बुधवार, 31 दिसंबर 2008

आलेख






शहीदों की लाशों पर वोटों की राजनीति
रूपसिंह चन्देल

महाराष्ट्र के आई.पी.एस. अधिकारी हेमंत करकरे की २६.११.०८ को मुम्बई आतंकवादी हमलों में हुई मृत्यु पर प्रश्न चिन्ह लगाकर उसे मालेगांव विस्फोट से जोड़ते हुए उसकी जांच की मांग करने वाले केन्द्रीय मंत्री ए.आर.अंतुले ने जो विवाद उत्पन्न किया उससे न केवल कांग्रेस संकट में घिर गयी बल्कि उससे पाकिस्तान को एक ऎसा हथियार उपलब्ध हो गया जिसका उपयोग उसने अपने ऊपर लगे आरोपों से दुनिया का ध्यान हटाने के लिए करना प्रारंभ कर दिया. लाहौर बम विस्फोट के लिए उसने भारत को जिम्मेदार ठहराते हुए कोलकता निवासी एक युवक को गिरफ्तार करने का दावा करते हुए यहां तक कह दिया कि भारत की धरती पर आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर हैं जिन्हें भारत नष्ट करे. ऎसा उसने पहली बार किया था और ऎसा मान्यवर अंतुले जी के वक्तव्य के बाद कहा गया. लेकिन पकिस्तानी झूठ का पर्दाफाश एक तालिबानी संगठन ने लाहौर बम विस्फोट की जिम्मेदारी लेकर कर दिया.

अंतुले साहब ने ऎसा क्यों कहा, इसका विश्लेषण कठिन नहीं है. इसका सीधा संबन्ध वोट बैंक से है. लेकिन ऎसा कहते समय वह यह कैसे भूल गये कि मारे गये पाकिस्तानी आतंकवादियों को मुम्बई में दफनाये न दिये जाने का निर्णय वहां के धार्मिक नेताओं ने किया था . यही नहीं जिस प्रकार से देश के लगभग सभी मुस्लिम संगठनों ने इस हमले की भर्त्सना की वह न केवल पहली बार था बल्कि प्रशंसनीय था. अंतुले जी के साथ कुछ मुस्लिम नेता अवश्य खड़े दिखे लेकिन उनकी संख्या नगण्य थी. अंतुले जी कितने ही बड़े नेता क्यों न हों, लेकिन वह संपूर्ण देश के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते . वक्त्व्य देते समय उन्होंने उस पर होने वाली तीखी प्रतिक्रिया और अपनी फजीहत का अनुमान नहीं लगाया होगा. इस प्रकरण में कुछ कम्युनि्स्ट नेता अंतुले के साथ खड़े दिखाई दिये. संभव है किसी वरिष्ठ कांग्रेसी नेता की शह भी रही हो उन्हें . इस अनुमान को खारिज भले न किया जाये, लेकिन अंतुले जैसा वरिष्ठ नेता किसी के बहकावे में ऎसा आत्मघाती बयान देगा इस पर सहज विश्वास नहीं होता. दरअसल यह अंतुले जी की निजी सोच और वोट की राजनीति का ही परिणाम था. वह इतने भोले नहीं कि अपने वक्तव्य के भावी परिणाम से अनभिज्ञ थे. वह निश्चित ही जानते थे कि वह पाकिस्तान को हथियार थमाने जा रहे हैं.
हमारे देश के अधिकांश राजनीतिज्ञों के लिए देश से अधिक महत्वपूर्ण उनकी सीट है. सीट के लिए वे कुछ भी कर गुजरने में शर्म अनुभव नहीं करते.ये धर्मनिरपेक्षता का पाखण्ड करते हुए धार्मिक सद्भाव बिगाड़ने में सबसे आगे होते हैं. बांटो और शासन करो की नीति इन्हें विरासत में मिली है.

मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले में शहीद हुए लोगों की लाशों पर इन अवसरवादी राजनीतिज्ञों ने पहली बार अपने वोटों की राजनीति नहीं की, दिल्ली के बाटला हाउस में शहीद हुए मोहन चन्द शर्मा को लेकर कई नेताओं ने ऎसी ही राजनीति की थी. उनके नाम पुनः यहां दोहराने की आवश्यकता नहीं, लेकिन इतना कहना आवश्यक लग रहा है कि तब भी हमारे कम्युनिस्ट नेताओं ने उन छद्म धर्मनिरपेक्षों के स्वर में स्वर मिलाते हुए बाटला हाउस मुठभेड़ की सी.बी.आई. जांच की मांग की थी. कम्युनिस्ट नेताओं की समझ और उनके देश हित सम्बन्धी सोच को इस बात से ही समझा जा सकता है कि कांग्रेस से समर्थन वापस लेने के बाद खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचने वाले तर्ज पर उन्होनें मायावती को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करना प्रारभ कर दिया था. अब वे जयललिता की ओर उन्मुख हैं. ये दोनों महिला नेता भष्टाचार में आकंठ डूबी हुई हैं यह सभी जानते हैं और वे भी यह जानते हैं. उनके दयनीय आचरण, बौद्धिक दिवालियेपन और अवसरवादी राजनीति को जनता नहीं समझती यदि वे ऎसा मानते हैं तो यह उनका दुर्भाग्यपूर्ण भ्रम ही कहा जायेगा.

लेकिन मुम्बई हमले को कुछ बुद्धिजीवी भी अंतुले साहब की नजरों से ही देख रहे हैं. हाल ही में अरुन्धती राय का वक्तव्य आश्चर्यजनक था. लेखक को एक संवेदनशील प्राणी माना जाता है. उन्होंने कहा था कि मुम्बई हमला कश्मीर, गुजरात और बाबरी मस्जिद विध्वंस की प्रतिक्रिया था. सुश्री राय का वक्तव्य चौंकाता है. 'बाटला हाउस' को लेकर भी उन्होंने संदेह व्यक्त किया था. हिन्दी के कुछ लेखकों ने भी बाटला हाउस मुठभेड़ को फेक कहा था और कहा था कि मोहनचन्द शर्मा को दिल्ली पुलिसवलों ने ही गोली मारी थी और कि मारे गये या पकड़े गये युवक निर्दोष थे. अरुधंती राय ने कश्मीर में अमरनाथ भूमि विवाद के दौरान अलगाववादियों के पक्ष में बयान देते हुए कहा था, " भारत को कश्मीर को मुक्त कर देना चाहिए ----- इससे भारत स्वयं उस समस्या से मुक्त हो जायेगा." सुश्री राय से पूछा जाना चाहिए कि कश्मीर को मुक्त कर देने के बाद क्या भारत आंतकवादी हमलों से पूर्णरूप से मुक्त हो जाएगा और क्या वह यह मानती हैं कि भारत ने कश्मीर पर अवैध कब्जा कर रखा है . उनके इस वक्तव्य से ध्वनि तो यही निकलती है. लोकतंत्र में किसी को कुछ भी कहने का अधिकार है --- यह तो कहनेवाले को सोचना चाहिए कि वह कोई ऎसी बात न कहे जिससे देशद्रोह की गंध आती हो. जहां तक मैं समझता हूं अरुन्धती राय शायद ही कभी सक्रिय राजनीति में आयेंगी , अतः उन्हें अंतुले जैसे नेताओं की भांति नहीं बोलना चाहिए. गैरजिम्मेदार बयान देना और मुकर जाना अधिकांश नेताओं की विशेषता है, जिनके सरोकार केवल और केवल निजी होते हैं , लेकिन लेखक ------ उसे देश और समाज के प्रति बेहद जिम्मेदार होना चाहिए.

बुधवार, 19 नवंबर 2008

लघु कहानियां








सुधा ओम ढींगरा की दो लघु कहानियां

लड़की थी वह------

कड़ाकेदार सर्दी की वह रात थी. घर के सभी सदस्य रजाइयों में दुबके पड़े थे. दिन भर से बिजली का कट था जो पंजाब वासियों के लिए आम बात है. इन्वर्टर से पैदा हुई रौशनी में खाने पीने से निपट कर, टी.वी न देख पाने के कारण समय बिताने के लिए अन्ताक्षरी खेलते-खेलते सब सर्दी से ठिठुरते रजाइयों में घुस गए थे. दिसम्बर की छुट्टियों में ही हम दो तीन सप्ताह के लिए भारत जा पातें हैं. बेटे की छुट्टियां तभी होतीं हैं. दूर दराज़ के रिश्तेदारों को पापा घर पर ही मिलने के लिए बुला लेतें हैं. उन्हें लगता है कि हम इतने कम समय में कहाँ-कहाँ मिलने जायेंगे. मिले बिना वापिस भी नहीं आया जाएगा. हमारे जाने पर घर में खूब गहमागहमी और रौनक हो जाती है. बेटे को अमेरिका की शांत जीवन शैली उपरांत चहल-पहल बहुत भली लगती है. हर साल हम से पहले भारत जाने के लिए तैयार हो जाता है. दिन भर के कार्यों से थके मांदे रजाइयों की गर्माहट पाते ही सब सो गए. करीब आधी रात को कुत्तों के भौंकनें की आवाज़ें आनी शुरू हुई...आवाज़ें तेज़ एवं ऊंचीं होती गईं. नींद खुलनी स्वाभाविक थी. रजाइयों को कानों और सिर पर लपेटा गया ताकि आवाज़ें ना आयें पर भौंकना और ऊंचा एवं करीब होता महसूस हुआ जैसे हमारे घरों के सामने खड़े भौंक रहें हों.....हमारे घरेलू नौकर-नौकरानी मीनू- मनु साथवाले कमरे में सो रहे थे. उनकी आवाज़ें उभरीं--'' रवि पाल (पड़ौसी) के दादाजी बहुत बीमार हैं, लगता है यम उन्हें लेने आयें हैं और कुत्तों ने यम को देख लिया है ''''नहीं, यम देख कुत्ता रोता है, ये रो नहीं रहे ''''तो क्या लड़ रहें हैं''''नहीं लड़ भी नहीं रहे '''''ऐसा लगता है कि ये हमें बुला रहें हैं''''मैं तो इनकी बिरादरी की नहीं तुम्हीं को बुला रहे होंगें''बाबूजीकी आवाज़ उभरी---मीनू, मनु कभी तो चुप रहा करो. मेरा बेटा अर्धनिद्रा में ऐंठा--ओह! गाश आई डोंट लाइक दिस. तभी हमारे सामने वाले घर का छोटा बेटा दिलबाग लाठी खड़काता माँ बहन की विशुद्ध गालियाँ बकता अपने घर के मेनगेट का ताला खोलने की कोशिश करने लगा. जालंधर में चीमा नगर (हमारा एरिया)बड़ा संभ्रांत एवं सुरक्षित माना जाता है. हर लेन अंत में बंद होती है. बाहरी आवाजाई कम होती है. फिर भी रात को सभी अपने-अपने मुख्य द्वार पर ताला लगा कर सोते हैं.उसके ताला खोलने और लाठी ठोकते बहार निकलने की आवाज़ आई. वह एम्वे का मुख्य अधिकारी था और पंजाबी की अपभ्रंश गालियाँ अंग्रेज़ी लहजे में निकल रहीं थीं. लगता था रात पार्टी में पी शराब का नशा अभी तक उतरा नहीं था. अक्सर पार्टियों में टुन होकर जब वह घर आता था तो ऐसी ही भाषा का प्रयोग करता था. उसे देख कुत्ते भौंकते हुए भागने लगे, वह लाठी ज़मीन बजाता लेन वालों पर ऊंची आवाज़ में चिल्लाता उनके पीछे-पीछे भागने लगा ''साले--घरां विच डके सुते पए ऐ, एह नई की मेरे नाल आ के हरामियां नूं दुड़ान- भैन दे टके. मेरे बेटे ने करवट ली--सिरहाना कानों पर रखा--माम, आई लव इंडिया. आई लाइक दिस लैंगुएज. मैं अपने युवा बेटे पर मुस्कुराये बिना ना रह सकी, वह हिन्दी-पंजाबी अच्छी तरह जानता है और सोए हुए भी वह मुझे छेड़ने से बाज़ नहीं आया. मैं उसे किसी भी भाषा के भद्दे शब्द सीखने नहीं देती और वह हमेशा मेरे पास चुन-चुन कर ऐसे-ऐसे शब्दों के अर्थ जानना चाहता है और मुझे कहना पड़ता है कि सभ्य व्यक्ति कभी इस तरह के शब्दों का प्रयोग नहीं करते. दिलबाग हमारे घर के साथ लगने वाले खाली प्लाट तक ही गया था( जो इस लेन का कूड़ादान बना हुआ था और कुत्तों की आश्रयस्थली) कि उसकी गालियाँ अचानक बंद हो गईं और ऊँची आवाज़ में लोगों को पुकारने में बदल गईं --जिन्दर, पम्मी, जसबीर, कुलवंत, डाक्डर साहब(मेरे पापा)जल्दी आयें. उसका चिल्ला कर पुकारना था कि हम सब यंत्रवत बिस्तरों से कूद पड़े, किसी ने स्वेटर उठाया, किसी ने शाल. सब अपनी- अपनी चप्पलें घसीटते हुए बाहर की ओर भागे. मनु ने मुख्य द्वार का ताला खोल दिया था. सर्दी की परवाह किए बिना सब खाली प्लाट की ओर दौड़े. खाली प्लाट का दृश्य देखने वाला था. सब कुत्ते दूर चुपचाप खड़े थे. गंद के ढेर पर एक पोटली के ऊपर स्तन धरे और उसे टांगों से घेर कर एक कुतिया बैठी थी. उस प्लाट से थोड़ी दूर नगरपालिका का बल्ब जल रहा था. जिसकी मद्धिम भीनी-भीनी रौशनी में दिखा कि पोटली में एक नवजात शिशु लिपटा हुआ पड़ा था और कुतिया ने अपने स्तनों के सहारे उसे समेटा हुआ था जैसे उसे दूध पिला रही हो. पूरी लेन वाले स्तब्ध रह गए. दृश्य ने सब को स्पंदनहीन कर दिया था. तब समझ में आया कि कुत्ते भौंक नहीं रहे थे हमें बुला रहे थे.''पुलिस बुलाओ '' एक बुज़ुर्ग की आवाज़ ने सब की तंद्रा तोड़ी. अचानक हमारे पीछे से एक सांवली पर आकर्षित युवती शिशु की ओर बढ़ी. कुतिया उसे देख परे हट गई. उसने बच्चे को उठा सीने से लगा लिया. बच्चा जीवत था शायद कुतिया ने अपने साथ सटा कर, अपने घेरे में ले उसे सर्दी से यख होने से बचा लिया था. पहचानने में देर ना लगी कि यह तो अनुपमा थी जिसने बगल वाला मकान ख़रीदा है और अविवाहिता है. सुनने में आया था की गरीब माँ-बाप शादी नहीं कर पाए और इसने अपने दम पर उच्च शिक्षा ग्रहण की और स्थानीय महिला कालेज में प्राध्यापिका के पद पर आसीन हुई. यह भी सुनने में आया था कि लेन वाले इसे संदेहात्मक दृष्टि से देखतें हैं. हर आने जाने वाले पर नज़र रखी जाती है. लेन की औरतें इसके चारित्रिक गुण दोषों को चाय की चुस्कियों के साथ बखान करतीं हैं. जिस पर पापा ने कहा था'' बेटी अंगुली उठाने और संदेह के लिए औरत आसान निशाना होती है. समाज बुज़दिल है और औरतें अपनी ही ज़ात की दुश्मन जो उसकी पीठ ठोकनें व शाबाशी देने की बजाय उसे ग़लत कहतीं हैं. औरत-- औरत का साथ दे दे तो स्त्रियों के भविष्य की रूप रेखा ना बदल जाए, अफसोस तो इसी बात का है कि औरत ही औरत के दर्द को नहीं समझती. पुरूष से क्या गिला? बेटा, इसने अपने सारे बहन-भाई पढ़ाये. माँ-बाप को सुरक्षा दी. लड़की अविवाहिता है गुनहगार नहीं.''''डाक्टर साहब इसे देखें ठीक है ना'' ---उसकी मधुर पर उदास वाणी ने मेरी सोच के सागर की तरंगों को विराम दिया. अपने शाल में लपेट कर नवजात शिशु उसने पापा की ओर बढ़ाया-- पापा ने गठरी की तरह लिपटा बच्चा खोला, लड़की थी वह------
दौड़

