मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

समीक्षा

२ दिसम्बर २००९ के इंडिया टुडे में वरिष्ठ कथाकार सुभाष नीरव द्वारा की गई मेरे नवीनतम उपन्यास ’गुलाम बादशाह’ की समीक्षा प्रकाशित हुई थी. ’रचनासमय’ और ’वातायन’ के पाठकों के लिए उस समीक्षा को यहां अविकल प्रकाशित कर रहा हूं.
सरकारी विभागों का विद्रूप सच- 'गुलाम-बादशाह'
सुभाष नीरव
'गुलाम बादशाह' सुपरिचित लेखक रूपसिंह चन्देल की नई और सातवीं औपन्यासिक कृति है। पूरे उपन्यास का ताना बाना सरकार के एक विभाग को केन्द्र में रख कर बुना गया है। 'रासुल' नाम का यह विभाग केन्द्र सरकार अथवा राज्य सरकार का कोई भी विभाग हो सकता है जहाँ ब्यूरोक्रेट्स को बादशाह और उसके मातहत काम करने वाले लोगों को गुलाम के रूप के चित्रित किया गया है। उच्च पदों पर आसीन अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को अपनी बादशाहत के सम्मुख कुछ नहीं समझते और उनसे काम लेने का उनका तरीका ठीक वैसा ही होता है जैसा किसी गुलाम से लिए अपनाया जाता है। अनुभाग अधिकारी, पी.ए., बाबू (क्लर्क), चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी अर्थात चपरासी, दफ्तरी और कैजुअल लेबर वर्ग के लोगों को गुलाम के रूप में दर्शाया गया हैं जो अपने उच्च अधिकारी के हर गलत-सही हुक्म का पालन करने के लिए विवश होते हैं। कहने को आठ घंटे की डयूटी होती है लेकिन वे चौबीस घंटों की गुलामी करते हैं। कोई अवकाश उनका अपना नहीं होता, कभी भी किसी भी समय उन्हें आवश्यक कार्य बताकर डयूटी पर हाज़िर होने को आदेश दिया जा सकता है। आम जनता में सरकारी बाबुओं को लेकर जो धारणा व्याप्त है, यह उपन्यास एक मायने में उसे तोड़ता भी है। ये गुलाम कहे जाने वाले लोग जिस भय, आतंक, सन्देह और निराशा के साये में रह कर ऐसे दफ्तरों में काम करते हैं, उसका अन्दाजा बाहर बैठे लोगों को शायद कम ही हो।
उपन्यास में त्रेहन, राणावत, कुमार जैसे धूर्त, भ्रष्ट, अवसरवादी, यौन लालुप अधिकारियों तथा हांडा और नागपाल जैसे उनके चापलूसों के चरित्रों को उनकी कारगुजारियाँ दर्शाते हुए बेनकाब करने का ही प्रयास नहीं किया गया है, अपितु शक्ति और सत्ता का दुरुपयोग ये अपने स्वार्थों के लिए किस प्रकार करते हैं, इसे भी रेखांकित किया गया है। भ्रष्टाचार में लिप्त ऐसे अधिकारियों के अधीनस्थ कार्यरत कर्मचारी न केवल एक मानसिक यंत्रणा में कार्य करने को अभिशप्त होते हैं, बल्कि उनके सिरों पर हर क्षण स्थानान्तरण की तलवार लटकती रहती है। मामूली सी गलती पर दूर दराज के इलाकों में स्थानान्तरण कर देना ऐसे विभागों में एक आम-सी बात है।
कहा जाता है कि भ्रष्टाचार की नदी ऊपर से नीचे की ओर बहती है। लेकिन यह नदी नीचे आते आते सूख जाती है। सारी मलाई उच्च अधिकारी खा जाते हैं या उनके चापलूस। टेंडर और ठेकों के जरिये होने वाली कमाई के हिस्से पर केवल इन्हीं बादशाहों और उनके चापलूसों का अधिकार होता है। निम्न अधिकारी और अधीनस्थ कर्मचारी भय, आतंक, सन्देह और घोर निराशा के माहौल में केवल मानसिक यंत्रणा भोगने और दिन रात अपना दैहिक शोषण करवाने के लिए विवश होते हैं, 'गुलाम-बादशाह' में इसी सच्चाई को लेखक ने पूरी दक्षता से उजागर किया है।
त्रेहन जैसा अधिकारी अपने सर्वेंट क्वाटर में रह रहे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी नंदलाल पांडेय को अपने चापलूस मातहत अधिकारी हांडा की मदद से ऐसे जाल में फंसाता है कि वह अपनी बेटी को त्रेहन साहब के घर में सुबह-शाम काम करने के लिए भेजने को मजबूर हो जाता है। एक दिन अवसर पाकर त्रेहन नंदलाल की बेटी का बलात्कार करता है और रंगे हाथों पकड़े जाने के बावजूद उसका कुछ नहीं बिगड़ता। यूनियन वाले हो-हल्ला मचाकर चुप हो जाते हैं और पुलिस केस को रफा दफा कर देती है। ऐसे कार्यालयों में स्थितियां इतनी भयावह होती हैं कि सत्ता और शक्ति के नशे में डूबे भ्रष्ट अधिकारियों के आतंक के चलते एक अनुभाग अधिकारी को इसलिए आत्महत्या करनी पड़ती है कि उसे टाइपिंग में हुई मामूली सी त्रुटि के चलते सस्पेंड कर दिया जाता है।
