“प्रवासी साहित्यकार के
रूप में प्रतिष्ठित होने की आकांक्षा एक नई प्रवृत्ति है. जब से भारत-सरकार ने ’प्रवासी-दिवस’
मनाने की शुरूआत की है, तब से यह प्रवृत्ति कुछ ज्यादा ही जोर मारने लगी है. विदेशों में अकूत
सम्पत्ति और राजनैतिक-सामाजिक वर्चस्व के चलते जब कुछ लोग ’प्रवासी-रत्न’ बनाये जाने
लगे तो अपनी ’साहित्यिक –पूंजी’ के आधार पर कुछ समझदार लेखक प्रवासी साहित्यकार बनकर
अवतरित होने लगे हैं.”
“इसी के साथ ही साथ एक बात
और गौर करने की है कि इस तरह की रचनाओं को उच्च कोटि की सिद्ध करने के लिए कुछ आलोचक,
सम्पादक, समीक्षक भी मैदान में उतर आए हैं ताकि उनकी दुकान भी कुछ ’एक्सपोर्ट क्वालिटी’
की सिद्ध हो सके.” (डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण)
आलेख
प्रवासी साहित्य कितना प्रवासी?
डॉ. सुरेश ऋतुपर्ण
अभी
पिछले दिनों एक किताब खोजते हुए अचानक मोहन राकेश नाट्य-कृति ’अषाढ़ का एक दिन’ दिख
गई और फिर यह भूल कर कि मैं क्या खोज रहा था, उसे पढ़ने बैठ गया. लेकिन यह नाटक अनेकबार
पढ़ा है और इसकी कई प्रस्तुतियां भी देखी हैं. इस पर बनी फिल्म भी देखी थी. हर बार कोई
न कोई नया अनुभव पाता रहा हूं. फलतः इसे एक बार फिर पढ़ जाने की उत्कट इच्छा दबा न सका
और इसे एक ही बार में पूरा पढ़ गया. इस बार पढ़ते हुए यकायक मेरा मन कालिदास द्वारा कही
गई निम्न पंक्तियों पर अटक गया जिसमें वे उज्जयिनी में बिताए गए अपने जीवन का सन्दर्भ
लेकर मल्लिका से कहते हैं:
“लोग
सोचते हैं, मैंने उस जीवन और वातावरण में रहकर कुछ लिखा है. परन्तु मैं जानता हूं कि
मैंने वहां रहकर कुछ नहीं लिखा है. जो कुछ लिखा है वह यहां के जीवन का ही संचय था.
’कुमार सम्भव’ की पृष्ठभूमि यह हिमालय है और तपस्विनी उमा तुम हो. ’मेघदूत’ के यक्ष
की पीड़ा मेरी पीड़ा है और विरह विमर्दिता यक्षिणी तुम हो—तथापि मैंने स्वयं यहीं होने
और तुम्हें नगर में देखने की कल्पना की. ’अभिज्ञान शाकुन्तल’ में शकुन्तला के रूप में
तुम्ही मेरे सामने थीं. मैंने जब-जब लिखने का प्रयत्न किया, तुम्हारे और अपने जीवन
के इतिहास को फिर-फिर दोहराया. और जब उससे हटकर लिखना चाहा, तो रचना प्राणवान नहीं
हुई.”
अर्थात
कालिदास ने अपने उज्जयनी प्रवास में जो कुछ लिखा वह वहां के जीवन और वातावरण से परे
विगत जीवन की वे घनीभूत स्मृतियां थीं जो उसके
प्रवासी मन पर आषाढ़ के बादलों की तरह छाई हुई थीं और जो उज्जयिनी के वातावरण में जाकर
रिमझिम-रिमझिम बरसती रहीं. यानि प्रवासी कालिदास का तन चाहे उज्जयिनी में था लेकिन
मन-आत्मा के स्तर पर वह अपने गृह-प्रदेश, अपनी प्रिया, अपने बन्धु बान्धवों, प्रकृति
और वनस्पतियों से निरन्तर जुड़ा रहा. यानि उसकी समस्त ऊर्जा का स्रोत उसके विगत जीवन
के अनुभव और उसकी स्मृतियां ही थीं. भले ही आज हमें वह बात शत-प्रतिशत सही न लगे लेकिन
इसके मनोवैज्ञानिक आधार को नकारा नहीं जा सकता.
तभी
इन पंक्तियों को पढ़ते हुए मेरे मन में एक प्रश्न उठा कि आज जब हमारे साहित्याकाश पर
’प्रवासी साहित्य’ के बादल कुछ ज्यादा ही उमड़-घुमड़ कर कड़क रहे हैं, तब हम किसे प्रवासी
साहित्य मानें और जिसे आज प्रवासी साहित्य कहकर विज्ञापित, प्रचारित और सम्मानित किया
जा रहा है, वह वस्तुतः कितना प्रवासी है?
आज विदेश में रहने
वाले हिन्दी साहित्यकारों की सभी रचनाओं को ’प्रवासी-साहित्य’ की संज्ञा से अविहित
करना लगभग एक प्रवृत्ति बनता जा रहा है. फलतः अनेक कारणों से विदेश जाकर बसने वाले
साहित्य-प्रेमी-जन यदि कुछ रचनाएं बैठकर लिख लेते हैं तो भारत में बैठे उनके मित्र,
सम्पादक, आलोचक उन्हें प्रवासी-साहित्यकार की संज्ञा से विभूषित करने लगते हैं.
