मंगलवार, 1 दिसंबर 2009

समीक्षा

२ दिसम्बर २००९ के इंडिया टुडे में वरिष्ठ कथाकार सुभाष नीरव द्वारा की गई मेरे नवीनतम उपन्यास ’गुलाम बादशाह’ की समीक्षा प्रकाशित हुई थी. ’रचनासमय’ और ’वातायन’ के पाठकों के लिए उस समीक्षा को यहां अविकल प्रकाशित कर रहा हूं.
सरकारी विभागों का विद्रूप सच- 'गुलाम-बादशाह'
सुभाष नीरव
'गुलाम बादशाह' सुपरिचित लेखक रूपसिंह चन्देल की नई और सातवीं औपन्यासिक कृति है। पूरे उपन्यास का ताना बाना सरकार के एक विभाग को केन्द्र में रख कर बुना गया है। 'रासुल' नाम का यह विभाग केन्द्र सरकार अथवा राज्य सरकार का कोई भी विभाग हो सकता है जहाँ ब्यूरोक्रेट्स को बादशाह और उसके मातहत काम करने वाले लोगों को गुलाम के रूप के चित्रित किया गया है। उच्च पदों पर आसीन अधिकारी अपने अधीनस्थ कर्मचारियों को अपनी बादशाहत के सम्मुख कुछ नहीं समझते और उनसे काम लेने का उनका तरीका ठीक वैसा ही होता है जैसा किसी गुलाम से लिए अपनाया जाता है। अनुभाग अधिकारी, पी.ए., बाबू (क्लर्क), चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी अर्थात चपरासी, दफ्तरी और कैजुअल लेबर वर्ग के लोगों को गुलाम के रूप में दर्शाया गया हैं जो अपने उच्च अधिकारी के हर गलत-सही हुक्म का पालन करने के लिए विवश होते हैं। कहने को आठ घंटे की डयूटी होती है लेकिन वे चौबीस घंटों की गुलामी करते हैं। कोई अवकाश उनका अपना नहीं होता, कभी भी किसी भी समय उन्हें आवश्यक कार्य बताकर डयूटी पर हाज़िर होने को आदेश दिया जा सकता है। आम जनता में सरकारी बाबुओं को लेकर जो धारणा व्याप्त है, यह उपन्यास एक मायने में उसे तोड़ता भी है। ये गुलाम कहे जाने वाले लोग जिस भय, आतंक, सन्देह और निराशा के साये में रह कर ऐसे दफ्तरों में काम करते हैं, उसका अन्दाजा बाहर बैठे लोगों को शायद कम ही हो।
उपन्यास में त्रेहन, राणावत, कुमार जैसे धूर्त, भ्रष्ट, अवसरवादी, यौन लालुप अधिकारियों तथा हांडा और नागपाल जैसे उनके चापलूसों के चरित्रों को उनकी कारगुजारियाँ दर्शाते हुए बेनकाब करने का ही प्रयास नहीं किया गया है, अपितु शक्ति और सत्ता का दुरुपयोग ये अपने स्वार्थों के लिए किस प्रकार करते हैं, इसे भी रेखांकित किया गया है। भ्रष्टाचार में लिप्त ऐसे अधिकारियों के अधीनस्थ कार्यरत कर्मचारी न केवल एक मानसिक यंत्रणा में कार्य करने को अभिशप्त होते हैं, बल्कि उनके सिरों पर हर क्षण स्थानान्तरण की तलवार लटकती रहती है। मामूली सी गलती पर दूर दराज के इलाकों में स्थानान्तरण कर देना ऐसे विभागों में एक आम-सी बात है।
कहा जाता है कि भ्रष्टाचार की नदी ऊपर से नीचे की ओर बहती है। लेकिन यह नदी नीचे आते आते सूख जाती है। सारी मलाई उच्च अधिकारी खा जाते हैं या उनके चापलूस। टेंडर और ठेकों के जरिये होने वाली कमाई के हिस्से पर केवल इन्हीं बादशाहों और उनके चापलूसों का अधिकार होता है। निम्न अधिकारी और अधीनस्थ कर्मचारी भय, आतंक, सन्देह और घोर निराशा के माहौल में केवल मानसिक यंत्रणा भोगने और दिन रात अपना दैहिक शोषण करवाने के लिए विवश होते हैं, 'गुलाम-बादशाह' में इसी सच्चाई को लेखक ने पूरी दक्षता से उजागर किया है।
त्रेहन जैसा अधिकारी अपने सर्वेंट क्वाटर में रह रहे चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी नंदलाल पांडेय को अपने चापलूस मातहत अधिकारी हांडा की मदद से ऐसे जाल में फंसाता है कि वह अपनी बेटी को त्रेहन साहब के घर में सुबह-शाम काम करने के लिए भेजने को मजबूर हो जाता है। एक दिन अवसर पाकर त्रेहन नंदलाल की बेटी का बलात्कार करता है और रंगे हाथों पकड़े जाने के बावजूद उसका कुछ नहीं बिगड़ता। यूनियन वाले हो-हल्ला मचाकर चुप हो जाते हैं और पुलिस केस को रफा दफा कर देती है। ऐसे कार्यालयों में स्थितियां इतनी भयावह होती हैं कि सत्ता और शक्ति के नशे में डूबे भ्रष्ट अधिकारियों के आतंक के चलते एक अनुभाग अधिकारी को इसलिए आत्महत्या करनी पड़ती है कि उसे टाइपिंग में हुई मामूली सी त्रुटि के चलते सस्पेंड कर दिया जाता है।
उपन्यास में यूनियन के लोगों के दोगले चरित्रों की तस्वीर पेश करते हुए यह स्पष्ट करने की कोशिश की गई है कि ये भी दूध के धुले नहीं होते और अफ़सरों की भांति ये भी स्वार्थी, लालुप और भ्रष्ट होते हैं। स्थानांतरण करवाने या रुकवाने के सिलसिले में बहुत सी महिला कर्मचारी इनके चंगुल में आकर आर्थिक, मानसिक और दैहिक शोषण का शिकार हो जाती हैं। उपन्यास में प्यारे लाल शर्मा और मुरारी लाल वर्मा यूनियन से जुड़े ऐसे ही दोगले पात्र हैं जिनकी हवस का शिकार अर्चना अवस्थी इसलिए होती है क्योंकि पति की मृत्यु के बाद वह दफ्तर में नौकरी पाना चाहती है। संजना गुप्ता अपने स्थानांतरण को लेकर अधिकारियों के साथ साथ यूनियन के लोगों की कामुक लिप्सा से खुद को बचाते-बचाते एक दिन हार कर नौकरी से इस्तीफा दे देती है।
उपन्यास में सुशान्त और सहाय जैसे पात्र हैं जो अधिकारियों की ज्यादतियों को चुपचाप झेलने को विवश हैं, कुछ करना चाहते हुए भी वे कुछ नहीं कर पाते और अन्त में सहाय नौकरी छोड़ कर वकालत करने की ठान लेता है और सुशान्त को स्थानान्तरण की सजा भोगनी पड़ती है। सुशान्त, सहाय और अमिता (सुशान्त की पत्नी) जैसे सकारात्मक पात्र इस भ्रष्ट व्यवस्था पर झीकते-झल्लाते तो नजर आते हैं, 'लेकिन सब यूं ही चलता है' से आगे नहीं बढ़ पाते। वे परिवर्तन की कामना रखते हुए भी यथास्थिति को ही स्वीकार करते हुए प्रतिरोध से बचते प्रतीत होते हैं। उपन्यास में 'कथा नायक' का अभाव है। कथा में आरंभ से लेकर अन्त मौजूद रहने वाला सुशान्त नामक पात्र कथा नायक का भ्रम तो देता है, पर वास्तव में वह कथा नायक है नहीं। न जाने क्यों लेखक ऐसे संवेदनशील, सकारात्मक केन्द्रीय पात्र के व्यक्तित्व के विकास के प्रति उदासीन दीखता है।
इधर उपन्यास लेखन में 'प्रयोग' को आधुनिकता का अहम हिस्सा माना जा रहा है। कहा जा रहा है कि आधुनिक वही है जो प्रयोगधर्मी है। साहित्य में ऐसे प्रयोग भाषा, कथ्य, शिल्प या शैली के स्तर पर कई लेखकों ने किए भी हैं। लेकिन रूपसिंह चन्देल उन लेखकों में से हैं जो ऐसे प्रयोगों को रचना की पठनीयता और संप्रेषणीयता के लिए खतरा मानते हुए चली आ रही परम्परागत भाषा और शैली में अपनी बात कहने को अधिक सुविधाजनक मानते हैं। वह एक किस्सा-गो की भांति अपनी बात कहते हुए उपन्यास में पठनीयता का प्रवाह निरंतर बनाये रखने में सफल होते हैं। परन्तु उपन्यास में कई स्थल ऐसे आते है जहां लगता है कि सरकारी विभागों/दफ्तरों की जिन स्थितियों-परिस्थितियों को उपन्यास के पात्रों के माध्यम से उभर कर आना चाहिए था, उसे लेखक स्वयं नरेट करता है अर्थात वह पात्रों को कहने का अधिकार देता प्रतीत नहीं होता। एक छोटा सा दृष्टांत यहाँ उदाहरण के लिए पर्याप्त होगा- 'एक अघोषित नियम यह भी था कि गैलरी में अफसर को आता देख बाबू, सेक्शन अफसर या अन्य छोटे अधिकारियों के लिए आवश्यक था कि वे दीवार के साथ सरक कर चलें, अपनी गति धीमी कर लें और अपने को दीनहीन प्रदर्शित करें। यह वैसी ही स्थिति थी जैसी जमींदारी प्रथा के दौरान हुआ करती थी। जब किसी के सामने से जमींदार की सवारी गुजरती तब किसानों को सड़क छोड़ देनी होती थी। गलती से भी जो किसान ऐसा नहीं करते थे, उनकी पीठ पर जमींदर के सिपाहियों का कोड़ा पड़ता था जबकि रासुल विभाग के अफसर की कलम कोड़े से अधिक मारक थी।' सुशान्त, सहाय, संगीता गुप्ता, अमिता जैसे पात्रों का विकास इस उपन्यास में इसलिए अधिक उभर कर सामने नहीं आ पाता क्योंकि लेखक उनके हिस्से की बातों को स्वयं नरेट करता चलता है। इसलिए ये जीवन्त और सकारात्मक पात्र संभावनाओं के बावजूद अधिक कुछ करते/कहते नहीं दिखाई देते और व्यवस्था के कुचक्र में खुद को फंसा रहने देने में ही अपनी भलाई महसूस करते हैं।
अपने समय, समाज और उससे जुड़े ज्वलंत प्रश्नों के विमर्श को चन्देल अपने पूर्ववर्ती उपन्यासों में जिस प्रकार उठाते रहे हैं, उसका अभाव इस आलोच्य उपन्यास में स्पष्टत: देखने को मिलता है। बावजूद इसके, यह उपन्यास सरकारी विभागों के एक विद्रूप सच को रेखांकित करने की ईमानदार कोशिश में संलग्न दीखता है और अपनी पठनीयता के चलते पाठको को बांधने की शक्ति रखता भी है।
समीक्षित कृति : गुलाम बादशाह(उपन्यास)
लेखक : रूपसिंह चन्देल
प्रकाशक : आकाश गंगा प्रकाशन
23, अंसारी रोड,
दरियागंज, नयी दिल्ली-2
पृष्ठ : 216, मूल्य : 300 रुपये।

सोमवार, 23 नवंबर 2009

कविता


रश्मि प्रभा की कविता
माता का अपमान...

सतयुग बीता

हर नारी को सीता बनने की सीख मिली

जनकसुता,राम भार्या

सात फेरों के वचन लिए वन को निकली

होनी का फिर चक्र चला

सीता का अपहरण हुआ

हुई सत्य की जीत

जब रावन का संहार हुआ.


पर साथ साथ ही इसके शंका का समाधान

हुआ हुई सीता की अग्नि-परीक्षा

तब जाकर स्थान मिला !!!???

अनुगामिनी बन लौटी अयोध्या

धोबी न फिर घात

गर्भवती सीता का तब राम ने परित्याग किया .....

बढ़ी लेखिनी वाल्मीकि की

लव और कुश का हुआ

जनम सीता ने दी पूरी

शिक्षा क्षत्रिय कुल का मान किया.....

हुआ यज्ञ अश्वमेध का

लव-कुश ने व्यवधान दिया

सीता ने दे कर परिचय

युद्ध को एक विराम दिया.


पर फिर आई नयी

कसौटी किसके पुत्र हैं ये लव-कुश???

धरती माँ की गोद

समाकर दिया पवित्रता का परिचय.......

अब प्रश्न है ये उठता

क्या सीता ने यही किया?

या दुःख के घने साए में

खुदकुशी को आत्मसात किया???

जहाँ से आई थी सीता

वहीं गयी सब कर रीता!