उपन्यास में यूनियन के लोगों के दोगले चरित्रों की तस्वीर पेश करते हुए यह स्पष्ट करने की कोशिश की गई है कि ये भी दूध के धुले नहीं होते और अफ़सरों की भांति ये भी स्वार्थी, लालुप और भ्रष्ट होते हैं। स्थानांतरण करवाने या रुकवाने के सिलसिले में बहुत सी महिला कर्मचारी इनके चंगुल में आकर आर्थिक, मानसिक और दैहिक शोषण का शिकार हो जाती हैं। उपन्यास में प्यारे लाल शर्मा और मुरारी लाल वर्मा यूनियन से जुड़े ऐसे ही दोगले पात्र हैं जिनकी हवस का शिकार अर्चना अवस्थी इसलिए होती है क्योंकि पति की मृत्यु के बाद वह दफ्तर में नौकरी पाना चाहती है। संजना गुप्ता अपने स्थानांतरण को लेकर अधिकारियों के साथ साथ यूनियन के लोगों की कामुक लिप्सा से खुद को बचाते-बचाते एक दिन हार कर नौकरी से इस्तीफा दे देती है।
उपन्यास में सुशान्त और सहाय जैसे पात्र हैं जो अधिकारियों की ज्यादतियों को चुपचाप झेलने को विवश हैं, कुछ करना चाहते हुए भी वे कुछ नहीं कर पाते और अन्त में सहाय नौकरी छोड़ कर वकालत करने की ठान लेता है और सुशान्त को स्थानान्तरण की सजा भोगनी पड़ती है। सुशान्त, सहाय और अमिता (सुशान्त की पत्नी) जैसे सकारात्मक पात्र इस भ्रष्ट व्यवस्था पर झीकते-झल्लाते तो नजर आते हैं, 'लेकिन सब यूं ही चलता है' से आगे नहीं बढ़ पाते। वे परिवर्तन की कामना रखते हुए भी यथास्थिति को ही स्वीकार करते हुए प्रतिरोध से बचते प्रतीत होते हैं। उपन्यास में 'कथा नायक' का अभाव है। कथा में आरंभ से लेकर अन्त मौजूद रहने वाला सुशान्त नामक पात्र कथा नायक का भ्रम तो देता है, पर वास्तव में वह कथा नायक है नहीं। न जाने क्यों लेखक ऐसे संवेदनशील, सकारात्मक केन्द्रीय पात्र के व्यक्तित्व के विकास के प्रति उदासीन दीखता है।
इधर उपन्यास लेखन में 'प्रयोग' को आधुनिकता का अहम हिस्सा माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि आधुनिक वही है जो प्रयोगधर्मी है। साहित्य में ऐसे प्रयोग भाषा, कथ्य, शिल्प या शैली के स्तर पर कई लेखकों ने किए भी हैं। लेकिन रूपसिंह चन्देल उन लेखकों में से हैं जो ऐसे प्रयोगों को रचना की पठनीयता और संप्रेषणीयता के लिए खतरा मानते हुए चली आ रही परम्परागत भाषा और शैली में अपनी बात कहने को अधिक सुविधाजनक मानते हैं। वह एक किस्सा-गो की भांति अपनी बात कहते हुए उपन्यास में पठनीयता का प्रवाह निरंतर बनाये रखने में सफल होते हैं। परन्तु उपन्यास में कई स्थल ऐसे आते है जहां लगता है कि सरकारी विभागों/दफ्तरों की जिन स्थितियों-परिस्थितियों को उपन्यास के पात्रों के माध्यम से उभर कर आना चाहिए था, उसे लेखक स्वयं नरेट करता है अर्थात वह पात्रों को कहने का अधिकार देता प्रतीत नहीं होता। एक छोटा सा दृष्टांत यहाँ उदाहरण के लिए पर्याप्त होगा- 'एक अघोषित नियम यह भी था कि गैलरी में अफसर को आता देख बाबू, सेक्शन अफसर या अन्य छोटे अधिकारियों के लिए आवश्यक था कि वे दीवार के साथ सरक कर चलें, अपनी गति धीमी कर लें और अपने को दीनहीन प्रदर्शित करें। यह वैसी ही स्थिति थी जैसी जमींदारी प्रथा के दौरान हुआ करती थी। जब किसी के सामने से जमींदार की सवारी गुजरती तब किसानों को सड़क छोड़ देनी होती थी। गलती से भी जो किसान ऐसा नहीं करते थे, उनकी पीठ पर जमींदर के सिपाहियों का कोड़ा पड़ता था जबकि रासुल विभाग के अफसर की कलम कोड़े से अधिक मारक थी।' सुशान्त, सहाय, संगीता गुप्ता, अमिता जैसे पात्रों का विकास इस उपन्यास में इसलिए अधिक उभर कर सामने नहीं आ पाता क्योंकि लेखक उनके हिस्से की बातों को स्वयं नरेट करता चलता है। इसलिए ये जीवन्त और सकारात्मक पात्र संभावनाओं के बावजूद अधिक कुछ करते/कहते नहीं दिखाई देते और व्यवस्था के कुचक्र में खुद को फंसा रहने देने में ही अपनी भलाई महसूस करते हैं।
अपने समय, समाज और उससे जुड़े ज्वलंत प्रश्नों के विमर्श को चन्देल अपने पूर्ववर्ती उपन्यासों में जिस प्रकार उठाते रहे हैं, उसका अभाव इस आलोच्य उपन्यास में स्पष्टत: देखने को मिलता है। बावजूद इसके, यह उपन्यास सरकारी विभागों के एक विद्रूप सच को रेखांकित करने की ईमानदार कोशिश में संलग्न दीखता है और अपनी पठनीयता के चलते पाठको को बांधने की शक्ति रखता भी है।
समीक्षित कृति : गुलाम बादशाह(उपन्यास)
लेखक : रूपसिंह चन्देल
प्रकाशक : आकाश गंगा प्रकाशन
23, अंसारी रोड,
दरियागंज, नयी दिल्ली-2
पृष्ठ : 216, मूल्य : 300 रुपये।