मैं अपने बेटे को निहार रही थी. वह मेरे सामने लेटा अपने पाँव के अंगूठे को मुँह में डालना चाहता था. और मैं उसके नन्हे-नन्हे हाथों से पाँव का अंगूठा छुड़ाने की कोशिश कर रही थी. उस कोशिश में वह मेरी अंगुली पकड़ कर मुँह में डालना चाहता था---चेहरे पर चंचलता, आँखों में शरारत, उसकी खिलखिलाती हँसी, गालों में पड़ रहे गड्डे--अपनी भोली मासूमियत लिए वह अठखेलियाँ कर रहा था और मैं निमग्न, आत्मविभोर हो उसकी बाल-लीलाओं का आन्नद मान रही थी की वह मेरे पास आ कर बैठ गई. मुझे पता ही नहीं चला. मैं अपने बेटे को देख सोच रही थी कि यशोदा मैय्या ने बाल गोपाल के इसी रूप का निर्मल आनन्द लिया होगा और सूरदास ने इसी दृश्य को अपनी कल्पना में उतारा होगा.उसने मुझे पुकारा--मैंने सुना नहीं--उसने मुझे कंधे पर थपथपाया तभी मैंने चौंक कर देखा--हंसती, मुस्कराती,सुखी,शांत, भरपूर ज़िन्दगी मेरे सामने खड़ी थी--बोली--''पहचाना नहीं?मैं भारत की ज़िन्दगी हूँ.'' मैं सोच में पड़ गई--भारत में भ्रष्टाचार है, बेईमानी है, धोखा है, फरेब है, फिर भी ज़िन्दगी खुश है. मुझे असमंजस में देख ज़िन्दगी बोली--''पराये देश, पराये लोगों में अस्तित्व की दौड़, पहचान की दौड़ दौड़ते हुए तुम भारत की ज़िन्दगी को ही भूल गई. मैं फिर सोचने लगी--भारत में गरीबी है, भुखमरी है, धर्म के नाम पर मारकाट है, ज़िन्दगी इतनी शांत कैसे है? जिंदगी ने मुझे पकड़ लिया--बोली--भारत की ज़िन्दगी अपनी धरती, अपने लोगों, आत्मीयता, प्यार-स्नेह , नाते-रिश्तों में पलती है. तुम लोग औपचारिक धरती पर स्थापित होने की दौड़ , नौकरी को कायम रखने की दौड़, दिखावा और परायों से आगे बढ़ने की दौड़---मैंने उसकी बात अनसुनी करनी चाही पर वह बोलती गई--कभी सोचा आने वाली पीढ़ी को तुम क्या ज़िन्दगी दोगी? इस बात पर मैंने अपना बेटा उठाया, सीने से लगाया और दौड़ पड़ी---उसका कहकहा गूंजा--सच कड़वा लगा, दौड़ ले, जितना दौड़ना है--कभी तो थकेगी, कभी तो रुकेगी, कभी तो सोचेगी-क्या ज़िन्दगी दोगी तुम अपने बच्चे को--अभी भी समय है लौट चल, अपनी धरती, अपने लोगों में......मैं और तेज़ दौड़ने लगी उसकी आवाज़ की पहुँच से परे--वह चिल्लाई--कहीं देर न हो जाए, लौट चल----मैं इतना तेज़ दौड़ी कि अब उसकी आवाज़ मेरे तक नहीं पहुंचती--पर मैं क्यूँ अभी भी दौड़ रहीं हूँ......

जालंधर(पंजाब) के साहित्यिक परिवार में जन्मी. एम.ए.,पीएच.डी की डिग्रियां हासिल कीं. जालंधर दूरदर्शन, आकाशवाणी एवं रंगमंच की पहचानी कलाकार, चर्चित पत्रकार(दैनिक पंजाब केसरी जालंधर की स्तम्भ लेखिका).कविता के साथ-साथ कहानी एवं उपन्यास भी लिखती हैं. काव्य संग्रह--मेरा दावा है, तलाश पहचान की, परिक्रमा उपन्यास(पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद)एवं माँ ने कहा था...कवितायों की सी.डी. है. दो काव्य संग्रह एवं एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है. १)विश्व तेरे काव्य सुमन २)प्रवासी हस्ताक्षर ३)प्रवासिनी के बोल ४) साक्षात्कार ५)शब्दयोग ६)प्रवासी आवाज़ ७)सात समुन्द्र पार से८)पश्चिम की पुरवाई ९) उत्तरी अमेरिका के हिन्दी साहित्यकार इत्यादि पुस्तकों में कवितायें-कहानियों का योगदान. तमाम पुरस्कारों से सम्मानित हो चुकीं हैं. हिन्दी चेतना(उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका) की सह- संपादक हैं. भारत के कई पत्र-पत्रिकाओं एवं वेब-पत्रिकाओं में छपतीं हैं. अमेरिका में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अनगिनत कार्य किये हैं. हिन्दी के बहुत से नाटकों का मंचन कर लोगों को हिन्दी भाषा के प्रति प्रोत्साहित कर अमेरिका में हिन्दी भाषा की गरिमा को बढ़ाया है. हिन्दी विकास मंडल(नार्थ कैरोलाइना) के न्यास मंडल में हैं. अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति(अमेरिका) के कवि सम्मेलनों की संयोजक हैं.
'प्रथम' शिक्षण संस्थान की कार्यकारिणी सदस्या एवं उत्पीड़ित नारियों की सहायक संस्था 'विभूति' की सलाहकार हैं.
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मंगलवार, 11 नवंबर 2008

कविता



अशोक आन्द्रे की पांच कविताएं

(१)

उम्मीद

जिस भूखण्ड से अभी
रथ निकला था सरपट
वहां पेड़ों के झुंड खड़े थे शांत,
नंगा कर गए थे उन पेड़ों को
हवा के बगुले
मई के महीने में.
पोखर में वहीं,
मछली का शिशु
टटोलने लगता है मां के शरीर को.
मां देखती है आकाश
और समय दुबक जाता है झाड़ियॊ के पीछे
तभी चील के डैनों तले छिपा
शाम का धुंधलका
उसकी आंखों में छोड़ जाता है कुछ अंधेरा
पीछे खड़ा बगुला चोंच में दबोचे.
उसके शिशु की
देह और आत्मा के बीच के
शून्य को निगल जाता है
और मां फिर से
टटोलने लगती है अपने पेट को .
(२)

तरीका

मुर्दे हड़ताल पर चले गए हैं
पास बहती नदी ठिठक कर
खड़ी हो गई है!
यह श्मशान का दृश्य है.
चांडाल,
आग को जेब में छिपाए
मन ही मन बुदबुदाने का ढोंग करता
मंत्र पढ़ने लगा है,
अवैध-अनौतिक पैसा ऎंठने का
शायद यह भी एक तरीका हो!

(३)

तथाकथित नारी

निष्प्राण हो जाती है
मूर्ति की तरह तथाकथित नारी
जबकि तूफान घेरता है उसके मन को,
यह इतिहास नहीं/जहां
कहानियों को सहेज कर रखा गया हो....
एक-एक परत को
उघाड़ा गया है दराती-कुदालों से,
ताकि उसकी तमाम कहानियों की गुफ़ा में
झांका जा सके,
ताकि उन कहानियों में दफ़्न
मृत आत्माओं की शांति के लिए
कुछ प्रार्थनाओं को मूर्त रूप दिया जा सके,
उस निष्प्राण होती मूर्ति के चारों ओर
जहां अंधेरा ज़रूर धंस गया है,
आखिर कला की अपराजेयता की धुंध तो
छंटनी ही चाहिए न,
ताकि मनुष्य के प्रयोजनों का विस्तार हो सके.
कई बार घनीभूत यात्राएं उसकी
संभोग से समायोजन करने तक
आदमी, कितनी आत्माओं का
राजतिलक करता रहता है
हो सकता है यह उसके
विजयपथ की दुंदुभि हो

लेकिन नारी का विश्वास मरता नहीं
धुंए से ढंकती महाशून्य की शुभ्रता को
आंचल में छिपा लेती है
उस वक्त समय सवाल नहीं करता
उस खंडित मूर्ति पर होते परिहासों पर
शायद शिल्पियों की निःसंगता की वेदना को
पार लगाने के लिए ही तो इस तरह
कालजयी होने की उपाधि से सुशोभित
किया जाता है उसे,
आखिर काल का यह नाटक किस मंच
की देन हो सकता,
आखि़र नारी तो नारी ही है न,
मनुष्य की कर्मस्थली का विस्तार तो नहीं न,
मूर्ति तो उसके कर्म की आख्याओं का
प्रतिरूप भर है
तभी तो उसका आवा से गमन तक का सफ़र
जारी है आज भी,
इसीलिए उसकी कथाएं ज़रूर गुंजायमान हैं
शायद यही उसका प्राण है युगांतक के लिए
जो धधकता है मनुष्य की देह में
अनंतता के लिए.

(४)

पता जिस्म का

एक जिस्म टटोलता है
मेरे अंदर तहखाने में छिपे, कुछ जज़्बात
जिनकी क़ीमत
समय ने अपने पांवों तले दबा रखी है
उस जिस्म़ की दो आंखें एकटक
दाग़ती हैं कुछ सवालों के गोले
जिन्हें मेरी गर्म सांसें धुंआ-धुंआ करती हैं
उनकी नाक सूंघंती है
मेरे आसपास के माहौल को
जिसका पता मेरे पास भी नहीं है.
उसके होंठ कुछ पूछने को
हिलते हैं आगाह करने के लिए
उसके कान मना कर देते हैं सुनने को,
मैं उस जिस्म़ की खुदाई करता हूं,
और खाली समय में ढूंढता हूं
अपने रोपे बीज को,
जो अंधेरे में पकड़ लेता है मेरा गला
पाता हूं कि वह और कोई नहीं,
मेरे ही जिस्म़ का पता है
जहां से एक नए सफ़र का दिया
टिटिमा रहा है

(५)

आंतरिक सुकून के लिए

एक पर्वत से दूसरे पर्वत की ओर
जाता हुआ व्यक्ति/कई बार फ़िसल कर
शैवाल की नमी को छूने लगता है.
जीवन खिलने की कोशिश में
आकाश की मुंडेर पर चढ़ने के प्रयास में
अपने ही घर के रोशनदान की आंख को
फोड़ने लगता है

मौत जरूर पीछा करती है जीवात्माओं का
लेकिन जिन्दगी फिर भी पीछा करती है मौत का
सवारी गांठने के लिए,
सवारी करने की अदम्य इच्छा ही व्यक्ति को
उसकी आस्था के झंडे गाड़ने में मदद करती है.
कई बार उसे पूर्वजों द्वारा छोड़े गये,
सबसे श्रेष्ठ शोकगीत को,
गुनगुनाने के लिए लाचार भी होना पड़ता है.
जबकि समुद्र समय की चुप्पी को तोड़ने के लिए
चिघाड़ता है अहर्निष,

आखिर व्यक्ति तो व्यक्ति ही है
इसलिए उसे गीत तो गाने ही पड़ेंगे
चाहे शुरू का हो या फिर/अंतिम यात्रा की बेला का,
क्योंकि कंपन की लय/टिकने नहीं देगी उसे,
जीवन उसे खामोश होने नहीं देगा
उत्तेजित करता रहे चीखने-चिल्लाने के लिए.
उसके आंतरिक सुकून के लिए.

३ मार्च, १९५१ को कानपुर (उत्तर प्रदेश) में जन्म. अब तक निम्नलिखित कृतियां प्रकाशित :
फुनगियों पर लटका एहसास, अंधेरे के ख़िलाफ (कविता संग्रह), दूसरी मात (कहानी संग्रह), कथा दर्पण (संपादित कहानी संकलन), सतरंगे गीत , चूहे का संकट (बाल-गीत संग्रह), नटखट टीपू (बाल कहानी संग्रह).

लगभग सभी राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित.

'साहित्य दिशा' साहित्य द्वैमासिक पत्रिका में मानद सलाहकार सम्पादक और 'न्यूज ब्यूरो ऑफ इण्डिया' मे मानद साहित्य सम्पादक के रूप में कार्य किया.

संपर्क : १८८, एस.एफ.एस. फ्लैट्स, पॉकेट - जी.एच-४, निकट मीरा बाग, पश्चिम विहार, नई दिल्ली - ११००६३.

फोन : ०१११-२५२६२५४४
मोबाईल : ०९८१८९६७६३२
०९८१८४४९१६५

सोमवार, 3 नवंबर 2008

उपन्यास अंश



शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास 'गुलाम बादशाह'
का एक अंश

उस दिन की सुबह

रूपसिंह चन्देल

उसके लिए उस दिन की सुबह और दिनों की सुबहों से अलग थी.

आसमान में तारे धूमिल पड़ रहे थे, लेकिन मकानों की छतों पर रात का धुंधलका पसरा हुआ था. उसने नीचे सड़क पर झांककर देखा, बिजली के खम्भों पर लट्टू जल रहे थे और गलियों में दिन भर धमा-चौकड़ी करने वाले कुत्ते चार मकान छोड़कर बिरला मिल की ओर मुड़ने वाली गली के मुहाने पर एक कुतिया को घेरे हुए खड़े थे. उसने गिनती की, छः थे. कुतिया घबड़ाई हुई थी. वह निकल भागने के प्रयास में असफल रहने पर ज्यादती के लिए तत्पर एक कुत्ते पर दांत किटकिटाती भूंकने लगती थी.

पांच मिनट छत पर टहलने के बाद उसने पुनः नीचे नजर दौड़ाई. धुंधलका तेजी से छट रहा था. उसे कुतिया थकी हुई दिखाई दी. गुर्राने और दांत किटकिटाने के बजाय अब वह दयनीय स्वर में किकियाने लगी थी. लेकिन कुत्तों को उस पर तरस नहीं आ रहा था. सभी उस पर अपना अधिकार जता रहे थे. परिणाम- स्वरूप वे आपस में ही भिड़ने लगे थे. कुतिया ने शायद स्थिति समझ ली थी और जैसे ही दो जोड़ों को एक-दूसरे पर आक्रमण-प्रत्याक्रमण करते उसने देखा, वह निकल भागी. दो कमजोर कुत्ते जो अपने साथियों को लड़ता देख खिसककर एक ओर खड़े हो गये थे, कुतिया के पीछे दौड़ पड़े थे. उस पर अधिकार मानने में वे अब तक अपने को असफल पा रहे थे. कुतिया का भाग निकलना लड़ रहे कुत्तों ने कुछ देर बाद अनुभव किया और आपस में एक दूसरे को लानत-मलानत भेजते हुए कहा, "स्सालो, हम आपस में लड़कर अपने सिर फोड़ रहे हैं और सिद्दी-पिद्दी उसे ले उड़े."

"हम लड़ें ही क्यों , अभी समझौता कर लेते हैं." एक बोला.

"क्या---- क्या करोगे समझौता?" कलुआ जो उनमें अधिक ताकतवर था गुर्राया.

