आलेख से पहले सम्पादकीय टिप्पणी :
ईशकुमार गंगानिया ने अपना निम्न आलेख अन्ना हजारे के आन्दोलन के पश्चात लिखा
था. उस आन्दोलन का मुख्य मुद्दा भ्रष्टाचार था. गंगानिया जी के इस आलेख में भ्रष्टाचार
को गहनता से व्याख्यायित किया गया है. उनके अनुसार आर्यों के आगमन से पूर्व समाज भ्रष्टाचार
विहीन था. प्राचीन सभ्यताएं इसका प्रमाण हैं, लेकिन आर्यों ने न केवल उन सभ्यताओं को
तबाह किया बल्कि अपने को स्थापित करने के लिए अनेकानेक भ्रष्ट उपायों का सहारा लिया.
प्रस्तुत है गंगानिया जी का श्रमसाध्य यह आलेख:
अम्बेडकरवादी आईने में भ्रष्टाचार
ईशकुमार गंगानिया
आजकल
लोकप्रियता का आंकड़ा देखें तो अन्ना हजारे से लोकप्रिय कोई नजर नहीं आता। समाचार
का जो भी टी. वी. चेनल खोलें सभी पर अन्ना की धूम है। कहीं पर अन्ना खुद मौजूद हैं
तो कहीं पर अन्ना की टीम। अन्ना भ्रष्टाचार के विरुद्ध खड़े हैं और भ्रष्टाचार
निवारण उनकी प्राथमिकता है। लेकिन टीम अन्ना किस लिए खड़ी है, इस प्रश्न के उपयुक्त उत्तर के लिए निस्संदेह इंतजार करना पड़ेगा क्योंकि
इसे तय होने में समय लगेगा। जहां तक इस आन्दोलन के पीछे लोगों की भीड़ का सवाल है,
इस भीड़ के अपने कई निजी कारण तो हैं ही साथ में इसके अपने कुछ
कन्फ्यूजंस भी हैं। भीड़ को पर्दे के पीछे संचालित करने वालों के अपने कई राजनीतिक
व धार्मिक कारण हैं और इस आन्दोलन के प्रायोजक मीडिया की तो बल्ले-बल्ले हो रही
हैं। लेकिन इस घटनाक्रम में हमारी चिंता लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं की
मर्यादाओं और इनमें विश्वास करने वाले जनसमूह को लेकर है। ऊपरी तौर पर कोई मानसिक
रूप से दिवालिया या कोई विक्षिप्त व्यक्ति ही होगा जो भ्रष्टाचार के उन्मूलन और
इसके दोषियों को सलाखों के पीछे देखने का पक्षधर न हो। लेकिन यहां सवाल भ्रष्टाचार
के विरुद्ध आन्दोलन करने वालों की नीयत का है, उनकी
कार्यप्रणाली का है और इस आन्दोलन से स्थापित होने वाली परंपरा व ढर्रे का है जो
देश और समाज के सामने उपस्थित होने वाले भावी खतरों की भयंकर तस्वीर प्रस्तुत करता
है।
भ्रष्टाचार सिर्फ सत्तासीन राजनीति, अफसरशाही और
न्यायपालिका तक सीमित है, यह पूरी सचाई नहीं है। पूरी सच्चाई
यह है कि भ्रष्टाचार पूरे सिस्टम में नीचे से ऊपर तक भयंकर रूप में फैला है। इसके
उन्मूलन के लिए इसके कारणों की तह तक जाना अनिवार्य है। भ्रष्टाचार एक चारित्रिक व
मानसिक विकार है और दूसरे शब्दों में कहें तो यह व्यक्तित्व विकृति (प्रर्सनल्टी
डिस्आर्डर) का परिणाम है। यह विकृति समाज में तब स्थाई रूप से घर कर जाती है जब
समाज को दिशा देने वाला धर्म, समाज की शिक्षा प्रणाली और
समाज की नेतृत्वकारी सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक शक्तियां अपनी ईमानदार व
आदर्श भूमिका निभाने में नाकाम हो जाएं। गौरतलब है कि भारतीय समाज आज निजी
संकीर्णताओं और स्वार्थों के चलते अपनी सामाजिक व राष्ट्रीय जिम्मेदारियों से भटका
हुआ है। परिणामस्वरूप, आज न उसका सामाजिक चरित्र ही कोई ठोस विस्तार
धारण कर पा रहा है और न ही उसका राष्ट्रीय चरित्र। चरित्र की इस व्यक्तिगत,
सामाजिक व राष्ट्रीय विकृति को समझने के लिए परिस्थितियों का
ऐतिहासिक व सामाजशास्त्राीय अध्ययन किया जाना जरूरी है। संभवतः इसके माध्यम से सभी
प्रकार के सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक,
धार्मिक व बौद्धिक भ्रष्टाचार को समझने में मदद मिलेगी।
भ्रष्टाचार को जन्म देने वाली चारित्रिक विकृति को समझने के लिए 3500 वर्ष पुराने इतिहास की परिस्थितियों में झांकना पड़ेगा। मौजूदा
परिस्थितियां मांग करती हैं कि भ्रष्टाचार की जननी चारित्रिक विकृति या पतनशीलता
को समझने के लिए परिस्थितियों का विश्लेषण दो स्तर पर होना चाहिए। एक-आर्यों के
आगमन पर उनके द्वारा अपनाए गए षडयंत्रों व बर्बरतापूर्ण तौर-तरीकों का विश्लेषण
करना और मौजूदा परिस्थितियों पर इनके प्रभाव को रेखांकित करना। दो-आर्यों की
क्रूरता व अत्याचारों के शिकार भारत के मूलनिवासियों की सभ्यता व संस्कृति को
प्रकाश में लाना और मूल्यांकन करना कि किस प्रकार मौजूदा परिस्थितियों में यह
भ्रष्टाचार के कुप्रभावों से दो-चार हो रही है। विषय विस्तृत है और कई पक्षों को
एक साथ लेकर चलने में विषयांतर का बड़ा जोखिम है। लेकिन विषय की प्रासंगिकता के
मद्देनजर यह जोखिम उठाना मेरी मजबूरी है।
हमारी मान्यता है कि चारित्रिक विकृति व भ्रष्टाचार की शरुआत हड़प्पा
सभ्यता और संस्कृति में आर्यों की घुसपैठ से होती है। इसकी पड़ताल के लिए पहले
आर्यों के आगमन से पूर्व के समाज की सामाजिक, आर्थिक,
राजनीतिक व बौद्धिक स्थिति का अवलोकन किया जा सकता है। क्योंकि ये
स्थितियां ही व्यक्ति के व्यक्तित्व (अच्छा या बुरा) के निर्माण में अहम् भूमिका
अदा करती हैं। आर्यों से पूर्व की स्थिति को यदि पुरातत्व विभाग के पूर्व अध्यक्ष
जॉन मार्शल के शब्दों में देखें तो पाते हैं कि सैंधव घाटी का एक साधारण से साधारण
नागरिक भी सुविधा, सुख-सामग्री एवं विलास की जिस मात्र का
उपयोग करता था उसकी तुलना उस समय के सभ्य संसार के किसी अन्य भाग से नहीं की जा
सकती।’1 निस्संदेह प्रगति व सुख-सुविधा की इतनी
उन्नत सभ्यता के लिए जरूरी है कि इस सभ्यता की कुछ विशेषताएं व अनुशासन अवश्य रहा
होगा। सिंधु घाटी सभ्यता में खुदाई से जो वस्तुएं प्राप्त हुई हैं उनसे यह
निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि यह सभ्यता शांतिप्रधान सभ्यता थी और इसका विकास
अत्यंत शांतिमय वातावरण में हुआ था। बड़े मार्के की बात है कि उत्खनन में कवच,
ढाल, तलवार, शिरस्त्राण आदि
युद्धोपयोगी सामान नहीं मिले हैं। यहां धनुष-बाण, कुल्हाड़ी,
भाला आदि आखेटीय प्रवृत्ति के द्योतक हो सकते हैं अन्य प्राचीन
सभ्यताओं की अपेक्षा सैंधव सभ्यता का नैतिक स्तर ऊंचा था और वहां के निवासी
वाणिज्य, व्यापार, कला-कौशल की उन्नति
पर अपने देश को सुखी और समृद्ध बनाना चाहते थे।’’2
उपरोक्त टिप्पणी से साफ है कि इस सभ्यता/ समाज के विकास लिए
शांति-प्रधानता अनिवार्य शर्त रही है। यह शांतिप्रियता हमें इस निष्कर्ष पर
पहुंचने में मदद करती है कि जिस सभ्यता/समाज में मानव शांतिप्रिय होंगे, युद्ध व आपसी लड़ाई-झगड़े के लिए जगह नहीं होगी, निस्संदेह
वहां असुरक्षा की भावना का अभाव होगा। जाहिर है यह सामाजिक, आर्थिक