अतः विचारणीय प्रश्न
यह है कि क्या भारत से बाहर लिखे जा रहे समस्त हिन्दी साहित्य को ’प्रवासी-साहित्य’
कहा जा सकता है? क्या मात्र भारत की सीमाओं से बाहर जाकर लिखा गया साहित्य ही प्रवासी
साहित्य है? आज भू-मण्डलीकरण के चलते ’प्रवास’ और ’प्रवासी’ का मतलब भी क्या वही रह
गया है जो आज से कई शताब्दियों पूर्व उपनिवेशवादियों द्वारा जबरन ले जाए गए ’अफ्रिकी
दासों’ और फिर ’दास-प्रथा’ के समाप्त हो जाने के बाद ’शर्तबन्दी प्रथा’ के अन्तर्गत
मारीशस, गयाना, ट्रिनीडाड, सूरीनाम और फीजी जैसे देशों में ले जाए गए भारतीय किसान-मजदूरों
के लिए था, जिन्हें ’कुली’ कहा जाता था? आज आठ-दस घण्टे की आरामदायक हवाई-यात्रा के
बाद नई भूमि पर उतरने का अनुभव क्या कलकत्ता के घाट से शुरू होने वाली उस समुद्री यात्रा
के अनुभव जैसा है जो कई महीने की अमानुषिक यात्रा के बाद पराई-भूमि पर पहुंचने में
होता था?
इसी तरह हमारा आज का
यात्री, जो पढ़ा-लिखा है, जो टैक्नोक्रेट, ब्यूरोक्रेट, डिप्लोमेट, व्यापारी या अन्य
प्रकार का कामकाजी है, क्या उस अनपढ़, गंवार, देहाती मेहनतकश किसान-मजदूर जैसा ही यात्री
है जिसे यह नहीं मालूम था कि काले पानी की यह यात्रा कहां खत्म होगी? ऊपरी तौर पर तो
दोनों ही यात्री हैं लेकिन दोनों की यात्राओं के कारण और अनुभव नितान्त भिन्न हैं.
यहां पहले यात्री के लिए ’विस्थापन’ स्वेच्छा से वरण किया गया निर्णय है तो दूसरी प्रकार
के यात्री के लिए ’विस्थापन’ अनजाने में या जबरन लादा गया है. फलतः दोनों प्रकार के
विस्थापनों से उपजे अनुभव भी अलग-अलग ही होंगे और इन अनुभवों से उपजे साहित्य की प्रकृति
और संवेदना भी भिन्न-भिन्न प्रकार की होगी और होनी चाहिए.
इसी संदर्भ को कुछ
और विस्तृत परिप्रेक्ष्य में देखें तो भारत के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश या एक ही
प्रदेश के दूसरे गांव या शहर में जाकर काम करने वाला भारतवासी भी अपने देश में ही प्रवासी
हो जाता है, परदेशी हो जाता है. गांव, कस्बों और छोटे-छोटे शहरों से निकलकर महानगरों
में बसने वाला हर व्यक्ति अपनी मूल चेतना में प्रवासी ही है. अंग्रेजी-शासन के दौरान
कलकत्ता और बम्बई (आज का कोलकता और मुम्बई)
के कल-कारखानों में जाकर काम करने वाला व्यक्ति ’परदेसी’ कहलाता था. तब के संयुक्त
प्रान्त और आज के बिहार और उत्तर-प्रदेश के असंख्य लोग अपने-अपने गांवों से निकलकर
कलकत्ता-बंबई के कारखानों में मजदूर हो गए थे और उनका घर-परिवार ’देश’ में यानि गांवों
में रहकर मानसिक और शारीरिक कष्ट भोगता रहता था. उसी कष्ट और मानसिक पीड़ा की मर्मस्पर्शी अभिव्यक्ति
बिहार के प्रसिद्ध जन-कवि-अभिनेता भिखारी ठाकुर के ’विदेसिया’ में मिलती है जिसके कारण
उस समय भिखारी ठाकुर बिहार और पूर्वी उत्तर-प्रदेश में अपने गायन और अभिनय के बलबूते
हजारों की भीड़ इकट्ठी कर लेते थे. तब उनकी लोकप्रियता, उस समय के अनुपात से देखें तो,
अमिताभ-शारूख जैसी ही रही होगी. तब भिखारी ठाकुर को प्रवासी संवेदना का अथच प्रवासी
लेखक क्यों नहीं माना जाए?
वस्तुतः प्रवास के
मूल में ’विस्थापन की त्रासदी’ जुड़ी रहती है. अपनी मूल जड़ों से दूर जाने पर अव्यक्त-मन
में एक तरह की उदासी छा जाती ह. पीछे छूटा घर-परिवार, सामाजिक परिवेश, मित्र-नाते-रिश्तेदार,
वन-प्रांत और एक खास तरह की जीवन-पद्धति का अभ्यास उसके जीवन में एक नाटकीय परिवर्तन
ले आता है. नया समाज भी उसे एक्दम नहीं अपनाता है वरन अपने विजातीय होने का अहसास,
उसकी चेतना में बसा रहता है. नयी भाषा के साथ उसकी अपनी मातृभाषा की संगति भी आसानी
से नहीं बैठती है. विजातीय समाज को लगता है कि जैसे वह इन प्रवासियों के कारण अपने
ही घर में सुविधा विहीन होता जा रहा है. अभी
पिछले कुछ वर्षों में मुम्बई में ’पूरब से आए लोगों के प्रति’ जिस प्रकार का विद्वेष
भड़का और उन्हें अपने-अपने गृह-प्रदेश लौटने का संकेत दिया गया, वह इसी प्रवृत्ति का
विस्फोट है. अतः अपने मूल-परिवेश से दूर जाकर अपने होने का, अपनी अस्मिता और पहचान
का संकट शुरू होता है. नई-नई परिस्थितियां उसके सामने चौनौती की तरह जा खड़ी होती हैं
और वह अपने आप को अभिमन्यु की तरह एक चक्रब्यूह में फंसा पाता है. इन्हीं सब कारणों
से उसके सामने अपने अस्तित्व की रक्षा और उसकी स्थापना का संघर्ष शुरू होता है.