सीता जैसी बने अगर सब

तो सब जग है बस रीता!

सत्य न देखा कभी किसी ने

सीता को हर पल दफनाया

किया नहीं सम्पूर्ण रामायण

माता का अपमान किया...
******

मैं रश्मि प्रभा , सौभाग्य मेरा कि मैं कवि पन्त की मानस पुत्री श्रीमती सरस्वती प्रसाद की बेटी हूँ और मेरा नामकरण स्वर्गीय सुमित्रा नंदन पन्त ने किया और मेरे नाम के साथ अपनी स्व रचित पंक्तियाँ मेरे नाम की..."सुन्दर जीवन का क्रम रे, सुन्दर-सुन्दर जग-जीवन" , शब्दों की पांडुलिपि मुझे विरासत मे मिली है. अगर शब्दों की धनी मैं ना होती तो मेरा मन, मेरे विचार मेरे अन्दर दम तोड़ देते...मेरा मन जहाँ तक जाता है, मेरे शब्द उसके अभिव्यक्ति बन जाते हैं, यकीनन, ये शब्द ही मेरा सुकून हैं...
इन शब्दों की यात्रा तब से आरम्भ है, जब मन एक उड़ान लेता है और अचानक जीवन अपनी जटिलता , अनगिनत रहस्य लिए पंखों को तोड़ने लगती है.......

जी हाँ ऐसे में पन्त की रचना ही सार्थक होती है-
"वियोगी होगा पहला कवि
आह से उपजा होगा गान "
http://lifeteacheseverything.blogspot.com/

शनिवार, 14 नवंबर 2009

कविता



प्राण शर्मा की तीन कविताएं
(१)
पहले अपनी बोली बोलो
फिर चाहे तुम कुछ भी बोलो
इंग्लिश बोलो, रूसी बोलो
तुर्की बोलो, स्पैनिश बोलो
अरबी बोलो, चीनी बोलो
जर्मन बोलो, डेनिश बोलो
कुछ भी बोलो लेकिन पहले
अपनी माँ के बोली बोलो
अपने बोली माँ के बोली
मीठी- मीठी, प्यारी- प्यारी
अपनी बोली माँ की बोली
हर बोली से न्यारी- न्यारी
अपनी बोली माँ की बोली
अपनी बोली से नफ़रत क्यों
अपनी बोली माँ की बोली
दूजे की बोली में ख़त क्यों
अपनी बोली का सिक्का तुम
दुनिया वालों से मनवाओ
खुद भी मान करो तुम इसका
औरों से भी मान कराओ
माँ बोली के बेटे हो तुम
बेटे का कर्त्तव्य निभाओ
अपनी बोली माँ होती है
क्यों ना सर पर इसे बिठाओ
(२)
क्यों कर हो आज तुम उल्टे तमाम काम
अपने दिलों की तख्तियों पर लिख लो ये कलाम
तुम बोंओंगे बबूल तो होंगे कहाँ से आम
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ

कहलाओगे जहान में तबतक फकीर तुम
बन पाओगे कभी नहीं जग में अमीर तुम
जब तक करोगे साफ़ न अपना ज़मीर तुम
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ

ये प्रण करो कि खाओगे रिश्वत कभी नहीं
गिरवी रखोगे देश की किस्मत कभी नहीं
बेचोगे अपने देश की इज्ज़त कभी नहीं
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ

देखो, तुम्हारे जीने का कुछ ऐसा ढंग हो
अपने वतन के वास्ते सच्ची उमंग हो
मकसद तुम्हारा सिर्फ बुराई से जंग हो
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ

उनसे बचो सदा कि जो भटकाते हैं तुम्हे
जो उल्टी--सीधी चाल से फुसलाते हैं तुम्हे
नागिन की तरह चुपके से डस जाते हैं तुम्हे
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ

जो क़ौमे एक देश की आपस में लड़ती हैं
कुछ स्वार्थों के वास्ते नित ही झगड़ती हैं
वे कौमें घास- फूस के जैसे ही सड़ती हैं
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ

जग में गंवार कौन बना सकता है तुम्हे
बन्दर का नाच कौन नचा सकता है तुम्हें
तुम एक हो तो कौन मिटा सकता है तुम्हे
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ

होने न पायें देश में भाषा - विवाद फिर
होने न पायें देश में बलवे - जिहाद फिर
होने न पायें देश में दंगे - फसाद फिर
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ


चलने न पायें देश में नफ़रत की गोलियां
फिरकापरस्ती की बनें हरगिज़ न टोलियाँ
सब शख्स बोलें प्यार की आपस में बोलियाँ
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ

सोचो, जरा विचारो कि तुमसे ही देश है
हर गंदगी बुहारो कि तुमसे ही देश है
तुम देश को संवारो कि तुमसे ही देश है
मेरे वतन के लोगो मुखातिब मैं तुमसे हूँ

मिलकर बजें तुम्हारी यूं हाथों की तालियाँ
जैसे कि झूमती हैं हवाओं में डालियाँ
जैसे कि लहलहाती हैं खेतों में बालियाँ
मेरे वतन के लोगो मुखातिम मैं तुमसे हूँ

(३)
कौवे ने कोयल से पूछा ,हम दोनो तन के काले हैं
फिर जग तुझपर क्यों मरता है मुझसे नफ़रत क्यों करता है
कोयल बोली ,सुन ए कौवे ,बेहद शोर मचाता है तू
अपनी बेसुर कांय - कांय से कान सभी के खाता है तू
मैं मीठे सुर में गाती हूँ, हर इक का मन बहलाती हूँ
इसीलिये जग को भाती हूँ,जगवालों का यश पाती हूँ

शेर हिरन से बोला -प्यारे ,हम दोनो वन में रहते हैं
फिर जग तुझ पर क्यों मरता है ,मुझसे नफ़रत क्यों करता है
मृग बोला -ए वन के राजा , तू दहशत को फैलाता है
जो तेरे आगे आता है, तू झट उसको खा जाता है
मस्त कुलांचें मैं भरता हूँ , बच्चों को भी बहलाता हूँ
इसीलिये जग को भाता हूँ , जगवालों का यश पाता हूँ

चूहे ने कुत्ते से पूछा , हम इक घर में ही रहते हैं
फिर जग तुझपर क्यों मरता है ,मुझसे नफ़रत क्यों करता है
कुत्ता बोला- सुन रे चूहे, तुझमें सद्व्यवहार नहीं है
हर इक चीज़ कुतरता है तू ,तुझमें शिष्टाचार नहीं है
मैं घर का पहरा देता हूँ ,चोरों से लोहा लेता हूँ
इसीलिये जग को भाता हूँ , जगवालों का यश पाता हूँ

मच्छर बोला परवाने से , हम दोनो भाई जैसे हैं
फिर जग तुझपर क्यों मरता है मुझसे नफ़रत क्यों करता है
परवाना बोला मच्छर से , तू क्या जाने त्याग की बातें
रातों में तू सोये हुओं पर करता है छिप- छिप कर घातें
मैं बलिदान किया करता हूँ , जीवन यूँ ही जिया करता हूँ
इसीलिये जग को भाता हूँ, जगवालों का यश पाता हूँ

मगरमच्छ बोला सीपी से , हम दोनो सागर वासी हैं
फिर जग तुझ पर क्यों मरता है,मुझसे नफ़रत क्यों करता है
सीपी बोली- जल के राजा ,तुझमें कोई शर्म नहीं है
हर इक जीव निगलता है तू , तेरा कोई धर्म नहीं है
मैं जग को मोती देती हूँ, बदले में कब कुछ लेती हूँ
इसीलिये जग को भाती हूँ, जगवालों का यश पाती हूँ

आंधी ने पुरवा से पूछा , हम दोनो बहने जैसी हैं
फिर जग तुझपर क्यों मरता है , मुझसे नफ़रत क्यों करता है
पुरवा बोली- सुन री आंधी , तू गुस्से में ही रहती है
कैसे हो नुक्सान सभी का , तू इस मंशा में बहती है
मैं मर्यादा में रहती हूँ ,हर इक को सुख पहुंचाती हूँ
इसी लिए जग को भाती हूँ,जगवालों का यश पाती हूँ

कांटे ने इक फूल से पूछा , हम इक डाली के वासी हैं
फिर जग तुझपर क्यों मरता है, मुझसे नफ़रत क्यों करता है
फूल बड़ी नरमी से बोला , तू नाहक ही इतराता है
खूब कसक पैदा करता है,जिसको भी तू चुभ जाता है
मैं हंसता हूँ , मुस्काता हूँ , गंध सभी में बिखराता हूँ
इसीलिये जग को भाता हूँ , जगवालों का यश पाता हूँ
*******
प्राण शर्मा का जन्म १३ जून १९३७ को वजीराबाद (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली में. पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी). १९५५ से लेखन . फिल्मी गीत गाते-गाते गीत , कविताएं और ग़ज़ले कहनी शुरू कीं.१९६५ से ब्रिटेन में.१९६१ में भाषा विभाग, पटियाला द्वारा आयोजित टैगोर निबंध प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार. १९८२ में कादम्बिनी द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार. १९८६ में ईस्ट मिडलैंड आर्ट्स, लेस्टर द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार.लेख - 'हिन्दी गज़ल बनाम उर्दू गज़ल" पुरवाई पत्रिका और अभिव्यक्ति वेबसाइट पर काफी सराहा गया. शीघ्र यह लेख पुस्तकाकार रूप में प्रकाश्य.२००६ में हिन्दी समिति, लन्दन द्वारा सम्मानित."गज़ल कहता हूं' और 'सुराही' - दो काव्य संग्रह प्रकाशित.Coventry CVESEB, UK3, Crakston Close, Stoke Hill Estate,E-mail : pransharma@talktalk.net--

बुधवार, 21 अक्तूबर 2009

समीक्षा



समीक्षा से पहले निवेदन

एक दिन मेरे पास फोन आया कि मुझे जयपुर से श्री राजाराम भादू के सम्पादन में प्रकाशित होने वाली द्वैमासिक पत्रिका ’संकृति मीमांसा ’ के लिए सम्बोधन पर समीक्षा लिखनी है. भाई कमर मेवाड़ी से बात हुई . उन्होंने भी बताया कि भादू जी मुझसे लिखवाना चाहते हैं. सम्बोधन का जुलाई -सितम्बर २००९ अंक मेरे पास नहीं पहुंचा था. कमर भाई से उसे भेज देने का अनुरोध किया. वैसे पिछ्ले बीस वर्षों से पत्रिका नियमित मुझे मिलती रही है . कभी ही कोई अंक डाक व्यवस्था के कारण नहीं मिला होगा . इस बार भी ऎसा ही हुआ. कमर भाई ने अंक भेज दिया. समीक्षा लिखी गई. भादू जी को भेजने के बाद उनके उत्तर की मैं प्रतीक्षा करने लगा. पर्याप्त समय बीत जाने के बाद मैंने उन्हें समीक्षा मिली या नहीं जानने के लिए फोन किया . ज्ञात हुआ कि समीक्षा तो मिल गई थी लेकिन वह वैसी नहीं लिखी गई जैसी कि वह चाहते थे. उन्होंने उसे पुनः लिख भेजने के लिए कहा जिसे मैंने विनम्रतापूर्वक अस्वीकार कर दिया. मेरे लिए यह संभव नहीं था. मैंने भादू जी से अनुरोध किया कि वह समीक्षा को रद्दी की टोकरी के हवाले कर दें और किसी अन्य से लिखवा लें जो पत्रिका में प्रकाशित रचनाओं/रचनाकारॊं की अलोचना न करे.

रचना समय के पाठकों के लिए प्रस्तुत है वह समीक्षा .