व राजनीतिक सुरक्षा की स्थिति सदैव सृजन व निर्माण कार्यों का मार्ग प्रशस्त करती
है। परिणामस्वरूप, एक समृद्ध, प्रगतिशील
व खुशहाल सभ्यता व संस्कृति को पुख्ता आधार मिलता है। यहां एक हकीकत और पुख्ता
होती है कि इस सभ्यता में भ्रष्टाचारजन्य अपराध, चोरी-चकारी,
बेईमानी, झूठ-थपान, शोषण-उत्पीड़न
व अन्य किसी प्रकार के षडयंत्रों के लिए कोई जगह नहीं थी। दूसरे, यहां निजी संपत्ति के लिए भी मारा-मारी नजर नहीं आती और संसाधनों की
पर्याप्तता व जीवन की समृद्धि के चलते इस सभ्यता में आपसी टकराव के संकेत नहीं
मिलते। इसलिए इस सभ्यता में नैतिकता व
मानवीय मूल्यों के आधार पर साम्प्रदायिक सद्भाव होना स्वाभाविक था। संभवतः ऐसी
विशेषताएं इस सभ्यता के फलने-फूलने का ठोस आधार रही होंगी।
अब सवाल उठता है कि जिस सभ्यता में आर्यों ने घुसपैठ की उस सभ्यता के
वारिस कौन थे? यह सभ्यता कौनसी थी? क्या
वे हिन्दू थे, मुस्लिम थे, बौद्ध थे या
कोई और? यह सवाल डा. बी. एम. बरुआ भी उठाते हैं कि वे कौन थे
और अब वे कहां हैं? इतिहास
इस प्रश्न पर मौन जैसी स्थिति में क्यूं है? यह मौन स्वतः
उत्पन्न हुआ या जान बूझकर पैदा किया गया। दोनों ही स्थिति में यह हिन्दूवादी
संस्कृति के लिए वरदान साबित हुआ जिसके चलते वे आज भी हडप्पाकालीन सभ्यता व
संस्कृति पर अपना दावा ठोकने से नहीं चूकते। किसी भी सभ्यता व संस्कृति पर अपना
झूठा दावा ठोकना व कुतर्कों का साम्राज्य स्थापित करना भ्रष्टाचार के अनेक
षडयंत्रों का समुच्चय है। इसकी पड़ताल भी जरूरी है। डा. दीनानाथ इस सभ्यता के
वारिसों की तलाश के दौरान हिदूवादी दावों को खारिज करने वाले कई महत्वपूर्ण तथ्य
प्रस्तुत करते हैं। मसलन-‘जहां तक ‘हिन्दू’
शब्द की उत्पत्ति का प्रश्न है, वह भी काफी
विवादित व एक चिरस्थाई षडयंत्र का हिस्सा है। वास्तव में सन् 1922 से पहले जब तक कि हड़प्पा व मोहनजोदड़ो नामक संस्कृतियों का उत्खनन द्वारा
रहस्योद्घाटन नहीं हुआ था तो यह मानकर चला जा रहा था कि ‘सिंधु
घाटी की प्राचीनतम सभ्यता ही आर्य सभ्यता है और हिन्दू ही भारत के मूलनिवासी हैं।
इसी खोखली व आधारहीन मान्यता का फायदा उठाकर यह तर्क गढ़ लिया गया कि सिंधु घाटी के
मूल निवासी होने के कारण ही इनका नाम हिन्दू पड़ा।’3
डा. दीनानाथ की उपरोक्त टिप्पणी की पड़ताल करते हुए जब हम ‘हिन्दू’ शब्द की उत्पत्ति व इसके अर्थ को तलाशने की
कौशिश करते हैं तो इस शब्द का खोखलापन और अधिक उजागर हो जाता है। पारसी शब्दकोष
में हिन्दू का अर्थ होता है चोर (थीप), डाकू (डैकोएट),
राहजन (वेलेयर) और गुलाम (स्लेव)।4
और एक दूसरे शब्दकोष उर्दू-फैरोज़-उल-लफत (लघत) में हिन्दू’ का
पारसी में अर्थ है-बारदा यानि आज्ञाकारी नौकर, सिया फाम
(काला रंग) और काला (ब्लैक)।5 यहां हिन्दू शब्द
के अर्थ की तलाश तो पूरी होती नजर आती है लेकिन भ्रष्टाचार/ धोखेबाजी की जनक उन
परिस्थितियों का उल्लेख नहीं मिल पाता जिन परिस्थितियों में यह अस्तित्व में आया।
अंततः यह तलाश डा. अम्बेडकर पर कुछ इस प्रकार पूरी होती नज़र आती है कि हिन्दू समाज
एक मिथक मात्र है। हिन्दू नाम स्वयं विदेशी नाम है। यह मुस्लमानों ने भारतवासियों
को दिया था, ताकि वे उन्हें अपने से अलग कर सकें। मुस्लमानों
के भारत आक्रमण से पहले लिखे गए किसी भी संस्कृत ग्रंथ में इस नाम का उल्लेख नहीं
मिलता। उन्हें अपने लिए किसी समान नाम की जरूरत महसूस हुई थी, क्योंकि उन्हें ऐसा नहीं लगता था कि वे किसी विशेष समुदाय के हैं। वस्तुतः
हिन्दू समाज नामक कोई वस्तु है ही नहीं। यह अनेक जातियों का समवेत रूप है।6
इस चर्चा से यह तो स्पष्ट हो जाता है कि हिन्दू न इस देश के मूलनिवासी हैं
और न ही हडप्पाकालीन सभ्यता के वारिस। दूसरे, इससे इस हकीकत
को बल मिलता है कि आर्यों ने आक्रांता के रूप में भारत में घुसपैठ की और यहां
स्थाई रूप से बस गए। लेकिन इस सभ्यता के वारिस कौन, यह सवाल
अभी भी मुंह बाए खड़ा है। इस सवाल की पड़ताल के लिए जरूरी है कि इससे भारतीय
मूलनिवासियों की समृद्ध व खुशहाल सभ्यता व संस्कृति पर कब्जा करने वाले हथकंडों का
पता चलेगा जो समकालीन परिस्थितियों को समझने में सहायक सिद्ध होगा। इस सवाल का
जवाब इतिहासकार कश्यप भी तलाशते हैं और 3500 वर्ष पूर्व की
परिस्थितियों के विश्लेषण के माध्यम से इस देश के मूलनिवासियों को अनार्य के रूप
में देखते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि अनार्य दुर्गों में रहते थे। आर्यों
ने उनका उन्मूलन किया, उनके दुर्गों और पुरों का विध्वंस
करके अनार्यों को दक्षिण के पर्वतों की ओर ढकेल दिया। कहा जाता है कि उनमें से
बहुतों ने पर्वतों में शरण ली और उनमें से बहुतेरे गौंढ़, खांड,
भील, संथाल, औराव,
भुण्डादि उन्हीं के वंशज हैं। उनमें से बहुत से पकड़ लिए गए और दास
घोषित कर दिए गए। इन्हीं में से आज हिन्दुओं की वर्ण व्यवस्था के अंतिम स्तर के
शूद्र हैं।7 इतिहासकार कश्यप की टिप्पणी से हमें
चोरी और सीनाजोरी की प्रवृत्ति के प्रबल संकेत मिलते हैं। आज व्यक्ति चोरी,
बेईमानी, हिंसा आदि करता है और इसके लिए वह
शर्म-लिहाज महसूस करने की अपेक्षा स्वयं को व अपने कृत्य को न्याय संगत ठहराने का
कुतर्क ही नहीं करता बल्कि फख्र महसूस करता है।
कश्यप द्वारा यहां जिस शांतिमय व उन्नत इस सभ्यता के उन्मूलन की बात हो
रही है, उसका उन्मूलन आर्यों के षडयंत्रों के चलते हुआ।
दूसरे, जिन मूलविसियों को पर्वत पर धकेला गया, वे आदिवासी हो
गए और जो पकड़ लिए गए उन्हें जबरन दास बनाया गया। मौजूदा समाज में ये वर्ण व्यवस्था
से बाहर के लोग दलित-शोषित व पिछड़ा वर्ग (यहां पिछड़े वर्ग का संबंध मौजूदा
राजनीतिक पिछड़े वर्ग की परिभाषा से कुछ लेना-देना नहीं है।) के रूप में जाने जाते
हैं जिसकी एक भयावह परिणति अस्पृश्यता में होती है। अस्पृश्यता सामाजिक उत्पीड़न,
भ्रष्टाचार व बर्बरता की निकृष्टतम स्थिति है। डॉ. भीमराव अम्बेडकर
अस्पृश्यता की भयावहता को अपने अंदाज में बयां करते हैं। स्पृश्य या अस्पृश्य
व्यक्ति किसी भी अर्थ में व्यक्ति नहीं होता क्योंकि उसके सभी या लगभग सभी संबंध तभी
निश्चित हो जाते हैं जब उसका जन्म किसी वर्ग विशेष में हो जाता है। उसका व्यवसाय,
उसका निवास, उसके देवी-देवता, उसकी राजनीति सभी कुछ उसके वर्ग के द्वारा निश्चित हो जाते हैं, जिसमें उसका जन्म हो गया होता है। ये स्पृश्य और अस्पृश्य जब एक-दूसरे से