उदाहरण के लिए विमल
राय की प्रसिद्ध फिल्म ’दो बीघा जमीन’ का नायक अपनी ही जमीन से विस्थापित किसान है
जो कलकत्ता आकर रिक्शा खींचता है और अपनी जमीन को वापस लेने के लिए धन एकत्रित करने
की प्रक्रिया में अपने प्राण खो बैठता है. प्रेमचंद के उपन्यास ’गोदान’ का नायक ’होरी’
भी अपनी जमीन से दूर होकर मजदूर बनने के लिए विवश हो जाता है और लू-खाकर उसी सड़क पर
पत्थर कूटते हुए मर जाता है जो गांव को शहर से जोड़ने के लिए बन रही है. इसके विपरीत
उसी का बेटा ’गोबर’ गांव से भाग कर शहर चला जाता है और जब वहां से चार पैसे कमाकर
’शहराती ठाठ’के साथ गांव लौटता है तो अचानक ’गोबर’ से ’गोवरधन’ हो जाता है.
फणीश्वरनाथ रेणु की
रचनाओं में भी ’विस्थापन’ अपने अनेक रूपों में मौजूद है. ’तीसरी कसम’ का हीरामन अपने
गांव से दूर बैलगाड़ी में ’लदनी’ ढोने का काम करता है, नौटंकी वाली हीराबाई के सम्पर्क
में आकर उसमें अनेक तरह की नयी-नयी भावनाओं का प्रस्फुटन होता है, नौटंकी देखता है
जो उसके अपने सामाजिक परिवेश में अच्छा काम नहीं समझा जाता है.
ये कुछ
उदाहरण मात्र हैं बात कहने के लिए. यों ऎसे हजारों उदाहरण और भी दिए जा सकते हैं जिनसे
यह सिद्ध होता है कि महान साहित्यिक रचना के मूल में ’विस्थापन का दर्द’ समाया रहता
है. अपनी
जड़ॊं से दूर जाकर ही ’अपने होने की’ समझ विकसित होती है. भारत के महान महाकाव्य रामायण
और महाभारत को ही लें तो आप पाएंगे कि दोनों में ही ’विस्थापन’ का तत्व मौजूद है. रामायण
की मार्मिकता का नियामक तत्व उसका वनमास है. पाण्डवों का निर्वासन उन्हें निरन्तर दृढ
और ऊर्जावान बनाता है. हमारे पूर्ण-पुरुष श्रीकृष्ण भी ब्रज से विस्थापित होकर अन्ततः
द्वारका में जाकर बसते हैं. और मोहन राकेश के कालिदास की तरह ही ब्रज प्रदेश और राधा
की स्मृतियां उनसे दूर नहीं हो पाती हैं. सूरदास ने कृष्ण के मुख से ही कहलवाया है
:
“ऊधो
मोहि ब्रज बिसरत नाहिं,
हंससुता
की सुन्दर नगरी और कंजुन की छाहिं.”
हरिऔध का ’प्रिय-प्रवास’
कृष्ण के प्रवास को राधा के संदर्भ से प्रस्तुत करता है. यानि जहां-जहां विस्थापन है,
वहीं ’प्रवास’ की चेतना मिलेगी. तो क्या इस विस्थापन और प्रवास से जुड़े समस्त साहित्य
को ’प्रवासी साहित्य’ मान लिया जाए?
आज के आधुनिक युग में,
औद्योगिक विकास की प्रक्रिया में, गांव टूट रहे हैं और नए-नए शहर विकसित हो रहे हैं.
यह प्रक्रिया कमोवेश पूरे विश्व में ही चल रही है. कहीं इसकी गति धीमी है तो कहीं तेज,
लेकिन यह प्रक्रिया निरन्तर चल रही है. इसके साथ ही साथ भारत की जनसंख्या भी बढ़ रही
है. एक छोटे स्थान पर रहते हुए रोजी-रोटी के लिए, पढ़ाई-लिखाई के लिए, अधिक सुविधाएं
पाने के लिए, व्यक्ति या समूह अपने-अपने मूल स्थानों से विस्थापित होने के लिए विवश
हो जाते हैं. विकास के नाम पर नए-नए प्रकल्प सामने आते जाते हैं और अचानक एक ही स्थान
विशेष का बहुत बड़ा-जनसमुदाय विस्थापित कर दिया जाता है. उदाहरण के लिए नर्मदा या टिहरी
पर बनने वाले बांधों के कारण अनेक लोग विस्थापित कर दिए गए. इस विस्थापन के कारण जल-जंगल
और जमीन के वर्चस्व और अधिकार की लड़ाई भी तेज़ होती जाती है. फलतः साहित्यिक रचनाओं
में विस्थापन से जुड़े दर्द और संघर्ष के तत्व स्वाभाविक रूप से अभिव्यक्ति पाने लगते
हैं.
’विस्थापन’ की जो प्रक्रिया
अत्यन्त सूक्ष्म रूप में प्रेमचन्द और प्रेमचन्दोत्तर कथा साहित्य में मिलती है वही
नई कहानी के युग में आकर साहित्य का मूल स्वर बन जाती है. नयी कहानी के अधिकांश लेखक
और पात्र गांवों और कस्बों से निकल कर शहरों में आकर बसे लोग हैं और उनके मनों में
अपने पीछे छूटे खेत-खलिहान, संयुक्त परिवार का घर आंगन, माता-पिता सहित सामाजिक आत्मीयता
की स्मृतियां और आगत भविष्य के स्वप्न मौजूद हैं. तब क्या यह सब भी प्रवासी मनोवृत्ति
और संवेदना का साहित्य नहीं है?