"यही कि हमें एक-एक कर उससे मिलना चाहिए."
"हुंह." कलुआ ने सिर झिटका. उसका सिर अभी तक भिन्ना रहा था और उसका मन कर रहा था कि वह पास खड़े तीनों की मरम्मत कर दे.

'वह मेरे साथ थी और खुश थी. उसे कोई आपत्ति भी न थी, लेकिन इन स्सालों ने सारा गुड़ गोबर कर दिया. पता नहीं कहां गली से आ मरे. अब वह इतना घबड़ा गयी है कि शायद ही कभी मेरे साथ आये.' कलुआ ने सोचा और बोला, "चलकर देखते हैं वह गयी कहां?"

"हां" तीनों ने एक स्वर में कहा.

"लेकिन उससे मैं ही पहले मिलूंगा." कलुआ की बात पर तीनों ने सिर हिलाकर पूंछ नीचे गिरा दी.

और चारों चौराहे की ओर दौड़ गये.

सड़क पर नीचे झांकते हुए उसने कुत्तों के विषय में अनुमान लगाया . उसने अपने मकान मालिक को कुत्तों के पीछे दूध लेने जाते देखा.

********

प्रतिदिन की भांति वह उस दिन भी पौने पांच बजे उठ गया था. पत्नी भी उसकी पांच बजे उठ जाती थी, लेकिन उस दिन उसे आफिस नहीं जाना था, इसलिए वह निश्चिंत थी और सो रही थी.

कई महीने बाद वह सुबह के सुहानेपन का आनंद ले रहा था. हालांकि वर्षों से उसके जागने का वही समय था, लेकिन जागने के साथ ही आठ बजे की बस पकड़ने की चिन्ता उसे आ घेरती थी. साढ़े नौ बजे दफ्तर पहुंचने का तनाव बिस्तर छोड़ने के साथ ही प्रारंभ हो जाता था. सप्ताह में शनिवार-रविवार का अवकाश उसने कई महीनों से नहीं जाना था. प्रतिदिन रात दफ्तर उसके साथ आता था. सोते हुए भी दफ्तर साथ रहता था.

उसने अंगड़ाई ली. छत में कुछ और देर टहला . छत बड़ी थी, जिसमें केवल उसके दो कमरे और टीन शेड की छोटी-सी किचन और उतना ही छोटा टॉयलेट-कम बाथरूम था. बाथरूम की दीवारें सीली और झड़ रही थीं. उस पर एस्बेस्टेस की चादरें पड़ी हुई थीं. बारिस होने के समय चादरों से पानी टपकता रहता. ऎसे समय टॉयलेट के लिए जाते हुए छोटा छाता लगाकर बैठना होता या सिर पर पुरानी तौलिया डालनी होती.

छत पर टहलते हुए आसमान में उड़ते पक्षियों को वह देखता रहा और सोचता रहा, 'कितने निश्चिंत----- कितने स्वतंत्र ! न इन्हें किसी अफसर का भय, न काम की चिन्ता. काश ! मैं एक परिन्दा होता----- पूरी दुनिया के आकाश को नापता घूमता. न सीमाओं की समस्या होती न प्रवेश पर प्रतिबंध. कॊई पासपोर्ट - वीज़ा नहीं.'

एक कौआ पड़ोसी मकान की दीवार पर आ बैठा. उसके कर्णकटु स्वर ने ध्यान भंग किया. उसने हाथ उठाकर कौवे को भगाना चाहा, वह उछलकर कुछ दूर हटकर बैठ गया और क्षणभर की चुप्पी के बाद फिर चीख उठा.

"कुमार राणावत की तरह क्यों चीख रहा है रे कमीने?" उसने सोचा उसने कौवे को नहीं अपने बॉस कुमार राणावत को गाली दी थी. मन के अंदर दबा गुबार निकल गया था.

कौवा फिर चीखा.

"चीख बेटे----- आज और कल भी----." उसे याद आया आज शनिवार है और राणावत कल भी बम्बई रहेगा और उसे कल भी दफ्तर नहीं जाना होगा.

'कितनी सुखद है सुबह !' उसने सोचा, 'मैं कब से ऎसे दिन के लिए तरस रहा था. बच्चे भूल ही गये होगें कि मैं भी इस घर में रहता हूं. सुबह उन्हें तयार कर देना मात्र क्या उनके प्रति पैतृक जिम्मेदारी की इति मान ली जाय !'

'नौकरी छोड़ क्यों नहीं देते. कोई और नौकरी क्यों नहीं कर लेते !' मन ने कई बार, बल्कि हजारों----- हो सकता है लाखों बार - यह बात कही थी. रात सोने से पहले यह बात मन में अवश्य उठती है. सुबह उठने से लेकर दफ्तर से निकलने तक दिन में कितनी ही बार मन यह प्रश्न उठाता है, लेकिन---- और यह 'लेकिन' कितने प्रश्नों से घिरा हुआ है. इतने वर्षों की सरकारी नौकरी ने उसे इस योग्य नहीं रहने दिया कि वह किसी अन्य जगह जा सकता. कारण यह नहीं कि वह कम योग्य था, या वह निकम्मा था---- काम नहीं करता था---. काम, सुबह साढ़े नौ बजे से रात आठ बजे तक वह प्रायः काम में ही लगा रहता. गर्दन दुख जाती. लेकिन वह जब यह कहा जाता सुनता कि सरकारी बाबू काम नहीं करते तब उसे दुख होता. उसके अपने कार्यालय के कितने ही लोग थे जिनकी गर्दनें उसीकी भांति दुखती थीं. कई स्पांडिलाइटस का शिकार थे और कुछ उस कतार में. डिप्रेशन का शिकार लोगों की संख्या शायद अधिक थी, लेकिन वे सब हत्बुद्धि वहां बने रहने के लिए अभिशप्त थे, क्योंकि जो काम वे करते उसकी पूछ किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में न थी. अब वे वही कर सकते थे और गधों -खच्चरों की भांति उस बोझ को ढोते हुए जीवन की गाड़ी घसीटने के लिए विवश थे.

'लेकिन मैं इतनी खूबसूरत सुबह यह सब क्यों सोच रहा हूं. मुझे दरवाजे में ताला बंद कर चुपचाप नीचे उतर जाना चाहिए था. घर से आध फर्लांग की दूरी पर लंबा-- चौड़ा रौशन पार्क है. आस-पास के लोग---- बल्कि दो-तीन किलोमीटर से चलकर लोग वहां पहुंचते हैं----- टहलने के लिए. टहलने वालों की भीड़ सुबह नौ बजे तक वहां रहती है. छुट्टी वाले दिनों में स्कूली बच्चे वहां खेलते हैं.

'आज बच्चों के स्कूल की छुट्टी भी है. रात ही कह देना चाहिए था कि सुबह रौशन पार्क चलेगें. अमिता भी घोड़े बेचकर सो रही है. मुझे आफिस जाना होता तो इस समय किचन में बर्तन खटक रहे होते.'

'बच्चों के साथ पार्क में बैडमिंटन खेले हुए लंबा समय बीत गया.---- कोई बात नहीं----- शाम को जायेगें. शाम को भी वहां अच्छी रौनक होती है.----- आज और कल का दिन बच्चों के नाम.' इस विचार से उसके मन में खुशी उत्पन्न हुई , जो महीनों से दबी हुई थी.

सड़क पर आमद-रफ्त तेज हो गयी थी. कुछ लोगों की आवाजें आ रहीं थीं. कुछ लोग उसके मकान के सामने की गली से होकर पार्क जाते थे. एक युवक, युवक ही कहना होगा----- वैसे वह पैतीस वर्ष से अधिक होगा; लेकिन उसने शरीर को मेण्टेन किया हुआ था, प्रतिदिन 'किट' और 'टी शर्ट' में दौड़ता हुआ, तेज नही, मद्धिम गति से पार्क जाता है. पार्क में लगभग दो घण्टे बिताकर जब वह लौटता तब पसीने से तरबतर होता----- भले ही जनवरी की कड़ाके कि ठण्ड हो. वह उससे ईर्ष्या करता है और सोचता है कि क्या उसकी जिन्दगी में भी ऎसे दिन आयेगें ! यदि आयेगें भी, तब------ तब क्या उस नौजवान की भांति उसमें गति और उत्साह होगा !'

हवा का तेज झोंका आया, और उसकी बनियायन को छूता हुआ निकल गया. हवा में ठण्ड की हल्की खुनक थी. उसने देखा, सामने दीवार पर बैठा कौवा अब वहां न था. उसके स्थान पर एक गौरय्या आ बैठी थी. सूर्य की किरणें पड़ोसी मकान की छत पर रखी पानी की टंकी पर आ बैठी थीं. बगुलों का एक झुण्ड उत्तर-पश्चिम की ओर दौड़ता हुआ जा रहा था.

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'गुलाम बादशाह' उपन्यास शीघ्र ही
प्रवीण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली से
प्रकाश्य है.

गुरुवार, 9 अक्टूबर 2008

कविता

चित्र : डॉ० अवधेश मिश्र
बेल्जियन कविताएं

एक दूर-देश से मैं तुम्हें लिख रहा हूं

हेनरी मीशॉ (१८८४-१९८४)

(सभी का अंग्रेजी से भाषान्तर : पीयूष दईया)

(१)

हमारे पास यहां,
वह बोली,
केवल एक सूरज मुंह में,
और तनिक देर वास्ते.
हम मलते अपनी आंखें दिनों आगे.
निष्फल लेकिन.
अभेद्य मौसम.
अपने नियत पहर धूप आती केवल.

फिर हमारे पास है करने को चीजों की एक दुनिया,
जब तलक रोशनी है वहां,
समय हमारे पास बमुश्किल है दरअसल एक दूसरे को दो टुक देखने का.

मुसीबत यह है कि रात पाली है
जब हमें काम करना है,
और हमें, सचमुच करना है:
बौने जन्म लेते हैं लगातार.

(२)

जब तुम सैर करते हो देश में,
आगे वह उस तक सुपुर्द,
सम्भव है तुम्हें मौका हो खालिस
मरदानों से मिलने का अपने मार्ग पर.
ये पहाड़ हैं और देर-सबेर
तुमको झुकना है घुटनों के बल उनके सामने.
अकड़ने का कोई फायदा नहीं होगा,
तुम नहीं जा सकते थे परले तक,
अपने आहत करके भी.

मैं यह नहीं कहता जख्मी करने के सिलसिले में.
मैं दूसरी चीजें कह सकता था अगर मैं सचमुच
जख्मी करना चाहता.

(३)

मैं जोड़ता हूं एक बढ़त शब्द तुम तक,बल्कि एक प्रश्न.
क्या तुम्हारे देश में भी पानी बहता है?
मुझे याद नहीं ऎसा तुमने बता था कि नहीं.
और यह देता है सिहरन भी, अगर यह असली चीज़ है.

क्या मैं इसे प्रेम करता हूं?
मुझे नहीं मालूम.
जब यह ठंडा हो बहुत अकेला महसूस होता है.
लेकिन बिलकुल भिन्न जब यह गर्म हो.
फिर तब?
मैं कैसे फैसला कर सकता हूं?
कैसे तुम दूसरे फैसला करते हो, मुझे बताओ,
जब तुम इस को खुल्लम-खुल्ला बोलते हो, खुले दिल से?

(४)
मैं तुम्हें संसारान्त से लिख रहा हूं.
तुम्हें यह समझ लेना चाहिए.
पेड़ अक्सर कांपते हैं.
हम पत्तियां चुनते.
शिराओं की हास्यास्पद संख्या है उनके पास.
लेकिन किसलिए?
पेड़ और उनके बीच वहां कुछ नहीं बचा,
और हम प्रस्थान करते मुश्किलाये.

बिना हवा के क्या जारी नहीं रह सकता था पृथ्वी पर जीवन?
या सब कुछ को कंपना है, हमेशा, हमेशा?

ज़मीन के भीतर विक्षोभ है वहां, घर में भी,
जैसे अंगारें जो आ सकते हैं तुम्हारा सामना करने,
जैसे कड़े प्राणी जो चाहते स्वीकारोक्तियों को बिगाड़ना.
हम कुछ नहीं देखते,
सिवाय उसके जिसे देखना है गैरजरूरी.
कुछ नहीं, और तब भी हम कंपते . क्यॊ?

कुछ नहीं, और तब भी हम कंपते. क्यों ?

(५)

वह लिकती है उसे वापस:

तुम कल्पना नहीं कर सकते वह सब वहां है आकाश में,
भरोसा करने के लिए तुम्हें इसे देखना होगा.
तो अब, वे----- लेकिन मैं तुम्हें पलक झपकते नहीं बताने जा रही उनके नाम.

बावजूद ढेर सारा उनके उठाये होने के और
गा़लिबन सारे आकाश में डेरा डाल लेने के,
वे वजनी नहीं हैं,
विशाल हालांकि वे हैं,
जितना कि एक नवजात शिशु.

हम बुलाते उन्हें बादल.

यह सच है कि पानी आता है उनसे,
लेकिन उन्हें भींचने से नहीं, या उन्हें घेरने से.
ये फजूल होगा, उनके पास हैं थोड़े से.

लेकिन, उनके अपने विस्तृत वितान और विस्तृत विता
और गहराइयों तक डेरा जमाने के तर्क से
और अपनी ऊंची फुल्लन के,
वे सफल होते लम्बी दौड़ में पानी की कुछ बूंदें गिराने की जुगते में, हां, पानी की.
और हम भले और भीगे.
क्रोधित हम भागते फंदे में आ जाने से;
भला कौन जानता कि वे कब जारी करने वाले हैं अपनी बूंदें;
कभी-कभार वे उन्हें जारी किये बिना दिनों तक आराम करते.
और कोई घर में ठहरा उनका इंतजार करता विफल.

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स्वभाव से अन्तर्मुखी व मितभाषी युवा लेखक, सम्पादक, अनुवादक व संस्कृतिकर्मी पीयूष दईया का जन्म 27 अगस्त 1973, बीकानेर (राज.) में हुआ। आप हिन्दी साहित्य, संस्कृति और विचार पर एकाग्र पत्रिकाओं ''पुरोवाक्'' (श्रवण संस्थान, उदयपुर) और ''बहुवचन'' (महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा) के संस्थापक सम्पादक रहे हैं और लोक-अन्वीक्षा पर एकाग्र दो पुस्तकों ''लोक'' व ''लोक का आलोक'' नामक दो वृहद् ग्रन्थों के सम्पादन सहित भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर की त्रैमासिक पत्रिका ''रंगायन'' का भी बरसों तक सम्पादन किया है। पीयूष ने हकु शाह द्वारा लिखी चार बाल-पुस्तकों के सम्पादन के अलावा अंग्रेज़ी में लिखे उनके निबन्धों का भी हिन्दी में अनुवाद व सम्पादन किया है। हकु शाह के निबन्धों की यह संचयिता,''जीव-कृति'' शीघ्र प्रकाश्य है। ऐसी ही एक अन्य पुस्तक पीयूष चित्रकार अखिलेश के साथ भी तैयार कर रहे हैं। काव्यानुवाद पर एकाग्र पत्रिका ''तनाव'' के लिए ग्रीक के महान आधुनिक कवि कवाफ़ी की कविताओं का हिन्दी में उनके द्वारा किया गया भाषान्तर चर्चित रहा है। वे इन दिनों विश्व-काव्य से कुछ संचयन भी तैयार कर रहे ।
संपर्क : विश्राम कुटी, सहेली मार्ग, उदयपुर (रजस्थान) - 313001
ई-मेल :
todaiya@gmail.com

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चित्र : डॉ० अवधेश मिश्र
समिधा बनता मैं
उदय चौहान
अचम्भित मन आज भटक रहा शून्याकाश में
सभ्यता के भग्नावशेष देख समय रीता पसोपेश में
आस रखूँ नवभोर कदाचित कल
आए फिर यहीं कहीं हरसू - बस यूँ ही पिटता मैं ...
खाईया हैं खुद रहीं,
लोगों को क्या हो गया ?
वसुधा में गड़ा विषदंत-
उसका दंश झेलता मैं...