मिलते हैं तो इस तरह नहीं मिलते हैं जैसे एक इंसान दूसरे से मिल रहा होता है,
बल्कि वे ऐसे मिलते हैं, जैसे एक समुदाय का
व्यक्ति दूसरे समुदाय से या दो विभिन्न राष्ट्रों के व्यक्ति आपस में मिल रहे हों।8 यहां दो राष्ट्रों जैसा अलगाव तो किसी तरह समझ आ सकता है लेकिन इस देश के
मूलनिवासियों को अस्पृश्यता तक की स्थिति तक में पहुंचाने का सीधा-सा अर्थ है,
शोषण-उत्पीड़न की सारी सीमाओं को लांघना। यह व्यक्ति की चारित्रिक
विकृति का द्योतक है। ऐसी ही चारित्रिक विकृति मौजूदा भारतीय समाज व देश में
व्याप्त भ्रष्टाचार के लिए भी जिम्मेदार हैं।
दूसरे, ये अलग-अलग समुदाय या दो विभिन्न राष्ट्रों
के व्यक्ति के रूप में विभाजित व्यक्ति इतिहास के आर्य और अनार्य हैं। आर्य वे जो
वर्णवाद का हिस्सा हैं और वे ही हिन्दूवाद के पोषक हैं। इसके विपरीत अनार्य वे हैं
जो वर्णवादी व्यवस्था का हिस्सा नहीं हैं और इन्हें ही आर्यों ने अनार्य, अंत्यज, असुर, अस्पृश्य,
राक्षस, चांडाल आदि संज्ञाओं से नवाजा है। अब
ये अनुसूचित जाति व अनुसूचित जनजाति के रूप में व्यक्ति न रहकर अनेक जातियाँ बन
गए। इनका दबाव इस कदर रहा कि ऐसा लगता है जैसे इस देश के मूलनिवासियों ने इसको
आत्मसात कर लिया हो। इनके द्वारा रचा गया इतिहास व धार्मिक साहित्य ने इनकी अतीत
में झांकने की क्षमता को ही जैसे लील लिया हो। यह अनैतिकता व मानसिकता भ्रष्टाचार
का परिणाम है। ये मूलनिवासी संभवतः भूल गए कि आर्यों की घुसपैठ से पूर्व इनकी
अस्मिता के रूप में दलित व अनुसूचित जाति व जनजाति से कुछ लेना देना नहीं था। ये
मूलनिवासी पहले हैं और दलित बाद में बने या बनाए गए।
आर्यों की
घुसपैठ से पहले दलित नाम की न कोई जाति थी, न ही नस्ल और न ही
दलित अस्मिता जैसी अन्य कोई चीज ही अस्तित्व में थी। दलित तक पहुंचने की स्थिति आर्यों
के हजारों वर्षों की बर्बरता, शोषण-उत्पीड़न और भ्रष्ट आचरण
पर आधारित षडयंत्रों का परिणाम है। यह किसी भी समुदाय या समाज की स्वाभाविक स्थिति
व अस्मिता कभी नहीं हो सकती। जो व्यक्ति अपने को दलित तक सीमित रखना चाहते हैं,
और दलित अस्मिता (?) के भ्रम में जीना चाहते
हैं, वे इस देश के मूलनिवासी होने का दावा करने का कोई
अधिकार नहीं रखते। क्या इस हकीकत से आंख चुराई जा सकती है? यदि
इस देश के मूलनिवासी अपनी अस्मिता के संदर्भ में समझ लें कि इस देश के मूलनिवासी
अनार्य, अंत्यज, असुर, अस्पृश्ष्य, राक्षस, चांडाल
आदि नहीं हैं क्योंकि ये अपमानजनक नाम समय-समय पर आर्यों द्वारा घृणा/ अपमान
स्वरूप इनके साथ चस्पा किए गए हैं।
‘दलित’ मूलनिवासियों की परिस्थितिजन्य स्थिति का
द्योतक है अस्मिता का नहीं, और जहां तक बौद्ध अस्मिता का
सवाल है, उसका भी मूलनिवासी अस्मिता से सीधा-सीधा कोई लेना-देना
नहीं है। क्योंकि बौद्ध धम्म और दर्शन का अस्तित्व हड़प्पाकालीन सभ्यता से बहुत बाद
की स्थिति है, आर्यों की भारत में घुसपैठ के वक्त की नहीं
है। इस हकीकत से रूबरू होकर ही वे अपनी ऐतिहासिक परिस्थितियों का मूल्यांकन कर
सकेंगे और आर्यों के भ्रष्ट आचरण की संस्कृति को समझ सकेंगे। वे यह भी समझ सकेंगे
कि वे ‘आजीवक’ हैं अर्थात लोकायत/
चार्वाक सिद्धांतों को मानने वाले। आनंद झा के माध्यम से लोकायत के आजीवक को इस
प्रकार समझा जा सकता है। लोकायत-सिद्धान्त अनुगामी जन ही ‘आजीवक’
नाम से इसलिए अभिहित होते थे कि शरीरात्मवादी होने के कारण शरीर के
सदुपयोगार्थ, उसकी रक्षा के लिए आजीवक को, अर्थात श्रमात्मक आजीविका को, वे मुख्य कत्र्तव्य के
रूप में अपनाते थे। एतदतिरिक्त यह भी कारण था आजीवक नाम से उनके पुकारे जाने का कि
श्रमोपयोगी स्वास्थ्य के लिए सदा सचेष्ट रहते थे। क्योंकि आजीवक का दूसरा अर्थ,
पूर्ण रूप से जीवन का, अर्थात स्वस्थ्य जीवन
का संपादन भी होता है। शरीर को आत्मा मानने वाले अपने स्वस्थ्य-स्वरूप जीवन के
संपादन में सर्वथा सचेष्ट हों, यह सर्वथा युक्तिसंगत ही है।
इन सारी बातों का ध्यान देने पर यह स्पष्ट हो जाता है कि यह दर्शन जन-जीवन से
घनिष्ठता रखने वाले कृषि, पशुपालन, वाणिज्य आदि,
राजनीति-स्वरूप दण्डनीति और
स्वास्थ्यप्रद आयुर्वेद इन तीनों से पूर्ण रूप से सम्बद्ध था।9
इस आजीवक
सभ्यता व संस्कृति को इस लिए समझना जरूरी
है कि यह व्यक्ति के ऐसे चरित्र का निर्माण करती है जिसमें भ्रष्टाचार व संकीर्णता
के लिए कोई स्थान नहीं है। यह पूर्णतः नैतिकता व लौकिकता के साथ-साथ वैज्ञानिकता
पर आधारित है। गौरतलब है कि लोकायत/ चार्वाक दर्शन या सिद्धांत एक ही हैं और उनका
अनुगमन करने वाला यानी पालन करने वाला व्यक्ति ही ‘आजीवक’
कहलाता है। ‘आजीवक’ शरीर
को ही सर्वोच्च प्राथमिकता प्रदान करते हैं, क्योंकि शरीर के
माध्यम से ही स्वास्थ्य जीवन का संपादन व संचालन होता है। ‘आजीवक’
शरीर और आत्मा को अलग नहीं मानते। वैसे भी इनके अनुसार आत्मा जैसी
कोई चीज है ही नहीं, और जो कुछ है, वह
शरीर ही है। शरीर को प्राथमिकता प्रदान करते हुए ही ये मानवीय जीवन से घनिष्ठता से
जुडे़ कृषि, पशुपालन, वाणिज्य आदि की
प्राथमिकता प्रदान करते थे। इसके साथ-साथ ये राजनीति अर्थात शासन को सुचारू रूप से
संचालित करने, समाज को अनुशासित रखने और कानून व न्याय
व्यवस्था को बनाए रखने के लिए दण्डनीति को मानव जीवन के अनिवार्य हिस्से के रूप
में अंगीकार करते थे।
कहने की
आवश्यकता नहीं कि इन सभी कार्यों के संपादन के लिए स्वस्थ्य शरीर की आवश्यकता होती
है,
जिसके लिए इन्होंने आयुर्वेद को प्राथमिकता प्रदान कर उन्नत बनाया।
यही वे सब अस्मितापरक विशेषताएं हैं जिनके बल का आजीवक संस्कृति को ‘लोकयत’ यानी ‘संसार में
सर्वत्र फैला हुआ’ की संज्ञा से ही नहीं नवाजा जाता बल्कि
चार्वाक जैसे गरिमामय शब्द से अलंकारित किया जाता है। इस चिंतन प्रणाली को अपनाकर
आर्य-अनार्य, शक, हूण, मंगोल, यवन पठान, जाट आदि भारत
में समाहित किसी भी सभ्यता के अनुयायी भ्रष्टाचार से मुक्त होकर शांति व समृद्धि
का जीवनयापन कर सकते हैं। देश से बाहर भी यह चिंतन/दर्शन उतना ही महत्वपूर्ण हो
सकता है जितना भारत में हडप्पन सभ्यता में।
इस देश के मूलनिवासियों के संबंध में ‘आजीवक’
शब्द को लेकर दो दिक्कतें हैं। एक-कुछ पाठकों लिए यह शब्द अपरिचित
हैं। दो-जो जानकारी उपलब्ध है वह गैर-जिम्मेदाराना, भ्रामक व