स्पष्ट है कि ’प्रवासी-साहित्य’
पद-बन्ध पढ़ते ही कई तरह के अर्थ एवं धाराणाएं मन में उभरने लगती हैं. उदाहरणार्थ ’प्रवास’
में लिखा गया साहित्य’ (यथा यात्रा-संस्मरण, डायरी आदि), प्रवासी-लेखक द्वारा लिखा
गया साहित्य (जैसे सूर-साहित्य, तुलसी साहित्य वैसे ही प्रवासी-साहित्य), ऎसा साहित्य
जिसमें प्रवास के कारण उत्पन्न भावनाओं का चित्र हो (जैसे प्रिय-प्रवास, वैदेही वनवास
आदि), प्रवासी-प्रवृत्ति का साहित्य (जैसे भक्ति साहित्य, रीति-साहित्य आदि) या पिर
प्रवास की प्रिस्थितियों से उत्पन्न मानसिक वेदना का ऎसा रूप चित्रण जो प्रवास में
जाए बिना संभव न हो (जैसे ’मेघदूत’, ’विदेसिया’ आदि). निश्चय ही इस पद-बंध में अर्थ
की अति व्याप्ति है. जैसे किसी रचना में ढेर सारे आंचलिक शब्दों का प्रयोग उसे आंचलिक
नहीं बना सकता है, कुछ उसी तरह प्रवास में रहते हुए या किसी प्रवासी द्वारा लिखी गई
हरेक रचना ’प्रवासी-साहित्य’ नहीं मानी जा सकती है.
प्रवासी साहित्यकार के रूप में प्रतिष्ठित होने की आकांक्षा एक नई प्रवृत्ति
है. जब से भारत-सरकार ने ’प्रवासी-दिवस’ मनाने की शुरूआत की है, तब से यह प्रवृत्ति
कुछ ज्यादा ही जोर मारने लगी है. विदेशों में अकूत
सम्पत्ति और राजनैतिक-सामाजिक वर्चस्व के चलते जब कुछ लोग ’प्रवासी-रत्न’ बनाये जाने
लगे तो अपनी ’साहित्यिक –पूंजी’ के आधार पर कुछ समझदार लेखक प्रवासी साहित्यकार बनकर
अवतरित होने लगे हैं. इनमें निश्चय ही कुछ साहित्यकार ऎसे अवश्य हैं जो
प्रवास में होने के कारण ही ऎसी रचनाएं दे पाए हैं जो उनके वहां न होने पर संभव न थीं.
पर उन्हीं के साथ ऎसे लोगों की संख्या भी कम नहीं है जो विदेश में रह तो अवश्य रहे
हैं, लेकिन उनकी संवेदना में ऎसा कुछ भी विशिष्ट नहीं है जो यह सिद्ध करे कि उनकी यह
रचना प्रवास जनित पीड़ा और अनुभवों की देन है.
इसी के साथ ही साथ एक बात और गौर करने की है कि इस तरह की रचनाओं को
उच्च कोटि की सिद्ध करने के लिए कुछ आलोचक, सम्पादक, समीक्षक भी मैदान में उतर आए हैं
ताकि उनकी दुकान भी कुछ ’एक्सपोर्ट क्वालिटी’ की सिद्ध हो सके.
वस्तुतः ’प्रवासी-भारतीय’
शब्द का एक स्पष्ट अर्थ-संदर्भ है. इसे जानना-समझना बहुत जरूरी है. यह शब्द पिछली शताब्दी
में उन भारतीयों के लिए विशेष रूप से प्रयुक्त होता था जिनके पुरखे १००-१५० वर्ष पहले
उपनिवेशवादियों द्वारा पराए देशों में ले जाकर बसा दिए गए थे. बल्कि यह कहना ज्यादा
समीचीन होगा कि उन्हें बसने के लिए विवश कर दिया गया था. उनकी पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रहीं
यह सन्तानें ’प्रवासी भारतीय’ कहलाती हैं. भारत के स्वतंत्र्य-संग्राम के दिनों में
महात्मा गांधी जी का ध्यान भी प्रवासी-भारतीयों की समस्याओं की ओर गया था. इसका एक
कारण तो यही था कि अपने साउथ-अफ्रीका के प्रवास में इनकी समस्याओं से वे स्वयं भी साक्षात्कार
कर चुके थे. इसी संबन्ध के कारण गिरिराज किशोर ने उन्हें अपने उपन्यास में ’पहला गिरमिटिया’
कहा है.
कांग्रेस पार्टी में
एक प्रवासी-विभाग भी था जिसमें दीनबंधु सी.एफ. इन्ड्र्यूज, बनारसी दास चतुर्वेदी, पं.
तोताराम सनाढ्य, भवानी दयाल सन्यासी प्रभृति व्यक्ति जुड़े हुए थे. इन्हीं लोगों के
निरन्तर प्रयत्नों के कारण सन १९१६ में ’गिरमिट प्रथा’ का अंत हुआ था. अब इन प्रवासी
भारतीयों को भारत सरकार ने एक नई संज्ञा प्रदान की है—’पीपुल ऑफ इण्डियन ओरिजन’
(PIO) अर्थात भारतीय मूल का वह व्यक्ति जो चार पीढ़ियों या इससे अधिक पीढ़ियों से भारत
से बाहर रह रहा है. इस वर्गीकरण में वस्तुतः मारीशस, ट्रिनीडाड, गयाना, सूरीनाम, फीजी
जैसे देशों में रह रहे प्रवासी भारतीय ही आते हैं.
प्रवासी भारतीय
(PIO) के साथ ही साथ अब आप्रवासी एवं अनिवासी भारतीय शब्द भी विशिष्ट संदर्भ रखते हैं.
सन १९६० के बाद नयी अमरीकी आप्रवासन नीति के अन्तर्गत जब अनेक भारतीय अमरीका में जा
बसे तो वे लोग ’आप्रवासी भारतीय’ कहलाए और इनमें से अधिकांशो लोगों ने अमरीका या अन्य
देशों की नागरिकता भी ले ली है और अपने नामों का भी कुछ-कुछ अमरीकी-करण कर लिया है.
ऎसे लोगों को भारत सरकार (PIO) की तर्ज पर ही (OCI) कहने लगी है. OCI यानि
Overseas citizenship of India इसे एक प्रकार से दोहरी नागरिकता जैसी स्थिति के रूप
में लिया जाने लगा है.
