मंगलवार, 14 जुलाई 2020

संस्मरण


सुमति अय्यर
२४ मई,१९९१ की तपती दोपहर. साढ़े बारह बजे का समय. कर्मचारी भविष्य निधि कार्यालय कानपुर की पहली मंजिल का एक कमरा.  मिलने का कार्यक्रम पहले से ही तय था. कमरे का दरवाज खुला हुआ था. याद नहीं कि कूलर था या नहीं.  वह मेज पर झुकी काम में व्यस्त थीं.  वह सुमति अय्यर थीं, हिन्दी की प्रख्यात लेखिका और कवयित्री. सांवली,बड़ी आंखें, सुडौल देह-यष्टि, काले बाल, गोल चेहरा---तमिल बाला की संपूर्ण विशेषताएं उनमें मौजूद थीं. मेरे पहुंचते ही सुमति ने काम रोक दिया. मेरा अनुमान था कि वह हिन्दी अधिकारी थीं वहां लेकिन उन्होंने बताया कि उन दिनों उनके पास भविष्य निधि धारकों को जाने वाले चेक हस्ताक्षर करने का काम था. साहित्य, साहित्यिक राजनीति, समाज और देश की स्थितियों पर हम बातें करते रहे. 


सुमति से मेरा परिचय शायद उनकी किसी कहानी पर मेरी प्रतिक्रिया के बाद प्रारंभ हुआ जो १९९० में किसी पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और उन्हें मैंने पत्र लिखा था. उनका एक कहानी संग्रह अनिल पालीवाल ने अपने प्रकाशन ’सचिन प्रकाशन’ से प्रकाशित किया था. उसे लेकर सुमति को कुछ समस्याएं थीं. उस दिन की चर्चा में सचिन प्रकाशन का उल्लेख भी हुआ. उससे पहले मेरे १ अप्रैल,९१ के पत्र के उत्तर में उनका ६ अप्रैल का पत्र मुझे मिला था. स्पष्ट है कि अपने पत्र में मैंने उनके संग्रह के बारे में बात की होगी या अनिल पालीवाल के साथ अपने संबन्धों के विषय में लिखा होगा. याद नहीं और न ही उसकी प्रति मेरे पास है.

 अनिल पालीवाल से मेरा परिचय १९८७ में हुआ था. उन दिनों दरियागंज जाने पर मैं सचिन प्रकाशन में देर तक जाकर बैठा करता था. अनिल उन दिनों ’हिन्दी कहानी कोश’ के बाद ’लघुकथा कोश’ प्रकाशित कर चुके थे.मुझे बाल कहानी कोश तैयार करने के लिए कहा और मैंने काम भी किया.  यद्यपि मैं तब तक बाल साहित्य लिखना लगभग बंद कर चुका था, लेकिन अनेकों बाल-साहित्यकारों से अच्छा परिचय तब भी था. मैंने १९८८ तक २०० बाल कहानीकारों की कहानियां और ५०० बाल कहानीकारों के परिचय एकत्र किए. दो भागों में बाल कहानियों की फाइलें अनिल को सौंप दी, लेकिन परिचय की फाइल मेरे पास ही रही थी. अनिल ने उन दिनों मुझे पांच हजार रुपए का चेक दिया था. लेकिन इस सबके बावजूद बाल कहानी कोश नहीं प्रकाशित हुआ. उसका कारण अन्य प्रकाशकों की भांति उनका रामकुमार भ्रमर के चक्कर में पड़ जाना रहा था शायद. उत्तर प्रदेश सरकार में पुस्तक खरीद योजना में भ्रमर की कुछ भूमिका थी और परिणाम स्वरूप कितने ही प्रकाशकों का पैसा डूबा था.  अनिल ने यह बात मुझे कभी बतायी नहीं, लेकिन कुछ मित्रो ने बताया था. भ्रमर के कारण मेरे एक अन्य प्रकाशक श्री कृष्ण (पराग प्रकाशन बाद में अभिरुचि प्रकाशन) कर्जदार हो चुके थे. बाद में जिस दयनीय स्थिति में श्रीकृष्ण की मृत्यु हुई हिन्दी साहित्य में शायद वैसा किसी अन्य प्रकाशक के साथ नहीं हुआ. बह्रहाल,सचिन प्रकाशन से सुमति अय्यर का एक कहानी संग्रह रमेश बक्षी के माध्यम से प्रकाशित हुआ था. विवाद उस संग्रह को लेकर था. इस बात को लेकर ही सुमति अय्यर ने ६ अप्रैल,९१ और १ अगस्त,९१ को मुझे पत्र लिखे थे. ६ अप्रैल के पत्र से बातों को समझा जा सकता है—

 
११२/२३९,स्वरूपनगर,कानपुर 

६.४.१९९१

प्रिय चन्देल जी,

आपका दिनांक १.४. का पत्र. आभारी हूं कि आपने तुरंत मुझे उत्तर दिया. यह आत्मीयता निश्चित रूप से सुखद है.
प्रतियां नहीं मिल पाईं. यही उनके साथ भी हुआ. पिताजी ने उन्हें फोन किया तो बताया कि शनिवार को यानी ३०.३.९१ को १२ बजे के बाद अंसारी रोड से प्रतियां ले लें सो भरी धूप में वे वहां गए भी. पता चला वहां तो केवल नौकर है, मालिक नहीं. प्रतियां नहीं हैं. न उनके (अनिल) के शाम तक आने की संभावना है. पिताजी ने घर का पता/फोन नं. और स्टेशन में गाड़ी का नं. तक छोड़ दिया कि वे रविवार की रात को लौटने वाले थे. भेजवाना होता तो रविवार को पहुंचाया जा सकता था घर के पते पर.

दुख हुआ मुझे. दरअसल यह बातचीत रमेश जी के माध्यम से हुई थी. इसलिए अब उन्हें भी दोष क्या दूं. पर प्रतियां कम से कम २५ तो मुझे भेजवा ही दें. रॉयल्टी के लिए भी उन्होंने कुछ नहीं कहा. चूंकि एक बार आपने बताया था कि आपके घर के आसपास कहीं उनका आवास भी है, इसलिए यह कष्ट दे रही हूं. 

मेरे पास प्रतियां नहीं हैं. समीक्षा के लिए उन्होंने कहा था कि वे करवा देंगे. कह भी  नहीं पायी. अब प्रतियां मुझे चाहिए. मैं स्वयं एकाध जगह करवा लूंगी. पर उसका भी पता नहीं.

यूं मेरे भी आने की संभावना है. निश्चित रूप में तो नहीं कह सकती. पर अगर आपको आपत्ति न हो, तो आप लेकर रख लें, जब सुविधा हो. या फिर मैं किसी को भेजने का प्रयास करूंगी.

भाई दीप जी का वहां जाना होता है. अगर संभव हुआ तो उनसे कहूंगी.  वे हो आएंगे.

इस बीच आपका उनसे संपर्क हो तो प्रतियों के लिए कहिएगा.

’हारा हुआ आदमी’ की समीक्षा कर दूंगी. संभव है डेढ़ माह का वक्त लगे. इधर बीमारी के बाद, दफ्तर में बहुत काम हो गया है. यहां घर पर परीक्षाएं बेटे की.

जून में व्यवस्थित हो जाऊंगी. इसलिए निश्चिंत रहें अनिल जी को मैं अलग से लिखूंगी.

आपका नया संग्रह आया है, इसके लिए बधाई. उपन्यास लिख रहे हैं, यह बहुत ही सुखद समाचार है. मैं तो सोचती ही रह जाती हूं.

इस वर्ष कुछ काम करना चाहूंगी, इस पर.

शेष शुभ. घर पर सबको यथायोग्य कहें.

सस्नेह,

सुमति अय्यर

पुनश्च : अनिल से बात हो जाए तो आप सूचित करेंगे.---सु.अ.

२४ मई को मेरे बैठे रहने के दौरान डेढ़ बजे के लगभग कानपुर की साहित्यकार प्रतिमा श्रीवास्तव आ गयीं. तभी ज्ञात हुआ कि प्रतिमा जी उसी कार्यालय में कार्यरत थीं. वह सुमति के साथ लंच लेती थीं और उसी उद्देश्य से आयी थीं. प्रतिमा श्रीवास्तव के आने के पश्चात मैं वहां से निकल गया था. 

जुलाई में किसी तारीख को सुमति अय्यर के पिताजी मेरे घर आए. वह शनिवार का दिन था. तब तक मैं सचिन प्रकाशन से सुमति के संग्रह की प्रतियां नहीं ले पाया था. वास्तविकता यह थी कि जब भी मैंने अनिल पालीवाल से संग्रह देने की बात की वह कह देते कि वह सीधे सुमति को भेज रहे हैं. मैंने अनिल के पिता जी डॉ. नारायण दत्त पालीवाल जी से बात करने का वायदा किया, जो हिन्दी अकादमी के सचिव थे. यद्यपि डॉ. पालीवाल से मेरा अच्छा परिचय था और वह  मुझे बहुत मान देते थे. मैं उन दिनों लगातार जनसत्ता और दैनिक हिन्दुस्तान में लिख रहा था और एक दिन फोन करने पर उन्होंने मेरी सक्रियता की प्रशंसा की थी. सच यह है कि फोन करने और लंबी बात करने के बाद भी मैं डॉ. पालीवाल से सुमति के संग्रह की बात नहीं कर पाया था जबकि फोन उसी उद्देश्य से किया था. लेकिन किसी प्रसंग में बातचीत में डॉ. पालीवाल ने कहा था कि वह अनिल के प्रकाशन के मामले में हस्तक्षेप नहीं करते. शायद इस बात ने मुझे सुमति अय्यर के संग्रह की चर्चा करने से हतोत्साहित किया था. सुमित का दूसरा पत्र यहां दे रहा हूं जिसमें उन्होंने डॉ. पालीवाल से चर्चा करने की बात लिखी है.:

१ अगस्त,१९९१

प्रिय चन्देल जी,

पिताजी के माध्यम से भेजी गयी पुस्तकें! बहुत बहुत आभारी हूं. ’आदखोर’ की समीक्षाएं पढ़ चुकी हूं, इसलिए उत्सुकता लगातार बनी रही थी. पढ़ूंगी, तब लिखूंगी. ’प्रकारान्तर’ के लिए भी आभार. पुस्तक का संपादकीय लेख महत्वपूर्ण है. खुशी इस बात की है कि इसमें उन लेखकों को भी शामिल किया है, जो लघुकथाकार नहीं हैं पर इस विधा में उनका भी योगदान रहा है. 

