट संबन्धी मंत्री था और नेहरू जी के निकट था।' उसका दम घुटने लगा था सोचते हुए। उस दिन वह हॉस्टल से बाहर लॉन में निकल आया ओर एक पेड़ की छाया में खड़ा हो गया। गर्मी थी।
'उस छात्र का पिता भी तेज तर्रार है। प्राय: क्लास नहीं लेता...हफ्ते में कभी एक दिन दिखता है...लेकिन प्रशासन उसकी मूंछ का बाल भी टेढ़ा नहीं कर सकता, क्योंकि उसका मामा केन्द्रीय मंत्री है...। वह दिन भर अपने जुगाड़ों में व्यतीत करता है या मीटिगों, सेमीनारों, वायवा आदि के बहाने शहर से बाहर होता है।' उसने लंबी सांस ली, 'उसने अपने पुत्र की नौकरी पक्की कर ली...कौन रोक सकता है उसे। वह उसे मनचाहे कॉलेज में पहले एडहॉक, फिर रेगुलर रखवा लेगा...और मैं...।' उसका दिमाग चकराने लगा। उसने आंखे बंद कर लीं। वह देर तक सोचता रहा। कितना समय बीत गया, उसे पता नहीं चला। उसके सोचने पर विराम लगा जब हॉस्टल के पोर्च में गाड़ी रुकने और तेजी से दरवाजा खुलने-बंद होने की आवाज से उसका ध्यान भंग हुआ। उसने आंखें खोली। उसे विश्वास नहीं हुआ। गाड़ी से प्रीति उतर रही थी।
''हाय...।'' प्रीति ने उसे देख लिया था और दौड़ती हुई उसके पास आई और उससे चिपट गयी।
''अरे...अरे...प्रीति...।...यह क्या?' प्रीति को अपने से अलग करता हुआ वह बोला।
''मैं बहुत खुश हूं...तुमने कमाल कर दिया।''
''मुझे छोड़ो तो...तुम्हारा ड्राइवर ...हॉस्टल...।''
प्रीति के अप्रत्याशित आलिंगन से वह इतना घबड़ा गया कि शब्द गले में ही फंस गए।
''कोई ड्राइवर नहीं...खुद ही ड्राइव करके आयी हूं और भाड़ में जायें हॉस्टल के लड़के...।''
''अच्छा मुझे छोड़ो...दम घुट रहा है।''
प्रीति ने उसके गाल को हल्के से छुआ और बोली, ''मैं इतनी दूर इसलिए नहीं आई कि तुम बोर करोगे...तुम्हारे परीक्षा परिणाम को सेलीब्रेट करने आई हूं।'' उसका हाथ पकड़ हॉस्टेल की ओर खींचती हुई वह बोली, ''तैयार हो लो...फिल्म देखने चलेंगे...।''
''मेरा मूड नहीं है।'' कमरे की ओर घिसटता हुआ वह बोला।
''मेरा मूड है और तुम्हे मेरे मूड का खयाल रखना है। मेरे पास दो खुशियां हैं...एक-डैड ने चार दिन पहले गाड़ी खरीदी और आज पहली बार मैं इसे सफलता पूर्वक ड्राइव कर यहां तक ले आई और दूसरी खुशी तुम्हारा परीक्षा परिणाम। हिस्ट्री में फर्स्ट डिवीजन कितनों को मिलता है?''
''क्यों? प्रोफेसर अनिल कृष्णन के पुत्र को छिहत्तर प्रतिशत मिले हैं...।''
''ओ.के.।'' प्रीति कुछ देर चुप उसके साथ चलती रही। सीढ़ियां चढ़ती हुई वह बोली, ''यार वह प्रोफेसर का बेटा जो है...लेकिन तुमने जो पाया वह अधिक महत्वपूर्ण है।''
वह चुप रहा।
''अब ना नुकर नहीं। तुम तुरंत तैयार हो लो। मैं यहीं कॉरीडार में खड़ी हूं...।'' उसने तुरंत संशोधित किया, ''नहीं, मैं नीचे कार में हूं...तुम दस मिनट में नीचे आ जाओ। सीधे कनॉट प्लेस चलेंगे।” और वह तेजी से सीढ़ियां उतरने लगी।
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चित्र : आदित्य अग्रवाल
(12)
यह संयोग था कि सुधांशु दास का प्रो. शांति कुमार के अधीन एम.फिल. के लिए रजिस्ट्रेशन हो गया था।
''इससे तुम्हें दो लाभ होंगे।'' प्रो. कुमार ने हॉस्टल छोड़ने के उसके निर्णय पर उसे समझाते हुए कहा था, ''हॉस्टल ही तुम्हारे लिए सुविधाजनक है...बाहर छोटे एकमोडेशन का मंहगा किराया तुम्हारे लिए कठिन होगा।''
''सर, यहां डिस्टरर्बेंस बहुत है।''