इसी क्रम में एक अन्य
महत्वपूर्ण संज्ञा NRI अर्थात ’अनिवासी भारतीय’ भी है. ये वे लोग हैं जो शिक्षा, व्यापार,
सूचना प्रोद्योगिकी से जुड़े रोजगार या अन्य किसी भी प्रकार के कामकाजी कारणों से भारत-भूमि
से दूर विदेशों में रह रहे हैं अर्थात ये भारतीय तो हैं लेकिन अल्पकाल या किसी निश्चित
अवधि के लिए भारत से बाहर हैं तथा जिनके लौटने
की आशा है.
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट
है कि प्रवासी भारतीय, आप्रवासी भारतीय एवं अनिवासी भारतीय,
ये समान-सी लगने वाली तीनों अवधारणाएं अपने आप में भिन्न अर्थ और संदर्भ संजोए हुए
हैं. पर साहित्यिक क्षेत्र में ये तीनों अवधारणाएं गड्ड-मड्ड होकर ’प्रवासी भारतीय’
के रूप में प्रचलित और प्रचारित की जाने लगी हैं और इन तीनों श्रेणियों के भारतीयों
द्वारा लिखित साहित को ’प्रवासी-साहित्य’ माना जाने लगा है. अर्थात ’प्रवासी-भारतीय’
की स्पष्ट अवधारणा से जुड़े साहित्य के साथ-साथ, आप्रवासी एवं अनिवासी भारतीयों द्वारा
रचित साहित्य को भी मुख्य धारा के साथ जोड़ दिया जाता है.
सामान्यतः विभिन्न संज्ञाओं का प्रयोग वस्तु या व्यक्तियों को, एक-दूसरे
से अलगाकर, विशिष्ट रूप में पहचान के लिए किया जाता है. अतः ’गिरमिट प्रथा’ के अंतर्गत
जिन लाखों भारतीयों को मारीशस, फीजी, सूरीनाम, गयाना, ट्रिनीडाड ज्सैसे देशों में ले
जाया गया था, आज शताब्दियों बाद उनकी संतानों द्वारा लिखे साहित्य को ’प्रवासी-साहित्य’
नाम देकर अलगाया या वर्गीकृत किया जाता है तो यह ज्यादा तर्क-संगत और प्रासंगिक प्रतीत
होता है. इस वर्ग में मारीशस के साहित्यकार संख्या
और साहित्यिक श्रेष्ठता में सबसे आगे हैं. अभिनमन्यु अनत का नाम सर्वत्र जाना जाता
है. उसी तरह ब्रजेन्द्र भगत ’मधुकर’, सोमदत्त बखौरी, पूजानंद नेमा, रामदेव धुरन्धर,
लोचन विदेशी, भानुमती नागदान प्रभृति लेखकों के नाम प्रमुख हैं. फीजी के प्रवासी साहित्यकारों
में पं कमला प्रसाद मिश्र, जोगेन्द्र सिंह कंवल, विवेकानंद शर्मा, सुब्रमनी, अमरजीत
कौर आदि के नाम महत्वपूर्ण हैं. सूरीनाम के लेखकों में मुंशी रहमान खान, अमर सिंह रमण,
हरिदेव सहतू, ज्ञान अधीन, श्रीनिवासी आदि के नाम लिए जा सकते हैं. यदि इन और इन जैसे
ही अन्य लेखकों के नामों को शामिल करके ’प्रवासी-साहित्य’ का वर्गीकरण,विश्लेषण एवं
मूल्याकंन किया जाए तो कम से कम अर्थ की अतिव्याप्ति का संकट न रहेगा तथा ’प्रवासी-साहित्य’
को हिन्दी साहित्य के इतिहास में एक अलग और विशिष्ट प्रवृत्ति के रूप में समुचित स्थान
मिल सकेगा. लेकिन यदि इस विशिष्ट प्रवृत्ति में विदेशों
में रहकर लिखने वाले सभी लेखकों को शामिल करने का गोरखधन्धा चलता रहा तो ’प्रवासी-साहित्य’
अपना केन्द्रीय एवं मूल अर्थ खो बैठेगा.
हमें यह भी सोचना होगा
कि कहीं जाने-अनजाने हम प्रवासी-साहित्यकारों को लेकर हिन्दी ’साहित्यिक समाज’ में
एक ऎसे अल्पसंख्यक वर्ग का निर्माण तो नहीं करते जा रहे हैं जो भारत से दूर रहकर साहित्य-सृजन
कर रहा है और इसीलिए हिन्दी साहित्य के इतिहास में उसका योगदान विशिष्ट माना जाए. यदि
ऎसा है तो उसका यह प्रवेश तत्कालिक मान्यता का लाभ तो दे सकता है लेकिन उसे स्थायित्व
नहीं दे सकता. दुनिया के किसी भी कोने में लिखा गया, किसी
भी भाषा का साहित्य जिन्दा तो अपनी उस ताकत पर ही रहेगा कि उसमें ’साहित्य’ कितना है.
प्रवासी या गैर-प्रवासी होने भर से रचना की सृजनात्मक-संवेदना नहीं बदला करती है. यदि
रचनाकार की सृजनात्मक-संवेदना महत्वपूर्ण है तो उसका ’प्रवासी’ होना उसकी एक और विशिष्टता
मानी जा सकती है. उदाहरण के लिए मॉरीशस के कथाकार अभिमन्यु अनत के उपन्यास ’लाल पसीना’
का नाम लेना चाहूंगा. अनत का यह उपन्यास पहले एक श्रेष्ठ उपन्यास है, औपन्यासिक कला
के निष्कष पर खरा उतरता हुआ. इसमें मॉरीशस के प्रवासी भारतीयों के लोमहर्षक संघर्ष
की महागाथा चित्रित है. मात्र प्रवासी-साहित्य होने के नाते महत्वपूर्ण होने की दरकार
उसे नहीं है. वह अपने साहित्यिक गुणों के कारण जिन्दा रहेगा. संभवतः इसी कारण फ्रेंच
भाषा में किया गया उसका अनुवाद भी लोकप्रिय हुआ है. और यह लोकप्रियता उसे प्रवासी रचना
होने के कारण नहीं मिली है.