पिताजी ने आपके परिवार एवं आपकी आत्मीयता का जिक्र मुग्ध भाव में किया. अभिभूत हैं वे. शायद यह यहां की माटी की वह ऊर्जा है, जो आदमी के भीतर लगातार रहती है भले ही वह बेदिल शहर में ही क्यों न रहे. गंगा का यह तट, शायद इसीलिए इतना महत्वपूर्ण है.

वे दिल्ली फिर पहुंच रहे हैं, इसी ७ या ८ अगस्त को. संभवतः १९ अगस्त तक वहां रुकेंगे पीतम पुरा में.
इस बीच जैसाकि आपने कहा, आप श्री नारायण दत्त पालीवाल जी से संपर्क करने का प्रयास करें. उन्हें सारी स्थितियां समझाएं. दरअसल बक्षी जी ने जिक्र किया था और चूंकि पुस्तक को जल्दी ही छपना था इसलिए जल्दी में मैटर तैयार किया गया और भेजा गया. जल्दी के कारण अनुबन्ध पत्र की औपचारिकता भी बाद में निभा लेने को कहा गया. पर उन्होंने १५ प्रतियां दीं. फिर कुछ नहीं. पिछले वर्ष मई में ये प्रतियां मिली थीं. मैंने समीक्षा के लिए लिखा तो बोले चाहे तो आप करवा लें या मैं. मैंने लिखा था कि कुछ प्रतियां मुझे ही दे दी जाएं एकाध जगह समीक्षा मैं करवा दूंगी. बाकी दिल्ली की आप देख लें. उसके बाद बीसयों बार आने जाने वालों के माध्यम से पत्र भेजे, लिखे भी पर न तो उत्तर ही मिला न किताबें हीं. पिछले वर्ष उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान में पुरस्कार योजना के लिए भी जमा करने को लिखा था—पर कुछ नहीं.

कृपया श्री पालीवाल जी से उक्त तमाम स्थितियां स्पष्ट करें. मैं दरअसल shrewd नहीं हो पाती न हूं, इसलिए यह सब. एक महिला लेखिका के मान तो कम से कम होना चाहिए. अभी अनिल ने सरयू शर्मा की पुस्तक छापी है क्या term रहे हैं पता नहीं. रमेश को भी लिख रही हूं, अलग से. हालांकि वे खुद खफा हैं अनिल से. पता नहीं—उनके संबन्ध अब किस स्तर पर हैं. फिर भी प्रयास करूंगी कि उनके माध्यम से रॉयल्टी की व्यवस्था करूं.

पर—किताबें और रॉयल्टी दिलवाने में डॉ. पालीवाल कितने सहयोगी होंगे इसका अंदाज आप लगा सकेंगे. मेरे ही एक सहयोगी हैं, दिल्ली स्थित कार्यालय के रिसर्च अधिकारी श्री जे.डी. तिवारी (कर्मचारी भविष्य निधि संगठन, श्रीराम सेंटर). पालीवाल जी से परिचित हैं. शायद एक ही स्थान के हैं. उनको लिखना मैं अभी भी नहीं चाहती. साहित्यकार मित्र के रहते. 

आप इस बीच कुछ कर पाएगें, ऎसा मैं विश्वास करती हूं. हालांकि बहुत कष्ट दे रही हूं, पर  शायद यह छूट इसलिए ले रही हूं कि आपका मेरा एक ही मिट्टी का, एक ही नदी का ही नहीं बल्कि हम समधर्मी भी हैं. घर में सबको यथायोग्य.

आपकी

सुमति अय्यर

अपने अगले पत्र में मैंने सुमति अय्यर को क्या लिखा याद नहीं, लेकिन शायद वह मेरे प्रयासों की सीमा समझकर निराश हो चुकी थीं. उसके बाद हमारा संपर्क नहीं रहा. दो साल बीत गए. अचानक ६ नवंबर,१९९३  को समाचार पत्रों से जानकारी मिली कि किसी व्यक्ति ने उनके स्वरूपनगर के किराए के घर में उनकी हत्या कर दी थी. सुमति के पति बैंके में कार्यरत थे और उन दिनों वह मद्रास (अब चेन्नई) में थे. उनके दस वर्ष का बेटा था, लेकिन उस समय वह घर में नहीं था. 

उन दिनों कानपुर के पुलिस महा अधीक्षक श्री के.एन.राव थे. मामले की जांच का काम एक अधिकारी वाई के त्रिपाठी को सौंपा गया. पुलिस के अनुसार हत्यारा सुमति अय्यर का परिचत था, क्योंकि मेज पर दो चाय पिए दो  कप रखे पाए गए थे. स्पष्ट है कि चाय सुमति ने ही बनायी होगी. लेकिन पुलिस खाली हाथ रही थी. यह बात चौंकाती है कि एक ओर पुलिस यह मान रही थी कि हत्यारा लेखिका का परिचित था और दूसरी ओर हत्यारा पुलिस की गिरफ्त से बाहर रहा. 

डॉ. सुमति अय्यर न केवल एक महत्वपूर्ण कथाकार और कवयित्री थीं वह एक अच्छी अनुवादक भी थीं. उन्होंने तमिल से कई पुस्तकों के अनुवाद किए थे. उनके चार कहानी संग्रह –’घटनाचक्र’, ’शेष संवाद’ ’’असमाप्त कथा ’और ’विरल राग’,एक नाटक ’अपने अपने कटघरे’ तथा दो कविता संग्रह ’मैं तुम और जंगल’ और ’भोर के हाशिए पर’ प्रकाशित हुए थे. अपने मौलिक लेखन के साथ उन्होंने  तमिल लेखकों इंदिरा पर्थसारथी, पद्मय्यापीथम, और राजम कृष्णन की पुस्तकों के अनुवाद भी किए थे. एक प्रतिभाशाली साहित्यकार का इस प्रकार असमय चला जाना हिन्दी साहित्य की अपूरणीय क्षति है.
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मंगलवार, 30 जून 2020

रचना समय-जून,२०२०


प्रेम चन्द गर्ग

अप्रैल, १९७७ का एक दिन. दोपहर साढ़े बजे लगभग का समय.   ऑफिस में मैं अपनी सीट पर कोई पुस्तक पढ़ रहा था. उन दिनों मेरे पास नहीं के बराबर काम होता था. ऑफिस में मैं किसी से भी बातें नहीं करता था. काम और पढ़ना.  फैक्ट्री होस्टल में रहता था इसलिए एस्टेट में किसी से भी जान-पहचान नहीं थी. होस्टल में  भी दो तीन युवकों से केवल हाय-हलो तक ही सीमित था. मुझे नहीं मालूम कब वह मेरी सीट के बगल में आ खड़े हुए थे. मैं पुस्तक पढ़ने में तल्लीन था. उनकी ओर ध्यान नहीं गया. मेरे सामने सुनंदा मजूमदार बैठती थी. सुनंदा नाटे कद की---शायद चार फुट नौ या दस इंच ---बहुत ही दुबली पतली युवती थी—मानो शरीर में मांस ही नहीं था. चलती तो लगता कि वह गिर पड़ेगी. कंधे झुकाकर चलती लेकिन चलती तेज गति से थी. वह गोरी, सौम्य और मृदु-भाषी थी.  मेरठ विश्वविद्यालय से उसने अंग्रेजी में एम.ए. किया था. उसकी हस्तलिपि भी उतनी ही सुन्दर थी जितना उसका व्यवहार. मुझे लगता कि अपने दुबलेपन और लंबाई के कारण एक हीन ग्रंथि थी उसमें. उसके पिता फैक्ट्री में फोरमैन थे और भाई भी शायद वहां था.  उसका सरकारी मकान मैदान के सामने था, ऑफिस से जिसकी दूरी दस मिनट थी. हमारे मध्य यदा-कदा ही संवाद होता. शायद इसका कारण मेरी हीनग्रन्थि थी---अर्थात अंग्रेजी से एम.ए.युवती के साथ हिन्दी से एम.ए. करने वाला कैसे बात करे. इस पर मैं आज अचंभित होता हूं कि लड़कियों से मैं क्यों बचकर रहता था. गंवई संकोच था या कुछ और. शायद मेरे संघर्षों ने मुझे उस ओर सोचने का अवसर ही नहीं दिया था और वह सब मेरी आदत में शामिल हो चुका था.

कुछ देर तक मेरी कुर्सी के साथ उन्हें खड़ा देख सुनन्दा मजूमदार ने मुझे कहा, “आपसे कोई मिलने आया है.”

मैंने पीछे मुड़कर देखा तो सफेद कुर्ता-पायजामा में एक मध्यम कद के सज्जन को मुस्कराते पाया. मेरे उनकी ओर देखते ही हाथ जोड़कर मुस्कराते हुए वह बोले, “चन्देल जी, मैं प्रेम चन्द गर्ग हूं."

मैं उठ खड़ा हुआ. कमरे में बैठाने की गुंजाइश नहीं थी. उस छोटे कमरे में किसी प्रकार ठुंसकर छः लोग बैठते थे. वैसे भी वह प्रशासन विभाग का कमरा था, जिसमें  मुझे किसी प्रकार जगह बनाकर बैठाया गया था, जबकि मेरे लिए अलग कमरे की व्यवस्था होनी थी.

मेरे खड़ा होते ही वह बोले, “आपको आपत्ति न हो तो हम दो मिनट बाहर चलकर बातें करें.”

मैं उनके साथ ऑफिस के बाहर बराम्दे में आ गया. लंच का समय होने वाला था. फैक्ट्री में एक बजे से दो बजे तक लंच होता. कर्मचारियों की साइकिलें पहले ही  गेट की ओर दौड़ने लगती थीं. एक बजे फैक्ट्री का साइरन बजते ही गेट खुल जाता और हुर्र करके भीड़ गेट से बाहर सड़क पर दौड़ पड़ती.

“मुझे भी साहित्य और इतिहास से प्रेम है. यदा-कदा ऎतिहासिक लेख लिख लेता हूं, लेकिन केवल स्वान्तः सुखाय” गर्ग जी बोल रहे थे, ”मुझे जानकारी मिली कि आप जैसा विद्वान फैक्ट्री में है तो आपसे मिलने की उत्सुकता बढ़ गयी.”