*****

समीक्षा
सम्बोधन - इतिहास रचती पत्रिका
रूपसिंह चन्देल
हिन्दी में ‘सम्बोधन’ एक ऐसी पत्रिका है जो निरंतरता और स्तरीयता का निर्वहन करती हुई अपने जीवन का अर्द्ध शतक पूरा करने के निकट है . इसके संस्थापक - सम्पादक (अब सलाहकार सम्पादक) कमर मेवाड़ी के प्रयास श्लाघनीय और नमनीय हैं . पत्रिका के अनेकों विशेषाकों का गवाह रहा हिन्दी साहित्य समाज इस बात का भी साक्षी है कि पत्रिका ने कभी साहित्यिक राजनीति को प्रश्रय नहीं दिया . हिन्दी में इसे हम अपवाद कह सकते हैं . यह सर्वविदित है कि लघु-पत्रिकाएं हों या व्यावसायिक --- सभी के अपने गुप्त घोषणा-पत्र ओर प्रतिबद्धताएं हैं या रही हैं . लेकिन कमर मेवाड़ी एक मात्र ऐसे सम्पादक हैं जिनकी प्रतिबद्धता केवल रचना रही है . मेरा मानना है कि किसी पत्रिका का स्वरूप न केवल सम्पादक की वैचारिकता , उसके सामाजिक - राजनैतिक आदि सरोकारों को प्रकट करता है , बल्कि वह उसकी वैयक्तिकता को भी उद्घाटित करता है . कमर मेवाड़ी व्यक्ति और सम्पादक - दोनों ही रूपों में प्रशंसनीय हैं . लेकिन मेरा उद्देश्य सम्पादक के गुण-विशेषताओं के साथ ही पत्रिका के जुलाई-सितम्बर , 2009 अंक पर अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करना भी है . इस अंक में विरिष्ठ कथाकार चित्रा मुद्गल का साक्षात्कार , कहानी , कविता , आलेख , गजलें ..... अर्थात् बहुविध सामग्री को प्रस्तुत किया गया है .
चित्रा मुद्गल से बातचीत से पहले कमलेश भट्ट कमल ने उनका संक्षिप्त परिचय दिया है , जिसकी आवश्यकता नहीं थी . बातचीत में चित्रा जी अपने स्वभावनुसार खुलकर बोली हैं . इसने मुझे कभी ‘पश्यंती’ में प्रकाशित उनके आलेख ‘हिन्दी साहित्य का दलाल स्ट्रीट ’ की याद ताजा कर दी . चित्रा जी के पास भाषा की आभिजात्यता है और है मंजा हुआ शिल्प . अभिव्यक्ति की स्वतत्रंता संबन्धी प्रश्न में वह कहती हैं - ‘‘क्योंकि समाज-सरोकारी अभिव्यक्ति का समूचा संघर्ष , मनुष्यता का हनन करने वाली मनुष्य की ही पाशविक प्रवृत्तियों के विरुद्ध मोर्चा खड़ा करने और मनुष्य के मर्म की शल्य-क्रिया कर उसे जगाने का उपक्रम है . इधर सम-कालीन कथा-साहित्य में बहुत कुछ ऐसा हो रहा है जो अनायास लेखकों की सामाजिक प्रतिबद्धता के प्रति संशय उत्पन्न करता है -- - लेकिन तब क्या किया जाए जब क्रांतिधर्मा लेखक की समाजधर्मी प्रतिबद्धता सहसा देहधर्मी विमर्श में परिवर्तित हो , एकमात्र उसीके इर्द-गिर्द सिमट कर स्वयं को नितांत नई सोच के प्रवक्ता के रूप में साहित्य के इतिहास में दर्ज कराने के प्रलोभन के चलते साहित्य को कोकशास्त्र बनाने की छूट लेने पर उतर आए ? जाहिर है लेखकीय स्वतंत्रता का अर्थ सामाजिक प्रतिबद्धता से विमुख होना नहीं है .’’

इस बातचीत पर केवल इतना ही कहना चाहता हूं कि चित्रा मुद्गल ने कुशलता और सार्थकता के साथ ऐसे उत्तर दिए हैं कि साक्षात्कर्ता के प्रश्नों की सामान्यता खटकती नहीं है .

पत्रिका की पहली रचनाकार हैं सुजाता जो पंजाबी की धरती से हिन्दी-साहितय को समृद्ध कर रही हैं . उनकी कविताओं की सहजता , जीवन से उनकी संबद्धता और प्रकृति के प्रति उनका आकर्षण उन्हें महत्वपूर्ण बनाता है . ‘दोस्ती’ , ‘एक उदास कुआ ’ , ‘ऐलान ’ , ‘सपने’ , और ‘कलेण्डर और तस्वीर’ के माध्यम से कवयित्री की रचनात्मकता को परखा जा सकता है . ‘प्रसंगवश’ स्तंभ के अंतर्गत डॉ० सूरज पालीवाल साहित्य के माध्यम से समाज , राजनीति आदि की पड़ताल करते हैं . साहित्य समीक्षा पर उनकी टिप्पणी ध्यानाकर्षित करती है . वह कहते हैं - ‘‘कथा समीक्षा की दयनीयता का रोना आम बात हो गई है --- यह हर युग में होता आया है कि अपने समय के रचनाकार अपने आलोचकों से प्रसन्न नहीं रहे . .......फर्क सिर्फ इतना है कि उस समय का पानी थिर गया है , कुछ अच्छी चीजें सामने आ गई हैं लेकिन आज जो लिखा जा रहा है उसका मूल्यांकन होना बाकी है . समय अपने आप मूल्यांकन करेगा ...... पत्रिका के सम्पादकों को इस दिशा में और अधिक ध्यान से लिखाने और प्रेरित करने की आवश्यकता है .’’

डॉ० पालीवाल की बात सही हो सकती है , लेकिन उन्हें यह स्वीकार कर लेना चाहिए कि आज के समीक्षक - आलोचक कल जैसे नहीं रहे . आज के आलोचक- समीक्षक और सम्पादक सत्ता और सुविधा के पीछे भागने लगे हैं -- एक-दो को छोड़कर . बहुत-सा अच्छा साहित्य कबाड़ के नीचे दबा दिया जाता है . स्तरहीन रचनाओं की धुंआधार चर्चा की जाती है . चर्चा के लिए तंत्र-मंत्र और छद्म तरीकों का सहारा लिया जाता है . ( हाल में एक स्वनामधन्य लेखक ने ऎसा ही किया था .) सम्पादक अपने चहेते लेखक की एक पुस्तक की एक ही अंक में कई समीक्षाएं प्रकाशित करते हैं. जब अच्छी पुस्तकों पर चर्चा ही न होगी तब उसके मूल्यांकन की बात करना थोथे तर्क के अतिरिक्त कुछ नहीं है .

समीक्ष्य अंक में विष्णु प्रभाकर पर वेदव्यास का बड़े व्यक्तित्व पर छोटा आलेख है . आलेखों में मूलचंद सोनकर का आलेख - ‘क्या दलित विमर्श सामाजिक परिवर्तन की बात करता है ?’ एक उल्लेखनीय आलेख है . लेखक के तर्क ठोस और वियारणीय हैं . उनका यह कथन - ‘‘अपने तमाम वैचारिक प्रतिपादन , धारदार संघर्ष और दलितों की समस्या के समाधान के लिए (यद्यपि आंशिक ही सही ) संवैधानिक प्रावधान करने वाले डॉ० आम्बेडकर अंततोगत्वा बौद्धधर्म में दलितों का उद्धार क्यों देखने लगे ? मुझ जैसे धर्म-निरपेक्ष व्यक्ति को यह प्रश्न बहुत परेशान करता रहता है . लेकिन समस्याओं का अलौकिक समाधान हो ही नहीं सकता और न धर्म से तार्किक नैतिक साहस ही पैदा किया जा सकता है . - - - मुझे लगता है कि डॉ० आम्बेडकर द्वारा बौद्धधर्म अपनाना एक थके हुए योद्धा का विश्राम था .’’ महत्वपूर्ण है .

मिथलेश्वर का आत्मकथांश सम्बोधन के स्वस्थ शरीर में कोढ़ की भांति है . लेखक को विश्व-साहित्य की कुछ आत्मकथाएं अवश्य पढ़नी चाहिए थीं और यदि वह संभव न था तो डॉ० हरिवंशराय बच्चन की आत्मकथा ही पढ़ लेते . वैसे मैं यह मानने को तैयार नहीं कि उन्होंने उसे पढ़ा नहीं होगा . लेखक जब जिद के तहत लिखता है तब उससे अच्छे साहित्य की अपेक्षा नहीं की जा सकती , लेकिन उसे यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि वह पाठकों को दे क्या रहा है और साहित्य में वह कहां खड़ा होगा . पिछले दिनों भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित उनके उपन्यास ‘सुरंग में सुबह ’ ने यह सिद्ध कर दिया था कि लेखन के प्रति अब वह गंभीर नहीं रहे .

डॉ० श्री भगवान सिंह ने ‘स्त्री मुक्ति विमर्श और महादेवी वर्मा का गद्य साहित्य ’ विषय को सार्थकतापूर्वक प्रतिपादित किया है .

पत्रिका की अन्य उल्लखनीय रचनाओं में हुस्न तबस्सुम ‘निहां’ की कहानी ‘भीतर की बात है ’ है , जो ग्राम्य जीवन को खूबसूरती से उद्घाटित करती है . लेकिन नसरीन बानू की कहानी ‘छौंक की खुशबू ’ बड़े घटनाक्रम को छोटे कलेवर में समेटने में सक्षम नहीं हो पायी . लेखिका ने जिस विषय को विवेचित करना चाहा है वह न केवल मार्मिक है , बल्कि सामाजिक विद्रूपता और विषमता का नग्न स्वरूप प्रकट करता है , लेकिन उसकी व्यापकता लेखिका से एक उपन्यास की अपेक्षा करती है . संभव है यह कहानी लेखिका के आगामी उपन्यास की प्रस्तावना हो ! इसके अतिरिक्त प्रो० फूलचंद मानव , मनोज सोनकर , सुरेश उजाला , मधुसूदन पांण्ड्या और रामकुमार आत्रेय की कविताएं , डॉ० मनाजि़र आशिक हरगानवी , शकूर अनवर , और शेख अब्दुल हमीद की गजलें पठनीय हैं . त्रिलोकी सिंह ठकुरेला की लघुकथा ‘दोहरा चरित्र ’ भी ध्यानाकर्षित करती है .

कुल मिलाकर सम्बोधन’ का यह अंक एक - दो रचनाओं को अपवाद स्वरूप छोड़कर अपनी परम्परा का निर्वहण करता है और महत्वपूर्ण है , जिसके लिए कमर मेवाड़ी की प्रशंसा की जानी चाहिए .

‘सम्बोधन
’सलाहकार सम्पादक - कमर मेवाड़ी
कांकरोली- 313324
जिला - राजसमंद
राजस्थान

सोमवार, 12 अक्तूबर 2009

कविता



निशा भोंसले की कविताएं

भूख

भूख की आग से
तेज होती है
जंगल की आग

भूख की आग
जिन्दगी जलाती है

और

जंगल की आग
सभ्यता को।
****
घरौंदा
लड़की
बनाती है
घरौंदा रेत का
समुंदर के किनारे
बुनती है सपने
सपने सुनहरे भविष्य के

घरौंदे के साथ
चाहती है समेटना
रेत को
अपनी मुठ्ठियों में
बांधती है सपने को
घरौंदे के साथ

टूटता है बारबार
घरौंदा
अपने आकार से

लड़की सोचती है
रेत/घरौंदा और
सपनों के बारे में
टूटते है क्यूं ये सभी
बारबार जिन्दगी में।
****


गठरी में बंधी साडि़यों के अनेक रंग

वह औरत
कपड़ों का गठ्ठा लिये
रिक्शे में
घूमती है/शहर के
गली मोहल्ले में
देती है दस्तक
घरों के दरवाजे पर
मना करने के बावजूद
दिखाती है गठरी खोलकर
साडि़यां

कश्मीरी सिल्क, कोसा सिल्क,
बंगाल और साउथ इंडिया की

बैठ जाती है
घर की चैखट पर
बताती रहती है
साडि़यों के बारे में

कभी थक जाती है
धूप में चलकर
कभी उसके कपड़े
गीले हो जाते है पसीने से
कभी उसका गला
सूख जाता है प्यास से

वह फिर भी रुकती नहीं
निकल जाता है/रिक्शावाला
कहीं उससे आगे
वह फिर से तेज चलती है
देती है आवाज
गली मोहल्ले में

शाम को लौटती है/घर
थकी हारी
गठरी को लादकर

रात में
जब वह सोती है
झोपड़ी में
मिट्टी के फर्श पर निढाल

उसकी फटी साड़ी में
सिले होते हैं
अनेक साडि़यों के टुकड़े
जिसमें होते हैं
गठरी में बंधी साडि़यों के
अनेक रंग।
****
निशा भोसले


रायपुर (छत्तीसगढ़) में जन्मी निशा भोसले ने समाजशास्त्र में एम.ए. किया है.
*अनेक पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित.
*उदंती डाट काम, लोकगंगा, एवं ई पत्रिका में सक्रिय।

संपर्क : शुभम विहार कालोनी
बिलासपुर छ0ग0

सोमवार, 28 सितंबर 2009

कविता


लावण्या शाह की पांच कविताएं

मौन गगन दीप
------------------
विक्षुब्ध्ध तरँग दीप,
मँद ~ मँद सा प्रदीप्त,
मौन गगन दीप !
मौन गगन, मौन घटा,
नव चेतन, अल्हडता
सुख सुरभि, लवलीन!
मौन गगन दीप !
झाँझर झँकार ध्वनि,
मुख पे मल्हार
कामना असीम,
रे, कामना असीम, !
मौन गगन दीप!
चारु चरण, चपल वरण,
घायल मन बीन!
रे, कामना असीम !
मौन गगन दीप!
वेणु ले, वाणी ले,
सुरभि ले, कँकण ले,
नाच रही मीन!
मौन गगन दीप !
जल न मिला, मन न मिला,
स्वर सारे लीन!
नाच रही मीन
मौन गगन दीप!
सँध्या के तारक से,
मावस के पावस से,
कौन कहे रीत ?
प्रीत करे , जीत,
ओ मेरे, सँध्या के मीत!
मेरे गीत हैँ अतीत.
बीत गई प्रीत !
मेरे सँध्या के मीत
-कामना अतीत
रे, कामना अतीत !
मौन गगन दीप !
मौन रुदन बीन,
रे, कामना असीम, !
मौन गगन दीप !