मंदिर से उड़ा कपोत,
जा बैठा मीनार पे
पर कोई नवलक्ष्मण-
खिंचित परोक्ष रेखा नापता मैं...
है यह नेतृत्व अक्षम,
या प्रकृति ही बनी विषम
इस कोसती कोसी के बीच,
हर टापू तकता मैं
तर्कों का अम्बार है,
दावों की भरमार है
मिल रहे आश्वासनों से,
हूँ किंचित परेशान मैं...
भेड़ियों की जमी नज़र,
पिशाच बन रहे प्रखर
वीभत्स गिद्धभोज में -
बोटी बोटी नुचता मैं...
शतरंज की बिसात पर
वज़ीर जमे, प्यादे मरे
अनवरत विध्वंस में -
समिधा बनता मैं... -
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हिन्दी के उदीयमान कवि उदय चौहान का जन्म इंदौर (मध्य प्रदेश ) में १९८१ में हुआ था. उन्होंने इंदौर विश्वविद्यालय से एम.सी.ए. किया है. सम्प्रति वह गड़गांव की टी.सी.एस. कम्पनी में साफ्टवेयर इंजीनियर हैं.
साहित्य के गंभीर अध्येता उदय प्रखर प्रतिभा के धनी हैं. प्रस्तुत कविता उनकी पहली कविता है, जिसे उन्होंने विशेष रूप से 'रचना समय' के लिए भेजा था.
ई मेल : uday.chauhan@tcs.com

बुधवार, 17 सितंबर 2008

लघु कहानी



प्राण शर्मा की पांच लघुकहानियां

अक्ल के अंधे

प्रवीण कुमार के एक मित्र हैं--- हितैषी राय . कुछ-एक लोगों के साथ मिलकर उन्होंने एक कल्याणकारी संस्था बनायी. संस्था का नाम रखा -- 'जन कल्याण.'

हालांकि उनकी संस्था छोटी है , लेकिन उनकी भावी योजनाएं बड़ी हैं. फिलहाल उनकी योजना एक अनाथालय भवन निर्माण की है .

एक दिन हितैषी राय दान लेने के लिए प्रवीण के पास गए. बोले- "प्रवीण जी, आप मेरे परम मित्र हैं. हमारे शुभ कार्य अनाथालय के भवन-निर्माण के लिए दिल खोलकर दान दीजिए और दान देने के लिए अपने सेठ मित्रों के नाम भी सुझाइए."

दान देने के बाद प्रवीण कुमार ने नगर के उद्योगपति गिरधारी लाल का नाम सुझाया और बात-बात में यह भी बता दिया -- "गिरधारी लाल ऎसी तबियत के शख्स हैं कि दान देने के लिए उन्हें किसी मित्र के सिफारिशी ख़त की ज़रूरत नहीं पड़ती.

दूसरे दिन ही हितैषी राय अपने कुछ साथियों के साथ दान लेने के लिए गिरधारी लाल के पास पहुंच गये. रास्ते में उन्होंने अपने सथियों को सावधान कर दिया --'हमें गिरधारी लाल से यह कहने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है कि दान लेने के लिए प्रवीण कुमार ने हमे आपके पास भेजा है. खामखा प्रवीण कुमार का एहसान हम क्यों लें?

गिरिधारी लाल से मिलते ही हितैषी राय ने अपना और अपने साथियों का परिचय दिया और दान लेने के लिए भारी-भरकम पोथी खोल ली.

"हितैषी राय जी, मैंने तो आपकी संस्था 'जन-कल्याण' का नाम आज तक नहीं सुना और पोथी आप भारी-भरकम उठा लाये हैं." गिरिधारी लाल ने दान न देने की मानसिकता से कहा.

"सारा नगर जानता है कि आप दिल खोलकर दान देते हैं. आप इस नगर के राजा हरिश्चन्द्र हैं. " हितैषी राय बोले.

"पहले मैं ऎसा ही किया करता था. अब तो दान लेने वालों का तांता लग गया है. रोज कोई न कोई दान लेने आ जाता है. किसीकी अस्पताल बनवाने की योजना है तो किसी की वृद्धाश्रम . हमारे नगर में अस्पतालों और वृद्धाश्रमों को बनानेवालों की बाढ़-सी आ गयी है. बुरा नहीं मानिए, आपकी तरह कई लोग किसी न किसी योजना के साथ दान के लिए आ जाते हैं. दान लेकर वे कहां गायब हो जाते हैं, राम ही जाने. जाइये, आप किसी हमारे परिचित का पत्र लेकर आइये. हम आपको भी जरूर दान देगें."

मेहमान

घर में आए मेहमान से मनु ने पूछा --"क्या पीएगें, गर्म या ठंडा?"

"नही, कुछ नहीं." मेहमान ने अपनी मोटी गर्दन हिलाकर कहा.

"कुछ तो चलेगा?"

"कहा न कुछ नहीं."

'शराब?"

"वो भी नहीं"

"ये कैसे हो सकता है? आप हमारे घर में पहली बार पधारे हैं. कुछ तो चलेगा ही."

मेहमान इस बार चुप रहा.

मनु शिवास रीगल की महंगी शराब की बोतल अंदर से उठा लाया.

मेहमान की जीभ लपलपा उठी पर उसने पीने से न कह दी.

मनु के बार-बार कहने पर आखि़र उसने एक छोटा सा पैग लेना स्वीकार कर लिया. उस छोटे पैग का नशा मेहमान पर कुछ ऎसा तारी हुआ कि देखते ही देखते वो आधी से जिआदा बोतल खाली कर गया. मनु का दिल बैठ गया. मेहमान रुखसत हुआ. मनु मेज़ पर मुक्का मारकर चिल्ला उठा -- "मैंने तो इतनी महंगी शराब की बोतल उसके सामने रख कर दिखावा किया था लेकिन हरामी आधी से जिआदा गटक गया, गोया उसके बाप का माल था."

वाह री लक्ष्मी

"लक्ष्मी, देख लेना, एक दिन मेरा पांसा ज़रूर सीधा पड़ेगा. एक दिन मैं ज़रूर लॉटरी जीतूगां.तब मैं तुम्हें ऊपर से लेकर नीचे तक सोने-चांदी के गहनों से लाद दूंगा. तुम्हें सचमुच की लक्ष्मी बना दूंगा. सचमुच की लक्ष्मी.तुम्हें देख कर लोग दांतों तले अपनी उंगलियां दबा लेगें. अरी, दुर्योधन भी पहले धर्मराज युधिष्ठिर से जुए में हारा था. सब दिन होत न एक समान . भाग्य ने उसका साथ दिया. और वो पांडवों का राजपाट जीतकर राज कुंवर बन गया."

सुरेश के उत्साह भरे शब्द भी आग में घी का काम करते. सुनते ही लक्ष्मी तिलमिला उठती -- "भाड़ में जाए तुम्हारी लॉटरी. सारी की सारी कमाई तुम लॉटरी, घोड़ॊं और कुत्तों पर लगा देते हो . इन पर पानी की तरह धन बहाने की तुम्हारी लत घर में क्या-क्या बर्बादी नहीं ला रही है?तुम्हारा बस चले तो धर्मराज युधिष्ठिर की तरह तुम मुझे भी दांव पर लगा दो. "

सुरेश और लक्ष्मी में तू-तू, मैं - मैं का तूफ़ान रोज़ ही आता.

बुधवार था. रात के दस बज चुके थे. बी.बी.सी. पर लॉटरी मशीन से नम्बर गिरने शुरू हुए -- १, ५, ११, १६, २५, ४० और सुरेश की आंखें खुली की खुली रह गयीं. वह खुशी के मारे गगनभेदी आवाज़ में चिल्ला उठा --"आई ऎम ऎ मिल्लियनआर नाओ."

जुआ को अभिशाप समझने वाली लक्ष्मी रसोईघर से भागी आयी . सुरेश को अपनी बांहों में भर कर वो भी चिल्ला उठी -- "हुर्रे, वी आर मिल्लियनआर."

वक्त वक्त की बात

सरिता अरोड़ा की देवेन्द्र साही से जान-पहचान कॉलेज के दिनों से है. कभी दोनों में एक-दूसरे के प्रति प्यार भी जागा था.

आज देवेन्द्र साही का फ़िल्म उद्योग में बड़ा नाम है. उसने एक नहीं तीन-तीन हिट फिल्में दी हैं. उसकी फिल्में साफ़ -सुथरी होती हैं. सरिता अरोड़ा के मन में इच्छा जागी कि क्यों न वो अपनी रूपवती बेटी अरुणा को हेरोइन बनाने की बात देवेन्द्र से कहे. मन में इच्छा जागते ही उसने मुम्बई का टिकट लिया और जा पहुंची अपने पुराने मित्र के पास.

देवेन्द्र साही सरिता अरोड़ा के मन की बात सुनकर बोला -- "ये फ़िल्म जगत है. इसके रंग-ढंग बड़े निराले हैं. सुनोगी तो दांतों में उंगलियां दबा लोगी. यहां हर हेरोइन को पारदर्शी कपड़े पहनने पड़ते हैं. कभी-कभी तो उसे निर्वस्त्र भी-----."

तो क्या हुआ ? हम सभी कौन से वस्त्र पहन कर जन्मे थे? सभी इस संसार में नंगे ही तो आते हैं."

सरिता अरोड़ा अपनी बात कहे जा रही थी और देवेन्द्र साही सोचे जा रहा था कि क्या यह वही सरिता अरोड़ा है जो अपने तन को पूरी तरह से ढक कर कॉलेज आया करती थी.


बचत

मूसलाधार बारिश में विमला दौड़ी-दौड़ी सुकीर्ति के पास आयी. हांफते हुए बोली,"सुकीर्ति, कान्ले पार्क में सैन्स्बुरी सुपर स्टोर में बटर की सेल लगी है. ढाई सौ ग्राम की लारपाक बटर की टिकिया सिर्फ़ पचासी पेनिओं में. एक टिकिया के पीछे दस पेनिओं की छूट है. सुनहरी मौका है बटर खरीदने का. आ चलें खरीदने. "

स्टोक और कान्ले पार्क में पूरे छः मील का फासला . सुकीर्ति फिर भी तैयार हो गयी.

विमला और सुकीर्ति अपने-अपने सिर पर छतरी ताने बस स्टॉप पर आ गयीं. कान्ले पार्क पहुंचने के लिए उन्होंने दो बसें पकड़ीं. पहले २७ नम्बर और फिर सिटी सेंटर से १२ नम्बर. दोनों ने डे ट्रिप टिकट लिया. लगभग दो घंटों के सफर के बाद वे कान्ले पार्क पहुंचीं.

लोगों की भारी मांग के कारण विमला और सुकीर्ति पच्चीस-पच्चीस टिकियां ही खरीद पायीं. पच्चीस - पच्चीस टिकियों से दोनों को ढाई-ढाई पाउंड का लाभ हो गया था. दोनों खुश थीं.

घर पहुंचते ही विमला और सुकीर्ति ने अपनी खुशी की वजह अपने पति्यों को बतायीं. पति बरस पड़े. "क्या खा़क ढाई-ढाई पाउंड की बचत की है तुम दोनों ने? अरे मूर्खों तुम दोनों बसों में फ्री तो गयी और आयी नहीं. ढाई-ढाई पाउंड बस के किराए का भी हिसाब लगाओ न!"

प्राण शर्मा का जन्म १३ जून १९३७ को वजीराबाद (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली में. पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी). १९५५ से लेखन . फिल्मी गीत गाते-गाते गीत , कविताएं और ग़ज़ले कहनी शुरू कीं.

१९६५ से ब्रिटेन में.

१९६१ में भाषा विभाग, पटियाला द्वारा आयोजित टैगोर निबंध प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार. १९८२ में कादम्बिनी द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार. १९८६ में ईस्ट मिडलैंड आर्ट्स, लेस्टर द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार.

लेख - 'हिन्दी गज़ल बनाम उर्दू गज़ल" पुरवाई पत्रिका और अभिव्यक्ति वेबसाइट पर काफी सराहा गया. शीघ्र यह लेख पुस्तकाकार रूप में प्रकाश्य.

२००६ में हिन्दी समिति, लन्दन द्वारा सम्मानित.
"गज़ल कहता हूं' और 'सुराही' - दो काव्य संग्रह प्रकाशित.

Coventry CVESEB, UK3, Crakston Close, Stoke Hill Estate,
E-mail : pransharma@talktalk.net

बुधवार, 10 सितंबर 2008

संस्मरण







शीर्ष से सतह तक की यात्रा

रूपसिंह चन्देल

सीढ़ियां चढ़कर मैं पहली मंजिल पर उनके कमरे के दरवाजे पर पहुंचा .दरवाजा बंद था. कमरे में टेलीविजन ऊंचे वाल्यूम में चल रहा था. कई बार खटखटाया, लेकिन कोई उत्तर नहीं . काफी प्रातीक्षा और प्रयास के बाद दरवाजा खुला. भाभी जी थीं. मुझे देखकर हत्प्रभ. "अन्दर आइये" कहकर पीछे मुड़ीं और उंची आवाज में बोलीं, "अरे देखो तो कौन आया है?" लेकिन उन्होंने सुना नहीं और आंखे टी.वी. पर गड़ाये रहे. भाभी जी ने टी.वी. धीमा कर दिया और बोली,"चन्देल जी आये हैं."

बनियाइन और पाजामे में वह लेटे हुए टी.वी. देख रहे थे. पत्नी के साथ मुझे देखकर तपाक से उठे और "अरे आप!" कहते हुए नीचे उतरे. चप्पलें नहीं मिलीं तो नंगे पैर मेरे पास आये, "सभी मुझे भूल गये. " एक मायूसी उनके चेहरे पर तैर गयी, " चलिए आपने याद तो रखा." स्वर में शिकायत थी.

"आपने वायदा किया था कि नये घर में जाकर मुझे पता और फोन नम्बर देंगे. " आवाज कुछ ऊंची करके बोलना पड़ा. जबसे मस्तिष्क में कीड़े हुए थे, उन्हें कम सुनाई देने लगा था. वैसे टी.वी. इसलिए भी ऊंची आवाज में सुन रहे होगें, लेकिन उनके यहां टी.वी. सदैव ऊंची आवाज में ही सुना जाता था.

मैं कमरे का जायजा ले रहा था. यह चौदह बाई दस का कमरा रहा होगा, जिसमें एक डबल बेड और तीन कुर्सियां, एक आल्मारी और कुछ अन्य सामान रखा था. सामने छोटी-सी रसोई और उससे आगे बाल्कानी , जिसपर उन्होंने टीन-शेड डलवा रखी थी. दिल्ली के विश्वास नगर के लम्बे-चौड़े दो मंजिले मकान में रहने वाले ( जिसमें नीचे हिस्से में उनके प्रकाशन की पुस्तकों का भण्डार और कार्यालय था, और ऊपर रिहायश. उससे ऊपर भी कमरा) श्रीकॄष्ण जी का जीवन नोएडा के उस छोटे-से जनता फ्लैट में सिमटकर रह गया था.

