सोमवार, 7 मार्च 2011

आलेख

चित्र : बलराम अग्रवाल

वातायन में ’हम और हमारा समय’ के अंतर्गत प्रकाशित मेरे छोटे-से आलेख - ’हिन्दी साहित्य बनाम प्रवासी हिन्दी साहित्य’ पर्याप्त चर्चित हुआ, जिसपर साहित्यकारों और पाठकों ने अपने महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किए. न्यूजर्सी (अमेरिका) वासी हिन्दी और सिन्धी साहित्यकार देवी नांगरानी ने मेरे आलेख में अपनी प्रतिक्रिया तो व्यक्त की ही उन्होंने अलग से एक आलेख भी लिखा, जो रचना समय के इस अंक में प्रकाशित है. देवी जी के अतिरिक्त मुझे हिन्दी के मूर्धन्य आलोचक डॉ. कमलकिशोर गोयनका जी का आलेख भी मिला, जो उनके हस्तलेख में नौ पृष्ठों का है और जिसमें डॉ. गोयनका ने अपने तर्कों के आधार पर यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि प्रवासी लेखकों द्वारा लिखे जा रहे हिन्दी साहित्य के लिए ’प्रवासी हिन्दी साहित्य’ का प्रयोग अनुचित नहीं है. इस आलेख को भी मैं प्रकाशित करना चाहता हूं, लेकिन कुछ असुविधाओं के कारण इसे तत्काल नहीं प्रकाशित कर पा रहा हूं.
मित्रो से आग्रह है कि देवी नांगरानी जी के प्रस्तुत आलेख पर अपनी प्रतिक्रिया से मुझे और उन्हें अवश्य अवगत कराएंगे.
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हिंदी साहित्य बनाम प्रवासी हिंदी साहित्य