समाज को तोड़ने जैसी है। वास्तविक तस्वीर आनी अभी बाकी है। विषयांतर से बचने के लिए
मौजूदा परिस्थिति में यह समझ लेना जरूरी है कि जिन चार्वाक व लोकायत सभ्यता और
संस्कृति की बात यहां हो रही है, ये दोनों चार्वाक और लोकायत
एक दूसरे के पर्याय हैं और इनका अनुसरण करने वाले व्यक्ति ही आजीवक कहलाते हैं।
यहां आजीवक कहा जाना इस बात का द्योतक है कि इस सभ्यता व संस्कृति के केन्द्र में
व्यक्ति है और उनके जीवन से जुड़ी प्रत्येक गतिविधि उसके निजी जीवन, समुदाय व समाज की बेहतरी के लिए जद्दोजहद करती है। यह अन्य धर्मों की तरह
नहीं है जहां व्यक्ति की अपेक्षा धर्म ही सब कुछ होता है और व्यक्ति धर्म के
कायदे-कानून मानने वाली एक कठपुतली। ये व्यक्ति और धर्म दोनों मिलकर लोक-परलोक,
भगवान का भय दिखाकर लूटतंत्र के निर्माण करते हैं। एक यह स्थिति है
जहां पुरोहितगिरी के हाथों मासूम इंसानों का जमकर दोहन होता है। यहां भ्रष्टाचार
नग्न रूप में अपने पैर पसारता चलता है और धर्म इसकी मजबूत बैसाखी का काम करता
दिखता है। लेकिन आजीवक इन सब विकारों यानी धार्मिक भ्रष्टाचार से मुक्त है,
यह हकीकत संदेह से परे हैं।
एक और हकीकत यह भी है कि लगभग सभी धर्म/ दर्शनों ने आजीवकों के चार्वाक/
लोकायत दर्शन के संबंध में किसी दुश्मन से कम भूमिका अदा नहीं की है। एक साजिश
चार्वाक/ लोकायत दर्शन के काल को लेकर भी हुई है। डॉ. राधाकृष्णन मानते हैं कि
चार्वाक सम्प्रदाय प्राचीनतम अति कठोर वैदिक शासन के प्रतिबंध से ऊबकर 300-200 ई. पू. श्रुतिशासन के विरुद्ध चिंता एवं आचरणगत स्वाधीनता की घोषणा करने
वाला एक भारतीय मानव समाज के रूप में गठित हुआ, किंतु मयूर साहब तार्किक आधार पर
डा. राधाकृष्णन के मत को खारिज करते हुए बताते हैं कि चार्वाकीय
स्वतंत्र-विचारधारा एवं तदनुरूप आचरणगत स्वतंत्रय ही पूर्ववर्ती थे, जिनके विरुद्ध कठोर वैदिक शासन की स्थापना हुई।’..इस
संदर्भ में आनंद झा यह तो स्वीकार करते हैं कि यह चार्वाकीय विचारधारा ही
पूर्व-प्रस्तुत थी जिससे प्राप्त मानव-उच्छृंखलता को रोकने के लिए वैदिक विचारधारा
व्यवस्थिापित हुई।’10 यहां काल का निर्धारण
अन्यंत महत्वपूर्ण है। चार्वाक/लोकायत का पहले होना हमे स्पष्ट संकेत देता है कि
आर्यों ने देश के मूलनिवासियों को दलित-शोषित-आदिवासी स्थिति में ही नहीं पहुंचाया
बल्कि घृणित जातियों के समुच्चय व अस्पृश्यता के नरक में धकेला और अपनी चारित्रिक
विकृति की भेंट चढ़ाया। ऐसा लगता है कि यहां चरित्र व नैतिकता जैसी कोई चीज बची ही
न हो।
इसे अच्छी
तरह समझने के लिए आनंद झा व एस. के. बिस्वास की मदद ली जा सकती है। ‘‘समझ नहीं आता कि जिस सभ्यता के साधारण नागरिक के बारे में सुख-सुविधा और
विलासिता को देखा जाए तो सारा का सारा वैदिक-कर्मकांड-भाग चार्वाकीय भूत
चैतन्य-सिद्धांत से भरा पाया जाता है। कही पृथ्वी की स्तुति की जाती है तो कहीं जल
की। कहीं अग्निस्वरूप भौम-तेज का विस्तृत स्तवन चल रहा है तो कहीं विद्युत-स्वरूप
दिव्य-तेज का। कहीं, सूर्य, चन्द्र आदि
भौतिक ग्रह एवं उपग्रह की स्तुति तो कहीं पर्वत, मेघ आदि भूत
भौतिकों की। सारी वैदिक कार्मिक-विचारधारा चार्वाकीय भूत-चैतस्य सिद्धांत से
ओतप्रोत है। यदि चार्वाक-सम्मत भूत-चैतन्य को प्राणी की तरह संबोधित करें और उससे
यह प्रार्थना करें कि तुम मेरा साहाय्य करो। तुम मेरे लिए हिंसक मत बनो इत्यादि।’11
एस. के. बिस्वास इस हकीकत को थोड़ा और स्पष्ट करते हुए कहते हैं, जिस तरह आर्य आक्रमण से मध्य और पूर्वी भारत के मूलभारतीयों द्वारा रचित
लिपि-मालाएं, भाषा, साहित्य इत्यादि
नष्ट हुए थे, एवं उसी लिपि, भाषा,
साहित्यरस को घुमक्कड़ आर्यों ने सिन्धु हड़प्पाकालीन मूल भारतीय
श्रमण साहित्यधारा को उसकी लिपि और भाषा सहित पूर्णतया नष्ट कर दिया था। उसी लिपि
माला, उसी शब्दकोष, उसी साहित्यधारा को
आत्मसात कर प्रयोजनानुसार कुछ परिवर्तन किया था। आर्य तो प्राक्-सभ्य लिपिहीन
दुर्घर्ष योद्धा मात्र थे। वे बर्बर व ध्वंस उत्पीड़न-प्रेमी थे।’12
स्पष्ट है कि चार्वाक/ लोकायत सभ्यता वैदिक सभ्यता से प्राचीन न रही होती
तो यह चार्वाक/ लोकायत सभ्यता के तत्वों को तोड़-मरोड़कर अपनी सभ्यता का हिस्सा कैसे
बनाती। यहां एक दूसरी साजिश जो नजर आती है, वह है अपनी वैदिक
सभ्यता को लोकायत/ चार्वाक से प्राचीन सिद्ध करके अपने को देश का मूलनिवासी सिद्ध
करना और हड़प्पाकालीन सभ्यता की प्रगति का सारा श्रेय स्वयं लेना। इस मूलनिवासी
विरासत की हकीकत से पर्दा उठाने के लिए निस्संदेह पुरातत्व विभाग की 1922 में की गई खुदाई व इससे निकाले गए ईमानदार निष्कर्षों को दिया जाना चाहिए
और इस देश के मूलनिवासी आजीवकों को इसके लिए पुरात्व विभाग और इससे संबंधित टीम का
शुक्रगुजार होना चाहिए। इसे आर्यों के चारित्रिक भ्रश्टाचार की संज्ञा न दें तो
क्या संज्ञा दें? इसे समझना जरूरी है क्योंकि इसकी जड़ें
हजारों वर्षों पुराने अतीत से वर्तमान तक आती हैं।
आजीवक को समझने के लिए लोकायत को पुनः समझना पड़ेगा। लोकायत को समझने के
लिए चार्वाक को समझना पड़ेगा क्योंकि ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जो
लोकायत/ चार्वाक दर्शन आर्यों की चोरी और सीनाजोरी का शिकार हुआ पाठकों को उसके
दार्शनिक पहलू की एक संक्षिप्त-सी झलक से महरूम रखना तर्कसंगत नहीं लगता। दूसरे,
मौजूदा भ्रष्टाचार करने वालों के व्यक्तित्व की विकृति की तस्वीर
प्रस्तुत करने के लिए भी यह जरूरी है। लोकायत की दुनिया का प्रयोग उन व्यक्तियों
के लिए किया जाता था, जो दुनिया के यथार्थ में विश्वास करते
थे और व्यक्ति के शारीरिक अस्तित्व व दूसरे जीवों के अस्तिव को कुछ और नहीं,
इस पृथ्वी से संबंधित मानते थे। यहां ‘लोक’
का अर्थ है दुनिया, संसार और लोकायत का अर्थ
है-वह जो दुनिया के केन्द्र में था, ये सिर्फ उसी में
विश्वास करते थे। लोकायत सिर्फ संसार में विश्वास करते थे, न
किसी स्वर्ग-नरक में और न किसी अच्छे या बुरे में। वे सिर्फ वास्तविकता को स्वीकार
करते थे, वे इसी को देखते यानी परसीव करते थे और इसी से एक
दूसरे को प्रभावित (इन्टरएक्ट) करते थे, न कि काल्पनिक
दुनिया में और न ही किसी प्रकार की आदर्श दुनिया में। व्यवहारिक व डाउन टू अर्थ, ये पांच की अपेक्षा
चार तत्वों के अस्तित्व में विश्वास करते हैं-पृथ्वी, वायु,
