सोमवार, 28 सितंबर 2009

कविता


लावण्या शाह की पांच कविताएं

मौन गगन दीप
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विक्षुब्ध्ध तरँग दीप,
मँद ~ मँद सा प्रदीप्त,
मौन गगन दीप !
मौन गगन, मौन घटा,
नव चेतन, अल्हडता
सुख सुरभि, लवलीन!
मौन गगन दीप !
झाँझर झँकार ध्वनि,
मुख पे मल्हार
कामना असीम,
रे, कामना असीम, !
मौन गगन दीप!
चारु चरण, चपल वरण,
घायल मन बीन!
रे, कामना असीम !
मौन गगन दीप!
वेणु ले, वाणी ले,
सुरभि ले, कँकण ले,
नाच रही मीन!
मौन गगन दीप !
जल न मिला, मन न मिला,
स्वर सारे लीन!
नाच रही मीन
मौन गगन दीप!
सँध्या के तारक से,
मावस के पावस से,
कौन कहे रीत ?
प्रीत करे , जीत,
ओ मेरे, सँध्या के मीत!
मेरे गीत हैँ अतीत.
बीत गई प्रीत !
मेरे सँध्या के मीत
-कामना अतीत
रे, कामना अतीत !
मौन गगन दीप !
मौन रुदन बीन,
रे, कामना असीम, !
मौन गगन दीप !

(2)



उडान

गीत बनकर गूँजते हैँ, भावोँ के उडते पाख!
कोमल किसलय, मधुकर गुँजन,सर्जन के हैँ साख!
मोहभरी, मधुगूँज उठ रही, कोयल कूक रही होगी-
प्यासी फिरती है, गाती रहती है, कब उसकी प्यास बुझेगी?
कब मक्का सी पीली धूप, हरी अँबियोँ से खेलेगी?
कब नीले जल मेँ तैरती मछलियाँ, अपना पथ भूलेँगीँ ?
क्या पानी मेँ भी पथ बनते होँगेँ ? होते होँगे, बँदनवार ?
क्या कोयल भी उडती होगी, निश्चिन्त, गगन पथ निहार ?
मानव भी छोड धरातल, उपर उठना चाहता है -
तब ना होँगे नक्शे कोई, ना होँगे कोई और नियम !
कवि की कल्पना के पाँख उडु उडु की रट करते हैँ!
दूर जाने को प्राण, अकुलाये से रहते हैँ
हैँ बटोही, व्याघ्र, राह मेँ घेरके बैठे जो पथ -
ना चाहते वो किसी का भी भला ना कभी !याद कर नीले गगन को, भर ले श्वास, उठ जा,
उडता जा, "मन -पँखी" अकुलाते तेरे प्राण!
भूल जा उस पेड को, जो था बसेरा तेरा, कल को,
भूल जा , उस चमनको जहाँ बसाया था तूने डेरा -
ना डर, ना याद कर, ना, नुकीले तीर को !
जो चढाया ब्याघने, खीँचे, धनुष के बीच!
सन्न्` से उड जा ! छूटेगा तीर भी नुकीला -
गीत तेरा फैल जायेगा, धरा पर गूँजता,
तेरे ही गर्म रक्त के साथ, बह जायेगा !
एक अँतिम गीत ही बस तेरी याद होगी !
याद कर उस गीत को, उठेगी टीस मेरी !
"मन -पँछी "तेरे ह्रदय के भाव कोमल,
हैँ कोमल भावनाएँ, है याद तेरी, विरह तेरा,
आज भी, नीलाकाश मेँ, फैला हुआ अक्ष्क्षुण !