देवी नांगरानी

श्री रूपसिंह चँदेल जी के इस ब्लाग पर <http://www.vaatayan.blogspot.com/>

"हिंदी साहित्य बनाम प्रवासी हिंदी साहित्य" नाम का लेख पढ़ा और साथ में यू.के. के ग़ज़लकार श्री प्राण शर्मा जी की यह रचना, जिसने सोच में फिर से एक बार तहलका मचा दिया :
"साहित्य के उपासको, ए सच्चे साधको "
कविता कथा को तुमने प्रवासी बना दिया
मुझको लगा कि ज्यों इन्हें दासी बना दिया "
प्रसव पीड़ा की गहराई और गीराई उनकी इस रचना में महसूस की जाती है जब देश के बाहर रहने वाले सहित्यकार को प्रवासी के नाम से अलंक्रित किया जाता है. क्या कभी अपनी मात्र भाषा भी पराई हुई है? कभी शब्दावली अपरीचित हुई है? इस वेदना को शब्दों का पैरहन पहनाते हुए वे भारत माँ की सन्तान को निम्मलिखित कविता में एक संदेश दे रहे है.... यही परम सत्य है, अनुज नीरज का कथन
"शब्द, भाव प्रवासी कैसे हो सकते हैं.?????
साहित्य को चार दीवारों में बाँध कर नहीं रखा जा सकता...खुशबू कभी बंधी है किसी से....!! बिलकुल इस दिशा में एक सकारात्मक संकेत है. और अनेक लेखकों ने अपनी अपनी राय यहाँ दर्ज की है ..
<http://www.blogger.com/comment.g?blogID=417740764999982630&postID=187777425560164328>
भारत माँ हमारी जन्मदातिनी है. क्या देश से दूर परदेस में जाने से रिश्तों के नाम बदल जाते हैं? अगर नहीं तो प्रवासी शब्द किस सँदर्भ में उपयोग हो रहा है? भाषा का विकास हमारा विकास है, और यह सिर्फ देश में ही नहीं, यहाँ विदेश में भी हो रहा है इस सत्य को नकारा नहीं जा सकता. एक लेखक ने यहाँ तक कहा है "व्यक्ति प्रवास करता है, कविता नहीं। कविता तो हृदय की भाषा है" सूरज की रोशनी की तरह भाषा पर हर हिंदोस्तानी का उतना ही अधिकार है जितना एक बालक का माँ की ममता पर होता है. ये उसका हक़ है और इस विरासत को उससे कोई नहीं छीन सकता!.पानी पर लकीरे खींचने से क्या पानी अलग होता है.
ह्यूसटन की जानी मानी साहित्यकार इला प्रसाद का, (प्रवासी नहीं कहूँगी) का इस विषय में अपना मत है, वे कहती हैं :
"होना यही चाहिए कि हम प्रवासी सम्मेलनों से बचें प्रवासी के लेबल के साथ छपने से इनकार करें मेरी मुसीबत तो यह है कि जो पत्रिकाएँ मुझे अतीत में बिना इस शीर्षक के छापती रहीं आज उस शीर्षक के साथ छाप रही हैं यह बताता है कि यह शब्द किस तेजी से प्रयोग में आ रहा है यह ध्यानाकर्षित करने का तरीका हो सकता है किन्तु इस बैसाखी की जरूरत नहीं होनी चाहिए "
साहित्य और समाज का आपस में गहरा संबंध है. एक को दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता, एक का प्रभाव दुसरे पर अनिवार्य रूप से पड़ता ही है, दोनों एक दूसरे के निर्माण में सहयोगी हैं. इसमें भारतीय संस्कृति की आत्मा की संवेदनशीलता, उदारता, सदाचरण, एवं सहस जैसे मानवीय गुण हैं. आदमी प्रवासी होता है, साहित्य नहीं. देस विदेस के बीच एक नयी उड़ान भरता प्रवासी साहित्य हर बदलती विचारधारा के परिवर्तित मूल्यों से परिचित कराता हुआ, अपने विचार निर्भीकता से, स्पष्टता से और प्रमाणिकता से व्यक्त करके यथार्थ की परिधि में प्रवेश पाता है. प्रवास में रहकर यहाँ का लेखक दोहरी मान्यताओं तथा रोज़मर्रा के अनुभव को कलमबंद कर रहा है. इसमें क्या प्रवासी है? भाषा प्रवासी नहीं होती, सोच प्रवासी नहीं होती तो अभिव्यक्ति कैसे "प्रवासी" के नाम से अलंकृत हो सकती है? किसी भाषा में समुचित योग्यता के विकास के लिए उस भाषा पर कार्य करना तथा उस भाषा का नियमित प्रयोग करना अनिवार्य है. पर यहाँ तो बात हमारी मात्रभाषा और राष्टभाषा हिंदी की है. हिंदी भाषा नहीं है, एक प्रतीक है. हिंदी का विकास हो रहा है और बढ़ावा मिल रहा है उसमें प्रवासी भारतीयों की भागीदारी बराबर रही है.
दरअसल साहित्य एक ऐसा लोकतंत्र है जहाँ हर व्यक्ति अपनी कलम के सहारे अपनी बात कह और लिख सकता है, यह आज़ादी उसका अधिकार है..हाँ नियमों की परिधि में रहकर! लेखक का रचनात्मक मन शब्दों के जाल बुनकर अपने मन की पीढ़ा को अभिव्यक्त करता है. लिखता वह अपने देश की भाषा में है, पर परदेस में बैठकर, और उसे प्रवासी साहित्य कहा जाता है. लेखक सोच के ताने बने बुनता है हिज्दी में, लिखता है हिंदी में, पर वह साहित्य कहलाया जाता है प्रवासी. ऐसे लगता है जैसे भाषा को ही बनवास मिल गया है.!!
द्वितीय विश्व हिन्दी सम्मेलन मारिशस में प्रस्तुत डॉ. ओदोलेन स्मेकल के भाषण के एक अंश में हिन्दी-राष्ट्रीयता और अंतरराष्ट्रीयता के संदर्भ में कहा था- ''मेरी दृष्टि में जो स्वदेशी सज्जन अपनी मातृभाषा या किसी अपनी मूल भारतीय भाषा की अवहेलना करके किसी एक विदेशी भाषा का प्रयोग प्रात: से रात्रि तक दिनों दिन करता है, वह अपने देश में स्वदेशी नहीं, परदेशी है।'' अगर यह सच है तो प्रवास में हिंदी साहित्य लिखने वाला भारतीय प्रवासी कैसे हो सकता है? (प्रवासी व्याकुलता से)
तमिलनाडू हिन्दी अकादमी के अध्यक्ष डा॰ बालशौरि रेड्डी का इस विषय पर एक सिद्धाँतमय कथन है "हिंदी का साहित्य जहाँ भी रचा गया हो और जिसने भी रचा हो, चाहे वह जंगलों में बैठ कर लिखा गया हो या ख़लिहानों में, देश में हो या विदेश में, लिखने वाला कोई आदिवासी हो, या अमेरिका के भव्य भवन का रहवासी, वर्ण, जाति धर्म और वर्ग की सोच से परे, अपनी अनुभूतियों को अगर हिंदी भाषा में एक कलात्मक स्वरूप देता है, तो वह लेखक हिन्दी भाषा में लिखने वाला क़लमकार होता है और उसका रचा साहित्य हिन्दी का ही साहित्य है।" (प्रवासी व्याकुलता से)
गर्भनाल के ३७ अंक में रेनू राजवंशी गुप्ता का आलेख" अमेरिका का कथा-हिंदी साहित्य" पढ़ा. हिंदी भाषा को लेकर जो हलचल मची हुई है वह हर हिन्दुस्तानी के मन की है, जहाँ कोई प्रवासी और अप्रवासी नहीं, बस देश और देश की भाषा का भाव जब कलम प्रकट करती है तो जो मनोभाव प्रकट होते हैं उन्हें किसी भी दायरे में कैद करना नामुमकिन है. न भाषा की कोई जात है न लेखन कला की. रेणुजी का कथन "हिंदी लेखकों ने कर्मभूमि बदली है" इस बात का समर्थन है!
साहित्य कोई भी हो, कहीं भी रचा गया हो, अगर हिंदी में है तो निश्चित ही वह हिंदी का साहित्य है.
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रचनाकार परिचय:-
देवी नागरानी
जन्मः ११ मई, १९४१ कराची
शिक्षाः बी.ए अर्ली चाइल्डहुड में, न्यू जर्सी, गणित का भारत व न्यू जर्सी से डिगरी हासिल .
सम्प्रतिः शिक्षिका, न्यू जर्सी.यू.एस.एक्रुतियां
प्रकाशन : "ग़म में भींजीं ख़ुशी" सिंधी भाषा में पहला- गज़ल संग्रह २००४
"चरागे-दिल" हिंदी में पहला गज़ल-संग्रह, २००७
"उडुर-पखिअरा" ( सिंधी भजन- संग्रह, २००७)
“ दिल से दिल तक" (हिंदी ग़ज़ल- संग्रह २००८)"
आस की शम्अ" (सिंधी ग़ज़ल -सँग्रह २००८)"
सिंध जी आँऊ जाई आह्याँ" (सिंधी काव्य- संग्रह, २००९) -कराची में छपा
"द जर्नी " (अंग्रेजी काव्य- संग्रह २००९)
कलम तो मात्र इक जरिया है, अपने अँदर की भावनाओं को मन की गहराइयों से सतह पर लाने का. इसे मैं रब की देन मानती हूँ, शायद इसलिये जब हमारे पास कोई नहीं होता है तो यह सहारा लिखने का एक साथी बनकर रहनुमाँ बन जाता है.
संपर्कःAdd: 9-D Corner View Society, 15/33 Road, Bandra, Mumbai 4000५0, Ph: 9867855751Email:dnangrani@gmail.com