आग और पानी। ये वैदिक के पांचवें तत्व स्पेस में विश्वास नहीं करते
थे।13
लोकायत के सिक्के के दूसरे पहलू यानी चार्वाक दर्शन के रूप में इस प्रकार
देखा जा सकता है। चार्वाक के अनुसार कोई आत्मा नहीं होती, मृत्यु
ही उसके अस्तित्व का अन्त होता है। शरीर ही आत्मा है और यही इस शरीर के आनंद का
भोग करता है और यही जीवन के अस्तित्व का उद्देश्य है। जो कुछ भी अनुभूति के
क्षेत्र में आता है, वही सत्य था और यही एक मात्र अस्तित्व
में रहता था। ज्ञानेंद्रियों से परे कोई भी वस्तु झूठी, सिर्फ
भ्रामक या स्वयं पैदा किया गया भ्रम है। अनुमान व तर्क अपने आप में सत्य के आधार
नहीं हो सकते और इसलिए ये अस्वीकार्य व खण्डनीय हैं। हमें सच्चाई या तथ्यों को
जानना चाहिए, जब तक कि वे हमारे अपने व्यक्तिगत अनुभवों के
आधार पर सत्य प्रमाणित न हो जाएं। इसीलिए आत्मनिष्ठ अनुभव ही सच्चाई और संसार में
अपने व्यवहार का आधार था।’14 इस दर्शन की
वैज्ञानिकता व तथ्यपरकता हमें पुरुषार्थ करने को पे्ररित करती है। दूसरे लोक,
आत्मा-परमात्मा, पुनर्जन्म, मोक्ष व स्वर्ग-नरक के चक्रव्यूह से मुक्त रख व्यक्ति की ऊर्जा वर्तमान के
भोग व सदुपयोग को प्रेरित करती है। यह हमें पारलौकिक टंटघंट जो हमें लोभी, स्वार्थी, अंधविश्वासी व विवेकहीन बनाते हैं,
से बचाती है। परिणामस्वरूप, व्यक्ति चारित्रिक
रूप से भ्रष्ट होने व दुष्कर्मों के चक्रव्यूह से बचा रह सकता है।
अभी तक हम देख चुके हैं कि आर्यों ने हड़प्पा कालीन सभ्यता व संस्कृति में
घुसपैठ की, इसे जलाया, आक्रमण किया,
भयंकर नरसंहार किया और संभवतः बर्बरता का ऐसा कोई हथकंडा नहीं था जो
इन्होंने नहीं अपनाया। लेकिन इतने भर से इनकी मानसिक व चारित्रिक विकृति की तस्वीर
मुकम्मल नहीं होती। इसके लिए विभिन्न कालों में अपनाए गए कुछ अन्य पहलुओं पर भी
विचार करना जरूरी महसूस हो रहा है। पहले इसे प्रो. सेवासिंह के माध्यम से समझा जा
सकता है। लोकायत विरोधी दार्शनिकों द्वारा भौतिकवादी गतिविधियों को भ्रमजन्य सिद्ध
करते हुए इसमें सलंग्न श्रमिकों (शुद्रों) को ही जागतिक परिदृश्य से नीचे धकेलकर,
उनके वास्तविक बंधन से मुक्त होने के सभी रास्ते बंद कर दिए गये थे।
इसके तहत एक ओर दृढ़-प्रतिज्ञ लोकायतों के सहज, सरल, आदिम प्रकार के प्रयोगवादी भौतिकवादी दृष्टिकोण को झुका सकने में असमर्थ
होने पर, उनके भौतिक अस्तित्व को मिटा देने का प्रयास किया
जाने लगा। उन्हें जीवित जलाए जाने तक की यातनाएं दी गई, ग्रंथों
को नष्ट कर दिया गया। उन्हें महापातकी, पाखण्डी, वेदनिंदक, और अन्य घृणित प्रकार के संबोधनों से
प्रताड़ित किया जाने लगा। उनके विचारों को कूट अर्थों के रूप में हास्यप्रद बना
दिया गया और उनकी स्थिति एक विद्वेषक की सी बना दी गई। दूसरी ओर इस विद्वेषपूर्ण
स्थिति से निजाद पाने के लिए ही शायद,
भारतीय परंपरा के अन्य सुनियोजित, परिनिष्ठ
भौतिकवादियों को मध्यकालीन सामंतीय गतिरोध के पिष्टपोषक नकारात्मक मोक्षादर्श से
सामंजस्य स्थापित करना पड़ा। यह सामंजस्य विचित्र और बेढबपूर्ण बन पड़ा, यह दूसरी बात है पर इसने उनके अपने भौतिक अस्तित्व को लोकायतों की तुलना
में अवश्य सुरक्षित किया होगा, पर भौतिकवादियों का यह
रूपांतरण अपने अंतिम परिणामों में भारतीय विज्ञान और तर्कसम्मत भौतिक चिंतन के लिए
बहुत घातक सिद्ध हुआ। भौतिकवादी चिंतनधारा के इस विलीनीकरण ने भारतीय दर्शन की
प्रत्यवादी-अनात्मवादी- शंकर-वेदांतिक धारा का एकछत्र प्रभुत्व स्थापित करते हुए
वर्ग-विभाजित समाज की यथास्थिति को भरपूर बल प्रदान किया।’15
उपरोक्त स्थिति मानवीय मूल्यों व चारित्रिक विकृति की कौन-सी तस्वीर
प्रस्तुत नहीं करती जो आज के भ्रष्टाचार की जननी न नजर आती हो। इस पतनशीलता को
समझने के लिए बुद्धकालीन परिस्थितियों पर दृष्टिपात किया जा सकता है। बुद्धकाल
अर्थात लगभग 600 ई. पू. के आसपास षडयंत्रों का बाजार किस
प्रकार गर्म था, इसकी तस्वीर भी बानगी के रूप में देखी जा
सकती है।
·
बुद्ध द्वारा अपने
जीवन का मिशन शुरू करते समय आर्यों की सभ्यता की विकृत स्थिति पर विचार किया गया।
उनके अनुसार आर्य समुदाय सामाजिक, धार्मिक और
आध्यात्मिक रूप से सबसे निकृष्ट विलासता में डूबा हुआ था।...आर्यों में सुरा पान
के अलावा जुआ भी व्यापक रूप से खेला जाता था। साम्राट विराट की सेवा में कंक जैसा
जुआ विशेषज्ञ नौकरी करता था। जुआ राजाओं के केवल मनोरंजन का ही साधन नहीं था। वे
राज्यों, आश्रितों, रिश्तेदारों,
गुलामों आदि को दांव पर लगा देते थे।16
·
आर्यों के समाज की
यौन अनैतिकता जानकर उनके वर्तमान वंशजों को सदमा पहुंचेगा।..आर्य धर्मग्रन्थों के
अनुसार, बह्मा सृष्टि का रचयिता है। ब्रह्मा के तीन पुत्र
और एक पुत्री थी। उसके एक पुत्र दक्ष ने अपनी बहन से विवाह किया। इस बहन-भाई के
विवाह से जो पुत्रियां पैदा हुई, उनमें से कुछ ने बह्मा के पुत्र
मरीचि के पुत्र कश्यप से विवाह कर लिया और कुछ ने ब्रह्मा के तीसरे पुत्र धर्म से
विवाह कर लिया।’17
·
पिता अपनी पुत्री से
विवाह कर सकता था। वशिष्ठ ने अपनी पुत्री शतरूपा के वयस्क हो जाने पर उससे विवाह
किया था।18
·
मनु से अपनी पुत्री
इला से विवाह किया था।19
·
आर्यों में
बहुपति-प्रथा पाई जाती थी, उसमें एक ही परिवार के कई लोग एक ही औरत से सहवास
करते थे। धहाप्रेचतनी और उसके पुत्र सोम ने मरीशा (सोम की पुत्री) से सहवास किया
था।20
·
दादा द्वारा अपनी
पौत्री से विवाह रचाने के उदाहरण कम नहीं हैं। दक्ष ने अपनी पुत्री पिता बह्मा के
साथ ब्याह रचाने के लिए दे दी थी और इस ब्याह से प्रसिद्ध नारद का जन्म हुआ।
दौहित्र ने अपनी 27 पुत्रियों को अपने पिता सोम को सहवास और प्रजनन
के लिए दे दिया था।21
·
आर्यों में औरत के
साथ खुलेआम लोगों की आंखों के सामने सहवास करने में कोई आपत्ति नहीं थी। ऋशि पराशर
ने सत्यवती के साथ इसी प्रकार सहवास किया था। ऋषि दीर्घतप ने भी ऐसा किया था।
अयोनि शब्द के अस्तित्व से पता चलता है कि यह रिवाज एक सामान्य बात थी।...इसका
अर्थ खुले स्थान पर गर्भ धारण करना होता है। सीता और द्रोपदी,
दोनों अनियोजिता थी।22
·
आर्यों में अपनी
औरतों को कुछ अवधि के लिए भाड़े पर देने की प्रथा भी थी।...राजा ययाति ने अपने गुरु
गालव को अपनी पुत्री माधवी भेंट में दे दी थी। गालव ने माधवी को तीन राजाओं को