(3)

प्रलय

देख रही मैँ, उमड रहा है, झँझावात प्रलय का !
निज सीमित व्यक्तित्त्व के पार, उमड घुमड, गर्जन तर्जन!
हैँ वलयोँ के द्वार खुले, लहराते नीले जल पर !
सागर के वक्षसे उठता, महाकाल का घर्घर स्वर,
सृष्टि के प्रथम सृजन सा, तिमिराच्छादीत महालोक
बूँद बनी है लहर यहाँ, लहरोँ से उठता पारावार,
ज्योति पूँज सूर्य उद्`भासित, बादल के पट से झुककर
चेतना बनी है नैया, हो लहरोँ के वश, बहती जाती ~
क्षितिज सीमा जो उजागर, काली एक लकीर महीन!
वही बनेगी धरा, हरी, वहीँ रहेगी, वसुधा, अपरिमित!
गा रही हूँ गीत आज मैँ, प्रलय ~ प्रवाह निनादित~
बजते पल्लव से महाघोष, स्वर, प्रकृति, फिर फिर दुहराती!

(4)

मानवता

" मानवता " किन,किन रुपोँ मेँ दीख जाती है ?
सोचो सोचो, अरे साथियों गौर करो इन बातोँ पे
कहीँ मुखर हँसी मेँ खिलती वो, खिली धूप सी,
और कहीँ आशा- विश्वास की परँपरा है दर्शाती,
कहीँ प्राणी पे घने प्रेम को भी बतलाती
वात्सल्य, करुणा,खुशी,हँसी, मस्ती के तराने,
आँसू - विषाद की छाया बन कर भी दीख जाती
यही मानव मन से उपजे भाव अनेक अनमोल,
मानवता के पाठ पढाते युगोँ से, अमृत घोल !
(5)

समय की धारा मेँ बहते बहते,
हम आज यहाँ तक आये हैँ
बीती सदीयोँ के आँचल से,
कुछ आशा के, फूल चुरा कर लाये हैँ !
हो मँगलमय प्रभात, पृथ्वी पर,
मिटे कलह का कटु उन्माद !
वसुँधरा हो हरी -भरी फिर,
चमके खुशहाली सा - प्रात: !!

****
लावण्या शाह सुप्रसिद्ध कवि स्व श्री नरेंद्र शर्मा जी की सुपुत्री हैं और वर्त्तमान में अमेरिका में रह कर अपने पिता से प्राप्त काव्य -परंपरा को आगे बढा रही हैं . समाजशास्त्र और मनोविज्ञान में बी ए. (आनर्स ) की उपाधि प्राप्त लावण्या जी प्रसिद्द पौराणिक धारावाहिक "महाभारत " के लिए कूछ दोहे भी लिख चुकी हैं . इनकी कूछ रचनाएँ और स्व० नरेंद्र शर्मा और स्वर -सम्राज्ञी लता मंगेशकर से जुड़े संस्मरण , रेडियो से भी प्रसारित हो चुके हैं .
इनकी एक पुस्तक "फिर गा उठा प्रवासी " प्रकाशित हो चुकी है जो इन्होंने अपने पिता जी की प्रसिद्द कृति "प्रवासी के गीत " को श्रद्धांजलि देते हुये लिखी है .
उनके अपने ही शब्दों में परिचय के लिए यहाँ क्लिक कीजिए : "परिचय "
लावण्या जी की 'रेडियो -वार्ता ' सुनने के लिए , यहाँ क्लिक कीजिए : Remembering Pt. Narendra Sharma

22 टिप्‍पणियां:

PRAN SHARMA ने कहा…

LAVANYA JEE KE SAREE KAVITAAON KA
EK EK SHABD GUNGUNAA KAR BADE HEE
PYAR SE PADH GAYAA HOON.SAHAJ
ABHIVYAKTI KE LIYE LAVANYA JEE KO
BADHAAEE.

Udan Tashtari ने कहा…

लावण्या दी की कविताओं में कोमलता प्रभावित करती है. कितनी सुन्दर और यथार्थ सहेजे रचनाएँ हैं सभी. लावण्या दी को बधाई.

आपका आभार हमें पढ़वाने के लिए.

अनेक शुभकामनाएँ.