मैं यहां यह भी स्पष्ट
करना चाहूंगा कि मेरा आभिप्राय यह कदापि नहीं है कि आप्रवासी या अनिवासी भारतीय लेखकों
द्वारा रचित साहित्य दोयम दर्जे का है या कम मूल्यवान है. यह साहित्य भी एक अत्यन्त
महत्वपूर्ण साहित्यिक प्रवृत्ति का द्योतक है और हमारे सामने नए वैश्विक संदर्भों और
उससे जुड़े यथार्थ को उपस्थित करने में सक्षम है. मेरी चिन्ता और आपत्ति यह है कि इसे
’प्रवासी साहित्य’ की निश्चित अवधारणा से जोड़ने की बजाए इसके लिए किसी नए प्रकार के
वर्गीकरण की नींव डाली जानी चाहिए ताकि इन लेखकों के वर्चस्व और महत्व को उचित परिप्रेक्ष्य
में समझा जा सके. जरूरत इस बात की है कि इसे ’प्रवासी साहित्य’ की अवधारणा से अलग करके
देखा जाए. यदि ’भारतेतर-हिन्दी-साहित्य’ जैसी कोई नई संज्ञा का प्रयोग करके इसका विश्लेषण-मूल्यांकन
किया जाए तो ज्यादा प्रासंगिक होगा. जैसे भारत में ’विभाजन का साहित्य’ एक स्पष्ट अवधारणा
है. इसके साथ जर्मनी के विभाजन या किसी अन्य प्रकार के विभाजन के साहित्य को नहीं जोड़ा
जा सकता है. उसी तरह की एक सज्ञा ’डायस्पोरिक लिटरेचर’ भी है जिसका फलक वैश्विक है
और इसमें ’इण्डियन डायस्पोरिक लिटरेचर’ की भी अपनी एक धारा है.
इसी तरह हमें यह भी
समझना होगा कि विदेश में लिखी भर जाने से ही कोई रचना प्रवासी या भारतेतर रचना नहीं
हो जाएगी. यदि यह कोई आधार है तो फिर अज्ञेय, प्रभाकर माचवे, गिरिजा कुमार माथुर, निर्मल
वर्मा प्रभृति अनेक लेखकों की अनेक रचनाएं जो उनके विदेश प्रवास के दौरान रची गई थीं
तथा जिनके नीचे उस देश का नाम और तिथियां भी अंकित हैं, तो क्या हम उन्हें भी प्रवासी
या भारतेतर साहित्य के अन्तर्गत समाहित करें?
वस्तुतः लेखक के प्रवासी
होने या न होने से रचना भी प्रवासी होगी या नहीं, यह निकष ही गलत है. हमें तो यह देखना
चाहिए क्या प्रवास की स्थितियों ने रचना की मूल संवेदना में कुछ ऎसा गुणात्मक परिवर्तन
किया है जो प्रवास के बिना संभव नहीं था? वस्तुतः रचना में प्रवास की स्थितियां कितना
विचलन लाती हैं, इसकी खोज करना बहुत जरूरी है. यथार्थ की वह प्रतीति जो प्रवास द्वारा
ही संभव हो सकी है तो उस यथार्थ-अनुभव को व्यक्त करने वाली रचना में ’प्रवास-तत्व’
के महत्व को समझा जा सकता है.
पर समस्या
मात्र ’प्रवास-तत्व’ के महत्व को समझने भर की नहीं है. आज जिस तरह से ’प्रवासी-साहित्य’
को मुहावरे की तरह उछाला जा रहा है, उसके पीछे के सरोकारों को भी समझना जरूरी है. कई
बार गोष्ठियों में विदेश से पधारे हिन्दी लेखकों की अभ्यर्थना कुछ इस अन्दाज में की
जाती है जैसे यदि वे हिन्दी में न लिखते तो हिन्दी भाषा विपन्न हो गई होती, हिन्दी
साहित्य समृद्ध होने से वंचित हो जाता. जैसे उन्होंने हिन्दी में लिखकर हिन्दी समाज
पर बड़ा अहसान किया है.
आज के भू-मण्डलीकृत
विश्व में लोगों का अपना देश छोड़ विदेश जाना, विदेश में जा बसना, नागरिकता बदल लेना,
नई भाषा अपना लेना या फिर नई वेश-भूषा में सजने लगना अत्यन्त स्वाभाविक है और ऎसा कर
लेना उनके वश में भी है. लेकिन वे अपनी वंश-गत और देश-गत पहचान नहीं बदल सकते, वे अपनी
संस्कृति और संस्कारों को भुला भले ही दें पर छोड़ नहीं सकते, उसी तरह अपनी मातृ-भाषा
भी छोड़ नहीं सकते. क्योंकि वे जो भी हैं, वे अपनी मातृ-भूमि, मातृ-भाषा, संस्कृति और
संस्कारों की बदौलत ही हैं. उनका देश उनकी पहचान है. वे किसी भी देश में रह लें लेकिन
भारतीय या भारत-वंशी ही कहलाए जाएंगे. अतः हिन्दी या फिर किसी अन्य मातृ-भाषा में सोचना-समझना
उनकी स्वाभाविक और नैसर्गिक प्रवृत्ति है, किसी हद तक मजबूरी भी. इसलिए यदि वे हिन्दी
भाषा में लिखते हैं तो यह कोई अहसान या कृपा करने जैसी बात नहीं है. यह उनकी नियति
है, उनकी नैसर्गिक आवश्यकता और विवशता भी है.