श्रीकृष्ण जी से मेरी पहली मुलाकात १९८४ के आसपास हुई थी. मैं लेखक होने के शुरूआती दौर से गुजर रहा था .कभी-कभार पत्र -पत्रिकाओं में जाया करता . यह यात्रा प्रायः शनिवार को होती . उस दिन हिन्दुस्तान टाइम्स में 'साप्ताहिक हुन्दुस्तान' में हिमांशु जोशी से मिलने गया था. हिमांशु जी उन दिनों वहां विशेष संवाददाता होने के अतिरिक्त साहित्य भी देखते थे . उनसे मेरा परिचय एकाध साल पहले ही हुआ था.

उस दिन हिमांशु जी के पास दो सज्जन पहले से ही बैठे हुए थे. एक औसत कद, गोरे और स्लिम और दूसरे नाटे , सांवले और दुबले . मैं दोनों को ही नहीं जानता था. हिमांशु जी ने उनके परिचय दिए . गोरे सज्जन थे आबिद सुरती और दूसरे थे पराग प्रकाशन के श्री श्रीकृष्ण . परिचय के आदान- प्रदान के दौरान श्रीकृण जी पूरे समय मुस्कराते रहे थे. बाद में पता चला कि श्रीकृण जी ने हिमांशु जी का तब तक का लगभग पूरा साहित्य प्रकाशित किया था. कुछ लोगों के अनुसार साहित्य जगत में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित कर पाठकों तक हिमांशु जी को पहुंचाने वाले पहले प्रकाशक श्रीकृष्ण जी थे. हालांकि 'साप्ताहिक हिन्दुस्ता" में धारावाहिक रूप में प्रकाशित होने वाले हिमांशु जी के उपन्यास और कहानियों से पाठक पहले से ही परिचित रहे होगें. जोशी जी की भांति नरेन्द्र कोहली के बहुचर्चित उपन्यास 'दीक्षा' आदि को सर्वप्रथम 'पराग' ने ही प्रकाशित किया था . बाद में हिमांशु जी ने अपनी पुस्तकें पराग से ले ली थीं . एक समय ऎसा भी आया जब किसी बात पर उनके मध्य विवाद भी हुआ और जोशी जी ने पराग को वकील का नोटिस भी भेजा था. श्री कृष्ण जी मुझे सब बताते और चाहते कि मैं मध्यस्थता करूं लेकिन मैं मध्यस्थता की स्थिति में न था. वकील की नोटिस से श्रीकृष्ण जी बहुत आहत थे. अन्ततः वह मध्यस्तता शरदेन्दु जी ने की थी और उसी रात श्रीकृष्ण जी ने मुझे फोन करके सारा प्रकरण बताने के बाद कहा था, "आज एक बहुत बड़ा टेंशन से मुक्त हो गया हूं , लेकिन मैंने उनसे (हिमांशु जी) ऎसी आशा नहीं की थी."

श्रीकृष्ण जी से परिचय के समय तक मेरी दो पुस्तकें - एक बाल कहानी संग्रह और एक अपराध विज्ञान की पुस्तक ही प्रकाशित हुई थीं, लेकिन एक-दो पाण्डुलिपियां प्रकाशकों के यहां पहुंचने की राह देख रही थीं. हिमांशु जी के कार्यालय में श्रीकृष्ण जी से परिचित होने के बाद उनसे अगली मुलाकात १९८६ या ८७ में हुई थी. मैं किसी के साथ (शायद कथाकार बलराम के साथ) उनके घर कर्ण गली, विश्वासनगर गया था. उन दिनों तक 'पराग प्रकाशन' हिन्दी के महत्वपूर्ण प्रकाशकों में अपनी अलग पहचान पा चुका था. पराग को ही अमृता प्रीतम की 'रसीदी टिकट' प्रकाशित करने का पहला अवसर मिला था , जिसकी बहुत चर्चा हुई थी. नरेन्द्र कोहली के रामायण पर आधारित उपन्यास भी चर्चा बटोर चुके थे. स्थिति यह थी कि अधिकांश युवा लेखक वहां छपना चाहते थे और पराग ने अनेकों को छापा भी था. लेकिन कुछ युवा लेखकों ने उन्हें बाद में परेशान भी किया था. उन दिनों श्रीकृष्ण जी ने जिससे भी - स्थापित या नये लेखकों से पाण्डुलिपियां मांगी , शायद ही किसी ने उन्हें निराश किया होगा. उसका सबसे बड़ा कारण था उनका 'प्रोडक्शन'. एक बार चर्चा के दौरान उन्होंने बताया था कि उनके प्रोडक्शन से राजकमल प्रकाशन की शीला सन्धु इतना प्रभावित थीं कि उन्होंने प्रकाशन के प्रबन्धक श्री मोहन गुप्त को उनकी टाइटल्स दिखाते हुए कहा था - "मोहन जी इस मामले में हमें श्रीकृष्ण जी से सीखना चाहिए. अकेले दम पर प्रकाशन चला रहे हैं और प्रोडक्शन इतना गजब का !"

सम्भवतः मेरे मन में भी पराग से प्रकाशित होने की ललक मुझे उनके यहां तक खींच ले गयी होगी. बहरहाल , उनसे मिलने का सिलसिला चल निकला और कई मुलाकातों के बाद मैंने उनसे अपना कहानी संग्रह प्रकाशित करने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने सहजता से स्वीकार कर लिया. १९९० में 'आदमखोर तथा अन्य कहानियां ' प्रकाशित हुआ. उसके पश्चात श्रीकृष्ण जी की जो आत्मीयता मुझे मिली उसे व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं. रॉयल्टी को लेकर मुझे कभी उनसे शिकायत नहीं रही. उन्हीं दिनों मेरा परिचय उनके मित्र श्री योगन्द्रकुमार लल्ला से हुआ . लल्ला जी 'रविवार' पत्रिका में संयुक्त सम्पादक थे. लला जी ने बताया था कि उन्होंने और श्रीकृष्ण जी ने अपने कैरियर की शुरुआत एक साथ ’आत्माराम एण्ड सन्स’ से की थी. दोनों ही लेखक थे और बच्चों के लिए लिख रहे थे. लल्ला जी आज मेरठ में रह रहे हैं लेकिन आज भी उनकी मित्रता बरकरार है.
श्रीकृष्ण जी ने मेरा दूसरा कहानी संग्रह १९९५ में प्रकाशित किया - 'एक मसीहा की मौत'. लेकिन तब तक उनके प्रकाशन की स्थिति नाजुक हो आयी थी. कारण थे दिल्ली के एक लेखक जो उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार की खरीद योजना के एक उच्च अधिकारी के दलाल थे. खुदा उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे. उन्होंने दिल्ली के अनेक प्रकाशकों को सब्जबाग दिखाया था . श्रीकृष्ण जी भी (स्वयं उनके अनुसार जिन्दगी में पहली बार ) उसके सब्जबाग में आ गये और डूब गये. हासिल कुछ हुआ नहीं था --- कर्जदार अलग हो गये थे. उन्हीं दिनों एक और घटना घटी थी उनके साथ. उनका पराग प्रकाशन रजिस्टर्ड नहीं था. उनके एक मित्र प्रकाशक ने इस नाम को रजिस्टर्ड करवा लिया . परिणामतः उन्हें प्रकाशन का नाम बदलना पड़ा था. मेरा दूसरा कहानी संग्रह उनके नये प्रकाशन 'अभिरुचि प्रकाशन' से प्रकाशित हुआ था.

श्रीकृष्ण जी बहुत उत्साही व्यक्ति हैं. प्रकाशन की डांवाडोल स्थिति के बावजूद वह मोटी -मोटी पुस्तकें प्रकाशित कर रहे थे. उन्होंने एक दिन फोन करके मुझे बुलाया और बोले- "आपसे एक काम करवाना चाहता हूं." पूछने पर बताया कि वह सभी विधाओं पर शताब्दी का उत्कृष्ट साहित्य प्रकाशित करना चाहते हैं और चूंकि मैंने आंचलिक कहानियां और उपन्यास लिखें हैं अतः वह मुझसे 'बीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां' का सम्पादन करवाना चाहते हैं. मैंने सहर्ष स्वीकृति दे दी और १९९७ में दो खण्डों में वह कार्य ८०० पृष्ठों में प्रकाशित हुआ जिसकी न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी चर्चा हुई. पाठकों को यह बताना आवश्यक है कि उन्होंने मुझे सम्पादक के रूप में जो रॉयल्टी दी उसकी कल्पना मैं किसी बड़े प्रकाशक से नहीं कर सकता था.

उनके अति-उत्साह, बढ़ती उम्र और बिक्री की समुचित व्यवस्था के अभाव (क्यॊंकि वह अकेले थे--- उनके सात बेटियां थीं और उनकी शादी हो चुकी थी) के कारण प्रकाशन चरमरा रहा था. उनपर कर्ज का बोझ बढ़ रहा था, लेकिन पुस्तकें प्रकाशित करने के उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आ रही थी. उन्होंने 'मेरी तेरह कहानियां' नाम से कहानी संग्रहों की एक श्रृखंला प्रारम्भ की और कई लेखकों को छाप डाला. अंतिम कड़ी में, कमलेश्वर, प्रेमचन्द, और मुझ सहित पांच लेखकों को प्रकाशित किया. लेकिन इसी दौरान वह भयंकर बीमारी का शिकार होकर लम्बे समय तक शैय्यासीन रहे. उनके मस्तिष्क में कीड़े हो गये थे, जो आज एक आम बीमारी होती जा रही है. कहते हैं बन्ध- गोभी खाने वालों को इस बीमारी का शिकार होने की अधिक सम्भावना होती है.

अन्ततः स्थिति यह हुई कि श्रीकृष्ण जी को प्रकाशन बन्द करना पड़ा. यही नहीं उन्हें मकान भी बेच देना पड़ा. एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया और मेरी पुस्तकों की बची प्रतियां मेरी गाड़ी में रखवा दीं, जिसमें 'मेरी तेरह कहानियां' की तीस प्रतियां और 'वीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां' की लगभग ४४ प्रतियां थीं. "इतनी पुस्तकों का मैं क्या करूंगा.?" पूछने पर सहज- भाव से बोले थे, "मित्रों में बाट दीजिएगा."

उन्होंने मकान बेचने की बात बताते हुए कहा था, "जाने के बाद आपको नयी जगह का पता और फोन नम्बर दूंगा. आप जैसे कुछ ही लेखक हैं जो निस्वार्थ मुझसे सम्पर्क बनाए रहे--- उन्हें कैसे भूल सकता हूं." लेकिन या तो वह भूल गये अपनी असाध्य बीमारी के चलते या उन्हें अपना नया पता बताने में संकोच हुआ था. बात जो भी हो. व्यस्तता के चलते एक वर्ष तक मैं भी उनसे सम्पर्क नहीं साध सका. इतना पता था कि नोएडा में कहीं जनता फ्लैट लेकर वह रह रहे हैं. गत वर्ष इन्हीं दिनों किसी कार्यवश मुझे नोएडा जाना था. उनका पता किससे मिल सकता है यह सोचता रहा. उनकी एक बेटी श्यामलाल कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक है, लेकिन उनका फोन नं मेरे पास नहीं था. अंततः बलराम अग्रवाल ने बताया कि डॉ हरदयाल मेरी सहायता कर सकते हैं. डॉ हरदयाल से श्रीकृष्ण जी का पता लेकर मैं जब नोएडा के उनके जनता फ्लैट में पहुंचा तब उन्हें देखकर विश्वास ही नहीं हुआ कि यह वही श्रीकृष्ण हैं जो कभी हिन्दी प्रकाशन जगत में छाये हुए थे. और कहां विश्वासनगर में उनका भव्य मकान और कहां जनता फ्लैट!

मैं लगभग डेढ़ घण्टा उनके साथ रहा . वह गदगद थे . उस हालत में भी उनका लेखन कार्य चल रहा था. बच्चों के लिए कुछ लिख रहे थे. उनकी लगभग पचास पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें १४ पुस्तकें बड़ों के लिए हैं. उन्हें देखकर मैं सोचने के लिए विवश हुआ कि ईमानदारी और बिना छल-छद्म के प्रकाशन व्यवसाय चलाने वाले व्यक्ति का भविष्य श्रीकृष्ण जैसा हो सकता है. मुझे बहुत पहले भीष्म साहनी जी की साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित कहानी याद हो आयी जिसमें लेखक की स्थिति तो नहीं बदलती--- वह जैसा होता है वर्षों - वर्षों लिखने के बाद भी वैसा ही बना रहता है, जबकि एक प्रकाशक कुछ वर्षों में ही पूंजीपति हो जाता है. लेकिन ऎसे प्रकाशकों के मध्य अपवादस्वरूप श्रीकृष्ण जी जैसे प्रकाशक भी हैं, जो अपनी ईमानदारी के कारण वह जीवन जीने के लिए विवश हैं जिसकी उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी. लेकिन वह इस बात से दुखी नहीं हैं---उनका दुख इस बात का है कि प्रकाशन जगत में भ्रष्टाचार गहराई तक फैल चुका है. अब बड़े -बड़े प्रकाशक नये लेखकों से पैसे लेकर उनकी पुस्तकें छाप रहे हैं. कुछ ऎसे भी हैं जो अप्रवासी हिंदी पंजाबी लेखकों की अनभिज्ञता और का लाभ उठाकर उनसे मोटी रकमें लेकर उनकी पुस्तकें प्रकाशित कर रहे हैं. उनके बल विदेश की यात्राएं कर रहे हैं. खरीद में बैठे अधिकारी का कुछ भी छाप रहे हैं. ऎसे अधिकारी मालामल भी हो रहे हैं और लेखक भी बन रहे हैं. परिणामतः हिन्दी साहित्य का स्तर गिर रहा है.

श्रीकृष्ण जी ने अपने प्रकाशकीय जीवन में कभी कुछ ऎसा नहीं किया . और जब किसी लेखक के खरीद करवा देने के छद्मजाल में फंसे तो उबर नहीं पाये. उन्हें प्रकाशकों की आजकी स्थिति से कष्ट होना स्वाभाविक है.

मैं उनके दीर्घायु होने की कामना करता हूं.

मंगलवार, 26 अगस्त 2008

लघु कहानी



चित्र अवधेश मिश्र

अशोक मिश्र की पांच लघुकहानियां

अंतर

रामप्रसाद बाबू के हाथों में बेटी राधा का पत्र था, जिसमें उसने लिखा था कि बाबूजी मकान खरीद रही हूं. एक लाख रुपये कम हैं, भेज दें. जैसे ही होंगे तुरंत वापस भेज दूंगी.

रामप्रसाद बाबू सोच में पड़ गए. बेटी को धन देना तो चाहिए पर वापसी तो ठीक नहीं है. फिर दूसरा रास्ता क्या है?

अंत में रामप्रसाद बाबू ने बेटी को पत्र लिखा - 'बेटी बहुत मजबूरी है कि तुम्हारी जरूरत पर मेरे हाथ खाली हैं' और फिर डाकघर जाकर पत्र पोस्ट कर दिया.

एक हफ्ता ही बीता था कि बेटे का पत्र दिल्ली से आया - 'बाबूजी मकान खरीद रहा हूं कुछ मदद करें.'

रामप्रसाद बाबू ने तुरंत पत्नी से बातचीत कर बैंक से रुपये निकलवाए और बैंक ड्राफ्ट बनवाकर बेटे को भेज दिया.

इधर रामप्रसाद बाबू काफी बीमार थे, उन्होंने बेटे और बेटी दोनों को तार कर दिया था. बेटे का कहीं पता न था जबकि बेटी तीसरे दिन पहुंच गई और साथ चलने की जिद कर रही थी.

रामप्रसाद बाबू मौन, बिस्तर पर लेटे बस बेटी का हाथ अपने हाथ में लेकर रोते जा रहे थे.