मैं मन ही मन सोचने लगा कि ’मैं और विद्वान’—यह गलतफहमी गर्ग जी ने कैसे पाल ली. लेकिन चुप रहा.
“हम कुछ साहित्य प्रेमी ’विविधा’ नामकी एक साहित्यिक संस्था चलाते हैं. मैं चाहूंगा कि आप जैसे विद्वान युवक उससे जुड़ें.”

’फिर विद्वान’ मैं फिर सोचने लगा था. ’यह तो विद्वान शब्द का अपमान कर रहे हैं’, लेकिन फिर चुप रहा और बोला, “मुझे विविधा से जुड़कर प्रसन्नता होगी.”

तभी फैक्ट्री का हूटर बजा और गर्ग जी ने हाथ जोड़ते हुए कहा, “चलता हूं. विविधा की अगली गोष्ठी की सूचना आपको दूंगा.”

यह वह दौर था जब मैं हर शनिवार रातभर कहानी लिखता और पसंद न आने पर फाड़कर फेंक दिया करता था. किसी से परिचय न होने के कारण कहानी किसी को सुनाकर मंतव्य जानने की इच्छा दबी रहती थी. ’विविधा’ की आगामी गोष्ठी में मुझे बुलाया गया. शायद वह गर्ग जी के घर में थी. चार-पांच लोग थे, सभी युवक. गर्ग जी की उम्र अनुमानतः चालीस के आसपास थी. उनके दो पुत्र थे जो पढ़ रहे थे. उस दिन गोष्ठी में मैं एक श्रोता के रूप में सम्मिलित हुआ. गर्ग जी ने सबसे मेरा परिचय करवाया. तय हुआ कि अगली गोष्ठी में मैं अपनी कहानी सुनाऊंगा. गोष्ठी माह में एक रविवार को होती थी. अगली गोष्ठी में मैंने अपनी कहानी सुनाई. सभी ने उसे एक स्वर से  खारिज कर दिया. ’विविधा’ में पांच लोग ही थे. गर्ग जी ने शालीनता प्रदर्शित करते हुए मध्यम मार्ग अपनाया. कहानी की कमजोरियों की ओर संकेत करते हुए उसके कुछ अच्छे पहलुओं पर भी बात की. 

गर्ग जी और मुझे छोड़कर विविधा के दूसरे सदस्य दिल्ली में नौकरी करते थे.  मेरे जुड़ने के बाद गोष्ठी विशेषरूप से कहानी केन्द्रित हो गयी थी.  एक दिन गर्ग जी ने गन्ना बेगम पर एक आलेख सुनाया. गन्ना बेगम भरतपुर के जाट राजकुमार की प्रेमिका थी, जो महादजी सिन्धिया के साथ युद्धों में शामिल हुई थी. वृन्दावनलाल वर्मा ने अपने उपन्यास ’महादजी सिन्धिया’ में उसका सुन्दर वर्णन किया है. उन दिनों तक मैंने वह उपन्यास पढ़ा नहीं था. गर्ग जी ने जिसप्रकार अपने दस पृष्ठों के आलेख में उसे उद्धृत किया था उससे मैं आकर्षित हुआ. मैंने उनसे अनुरोध किया कि  आलेख वह मुझे कुछ दिनों के लिए दे दें. मैं उसके आधार पर कहानी लिखना चाहता था. उन्होंने भले भाव से आलेख मुझे दे दिया. मैंने उसके आधार पर ’आह ग़मए गन्ना बेगम’ कहानी लिखी और सरिता को भेज दी. आश्चर्य पन्द्रह दिनों के अंदर कहानी का स्वीकृति पत्र आया जिसके साथ २५० रुपयों का वाउचर था. उसे रसीदी टिकट लगाकर हस्ताक्षर करके लौटाने का निर्देश था जिससे मुझे पारिश्रमिक के रूप में चेक भेजा जाए. मैं प्रसन्न था. मैंने वही किया. हालांकि उसमें यह शर्त भी थी कि कहानी का कॉपी राइट दिल्ली प्रेस लेगा और उसे मैं कहीं अन्यत्र प्रकाशित नहीं करवा सकूंगा. हालांकि मैंने उसे ही नहीं वहां प्रकाशित अन्य ऎतिहासिक कहानियों को अपने पहले कहानी संग्रह ’पेरिस की दो कब्रें’ में प्रकाशित करवाया और केवल ’गन्ना बेगम’ कहानी के प्रकाशन की ही अनुमति उनसे ली.

 उस कहानी के स्वीकृत होने के बाद ऎतिहासिक कहानियां लिखने का सिलसिला प्रारंभ हुआ. यह सिलसिला अगले पांच वर्षों तक जारी रहा और मैंने दस ऎतिहासिक कहानियां लिखीं. लेकिन ऎतिहासिक कहानियों के साथ सामाजिक कहानियां लिखना भी जारी रहा था और वे कहानियां ’जनयुग’ और ’वीर अर्जुन’ अखबारों में प्रकाशित हो रही थीं. गोष्ठी में मैं सामाजिक कहानियां ही सुनाता. ऎतिहासिक कभी नहीं पढ़ी.   प्रेम चन्द गर्ग के संपर्क में आने के कारण ही मेरा झुकाव ऎतिहासिक पात्रों की ओर हुआ था. बाद में मैंने तीन किशोर उपन्यास –’ऎसे थे शिवाजी’(१९८५), ’अमर बलिदान’ (करतार सिंह सराभा पर केन्द्रित(१९९२). इसे विस्तार देकर मैंने ’करतार सराभा’ नाम से २०१७ में बड़ा उपन्यास लिखा,जिसे प्रवीण प्रकाशन, नई दिल्ली ने प्रकाशित किया), ’क्रान्तिदूत अजीमुल्ला खां’ ९१९९२) और ’खुदीराम बोस’( उपन्यास – १९९७) लिखे. आज सोचता हूं कि यदि गर्ग जी न मिले होते तब शायद मैं यह सब नहीं लिखता.

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गर्ग जी प्रायः त्यौहारों से पहले मेरे पास आते और बोलते, “अमुक दिन आप मेरे घर लंच पर आमंत्रित हैं.” याद नहीं कि वे कौन-से त्यौहार थे, लेकिन वर्ष में कम से कम तीन-चार त्योहारों को मुझे उनके यहां जाना पड़ता. वह कहते, “मेरे यहां यह नियम है कि किसी एक बैचलर को हम भोजन अवश्य करवाते हैं. आपसे बेहतर मुझे कौन मिलेगा.” मैं जानता था कि मेरे अकेले होने के कारण वह इस बहाने मुझे भोजन के लिए बुलाते थे. व्यवहार में इतने सरल कि कभी उन्हें क्रोधित होते नहीं देखा. जब मैंने उनसे ’विविधा’ के एक सदस्य के प्रेम प्रसंग की चर्चा की जो अपने फ्लैट के सामने रहने वाली एक युवती के साथ प्रेम में डूबे हुए थे तब गर्ग जी ने कहा था कि “चन्देल जी, समाज में हर तरह के लोग हैं---“ और लंबी चुप्पी साध ली थी. ऎसे विषयों में वह बात नहीं करते थे.

अप्रैल,१९७८ में गर्ग जी से  जानकारी मिली कि विविधा की ओर से बाबा नागार्जुन को बुलाने का निर्णय हुआ है. यह विचार गर्ग जी के एक अफसर संतराज सिंह का था, जो कविताएं लिखते थे. उनकी कविताएं न कहीं छपती थीं और अफसरी अहंकार में न वह कभी गोष्ठी में सम्मिलित होते थे. वह मार्च १९७९ की गोष्ठी में सम्मिलित हुए थे और उनकी कुंठा वहां उभरकर सतह पर आ गयी थी. अप्रैल के एक रविवार बाबा आए और सीधे संतराम सिंह के घर उतरे. इस बारे में अपने संस्मरण ’बाबा का गुस्सा’ में मैंने विस्तार से चर्चा की है.

नवंबर,१९७७ में एक दिन गर्ग जी मेरे होस्टल आए और बताया कि फैक्ट्री के कुछ उत्साही लोगों के साथ मिलकर वह राम प्रसाद बिस्मिल की बहन शास्त्री देवी का स्वागत करना चाहते हैं. उन्हें कुछ राशि भी भेंट करना चाहते हैं, क्योंकि उन दिनों वह भयानक गरीबी में जीवन यापन कर रही हैं. विषय पर विस्तार से प्रकाश डालने के बाद बोले, “मैं चाहता हूं कि आप चन्दा उगाही का काम करें. मैं दो टीमें बना रहा हूं. आप होस्टल के आसपास के ब्लॉक्स से चन्दा एकत्रित करें. दूसरी टीम मैं टाइप टू,टाइप थ्री और हटमेण्ट वाले मकानों में भेजूंगा.”

मैं मना नहीं कर सकता था. उन दिनों मैं खाली था. ठंड प्रारंभ हो चुकी थी. दो दिन बाद गर्ग जी मुझे रसीद बुक थमा गए.  अगले दिन से मैंने चन्दा उगाही का काम प्रारंभ किया. लोगों को देर तक समझाना पड़ता कि रामप्रसाद बिस्मिल कौन थे और उनकी बहन का क्रान्ति कार्यों में क्या योगदान था. लोग मुंह फैलाकर सुनते और पांच रुपए का नोट थमा देते. कोई ही था जिसने दस रुपए दिए थे. कई लोग  अगले दिन पर टाल देते थे. उनके यहां मैं दोबार नहीं गया. याद नहीं कि पन्द्रह दिन खर्च करने के बाद मैंने कितना चन्दा एकत्रित किया था. २५ दिसंबर को शास्त्रीदेवी को  सम्मानित किया गया. २२ दिसम्बर से २६ दिसम्बर तक वह गर्ग जी के घर रही थीं, जहां उनसे बात करने का मुझे अवसर मिला था. उन पर मेरा संस्मरण मेरी पुस्तक ’साहित्य,संवाद और संस्मरण’ (भावना प्रकाशन) में सम्मिलित है.  वह भारी शरीर की लगभग अस्सी वर्ष की थीं, जिन्होंने देश की आजादी के लिए भाई के साथ क्रान्तिकारी कार्यों में अपना योगदान दिया था, लेकिन देश के कृतघ्न नेताओं और सरकारों ने किसी भी क्रान्तिकारी के लिए कुछ नहीं किया. उन दिनों उनकी बहू टीबी का शिकार थी और वह दिल्ली के उत्तम नगर में चाय की दुकान चलाकर अपना और परिवार का पालन कर रही थीं. उनका बेटा भी  दुकान में बैठता था. वह भी बीमार रहता था.
वास्तव में गर्ग जी क्रान्तिकारियों से बहुत प्रेरित थे. उनके कारण ही मैं क्रान्तिकारियों की ओर आकर्षित हुआ. उनके माध्यम से मुझे सावरकर की आत्मकथा तथा  ’१८५७ का प्रथम स्वातंत्र्य समर’ पढ़ने को मिले. यशपाल का झूठा सच, दिव्या और भगवती चरण वर्मा का चित्रलेखा भी गर्ग जी ने फैक्ट्री पुस्तकालय से मुझे उपलब्ध करवाया था. बाद में मैं भी उसका सदस्य बन गया और स्थानांतरण पर दिल्ली आते समय सावरकर की पुस्तकें मेरे साथ चली आयीं. आज भी वे मेरे पास हैं. ’१८५७ का प्रथम स्वातंत्र्य समर’ मेरे लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुई.