बलराम अग्रवाल ने कहा…

ऐसे समय में जबकि छंदहीनता को ही कविता में प्रगतिशीलता माना और समझा जा रहा है, लावण्या शाह की प्रस्तुत कविताएँ कविता के जीवित होने का प्रमाण प्रस्तुत करती हैं। सभी रचनाएँ सुन्दर हैं।

ashok andrey ने कहा…

Lawanya jee kii kavitaaon ne kaphee prabhavit kiya hei unki kavitaon mae jeevan ke prati upajta vishwaas hame takat detaa hei inn achchhi kavitaon ke liye mae unhen badhai deta hoon

ashok andrey

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सुंदर रचनाएँ, इन में पुराकालीन साहित्य का असर दिखाई देता है।

Gyan Dutt Pandey ने कहा…

वाह, गायन चाहे उड़ान का हो, मानवता का, समय का, मौन का या फिर प्रलय का --- जब सुन्दर शब्दों का आवरण पाता है तो बांध लेता है मन को!

Himanshu Pandey ने कहा…

अदभुत कवितायें हैं ये । इनका सौन्दर्य मुग्ध कर रहा है । आभार ।

बेनामी ने कहा…

priy chandel,
lavanya shah ki kavitayen padhin. alag tarah ki hain.
naya gyanodaya ke taja oct ank mein meri ek lambi kahani aayee hai. aisa aaj suna hai. yadi ank sahajta se mile to padhkar likhna kaisi hai.

krishnabihari

P.N. Subramanian ने कहा…

पाँचों रचनाएँ बेहद सुन्दर. यथार्थ में इन्हें ही कविता कहा जाना चाहिए. आजकल के सिनेमा में जो गीत और संगीत मिल रहा है क्या उन्हें गीत कहलाने की योग्यता है. उसी तरह भले ही पुरा कालीन कविताओं का असर लावण्या जी की रचनाओं में झलकता हो, वे सहेजने योग्य हैं. उन्हें यहाँ प्रस्तुत करने के लिए बधाई और आभार भी

रश्मि प्रभा... ने कहा…

main vismit ,vimugdh sahitya ki un pagdandiyon se gujar rahi hun,jispar suprasidh rachnaklaron ke padchinhon ki khushboo samahit hai......

सुरेश यादव ने कहा…

kavitayen alag tarah ki hain jaise bahut dur ka sandesh.lavanya ji ko aur chandel ji ko badhai aur dhanyavaad. 09818032913

महावीर ने कहा…

मौन गगन दीप, उड़ान,प्रलय,मानवता और 'समय की धारा' - पाँचों रचनाएँ बहुत सुन्दर हैं. काव्य में सौन्दर्य के लिए उपमा, प्रतीक, अलंकार, प्रभावशाली शब्द-चयन और भाव आदि गहनों की भांति होते हैं. लावण्या जी की पांचों कविताओं में सभी गुण विद्यमान हैं. भाषा, शब्द-चयन और भावाभिव्यक्ति की दृष्टि से उनकी कवितायेँ उच्चकोटि की रचनाएँ हैं.

कब मक्का सी पीली धूप, हरी अँबियोँ से खेलेगी?
कब नीले जल मेँ तैरती मछलियाँ, अपना पथ भूलेँगीँ ?
क्या पानी मेँ भी पथ बनते होँगेँ ? होते होँगे, बँदनवार ?
क्या कोयल भी उडती होगी, निश्चिन्त, गगन पथ निहार ?

हैँ वलयोँ के द्वार खुले, लहराते नीले जल पर !
सागर के वक्षसे उठता, महाकाल का घर्घर स्वर,
सृष्टि के प्रथम सृजन सा, तिमिराच्छादीत महालोक
बूँद बनी है लहर यहाँ, लहरोँ से उठता पारावार,
बहुत सुन्दर.

वात्सल्य, करुणा,खुशी,हँसी, मस्ती के तराने,
आँसू - विषाद की छाया बन कर भी दीख जाती
यही मानव मन से उपजे भाव अनेक अनमोल,
मानवता के पाठ पढाते युगोँ से, अमृत घोल !