(2)



उडान

गीत बनकर गूँजते हैँ, भावोँ के उडते पाख!
कोमल किसलय, मधुकर गुँजन,सर्जन के हैँ साख!
मोहभरी, मधुगूँज उठ रही, कोयल कूक रही होगी-
प्यासी फिरती है, गाती रहती है, कब उसकी प्यास बुझेगी?
कब मक्का सी पीली धूप, हरी अँबियोँ से खेलेगी?
कब नीले जल मेँ तैरती मछलियाँ, अपना पथ भूलेँगीँ ?
क्या पानी मेँ भी पथ बनते होँगेँ ? होते होँगे, बँदनवार ?
क्या कोयल भी उडती होगी, निश्चिन्त, गगन पथ निहार ?
मानव भी छोड धरातल, उपर उठना चाहता है -
तब ना होँगे नक्शे कोई, ना होँगे कोई और नियम !
कवि की कल्पना के पाँख उडु उडु की रट करते हैँ!
दूर जाने को प्राण, अकुलाये से रहते हैँ
हैँ बटोही, व्याघ्र, राह मेँ घेरके बैठे जो पथ -
ना चाहते वो किसी का भी भला ना कभी !याद कर नीले गगन को, भर ले श्वास, उठ जा,
उडता जा, "मन -पँखी" अकुलाते तेरे प्राण!
भूल जा उस पेड को, जो था बसेरा तेरा, कल को,
भूल जा , उस चमनको जहाँ बसाया था तूने डेरा -
ना डर, ना याद कर, ना, नुकीले तीर को !
जो चढाया ब्याघने, खीँचे, धनुष के बीच!
सन्न्` से उड जा ! छूटेगा तीर भी नुकीला -
गीत तेरा फैल जायेगा, धरा पर गूँजता,
तेरे ही गर्म रक्त के साथ, बह जायेगा !
एक अँतिम गीत ही बस तेरी याद होगी !
याद कर उस गीत को, उठेगी टीस मेरी !
"मन -पँछी "तेरे ह्रदय के भाव कोमल,
हैँ कोमल भावनाएँ, है याद तेरी, विरह तेरा,
आज भी, नीलाकाश मेँ, फैला हुआ अक्ष्क्षुण !

(3)

प्रलय

देख रही मैँ, उमड रहा है, झँझावात प्रलय का !
निज सीमित व्यक्तित्त्व के पार, उमड घुमड, गर्जन तर्जन!
हैँ वलयोँ के द्वार खुले, लहराते नीले जल पर !
सागर के वक्षसे उठता, महाकाल का घर्घर स्वर,
सृष्टि के प्रथम सृजन सा, तिमिराच्छादीत महालोक
बूँद बनी है लहर यहाँ, लहरोँ से उठता पारावार,
ज्योति पूँज सूर्य उद्`भासित, बादल के पट से झुककर
चेतना बनी है नैया, हो लहरोँ के वश, बहती जाती ~
क्षितिज सीमा जो उजागर, काली एक लकीर महीन!
वही बनेगी धरा, हरी, वहीँ रहेगी, वसुधा, अपरिमित!
गा रही हूँ गीत आज मैँ, प्रलय ~ प्रवाह निनादित~
बजते पल्लव से महाघोष, स्वर, प्रकृति, फिर फिर दुहराती!

(4)

मानवता

" मानवता " किन,किन रुपोँ मेँ दीख जाती है ?
सोचो सोचो, अरे साथियों गौर करो इन बातोँ पे
कहीँ मुखर हँसी मेँ खिलती वो, खिली धूप सी,
और कहीँ आशा- विश्वास की परँपरा है दर्शाती,
कहीँ प्राणी पे घने प्रेम को भी बतलाती
वात्सल्य, करुणा,खुशी,हँसी, मस्ती के तराने,
आँसू - विषाद की छाया बन कर भी दीख जाती
यही मानव मन से उपजे भाव अनेक अनमोल,
मानवता के पाठ पढाते युगोँ से, अमृत घोल !
(5)

समय की धारा मेँ बहते बहते,
हम आज यहाँ तक आये हैँ
बीती सदीयोँ के आँचल से,
कुछ आशा के, फूल चुरा कर लाये हैँ !
हो मँगलमय प्रभात, पृथ्वी पर,
मिटे कलह का कटु उन्माद !
वसुँधरा हो हरी -भरी फिर,
चमके खुशहाली सा - प्रात: !!

****
लावण्या शाह सुप्रसिद्ध कवि स्व श्री नरेंद्र शर्मा जी की सुपुत्री हैं और वर्त्तमान में अमेरिका में रह कर अपने पिता से प्राप्त काव्य -परंपरा को आगे बढा रही हैं . समाजशास्त्र और मनोविज्ञान में बी ए. (आनर्स ) की उपाधि प्राप्त लावण्या जी प्रसिद्द पौराणिक धारावाहिक "महाभारत " के लिए कूछ दोहे भी लिख चुकी हैं . इनकी कूछ रचनाएँ और स्व० नरेंद्र शर्मा और स्वर -सम्राज्ञी लता मंगेशकर से जुड़े संस्मरण , रेडियो से भी प्रसारित हो चुके हैं .
इनकी एक पुस्तक "फिर गा उठा प्रवासी " प्रकाशित हो चुकी है जो इन्होंने अपने पिता जी की प्रसिद्द कृति "प्रवासी के गीत " को श्रद्धांजलि देते हुये लिखी है .
उनके अपने ही शब्दों में परिचय के लिए यहाँ क्लिक कीजिए : "परिचय "
लावण्या जी की 'रेडियो -वार्ता ' सुनने के लिए , यहाँ क्लिक कीजिए : Remembering Pt. Narendra Sharma