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२८ जून,१९७९ को मैंने गाजियाबाद शिफ्ट किया.  दैनिक यात्री के रूप में मुरादनगर आने-जाने लगा. मेरे शिफ्ट होने से पहले ही विविधा संस्था के कार्यक्रम स्थगित हो चुके थे. गर्ग जी से मुलाकात भी यदा-कदा होने लगी थी जब वह कभी लंच में घर जाते हुए या घर से लौटते हुए मेरे ऑफिस मिलने आ जाते थे. लेकिन वह मुलाकात चंद मिनटों की होती थी.  मैंने मुरादनगर से अपना स्थानांतरण दिल्ली करवा लिया. मुझे आर.के.पुरम के मुख्यालय में पोस्ट किया गया, जहां मैंने १९ जुलाई,१९८० को ज्वाइन किया. मुझे गाजियाबाद से  दिल्ली शिफ्ट करना आवश्यक हो गया. दिल्ली में मकान खोजना और वह भी बिना जान-पहचान बहुत टेढ़ी खीर थी, लेकिन खोजा और १० ए/२२, शक्तिनगर में ११ अक्टूबर,१९८० को शिफ्ट हो गया. इस मकान में अचानक एक रविवार गर्ग जी आए. उस दिन वह बिस्मिल जी की बहन शास्त्री देवी से मिलने उत्तम नगर गए थे. उनके दो पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं. पहला पत्र ८ जनवरी,१९९२ का है. उसे मैं यहां  अविकल प्रस्तुत कर रहा हूं.
मुरादनगर
८-१-९२
बन्धुवर चन्देल जी,

सप्रेम नमस्कार।

आपके द्वारा प्रेषित पत्र एवम आपके दो कहानी संग्रह यथा समय मिले. इतने वर्षों पश्चात पत्र और आपकी भेंट पाकर हृदय गदगद हो गया. ऎसा लगा मानो साक्षात आप ही मिल गए हों. कुछ दिन पूर्व अमर उजाला दैनिक के रविवासरीय संस्करण में आपकी कहानी ’आदेश’ तथा आपकी इन्हीं दो पुस्तकों की समालोचना प्रकाशित हुई थी तभी से मेरा मन आपको पत्र लिखने का था किन्तु पता मालूम न होने के कारण ऎसा करना संभव नहीं हो पाया. आपके एक पत्र से तो मुझे ऎसा आभास हुआ था कि आप पत्रकार कॉलोनी (सादतपुर से आभिप्राय) स्थित अपने निजी आवास में जाने वाले हैं. आप वहां चले ही गए होंगे, ऎसा समझकर मैं पत्र न डाल सका. अब बन्धुवर  श्रूद्धानन्द त्यागी (जो आपका पत्र तथा पुस्तकें लाए हैं) एक ऎसा सम्पर्क सूत्र बन गए हैं जिनके द्वारा पत्रों आदि का आदान प्रदान होता ही रहेगा. ऎसी आशा ही नहीं विश्वास है.

जुलाई, १९८९ में मुरादनगर में प्रातः आठ बजे फैक्ट्री आते समय एक स्कूटर द्वारा टक्कर लग जाने के कारण मेरी जांघ की अस्थिभंग हो गई थी. आपरेशन के बाद चलने फिरने योग्य तो हो गया, किन्तु ट्रेन, बस के द्वारा कहीं आने-जाने में असमर्थ ही हूं. अतः मेरा तो दिल्ली आना संभव ही नहीं रहा. आप ही किसी रविवार सपरिवार आने की कृपा करें.

अब आपकी कहानी वास्तव में अत्यंत उच्च स्तर तक पहुंच गई हैं. अभी तक सब कहानियां तो नहीं पढ़ सका हूं किन्तु जो भी पढ़ी हैं वे मर्मस्पर्शी होने के साथ-साथ अन्याय तथा शोषण की सभी परतों को उजागर करती हैं. विशेषरूप से “हारा हुआ आदमी’, ’आदेश’ तथा ’आखिर कब तक’ कहानियां तो वास्तव में ही प्रेम चन्द तथा यशपाल की परम्परा में हैं. ’आखिर कब तक’ तो मुरादनगर के वातावरण पर है ही.

आशा है पत्र व्यवहार चलता रहेगा.

आपका अपना,

(हस्ताक्षर)

प्रेमचन्द गर्ग  
  
दूसरा पत्र १३ जुलाई,१९९२ का है. कार्यालय में मेरे एक सहयोगी मुरादनगर में प्लॉट खरीदना चाहते थे. मैंने इस विषय में गर्ग जी को लिखा जिसके उत्तर में उन्होंने वह पत्र लिखा था, जिसमें उन्होंने सूचित किया कि कवि वेदप्रकाश सुमन के दो प्लॉट हैं जिनमें से वह एक बेचना चाहते हैं. उन्होंने मेरे सहयोगी को १९ जुलाई,१९९२ को मुरादनगर आकर प्लॉट देखने के लिए कहा था. मुझे याद आ रहा है कि मेरे साथ स्कूटर में मित्र मुरादनगर गए थे लेकिन मुरादनगर की स्थिति देखकर प्लॉट खरीदने का विचार उन्होंने स्थगित कर दिया था. बाद में जानकारी मिली थी कि वेदप्रकाश सुमन की सड़क दुर्घटना में मृत्यु हो गयी थी.

प्रेम चन्द गर्ग से उसके बाद सम्पर्क नहीं रहा. कुछ वर्षों बाद एक मित्र ने एक दिन सूचना दी  कि उनकी मृत्यु हो गयी थी. यह जानकारी बहुत विलंब से मिली थी. विविधा संस्था से जुड़ना मेरी साहित्यिक यात्रा के लिए एक वरदान सिद्ध हुआ और उससे जोड़ने का श्रेय प्रेम चन्द गर्ग को था.
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बुधवार, 13 अगस्त 2014

मुद्दा विशेष



“प्रवासी साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित होने की आकांक्षा एक नई प्रवृत्ति है. जब से भारत-सरकार ने ’प्रवासी-दिवस’ मनाने की शुरूआत की है, तब से यह प्रवृत्ति कुछ ज्यादा ही जोर मारने लगी है. विदेशों में अकूत सम्पत्ति और राजनैतिक-सामाजिक वर्चस्व के चलते जब कुछ लोग ’प्रवासी-रत्न’ बनाये जाने लगे तो अपनी ’साहित्यिक –पूंजी’ के आधार पर कुछ समझदार लेखक प्रवासी साहित्यकार बनकर अवतरित होने लगे हैं.”

“इसी के साथ ही साथ एक बात और गौर करने की है कि इस तरह की रचनाओं को उच्च कोटि की सिद्ध करने के लिए कुछ आलोचक, सम्पादक, समीक्षक भी मैदान में उतर आए हैं ताकि उनकी दुकान भी कुछ ’एक्सपोर्ट क्वालिटी’ की सिद्ध हो सके.” (डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण)



आलेख
प्रवासी साहित्य कितना प्रवासी?

                                           डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण

अभी पिछले दिनों एक किताब खोजते हुए अचानक मोहन राकेश नाट्य-कृति ’अषाढ़ का एक दिन’ दिख गई और फिर यह भूल कर कि मैं क्या खोज रहा था, उसे पढ़ने बैठ गया. लेकिन यह नाटक अनेकबार पढ़ा है और इसकी कई प्रस्तुतियां भी देखी हैं. इस पर बनी फिल्म भी देखी थी. हर बार कोई न कोई नया अनुभव पाता रहा हूं. फलतः इसे एक बार फिर पढ़ जाने की उत्कट इच्छा दबा न सका और इसे एक ही बार में पूरा पढ़ गया. इस बार पढ़ते हुए यकायक मेरा मन कालिदास द्वारा कही गई निम्न पंक्तियों पर अटक गया जिसमें वे उज्जयिनी में बिताए गए अपने जीवन का सन्दर्भ लेकर मल्लिका से कहते हैं:

“लोग सोचते हैं, मैंने उस जीवन और वातावरण में रहकर कुछ लिखा है. परन्तु मैं जानता हूं कि मैंने वहां रहकर कुछ नहीं लिखा है. जो कुछ लिखा है वह यहां के जीवन का ही संचय था. ’कुमार सम्भव’ की पृष्ठभूमि यह हिमालय है और तपस्विनी उमा तुम हो. ’मेघदूत’ के यक्ष की पीड़ा मेरी पीड़ा है और विरह विमर्दिता यक्षिणी तुम हो—तथापि मैंने स्वयं यहीं होने और तुम्हें नगर में देखने की कल्पना की. ’अभिज्ञान शाकुन्तल’ में शकुन्तला के रूप में तुम्ही मेरे सामने थीं. मैंने जब-जब लिखने का प्रयत्न किया, तुम्हारे और अपने जीवन के इतिहास को फिर-फिर दोहराया. और जब उससे हटकर लिखना चाहा, तो रचना प्राणवान नहीं हुई.”

अर्थात कालिदास ने अपने उज्जयनी प्रवास में जो कुछ लिखा वह वहां के जीवन और वातावरण से परे विगत जीवन की  वे घनीभूत स्मृतियां थीं जो उसके प्रवासी मन पर आषाढ़ के बादलों की तरह छाई हुई थीं और जो उज्जयिनी के वातावरण में जाकर रिमझिम-रिमझिम बरसती रहीं. यानि प्रवासी कालिदास का तन चाहे उज्जयिनी में था लेकिन मन-आत्मा के स्तर पर वह अपने गृह-प्रदेश, अपनी प्रिया, अपने बन्धु बान्धवों, प्रकृति और वनस्पतियों से निरन्तर जुड़ा रहा. यानि उसकी समस्त ऊर्जा का स्रोत उसके विगत जीवन के अनुभव और उसकी स्मृतियां ही थीं. भले ही आज हमें वह बात शत-प्रतिशत सही न लगे लेकिन इसके मनोवैज्ञानिक आधार को नकारा नहीं जा सकता.