6 टिप्‍पणियां:

सुभाष नीरव ने कहा…

भाई चन्देल, देवी नांगरानी जी का यह आलेख विचारणीय है और सच पूछो, तो तुम्हारी मेरी राय को ही बल देने वाला आलेख है। परन्तु इस विषय में हमसे अधिक उन हिंदी लेखकों कवियों को अधिक सोचना है जो किसी कारणवश हिंदुस्तान से बाहर रहकर हिंदी में लेखन कर रहे हैं। हिंदुस्तान में ऐसे बहुत से लोग हैं जो प्रवासी हिंदी लेखकों-कवियों को खुश करने के लिए हिंदुस्तान में 'प्रवासी साहित्य' पर आयोजन करते घूमते हैं, पत्रिकाओं के विशेष अंक छापते रहते हैं। इसके पीछे ऐसे लोगों का मकसद क्या होता है, यह किसी से छिपा नहीं है। और प्रवास में रह रहे कुछ लेखक उनकी इस मंशा को भलीभांति जानते-समझते हुए भी चर्चा में रहने के लिए ऐसे आयोजनों में बढ़ चढ़कर हिस्सा लेते हैं… उन्हें लगता है कि चलो यूँ ही सही, उनके लिखे की चर्चा तो हो ही रही है… उदाहरणों की कमी नहीं है… सबको मालूम है।
और हाँ, ब्लॉग पर जो भी मैटर दो, उसमें भाषागत कम से कम अशुद्धियाँ हों, इस तरफ़ ध्यान दो। देवी नांगरानी के आलेख में बहुत सी भाषागत अशुद्धियाँ हैं जो चुभती हैं। अंतरर्जाल पर हिंदी का शुद्ध-स्वच्छ स्वरूप कायम रखना भी हमारा दायित्व है।