शनिवार, 19 सितंबर 2009

आलेख



लघुकथा:वस्तुस्थिति
बलराम अग्रवाल
आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘साहित्य का साथी’ में लिखा है कि ‘…उपन्यास और कहानी दोनों एक ही जाति के साहित्य हैं, परन्तु उनकी उपजातियाँ इसलिए भिन्न हो जाती हैं कि उपन्यास में जहाँ पूरे जीवन की नाप-जोख होती है, वहाँ कहानी में उसकी एक झाँकी मिल पाती है।’(पृष्ठ 69) तथा ‘मानव चरित्र के किसी एक पहलू पर या उसमें घटित किसी एक घटना पर प्रकाश डालने के लिए छोटी कहानी लिखी जाती है।’(पृष्ठ 70) स्पष्ट है कि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के काल तक हिन्दी-क्षेत्र में ‘कहानी’ अथवा ‘छोटी कहानी’, अंग्रेजी में जिसे ‘शॉर्ट स्टोरी’ कहा जाता है, जीवन की एक झाँकी दिखाने वाली अथवा मानव चरित्र के एक पहलू पर प्रकाश डालने वाली कथा-रचना के अर्थ को ध्वनित करने वाली गद्यात्मक रचना थी। ‘सिद्धान्त और अध्ययन’ नामक पुस्तक में बाबू गुलाबराय भी लगभग ऐसा ही विचार व्यक्त करते हैं—‘छोटी कहानी एक स्वत:पूर्ण रचना है जिसमें एक तथ्य या प्रभाव को अग्रसर करने वाली व्यक्ति-केन्द्रित घटना या घटनाओं के आवश्यक उत्थान-पतन और मोड़ के साथ पात्रों के चरित्र पर प्रकाश डालने वाला वर्णन हो।’
प्रारम्भिक समय के उपन्यास या कहानियाँ कोई दुर्लभ रचनाएँ नहीं हैं। जिज्ञासु पाठक आसानी से उन्हें प्राप्त कर सकते हैं। उन्हें देखने पर पता चलता है कि अंग्रेजी की ही नहीं, हिन्दी की भी प्रारम्भिक कहानियों का रूप-आकार आज के लघु-उपन्यास जितना विस्तृत हुआ करता था और तुलनात्मक दृष्टि से वह आकार उन दिनों के उपन्यास की तुलना में इतना छोटा हुआ करता था जितना कि लम्बी कहानी की तुलना में आज लघुकथा का आकार होता है। उन दिनों के आलोचक उपहासपूर्ण उलाहना दिया करते थे कि ‘जो कथाकार अपनी कथा को यथेष्ट विस्तार देने में अक्षम रहता है, वह अपनी उस रचना को ‘कहानी’(शॉर्ट स्टोरी) कहकर प्रचारित करने लगता है।’ यह बिल्कुल वैसी ही आशंका से युक्त बयान होता था जैसी आशंका से युक्त बयान लघुकथा के बारे में एक बार नरेन्द्र कोहली ने दिया था। जो भी हो ‘शॉर्ट स्टोरी’ ने अन्तत: अपनी स्वतन्त्र पहचान बनाई जो आज तक सम्मानपूर्वक कायम है। यहाँ यह बता देना आवश्यक ही है कि अपनी स्वतन्त्र-पहचान कहानी को (उपन्यास की तुलना में) मात्र अपने लघु-आकार के कारण ही नहीं मिली थी, बल्कि उसकी अपनी प्रभावपूर्ण क्षमताएँ, मौलिक विशेषताएँ तथा सामयिक पत्र-पत्रिकाओं द्वारा उसका प्रचारित होना आदि अन्य अनेकानेक कारण भी थे। सबसे बड़ी बात यह थी कि उपन्यास में पात्रों और घटनाओं की न सिर्फ भरमार बल्कि प्रधानता रहती थी जबकि कहानी में ऐसा नहीं था। कहानीकार एक लक्ष्य तय करता था और उस लक्ष्य की प्राप्ति अथवा पूर्ति के लिए वह पात्रों और घटनाओं को एक योजनाबद्ध तरीके से प्रस्तुत करता था। इसप्रकार पात्र अथवा घटनाएँ, जो ‘कथा का आवश्यक हिस्सा’ होने के नाम पर तत्कालीन उपन्यास में बोझिलता का कारण बनने लगे थे, कहानी का धरातल पाकर अनुशासनबद्ध होने लगे। यह कहना भी गलत न होगा कि तत्कालीन आलोचकों द्वारा लगभग सिरे से उपेक्षित ‘कहानी’ ने पात्रों व घटनाओं को अनुशासनबद्ध कर पाने की अपनी गु्णात्मक क्षमता के कारण ही आम पाठकों के बीच अपनी उपस्थिति को लगातार दर्ज करने व किए रखने में सफलता प्राप्त की और उपन्यास को पीछे छोड़कर लम्बे समय तक रचनात्मक-साहित्य में केन्द्रीय-विधा की भूमिका निभाई।
इस तथ्य की लेशमात्र भी अनदेखी नहीं की जानी चाहिए कि काल अथवा परिस्थितियों के जिन दबावों ने पूर्वकालीन कथाकारों को उपन्यास से कहानी की ओर उन्मुख किया था, लगभग उन जैसे दबावों के चलते ही बीसवीं सदी में आठवें दशक के कथाकारों और कुछेक कथातत्वदर्शियों को कहानी के प्रचलित ढाँचे में परिवर्तन की आवश्यकता महसूस हुई। उन्होंने महसूस किया कि ‘…गल्प अथवा छोटी कहानी केवल एक प्रसंग को लेकर उसकी एक मार्मिक झलक दिखा देने का ही उद्देश्य रखने लगी है। वह जीवन का समय-सापेक्ष चतुर्दिक चित्र न अंकित कर केवल एक क्षण में घनीभूत जीवन-दृश्य दिखाने लगी है।’(साहित्यालोचन/श्यामसुन्दर दास)
‘‘मेरी प्रिय कहानियाँ’ की भूमिका-स्वरूप ‘‘प्रतिवेदन’ में अज्ञेय जी द्वारा मार्च 1975 में लिखित ये पंक्तियाँ देखें—‘बिना कहानी की सम्यक परिभाषा के कहा जा सकता है कि कहानी एक क्षण का चित्र प्रस्तुत करती है। क्षण का अर्थ आप चाहे एक छोटा कालखण्ड लगा लें, चाहे एक अल्पकालिक स्थिति, एक घटना, डायलॉग, एक मनोदशा, एक दृष्टि, एक(बाह्य या आभ्यंतर) झांकी, संत्रास, तनाव, प्रतिक्रिया, प्रक्रिया…इसीप्रकार चित्र का अर्थ आप वर्णन, निरूपण, संकेतन, सम्पुंजन, रेखांकन, अभिव्यंजन, रंजन, प्रतीकन, द्योतन, आलोकन—जो चाहें लगा लें, या इनके जो भी जोड़-मेल। बल्कि और-भी महीन-मुंशी तबीयत के हों तो ‘प्रस्तुत करना’ को लेकर भी काफी छानबीन कर सकते हैं। इस सबके लिए न अटककर कहूँ कि कहानी क्षण का चित्र है और क्षण क्या है, इसी की हमारी पहचान निरन्तर गड़बड़ा रही है या संदिग्ध होती जा रही है।’ और इसी के साथ ‘नयी कहानी’ के उन्नायकों में से एक कथाकार-आलोचक-संपादक राजेन्द्र यादव की यह टिप्पणी भी दृष्टव्य है—‘सड़े आदर्शों और विघटित मूल्यों की दुर्गंधि से भागने की छटपटाहट बौद्धिक मुक्ति का प्रारम्भ थी। वैयक्तिकता की खोज और प्रामाणिक अनुभूतियों का चित्रण, आरोपित लक्ष्यों, नकली परिवेश और हवाईपने से ऊबा हुआ कथाकार अपने और अपने परिवेश के प्रति ईमानदार रहना चाहता है इसलिए उसने अनदेखे अतीत और अनभोगे भविष्य से नाता तोड़कर अपने को ‘यहाँ और इसी क्षण’ पर केन्द्रित कर दिया, उसका अपना ‘यही क्षण’, जो उसका कथ्य है, तथ्य है और उसका अपना जीवन-मूल्य है।’
इन दोनों ही वक्तव्यों में कहानी के परम्परागत कथ्य, रूप-स्वरूप, प्रस्तुति और परिभाषा में बदलाव के संकेत हैं; और इस तरह के संकेत उस काल के लगभग हर कहानी-विचारक के वक्तव्य में देखने को मिलते हैं। यह अनायास नहीं था कि जिस काल में अज्ञेय, राजेन्द्र यादव और उनकी समूची कथा-पीढ़ी ‘यहाँ और इसी क्षण’ पर केन्द्रित ‘एक क्षण के चित्र’ को कहानी कह रही थी, नई पीढ़ी के कतिपय कथाकार उसी ‘एक क्षण के चित्र’ को निहायत ईमानदारी, श्रम और कथात्मक बुद्धिमत्ता के साथ लघुकथा के रूप में प्रस्तुत करने का कौशल दिखा रहे थे। कहानी के कभी इस तो कभी उस आन्दोलन में दशकों तक पलटियाँ मारकर थक चुकी तत्कालीन कथा-पीढ़ी उसके परम्परागत स्वरूप के बारे में अपनी आभ्यन्तर अस्वीकृति को वक्तव्यों से आगे यदा-कदा ही कथात्मक अभिव्यक्ति दे पा रही थी(‘अपने पार’ और ‘हनीमून’—राजेन्द्र यादव) और टॉप-ऑर्डर आलोचकों की अस्वीकृति व उदासीनता से आहत हो उस दिशा में सार्थकत: आगे नहीं बढ़ पा रही थी। लघुकथा से जुड़े कथाकारों ने ऐसी प्रत्येक अस्वीकृति और उदासीनता का सामना बेहद धैर्यशीलता के साथ रचनात्मकता से जुड़े रहकर किया और विधा को सँवारने, सर्वमान्य-सामान्य बनाने व पूर्व पीढ़ी को इस धारा से जोड़े रखने में सफल रहे। इस संदर्भ में विशेष उल्लेखनीय यह भी है कि लघुकथा को उच्च-स्तर पर प्रचारित करने का श्रेय, हिन्दी कहानी के कथ्यों को प्रेमचंदपरक कथ्यों से आगे सरकाने की साहसपूर्ण, सक्रिय और सकारात्मक पहल करने वाले कथाकारों में से एक—कमलेश्वर को जाता है। कहानी के तत्कालीन जड़-फॉर्म को तोड़ने की पहल करते हुए ‘सारिका’ के कई अंकों को उन्होंने ‘लघुकथा-बहुल अंक’ के रूप में प्रकाशित किया। यह एकदम अलग बात है कि कुछेक रचनाओं को छोड़कर अधिकांशत: उनकी वह पहल व्यंग्यपरकता के नाम पर छिछली चुटकुलेबाजी और पैरोडीपन में ही उलझी रही। नि:संदेह यह भी लघुकथा से गंभीरतापूर्वक जुड़े तत्कालीन कथाकारों का ही बूता था कि हास्यास्पद लघुकथाएँ लिखकर ‘सारिका’ में छपने या छपते रहने के मोह में वे नहीं फँसे और गुणात्मक व गंभीर लेखन से नहीं डिगे।
समकालीन उपन्यास और कहानी दोनों के बारे में एक बात अक्सर कही जाती रही है कि व्यक्ति-जीवन में आज इतनी विविधताएँ घर कर गई हैं कि जीवन को उसकी सम्पूर्णता में जीने की बजाय मनुष्य उसके खण्डों में जीने को अभिशप्त है। अर्थात जीवनचर्या ने आज मानव-व्यक्तित्व को खण्ड-खण्ड करके रख दिया है। आम आदमी आज अनैतिक, अवैधानिक या असामाजिक कार्यों से अपनी सम्बद्धता को जीवनयापन सम्बन्धी विवशताओं के कारण ही स्वीकार करता है, सहज और सामान्य रूप में नहीं। अब, लघुकथा भी चूँकि जीवन और व्यक्तित्व दोनों को यथार्थत: अभिव्यक्त करने वाली विधा है इसलिए उसमें खण्डित व्यक्ति-जीवन और खण्डित-व्यक्तित्व का चित्रण सर्वथा स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन यहाँ ध्यान देने और सावधानी बरतने की बात यह है खण्डित-व्यक्तित्व के चित्रण की यह अवधारणा एक कथाकार के रूप में हम पर इतनी अधिक हावी न हो जाए कि हमारी लघुकथाओं में हर तरफ अराजक चरित्र ही नजर आते रहें तथा सहज और सम्पूर्ण मनुष्य की छवि उनमें से पूरी तरह गायब ही हो जाए। बेशक, बिखर चुके जीवन-मूल्यों के बीच रह रहा कथाकार अपने भोगे हुए अनुभव और देखे हुए सत्य को ही अभिव्यक्त करेगा, लेकिन उसकी यथार्थपरक अन्तर्दृष्टि, अन्तश्चेतना, विवेकशीलता और जीवन-मूल्यों के प्रति उसकी निष्ठा की परीक्षा भी इसी बिन्दु पर आकर होगी।
यह सहज ही जाना-पहचाना तथ्य है कि अपने दीर्घकालीन अनुभवों से मनुष्य ने जाना कि यह प्रकृति स्वयं तो परिवर्तनशील है ही, वह खुद भी उसे बदल सकता है। सहज अनुभवों के आधार पर ही उसने यह भी जाना कि उसके चारों ओर फैली यह सृष्टि जैसी आज नजर आती है, सदा वैसी ही नहीं थी। मनुष्य के इस अध्ययन और आकलन ने विज्ञान को जन्म दिया, उसे कर्मठता प्रदान की और इसी के बल पर उसने प्रकृति के अनेक स्रोतों को अपने अनुरूप ढालने की पहल की। प्रकृति-प्रदत्त विपरीत परिस्थितियों से हार मान लेने की बजाय उसने उनसे जूझने और उन पर विजय प्राप्त करने की हिम्मत स्वयं में पैदा की। इस प्रकार उसने यथार्थ को नया अर्थ प्रदान किया और उससे एक सक्रिय संपर्क स्थापित करने में सफल रहा। यहीं पर उसने प्रकृति से अपने भेद की नींव रखी और इसी कारण उसमें काल-चेतना समाविष्ट हुई। इस प्रकार वह वास्तविक यथार्थ के सक्रिय संपर्क में आया और प्रकृति, समाज और उसके स्वयं के बीच के संबंध इसी यथार्थ के अंग बन गए। रूप-कथा, परी-कथा और पौराणिक आख्यानों से उपन्यास, कहानी और समकलीन लघुकथा इसी बिन्दु पर प्रथक होते हैं। पूर्वकालीन लघुकथाओं में किसी सार्वकालिक, सामान्य और चिरन्तन सत्य की अभिवयक्ति होती थी, जबकि समकालीन लघुकथा में विशेष और युगीन ही नहीं, वैयक्तिक सत्य की भी अभिव्यक्ति होती है। समकालीन लघुकथा में व्यंजित यथार्थ एक गतिशील और परिवर्तनशील यथार्थ है। इसमें मानव के सुख-दुख, आशा-आकांक्षाएँ विशिष्ट काल और संदर्भ में अंकित होते हैं।
राजेन्द्र यादव लघुकथा को कहानी का ‘बीज’ बताते हैं। अब, ‘बीज’ को अगर स्थूल अर्थ में ग्रहण करें तो इसे नासमझी ही माना जाएगा; क्योंकि उन जैसे पके और पघे विचारक के प्रत्येक शब्द या वाक्य को स्थूल अर्थ में ग्रहण नहीं किया जाना चाहिए। हम यों भी तो सोच सकते हैं कि यह सिर्फ कहानी का नहीं, बल्कि समूची कथा-विधा का ‘बीज’ है जो वस्तुत: लघुकथा में भी उतना ही निहित है जितना कि कहानी या उपन्यास या नाटक आदि अन्य कथा-विधा में; और इसको सिद्ध किए बिना कथा के परमतत्व की सिद्धि सम्भव नहीं है। अगर लघुकथा ‘बीज’ है तो हर कथा-रचना के अन्तर में कम से कम एक लघुकथा विद्युत-तरंग की तरह विद्यमान है और पैंसठोत्तर-काल की तो अनगिनत कहानियाँ ऐसी हैं जो अन्यान्य प्रसंगों के सहारे विस्तार पाई हुई लघुकथा ही प्रतीत होती हैं। इस दृष्टि से देखें तो लघुकथा को कहानी का ‘बीज’ क्या, सीधे-सीधे उसकी शक्ति कहना भी न्यायसंगत है।
ऊपर उद्धृत वाक्यांशों विशेषत: अज्ञेयजी और यादवजी के कथनांशों को कथा के प्रांगण में लघुकथा के कदमों की स्पष्ट आहट के रूप में पहचाना और रेखांकित किया जाना चाहिए था, लेकिन आलोचकीय दायित्वहीनता का निर्वाह करते हुए इन्हें न सिर्फ पहचाना नहीं गया बल्कि तिरस्कृत भी रखा गया।
यह तो मानना ही पड़ेगा कि आज का लेखक अपनी रचना के सूत्र यथार्थ जीवन की बेहद पथरीली और ऊबड़-खाबड़ जमीन से खींचकर लाता है। प्रत्येक रचनाकार अपनी रचना के लिए अपनी परम्परा से और अपने परिवेश से प्रेरणा पाता है; और समाज में जो वृत्तियाँ उसे अपने अनुशीलन से अथवा अपने वातावरण से थोड़ी-बहुत उपलब्ध होती हैं, उनका सृजन पर थोड़ा-बहुत कॉन्शस-अनकॉन्शस, उलटा या सीधा असर पड़ता ही है। यह असर उसके निजी व्यक्तित्व के वैशिष्ट्य से नियमित और रूपान्तरित भी होता है और उसके कृतित्व को सम्पन्नता भी दे सकता है या उसे हानि भी पहुँचा सकता है। यहाँ यह समझ लेना आवश्यक है कि यह जरूरी नहीं है कि इस प्रकार का स्वाध्याय उसकी अपनी विधा की रचनाओं तक ही सीमित रहे और न ही यह जरूरी है कि वह किसी विधा-विशेष की सभी उपलब्ध कृतियों का अनुशीलन करे। इस सब का नियमन तो रचनाकार की रुचि द्वारा ही होगा। इस प्रकार प्रत्येक रचनाकार का सृजन एक अत्यन्त जटिल रूप ग्रहण कर लेता है जिसमें कितनी ही धाराओं से आकर विभिन्न प्रभाव संश्लिष्ट हो जाते हैं।
आज का कथानायक मधुर कल्पनाओं के बीच कुछेक आदर्शों की रक्षा या स्थापना हेतु पाठक का मनोरंजन मात्र नहीं करता, बल्कि व्यवस्थाजन्य विकृतियों के खिलाफ आमजन के अन्तर्मन में दबी पड़ी हर स्तर की प्रतिहिंसा को खुले रूप में संसार के सामने रखता है। उसने यह जान लिया है कि भ्रष्ट और आततायी चरित्र वाले लोगों पर भावुकतापूर्ण करुणा बरसाने वाले शब्द अब बेअसर हैं। ऐसे शब्द याचना के हों या धिक्कार के, न तो उनकी सोई हुई चेतना को जगा सकते हैं और न ही उनकी आत्मा का परिमार्जन कर सकते हैं। समाज का कल्याण किसी भी प्रकार अब याचना-भरे शब्द नहीं कर सकते हैं। इसलिए भ्रष्ट चरित्रों के सुधार का एकमात्र उपाय यही बचा है कि इनके भीतर जमा हो चुके मल और उसकी दुर्गन्ध को ऐन इनकी आँखों और नथुनों के आगे सरका दिया जाए, ताकि ये अपनी ही गन्दगी और दुर्गन्ध से बचकर भागे फिरें लेकिन भागने न पाएँ। यही आज का यथार्थ है यही यथार्थवादी दृष्टि। अत: अन्य अनेक कारणों के साथ-साथ यह भी एक कारण है कि हिन्दी की ‘पहली लघुकथा’ की दौड़ में ‘अंगहीन धनी’ व ‘अद्भुत संवाद’(दोनों रचनाएँ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र, ‘परिहासिनी’ 1876) ही अग्रणी ठहरती हैं। ये दोनों ही रचनाएँ इस दृष्टि से उस चेतना से लैस हैं जो सार्वकालिक है और जो आज भी समकालीनता को आलोकित किए हुए है। जो आलोचक मित्र ‘परिहासिनी’ को चुटकुलों और हास-परिहास की पुस्तक कहकर विवेचन से खारिज कर दे रहे हैं उनके पुनर्विचार हेतु यहाँ इन दोनों में से एक ‘अंगहीन धनी’ को इस दृष्टि से उद्धृत कर रहा हूँ कि वे कृपया बताएँ कि यह रचना चुटकुला या हास-परिहास की रचना किस कोण से है:
अंगहीन धनी
एक धनिक के घर उसके बहुत-से प्रतिष्ठित मित्र बैठे थे। नौकर बुलाने को घंटी बजी। मोहना भीतर दौड़ा, पर हँसता हुआ लौटा।
और नौकरों ने पूछा,“क्यों बे, हँसता क्यों है?”
तो उसने जवाब दिया,“भाई, सोलह हट्टे-कट्टे जवान थे। उन सभों से एक बत्ती न बुझे। जब हम गए, तब बुझे।”
मोहना का यह जवाब शारीरिक और मानसिक दोनों स्तरों पर ब्रिटिश-दासता में जकड़े देश के तत्कालीन धनिकों, जमीदारों और प्रतिष्ठितों के सामन्तवादी चरित्र का खुला चिट्ठा है। यह हँसने या हँसाने वाला नहीं, बल्कि आत्म-साक्षात्कार कराने वाला, मनो-मस्तिष्क को विवशतापरक क्रन्दन से छिन्न और खिन्न कर देने वाला सांकेतिक वाक्य है। इस रचना का वैशिष्ट्य भी यही है कि इसे सपाट उद्बोधक रचना के तौर पर लिखने की बजाय भारतेंदुजी ने गहन सांकेतिक शैली प्रदान की है। संकेत यह है कि सोलह हट्टे-कट्टे जवान जब कमरे में जल रही एक बत्ती तक स्वयं बुझाने की जेहमत नहीं उठा सकते, तब ब्रिटिश-दासता से मुक्ति के लिए लड़ना तो दूर उसके बारे में वे आखिर सोच भी कैसे सकते हैं! कहना न होगा कि भारतेंदुजी का यह संकेत ही आगे चलकर महात्मा गाँधी का कार्य-सिद्धान्त भी बना। दक्षिण अफ्रीका में स्वाधीनता-आंदोलन की शुरुआत करते हुए उन्होंने कहा था कि ब्रिटिश-दासता के तले अमीर से अमीर और गरीब से गरीब हर भारतीय समान रूप से दास है। इस दासत्व के चलते न कोई किसी का मालिक है, न कोई किसी का नौकर; और इसीलिए दासता से मुक्ति हेतु सभी को समान रूप से साथ चलना होगा। इस आंदोलन में घरों में पाखाना साफ करने के लिए आने वाले सफाई कर्मचारी की भागीदारी भी उतनी ही होगी, जितनी कि उस अमीर की जिसके घर का पाखाना वह साफ करता है।
किसी भी रचना का विवेचन स्थूलत: नहीं बल्कि उसके रचनाकार व रचनाकाल दोनों की विविध परिस्थितियों की विवेचना के मद्देनजर किया जाना चाहिए।
*****
डॉ. बलराम अग्रवाल का जन्म २६ नवंबर, १९५२ को उत्तर प्रदेश के जिला बुलंदशहर में हुआ था. आपने हिन्दी साहित्य में एम.ए., अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा, और ’समकालीन हिन्दी लघुकथा का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन’ विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की.लेखन व सम्पादन : समकालीन हिन्दी लघुकथा के चर्चित हस्ताक्षर. सभी स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, लघुकथा आदि प्रकाशित. अनेक रचनाएं विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित व प्रशंसित . भारतेम्दु हरिश्चन्द्र , प्रेमचंद, प्रसाद, शरत, रवींद्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी आदि वरिष्ठ कथाकारों की चर्चित/ज़ब्त कहानियों के संकलनों के अतिरिक्त कुछेक लघु-पत्रिकाओं व लघुकथा-विशेषांकों का संपादन. प्रेमचंद की लघुकथाओं के संकलन ’दरवाज़ा’ (२००५) का संपादन. ’अडमान-निकोबार की लोककथाएं’(२००१) का अंग्रेजी से अनुवाद व पुनर्लेखन.हिन्दीतर भारतीय कथा-साहित्य की श्रृंखला में ’तेलुगु की सर्वश्रेष्ठ कहानियां’ (१९९७) तथा ’मलयालम की चर्चित लघुकथाएं’ (१९९७) के बाद संप्रति तेलुगु की लघुकथाओं पर कार्यरत. अनेक विदेशी लुघुकथाओं पर कार्यरत. अनेक विदेशी लघुकथाओं व कहानियों के अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित.अनेक वर्षों तक रंगमंच से जुड़ाव. कुछ रंगमंचीय नाटकों हेतु गीत-लेखन भी. हिन्दी फीचर फिल्म ’कोख’ (१९९४) के संवाद-लेखन में सहयोग.कथा-संग्रह ’सरसों के फूल’ (१९९४), ’दूसरा भीम’ (१९९६) और ’चन्ना चरनदास’ (२००४) प्रकाशित.