लेखक चाहे
देश का हो या विदेश का, उसका सम्मान करना च्छी बात है. उसके लेखन की सराहना की जानी
चाहिए, विश्लेषण एवं मूल्यांकन भी किया जाना चाहिए, लेकिन उसके लिए कसौटी अलग-अलग नहीं
होनी चाहिए. क्योंकि यह साहित्य विदेश की भूमि पर बैठकर लिखा गया है, इसलिए महान है,
यह दृष्टिकोण निरर्थक है. हमें यह देखना भी जरूरी है कि यह साहित्य
अन्तर्राष्ट्रीय परिवेश, परिस्थिति और यथार्थ के बहुआयामी-परिदृश्य को समझने में कितना
मददगार है. यह साहित्य हमारी भाषा और संस्कृति की वैश्विक शक्ति और ऊर्जा को समझने
का महत्वपूर्ण ’साधन’ भी बन सकता है या नहीं. जब हम अपनी स्थानीयता से विलग होकर, अन्तर्राष्ट्रीय
धरातल पर खड़े होते हैं तो सबसे पहले जो यक्ष-प्रश्न हमारे सामने उपस्थित होता है वह
यही है कि हमारी अस्मिता क्या है? जब हमारे सामने पहचान का संकट खड़ा होता है तो हमें
अपनी जड़ों का ध्यान आता है और अहसास होता है कि उससे अलग जाकर हमारी कोई पहचान शेष
नहीं बचेगी. हम त्रिशंकु की तरह एक निर्वात में जीने के लिए विवश हो जाएंगे और तब अपने
अस्तित्व और पहचान का संकट प्रवासी लेखन की पहली शर्त बन जाता है.
अपने देश की यानि घर
की याद के साथ-साथ जब स्थानीय एवं विजातीय यथार्थ के साथ हमारी चेतना का द्वन्द्व होने
लगता है, सांस्कृतिक मूल्यों के सामने नितान्त सम-सामयिक परिस्थितियों के संघात से
जन्मी नई मानसिकता विकसित होने लगती है, जब उस नई मानसिकता से जन्मी संवेदना, साहित्य
में अभिव्यक्ति पाने लगती है, तब प्रवासी-लेखन की उचित और नैसर्गिक भूमिका बन जाती
है. ऎसी संवेदना का निर्माण अपने देश अथच स्थानीय परिवेश में संभव नहीं हो सकता था.
अतः अनुभव की, सम्वेदना की ऎसी विशिष्ट प्रतीति और प्रवृत्ति प्रवासी साहित्य का आधार
होनी चाहिए.
उदाहरण के लिए मॉरिशस
के अभिमन्यु अनत की रचनाओं में उपनिवेशवादियों द्वारा आविष्कृत दूसरे प्रकार की ’दास-प्रथा’
के शोषण-चक्र को समझा जा सकता है. अंग्रेजी भाषा में लिखित बी.एस.नयपॉल की रचनाओं में
ट्रिनीडाड के भारतीयों के अनुभव-संसार को जाना जा सकता है .निर्मल वर्मा द्वारा रचित,
’चीड़ों पर चांदनी’, ’वे दिन’ या ’लन्दन की एक रात’, जैसी रचनाओं में समाया हुआ अनुभव
और उसकी अभिव्यक्ति यूरोप जाए बिना असंभव थी. उसे पढ़कर युद्धोत्तर यूरोप की त्रासदी
को कुछ-कुछ जाना जा सकता है या फिर अति-विकसित योरोपीय समाज के अन्तर्विरोधों, विडम्बनाओं,
अलगाव और अकेलेपन की नियति को समझा जा सकता है. क्या इसी तरह हमारे अन्य अनेक प्रवासी
भारतीय लेखकों की रचनाएं अस्तित्व के, अस्मिता के गहरे संकटों को उभार पाती हैं? हमें
इसे जानना और समझना होगा, इसकी गहरी जांच-पड़ताल करनी होगी अन्यथा साहित्य की एक ऎतिहासिक
और महत्वपूर्ण प्रवृत्ति धीरे-धीरे निरर्थक हो जाएगी. जरूरत इस बात की है कि हम व्यक्तिगत
भावुकता और संलग्नता से ऊपर उठकर इस साहित्यिक-प्रवृत्ति का वस्तुगत परिप्रेक्ष्य में
मूल्यांकन करें अन्यथा प्रवासी-लेखन, प्रवासी-साहित्य और प्रवासी-दिवस जैसे शब्द जल्दी
ही अपना संदर्भ और आकर्षण खो बैठेंगे. यदि प्रवास में लिखा गया यह साहित्य, साहित्यिक
प्रतिमानों पर, अपनी मूल-संवेदना और भाषिक रचाव के कारण महत्वपूर्ण है तो कोई कारण
नहीं कि इसे महत्वपूर्ण न माना जाए. पर यदि प्रवासी-साहित्य के नाम पर प्रचारित साहित्य
हिन्दी साहित्य की मुख्य धारा के साथ कदम मिलाकर नहीं चल सकता तो वह शीघ्र ही प्रवाह
से बाहर होकर विलीन हो जाएगा. उसके टिकाऊपन का कारण प्रवास में लिखे गए होने का ठप्पा
नहीं होगा, वरन मनुष्य मात्र की उन मूल-संवेदनाओं की सशक्त एवं मार्मिक अभिव्यक्ति
होगा जो सार्वभौम, सार्वजनीन एवं सार्वकालिक हैं. मनुष्य मात्र की नियति से साक्षात्कार
कराने वाली रचनाएं ही कालजयी
हो सकती हैं फिर वे चाहे देश में लिखी गई हों या विदेश में.
साहित्य अपनी मूल-चेतना में साहित्य ही होता है. उसे प्रवासी
या विदेश में रचित साहित्य आदि के बाहरी प्रतिमानों से
महिमामण्डित करने की आवश्यकता नहीं है. जैसे सोना, सोना होता है. उसका ’खरापन’ देश-काल बदल जाने से परिवर्तित नहीं होता, उसी तरह यदि कोई साहित्यिक
रचना ’खरी’ है तो वह अपना ’खरापन’ स्वयं सिद्ध कर देगी. उसके लिए प्रवासी होना या न
होना कतई भी जरूरी नहीं है.