''हां,...वह मैं जानता हूं, लेकिन उसका उपाय यही है कि सुबह आठ से रात आठ तक तुम पुस्तकालय और विभाग में बिता सकते हो। हिस्ट्री डिपार्टमेण्ट की लाइब्रेरी बिल्कुल एकांत में और शांत है।'' उसकी ओर देखते हुए क्षणभर के लिए रुके प्रोफेसर कुमार, ''एम.फिल. के साथ सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी...कोचिंग...किस्मत ने साथ दिया तो ठीक वर्ना...पी-एच.डी. में रजिस्ट्रेशन करवाकर अपने लक्ष्य प्राप्ति में लग जाना। शिक्षा कभी बेकार नहीं जाती।''
''जी सर।''
वर्ष भर उसका बहुत अनुशासित कार्यक्रम रहा। पढ़ना और पढ़ाना। ट्यूशन के अतिरिक्त हडसन लाइन के एक कोचिंग सेण्टर में वह अंग्रेजी पढ़ाने लगा था...रात आठ बजे से दस बजे तक।
रात साढ़े दस बजे मेस में भोजनकर जब वह बिस्तर पर जाता इतना थक चुका होता कि सुबह पांच बजे ही उसकी नींद खुलती। सुबह आध घण्टा के लिए वह कमला नेहरू पार्क में टहलने जाता, कुछ देर वहीं हाथ पैर हिलाता, फिर हॉस्टेल लौटकर लाईब्रेरी जाने के लिए तैयार होने लगता। साढ़ आठ-नौ बजे तक वह पुस्तकालय पहुंचता...और ट्यूशन पढ़ाने जाने तक वहीं रहता।
एम.फिल. उसका हो गया, लेकिन सिविल सेवा परीक्षा में उसे सफलता नहीं मिली।
''अभी तुम्हारे पास पर्याप्त समय है।'' प्रो. शांति कुमार ने एक दिन कहा, ''कई कॉलेजों में वेकेन्सी आने वाली हैं...आवेदन करना...मैं हेड साहब से तुम्हारी सिफारिश करूंगा। एडहॉक मिल जानी चाहिए...मिल गई तब तुम्हारे संघर्ष कम हो जायेंगे।'' क्षणभर तक चुप रहकर कुमार ने आगे कहा, ''पी-एच.डी. में एनरोल करवा लो। कभी-कभी व्यक्ति को वह करना पड़ता है, जो वह नहीं चाहता।''
''मतलब सर?''
''तुम्हारी रुचि अध्यापन में नहीं है...लेकिन उसके लिए भी तैयार रहना चाहिए। अध्यापन के सुख अलग ही होते हैं।''
''जी सर।'' सुधांशु उचित शब्द तलाशता रहा अपनी बात कहने के लिए, फिर बोला, ''अध्यापकी की राह ही कौन-सा आसान है सर!''
''हां, आसान नहीं ही है।''
''सर...।''
''हां...आ।'' शांतिकुमार ने अचकचाते हुए सुधांशु की ओर देखा।
''बुरा नहीं मानेंगे?''
''अभी बुरा मानने की उम्र नहीं हुई... यानी मैं अभी खुर्राट बूढ़ा अध्यापक नहीं बना...तुम बेहिचक पूछो।'' शांतिकुमार पैंतालीस के थे।
''सर, आपका चयन कैसे हुआ था?''
''ओह।'' ठठाकर हंसे कुमार, ''बहुत अच्छा प्रश्न है।'' कुछ गंभीर हुए, ''सुधांशु, मेरी स्थितियां तुमसे भिन्न न थीं। तुम्हारे पिता के पास कुछ खेत हैं...घर को उन्होंने संभाल रखा है, लेकिन मेरे पिता मजदूर थे...एक ठेकेदार के लिए काम करते थे। इसे तुम भाग्य की बात ही समझो कि मैं पढ़ गया। पढ़ इसलिए गया कि पिता ने पांचवीं के बाद मुझे अपनी बहन यानी मेरी बुआ के घर भेज दिया था...यहीं दिल्ली। पुरानी सब्जीमंडी के पास कुम्हार बस्ती में बुआ का घर था। बुआ मुझे प्यार करती थीं, लेकिन फूफा के लिए मैं अकस्मात आया एक बोझ था। वह भुनभुनाते, लेकिन अधिक कुछ कह नहीं पाते थे। उनका एक बेटा था...इन दिनों वह दिल्ली पुलिस में है..... तो मैं उससे दो साल जूनियर था। फूफा ने सरकारी स्कूल में मुझे भर्ती करवा दिया। इंटर तक सरकारी स्कूल। स्कूल से लौटकर मैं सब्जीमंडी थाने के पास सड़क किनारे कुछ न कुछ सामान बेचता। जाड़ों में भुनी शकरकंद, सिंघाड़े और उबली आलू। गर्मी में लीची-केले। फूफा थे कर्मठ व्यक्ति। न वह मुझे खाली रहने देते और न अपने बेटे को। हम दोनों ही कुछ कमा लाते। जब ये दुकानें न होतीं तब कहीं ईंट-गारा ढो लेते या घरों में पेण्ट करने का काम कर आते। हमारी और फूफा की कमाई से घर खर्च चल जाता।''