संप्रति: स्वतत्र लेखन.e-mail: 2611ableram@gmail.com
सम्पर्क : एम-७०, नवीन शाहदरा, दिल्ली -११००३२.फोन . ०११-२२३२३२४९मो. ०९९६८०९४४३१

शुक्रवार, 31 जुलाई 2009

गज़ल



महावीर शर्मा की पांच गजलें
1) ग़ज़ल
सोगवारों में मिरा क़ातिल सिसकने क्यूं लगा
दिल में ख़ंजर घोंप कर, ख़ुद ही सुबकने क्यूं लगा

आइना देकर मुझे, मुंह फेर लेता है तू क्यूं
है ये बदसूरत मिरी, कह दे झिझकने क्यूं लगा
गर ये अहसासे-वफ़ा जागा नहीं दिल में मिरे
नाम लेते ही तिरा, फिर दिल धड़कने क्यूं लगा
दिल ने ही राहे-मुहब्बत को चुना था एक दिन
आज आंखों से निकल कर ग़म टपकने क्यूं लगा
जाते जाते कह गया था, फिर न आएगा कभी
आज फिर उस ही गली में दिल भटकने क्यूं लगा
छोड़ कर तू भी गया अब, मेरी क़िस्मत की तरह
तेरे संगे-आसतां पर सर पटकने क्यूं लगा
ख़ुश्बुओं को रोक कर बादे-सबा ने यूं कहा
उस के जाने पर चमन फिर भी महकने क्यूं लगा।

******

2) ग़ज़ल
तिरे सांसों की ख़ुश्बू से ख़िज़ाँ की रुत बदल जाए,
जिधर को फैल जाए, आब-दीदा भी बहल जाए।
ज़माने को मुहब्बत की नज़र से देखने वाले,
किसी के प्यार की शमआ तिरे दिल में भी जल जाए।
मिरे तुम पास ना आना मिरा दिल मोम जैसा है,
तिरे सांसों की गरमी से कहीं ये दिल पिघल जाए।
कभी कोई किसी की ज़िन्दगी से प्यार ना छीने,
वो है किस काम का जिस फूल से ख़ूश्बू निकल जाए
तमन्ना है कि मिल जाए कोई टूटे हुए दिल को,
बनफ़्शी हाथों से छू ले, किसी का दिल बहल जाए।
ज़रा बैठो, ग़मे-दिल का ये अफ़साना अधूरा है,
तुम्हीं अंजाम लिख देना, मिरा गर दम निकल जाए।
मिरी आंखें जुदा करके मिरी तुर्बत पे रख देना,
नज़र भर देख लूं उसको, ये हसरत भी निकल जाए।
********
3) ग़ज़ल
ग़म की दिल से दोस्ती होने लगी।
ज़िन्दगी से दिल्लगी होने लगी।
जब मिली उसकी निगाहों से मिरी
उसकी धड़कन भी मिरी होने लगी।
ज़ुल्फ़ की गहरी घटा की छांव में
ज़िन्दगी में ताज़गी होने लगी।
बेसबब जब वो हुआ मुझ से ख़फ़ा
ज़िन्दगी में हर कमी होने लगी।
बह न जाएं आंसू के सैलाब में
सांस दिल की आखिरी होने लगी।
आंसुओं से ही लिखी थी दासतां
भीग कर क्यों धुनदली होने लगी।
जाने क्यों मुझ को लगा कि चांदनी
तुझ बिना शमशीर सी होने लगी।
आज दामन रो के क्यों गीला नहीं?
आंसुओं की भी कमी होने लगी।
तश्नगी बुझ जाएगी आंखों की कुछ
उसकी आंखों में नमी होने लगी।
डबडबाई आंख से झांको नहीं
इस नदी में बाढ़ सी होने लगी।
इश्क़ की तारीक गलियों में जहां
दिल जलाया, रौशनी होने लगी।
आ गया क्या वो तसव्वर में मिरे
दिल में कुछ तस्कीन सी होने लगी।
मरना हो, सर यार के कांधे पे हो
मौत में भी दिलकशी होने लगी।
*******
4) ग़ज़ल
ज़िन्दगी में प्यार का वादा निभाया ही कहां है
नाम लेकर प्यार से मुझ को बुलाया ही कहां है?
टूट कर मेरा बिखरना, दर्द की हद से गुज़रना
दिल के आईने में ये मञ्ज़र दिखाया ही कहां है?
शीशा-ए-दिल तोड़ना है तेरे संगे-आसतां पर
तेरे दामन पे लहू दिल का गिराया ही कहां है?
ख़त लिखे थे ख़ून से जो आंसुओं से मिट गये वो
जो लिखा दिल के सफ़े पर, वो मिटाया ही कहां है?
जो बनाई है तिरे काजल से तस्वीरे-मुहब्बत
पर अभी तो प्यार के रंग से सजाया ही कहां है?
देखता है वो मुझे, पर दुश्मनों की ही नज़र से
दुश्मनी में भी मगर दिल से भुलाया ही कहां है?
ग़ैर की बाहें गले में, उफ़ न थी मेरी ज़ुबां पर
संग दिल तू ने अभी तो आज़माया ही कहां है?
जाम टूटेंगे अभी तो, सर कटेंगे सैंकड़ों ही
उसके चेहरे से अभी पर्दा हटाया ही कहां है?
उन के आने की ख़ुशी में दिल की धड़कन थम ना जाये
रुक ज़रा, उनका अभी पैग़ाम आया ही कहां है?