हो मँगलमय प्रभात, पृथ्वी पर,
मिटे कलह का कटु उन्माद !
वसुँधरा हो हरी -भरी फिर,
चमके खुशहाली सा - प्रात: !!
लावण्या जी, आप स्व. श्री नरेंद्र शर्मा जी की काव्य-परंपरा को बहुत ही सुन्दर ढंग से निभा
रही हो जिसके लिए आपको अनेक बधाईयाँ.

महावीर ने कहा…

श्री चंदेल जी को लावण्या जी की रचनाएँ पढ़वाने के लिए हार्दिक धन्यवाद.

Smart Indian ने कहा…

चंदेल जी,
लावण्या जी की रचनाएँ पढ़वाने का शुक्रिया| पाँचों रचनाएँ बहुत सुन्दर हैं| "मौन गगन दीप" ने मुझे विशेष रूप से प्रभावित किया|
अनुराग शर्मा

लावण्यम्` ~ अन्तर्मन्` ने कहा…

बहुत बहुत आभार आपका रूपभाई साहब
जो आपके कहने से ,
मेरी कवितायेँ
रचना समय पर
हमारे हिन्दी ब्लॉग जगत के साथियों तक पहुँच पायीं
-- आभारी रहूँगी --

देख कर मन प्रसन्न हुआ
और सभी की उदारह्रदय से की गयी उत्साहवर्द्धक बातों को सहेजे रहूँगी
ताकि ,
आगे की सृजन क्रिया के लिए
ऊर्जा मिलती रहे -
ह्रदय से आभार ,
सादर , स - स्नेह,
- लावण्या

पंकज सुबीर ने कहा…

वैसे तो सभी कविताएं अद्भुत हैं किन्‍तु मुझे प्रलय वाली कविता काफी पसंद आई । सागर के वक्ष से उठता महाकाल का घर्घर स्‍वर । ये कविता एक पूरा का पूरा शब्‍द चित्र है । वो जो कल होने वाला है उसका एक पूरा चित्र शब्‍दों से जिस प्रकार से खींचा गया है वो केवल लावण्‍य दी जैसा कोई सिद्धहस्‍त कवि ही कर सकता है । और फिर संस्‍कार तो रक्‍त में आते ही हैं । गा रही हूं आज मैं । एक बहुत अच्‍छा गीत जिसे में लिये जा रहा हूं अपने संग गाने के लिये गुनगुनाने के लिये ।

रंजू भाटिया ने कहा…

सभी रचनाएं बहुत ही प्रभावित करती है दिल से उजागर भाव हैं हर रचना में ..शुक्रिया इनको पढ़वाने के लिए

nisha bhosle ने कहा…

lavanya ji ki sabhi kavitaye bahut
achhi lagi. udan kavita ne mujhe
bahut prabhavit kiya.

nisha

तेजेन्द्र शर्मा ने कहा…

लावण्या जी

आपकी कविता की खासियत यह है कि उस हिन्दी की कविता कहा जा सकता है। शब्दों में संगीत और कविता में लय - बधाई।

तेजेन्द्र शर्मा
महासचिव - कथा यूके
लंदन

गिरिजेश राव, Girijesh Rao ने कहा…

अनुभूतियों की संपन्नता पंक्ति पंक्ति में झलकती है। छायावादी कविताओं की स्मृति हो आई। सफाई इतनी कि निराला याद आएँ...
इन्हें पढ़ कर ये भी पता चलता है कि विभिन्न आन्दोलनों से गुजरते हुए आज कल की कविताओं में गहराई की आवृत्ति कितनी कम रह गई है !
..सबसे बड़ी बात इनका आभिजात्य है।
धन्यवाद।
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Dr. Sudha Om Dhingra ने कहा…

लावण्या जी की कविताएँ निर्मल झरने सी महसूस हुईं.

अनूप भार्गव ने कहा…

मन को अन्दर तक छूती हुई सहज कविताएं ...