''पढ़ने में कुछ अधिक ही कुशाग्र था। हायर सेकण्डरी में इतने अच्छे अंक मिले कि मुझे करोड़ी मल कॉलेज में प्रवेश मिल गया। मेरी दुनिया का विस्तार हुआ और आगे का जीवन मेरे लिए वैसा ही रहा जैसा अब तुम्हारा है...मैं बुआ-फूफा पर बोझ नहीं रहा। ट्यूशन की और अच्छा पैसा कमाने लगा। आगे...।'' शांति कुमार चुप हो गए।
''लेकिन मेरा प्रश्न तो अनुत्तरित ही है सर।'' सुधांशु उनके चुप होते ही बोला।
''हां, मैं उसी का उत्तर देने जा रहा था। देखो सुधांशु...यह एक ऐसा सच है, जो कोई कहना नहीं चाहता...जानते सभी हैं...जानते इसलिए हैं कि वे सब उसी प्रक्रिया का हिस्सा रहे हैं। शायद ही कोई ऐसा प्राध्यापक इस विश्वविद्यालय या कॉलेजों में होगा, जिसके पीछे सिफारिश न रही हो। कोई कितना ही प्रतिभाशाली क्यों न हो...गोल्डमेडलिस्ट हो...फिर भी यदि उसका कोई गॉड फॉदर यहां नहीं है तो उसे सरकारी-गैर सरकारी बाबूगिरी के लिए ही तैयार रहना चाहिए। मुझे भी मेरे एक प्रोफेसर पसंद करते थे। संयोग से मैं उनके अण्डर ही पी-एच.डी. कर रहा था...प्रोफेसर सलमान हैदर। डॉ. हैदर बेहद भले व्यक्ति थे।''
''अब कहां हैं सर डॉ. हैदर?'' सुधांशु पूछ गया लेकिन तुरंत ''सॉरी सर।'' कहा।
''ओ.के.। हां, प्रो. हैदर उस्मानिया विश्वविद्यालय के वी.सी बनकर चले गये थे। हैदराबाद में बस गए...बल्कि वह रहनेवाले थे ही वहां के। लेकिन क्या व्यक्ति थे...लंबे-गोरे....खूबसूरत। हिन्दी, अंग्रेजी, तेलुगू, तमिल, कन्न्ड़ ओर रशियन भाषाओं पर उनका अधिकार था...इतने विद्वान कि राजनीति से लेकर इतिहास, साहित्य से लेकर समाज...व्यापक ज्ञान और बहुत ही मानवीय। प्रतिभाओं को पहचानना और उन्हें उचित मार्गदर्शन ही नहीं उनके विकास के लिए ठोस कार्य करना...उनके स्वभाव का हिस्सा था।'' कुछ देर ठहरकर शांति कुमार बोले,'' मैं उनके चहेतों में था और मेरे लिए वह अपने हेड से अड़ गए थे। मेरा भी फर्स्ट डिवीजन था और पी-एच.डी कर रहा था। राजधानी कॉलेज में जगह थी। वहां के एक प्राध्यापक तीन वर्ष के लिए स्पेन जा रहे थे...तीन वर्ष के लिए मुझे एडहॉक नियुक्ति मिल गयी थी। इसी दौरान मेरी पी-एच.डीण् सम्पन्न हुई और मुझे उसी कॉलेज में स्थायी नियुक्ति मिली। लेकिन यह सब डॉ. सलमान हैदर के कारण ही हुआ था।''
''डॉ. हैदर जब विभागाध्यक्ष बने उन्होंने मुझे विभाग में बुला लिया। मेरे यहां आने के एक वर्ष बाद हैदर साहब वाइस चांसलर बनकर उस्मानिया विश्वविद्यालय चले गए थे।''
''सर, भाग्य से ही भले लोगों से संपर्क हो पाता है।'' सुधांशु कह गया, लेकिन तत्काल सोचा कि इस बात को डॉ. कुमार ने पता नहीं किस रूप में लिया होगा।
''आगे आने वाला समय कठिन से कठिनतर होने वाला है। जनसंख्या बढ़ रही है। सरकारें उदासीन हैं। राजनीतिज्ञ अपने वोट बैंक को ध्यान में रखकर कार्य कर रहे हैं। बांग्लादेश से यहां आ बसे लोग उनके लिए वरदान हैं...देश भले ही डूबे। ऐसी स्थिति में आगे की पीढ़ियों के लिए चुनौतियां बढ़नी हैं। इसलिए केवल एक कार्य के भरोसे रहना शायद ठीक नहीं होगा। तुम सिविल सेवा परीक्षा पर जोर रखो...लेकिन साथ में पी-एच.डी का कार्य भी करते रहो। कुछ न कुछ मिलेगा हीं''
''जी सर।''
''फिर पी-एच.डी. के लिए आवेदन कर दो....।'' उठते हुए प्रो. कुमार बोले।
''जी सर।''
''मैं हूं ही...परेशानी न होगी।''
'' जी सर।''
प्रोफेसर शांति कुमार से मिलने के बाद सुधांशु के मस्तिष्क में अंधड़ चलने लगा था।
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1 टिप्पणी:

ashok andrey ने कहा…

priya chandel tumhaara upanyaas sahi dishaa ko pakadte hue achchhi gati le rahaa hai,badhai