5) ग़ज़ल
अदा देखो, नक़ाबे-चश्म वो कैसे उठाते हैं,
अभी तो पी नहीं फिर भी क़दम क्यों डगमगाते हैं?
ज़रा अन्दाज़ तो देखो, न है तलवार हाथों में,
हमारा दिल ज़िबह कर, खून से मेंहदी रचाते हैं।
हमें मञ्ज़ूर है गर, गैर से भी प्यार हो जाए,
कमज़कम सीख जाएंगी कि दिल कैसे लगाते हैं।
सुना है आज वो हम से ख़फ़ा हैं, बेरुख़ी भी है,
नज़र से फिर नज़र हर बार क्यों हम से मिलाते हैं?
हमारी क्या ख़ता है, आज जो ऐसी सज़ा दी है,
ज़रा सा होश आता है मगर फिर भी पिलाते हैं।
वफ़ा के इम्तहाँ में जान ले ली, ये भी ना देखा
किसी की लाश के पहलू में खंजर भूल जाते हैं।
********
महावीर शर्मा
जन्मः १९३३ , दिल्ली, भारत
निवास-स्थानः लन्दन
शिक्षाः एम.ए. पंजाब विश्वविद्यालय, भारत
लन्दन विश्वविद्यालय तथा ब्राइटन विश्वविद्यालय में गणित, ऑडियो विज़ुअल एड्स तथा स्टटिस्टिक्स । उर्दू का भी अध्ययन।
कार्य-क्षेत्रः १९६२ – १९६४ तक स्व: श्री उच्छ्रंगराय नवल शंकर ढेबर भाई जी के प्रधानत्व में भारतीय घुमन्तूजन (Nomadic Tribes) सेवक संघ के अन्तर्गत राजस्थान रीजनल ऑर्गनाइज़र के रूप में कार्य किया । १९६५ में इंग्लैण्ड के लिये प्रस्थान । १९८२ तक भारत, इंग्लैण्ड तथा नाइजीरिया में अध्यापन । अनेक एशियन संस्थाओं से संपर्क रहा । तीन वर्षों तक एशियन वेलफेयर एसोशियेशन के जनरल सेक्रेटरी के पद पर सेवा करता रहा । १९९२ में स्वैच्छिक पद से निवृत्ति के पश्चात लन्दन में ही मेरा स्थाई निवास स्थान है।
१९६० से १९६४ की अवधि में महावीर यात्रिक के नाम से कुछ हिन्दी और उर्दू की मासिक तथा साप्ताहिक पत्रिकाओं में कविताएं, कहानियां और लेख प्रकाशित होते रहे । १९६१ तक रंग-मंच से भी जुड़ा रहा ।
दिल्ली से प्रकाशित हिंदी पत्रिकाओं “कादम्बिनी”,”सरिता”, “गृहशोभा”, “पुरवाई”(यू. के.), “हिन्दी चेतना” (अमेरिका), “पुष्पक”, तथा “इन्द्र दर्शन”(इंदौर), “कलायन”, “गर्भनाल”, “काव्यालय”, “निरंतर”,”अभिव्यक्ति”, “अनुभूति”, “साहित्यकुञ्ज”, “महावीर”, “मंथन”, “अनुभूति कलश”,”अनुगूँज”, “नई सुबह”, “ई-बज़्म” आदि अनेक जालघरों में हिन्दी और उर्दू भाषा में कविताएं ,कहानियां और लेख प्रकाशित होते रहते हैं। इंग्लैण्ड में आने के पश्चात साहित्य से जुड़ी हुई कड़ी टूट गई थी, अब उस कड़ी को जोड़ने का प्रयास कर रहा हूं।
दो ब्लॉग:
'मंथन' http://mahavir.wordpress.com/

बुधवार, 20 मई 2009

कविता


विजय कुमार सत्पथी की पांच कविताएं

(१) सिलवटों की सिहरन
अक्सर तेरा साया
एक अनजानी धुंध से चुपचाप चला आता है
और मेरी मन की चादर में सिलवटे बना जाता है …..
मेरे हाथ , मेरे दिल की तरह
कांपते है , जब मैं
उन सिलवटों को अपने भीतर समेटती हूँ …..
तेरा साया मुस्कराता है और मुझे उस जगह छु जाता है
जहाँ तुमने कई बरस पहले मुझे छुआ था ,
मैं सिहर सिहर जाती हूँ ,कोई अजनबी बनकर तुम आते हो
और मेरी खामोशी को आग लगा जाते हो …
तेरे जिस्म का एहसास मेरे चादरों में धीमे धीमे उतरता है
मैं चादरें तो धो लेती हूँ पर मन को कैसे धो लूँ
कई जनम जी लेती हूँ तुझे भुलाने में ,
पर तेरी मुस्कराहट ,
जाने कैसे बहती चली आती है ,
न जाने, मुझ पर कैसी बेहोशी सी बिछा जाती है …..
कोई पीर पैगम्बर मुझे तेरा पता बता दे ,
कोई माझी ,तेरे किनारे मुझे ले जाए ,
कोई देवता तुझे फिर मेरी मोहब्बत बना दे.......
या तो तू यहाँ आजा ,
या मुझे वहां बुला ले......
मैंने अपने घर के दरवाजे खुले रख छोडे है ........

(२) मौनता

मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
जिसे सब समझ सके , ऐसी परिभाषा देना ;
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना.
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
ताकि ,मैं अपने शब्दों को एकत्रित कर सकूँ
अपने मौन आक्रोश को निशांत दे सकूँ,
मेरी कविता स्वीकार कर मुझमे प्राण फूँक देना
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
ताकि मैं अपनी अभिव्यक्ति को जता सकूँ
इस जग को अपनी उपस्तिथि के बारे में बता सकूँ
मेरी इस अन्तिम उद्ध्ङ्तां को क्षमा कर देना
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
ताकि ,मैं अपना प्रणय निवेदन कर सकूँ
अपनी प्रिये को समर्पित , अपना अंतर्मन कर सकूँ
मेरे नीरस जीवन में आशा का संचार कर देना
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
ताकि ,मैं मुझमे जीवन की अनुभूति कर सकूँ
स्वंय को अन्तिम दिशा में चलने पर बाध्य कर सकूँ
मेरे गूंगे स्वरों को एक मौन राग दे देना
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
ताकि मुझमे मौजूद हाहाकार को शान्ति दे सकूँ
मेरी नपुसंकता को पौरुषता का वर दे सकूँ
मेरी कायरता को स्वीकृति प्रदान कर देना
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
ताकि मैं अपने निकट के एकांत को दूर कर सकूँ
अपने खामोश अस्तित्व में कोलाहल भर सकूँ
बस, जीवन से मेरा परिचय करवा देना
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
ताकि , मैं स्वंय से चलते संघर्ष को विजय दे सकूँ
अपने करीब मौजूद अन्धकार को एकाधिकार दे सकूँ
मृत्यु से मेरा अन्तिम आलिंगन करवा देना
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना ,
जिसे सब समझ सके , ऐसी परिभाषा देना ;
मेरी मौनता को एक अंजानी भाषा देना….

(३) आंसू

उस दिन जब मैंने तुम्हारा हाथ पकड़ा ,
तो तुमने कहा..... नही..
और चंद आंसू जो तुम्हारी आँखों से गिरे..
उन्होंने भी कुछ नही कहा... न तो नही ... न तो हाँ ..
अगर आंसुओं कि जुबान होती तो ..
सच झूठ का पता चल जाता ..
जिंदगी बड़ी है .. या प्यार ..
इसका फैसला हो जाता...

(४) दर्द

जो दर्द तुमने मुझे दिए ,
वो अब तक संभाले हुए है !!
कुछ तेरी खुशियाँ बन गई है
कुछ मेरे गम बन गए है
कुछ तेरी जिंदगी बन गई है
कुछ मेरी मौत बन गई है
जो दर्द तुमने मुझे दिए ,
वो अब तक संभाले हुए है !!

(५) तू

मैं अक्सर सोचती हूँ
कि,
खुदा ने मेरे सपनो को छोटा क्यों बनाया
करवट बदलती हूँ तो
तेरी मुस्कारती हुई आँखे नज़र आती है
तेरी होटों की शरारत याद आती है
तेरे बाजुओ की पनाह पुकारती है
तेरी नाख़तम बातों की गूँज सुनाई देती है
तेरी क़समें ,तेरे वादें ,तेरे सपने ,तेरी हकीक़त ..
तेरे जिस्म की खुशबु ,तेरा आना , तेरा जाना ..
एक करवट बदली तो ,
तू यहाँ नही था..
तू कहाँ चला गया..
खुदाया !!!!
ये आज कौन पराया मेरे पास लेटा है...
****


I am working as Sr.GM-Marketing in Hyderabad. My hobbies are poetry, painting, books, music, photography, spirituality etc. I am an engineer with a MBA in marketing. Presently I am living in Hyderabad [AP].
My contact details:
FLAT NO.402, FIFTH FLOOR, PRAMILA RESIDENCY;
HOUSE NO. 36-110/402,
DEFENCE COLONY,
SAINIKPURI POST, SECUNDERABAD- 500 094 [A.P.]
My Mobile no : +91 9849746500

शनिवार, 9 मई 2009

कविता


वरिष्ठ कथाकार अशोक गुप्ता की दो कविताएं
(१) अंगारे का नाम
उस अंगारे को मेरा नाम नहीं मालूम
जो
मेरा पीछा कर रहा है ,
उसे बस इतना पता है
कि उसका काम
मुझे भस्म कर देना है.

उस अंगारे को
उसका नाम भी कहाँ पता है
जिसने दौड़ाया है अंगारे को
मेरी मृत्यु बना कर.

मैं चल रहा हूँ आगे आगे
पीछे पीछे अंगारा है
मैं रुकता हूँ कहीं
तो अंगारा भी रुकता है
न मैं सोता हूँ
न अंगारा
यह घटनाचक्र न जाने कब से जारी है.

अंगारा क्यों ठहर जाता है
मेरे ठहरने पर
तभी क्यों नहीं वह
चीते कि तरह झपट कर मुझे दबोच लेता
यह एक प्रश्न है.

अंगारा जानता है
कि
मेरी मुठ्ठी में आग है,
कविता है मेरी मुठ्ठी में
जिसकी फुहार
शांत कर सकती है कोई भी अग्निकांड
चाहे वह शहर में हो
या
आबादी के चित्त में...

अंगारा जानता है
कि
खाली है अंगारे की मुठ्ठी नितांत
उसे खाली करा लिया है उस नपुंसक वटवृक्ष ने
जिसने अंगारे को
मेरे पीछे दौड़ाया है.

आग
अंगारे के भी चित्त में है
लेकिन उसका नाम
शहर की आबादी से काटा जा चुका है
आबादी से कट जाने के बाद
आग में ताप भला कहाँ बचता है ?
अंगारा उस हालत में तो
चिंगारी भी नहीं होता.

अंगारा दरअसल
आबादी से जुड़ने का रास्ता खोज रहा है
जहाँ उसे उसका नाम
फिर से मिल जाय.


(२) नदी
नदी के लिए
कोई भी समय बुरा नहीं होता
नदी का बोध
काल से ऊपर होता है.

नदी
पहले ऊंचाई दे कर पाती है वेग
फिर
वेग दे कर विस्तार
और अंततः अस्तित्व दे कर
अथाह हो जाती है.
अस्तित्व दे कर अथाह होना
नदी होना होता है

नदी के लिए कोई भी समय
बुरा नहीं होता
****

नाम वही, यानी अशोक गुप्ता, जन्मा देहरादून में 29 जनवरी 1947 को, कविताओं को लेकर अब तक बस कच्ची पक्की हाजिरी, भले कवितायें मन ही मन हमेशा पकती रहीं.

मेरा कवि निश्चित रूप से मेरे कथाकार से पहले जन्मा लेकिन कथाकार पता नहीं कैसे दौड़ कर आगे पहुँच गया. एक बार कथाकार होने का नाम पहन कर बहुतों ने कवि को आगे नहीं आने दिया, उनमें शायद मैं खुद भी रहा, लेकिन हैरत है कि कवि मरा नहीं बल्कि कभी कहानियों में घुस कर आगे आता रहा तो कभी स्वतंत्र रूप से.. .
पहल, आउटलुक हिंदी, समकालीन भारतीय साहित्य, गगनांचल, जनसत्ता और परिकथा सहित बहुत सी लघु पत्रिकाओं में कविताएँ छपीं है, रेडियो ने भी कई कई बार प्रसारित किया है, फिर भी मुझे यही लगता रहा है कि मैं अपने कवि के साथ अन्याय कर रहा हूँ. यहाँ मेरी कोशिश इसी आग्रह की पुकार को सुनना है, लेकिन इस कोशिश में मैं पाठकों के साथ अन्याय कर जाऊँ, यह मुझे मंजूर नहीं होगा. इस लिए यहाँ मेरा परिचय एक नवागंतुक भर पाएं और मेरी कविताओं के बारे में बेबाक कहें.


