रविवार, 21 अगस्त 2011

धारावाहिक उपन्यास


’गलियारे’
(उपन्यास)
रूपसिंह चन्देल
चैप्टर 13 औरे 14

(13)
प्रीति कभी-कभी सुधांशु से मिलती। उनकी मुलाकातें प्राय: लाइब्रेरी के बाहर किसी चायवाले की दुकान में होतीं।
''तुम्हारा क्या इरादा है?'' एक दिन सुधांशु ने चाय पीते हुए पूछा।
''न एम.फिल....न पी-एच.डी....।''
''वह मैं पहले ही सुन चुका हूं।''
''बाबा भी यही चाहते हैं।''
''हुं...अ..।'' सुधांशु चुप रहा।
''तुम्हारे सर, शांतिकुमार तुम्हें कहीं एडहॉक लगवाने वाले थे?'' विषय बदलते हुए प्रीति ने पूछा।
''कहीं वेकेंसी होगी...और उनकी चलेगी तभी न...।''
विज्ञापन निकलते रहे, सुधांशु सभी जगह आवेदन करता रहा, शांति कुमार प्रयत्न करते रहे लेकिन सफलता नहीं मिली। मन मारकर सुधांशु ने पी-एच.डी. के लिए रजिस्टर्ड करवा लिया लेकिन शांति कुमार उसके निर्देशक नहीं रहे। उसे प्रो. अनिल कृष्णन के अधीन पी-एच.डी. करना था। प्रो. अनिल कृष्णन के निर्देशन में पी-एच.डी. करना चुनौतीपूर्ण कार्य था। उनके अधीन बहुत धैर्यशाली ही कार्य कर पाते थे...वे जिन्हें समय की चिन्ता नहीं होती थी और न धन की। प्रोफेसर कृष्णन अपने पी-एच.डी के छात्रों को निजी कार्यो में इतना संलिप्त रखते कि वे अपने शोध के लिए समय नहीं निकाल पाते। प्रो. कृष्णन ने यू.जी.सी. से प्राचीन भारतीय इतिहास पर एक प्रोजेक्ट ले रखा था और उनके छात्र उनके उस प्रोजेक्ट के लिए कार्य करते थे। स्वयं प्रो. कृष्णन देश-विदेश की यात्राएं करते रहते या छात्रों द्वारा किए कार्य को व्यवस्थित करते। क्लास में छात्रों को पढ़ाने या अपने निर्देशन में पी-एच.डी. करने वाले छात्रों को अपने कार्य करने देने की सुविधा वह प्रदान नहीं करते थे।
प्रो. अनिल कृष्णन विश्वविद्यालय में वरिष्ठ प्रोफेसर थे, इसलिए कोई छात्र उनके विरुद्ध शिकायत करने से बचता था। छात्र उनके साथ तालमेल बैठाने का प्रयत्न करते लेकिन छात्राएं धैर्य खो बैठतीं। यदि कोई धैर्य का परिचय भी देती तब उसे प्रोफेसर की उन शर्तों को स्वीकार करने के लिए तैयार रहना होता जिन्हें स्वीकार करने के लिए कोई ही छात्रा तैयार होती और जो होती कृष्णन न केवल उसकी थीसिस पूरी करवाते, बल्कि उसे स्थायी-अस्थाई प्राध्यापकी हासिल करने में अपनी पूरी ताकत झोक देते।
''बुरे फंसे सुधांशु।'' एक दिन शोकमुद्रा में बैठे सुधांशु को टोकते हुए शांति कुमार ने कहा, ''वह मेरे सीनियर हैं...कुछ कहना नहीं चाहता...लेकिन पी-एच.डी. तुम्हारे लिए कहीं मृग-मरीचिका ही न बन जाए!''