अवमूल्यन

एक अध्यापक अक्सर अपने छात्रों को पढ़ाते समय आदिकाल की सम्मानजनक गुरु-शिष्य परंपरा को बड़े ही गर्व के साथ शिष्यों को बताया करते और लंबी सांस लेकर कहते - तब गुरु का सम्मान शिष्य करते थे और सही मायने में विद्या ग्रहण करते थे, उनके अंदर जिज्ञासा थी, गुरुओं के प्रति सम्मान था. आजकल के छात्र अध्यापक को गाली, धौंस , चाकू दिखा परीक्षा में नकल के लिए प्रतिदिन बेइज्जत करते हैं, अब यह कार्य सम्मान का नहीं रहा.

रोज-रोज के धाराप्रवाह भाषण से ऊबकर एक दिन एक छात्र ने कहा - " तब से अब के इस लंबे अंतराल के बीच क्या आप गुरुजनों के अंदर परिवर्तन नहीं आया. तब शिक्षा देना आप अपना आदर्श, कर्तव्य, जीवन का ध्येय समझते थे और अब आपका ध्यान शिक्षा पर कम अपने वेतनमान और ट्यूशन पर अधिक रहता है सर."

अध्यापक महोदय सोच रहे थे कि अवमूल्यन कहां से हुआ है.

आंखें

एक निर्दोष युवक को जब फांसी होने लगी तो जेलर ने उसकी अंतिम इच्छा पूछी, "तुम्हारी मरने से पूर्व कोई अंतिम इच्छा हो तो बताओ."

"क्या आप पूरी कर सकेंगे?"

"पूरा प्रयास करेंगे."

" तो सुनिए और कान खोलकर सुनिए. मैं अपनी दोनों आंखें इस देश की अंधी न्याय-व्यवस्था को देना चाहता हूं."


उनका दुःख

आज चारों ओर दीपावली का प्रकाश जगमगा रहा था परंतु हमारे घर के ठीक पड़ोस में तिवारी जी के घर में बड़ा सन्नाटा था. मुझे इसका कारण कुछ समझ में न आया.

घर में दीये जलाने के बाद जब पूजा समाप्त हो गयी तो मां ने प्रसाद दिया और कहा, "इसे तिवारी बाबा के यहां दे देना और चरण स्पर्श कर आशीर्वाद ग्रहण कर लेना."

तिवारी जी के घर पहुंच मैंने पुकारा, "तिवारी बाबा."

"कौन हय, अंदर आय जाव".

मैं अंदर गया तो देखा कि वे एक खटिया पर लेटे हुए थे. मैंने पूछा, "बाबा, आपके तीन लड़्के हैं, पर दीपावली पर कोई नहीं आया?"

"अरे बेटवा पहिलका लड़का अमेरिका में बस गवा, दुसरका दिल्ली मा इंजीनियर है, तीसरका बैंक अफसर ---."

"बाबा मगर आपके लड़कन का आप कय खबर तो लेय का चाही."

"बेटवा ऎसन है कि उन्हें पढ़ावा-लिखावा जौन हमार फर्ज रहा. अब वय सब बड़मनई बन गए और हम ठहरेन गांव का आदमी, उनके साथ एडजस्टमेंट कैसे करित?" कहते हुए उन्होंने दीर्घ निश्वास लिया और फिर बोले, "इससे ज्यादा नीक होत कि हम उनका गंवार राखित तब वै खेती करत और साथय-साथ हमार सेवा टहल करत, यहि बात कय हमय बहुत दुःख है."
इअतने में बाहर किसी बम का धमाका हुआ और धमाके से, हम दोनों काम्पकर रह गए.

मैं तो छोटा बच्चा हूं

रमेश की चार वर्षीय बेटी ईशा जब नर्सरी स्कूल में प्रवेश कराने लायक हो गयी तो वह उसे पर्याप्त रूप से तैयारी करा ए, बी, सी, दी, वन, टू, थ्री----- व ए फार एपल, बी फार बर्ड और काफी कुछा रटाकर ले गया.

बाल भारती स्कूल की प्रधानाचार्य ने ईशा से पूछा, "बेबी व्हाट इज योर नेम?"

उसने जवाब दिया, "माई नेम इज ईशा मिश्रा."

प्रधानाचार्य ने फिर पूछा, "बेटे आपके पापा क्या करते है?"

बेटी ईशा ने उत्तर दिया, "पापा पत्रकार हैं."

प्रधानाचार्य ने फिर गिनती और कई शब्दों के अर्थ पूछे . बेटी ने सारे प्रश्नों के उत्तर दिए.

प्रधानाचार्य ने फिर पूछा, "बेटे आपका धर्म कौन-सा है?"

ईशा ने उत्तर दिया, "हमारा कोई धर्म थोड़े है. मैं तो छोटा बच्चा हूं."

******


अशोक मिश्र : युवा कथाकार और पत्रकार अशोक मिश्र का जन्म १५ मई, १९६५ को उत्तर प्रदेश के जनपद फैजाबाद के एक गांव में हुआ था. उनके पिता का नाम श्री एच.एल.मिश्र है. रममनोहर लोहिय अवध विश्वविद्यालय, फैजाबाद से एम.ए.बी-एड. करने के बाद १९९४ से पत्रकारिता से जुड़े. पिछले पन्द्रह वर्षों में आधा दर्जन से अधिक नौकरियां बदलीं.

*१९८२ के आसपास साहित्य से जुड़ाव और लघुकहानी लेखन की शुरुआत. बाद में कहानी, समीक्षा, फीचर, रिपोर्ताज, न्यूज स्टोरी आदि विधाओं में लेखन.

*अब तक सात सौ से अधिक लेख, कहानियां, लघुकहानियां, पुस्तक समीक्षाएं, फीचर, साक्षात्कार आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित.

*सम्प्रति दिल्ली से प्रकाशित साप्ताहिक पत्रिका 'इंडिया न्यूज' के संपादकीय विभाग में सहायक संपादक के रूप में कार्यरत. पत्रिका के साहित्य एवं सांस्कृतिक पृष्ठों के प्रभारी.

*वर्ष २००२ में दीनानाथ की चक्की कहानी को आर्य स्मृति साहित्य सम्मान. सपनों की उम्र लघुकहानी संग्रह वर्ष २००४ में प्रकाशित.

सम्पर्क: डी-१/१०४-डी , जनता फ्लैट्स,
कोंडली, दिल्ली - ११००९६
मोबाइल : ९९५८२२६५५४

ई-मेल :
akmishrafaiz@yahoo.co.in

शुक्रवार, 8 अगस्त 2008

आलेख

बागों में दफ्न हैं इतिहास की यादें

रूपसिंह चन्देल

देश की धड़कन कही जाने वाली दिल्ली जहां अनेक ऐतिहासिक स्थलों, भवनों, गली-कूचों आदि के लिए प्रसिद्ध है वहीं यहां अनेक ऐतिहासिक बाग और आधुनिक पार्क हैं। 'बेगम बाग', 'रोशनआरा बाग', 'शालीमार बाग' और 'कुदसिया बाग' जैसे ऐतिहासिक महत्व के बागों के अतिरिक्त 'लोदी बाग' (1936) , 'तालकटोरा बाग', 'मुगल गार्डन' (राष्ट्रपति भवन), बुद्ध जयंती पार्क, महावीर जयंती पार्क, कमला नेहरू पार्क आदि के कारण यदि दिल्ली को बागों और पार्कों का शहर भी कहा जाये तो अत्युक्ति न होगी। लेकिन अधिकांश बागों-पार्कों की स्थिति आज सोचनीय है। यहां के तीन ऐसे बाग हैं जिनका इतिहास शाहजहां से जुड़ता है।

लालकिला आगरा से ग्यारह वर्षों तक हिन्दुस्तान पर शासन करने के पश्चात शाहजहां ने अपनी राजधानी दिल्ली ले जाने का निर्णय किया था। परिणामतः एक नया शहर बसाने की योजना बनी, जिसका नाम शाहजहानाबाद रखा गया। आगरा और लाहौर किलों की तर्ज पर बादशाह के निवास के लिए 'लालकिला' का निर्माण 1638 ई में इज्जत खां की देखरेख में प्रारंभ हुआ। बाद में इस कार्य को अलीवर्दी खां और मकरावत खां ने अंजाम दिया , जिनके साथ अहमद और हमीद नामक इंजीनियरों का अमूल्य सहयोग रहा था। ग्यारह वर्ष पश्चात 1647 में लालकिला बनकर तैयार हुआ तो 8 अप्रैल 1648 को शाहजहां की दिल्ली में ताजपोशी हुई थी। उसके साथ उसके परिवार का दिल्ली आना स्वाभाविक था। बीमार होकर 1657 में आगारा वापस लौटने तक शाहजहां दिल्ली से हिन्दुस्तान पर शासन करता रहा था। अपने शासन काल के इस दौर में बादशाह ने न केवल विश्वप्रसिद्ध जामा मस्जिद और अन्य भवनों का निर्माण करवाया , बल्कि उसके परिवार के सदस्यों ने कई महत्वपूर्ण बाग लगवाये ।

शाहजहां की बड़ी बेटी थी जहांआरा , जिसने पिता की खिदमत में अपना जीवन ही अर्पित कर दिया था। जहांआरा ने चांदनी चौक से सटा (आज के टॉऊन हाल के सामने) एक बड़ा बाग लगवाया था, जिसे 'जहांआरा बाग' या 'बेगम बाग' कहा जाता था। रंग-बिरंगे सुगन्धित फूलों से सज्जित था वह बाग। उसने बाग के मध्य में एक सराय का निर्माण भी करवाया था। प्रसिद्ध इतिहासकार बर्नियर के अनुसार सराय अपनी मेहराबों और स्थापत्य के कारण उस काल की खूबसूरत इमारतों में से एक थी। बाद में अंग्रेजों ने इस बाग का नाम बदलकर 'कंपनी बाग' रख दिया था। यही नहीं इसके बड़े भाग को नष्ट करवाकर दिल्ली रेलवे स्टेशन का निर्माण करवाया । आजादी के बाद इसे पुनः 'बेगम बाग' कहा जाने लगा । चांदनी चौक से पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन की ओर जाने वाली सड़क इस बाग को दो भागों में बांटती है। आजादी के कुछ वर्षों पश्चात ही इस बाग का पुनः नामकरण किया गया। इसके एक भाग को 'आजाद पार्क' और दूसरे को 'कंपनी बाग' कहा जाने लगा। इस प्रकार 'बेगम बाग' या 'जहांआअरा बाग' इतिहास के पन्नों में दफ्न होकर रह गया, जबकि अपना अतीत का गौरव तो वह बहुत पहले ही खो चुका था।
लोदी बाग
'जहांआरा' या 'बेगम बाग' की भांति दिल्ली के उत्तर-पश्चिम में 'बादली की सराय' के निकट कश्मीर और लाहौर के शाही 'शालीमार बाग' के अनुकरण पर शाहजहां की एक बेगम अज्जून्निसां ने, जो बीबी अकबराबादी के नाम से जानी जाती थीं, शालीमार बाग लगवाया था। बाग के मध्य में शीश महल नामकी भव्य इमारत बनवायी थी, जिसमें बैठकर वह बाग के सौंदर्य, उसके झरनों, फव्बारों और छोटी नहरों का अवलोकन करती थी। कहा जाता है कि यह वही बाग है, जिसमें ताज के दावेदार भाइयों से मुक्ति पाने के पश्चात आनन-फानन औरंगजेब की ताजपोशी की गई थी। बर्नियर लिखता है कि दिसम्बर, 1664 में कश्मीर और लाहौर प्रस्थान (बीमारी की हालत में) करते समय औरंगजेब ने इसी बाग में पहला पड़ाव डाला था। 1803 के बाद कुछ समय के लिए शीश महल को अंग्रेज रेजीडेण्ट के ग्रीष्मकालीन निवास के रूप में प्रयोग करते रहे थे। कहते हैं सर चार्ल्स मेटकॉफ को यह महल बहुत पसंद था। वह अपनी भारतीय पत्नी के साथ प्रायः वहां आकर रहता था। बाद में उसे 'मेटकॉफ साहब की कोठी' के नाम से जाना जाने लगा था। बाग के विषय में 1825 में पादरी हर्बर ने आहत भाव से कहा था, "यह पूर्णतया नष्ट हो चुका है।" 1857 की क्रान्ति के बाद यह बाग मुगलों की सम्पत्ति नहीं रहा । उसे बेच दिया गया था। पादरी हर्बर के कथन से बाग की आज की स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है। उसके सभी फव्बारे और पानी के स्रोत पूरी तरह मिट्टी में छुप चुके हैं और यह पता लगाना भी कठिन है कि बाग में निरतंर प्रवाहित होने वाले पानी का उद्गम कहां से होता था।
कंपनी बाग
'शालीमार बाग' की भांति ही अति- ऐतिहासिक महत्व का बाग है 'रोशनारा बाग' । लालकिला से पश्चिम में लगभग तीन मील की दूरी पर शाहजहां की दूसरी बेटी रोशनआरा बेगम ने यह बाग लगवाया था । जहांआरा जहां अपने पिता की चहेती थी, वहीं रोशनआरा औरगजेब की प्रिय। एक प्रकार से वह पिता के विरुद्ध ही रही थी और औरंगजेब के बादशाह बनने के लिए उसने हर संभव प्रयत्न किए और सहयोग दिया था। औरगंजेब के बादशाह बनने के पश्चात उसने प्रथम महारानी (बेगम) के सभी अधिकार प्राप्त कर लिए थे। दरबारियों और जनता में 'बेगम साहिबा' के नाम से प्रसिद्ध रोशनआरा का शासन में पर्याप्त हस्तक्षेप और दबदबा था। एक प्रकार से वह औरगंजेब की मुख्य सलाहकार की भूमिका निभाती थी। सर यदुनाथ सरकार के अनुसार वह इतनी ताकतवर थी कि कई बार औरंगजेब उसकी बात की उपेक्षा नहीं कर पाता था। शिवाजी को आगरा में कैद करवाने के पीछे 'बेगम साहिबा' की ही सलाह थी। उसी रोशनआरा ने लालकिला से बाहर निकल प्रकृति का आनंद लेने और शांति-पूर्वक कुछ क्षण व्यतीत करने के उद्देश्य से 1650 में यह बाग लगवाया था, जो कालांतर में उसीके नाम से चर्चित हुआ। हालांकि तब औरंगजेब बादशाह न था, लेकिन रोशनआरा का दबदबा प्रारंभ से ही था।

रोशनआरा ने बाग के मध्य में एक 'ग्रीष्म महल' (समरहाउस) बनवाया था, जिसके विषय में बर्नियर का कथन है कि वह स्थापत्य कला का अनूठा नमूना था । बाग के चार दिशाओं से चार स्रोत इस 'समर हाउस' तक जाते थे, जिनसे अनवरत पानी इसमें पंहुचता रहता था। जाहिर है ये स्रोत यमुना से निकलते थे। यही नहीं महल के चारों ओर फव्बारे, झरने और बेगम के स्नान के लिए खूबसूरत तालाब था। 'समर हाउस' का जो वर्णन मिलता है उससे स्पष्ट है कि वह आज प्राप्त तालाब और 'रोशनआरा क्लब' के मध्य अवस्थित रहा होगा, जिसे 1875 में कर्नल क्रैक्राफ्ट ने नष्ट करवा दिया था। तालाब यहां आज भी है, लेकिन वह तालाब नहीं किसी गड़ैय्या की भांति है, जिसके पूर्वोत्तर की ओर केवल दो स्थानों पर सीढ़ियां और लाल पत्थर की दीवारें शेष हैं। दक्षिण-पश्चिम की ओर के भाग को समय के हस्तक्षेप ने मिट्टी से ढक दिया है। तालाब के उत्तर-दक्षिण की ओर बेगम के बैठने के लिए छतरियां बनवायी गयी थीं, जो आज भी विद्यमान हैं। बेगम ने बाग को न केवल हरे-भरे वृक्षों से सजाया था, बल्कि रंग-बिरंगे फूल भी लगवाये थे । गर्मी के दिनों में प्रायः बेगम बाग में तशरीफ लाती थी। बर्नियर लिखता है, "जब बेगम का काफिला लालकिला से चलता , उसमें अनेक हाथी होते , जिन पर स्वर्ण जड़ित झूले और झालरें पड़ी होतीं और चांदी की घण्टियों की मधुर टुनटुनाहट से वातावरण झंकृत होता रहता । बेगम स्वर्ण-जड़ित कपड़े से ढकी पालकी में होती थी और उसके आगे-पीछे दो छोटे कद के हाथी चलते थे। बेगम कुछ घण्टे फूलों की मादक सुगंध, ऊर्ध्वगमित फव्बारों और निरंतर प्रवहित झरनों के मध्य शांतिपूर्वक व्यतीत करती थी।"