नीरज गोस्वामी ने कहा…

आदरणीय गुरुदेव प्राण शर्मा जी ने अपनी रचना के माध्यम से प्रवासी शब्द से आहत जिस भाव को व्यक्त किया था उसी भाव को देवी नागरानी दीदी ने अपने शब्द दिए हैं...ऐसे रचनाकार को जो किसी कारण से अपने वतन से दूर रह रहा है प्रवासी कहना सरासर गलत है...उनका अपमान है...हमें इस शब्द को अपने शब्द कोष से बाहर का रास्ता दिखाना पड़ेगा...

नीरज

बेनामी ने कहा…

देवी नांगरानी ने अपने आलेख " हिंदी साहित्य
बनाम प्रवासी हिंदी साहित्य " में सच्ची - सच्ची बातें
कही हैं . मैं उनके विचारों से पूरी तरह से सहमत हूँ .
व्यक्ति प्रवासी होता है , भाषा प्रवासी नहीं होती है . आज
कल भारत में छपने वाली अधिकाँश पत्रिकाओं में विदेशों
में लिखे जा रहे हिंदी साहित्य के साथ " प्रवासी " शब्द
धड़ल्ले से उपयोग किया जा रहा है . हिंदी कविता , हिंदी
ग़ज़ल , हिंदी दोहा , हिंदी लेख , हिंदी आलोचना और
हिंदी कहानी को जबरन क्रमश: प्रवासी हिंदी कविता , प्रवासी
हिंदी ग़ज़ल , प्रवासी हिंदी दोहा , प्रवासी हिंदी लेख , प्रवासी
हिंदी आलोचना और प्रवासी हिंदी कहानी बनाया जा रहा है
विदेशों में रहता कोई हिंदी साहित्यकार अपने साहित्य के
साथ " प्रवासी " शब्द के उपयोग को पसंद नहीं करता है , फिर
इसको उपयोग करने की तुक क्या है ? मैं विद्वान लेखकों
से अपील करता हूँ कि हिंदी साहित्य ( भले ही वह विदेशों
में रचा जा रहा है ) को हिंदी साहित्य ही रहने दें . उसको
प्रवासी कह - लिख कर उसका अनादर नहीं करें . जो लोग
विदेशों में लिखे जा रहे हिंदी साहित्य को प्रवासी हिंदी
साहित्य कहते हैं उनसे मेरा यह प्रश्न है कि रवींद्र कालिया
या रूप सिंह चंदेल ने अपने अधिकाँश साहित्य का सृजन
अलाहबाद और दिल्ली के प्रवासकाल में किया है उनका
रचित साहित्य प्रवासी हिंदी साहित्य क्यों नहीं ?
प्राण शर्मा
यू . के.

बेनामी ने कहा…

Roop Singh ji,

Sadar Namastay,

thank you very much for the article. I will soon get back to you.
Very important topic indeed.

Kind regards

Shams

Devi Nangrani ने कहा…

मैं श्री रूपसिंह चंदैल जी मेरे इन विचारों को रचनासमय पर पोस्ट करने के लिये धन्यवाद देती हूँ और साथ में यह भी कहना चाहूंगी कि हम कभी अपनी मर्ज़ी से, तो कभी परिस्थितियों के एवज़ जहां कहीं भी बन जाते है, उसका ये कतहि मतलब नहीं होता कि हम हिंदुस्तानी नहीं है.और हिंदुस्तानी होने के नाते हिंदी हमारी भाषा है, हमारी विरासत है. उसे हम कैसे प्रवासी कहें, जो हमारी धमनियों में रवां हो रही है, जिसमें हम सोचते हैं, अपने आप को अभीव्यक्त करते हैँ.

सुभाष नीरव ने कहा…

आदरणीय देवी नांगरानी जी, आपने बिल्कुल सही कहा है। आप इस पीड़ा को बहुत भीतर तक महसूस कर सकती हैं क्योंकि प्रवास में आप भी रही हैं।