''सर, दो साल तक हॉस्टल रहेगा न मेरे पास ...वही चाहिए। प्राध्यापकी मिली नहीं...मिलेगी, मुझे संदेह है। केवल सिर छुपाने की जगह बनी रहे...सिविल सेवा परीक्षा ही मेरे लिए अब विकल्प है। कुछ नहीं हुआ तो किसी लाला की क्लर्की मिलेगी ही।''
''हताश नहीं होते...तुम वही करो और पूर्ण आस्था के साथ करो।''
और सिविल सेवा परीक्षा तक सुधांशु ने रात-दिन नहीं देखा। प्रीति ने भी आई.ए.एस. की तैयारी प्रारंभ कर दी थी। एक दिन उसने सुधांशु से कंबाइण्ड स्टडी की बात की।
''नहीं, प्रीति...मुझे बिल्कुल एकांत चाहिए...रवि की तरह।''
''ओ.के...।'' प्रीति ने दोबारा नहीं कहा।
सुधांशु तीन वर्ष से गांव नहीं गया था। उसने पिता को स्पष्ट लिख दिया था कि वह कुछ समय और गांव नहीं आ पाएगा।
अगले अटेम्प्ट में न केवल वह सिविल सेवा परीक्षा में सफल हुआ, बल्कि साक्षात्कार की सीढ़ी भी चढ़ गया था।
उसकी सफलता पर प्रीति ने उसे ट्रीट दिया और उसके पिता नृपेन मजूमदार ने उसे मिलने के लिए बुलाया। मिलने पर वह उससे ऐसे मिले जैसे एक सीनियर आई.ए.एस. अफसर अपने जूनियर अफसर से मिलता है। इस बार मजूमदार के बदले स्वरूप से वह चकित था। उसने सोचा, ''उगते सूरज को सभी नमस्कार करते है।''
उसे अपने हाथ से संदेश खिलाती प्रीति ने कहा, ''यू आर ग्रेट सुधांशु। आई लव यू।''
संदेश मुंह में रख सुधांशु प्रीति को देर तक देखता रहा। मुंह चलाना ही भूल गया।
'तो क्या इसे इसीदिन की प्रतीक्षा थी। यदि मैं सिविल सेवा के लिए न चुना जाता तो यह चुप रहती।' लेकिन शायद ऐसा नहीं होता। परोक्षतया वह कितनी ही बार अपने भाव प्रकट कर चुकी थी। मैंने ही रिस्पांस नहीं किया। निश्चित ही प्रीति अपने अंतरात्मा से मुझे प्यार करती है।'
''डू यू...।'' प्रीति ने अपनी बात पूरी नहीं की। उस क्षण वह अपने निजी कमरे में थी। मां-पिता अपने कमरे में। उस बड़े बंगले में प्रीति का कमरा बिल्कुल एकांत में पीछे की ओर था, जिसके बाहर छोटा-सा किचन गार्डन था।
सुधांशु लगातार उसे घूरता रहा, लेकिन जब प्रीति ने कुछ और कहना चाहा, उसने उसके मुंह पर हाथ रख दिया। ''कोई प्रश्न नहीं।'' और उसने प्रीति को आलिगंन में ले अपने होठ उसके होठों पर रख दिए, ''आई टू लव यू डियर...लव यू...लव यू...।'' वह देर तक उसे आलिगंनबद्ध किये रहता यदि उधर से नौकरानी के आने की आहट न मिली होती।
सुधांशु से अलग हुई प्रीति की सांस धौंकनी की भांति चल रही थी। उसकी आंखों में आल्हाद की चमक थी।
''बेबी...आप लोगों के लिए चाय लाई या कॉफी?'' नौकरानी दरवाजे के पार खड़ी पूछ रही थी। अनुभवी नौकरानी ने उन दोनों की आंखों में तैरते सपने देख लिए थे। उसके चेहरे पर हल्की स्मिति फैल गयी थी जिसे उसने तत्काल गंभीरता के आवरण से ढंका था और अपना प्रश्न दोहरा दिया था।
''सुधांशु ...चाय या कॉफी?'' प्रीति ने पूछा।
''कॉफी।''
''थैंक्यू...।'' नौकरानी मुड़ी तो सुधांशु बोला, ''समझदार है...पढ़ी-लिखी लगती है।'' उसे तत्काल अपनी मां की याद हो आयी जो निरक्षर थीं।
''क्यों नहीं...एक एडीशनल सेक्रेटरी के घर की नौकरानी जो है...इतना तो उसे आना ही चाहिए।''
''हां...कहते हैं बड़े अफसरों के घर के तोते भी अंग्रेजी बोलते हैं और कुत्ते भौंकते नहीं बार्क करते हैं।''
''जनाब ...अब आप भी उसी वर्ग का हिस्सा बनने जा रहे हैं।''
सुधांशु के चेहरे पर गंभीरता छा गई, 'क्या मैं भी अपनी जड़ों से कट जाऊंगा।' उसने सोचा, शायद नहीं...शायद...बहुत कुछ बदल जाएगा।'
''क्या सोचने लगे?''