औरंगजेब की विश्वासपात्र और चहेती बहन इस बेगम का अंत अतंतः दुखद था । 1664 में औरंगजेब अत्यधिक बीमार पड़ा। रोशनआरा को उसके बचने की कोई आशा न दिखी। ऐसी स्थिति का लाभ उठाकर बेगम ने षडयंत्र कर राजकीय मुद्रिका प्राप्त कर ली और औरंगजेब के वास्तविक उत्तराधिकारी उसके बड़े पुत्र शाह आलम को बेदखलकर औरंगजेब के छः वर्षीय पुत्र आजमशाह को उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। ऐसा इसलिए, जिससे वह आजमशाह के बालिग होने तक उसके नाम पर शासन कर सके। लेकिन रोशनआरा के दुर्भाग्य से औरंगजेब स्वस्थ हो गया और बेगम के षडयंत्र का पर्दाफाश हो गया। इससे दरबार में न केवल बेगम के अधिकार कम हुए, बल्कि औरगंजेब ने उसे जहर देकर मरवा दिया था। 1671 में बेगम को रोशनआरा बाग में दफना दिया गया, जहां आज भी उसका खण्डहरनुमा मकबरा अवस्थित है। मकबरे के चारों ओर चार कमरे हैं, जो बंद हैं। बेगम की मजार असुरक्षा और देखरेख के अभाव में नष्टप्रायः है। मकबरे के चारों ओर पतली नहर है, जिसमें कभी पानी के फव्बारे चलते रहे होगें। मकबरे के ठीक सामने पूर्व की ओर मुख्य द्वार है, जो ढहने की स्थिति में है। मुख्य द्वार पर जंग खाया लोहे का विशाल दरवाजा अतीत की कहानी कह रहा है। द्वार के सामने रोशनआरा मार्ग के उस पार लाल पत्थर की एक इमारत है,जिसके विषय में कहा जाता है कि उसे भी रोशनआरा ने बनवाया था। आज उसमें दिल्ली नगार निगम का प्राइमरी स्कूल चल रहा है।

रोशनआरा की मृत्यु के लगभग दो सौ वर्षों के अंदर न केवल बाग की स्थिति खराब हो चुकी थी, बल्कि 'समर हाउस' भी ढह गया था। 1875 में दिल्ली के तत्कालीन कमिश्नर कर्नल क्रैक्राफ्ट ने रोशनआरा के मकबरे को छोड़कर 'समर हाउस' सहित सभी इमारतों को गिरवा दिया था और बाग को नया रूप देने का प्रयास किया था। उत्तर की ओर गुलाब के फूलों का बाग लगवाया गया था, जिसके एक ओर पैंतीस फीट चौड़ी नहर खुदाई गई थी। बाग में सर्वत्र रंग-बिरंगे फूलों के पौधे लगवाये गये थे। बाग को लोदीबाग
दर्शनीय 'सौन्दर्य स्थल' के रूप में विकसित करने का प्रयास किया था । शायद यह सब कुछ वर्षों तक रहा भी होगा। लेकिन आज उसके निशान भी शेष नहीं हैं। बाग के पूर्व दिशा में मुख्य द्वार के निकट इन दिनों एक व्यायामशाला बाग की जमीन का अतिक्रमण कर चलायी जा रही है। उत्तर की ओर प्रशासन की ओर से बाग के एक हिस्से को बच्चों के 'ट्रफिक खेल' के लिए विकसित कर लिया गया है। इसी दिशा में काफी बड़े भाग में सी पी डब्लू डी का दफ्तर है। कुछ दिनों पहले तक इसके उत्तर-पश्चिम में 'राजोरिय नर्सरी' हुआ करती थी।

बाग की छाती को दो सड़कें चीरती हैं। एक गुलाबी बाग (यह भी ऐतिहासिक बाग रहा है, लेकिन बढ़ती आबादी और अतिक्रमण के कारण छोटे से भूखण्ड में ही सिमट गया है) से रोशनआरा मार्ग की ओर और दूसरी शक्तिनगर की ओर निकलती है। बाग को रौंदते भारी प्रदूषण छोड़ते वाहन इन सड़कों पर रात-दिन दौड़ते रहते हैं। बाग के नाम पर जो भी पेड़ पौधे बचे हैं प्रदूषण उनके लिए कितना घातक है, न इस विषय में उद्यान विभाग गंभीर है और न ही पुरातत्व विभाग। सातवें दशक में जापानी प्रकृति विशेषज्ञ मोरी इस बाग को देखने आये थे। उन्हें इसमें अपरिमित संभावनाएं दिखी थीं और उन्होंने यहां जापानी ढंग के बाग का सुझाव दिया था, जिसमें झूले, पतली नहरें, जापानी किस्म की छतरियां आदि बनवाया जाना था और बाग को एक खूबसूरत दर्शनीय स्थल के रूप में विकसित किया जाना था। लेकिन योजना का क्रियान्वयन न हो सका। दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री मदनलाल खुराना ने अपने कार्यकाल में बाग को पर्यटन योग्य बनाने के लिए तेरह लाख रुपये मुकर्रर किए थे, लेकिन बाग जैसा था आज भी वैसा ही है।
रोशनआरा
बाग की जीवन्तता किंचित रोचनआरा क्लब के रूप में है। बाग के पश्चिमी छोर के बड़े भू भाग को जहां से कभी 'समर हाउस' के लिए एक जलस्रोत जाता था, दिल्ली गजेटियर (1970) के अनुसार 7 जुलाई, 1923 को रोशनआरा क्लब को तीस वर्षों के लिए मामूली किराये पर लीज पर दे दिया गया था। क्लब में यह तारीख 1922 उल्लखित है। बाद में यह लीज अगले तीस वर्षों के लिए और बढ़ा दी गई थी। आश्चर्य यह कि क्लब के इतिहास से सम्बन्धित क्लब में कोई रिकार्ड नहीं है। क्लब के बीस संस्थापक सदस्यों के नामों के अतिरिक्त क्लब के लोग कुछ भी बताने मे असमर्थ थे। क्लब में आधी रात के बहुत बाद तक लक्ष्मीपुत्रों की गतिविधियों का साक्षी बना रहता है अंधेरे में खोया बाग का पूर्वी हिस्सा। बाग के शेष भाग में उद्यान विभाग को मुंह चिढ़ाते बच्चे दिन भर क्रिकेट खेलते रहते हैं। कभी-कभी बेगम की मजार के पास सत्संग होते भी देखा जा सकता है। बाग के चारों ओर कूड़े के ढेर हर मौसम में सड़ान्ध पैदा करते रहते हैं। अतीत का यह गौरव आज कितना उपेक्षित है !

दिल्ली का एक और ऐतिहासिक बाग है -- 'कुदसिया बाग।' इसे 1748 में बादशाह मुहम्मदशाह की बेगम और अहमद शाह की मां कुदसिया बेगम ने लगवाया था। कुदसिया एक दासी थी, जो बादशाह की बेगम बनने का गौरव प्रप्त कर सकी थी। बाग के लिए उसने कश्मीरी दरवाजे की ओर यमुना का किनारा चुना था। उसमें उसने एक खूबसूरत मस्जिद और एक चबूतरा बनवाया था। चबूतरे पर बैठकर यमुना को निहारा जा सकता था। यमुना की ओर दो मीनारें और पत्थरों की चौरस छत भी बनवायी थी। आज मस्जिद का कुछ भाग ही शेष बचा है, शेष सब नष्ट हो चुका है। आज ये सभी ऐतिहासिक बाग जिस रूप में हैं, यदि समय रहते ध्यान न दिया गया तो इनकी उपस्थिति मात्र इतिहास की पुस्तकों में ही देखी जा सकेगी।

सोमवार, 28 जुलाई 2008

कविता


पांच कविताएं

(सभी कविताओं के अनुवाद : पीयूष दईया)


नॉर्वेजियन कविता
मेरा, गो कि कड़वा__

पाल ब्रेक्के

तुमने इंतजार किया, पीछे तुम्हारे खिड़की का।
आधी मुड़ी तुम्हारी पीठ
और तुम्हारे चारों ओर रोशनी
ऐसे थी मानो तुम कर रही हो आराम एक हाथ में।
यह ऐसे था मानो तुम वहां खड़ी थी
औरमुझे छोड़ दिया ओह तिनके--तिनके
ज्यों तुमने सुना गरदन झुकाए
किसी को जो गुजरा था

तुम्हें जीत ले गया जो
मुद्दत पहले के आवास में;
दूर और बेगाना मैं वहां खड़ा था
एक्बार, हम जिसे कहत हैं 'अभी'।
रोशनी के हाथ में तुम डोलती हो
सुदूर बाहर समय के ---
नहीं, वे मेरे नहीं थे, कभी भी,
डग जिनका तुमने इंतजार किया!

लेकिन मैं यहां खड़ा होउंगा छयाओं में--
अंधेरा मुझ से पी सकता है
महान रोशनी के तट पर
जो झुकती है तुम्हारे बालों के गिर्द।
पहर है मेरा, गो कि कड़वा।
ओ इसे तोड़ तो, इसे मत तोड़ो
सब संग मैं खड़ा हूं और याद करता हूं
पहुंच नहीं सकता मैं उस जगह से।

जापानी कविता
एक पत्ती, हवा और रोशनी

अत्सूओ ओहकी

मैं लिपटूंगा
घास की एक पत्ती से
हवा की तरह।

मैं झूलूंगा
एक मकड़ी के जाले से
एक पत्ती भांति।

मैं छनूंगा
एक चिउरे की पांखों से
जैसे रोशनी।

मैं बनूंगा हवा, रोशनी
और एक पत्ती।
इतना खाली है मेरा ह्रदय।

इतालवी कविता
बड़ा दिन
उंगारेती (1888-1970)

सड़कों के
एक जाल में
गोता लगाने की
मेरी कोई चाहना नहीं

ऐसी थकान
मैं महसूस करता हूं
अपने कंधों पर

जो छोड़ दे मुझे इस तरह
जैसे
एक चीज
अर्पित
एक कोने में
और भूली हुई

यहां
होता है महसूस
नहीं कुछ
सिर्फ भली गर्माहट

मैं ठहरा हूं
धुएं की
चार
कुलांचों संग
अंगीठी से आती

रोमानियाई कविता
रास्ता
त्रिस्तान जारा (1896-1963)

यह कौन सा मार्ग है जो हमें अलगता है
जिसके आर-पार मैं फैलाये हूं हाथ अपने विचारों का
हरेक उंगली की पोर पर लिखा है एक फूल
और मार्गान्त एक फूल है जो चलता है तुम संग

ऑस्टियन कविता
ग्रीष्म
जॉर्ज त्राकल (1887-1914)

शाम होने पर, कोयल की कुहू
थमती है वन में।
नीचे की ओर झुकती है सतह दानेदार,
लाल खसखस।

काले बादल गरजते हैं बौराते
पहाड़ी ऊपर।
झींगुर का चिरन्तन गान
लुप्त हो जाता मैदानों में।

पात पांगर
पेड़ के और नहीं खड़कते।
पेचदार जीने पर
तुम्हारा वेश सरसराता है।

नीरव बत्ती एक चमकती है
सियाह कमरे में;
रुपहला हाथ एक
इसे बुझाता है;

न हवा, न तारे! रात।


स्वभाव से अन्तर्मुखी व मितभाषी युवा लेखक, सम्पादक, अनुवादक व संस्कृतिकर्मी पीयूष दईया का जन्म 27 अगस्त 1973, बीकानेर (राज.) में हुआ। आप हिन्दी साहित्य, संस्कृति और विचार पर एकाग्र पत्रिकाओं ''पुरोवाक्'' (श्रवण संस्थान, उदयपुर) और ''बहुवचन'' (महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा) के संस्थापक सम्पादक रहे हैं और लोक-अन्वीक्षा पर एकाग्र दो पुस्तकों ''लोक'' व ''लोक का आलोक'' नामक दो वृहद् ग्रन्थों के सम्पादन सहित भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर की त्रैमासिक पत्रिका ''रंगायन'' का भी बरसों तक सम्पादन किया है। पीयूष ने हकु शाह द्वारा लिखी चार बाल-पुस्तकों के सम्पादन के अलावा अंग्रेज़ी में लिखे उनके निबन्धों का भी हिन्दी में अनुवाद व सम्पादन किया है। हकु शाह के निबन्धों की यह संचयिता,''जीव-कृति'' शीघ्र प्रकाश्य है। ऐसी ही एक अन्य पुस्तक पीयूष चित्रकार अखिलेश के साथ भी तैयार कर रहे हैं। काव्यानुवाद पर एकाग्र पत्रिका ''तनाव'' के लिए ग्रीक के महान आधुनिक कवि कवाफ़ी की कविताओं का हिन्दी में उनके द्वारा किया गया भाषान्तर चर्चित रहा है। वे इन दिनों विश्व-काव्य से कुछ संचयन भी तैयार कर रहे ।
संपर्क : विश्राम कुटी, सहेली मार्ग, उदयपुर (रजस्थान) - 313001
ई-मेल : todaiya@gmail.com

सोमवार, 21 जुलाई 2008

पुस्तक चर्चा



चित्र : अशोक गुप्ता

सम्बन्धों की लाशों पर गिद्धों का उत्सव

रमेश कपूर

उत्सव अभी शेष है(उपन्यास)
*अशोक गुप्ता,
शिल्पायन, १०२९५, लेन नं० १, वैस्ट गोरखपार्क,
शाहदरा -११००३२
पृष्ठ संख्या : २१४, मूल्य : २२५/-


संबन्ध अपनी सामाजिकता को ओढ़कर समय को क्रूर (कहां क्रूरतम माना जाए) चक्र के मध्य ही अपने आप को स्थापित करते हैं और वैयक्तिक आवश्यकताओं के साथ अपनी महत्ता सिद्ध करते हैं। इन मायनों में वे स्वयंसिद्ध होते हैं। किन्तु इस स्वयंसिद्ध होने में कितनी जद्दोजहद और कितना संघर्ष शामिल रहता है, यही देखना महत्वपूर्ण है। क्योंकि अधिकांश लोगों के लिए इसी जद्दोजहद---इसी संघर्ष और इसी महत्ता को जानना अथवा समझ पाना संभव नही हो पाता। तब तो और भी कठिन हो जाता है, जब वे वैयक्तिक स्तर पर एक-दूसरे की भावनाओं के साथ पूरी अंतरंगता से जुड़े हों… पूरी वचनबद्धता में जकड़े हों और संबन्धों को एक नए धरातल पर अपने-आपको परखने की प्रक्रिया में हों।