तभी इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मेरे मन में एक प्रश्न उठा कि आज जब हमारे साहित्याकाश पर ’प्रवासी साहित्य’ के बादल कुछ ज्यादा ही उमड़-घुमड़ कर कड़क रहे हैं, तब हम किसे प्रवासी साहित्य मानें और जिसे आज प्रवासी साहित्य कहकर विज्ञापित, प्रचारित और सम्मानित किया जा रहा है, वह वस्तुतः कितना प्रवासी है?   
  
आज विदेश में रहने वाले हिन्दी साहित्यकारों की सभी रचनाओं को ’प्रवासी-साहित्य’ की संज्ञा से अविहित करना लगभग एक प्रवृत्ति बनता जा रहा है. फलतः अनेक कारणों से विदेश जाकर बसने वाले साहित्य-प्रेमी-जन यदि कुछ रचनाएं बैठकर लिख लेते हैं तो भारत में बैठे उनके मित्र, सम्पादक, आलोचक उन्हें प्रवासी-साहित्यकार की संज्ञा से विभूषित करने लगते हैं.

अतः विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या भारत से बाहर लिखे जा रहे समस्त हिन्दी साहित्य को ’प्रवासी-साहित्य’ कहा जा सकता है? क्या मात्र भारत की सीमाओं से बाहर जाकर लिखा गया साहित्य ही प्रवासी साहित्य है? आज भू-मण्डलीकरण के चलते ’प्रवास’ और ’प्रवासी’ का मतलब भी क्या वही रह गया है जो आज से कई शताब्दियों पूर्व उपनिवेशवादियों द्वारा जबरन ले जाए गए ’अफ्रिकी दासों’ और फिर ’दास-प्रथा’ के समाप्त हो जाने के बाद ’शर्तबन्दी प्रथा’ के अन्तर्गत मारीशस, गयाना, ट्रिनीडाड, सूरीनाम और फीजी जैसे देशों में ले जाए गए भारतीय किसान-मजदूरों के लिए था, जिन्हें ’कुली’ कहा जाता था? आज आठ-दस घण्टे की आरामदायक हवाई-यात्रा के बाद नई भूमि पर उतरने का अनुभव क्या कलकत्ता के घाट से शुरू होने वाली उस समुद्री यात्रा के अनुभव जैसा है जो कई महीने की अमानुषिक यात्रा के बाद पराई-भूमि पर पहुंचने में होता था?

इसी तरह हमारा आज का यात्री, जो पढ़ा-लिखा है, जो टैक्नोक्रेट, ब्यूरोक्रेट, डिप्लोमेट, व्यापारी या अन्य प्रकार का कामकाजी है, क्या उस अनपढ़, गंवार, देहाती मेहनतकश किसान-मजदूर जैसा ही यात्री है जिसे यह नहीं मालूम था कि काले पानी की यह यात्रा कहां खत्म होगी? ऊपरी तौर पर तो दोनों ही यात्री हैं लेकिन दोनों की यात्राओं के कारण और अनुभव नितान्त भिन्न हैं. यहां पहले यात्री के लिए ’विस्थापन’ स्वेच्छा से वरण किया गया निर्णय है तो दूसरी प्रकार के यात्री के लिए ’विस्थापन’ अनजाने में या जबरन लादा गया है. फलतः दोनों प्रकार के विस्थापनों से उपजे अनुभव भी अलग-अलग ही होंगे और इन अनुभवों से उपजे साहित्य की प्रकृति और संवेदना भी भिन्न-भिन्न प्रकार की होगी और होनी चाहिए.

इसी संदर्भ को कुछ और विस्तृत परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश या एक ही प्रदेश के दूसरे गांव या शहर में जाकर काम करने वाला भारतवासी भी अपने देश में ही प्रवासी हो जाता है, परदेशी हो जाता है. गांव, कस्बों और छोटे-छोटे शहरों से निकलकर महानगरों में बसने वाला हर व्यक्ति अपनी मूल चेतना में प्रवासी ही है. अंग्रेजी-शासन के दौरान कलकत्ता और बम्बई  (आज का कोलकता और मुम्बई) के कल-कारखानों में जाकर काम करने वाला व्यक्ति ’परदेसी’ कहलाता था. तब के संयुक्त प्रान्त और आज के बिहार और उत्तर-प्रदेश के असंख्य लोग अपने-अपने गांवों से निकलकर कलकत्ता-बंबई के कारखानों में मजदूर हो गए थे और उनका घर-परिवार ’देश’ में यानि गांवों में रहकर मानसिक और शारीरिक कष्ट भोगता रहता था. उसी  कष्ट और मानसिक पीड़ा की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति बिहार के प्रसिद्ध जन-कवि-अभिनेता भिखारी ठाकुर के ’विदेसिया’ में मिलती है जिसके कारण उस समय भिखारी ठाकुर बिहार और पूर्वी उत्तर-प्रदेश में अपने गायन और अभिनय के बलबूते हजारों की भीड़ इकट्ठी कर लेते थे. तब उनकी लोकप्रियता, उस समय के अनुपात से देखें तो, अमिताभ-शारूख जैसी ही रही होगी. तब भिखारी ठाकुर को प्रवासी संवेदना का अथच प्रवासी लेखक क्यों नहीं माना जाए?

वस्तुतः प्रवास के मूल में ’विस्थापन की त्रासदी’ जुड़ी रहती है. अपनी मूल जड़ों से दूर जाने पर अव्यक्त-मन में एक तरह की उदासी छा जाती ह. पीछे छूटा घर-परिवार, सामाजिक परिवेश, मित्र-नाते-रिश्तेदार, वन-प्रांत और एक खास तरह की जीवन-पद्धति का अभ्यास उसके जीवन में एक नाटकीय परिवर्तन ले आता है. नया समाज भी उसे एक्दम नहीं अपनाता है वरन अपने विजातीय होने का अहसास, उसकी चेतना में बसा रहता है. नयी भाषा के साथ उसकी अपनी मातृभाषा की संगति भी आसानी से नहीं बैठती है. विजातीय समाज को लगता है कि जैसे वह इन प्रवासियों के कारण अपने ही घर  में सुविधा विहीन होता जा रहा है. अभी पिछले कुछ वर्षों में मुम्बई में ’पूरब से आए लोगों के प्रति’ जिस प्रकार का विद्वेष भड़का और उन्हें अपने-अपने गृह-प्रदेश लौटने का संकेत दिया गया, वह इसी प्रवृत्ति का विस्फोट है. अतः अपने मूल-परिवेश से दूर जाकर अपने होने का, अपनी अस्मिता और पहचान का संकट शुरू होता है. नई-नई परिस्थितियां उसके सामने चौनौती की तरह जा खड़ी होती हैं और वह अपने आप को अभिमन्यु की तरह एक चक्रब्यूह में फंसा पाता है. इन्हीं सब कारणों से उसके सामने अपने अस्तित्व की रक्षा और उसकी स्थापना का संघर्ष शुरू होता है. 

उदाहरण के लिए विमल राय की प्रसिद्ध फिल्म ’दो बीघा जमीन’ का नायक अपनी ही जमीन से विस्थापित किसान है जो कलकत्ता आकर रिक्शा खींचता है और अपनी जमीन को वापस लेने के लिए धन एकत्रित करने की प्रक्रिया में अपने प्राण खो बैठता है. प्रेमचंद के उपन्यास ’गोदान’ का नायक ’होरी’ भी अपनी जमीन से दूर होकर मजदूर बनने के लिए विवश हो जाता है और लू-खाकर उसी सड़क पर पत्थर कूटते हुए मर जाता है जो गांव को शहर से जोड़ने के लिए बन रही है. इसके विपरीत उसी का बेटा ’गोबर’ गांव से भाग कर शहर चला जाता है और जब वहां से चार पैसे कमाकर ’शहराती ठाठ’के साथ गांव लौटता है तो अचानक ’गोबर’ से ’गोवरधन’ हो जाता है.

फणीश्वरनाथ रेणु की रचनाओं में भी ’विस्थापन’ अपने अनेक रूपों में मौजूद है. ’तीसरी कसम’ का हीरामन अपने गांव से दूर बैलगाड़ी में ’लदनी’ ढोने का काम करता है, नौटंकी वाली हीराबाई के सम्पर्क में आकर उसमें अनेक तरह की नयी-नयी भावनाओं का प्रस्फुटन होता है, नौटंकी देखता है जो उसके अपने सामाजिक परिवेश में अच्छा काम नहीं समझा जाता है. 

ये कुछ उदाहरण मात्र हैं बात कहने के लिए. यों ऎसे हजारों उदाहरण और भी दिए जा सकते हैं जिनसे यह सिद्ध होता है कि महान साहित्यिक रचना के मूल में ’विस्थापन का दर्द’ समाया रहता है.       अपनी जड़ॊं से दूर जाकर ही ’अपने होने की’ समझ विकसित होती है. भारत के महान महाकाव्य रामायण और महाभारत को ही लें तो आप पाएंगे कि दोनों में ही ’विस्थापन’ का तत्व मौजूद है. रामायण की मार्मिकता का नियामक तत्व उसका वनमास है. पाण्डवों का निर्वासन उन्हें निरन्तर दृढ और ऊर्जावान बनाता है. हमारे पूर्ण-पुरुष श्रीकृष्ण भी ब्रज से विस्थापित होकर अन्ततः द्वारका में जाकर बसते हैं. और मोहन राकेश के कालिदास की तरह ही ब्रज प्रदेश और राधा की स्मृतियां उनसे दूर नहीं हो पाती हैं. सूरदास ने कृष्ण के मुख से ही कहलवाया है :

“ऊधो मोहि ब्रज बिसरत नाहिं,
हंससुता की सुन्दर नगरी और कंजुन की छाहिं.”

हरिऔध का ’प्रिय-प्रवास’ कृष्ण के प्रवास को राधा के संदर्भ से प्रस्तुत करता है. यानि जहां-जहां विस्थापन है, वहीं ’प्रवास’ की चेतना मिलेगी. तो क्या इस विस्थापन और प्रवास से जुड़े समस्त साहित्य को ’प्रवासी साहित्य’ मान लिया जाए?