''उंह...कुछ नहीं।'' अन्यमनस्क से उसने उत्तर दिया।
तभी ट्रे में कॉफी लिए नौकरानी कमरे में प्रविष्ट हुई, ''बेबी कॉफी....गर्म है....।''
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(14)
सुधांशु का चयन अलाइड सेवा में प्रतिरक्षा वित्त विभाग, जिसे प्ररवि विभाग कहा जाता था, के लिए हुआ। प्रशिक्षण के लिए जाने से पूर्व वह गांव गया। पिता सुबोध कुमार दास और मां सुगन्धि के पैर जमीन पर नहीं पड़ रहे थे। बेटे ने इलाके में ही नहीं जिले में उनका नाम रौशन कर दिया था। सुधांशु एक सप्ताह गांव में रहा और एक दिन भी ऐसा नहीं बीता जब गांव और दूर गांवों के लोग उससे मिलने न आए हों। मिलने आने वाले उसके पिता के परिचित ही थे, लेकिन 'वे केवल उससे मिलने आते हैं' सोचकर उसे कष्ट होता। एक दिन चौपाल में बैठा वह मिलने आए किसी व्यक्ति से बातें कर रहा था। पिता सामने चारपाई पर मेहमान के साथ बैठे थे कि घर से कुछ दूर सड़क पर एक कार आकर रुकी। कार रुकने की आवाज सुन पिता ने चौपाल से झांककर देखा। दो युवक और एक युवती पड़ोसी से कुछ पूछ रहे थे और पड़ोसी उसके घर की ओर इशारे कर कुछ कह रहा था।
कुछ देर बाद वे तीनों सुधांशु के सामने थे।
''सुधांशु जी आप ही हैं?'' एक ने पूछा।
''जी।''
''आपसे बातचीत करनी है...हम दैनिक 'आज' बनारस से हैं।''
''ओ.के.।''
उन लोगों ने लगभग एक घण्टा सुधांशु से उन्हीं विषयों पर बातचीत की जिन पर दिल्ली में टाइम्स ऑफ इंडिया और हिन्दुस्तान टाइम्स के पत्रकार उससे कर चुके थे। आपने कोचिंग की थी, आपको प्रेरणा किससे मिली, कितने घण्टे पढ़ते थे, भविष्य में क्या करना चाहेंगे....दूसरों युवाओं के लिए कोई संदेश आदि...आदि...।''
दैनिक 'आज' की टीम के जाने के बाद आगन्तुक सज्जन, जो सुधांशु के दूर के रिश्तेदार थे और पन्द्रह किलोमीटर दूर एक गांव के समृद्धतम व्यक्तियों में से थे, सुधांशु की पीठ थपथपाते हुए बोले, ''बेटा, तुमने घर का ही नहीं हम सबका ...इलाके का नाम रोशन किया है...।''
यह बात...बिल्कुल यही बात सुधांशु ने हर आने वाले के मुख से सुनी थी। वह चुप रहा।
''बेटा अनुभव में बाल सफेद किए हैं...एक सलाह देना चाहता हूं।''
''जी...।'' सुधांशु इतना ही कह सका। सुबोध कुमार दास कभी अतिथि, जिनका नाम जतिन दास था, तो कभी सुधांशु की ओर देख रहे थे। जब से बेटे के आई.ए.एस. होने का समाचार उन्हें मिला खुशी के साथ बेटे के प्रति एक संकोच उनके मन में बैठ गया था। संकोच था कि कल तक वह जिस बेटे को डांट-फटकार लेते थे, सलाह दे देते थे...अब वह एक बड़े ओहदे का मालिक होगा जिसके मातहत सैकड़ों-हजारों लोग काम करेंगे। 'इतने काबिल बेटे को सलाह देने की काबिलियत कहां है मुझमें!' सुबोध कुमार दास सोचते। जतिन कुमार दास की बात से उन्हें लगा कि कहीं सुधांशु उनकी सलाह सुन बुरा न मान जाये...कुछ कह न दे।
''बेटा, अब तुम्हें नौकरी की चिन्ता नहीं...भगवान की कृपा है...ट्रेनिंग के बाद तुम शादी कर लेना। मां-बाप भी निश्चिंत होंगे और तुम्हारा जीवन भी सुखी रहेगा।''