अलग-अलग अवधि के लिए भाड़े पर दे दिया। उसके बाद उसने उसे विवाह रचाने के लिए
विश्वामित्र को दे दिया। वह पुत्र उत्पन्न हो जाने तक उनके साथ रही। उसके बाद गालव
ने लड़की को वापस लेकर पुनः उसके पिता ययाति को लौटा दिया।23
·
कुमारी के लिए
कौमार्य का कोई नियम नहीं था। कोई लड़की बिना विवाह किए किसी पुरुष के साथ संभोग कर
सकती थी, और सन्तान भी उत्पन्न कर सकती थी। कुंती और
मत्सयगंधा के उदाहरण हैं कि विधिवत विवाह किए बिना उन्होंने अपने आपको किसी अन्य
पुरुष को अर्पित किया और बच्चे भी पैदा किए। कुंती ने पांडु से विवाह रचाने से
पहले अलग-अलग कई आदमियों के साथ संभोग किया और बच्चे भी पैदा किए। मत्स्यगंधा ने
भीष्म के पिता शान्तनु से विवाह रचाने से पहले ऋषि पाराशर से साथ संभोग किया।24
·
पशुओं के साथ यौनाचार
करना भी आर्यों में प्रचलित था। ऋषि किंदम द्वारा हिरणी के साथ मैथुन किए जाने की
कहानी सर्वविदित है। एक दूसरा उदाहरण सूर्य द्वारा घोड़ी के साथ मैथुन किए जाने का
है। लेकिन सबसे वीभत्स उदाहरण अश्वमेघ यज्ञ में स्त्री द्वारा घोड़े के साथ मैथुन
किए जाने का है।25
उपरोक्त जो उदाहरण दिए गए हैं वे उन देवी-देवताओं के हैं जिन्हें आदर्श
माना जाता है और अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए उनकी पूजा, आराधना,
वृत, स्नान आदि किए जाते हैं और उनके द्वारा
किए गए कार्यों को ईश्वरीय सिद्ध करने की कौशिश की जाती है। इसे अनैतिकता व
भ्रष्टता का महिमामंडन न कहें तो क्या कहें? ऐसे कार्य ही व्यक्ति के भ्रष्टाचार व अनैतिकता
को वैधता प्रदान करते हैं जिसके कारण षडयंत्रों को हवा मिलती है। मौजूदा
भ्रष्टाचार के लिए ऐसे ही कारनामे काफी हद तक जिम्मेदार हैं।
यही नहीं यह भारतीय इतिहास की ऐसी अंधेरी कोठरी है यहां चोरी और सीना जोरी
की प्रवृत्ति की शुरुआत होती है। इतिहास की इसी अंधेरी कोठरी से दोस्त और दुश्मन
के खेमेबंदी शुरु होती है। आपसी भेदभाव व अपने-पराए की मानसिकता के चलते समाज में
खेमेबंदी का बाजार गर्म होता है और इंसानियत को कलंकित करता है। भारत के
मूलनिवासियों को दास और स्वयं को स्वामी के रूप में स्थापित करने के साथ-साथ शोषण-उत्पीड़न
को पुख्ता आधार भी यहीं से मिला। एक तरफ युद्ध और दूसरी तरफ छल कपट यही चरित्र
आर्यों का रहा है। इस छलकपट को कोटिल्य के अर्थशास्त्र में वर्णित सामग्री के
आधार पर अच्छी तरह समझा जा सकता है। कौटिल्य नीति इस देश के मूलनिवासियों जो संघ
के रूप में एक निश्चित अनुशासन और नैतिकता के साथ जीवनयापन करते थे, संगठित और शक्तिशाली थे, को कमजोर करने का षडयंत्र था
और इसे कौटिल्य की नीति के रूप में भी जाना जाता है। अर्थशास्त्र अधिकरण भावानुवाद
पर आधारित इन गुप्तचरों का सार रूप में इस प्रकार के काम थे।26
·
जहां ईष्या, घृणा और आंतरिक संघर्ष तथा मतभेद हो उन्हें और बढ़ाया जाए। आचार्य के वेश
में जन नायकों के बीच में छोटी-छोटी बातों पर झगड़े पैदा कराए जाएं।
·
ज्योतिषि बनकर संघ के अंदर ही
राजकुमार के राजयोग को प्रचारित करो और संघ नायकों को राजकुमार अधीनता स्वीकार
करने के लिए प्रेरित करो और पशुधन, अनुचर व अन्य
वस्तुएं भेंट करने के लिए प्रेरित करो।
·
संघ नायकों की काम वासना को
उत्तेजित करने के लिए वैश्याओं, अभिनेत्रियों और नर्तकियों का प्रयोग करें। संघ
नायकों के बीच में झगड़ा कराएं, एक-दूसरे को हत्या के लिए
प्रेरित करें तथा एक नायक को धोखा देकर दूसरे नायक के पास जाएं।
·
गुप्तचर रात में किसी सन्यासी के वेश
में ऐसे व्यक्तियों के पास पहुंचे जो कामोत्तेजित हो रहा हो। स्त्री को वश में
करने के लिए कामोत्तेजित करने वाली मरहम के लिए प्रेरित करें और बदले में विष घुला
मरहम दें और चलता बनें।
·
विधवाएं और संन्यासिनियों का रूप
धारण कर आपस में झगड़ा करें और संघ नायकों को उत्तेजित करें। वेश्याएं या
नर्तकियां या गणिकाएं प्रेमी को किसी स्थान पर मिलने बुलाएं और उसकी हत्या कर दें
या बेड़ियां डालकर उसे उठा ले जाएं।
·
संघ नायक को किसी गरीब किसान की
पत्नी की सुंदरता का बखान कर उसे रानी बनाने के लिए उकसाएं। जब वह उसे रानी बनाने
के लिए उठा ले जाए तो संन्यासी के रूप में संघसभा में उसे अपमानित ही नहीं कराए
बल्कि दण्ड,
यातनाएं दिलाकर व कारावास तक पहुंचाए।
·
वेश बदलकर नायकों पर आरोप लगाए कि
इस व्यक्ति ने ब्राह्मण की हत्या की है और एक ब्राह्मण स्त्री के साथ बलात्कार
किया है।
·
वे ज्योतिषी के वेश धारण कर किसी विवाहित
युवति के संबंध में भविष्यवाणी करें इस व्यक्ति की पुत्री रानी बनेगी और इसका
पुत्र राजा बनेगा इसलिए इसे किसी भी प्रकार हासिल कर लो। यह संघ नायक सफल होता है
तो विरोधी नायक को भड़काएं।
उपरोक्त कारनामें ऐसे हैं जिसमें व्यक्ति में न चरित्र जैसी कोई चीज ही शेष
रह जाती है और न ही नैतिकता जैसी। शेष रह जाता है तो अपना हित साधना, चाहे किसी भी कीमत पर क्यूं न हो। यहां किसी भी कीमत पर लोग कुछ भी करने
से गुरेज नही करते क्योंकि यह सब व्यक्ति के चरित्र व रोजमर्रा के जीवन में इस तरह
रच-बस गया है कि उसे यह सब आम बात लगती है और उन्हें इसमें कुछ भी बुरा, अनैतिक व अस्वाभाविक नहीं लगाता। यह स्थित बड़ी खतरनाक स्थिति है और मौजूदा
परिस्थितियों के लिए जिम्मेदार भी ऐसी ही प्रवृत्तियां हैं।
भ्रष्टाचार की इस कड़ी में हिन्दूवाद की रीड़ एक स्मृति, जिसे मनुस्मृति के नाम से जाना जाता है, का जिक्र
किया जाना जरूरी है ताकि भ्रष्टाचार और उसको पोषित करने वाली प्रवृत्तियों को
बेहतर समझा जा सके। मनुस्मृति इस देश के मूलनिवासियों के लिए भी कायदे कानून तय
करती है और इन्हें लगभग सभी अधिकारों से वंचित कर अनेक निर्योंग्यताओं में लादती
है। इस विकृत मासिकता की प्रतीक स्मृति को बाबा साहब डा. अम्बेडकर ने सार्वजनिक
रूप से जलाकर अपना विरोध प्रकट किया था। लेकिन बड़ी हैरत/गैरत की बात है कि आज भी
राजस्थान के एक न्यायलय तक में यह शोभायमान है। मनुस्मृति की एक बानगी मात्र यहां प्रस्तुत
की जा रही है।
मनुस्मृति-
·
‘इस समुदाय में जो भी जातियां उस समुदाय से अलग गई हैं जो मुख, बाहु, जंघा और (ब्राह्मण के) पैरों से जन्मी हैं,
वे दस्यु कहलाती हैं, जो चाहे म्लेच्छों
(बर्बर जातियों) की भाषा बोलती हों या आर्यों की।’27
·
‘ये जातियां प्रसिद्ध वृक्षों और श्मशान भूमि के निकट या पर्वतों पर और