आज के आधुनिक युग में, औद्योगिक विकास की प्रक्रिया में, गांव टूट रहे हैं और नए-नए शहर विकसित हो रहे हैं. यह प्रक्रिया कमोवेश पूरे विश्व में ही चल रही है. कहीं इसकी गति धीमी है तो कहीं तेज, लेकिन यह प्रक्रिया निरन्तर चल रही है. इसके साथ ही साथ भारत की जनसंख्या भी बढ़ रही है. एक छोटे स्थान पर रहते हुए रोजी-रोटी के लिए, पढ़ाई-लिखाई के लिए, अधिक सुविधाएं पाने के लिए, व्यक्ति या समूह अपने-अपने मूल स्थानों से विस्थापित होने के लिए विवश हो जाते हैं. विकास के नाम पर नए-नए प्रकल्प सामने आते जाते हैं और अचानक एक ही स्थान विशेष का बहुत बड़ा-जनसमुदाय विस्थापित कर दिया जाता है. उदाहरण के लिए नर्मदा या टिहरी पर बनने वाले बांधों के कारण अनेक लोग विस्थापित कर दिए गए. इस विस्थापन के कारण जल-जंगल और जमीन के वर्चस्व और अधिकार की लड़ाई भी तेज़ होती जाती है. फलतः साहित्यिक रचनाओं में विस्थापन से जुड़े दर्द और संघर्ष के तत्व स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्ति पाने लगते हैं. 

’विस्थापन’ की जो प्रक्रिया अत्यन्त सूक्ष्म रूप में प्रेमचन्द और प्रेमचन्दोत्तर कथा साहित्य में मिलती है वही नई कहानी के युग में आकर साहित्य का मूल स्वर बन जाती है. नयी कहानी के अधिकांश लेखक और पात्र गांवों और कस्बों से निकल कर शहरों में आकर बसे लोग हैं और उनके मनों में अपने पीछे छूटे खेत-खलिहान, संयुक्त परिवार का घर आंगन, माता-पिता सहित सामाजिक आत्मीयता की स्मृतियां और आगत भविष्य के स्वप्न मौजूद हैं. तब क्या यह सब भी प्रवासी मनोवृत्ति और संवेदना का साहित्य नहीं है?

स्पष्ट है कि ’प्रवासी-साहित्य’ पद-बन्ध पढ़ते ही कई तरह के अर्थ एवं धाराणाएं मन में उभरने लगती हैं. उदाहरणार्थ ’प्रवास’ में लिखा गया साहित्य’ (यथा यात्रा-संस्मरण, डायरी आदि), प्रवासी-लेखक द्वारा लिखा गया साहित्य (जैसे सूर-साहित्य, तुलसी साहित्य वैसे ही प्रवासी-साहित्य), ऎसा साहित्य जिसमें प्रवास के कारण उत्पन्न भावनाओं का चित्र हो (जैसे प्रिय-प्रवास, वैदेही वनवास आदि), प्रवासी-प्रवृत्ति का साहित्य (जैसे भक्ति साहित्य, रीति-साहित्य आदि) या पिर प्रवास की प्रिस्थितियों से उत्पन्न मानसिक वेदना का ऎसा रूप चित्रण जो प्रवास में जाए बिना संभव न हो (जैसे ’मेघदूत’, ’विदेसिया’ आदि). निश्चय ही इस पद-बंध में अर्थ की अति व्याप्ति है. जैसे किसी रचना में ढेर सारे आंचलिक शब्दों का प्रयोग उसे आंचलिक नहीं बना सकता है, कुछ उसी तरह प्रवास में रहते हुए या किसी प्रवासी द्वारा लिखी गई हरेक रचना ’प्रवासी-साहित्य’ नहीं मानी जा सकती है.    

प्रवासी साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित होने की आकांक्षा एक नई प्रवृत्ति है. जब से भारत-सरकार ने ’प्रवासी-दिवस’ मनाने की शुरूआत की है, तब से यह प्रवृत्ति कुछ ज्यादा ही जोर मारने लगी है. विदेशों में अकूत सम्पत्ति और राजनैतिक-सामाजिक वर्चस्व के चलते जब कुछ लोग ’प्रवासी-रत्न’ बनाये जाने लगे तो अपनी ’साहित्यिक –पूंजी’ के आधार पर कुछ समझदार लेखक प्रवासी साहित्यकार बनकर अवतरित होने लगे हैं. इनमें निश्चय ही कुछ साहित्यकार ऎसे अवश्य हैं जो प्रवास में होने के कारण ही ऎसी रचनाएं दे पाए हैं जो उनके वहां न होने पर संभव न थीं. पर उन्हीं के साथ ऎसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो विदेश में रह तो अवश्य रहे हैं, लेकिन उनकी संवेदना में ऎसा कुछ भी विशिष्ट नहीं है जो यह सिद्ध करे कि उनकी यह रचना प्रवास जनित पीड़ा और अनुभवों की देन है.
इसी के साथ ही साथ एक बात और गौर करने की है कि इस तरह की रचनाओं को उच्च कोटि की सिद्ध करने के लिए कुछ आलोचक, सम्पादक, समीक्षक भी मैदान में उतर आए हैं ताकि उनकी दुकान भी कुछ ’एक्सपोर्ट क्वालिटी’ की सिद्ध हो सके.

वस्तुतः ’प्रवासी-भारतीय’ शब्द का एक स्पष्ट अर्थ-संदर्भ है. इसे जानना-समझना बहुत जरूरी है. यह शब्द पिछली शताब्दी में उन भारतीयों के लिए विशेष रूप से प्रयुक्त होता था जिनके पुरखे १००-१५० वर्ष पहले उपनिवेशवादियों द्वारा पराए देशों में ले जाकर बसा दिए गए थे. बल्कि यह कहना ज्यादा समीचीन होगा कि उन्हें बसने के लिए विवश कर दिया गया था. उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रहीं यह सन्तानें ’प्रवासी भारतीय’ कहलाती हैं. भारत के स्वतंत्र्य-संग्राम के दिनों में महात्मा गांधी जी का ध्यान भी प्रवासी-भारतीयों की समस्याओं की ओर गया था. इसका एक कारण तो यही था कि अपने साउथ-अफ्रीका के प्रवास में इनकी समस्याओं से वे स्वयं भी साक्षात्कार कर चुके थे. इसी संबन्ध के कारण गिरिराज किशोर ने उन्हें अपने उपन्यास में ’पहला गिरमिटिया’ कहा है.

कांग्रेस पार्टी में एक प्रवासी-विभाग भी था जिसमें दीनबंधु सी.एफ. इन्ड्र्यूज, बनारसी दास चतुर्वेदी, पं. तोताराम सनाढ्य, भवानी दयाल सन्यासी प्रभृति व्यक्ति जुड़े हुए थे. इन्हीं लोगों के निरन्तर प्रयत्नों के कारण सन १९१६ में ’गिरमिट प्रथा’ का अंत हुआ था. अब इन प्रवासी भारतीयों को भारत सरकार ने एक नई संज्ञा प्रदान की है—’पीपुल ऑफ इण्डियन ओरिजन’ (PIO) अर्थात भारतीय मूल का वह व्यक्ति जो चार पीढ़ियों या इससे अधिक पीढ़ियों से भारत से बाहर रह रहा है. इस वर्गीकरण में वस्तुतः मारीशस, ट्रिनीडाड, गयाना, सूरीनाम, फीजी जैसे देशों में रह रहे प्रवासी भारतीय ही आते हैं.

प्रवासी भारतीय (PIO) के साथ ही साथ अब आप्रवासी एवं अनिवासी भारतीय शब्द भी विशिष्ट संदर्भ रखते हैं. सन १९६० के बाद नयी अमरीकी आप्रवासन नीति के अन्तर्गत जब अनेक भारतीय अमरीका में जा बसे तो वे लोग ’आप्रवासी भारतीय’ कहलाए और इनमें से अधिकांशो लोगों ने अमरीका या अन्य देशों की नागरिकता भी ले ली है और अपने नामों का भी कुछ-कुछ अमरीकी-करण कर लिया है. ऎसे लोगों को भारत सरकार (PIO) की तर्ज पर ही (OCI) कहने लगी है. OCI यानि Overseas citizenship of India इसे एक प्रकार से दोहरी नागरिकता जैसी स्थिति के रूप में लिया जाने लगा है.

इसी क्रम में एक अन्य महत्वपूर्ण संज्ञा NRI अर्थात ’अनिवासी भारतीय’ भी है. ये वे लोग हैं जो शिक्षा, व्यापार, सूचना प्रोद्योगिकी से जुड़े रोजगार या अन्य किसी भी प्रकार के कामकाजी कारणों से भारत-भूमि से दूर विदेशों में रह रहे हैं अर्थात ये भारतीय तो हैं लेकिन अल्पकाल या किसी निश्चित अवधि के लिए भारत से  बाहर हैं तथा जिनके लौटने की आशा है.

उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि प्रवासी भारतीय, आप्रवासी भारतीय एवं अनिवासी भारतीय, ये समान-सी लगने वाली तीनों अवधारणाएं अपने आप में भिन्न अर्थ और संदर्भ संजोए हुए हैं. पर साहित्यिक क्षेत्र में ये तीनों अवधारणाएं गड्ड-मड्ड होकर ’प्रवासी भारतीय’ के रूप में प्रचलित और प्रचारित की जाने लगी हैं और इन तीनों श्रेणियों के भारतीयों द्वारा लिखित साहित को ’प्रवासी-साहित्य’ माना जाने लगा है. अर्थात ’प्रवासी-भारतीय’ की स्पष्ट अवधारणा से जुड़े साहित्य के साथ-साथ, आप्रवासी एवं अनिवासी भारतीयों द्वारा रचित साहित्य को भी मुख्य धारा के साथ जोड़ दिया जाता है.