''जीं....'' जतिन दास को टालने के उद्देश्य से सुधांशु ने उत्तर दिया।
जतिन दास का हौसला बढ़ा। मुड़कर उसने सुबोध की ओर देखा, ''सुबोध, सुधांशु ने मेरी सलाह मान ली है...अब मैं तुम्हें कुछ कहना चाहता हूं।''
सुबोध जतिन दास के चेहरे की ओर देखने लगे।
''पुत्रबधू के लिए तुम्हें भटकने की आवश्यकता नहीं सुबोध। मेरी बेटी सरोजनी इस वर्ष एम.ए. के अंतिम वर्ष में है। बी.एच.यू. में पढ़ रही है। भगवान ने चाहा तो लेक्चरर भी बन जाएगी...।'' क्षणभर तक सुबोध दास के चेहरे की ओर देखते रहे जतिन दास फिर बोले, ''अधिक मत सोचना। बिटिया थोड़ा सांवली है...लेकिन नाक-नक्श सुन्दर ...हजारों में एक है।''
''भइया, सुधांशु की ट्रेनिंग खत्म हो लेने दें।''
''अरे, वह तो होनी ही है...अब सुधांशु को कौन रोक सकता है। तुम आज ही रिश्ता पक्का कर लो...।''
सुधांशु ने पिता की ओर देखा।
''भइया...इतनी जल्दी क्या है?''
''तुम टालना चाहते हो?''
सुधांशु बिना आहट चारपाई से उतरा और पड़ोसी के घर जा बैठा। उसके जाते समय पिता ने उसे देखा और उसने भी पिता की आंखों में देखा था, जिसका अर्थ सुबोध समझ गए थे।
''टालने की बात नहीं भइया। लेकिन जवान बेटे की इच्छा जाननी ही होगी।''
''जान लो और चाहो तो मेरे साथ बेटे को लेकर मेरे घर चलो। बिटिया आजकल गांव में ही है। तुम दोंनो उसे देख लो...तभी बात पक्की करना।''
''भइया, सुधांशु को कल ही जाना है। आप उसकी ट्रेनिंग खत्म होने तक सब्र करें।''
''मैं कर लूंगा...पांच साल सब्र। लेकिन जुबान मिल जाए तब।'' कुछ देर तक सुबोध की ओर देखते रहने के बाद जतिन आगे बोले, ''सुबोध, इतना रुपया दूंगा...इतना सब सामान ...कार....घर भर दूंगा। कोई भी इतना नहीं देगा। तुम सोचकर बताना।'' और चारपाई से उठ खड़े हुए थे जतिन दास।
''जरूर बताइब भइया।'' जतिन के साथ ही सुबोध भी उठ खड़े हुए, ''शाम को चले जाते भइया....धूप तेज हैं।''
''मुझे धूप की परवाह नहीं...सड़क पर उतरते हुए जतिन दास ने कहा, ''मुझे एक हफ्ते में जवाब दे देना। बिटिया सयानी है...बात बनती है तब जितना कहोगे इंतजार कर लूंगा...।''
''जी भइया।''
जतिन दास के जाने के बाद चौपाल पर चारपाई पर लेट हाथ का पंखा झलते हुए देर तक सोचते रहे सुबोध, 'रिश्ता बुरा नहीं है।'
'बेटा दुनिया-जहान में घूमेगा, कब ऊंच-नीच हो जाए, इसलिए जल्दी ही उसे खूंटे से बांध देना चाहिए। बंध जाने के बाद रस्सी कितनी भी लंबी कर ले...कहीं भी घूमे-जाए, लेकिन खूंटा उसे नियंत्रित रखेगा।' सुबोध दास सोच रहे थे।
रात सुबोध ने सुधांशु से जतिन दास की चर्चा छेड़ी। सुधांशु चुप पिता की बात सुनता रहा।
''बेटा, उनकी बिटिया मैंने देखी है। बहुत होशियार है पढ़ने में और सुशील भी है। जतिन कह रहे थे कि आजकल वह गांव में ही है...तुम कल के बजाए परसों चले जाना...कल चलिके उनकी बिटिया को देख लो।''
''किसलिए?'' सुधांशु के स्वर ने चौंकाया सुबोध को, 'यह आवाज उनके सुधांशु की नहीं...।'
''जतिन चाह रहे हैं कि...।'' अटक गये सुबोध।
''मुझे पता है जतिन काका क्या चाह रहे हैं? कल भी तो ये आपके रिश्तेदार ही थे न पिता जी?''