झाड़ियों के पास निवास करें, (कुछ विद्वानों से) जानी जाएं और
अपने विशिष्ट व्यवसाय से जिविकोपार्जन करें।’28
·
‘लेकिन चांडालों और स्वपचों के घर गांव के बाहर होंगे और उन्हें अपात्र
बनाया जाना चाहिए और उनकी संपत्ति कुत्ते और गधे होंगे।’29
·
‘मृतक के वस्त्र इनके वस्त्र होंगे, वे टूटे फूटे
बतनों में भोजन करेंगे, उनके गहने लोहे के होंगे और वे एक
स्थान से दूसरे स्थान से दूसरे स्थान आते-जाते रहेंगे।’30
यही नही तुलसीदास ढोल, गवांर, शुद्र,
पशु, नारी, ये सब ताड़न
के अधिकारी जैसे फतवों के साथ इस देश के मूलनिवासियों को शिक्षा के अधिकार से
वंचित करने का भी फरमान जारी करती है। ऐसे कारनामों को अन्ना व टीम अन्ना किस
श्रेणी में रखना चाहेगी, यह प्रश्न भी गौर करने लायक है।
क्या भ्रष्टाचार से ऊपर की पशुता की इस श्रेणी के लिए कोई विकल्प है? इन सब असंख्य षडयंत्रों के
बावजूद आजीवक चैदहवीं शताब्दि तक मौजूद रहे। भ्रष्टाचार व अनैतिकता की कड़ी में एक
चैंका देनी वाली हकीकत यह भी है कि आजीवकों को अपने आजीवक होने के कारण अनेक
प्रकार का टैक्स तक देना पड़ता था। चक्रवर्ती के अनुसार अन्य करों जैसे व्यापार कर
जिसमें निम्न जाति चमड़ा कर्मी और आयल-प्रैमर्स शामिल हैं के साथ-साथ ‘आजीवक-कर’ का भी वर्णन होता था।’31 हल्ट्ज्क के अनुसार दूसरे अभिलेखों में चमड़ा-कर्मी, ऑयल-प्रैसर और बुनकर को आजीवक के समानांतर रखना बड़ा महत्वपूर्ण है और यह
संकेत देता है कि आजीवकों को एक व्यवसाय धारण करने एक जाति की तरह व्यवहार किया
जाता था।’32 यह अनुमान लगाया जा सकता है कि
हिन्दू, जैन और बौद्ध धर्म-प्रचारकों के बढ़ते प्रभाव के कारण
उत्तरी भारत में आजीवकों को स्थिति में गिरावट आई। ग्राम सभाओं ने आजीवकों से
विशेष कर वसूल किए। ये कर रूढ़िवादी/ परंपरावादी पल्लवों, कोलों
और हाय्सालों द्वारा वसूले जाते थे।...आजीवकों को परंपरावादी सम्प्रदायों की
अपेक्षा 20 से 30 गुणा अधिक टैक्स देना
पड़ता था। यदि कर बकाया रहा जाता तो बाद में उसका दोगुणा कर वसूला जाता था।’33
अपने समकालीन अन्य सभी मतावलंबियों के विरोध व उन्मूलन की मुहिम के बावजूद
आजीवक अशोक व मौर्य काल तक काफी अच्छी हालत में रहा। इसे बदनाम करने व इसके ऊपर
आरोप-प्रत्यारोप और इसके खंडन का सिलसिला चैदहवीं ई. तक चलता रहा जब तक कि आजीवक
के अनुयायियों का नामोनिशान तक न मिट गया। इसके इतने लम्बे समय तक मौजूद रहने
की खूबियों को ए. एल. बाशम के माध्यम से इस प्रकार समझा जा सकता है। जैन मत द्वारा
अजीवकों पर भ्रष्टाचार व दुराचार के आरोपों को खारिज करते हुए वो कहते हैं कि
आजीवक सिद्धांत मत 2000 वर्षों तक मौजूद रहने में सफल रहा
क्योंकि इसने अपनी वस्तुकला, दर्शन और तर्क की स्थापना की
जिससे प्रमाणित होता है कि आजीवक मतावलम्बी शिक्षित, विचारशील
व जागरूक किस्म के व्यक्ति थे। आजीवकों की कठोर संयम/ साधना और अहिंसा का पालन
प्रमाणित करता है कि चाहे वे अनुशासन में कितना ही ढिलाई क्यू न बरतते हों,
आजीवकों ने अपनी भारतीय परंपरागत मार्ग, साधना,
उपवास और सभ्यता से धार्मिक प्रतिष्ठा को आगे ही बढ़ाया है।34
आखिर कोई भी सभ्यता व संस्कृति सामाजिक, आर्थिक,
राजनीतिक और चोतरफा बर्बर प्रहार कब तक झेलती, आखिर अपने मूल रूप से विलुप्त हो गई। लेकिन इसके वारिस आज भी मौजूद हैं।
डा. बी एम. बरुआ को लगता है कि आजीवकों के विलुप्तिकरण के लिए समकालीन समावेशीकरण
व समाहितीकरण की निरंतर चलने वाली प्रक्रिया वृहत रूप में जिम्मेदार है। उषा चैपड़ा
इस विलुप्तिकरण और समावेशीकरण की प्रक्रिया पर दो कदम आगे बढ़कर प्रकाश डालती है कि
अस्मिताओं के प्रतिष्ठिकरण के अन्य उपाय भी हो सकते हैं। तीसरी शताब्दी ई. पू. से
सातवीं शताब्दी तक हजार वर्षों में अनेक मूल के लोगों का आगमन उत्तर पश्चिम से हुआ
था। इनमें शक, हूण,
मंगोल, यवन, पठान, जाट आदि अनेक समूहों के लोग थे। इन लोगों
ने यहां के स्थानीय राजाओं को पराजित करते हुए राज्य कायम किए और यहां के राजवंशों
से विवाह रचा कर उन्हें अपने में समाहित कर लिया या स्वयं उनमें समाहित हो गए।
इसके अतिरिक्त यहां वर्ण व्यवस्था के सबसे निचले पायदान की कबीलाई जातियों ने अपने
राज्य कायम किए जिन्हें राजपूत के नाम से क्षत्रिय वर्ग का मान लिया गया।...ऐसे
क्षत्रिय बनने वाले बहुत सारे लोग हो सकते हैं। एक दूसरी स्थिति भी थी जिसके आधार
पर ऊंच-नीच व समावेशीकरण की प्रक्रिया को बल मिला, वह है-लूट
का माल। युद्धों व लूट के माल के विभाजन ने इसमें अहम भूमिका अदा की-‘समाज में ऊंच-नीच की भावना तो धीरे-धीरे युद्धों के लूट के माल के बंटवारे
की असमानता ने उत्पन्न की। पुरोहित और राजा जो लूट का माल अधिक लेते थे, ऊंचे उठते चले गए। समाज में असमानता का श्रीगणेश हुआ।35
इतिहास अवलोकन की इस पूरी प्रक्रिया में भारत में घुसपैठ करने वाले
आक्रांता कैसी भी मानसिकता व चरित्र के चलते एक दूसरे में समाहित हुए लेकिन एक बात
तय है कि धर्म के आधारस्तंभ भक्ति, भाग्य, भगवान, भय और लोक-परलोक के तर्क/ कुतर्क शास्त्र ने
इनके भ्रष्टाचार, अशांति, अनैतिकता व
अमानवीयता को सदा ही संरक्षण व प्रोत्साहन दिया है। 3500
वर्ष बाद भी समाज के प्रति धर्म की भूमिका संदिग्ध नजर आती है। क्योंकि आज भी देश
में ही नहीं विदेश में भी बाबा रामदेव, आशा राम बापू, सत्य साई और
श्री श्री शिवशंकर जैसे धर्म के अनेक प्रतीक तथाकथित संत/स्वामी धर्म को एक उद्योग
की तरह चलाते हैं और करोड़ों, अरबों-खरबों की संपत्ति बनाते
हैं। इसके अतिरिक्त एक जमात धर्म के रक्षक (?) स्वामी
भीमानंद व स्वामी नित्यानंद की भी हैं जो सैक्स रैकेट चलाकर धर्म व समाज की
अजीबो-गरीब सेवा करते हैं। चंद्रास्वामी की चमत्कारी सेवा का अपना युग रहा है,
जिसका कोई जवाब ही नहीं है।
एक धर्म व समाज की सेवा (?) साधवी प्रज्ञा व निगमानंद कर रहे
हैं, भ्रष्टाचार की
लम्बी फैहरिस्त में इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता।
जिस समाज में सांसरिक मोह-माया से मुक्त साधु संतों की धन-दौलत व भोग
विलास के प्रति इतना समर्पण हो तो उस समाज के आम नागरिक (जिन्होंने संतों की तरह
मोह-माया से मुक्ति का बिल्ला नहीं लगाया है और घर-गृहस्थी चलाते हैं) अपनी
जरूरतों व सुख-सुविधा के जीवन के लिए रिश्वतखोरी/घूसखोरी करें, चोरी-डकैती कुछ भी करें, इसमें अस्वाभिक क्या है!