सामान्यतः विभिन्न संज्ञाओं का प्रयोग वस्तु या व्यक्तियों को, एक-दूसरे से अलगाकर, विशिष्ट रूप में पहचान के लिए किया जाता है. अतः ’गिरमिट प्रथा’ के अंतर्गत जिन लाखों भारतीयों को मारीशस, फीजी, सूरीनाम, गयाना, ट्रिनीडाड ज्सैसे देशों में ले जाया गया था, आज शताब्दियों बाद उनकी संतानों द्वारा लिखे साहित्य को ’प्रवासी-साहित्य’ नाम देकर अलगाया या वर्गीकृत किया जाता है तो यह ज्यादा तर्क-संगत और प्रासंगिक प्रतीत होता है. इस वर्ग में मारीशस के साहित्यकार संख्या और साहित्यिक श्रेष्ठता में सबसे आगे हैं. अभिनमन्यु अनत का नाम सर्वत्र जाना जाता है. उसी तरह ब्रजेन्द्र भगत ’मधुकर’, सोमदत्त बखौरी, पूजानंद नेमा, रामदेव धुरन्धर, लोचन विदेशी, भानुमती नागदान प्रभृति लेखकों के नाम प्रमुख हैं. फीजी के प्रवासी साहित्यकारों में पं कमला प्रसाद मिश्र, जोगेन्द्र सिंह कंवल, विवेकानंद शर्मा, सुब्रमनी, अमरजीत कौर आदि के नाम महत्वपूर्ण हैं. सूरीनाम के लेखकों में मुंशी रहमान खान, अमर सिंह रमण, हरिदेव सहतू, ज्ञान अधीन, श्रीनिवासी आदि के नाम लिए जा सकते हैं. यदि इन और इन जैसे ही अन्य लेखकों के नामों को शामिल करके ’प्रवासी-साहित्य’ का वर्गीकरण,विश्लेषण एवं मूल्याकंन किया जाए तो कम से कम अर्थ की अतिव्याप्ति का संकट न रहेगा तथा ’प्रवासी-साहित्य’ को हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक अलग और विशिष्ट प्रवृत्ति के रूप में समुचित स्थान मिल सकेगा. लेकिन यदि इस विशिष्ट प्रवृत्ति में विदेशों में रहकर लिखने वाले सभी लेखकों को शामिल करने का गोरखधन्धा चलता रहा तो ’प्रवासी-साहित्य’ अपना केन्द्रीय एवं मूल अर्थ खो बैठेगा.        

हमें यह भी सोचना होगा कि कहीं जाने-अनजाने हम प्रवासी-साहित्यकारों को लेकर हिन्दी ’साहित्यिक समाज’ में एक ऎसे अल्पसंख्यक वर्ग का निर्माण तो नहीं करते जा रहे हैं जो भारत से दूर रहकर साहित्य-सृजन कर रहा है और इसीलिए हिन्दी साहित्य के इतिहास में उसका योगदान विशिष्ट माना जाए. यदि ऎसा है तो उसका यह प्रवेश तत्कालिक मान्यता का लाभ तो दे सकता है लेकिन उसे स्थायित्व नहीं दे सकता. दुनिया के किसी भी कोने में लिखा गया, किसी भी भाषा का साहित्य जिन्दा तो अपनी उस ताकत पर ही रहेगा कि उसमें ’साहित्य’ कितना है. प्रवासी या गैर-प्रवासी होने भर से रचना की सृजनात्मक-संवेदना नहीं बदला करती है. यदि रचनाकार की सृजनात्मक-संवेदना महत्वपूर्ण है तो उसका ’प्रवासी’ होना उसकी एक और विशिष्टता मानी जा सकती है. उदाहरण के लिए मॉरीशस के कथाकार अभिमन्यु अनत के उपन्यास ’लाल पसीना’ का नाम लेना चाहूंगा. अनत का यह उपन्यास पहले एक श्रेष्ठ उपन्यास है, औपन्यासिक कला के निष्कष पर खरा उतरता हुआ. इसमें मॉरीशस के प्रवासी भारतीयों के लोमहर्षक संघर्ष की महागाथा चित्रित है. मात्र प्रवासी-साहित्य होने के नाते महत्वपूर्ण होने की दरकार उसे नहीं है. वह अपने साहित्यिक गुणों के कारण जिन्दा रहेगा. संभवतः इसी कारण फ्रेंच भाषा में किया गया उसका अनुवाद भी लोकप्रिय हुआ है. और यह लोकप्रियता उसे प्रवासी रचना होने के कारण नहीं मिली है.

मैं यहां यह भी स्पष्ट करना चाहूंगा कि मेरा आभिप्राय यह कदापि नहीं है कि आप्रवासी या अनिवासी भारतीय लेखकों द्वारा रचित साहित्य दोयम दर्जे का है या कम मूल्यवान है. यह साहित्य भी एक अत्यन्त महत्वपूर्ण साहित्यिक प्रवृत्ति का द्योतक है और हमारे सामने नए वैश्विक संदर्भों और उससे जुड़े यथार्थ को उपस्थित करने में सक्षम है. मेरी चिन्ता और आपत्ति यह है कि इसे ’प्रवासी साहित्य’ की निश्चित अवधारणा से जोड़ने की बजाए इसके लिए किसी नए प्रकार के वर्गीकरण की नींव डाली जानी चाहिए ताकि इन लेखकों के वर्चस्व और महत्व को उचित परिप्रेक्ष्य में समझा जा सके. जरूरत इस बात की है कि इसे ’प्रवासी साहित्य’ की अवधारणा से अलग करके देखा जाए. यदि ’भारतेतर-हिन्दी-साहित्य’ जैसी कोई नई संज्ञा का प्रयोग करके इसका विश्लेषण-मूल्यांकन किया जाए तो ज्यादा प्रासंगिक होगा. जैसे भारत में ’विभाजन का साहित्य’ एक स्पष्ट अवधारणा है. इसके साथ जर्मनी के विभाजन या किसी अन्य प्रकार के विभाजन के साहित्य को नहीं जोड़ा जा सकता है. उसी तरह की एक सज्ञा ’डायस्पोरिक लिटरेचर’ भी है जिसका फलक वैश्विक है और इसमें ’इण्डियन डायस्पोरिक लिटरेचर’ की भी अपनी एक धारा है.
इसी तरह हमें यह भी समझना होगा कि विदेश में लिखी भर जाने से ही कोई रचना प्रवासी या भारतेतर रचना नहीं हो जाएगी. यदि यह कोई आधार है तो फिर अज्ञेय, प्रभाकर माचवे, गिरिजा कुमार माथुर, निर्मल वर्मा प्रभृति अनेक लेखकों की अनेक रचनाएं जो उनके विदेश प्रवास के दौरान रची गई थीं तथा जिनके नीचे उस देश का नाम और तिथियां भी अंकित हैं, तो क्या हम उन्हें भी प्रवासी या भारतेतर साहित्य के अन्तर्गत समाहित करें?

वस्तुतः लेखक के प्रवासी होने या न होने से रचना भी प्रवासी होगी या नहीं, यह निकष ही गलत है. हमें तो यह देखना चाहिए क्या प्रवास की स्थितियों ने रचना की मूल संवेदना में कुछ ऎसा गुणात्मक परिवर्तन किया है जो प्रवास के बिना संभव नहीं था? वस्तुतः रचना में प्रवास की स्थितियां कितना विचलन लाती हैं, इसकी खोज करना बहुत जरूरी है. यथार्थ की वह प्रतीति जो प्रवास द्वारा ही संभव हो सकी है तो उस यथार्थ-अनुभव को व्यक्त करने वाली रचना में ’प्रवास-तत्व’ के महत्व को समझा जा सकता है.

पर समस्या मात्र ’प्रवास-तत्व’ के महत्व को समझने भर की नहीं है. आज जिस तरह से ’प्रवासी-साहित्य’ को मुहावरे की तरह उछाला जा रहा है, उसके पीछे के सरोकारों को भी समझना जरूरी है. कई बार गोष्ठियों में विदेश से पधारे हिन्दी लेखकों की अभ्यर्थना कुछ इस अन्दाज में की जाती है जैसे यदि वे हिन्दी में न लिखते तो हिन्दी भाषा विपन्न हो गई होती, हिन्दी साहित्य समृद्ध होने से वंचित हो जाता. जैसे उन्होंने हिन्दी में लिखकर हिन्दी समाज पर बड़ा अहसान किया है.

आज के भू-मण्डलीकृत विश्व में लोगों का अपना देश छोड़ विदेश जाना, विदेश में जा बसना, नागरिकता बदल लेना, नई भाषा अपना लेना या फिर नई वेश-भूषा में सजने लगना अत्यन्त स्वाभाविक है और ऎसा कर लेना उनके वश में भी है. लेकिन वे अपनी वंश-गत और देश-गत पहचान नहीं बदल सकते, वे अपनी संस्कृति और संस्कारों को भुला भले ही दें पर छोड़ नहीं सकते, उसी तरह अपनी मातृ-भाषा भी छोड़ नहीं सकते. क्योंकि वे जो भी हैं, वे अपनी मातृ-भूमि, मातृ-भाषा, संस्कृति और संस्कारों की बदौलत ही हैं. उनका देश उनकी पहचान है. वे किसी भी देश में रह लें लेकिन भारतीय या भारत-वंशी ही कहलाए जाएंगे. अतः हिन्दी या फिर किसी अन्य मातृ-भाषा में सोचना-समझना उनकी स्वाभाविक और नैसर्गिक प्रवृत्ति है, किसी हद तक मजबूरी भी. इसलिए यदि वे हिन्दी भाषा में लिखते हैं तो यह कोई अहसान या कृपा करने जैसी बात नहीं है. यह उनकी नियति है, उनकी नैसर्गिक आवश्यकता और विवशता भी है.

लेखक चाहे देश का हो या विदेश का, उसका सम्मान करना च्छी बात है. उसके लेखन की सराहना की जानी चाहिए, विश्लेषण एवं मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए, लेकिन उसके लिए कसौटी अलग-अलग नहीं होनी चाहिए. क्योंकि यह साहित्य विदेश की भूमि पर बैठकर लिखा गया है, इसलिए महान है, यह दृष्टिकोण निरर्थक है. हमें यह देखना भी जरूरी है कि यह साहित्य अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश, परिस्थिति और यथार्थ के बहुआयामी-परिदृश्य को समझने में कितना मददगार है. यह साहित्य हमारी भाषा और संस्कृति की वैश्विक शक्ति और ऊर्जा को समझने का महत्वपूर्ण ’साधन’ भी बन सकता है या नहीं. जब हम अपनी स्थानीयता से विलग होकर, अन्तर्राष्ट्रीय धरातल पर खड़े होते हैं तो सबसे पहले जो यक्ष-प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होता है वह यही है कि हमारी अस्मिता क्या है? जब हमारे सामने पहचान का संकट खड़ा होता है तो हमें अपनी जड़ों का ध्यान आता है और अहसास होता है कि उससे अलग जाकर हमारी कोई पहचान शेष नहीं बचेगी. हम त्रिशंकु की तरह एक निर्वात में जीने के लिए विवश हो जाएंगे और तब अपने अस्तित्व और पहचान का संकट प्रवासी लेखन की पहली शर्त बन जाता है.