''हां...आं...।''
''मेरी पढ़ाई के लिए सबसे पहले आप इन्हीं के यहां रुपये उधार मांगने गए थे...इन्हें ही खेत रेहन रखना चाहा था।''
चुप रहे सुबोध।
''तब टका-सा जवाब दिया था इन्होंने। आपका बुझा हुआ चेहरा आज भी मुझे याद है। याद है न आपको...क्या कहा था?''
पिता टुकुर-टुकुर ताकते रहे थे बेटे के चेहरे की ओर।
''रुपए पेड़ों पर नहीं फलते...लंबी-चौड़ी काश्तकारी...बड़े खर्च...कुछ नहीं बचता....फिर पन्द्रह किलोमीटर दूर खेत रेहन रखने का मतलब भी क्या! उसका कुछ कर भी नहीं सकते।''
''नहीं रहे होंगे रुपये तब जतिन के पास। होता है कभी-कभी...आदमी कितना भी धनवान हो...खाली हाथ भी होता है वह कभी। जतिन ने नहीं दिया तो क्या तुम्हारी पढ़ाई रुक गयी? भगवान की दया से आज तुम इस काबिल हो गए हो...।''
''नहीं रुकी, लेकिन आपको खेत रेहन रखने पड़े थे।''
''तुम भी सुधांशु....गड़े मुर्दे उखाड़ने लगे।''
''तुम चप रहो सुधांशु के पापा...लड़का ठीक कह रहा है।'' सुगन्धि, जो बर्तन मांजते हुए पिता-पुत्र की बातें सुन रही थी, बर्तन धोकर नहा पर रखे झाबे में रख धोती से हाथ पोछती हुई निकट आकर बोली, ''तुम किस दुष्ट के घर बेटे को ब्याहने की बात सोच रहे हो सुधांशु के पापा?''
'बेटे के आई.ए.एस बनते ही बुढ़िया भी अंग्रेज हो गयी...मैं बापू से पापा बन गया।' मन ही मन मुस्काए सुबोध।
''कसाई है जतिन ...ऐसे नहीं करोड़पति बना...गरीबों का खून चूस-चूसकर बना है रईस ...तुम्हें भी पता है सुधांशु के पापा। जब मेरा विवाह हुआ था तब उसके घर केवल एक जोड़ी बैलों की काश्त थी, लेकिन रुपये उधार देने...खेत रेहन रखने के काम से आज उसके पास सैकड़ों बीघा जमीन है। घर के सभी लोंगो के नाम करवा रखी है उसने जमीन। सुना है मजदूरों पर ऐसा कोड़े बरसाता है कि क्या जल्लाद करेगा।''
'ऐसा?'' सुधांशु चोंका।
''अरे बेटा, दौलत देखकर तुम्हारे पापा की आंखें बंद हो रही हैं...बाकी जानते यह भी हैं सब। जिनके खेत रेहन रखता रहा, कल को वे ही उसके यहां मजदूरी के लिए मजबूर हुए। खेत गए...शरीर भी गया उनका। हाड़ तोड़ मेहनत करवाता है और पैसे मांगने पर आधी-अधूरी मजूरी...कभी वह भी नहीं...अधिक कहने पर कोड़े।''
''पुलिस-प्रशासन तक बात पहुंची?'' सुधांशु का खून खौल उठा। 'काश! वह अलाइड में न आकर प्रापर आई.ए.एस. बनता...लेकिन अभी भी क्या ...प्रापर पोस्टिंग के बाद इस व्यक्ति के खिलाफ केस किया-करवाया जा सकता है।' सोचने लगा था सुधांशु।
''बेटा, तुम्हारी मां कुछ अधिक ही बढ़ा-चढाकर बता रही हैं। वैसे जतिन ही क्यों.... देश के कुछ ही जमींदार भले मिलेंगे...बाकी सभी गरीबों का खून चूसकर ही मोटे होते हैं...और रही बात पुलिस-प्रशासन की...उनकी सेवा होती रहती है...काम चलता रहता है। गरीब मरता रहता है।''
''ऐसे आदमी के यहां संबन्ध जोड़ने की बात आपने सोची कैसे?''