वैसे भी जनसाधारण अपनी इस कमाई में साधु-संतों का भी मोटा हिस्सा होता है। यदि
इसे साधु-संतों की कमीशन की संज्ञा जी जाती है तो अनुचित नहीं होना चाहिए। यदि ऐसा
नहीं होता तो सत्य साई ट्रस्ट व केरल के पद्मनाभन मन्दिर जैसे अनेक धार्मिक आस्था
के केन्द्रों के पास अकूत संपत्ति कैसे इकट्ठा हो सकती है। जिस समाज में धर्म की
स्थिति इतनी अ-धार्मिक हो उस समाज के अन्य साधारण लोगों की भ्रष्टाचार की सीमाएं
कौन निर्धारित कर सकता है? यह अपने आप में बड़ा सवाल है।
यही नहीं
करोड़ों देवी-देवताओं से जो कुछ भी तथाकथित भक्तों/उपासकों द्वारा मांगा जाता है, वह किसी कायदे-कानून, नैतिकता व मेहनत-मशक्कत के
आधार पर नहीं, धन-दौलत व मक्खनबाजी के आधार पर मांगा जाता
है। ऐसे धर्म व धार्मिक साहित्य के आधार पर निर्मित समाज भ्रष्टाचार जैसे अनैतिक
कार्यों से कैसे बच सकता है? वह धर्म जो कितने ही जघन्य
अपराधों को किसी विशेष स्नान, कोई विशेष उपवास, किसी विशेष जाप के द्वारा व्यक्ति को अपराध मुक्त कर देता हो, उस समाज में
भ्रष्टाचार कैसे रुक सकता है? ऐसी परिस्थिति में राजनीति,
अदालतें, शासन-प्रशासन कैसे भ्रष्टाचार
मुक्त रह सकते हैं, जहां करोड़ों भगवान भ्रष्टाचारियों की मदद के लिए बड़े सस्ते में
उपलब्ध हों? क्या
धर्म के आधार पर की गई लूट को भ्रष्टाचार की सीमा से परे रखना भ्रष्टाचार नहीं है।
अन्ना व टीम अन्ना द्वारा इस धार्मिक भ्रष्टाचार पर चुप्पी साधना अनैतिक नहीं है?
क्या यह भ्रष्टाचार का समर्थन नहीं है? क्या
उन्हें सिर्फ राजनीतिक भ्रष्टाचार ही दिखाई देता है, धार्मिक
(?) नहीं? यदि ऐसा है तो उन्हें
नैतिकता व आत्मा की आवाज जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना छोड़, सीधे-सीधे
राजनीति करनी चाहिए।
यही नहीं, गांधी
जी के कंधे पर बंदूक रखकर राजनीति करना ऐसा कार्य है जैसा दशरथ सुत ‘राम’ ने बाली का वध करने के लिए किया था। यह अन्ना
के आन्दोलन का नकारात्मक पक्ष है। इस आन्दोलन का एक दूसरा पक्ष भी है-‘भीड़’ जिसे अन्ना की ताकत के रूप में देखा जा रहा है।
अन्ना के आन्दोलन में रामलीला मैदान में जुटी भीड़ एक और बड़ा सवाल खड़ा करती है,
वह है-जब अन्ना अनशन पर बैठे हैं और रामलीला मैदान में जुटी भीड़ अनन्य
पकवानों सॉफ्ट व हार्ड डिंक्स (बीयर आदि) पर गिद्ध की तरह टूट पड़ रही हो, तो क्या ऐसी भीड़ ईमानदार व नैतिक
कही जा सकती है? क्या यह देश व समाज को भ्रष्टाचार मुक्त
बना सकती है? क्या ऐसी भीड़ का कोई चरित्र व ज़मीर हो सकता है?
क्या ऐसी भीड़ को सब कुछ व निर्णायक मानना उचित है? क्या यही लोकतंत्र का आधार स्तंभ है? संभवतः नहीं,
ऐसी भीड़ अवसरवाद की श्रेणी
में आती है देश व समाज के सच्चे नागरिक के रूप में कभी नहीं हो सकती। और न ही ऐसी
भीड़ के दम पर देश व समाज को भ्रष्टाचार मुक्त ही बनाया जा सकता है। कहने की जरूरत
नहीं कि यह राजनीतिक हथकंडों जैसा है और यह राजनीति में उथल-पुथल जरूर कर सकता है,
लेकिन यह समाज व देश में
नैतिक परिवर्तन नहीं कर सकता जिसकी इस देश व समाज को बेहद जरूरत है।
इतिहास अवलोकन की प्रक्रिया और मौजूदा भ्रष्टाचार का स्वरूप से यह साफ हो
जाता है कि इंसानियत को कलंकित करने वाला शायद ही ऐसा कोई कारनामा हो जिसे विभिन्न
कालों में घुसपैठ करने वाले आक्रांताओं ने न अपनाया हो। दूसरे, यह बात भी स्पष्ट हो जाती है कि ये आक्रांता लगभग एक जैसी मानसिकता व
चरित्र के चलते एक दूसरे में समाहित होते चले गए। परिणामस्वरूप, इन्होंने अपने षडयंत्र, बर्बरता, शोषण व दमनकारी प्रवत्ति को निरंतर बरकरार
रखा जो विभिन्न प्रकार के भ्रष्टाचार, अशांति, अनैतिकता व अमानवीयता के रूप में दिन-प्रतिदिन
अलग-अलग रूप में इस देश के मूलनिवासियों अर्थात आजीवकों (मेहनतकशों) को आज भी
चुनौती देते प्रतीत होते हैं। यह दूसरों के घर जलाने की प्रवृत्ति अपने घर नहीं
जलाएगी, यह सोचना भी नासमझी है। यही वजह है कि आजकल बाप-बेटे
और भाई-भाई के रिश्ते भी खून के नहीं रह गए हैं, अवसरवाद के हो गए हैं। ऐसे अनेक रिश्ते रोज अनेक
षडयंत्रों, बर्बरताओं व अनैतिकताओं की बलि चढ़ रहे हैं। इसी
कारण चारों ओर भ्रष्टाचार व पशुता का बाजार गर्म नजर आता है।
इस घटनाक्रम के मूल्यांकन से एक तस्वीर और उभरती है, वह है-यदि आर्यो द्वारा आजीवकों की भौतिकवादी व वैज्ञानिक पद्धति पर
आधारित हड़प्पा कालीन सभ्यता व संस्कृति का विनाश न किया गया होता तो भारत के विकास,
प्रगति और समृद्धि की तस्वीर कुछ अलग ही होती। उच्च नैतिक मूल्यों व
शांति पर आधारित इस सभ्यता के वारिस अपराध, भ्रष्टाचार व सभी प्रकार की संकीर्णताओं से
मुक्त होते जैसे इस देश के मूलनिवासी यानी आजीवक आज भी हैं। ये अनेक विषम
परिस्थितियों के चलते आर्यों के भ्रष्टाचार व षडयंत्रकारी संक्रमण का शिकार अपवाद
स्वरूप जरूर हुए हैं, लेकिन बहुलता में कतई नहीं। मौजूदा भ्रष्टाचार उन्मूलन के
लिए धार्मिक, बौद्धिक,
सामाजिक व राजनीतिक प्रवृत्तियों का पुनर्मूल्यांकन जरूरी है ताकि
वैज्ञानिक तौर-तरीकों के आधार पर एक नैतिक मूल्यों पर आधारित मानसिकता व स्वस्थ
समाज का निर्माण हो सके और हमारा देश भारत व समाज पुनः हडप्पा कालीन सभ्यता व
संस्कृति की समृद्धि, शांति और खुशहाली की ऊंचाइयों को छू सके।
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---000---
ईशकुमार गंगानिया
पिता का नाम: श्री नवीन चन्द्र
जन्म
: अक्तूबर 25, 1956
पैतृक
गांव : रठौरा (छपरौली) मेरठ, उत्तर प्रदेश
शिक्षा
: एम. ए.
( अग्रेजी व राजनीति शास्त्र) बी. एड.
संप्रति
: प्रवक्ता
(अग्रेजी) दिल्ली प्रशासन, दिल्ली
प्रकाशित
रचनाएं :
- हार नहीं मानूंगा (कविता संग्रह)
- अम्बेडकरवादी साहित्य विमर्श
- अम्बेडकरवादी साहित्य के प्रतिमान
- आजीवक : कल आज और कल
- अस्मिताओं के संघर्ष में दलित समाज (आजीवक इतिहास के झरोखे से)
- अम्बेडकरवादी साहित्य आन्दोलन और भारतीय समाज
- एक वक्त की रोटी (कविता संग्रह)
- अम्बेडकरवादी आईने में भ्रष्टाचार
- स्वाधीनता संग्राम में डा. अम्बेडकर
प्रक्रियाधीन
लेखन
- परंपरावादी चिंतन बनाम् अम्बेडकरवाद
- आजीवक : क्या क्यों और कैसे
- अश्वेत आन्दोलन और अम्बेडकरवादी समाज
- कहानी संग्रह
पूर्व उप-संपादक : अपेक्षा (अम्बेडकरवादी साहित्य का
त्रैमासिक मुखपत्र)
संपादक : आजीवक विजन (मासिक)
अंग्रेजी व हिन्दी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में कविता,
कहानी, पुस्तक समीक्षा व आलोचनात्मक लेखन
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