अपने देश की यानि घर की याद के साथ-साथ जब स्थानीय एवं विजातीय यथार्थ के साथ हमारी चेतना का द्वन्द्व होने लगता है, सांस्कृतिक मूल्यों के सामने नितान्त सम-सामयिक परिस्थितियों के संघात से जन्मी नई मानसिकता विकसित होने लगती है, जब उस नई मानसिकता से जन्मी संवेदना, साहित्य में अभिव्यक्ति पाने लगती है, तब प्रवासी-लेखन की उचित और नैसर्गिक भूमिका बन जाती है. ऎसी संवेदना का निर्माण अपने देश अथच स्थानीय परिवेश में संभव नहीं हो सकता था. अतः अनुभव की, सम्वेदना की ऎसी विशिष्ट प्रतीति और प्रवृत्ति प्रवासी साहित्य का आधार होनी चाहिए.


उदाहरण के लिए मॉरिशस के अभिमन्यु अनत की रचनाओं में उपनिवेशवादियों द्वारा आविष्कृत दूसरे प्रकार की ’दास-प्रथा’ के शोषण-चक्र को समझा जा सकता है. अंग्रेजी भाषा में लिखित बी.एस.नयपॉल की रचनाओं में ट्रिनीडाड के भारतीयों के अनुभव-संसार को जाना जा सकता है .निर्मल वर्मा द्वारा रचित, ’चीड़ों पर चांदनी’, ’वे दिन’ या ’लन्दन की एक रात’, जैसी रचनाओं में समाया हुआ अनुभव और उसकी अभिव्यक्ति यूरोप जाए बिना असंभव थी. उसे पढ़कर युद्धोत्तर यूरोप की त्रासदी को कुछ-कुछ जाना जा सकता है या फिर अति-विकसित योरोपीय समाज के अन्तर्विरोधों, विडम्बनाओं, अलगाव और अकेलेपन की नियति को समझा जा सकता है. क्या इसी तरह हमारे अन्य अनेक प्रवासी भारतीय लेखकों की रचनाएं अस्तित्व के, अस्मिता के गहरे संकटों को उभार पाती हैं? हमें इसे जानना और समझना होगा, इसकी गहरी जांच-पड़ताल करनी होगी अन्यथा साहित्य की एक ऎतिहासिक और महत्वपूर्ण प्रवृत्ति धीरे-धीरे निरर्थक हो जाएगी. जरूरत इस बात की है कि हम व्यक्तिगत भावुकता और संलग्नता से ऊपर उठकर इस साहित्यिक-प्रवृत्ति का वस्तुगत परिप्रेक्ष्य में मूल्यांकन करें अन्यथा प्रवासी-लेखन, प्रवासी-साहित्य और प्रवासी-दिवस जैसे शब्द जल्दी ही अपना संदर्भ और आकर्षण खो बैठेंगे. यदि प्रवास में लिखा गया यह साहित्य, साहित्यिक प्रतिमानों पर, अपनी मूल-संवेदना और भाषिक रचाव के कारण महत्वपूर्ण है तो कोई कारण नहीं कि इसे महत्वपूर्ण न माना जाए. पर यदि प्रवासी-साहित्य के नाम पर प्रचारित साहित्य हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा के साथ कदम मिलाकर नहीं चल सकता तो वह शीघ्र ही प्रवाह से बाहर होकर विलीन हो जाएगा. उसके टिकाऊपन का कारण प्रवास में लिखे गए होने का ठप्पा नहीं होगा, वरन मनुष्य मात्र की उन मूल-संवेदनाओं की सशक्त एवं मार्मिक अभिव्यक्ति होगा जो सार्वभौम, सार्वजनीन एवं सार्वकालिक हैं. मनुष्य मात्र की नियति से साक्षात्कार कराने वाली रचनाएं ही कालजयी हो सकती हैं फिर वे चाहे देश में लिखी गई हों या विदेश में.

साहित्य अपनी मूल-चेतना में साहित्य ही होता है. उसे प्रवासी या विदेश में रचित साहित्य आदि के बाहरी प्रतिमानों से महिमामण्डित करने की आवश्यकता नहीं है. जैसे सोना, सोना होता है. उसका ’खरापन’ देश-काल बदल जाने से परिवर्तित नहीं होता, उसी तरह यदि कोई साहित्यिक रचना ’खरी’ है तो वह अपना ’खरापन’ स्वयं सिद्ध कर देगी. उसके लिए प्रवासी होना या न होना कतई भी जरूरी नहीं है.
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प्रो. सुरेश ऋतुपर्ण:संक्षिप्त-व्यक्ति-परिचय

जन्मतिथि   :  26 अक्तूबर,1948, मथुरा,;उ.प्र.

शिक्षा       : दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी साहित्य में एम.ए.,एम.लिट, एवं पी-एच.डी की उपाधि     
शोध-विषय: ’नई कविता में नाटकीय तत्व’ विषय पर शोध कार्य.

पूर्व-कार्य-विवरण:           
- सन् 1971 से सन् 2002 तक दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रतिष्ठित शिक्षा-संस्थान हिन्दू       कॉलेज में अध्यापन कार्य.
- सन् 1988 से 1992 तक ट्रिनीडाड एवं टुबैगो स्थित भारतीय हाई कमीशन में एक राजनयिक के रूप में प्रतिनियुक्ति.
- सन् 1999 से 2002 तक माॅरीशस स्थित महात्मा गांधी संस्थान में जवाहर लाल नेहरू चेयर आॅफ इण्डियन स्टडीज’ पर अतिथि आचार्य के रूप में कार्य.
- सन् 2002 से सन् 2012 तक जापान के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय ’तोक्यो यूनिवर्सिटी आॅफ फाॅरेन स्टडीज, तोक्यो, जापान में प्रोफेसर पद पर कार्य एवं वहीं से सन् 2012 में सेवा-निवृत्त.

वर्तमान पद: विशेषाधिकारी/निदेशक ;नामितद्ध, के.के.बिरला फाउण्डेशन,  नई दिल्ली.

प्रकाशित पुस्तकें :  ’अकेली गौरैया देख’,  ’मुक्तिबोध की काव्य सृष्टि’, ’नई कविता में नाटकीय-तत्व’
                          ’फीजी के राष्ट्रीय कवि: पं.कमलाप्रसाद मिश्र की काव्य-साधना’, ’दिविक’
                          ’मुट्ठियों में बंद आकार’, ’निबंधायन’, ’हमारे ग्रन्थ’, ’हमारे त्यौहार’
                          ’फीजी में सनातन धर्मःसौ साल’, ’गीत-अर्पनम (सम्पादन):       
                         ’चाचा राम गुलाम’;चित्रकथाद्ध’,  ’पाल और विर्जिनी’;चित्रकथाद्ध,
                        ’जन आन्दोलन के अग्रदूतःपं.वासदेव विष्णुदयाल’;चित्रकथाद्ध  ’जापान की लोक कथाएं’
                      दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में हिन्दी शिक्षण’, ’हिन्दी की विश्व-यात्रा’,’हिन्दी सब संसार’
                    ’ये मेरे कामकाजी शब्द’, ’जापान के क्षितिज पर रचना का इन्द्रधनुष सहित कई पुस्तकें काशित.

संपादन्:      फ़ादर कामिल बुल्के: भारतीयता के प्रकाश पुंज ;(शीघ्र प्रकाश्य),  त्रैमासिक पत्रिका ’हिन्दी जगत
                 का विगत 12 वर्षों से संपादन. ’      

संयोजन:  जापान में तीन अन्तर्राष्टीªय  हिन्दी सम्मेलनों का आयोजन एवं संयोजन  ;2006, 2008 एवं
             (२012)

सम्मेलनों में भागीदारी:     ट्रिनीडाड में प्रथम बार अन्तर्राष्टीªय हिन्दी सम्मेलन का आयोजन ;(1992)
                                  प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन नागपुर से लेकर आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन
                                 न्यूयार्क तक के सभी सम्मेलनों में सक्रिय भागीदारी.
                                अन्य अनेक राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्टीªय सममेलनों, सेमिनारों एवं कार्यशालाओं
                                में सक्रिय भागीदारी.

पुरस्कार                    सन् 1980 में प्रथम कविता संग्रह ’अकेली गौरेया देख’ प्रकाशित
                                      एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत.

यात्राएं          :  अमेरिका, जापान, कनाडा,  ट्रिनीडाड, सूरीनाम, गयाना, फीजी, मॉरीशस,
              यू.के., हांगकांग, सिंगापुर, थाईलैण्ड, फ्रांस, इटली, मलेशिया आदि
              के अतिरिक्त यूरोप के अनेक देशों की यात्राएं एवं  दीर्घ प्रवास. 

 वैतनिक कार्य  :    ’विश्व हिन्दी न्यास’ ;न्यूयाॅर्क, अमेरिकाद्ध के अन्तर्राष्ट्रीय समन्वयक           
                              एवं त्रैमासिक पत्रिका ’हिन्दी जगत’ के संपादक

सम्मान :   विदेशों में हिन्दी प्रचार-प्रसार के कार्य के लिए ’भारतीय विद्या संस्थान’, ट्रिनीडाड द्वारा ’ट्रिनीडाड
               हिन्दी भूषण सम्मान’,हिन्दी फाउण्डेशन आॅफ ट्रिनीडाड एवं टुबेगो द्वारा ’हिन्दी निधि सम्मान’   
                 उ.प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा वर्ष 2004 में ’विदेश हिन्दी प्रसार सम्मान’द्वारा सम्मानित.
              महादेवी वर्मा की स्मृति से जुड़ी इलाहाबाद की ’समन्वय’ संस्था द्वारा ’फादर कॉमिल बुल्के   
             सम्मान’, ;(2006),सरस्वती साहित्य सम्मान,;इलाहाबाद,(2009) से सम्मानित.

वर्तमान पता  :   221, प्रभावी अपार्टमेण्ट्स सेक्टर-10, प्लाॅट-29 बी,  द्वारका,
                           नई दिल्ली-110 075
 मोबाइल                     09810453245
ई-मेल                     rituparna.suresh@gmail.com
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