शायद ऐसे ही सम्बन्ध नीलकंठ और उसकी पत्नी रोहिणी के बीच हैं, जो वरिष्ठ कथाकार अशोक गुप्ता के सद्यः प्रकाशित प्रथम उपन्यास 'उत्सव अभी शेष है' में एक नया अर्थ खोजने का प्रयत्न करते हैं। हालांकि पति-पत्नी का यह संबन्ध अपने-आप में पूरी तरह सफल और आलोढ़ित दिखाई नहीं देता। ऐसा दिखाने की लेखक की कोई चेष्टा भी नहीं रही है। क्योंकि यही शायद लेखक का अभीष्ट भी है। लेकिन जैसी विस्फोटक स्थितियों का सामना उपन्यास के आरंभ में रोहिणी करती या जिनसे पाठक की पहली भिड़तं होती है, वे विस्मित कर देने वाली स्थितियां हैं ---- वीणा के पूरी तरह कस दिए गए तारों की तरह -- टूटने की कगार पर।

मदिरा--और शायद धन भी ---- और शायद अवसर भी पाने के नशे में आकंठ डूबे नीलकंठ को, बाजारू और शातिर औरतों के शरीर को भरपूर भोगने, लेकिन फिर भी उनमें वांछित आनन्द न ढूंढ़ पाने वाले अपने मित्र राठौर के समक्ष 'कापुरुष' की तरह अपनी पत्नी रोहिणी को परोस देने की मजबूरी झेलने में जो मक्कार साझेदारी निभानी पड़ती है, वह रोहिणी को भी हत्प्रभ कर देती है। इस तरह आरंभ होता है नैतिकता और अनैतिकता का वह अध्याय, जिसका प्रभाव (---- और तनाव- उपन्यास में देर तक ---(और दूर तक) दिखाई पड़ता है। इस तनाव को 'हैंडल' कर पाने की क्षमता और उसके प्रभाव पर हम आगे चर्चा करेंगे। फिलहाल प्रश्न नैतिकता-अनैतिकता का है। यह सच है कि एक इन्सान के अपने लिए जो चीज नैतिक है, वही दूसरे के संबन्ध में अनैतिक हो जाती है। यह फर्क वह दृष्टि लाती है, जो चीजों को देखती है। शायद इसीलिए ही पात्रों में किसी भी प्रकार का अवरोधबोध जागृत नहीं होता। सबके पास अपने हक में दिए जाने वाले तर्क (या कुतर्क) उपस्थित हैं। चाहे वह नीलकंठ हो, जो अपनी पत्नी को एक वस्तु समझकर राठौर के समक्ष प्रस्तुत करता है। और बड़े ही नाटकीय और धूर्त अपराधबोध से ग्रस्त होने का भ्रम पैदा करता है। इसके साथ ही वह पुनः वहीं , उसी बिन्दु पर लौट आना चाहता है, जहां से उसने अपने कायराना इरादों को अन्जाम दिया था। किन्तु लौटना उसके लिए इतना आसान नहीं सिद्ध होता। क्योंकि वापस लौटने की स्थितियां उतनी अनुकूल नहीं रह पातीं।

--यही स्थिति चन्द्रा की भी है, जो अपने पति की अनुपस्थिति में अपनी दैहिक जरूरतों को नीलकंठ से पूरी करती है। वह भी नैतिकता-अनैतिकता के द्वंद्व से पर है। न वह अपने पति के प्रति अपराधबोध से ग्रस्त है, न ही रोहिणी के प्रति।

--याफिर राठौर, जो नीलकंठ की पत्नी को 'किसान स्क्वैश' के एक उत्पाद की तरह 'इट इज डिफरेंट' कहकर उसे चटकारे लेकर चखता है और नीलकंठ को अपनी पत्नी को पुनः शीशे में उतार लेने कामशविरा देताहै।

लगता है कि उपन्यास के सारे संबन्ध बाजारवाद से ही संचालित होते हैं। एक 'बिकाऊ' चीज की तरह। यह हमारे वर्तमान समाज का बदला हुआ चेहरा है। न कहीं कोई लगाव---- न कहीं कोई भावना--- न कोई सामाजिक मूल्य… मात्र एक उत्पाद। शानदर 'पैकेजिंग' में लिपटा। चमचमाता---आकर्षित करता--- निमंत्रण देता। --- समाज और सामाजिक बन्धनों की संरचना में जिस तरह का बदलाव--- और जिस तरह का अवमूल्यन हमारे आसपास दिखाई पड़ता है, उसी की पड़ताल करता है यह उपन्यास। अवमूल्यन की ज्ञान पगडंडी से रोहिणी अपने लिए एक नया मार्ग तलाशने का प्रयास करती है और उसकी तलाश राजबीर तक जाकर रुक जाती है, जो हमेशा खामोश रहकर रोहिणी को हालात से लड़ते---- और लड़खड़ाते देखता है और उसकी असह्यता की स्थिति में आगे बढ़ कर उसका हाथ थाम लेता है।

इस नई शुरूआत में स्त्री के स्वावलम्बन और स्वतंत्रता का प्रश्न भी खड़ा होता है, जो इस उपन्यास की आधारशिला बनता है। यहां फिर वही प्रश्न है कि आखिर स्त्री अपनी स्वतंत्रता चाहती किससे है ? अपने समाज से, जो उसे गर्त में धकेलने में कोई कसर नहीं छोड़ता ? या अपने उस संबन्ध से, जो पहले ही बिस्तर पर कुचल दिया गया था?-- या फिर अपने-आपसे, जो वह चाहकर भी नहीं कर पाती? -- या फिर अपनी देह से, जिसके कारण ही वह इतनी बड़ी त्रासदी झेलती है-- और जिसका अधिकार वह किन्हीं कमजोर-कंपकंपाते क्षणों में --- बेहद मासूम चुप्पियों के बीच राजबीर को सौंप देती है? यहीं वह महत्वपूर्ण बिन्दु है, जो उपन्यास का प्रस्थान बिन्दु बनते-बनते रह जाता है। क्योंकि रोहिणी के लिए सम्बन्धों के होने--- उनके टूटने-बिखरने --- और पुनः उठ खड़े होने के बीच एक नया रास्ता तलाश करने का निर्णय उसका अपना नहीं है। क्योंकि सम्बन्धों को तोड़ने का निर्णय भी उसका अपना नहीं है। क्योंकि इस निर्णय के पीछे उसका अपना कोई चुनाव--- या विचार नहीं है। ऐसा भी इसलिए है क्योंकि अपने साथ होने वाली किसी भी ज्यादती --- या त्रासदी--- या धोखाधड़ी के लिए उसके अन्तस्तल में किसी भी प्रकार का कोई प्रतिरोध नहीं है । प्रतिरोध होता तो संभव है प्रतिशोध भी होता, जो परिस्थितियों से लड़-झगड़ कर अपने अस्थित्व --- अपने 'होने' को सिद्ध करता। कम से कम तब वह स्वयं को एक 'वस्तु' मात्र में परिवर्तित नहीं होने देता।

नैतिकता-अनैतिकता की ज्ञान विस्फोटक उदासीनता का प्रभाव यह कि तमाम सम्बन्ध उस संवेदनशील स्थिति पर आकर ठहर जाते हैं, जहां अपराधबोध जैसी किसी सम्भावना की गुंजाइश ही नहीं रह जाती। इन परिस्थियों में यह पता ही नहीं चल पाता कि तमाम पात्र सम्बन्धों को किस धरातल पर स्थापित करना चाहते हैं। प्रेम में देह को ढूंढना चाहते हैं या देह में प्रेम को ? क्योंकि प्रेम को प्रेम के स्तर पर --- और देह को देह के स्तर पर जानने का प्रयास तो कहीं है ही नहीं। यहां तक कि राजबीर-रोहिणी का प्रेम-प्रसंग (यदि इसे वास्तव में एक प्रेम-प्रसंग माना जाए तो) भी इससे अछूता नहीं है। क्योंकि वह भी एक समझौते के फलस्वरूप ही पनपा है। किसी मजबूरी की तरह जो एक विकल्पहीन स्थिति में मात्र ओढ़ने-बिछाने -- ढोते जाने की प्रक्रिया बन जाता है। ऐसे में, यदि हर व्यक्ति की कमियों-खूबियों को एक तरफ रख दें, तो वे किसी 'फ्रायडीय' अवधारणा से ग्रस्त महसूस होने लगते हैं। जिनका प्रत्येक क्रिया-कलाप --- या प्रत्येक हरकत-- प्रत्येक सोच यौनिक क्रियाओं या प्रतिक्रियाओं से संचालित होती है।

और यह मानने में हमें बिल्कुल भी संकोच नहीं करना चाहिए कि उनका यह आचरण मनोवैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित नहीं है। यहीं लेखक उनके (पात्रों के) मनोविज्ञान को पकड़ने में कहीं न कहीं बहुत बड़ी चूक कर गया है। यहां महादेवी वर्मा का यह उदाहरण देना भी आवश्यक जान पड़ता है कि -"महत्वपूर्ण सिर्फ यह नहीं कि क्या लिखा गया है बल्कि यह अधिक महत्वपूर्ण है कि कैसे लिखा गया है।"

शायद इसी चूक के कारण पात्रों में पूर्ण तथ्यपरकता नहीं आ पाई जिसकी यहां बहुत आवश्यकता थी। लेखक स्वयं 'भीतर की बात' उभारने में बहुत सक्षम है, जिसकी साक्षी हैं उनकी कहानियां, जो मनोवैज्ञानिक कसौटी पर अपनी उपादेयता सिद्ध करती हैं। किन्तु यहां पात्रों का मनोविज्ञान--- या उनका व्यवहार --- या उनकी सोच स्वय उनके ही अनुकूल नहीं बैठती। वरना क्या कारण है कि चन्द्रा जैसी शातिर औरत, जो अपनी बात कह गुजरने में माहिर है--- जो बात से घायल को फुसलाने-बहलाने की कला जानती है--- जो अपनी इसी काबलियत के दम पर नीलकंठ को बांधती और भोगती है किन्तु रोहिणी की त्रासदी जानकर किसी संवेदनशील भारतीय नारी की तरह व्यथित होकर रो उठती है--- और उसे अपनी ही देह से घिन आने लगती है। उसकी यह मनःस्थिति भी उसके शातिराना व्यवहार की तरह नाटकीय है।

और क्या कारण है कि रोहिणी चन्द्रा के साथ अपने पति के अवैध सम्बन्धों को भली-भांति जानते हुए भी चन्द्रा के साथ अत्यन्त सहजता के साथ उसकी 'सहेली' बनकर रहती है। और अपने सुख-दुःख को उसके साथ बांटती नजर आती है। अनैतिकता को यह सीधा-सीधा उसका मौन समर्थन नहीं तो फिर क्या है? इससे क्या वह किसी भी प्रकार की शिकायत किसी से भी करने से अपना अधिकार नहीं खो बैठती? स्त्री-विमर्श की राह में यही क्या सबसे बड़ी बाधा नहीं है? उदासीनता का यह प्रकटीकरण क्या यथार्थ-परकता को संदेहास्पद नहीं बना देता?

और क्या कारण है कि रोहिणी की दस वर्षीय बेटी सरस्वती किसी विद्वान व्यक्ति की तरह धाराप्रवाह प्रवचन देने से चूकती नहीं और चाहती है --"मेरी एक बात सुन लो पहले। इतने दिन से नहीं कहा मैंने, आज बताती हूं। पापा, ताई की नीयत हमें खेत , मकान और नकदी कुछ भी देने की नहीं है। वह बार-बार कहती है कि मेरे जीते जी इसमें से सूत भी किसी को नहीं मिलेगा। सब सुनते हैं इस बात को । बुआ भी सुनती हैं। मेरा वहां रहना खटकता था ताई की आंख में। उन्हें लगता था कि मैं किसी भी समय उनके इस इरादे को समझ कर आपको बुला सकती हूं--- वह डरती थीं कि मैं उनके इरादे उन्हें बताकर तुम्हारे हक में आवाज न बटोर लूं।"(पृष्ठ - 195)

उपन्यास में पात्रों की पारिवारिक पृष्ठभूमि या शैक्षणिक परिवेश को देखते हुए आम बोलचाल में जम कर अंग्रेजी शब्दों का प्रयोग आश्चर्य पैदा करता है। यहां तक कि रोहिणी भी अंग्रेजी भाषा की ज्ञाता होने का भ्रम पैदा करते हुए कहती है कि "साथ सोने से बड़ा सुख साथ रोने में होता है--- शायद इसीलिए अंग्रेजी में 'स्लीप' का नाद 'वीप' से जुड़ता है। रोज - ब-रोज की जिन्दगी में रोना अपने सही माने में कहां जीता है आदमी---- सिर्फ 'क्राई' करता है। (पृष्ठ - 193)

शब्दों का ऐसा विश्लेषण वास्तव में कोई विलक्षण व्यक्ति ही कर सकता है। इसके कारणों की पृष्ठभूमि की चर्चा करने से पहले मैं उपेन्द्रनाथ अश्क के दो खण्डों में प्रकाशित श्रेष्ठ कृतित्व 'अश्क 75 - दूसरा खण्ड' में स्वयं अश्क जी का मानना है कि 'लेखक के जीने का उसके लेखन पर सीधा प्रभाव पड़ता है। वह जैसे जीता है, जिस दृष्टि से जीता है, जिन्दगी से उसकी जो आकांक्षा है, उसी के अनुसार उसका लेखन ढलता है। --- और 'जिन्दगी को लिखने के लिए जिन्दगी का सीधा सम्पर्क जरूरी है।

यह प्रसंग कृतित्व में समाज के सीधे प्रभाव और चित्रण में आता है, जो सीधे-सीधे भाषा के साथ जुड़ता है और औपन्यासिक परिवेश व पात्रों को गढ़ता है। जबकि 'उत्सव----' में लेखकीय निष्कर्षों ने तो परिवेश को क्षति पहुंचाई ही है, भाषा भी सभी पात्र वही बोलते हैं, जो लेखक की अपनी भाषा है। यह प्रत्यक्ष रूप से पत्रों के जीवन में हस्तक्षेप है, जिससे सब लेखकों को बचना चाहिए ताकि कृति में यथार्थपरकता को बनाए रखा जा सके। यदि ऐसा होता तो यह संभव ही नहीं था कि चन्द्रा , राठौर , नीलकंठ के परिवार, राजबीर-रोहिणी, सरस्वती-आशीष , जिनमें आततायी और पीड़ित सभी सम्मिलित हैं , एक साथ किसी उत्सव का आयोजन करते, जो अन्ततः सम्बन्धों की लाश पर किन्ही गिद्धों के उत्सव से अधिक कुछ नहीं है---- और जिसके सम्बन्ध में पूरे विश्वास के साथ यह कहा जा सके कि 'इट इज डिफरेन्ट'।


ए-4/14, सैक्टर-18,



रोहिणी, दिल्ली-110089



मो न 09891252314




29 जनवरी 1947 को देहरादून में जन्म। इंजीनियरिंग और मैनेजमेण्ट की पढ़ाई। बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढाई के दौरान ही साहित्य से जुड़ाव ।

अब तक सौ से अधिक कहानियां, अनेकों कविताएं, दर्जन भर के लगभग समीक्षाएं, दो कहानी संग्रह, एक उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं। एक उपन्यास शीघ्र प्रकाश्य। बेनजीर भुट्टो की आत्मकथा Daughter of the East का हिन्दी में अनुवाद।

सम्पर्क : बी -11/45, सेक्टर 18, रोहिणी, दिल्ली - 110089
मोबाईल नं- 09871187875

E-mail : mailto:ashok267@gmail.com