''बेटा, पुरानी रिश्तेदारी...जाति-बिरादरी...।''
''पिता जी...ये बातें बहुत पुरानी हो चुकी हैं...कम से कम मैं इन्हें नहीं मानता।''
''क्या कह रहे हो सुधांशु?'' मां-पिता के मुंह से एक स्वर में निकला।
'जरूर कुछ गड़बड़ है सुबोध। बेटा गया अब हाथ से।' तत्काल सुबोध कुमार दास के मस्तिष्क में विचार कौंधा।
''ठीक कह रहा हूं मां...जात-पांत कोढ़ है हमारे समाज के लिए। जब तक यह बरकरार है जतिन दास जैसे पिस्सू जिन्दा रहेंगे।''
''बेटा, जिस दिन जात-पांत मिट गयी उस दिन इस देश की पहचान क्या रहेगी! देश की सबसे बड़ी पहचान यही है न!''
पिता की बात से चौंका सुधांशु।
''पिता ने व्यंग्य किया या सहज-स्वाभावित भाव से यह बात कही।' सुधांशु सोचता रहा।
''पिता जी, अभी मुझे बहुत से पापड़ बेलेने हैं। ट्रेनिंग के बाद दो साल का प्रोबेशन होता है....सब कुछ जब तक सफलतापूर्वक सम्पन्न नहीं हो जाता...आप इस बारे में नहीं सोचेगे। मुझे बेफिक्र होकर नयी जिन्दगी शुरू करने दें।''
''बेटा हर कदम पर तुम हम दोंनो को अपने साथ पाओगे। मन को दुखी न करो...।'' गमछे से आंखों की कोरें पोछते हुए सुबोध बोले, ''जतिन को मैं बहुत अच्छी तरह जानता हूं। पसंद नहीं वह मुझे भी। बस जाति-बिरादरी ...पुरानी रिश्तेदारी का मोह...मैं उसकी बातों में भटक गया था। लेकिन तुम बेफिक्र होकर कल अपनी नयी जिन्दगी शुरू करने जाओ। हम दोनो का आशीर्वाद तुम्हारे साथ रहेगा। तुमने हमें जो सुख दिया भगवान सभी मां-बापों को वह सुख दे।'' एक बार फिर भावावेश में छलक आई आंखों को गमछे से पोछते हए सुबोध बोले।
''सुख अभी कहां दिया पिता जी...।''
''तुमने दुनिया में मां-बाप का नाम रौशन किया...किसी के लिए इससे बड़ा सुख और क्या होगा।''
''चलो खाना तैयार है।'' सुगन्धि ने पति को पुन: भावुक होते देख विषय बदला। वह जानती थी कि भावुक क्षणों में पति रोने लगते हैं।
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1 टिप्पणी:

ashok andrey ने कहा…

is upanyaas ansh ke maadhayam se rishte jodne waalo ko bahut sateek tareeke se vayakhit kiya hai jab upree paydano par chadte yuvaon k0 kaish karte dikhai dete hain jab ki vahi log pehle usi parivar ko kis tarah se shoshan karte hai iska chittran achchhe tarike se kiya hai.main is upanyaas ke prati kaaphi aashanvit hoon.shubhkamnaon sahit.