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प्रो. सुरेश ऋतुपर्ण:संक्षिप्त-व्यक्ति-परिचय
जन्मतिथि : 26 अक्तूबर,1948,
मथुरा,;उ.प्र.
शिक्षा
: दिल्ली विश्वविद्यालय से हिन्दी
साहित्य में एम.ए.,एम.लिट, एवं पी-एच.डी की उपाधि
शोध-विषय: ’नई कविता में नाटकीय तत्व’ विषय पर शोध
कार्य.
पूर्व-कार्य-विवरण:
- सन् 1971 से सन् 2002 तक दिल्ली विश्वविद्यालय
के प्रतिष्ठित शिक्षा-संस्थान हिन्दू कॉलेज में अध्यापन कार्य.
- सन् 1988 से 1992 तक ट्रिनीडाड एवं टुबैगो स्थित
भारतीय हाई कमीशन में एक राजनयिक के रूप में प्रतिनियुक्ति.
- सन् 1999 से 2002 तक माॅरीशस स्थित महात्मा गांधी
संस्थान में जवाहर लाल नेहरू चेयर आॅफ इण्डियन स्टडीज’ पर अतिथि आचार्य के रूप में
कार्य.
- सन् 2002 से सन् 2012 तक जापान के प्रसिद्ध विश्वविद्यालय
’तोक्यो यूनिवर्सिटी आॅफ फाॅरेन स्टडीज, तोक्यो, जापान में प्रोफेसर पद पर कार्य एवं
वहीं से सन् 2012 में सेवा-निवृत्त.
वर्तमान पद:
विशेषाधिकारी/निदेशक ;नामितद्ध, के.के.बिरला फाउण्डेशन, नई दिल्ली.
प्रकाशित पुस्तकें : ’अकेली गौरैया देख’, ’मुक्तिबोध की काव्य सृष्टि’, ’नई कविता में नाटकीय-तत्व’
’फीजी के राष्ट्रीय कवि:
पं.कमलाप्रसाद मिश्र की काव्य-साधना’, ’दिविक’
’मुट्ठियों में बंद आकार’,
’निबंधायन’, ’हमारे ग्रन्थ’, ’हमारे त्यौहार’
’फीजी में सनातन धर्मःसौ
साल’, ’गीत-अर्पनम (सम्पादन):
’चाचा राम गुलाम’;चित्रकथाद्ध’, ’पाल और विर्जिनी’;चित्रकथाद्ध,
’जन आन्दोलन के अग्रदूतःपं.वासदेव विष्णुदयाल’;चित्रकथाद्ध ’जापान की लोक कथाएं’
दक्षिण पूर्व एशिया के देशों
में हिन्दी शिक्षण’, ’हिन्दी की विश्व-यात्रा’,’हिन्दी सब संसार’
’ये मेरे कामकाजी शब्द’, ’जापान
के क्षितिज पर रचना का इन्द्रधनुष सहित कई पुस्तकें काशित.
संपादन्: फ़ादर कामिल
बुल्के: भारतीयता के प्रकाश पुंज ;(शीघ्र प्रकाश्य), त्रैमासिक पत्रिका ’हिन्दी जगत
का विगत 12 वर्षों से संपादन. ’
संयोजन: जापान में तीन अन्तर्राष्टीªय हिन्दी सम्मेलनों का आयोजन एवं संयोजन ;2006, 2008 एवं
(२012)
सम्मेलनों में भागीदारी: ट्रिनीडाड में प्रथम बार अन्तर्राष्टीªय
हिन्दी सम्मेलन का आयोजन ;(1992)
प्रथम विश्व हिन्दी
सम्मेलन नागपुर से लेकर आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन
न्यूयार्क तक के सभी सम्मेलनों में सक्रिय
भागीदारी.
अन्य अनेक राष्ट्रीय एवं
अन्तर्राष्टीªय सममेलनों, सेमिनारों एवं कार्यशालाओं
में सक्रिय भागीदारी.
पुरस्कार सन् 1980 में प्रथम कविता संग्रह ’अकेली
गौरेया देख’ प्रकाशित
एवं उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा पुरस्कृत.
यात्राएं :
अमेरिका, जापान, कनाडा, ट्रिनीडाड,
सूरीनाम, गयाना, फीजी, मॉरीशस,
यू.के., हांगकांग, सिंगापुर, थाईलैण्ड, फ्रांस,
इटली, मलेशिया आदि
के अतिरिक्त यूरोप के अनेक देशों की यात्राएं एवं दीर्घ प्रवास.
वैतनिक कार्य
: ’विश्व हिन्दी न्यास’ ;न्यूयाॅर्क, अमेरिकाद्ध
के अन्तर्राष्ट्रीय समन्वयक
एवं त्रैमासिक पत्रिका ’हिन्दी जगत’ के संपादक
सम्मान : विदेशों में हिन्दी प्रचार-प्रसार के कार्य के
लिए ’भारतीय विद्या संस्थान’, ट्रिनीडाड द्वारा ’ट्रिनीडाड
हिन्दी भूषण सम्मान’,हिन्दी फाउण्डेशन आॅफ ट्रिनीडाड एवं टुबेगो द्वारा ’हिन्दी
निधि सम्मान’
उ.प्र. हिन्दी संस्थान द्वारा वर्ष
2004 में ’विदेश हिन्दी प्रसार सम्मान’द्वारा सम्मानित.
महादेवी वर्मा की स्मृति से जुड़ी इलाहाबाद की ’समन्वय’ संस्था द्वारा ’फादर
कॉमिल बुल्के
सम्मान’, ;(2006),सरस्वती साहित्य सम्मान,;इलाहाबाद,(2009) से सम्मानित.
वर्तमान पता :
221, प्रभावी अपार्टमेण्ट्स सेक्टर-10, प्लाॅट-29 बी, द्वारका,
नई दिल्ली-110 075
मोबाइल 09810453245
ई-मेल rituparna.suresh@gmail.com
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