बुधवार, 8 अप्रैल 2009

लघुकथाएं



बलराम अग्रवाल की पांच लघुकथाएं

अपनी-अपनी जमीन

“बुरा तो मानोगे…मुझे भी बुरा लग रहा है, लेकिन…कई दिनों तक देख-भाल लेने के बाद हिम्मत कर रही हूँ बताने की…सुनकर नाराज न हो जाना एकदम-से…।” नीता ने अखबार के पन्ने उलट रहे नवीन के आगे चाय का प्याला रखते हुए कहा और खुद भी उसके पास वाली कुर्सी पर बैठ गई।
“कहो।” अखबार पढ़ते-पढ़ते ही नवीन बोला।
“पिछले कुछ दिनों से काफी बदले-बदले लग रहे हैं पिताजी…” वह चाय सिप करती हुई बोली, “शुरू-शुरू में तो नॉर्मल ही रहते थे—सुबह-सवेरे घूमने को निकल जाना, लौटने के बाद नहा-धोकर मन्दिर को निकल जाना और फिर खाना खाने के बाद दो-चार पराँठे बँधवाकर दिल्ली की सैर को निकल जाना। लेकिन…”
“लेकिन क्या?” नवीन ने पूछा।
“अब वह कहीं जाते ही नहीं हैं!…जाते भी हैं तो बहुत कम देर के लिए।” वह बोली।
“इसमें अजीब क्या है?” अखबार को एक ओर रखकर नवीन ने इस बार चाय के प्याले को उठाया और लम्बा-सा सिप लेकर बोला, “दिल्ली में गिनती की जगहें हैं घूमने के लिए…और पिताजी-जैसे ग्रामीण घुमक्कड़ को उन्हें देखने के लिए वर्षों की तो जरूरत है नहीं…वैसे भी, लीडो या अशोका देखने को तो पिताजी जाने से रहे…मन्दिर…या ज्यादा से ज्यादा पुरानी इमारतें,बस। सो देख ही डाली होंगी उन्होंने।”
“सो बात नहीं।” नीता उसकी ओर तनिक झुककर किंचित संकोच के साथ बोली,“मैंने महसूस किया है…कि…अपनी जगह पर बैठे-बैठे उनकी नजरें…मेरा…पीछा करती हैं…जिधर भी मैं जाऊँ!”
“क्या बकती हो!”
“मैंने पहले ही कहा था—नाराज न होना।” वह तुरन्त बोली,“आज और कल, दो दिन तुम्हारी छुट्टी है…खुद ही देख लो, जैसा भी महसूस करो।”
यों भी, छुट्टी के दिनों में नवीन कहीं जाता-आता नहीं था। स्टडी-रूम, किताबें और वह्। पिछले कई महीनों से पिताजी उसके पास ही रह रहे हैं। गाँव में सुनील है, जो नौकरी भी करता है और खेती भी। माँ के बाद पिताजी कुछ अनमने-से रहने लगे थे, सो सुनील की चिट्ठी मिलते ही नीता और वह गाँव से उन्हें दिल्ली ले आये थे। यहाँ आकर पिताजी ने अपनी ग्रामीण दिनचर्या जारी रखी, सो नीता को या उसको भला क्या एतराज होता। जैसा पिताजी चाहते, वे करते। लेकिन अब! नीता जो कुछ कह रही है…वह बेहद अजीब है। अविश्वसनीय। वह पिताजी को अच्छी तरह जानता है।
आदमी कितना भी चतुर क्यों न हो, मन में छिपे सन्देह उसके शरीर से फूटने लगते हैं। इन दोनों ही दिन नीता ने अन्य दिनों की अपेक्षा पिताजी के आगे-पीछे कुछ ज्यादा ही चक्कर लगाए; लेकिन कुछ नहीं। उसके हाव-भाव से ही वह शायद उसके सन्देहों को भाँप गए थे। अपने स्थान पर उन्होंने आँखें मूँदकर बैठे या लेटे रहना शुरू कर दिया।…लेकिन इस सबसे उत्पन्न मानसिक तनाव के कारण रविवार की रात को ही उन्हें तेज बुखार चढ़ आया। सन्निपात की हालत में उसी समय उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना जरूरी हो गया। डॉक्टरों और नर्सों ने तेजी-से उनका उपचार किया—इंजेक्शन्स दिये, ग्लूकोज़ चढ़ाया और नवीन को उनके माथे पर ठण्डी पट्टियाँ रखते रहने की सलाह दी…तब तक, जब तक कि टेम्प्रेचर नॉर्मल न आ जाए।
करीब-करीब सारी रात नवीन उनके माथे पर बर्फीले पानी की पट्टियाँ रखता-उठाता रहा। सवेरे के करीब पाँच बजे उन्होंने आँखें खोलीं। सबसे पहले उन्होंने नवीन को देखा, फिर शेष साजो-सामान और माहौल को। सब-कुछ समझकर उन्होंने पुन: आँखें मूँद लीं। फिर धीमे-से बुदबुदाये,“कहीं कुछ खनकता है…तो लगता है कि…पकी बालियों के भीतर गेहूँ खिलखिला रहे हैं…वैसी आवाज सुनकर अपना गाँव, अपने खेत याद आ जाते हैं बेटे…।”
यानी कि नीता की पाजेबों में लगे घुँघरुओं की छनकार ने पिताजी के मन को यहाँ से उखाड़ दिया! उनकी बात सुनकर नवीन का गला भर आया।
“आप ठीक हो जाइए पिताजी…” वह बोला,“फिर मैं आपको सुनील के पास ही छोड़ आऊँगा…गेहूँ की बालें आपको बुला रही हैं न…मैं खुद आपको गाँव में छोड़कर आऊँगा…आपकी खुशी, आपकी जिन्दगी की खातिर मैं यह आरोप भी सह लूँगा कि…छह महीने भी आपको अपने साथ न रख सका…।” कहते-कहते एक के बाद एक मोटे-मोटे कई जोड़ी आँसू उसकी आँखों से गिरकर पिताजी के बिस्तर में समा गए।
पिताजी आँखें मूँदे लेटे रहे। कुछ न बोले।
“सत-श्री अकाल!” निश्चिंत होकर उसने दहशतजदा सवारियों के स्वर में धीरे-से अपना स्वर मिलाया। सवारियों में से तो कोई-भी अब पीछे घूमकर देख ही नहीं रहा था।
अन्तिम संस्कार

पिता को दम तोड़ते, तड़पते देखते रहने की उसमें हिम्मत नहीं थी; लेकिन इन दिनों, वह भी खाली हाथ, उन्हें किसी डॉक्टर को दिखा देने का बूता भी उसके अन्दर नहीं था। अजीब कशमकश के बीच झूलते उसने धीरे-से, सड़क की ओर खुलने वाली खिड़की को खोला। दू…ऽ…र—चौराहे पर गश्त और गपशप में मशगूल पुलिस के जवानों के बीच-से गुजरती उसकी निगाहें डॉक्टर की आलीशान कोठी पर जा टिकीं।
“सुनिए…” पत्नी ने अपने अन्दर से आ रही रुलाई को रोकने की कोशिश करते हुए भर्राई आवाज में पीछे से पुकारा,“पिताजी शायद…”
उसकी गरदन एकाएक निश्चल पड़ चुके पिता की ओर घूम गई। इस डर से कि इसे पुलिसवाले दंगाइयों के हमले से उत्पन्न चीख-पुकार समझकर कहीं घर में ही न घुस आएँ, वह खुलकर रो नहीं पाया।
“ऐसे में…इनका अन्तिम-संस्कार कैसे होगा?” हृदय से उठ रही हूक को दबाती पत्नी की इस बात को सुनकर वह पुन: खिड़की के पार, सड़क पर तैनात जवानों को देखने लगा। अचानक, बगलवाले मकान की खिड़की से कोई चीज टप् से सड़क पर आ गिरी। कुछ ही दूरी पर तैनात पुलिस के जवान थोड़ी-थोड़ी देर बाद सड़क पर आ पड़ने वाली इस चीज और ‘टप्’ की आवाज से चौंके बिना गश्त लगाने में मशगूल रहे। अखबार में लपेटकर किसी ने अपना मैला बाहर फेंका था। वह स्वयं भी कर्फ्यू जारी होने वाले दिन से ही अखबार बिछा, पिता को उस पर टट्टी-पेशाब करा, पुड़िया बना सड़क पर फेंकता आ रहा था; लेकिन आज! ‘टप्’ की इस आवाज ने एकाएक उसके दिमाग की दूसरी खिड़कियाँ खोल दीं—लाश का पेट फाड़कर सड़क पर फेंक दिया जाए तो…।
मृत पिता की ओर देखते हुए उसने धीरे-से खिड़की बन्द की। दंगा-फसाद के दौरान गुण्डों से अपनी रक्षा के लिए चोरी-छिपे घर में रखे खंजर को बाहर निकाला। चटनी-मसाला पीसने के काम आने वाले पत्थर पर पानी डालकर दो-चार बार उसको इधर-उधर से रगड़ा; और अपने सिरहाने उसे रखकर भरी हुई आँखें लिए रात के गहराने के इन्तजार में खाट पर पड़ रहा।

उम्मीद

रिक्शेवाले को पैसे चुकाकर मैंने ससुराल की देहरी पर पाँव रखा ही था कि रमा की मम्मी और बाबूजी मेरी अगवानी के लिए सामनेवाले कमरे से निकलकर आँगन तक आ पहुँचे।
“नमस्ते माँजी, नमस्ते बाबूजी!” मैंने अभिवादन किया।
“जीते रहो।” बाबूजी ने मेरे अभिवादन पर अपना हाथ उठाकर मुझे आशीर्वाद दिया। माँजी ने झपटकर मेरे हाथ से ब्रीफकेस ले लिया और उसी सामनेवाले कमरे के किसी कोने में उसे रख आईं।
“मैं कहूँ थी न—पन्द्रह पैसे की एक चिट्ठी पर ही दौड़े चले आवेंगे!” ड्राइंग-रूम बना रखे उस दूसरे कमरे में हम पहुँचे ही थे कि वह बाबूजी के सामने आकर बोलीं,“दुश्मन को भी भगवान ऐसा दामाद दे।”
“भले ही उसको कोई बेटी न दे।” बाबूजी ने स्वभावानुसार ही चुटकी ली तो मैं भी मुस्कराए बिना न रह सका।
“तुम्हें पाकर हम निपूते नहीं रहे बेटा।” उनकी चुटकी से अप्रभावित वह भावुकतापूर्वक मेरी ओर घूमीं,“चिट्ठी पाते ही चले आकर तुमने हमारी उम्मीद कायम रखने का उपकार किया है।”
चिट्ठी पाते ही चले आने के उनके पुनर्कथन ने मुझे झकझोर-सा दिया। घर से मेरे चलने तक तो इनकी कोई चिट्ठी वहाँ पहुँची नहीं थी! मिट्टी के तेल की बिक्री का परमिट प्राप्त करने के लिए कुछ रकम मुझे सरकारी खजाने में बन्धक जमा करानी थी। समय की कमी के कारण रमा ने राय दी थी कि फिलहाल ये रुपए मैं बाबूजी से उधार ले आऊँ। अब, ऐसे माहौल में, इनकी किसी चिट्ठी के न पहुँचने और रुपयों के लिए आने के अपने उद्देश्य को तो जाहिर नहीं ही किया जा सकता था।
“दरअसल, आप लोग कई दिनों से लगातार रमा के सपनों में आ रहे थे।” मैं बोला, “तभी से वह लगातार आप लोगों की खोज-खबर ले आने के लिए जिद कर रही थी। अब…।” कहते हुए मैं बाबूजी से मुखातिब हो गया,“…आप तो जानते ही हैं दुकानदारी का हाल। कल इत्तफाक से ऐसा हुआ कि मिट्टी…” अनायास ही जिह्वा पर आ रहे अपने आने के उद्देश्य को थूक के साथ निगलते हुए मैंने कहा,“सॉरी, चिट्ठी पहुँच गई आपकी। बस मैं चला आया।”

कसाईघाट

बहू ने हालाँकि अभी-अभी अपने कमरे की बत्ती बन्द की है; लेकिन खटखटाहट सुनकर दरवाजा खोलने के लिए रमा को ही जाना पड़ता है। दरावाजा खुलते ही बगल में प्रमाण-पत्रों की फाइल दबाए बाहर खड़ा छोटा दबे पाँव अन्दर दाखिल होकर सीधा मेरे पास आ बैठता है। मैं उठकर बैठ जाता हूँ। उसकी माँ रजाई के अन्दर से मुँह निकालकर हमारी ओर अपना ध्यान केन्द्रित कर देखने लगती है।
“क्या रहा?” मेरी निगाहें उससे मौन प्रश्न करती हैं।
“कुछ खास नहीं। दयाल कहता है कि इंटरव्यू से पहले पाँच हजार नगद…!”
छोटे का वाक्य खत्म होते न होते बगल के कमरे में बहू की खाट चरमराती है,“ए, सो गए क्या?” पति को झकझोरते हुए वह फुसफुसाती महसूस होती है,“नबाव साहब टूर से लौट आए हैं, रिपोर्ट सुन लो।”
एक और चरमराहट सुनकर मुझे लगता है कि वह जाग गया है। पत्नी के कहे अनुसार सुन भी रहा है, अँधेरे में यह दर्शाने के लिए उसने अपना सिर अवश्य ही उसकी खाट के पाये पर टिका दिया होगा। इधर की बातें गौर से सुनने के लिए शान्ति बनाए रखने हेतु दोनों अपने-अपने समीप सो रहे बच्चों को लगातार थपथपाते महसूस होते हैं।
“सुनो, मेरे गहनों और अपने पी एफ की ओर नजरें न दौड़ा बैठना, बताए देती हूँ।” पति के सिर के समीप मुँह रखे लेटी वह फुसफुसाती लगती है।
बड़ा बेटा पिता का अघोषित-उत्तराधिकारी होता है। परिवार की आर्थिक-दुर्दशा महसूस कर बहू इस जिम्मेदारी से उसे मुक्त कराने के लिए निरन्तर प्रयत्नशील रही है; लेकिन सामाजिक उपेक्षा के भय ने बड़े को जबरन इसी खूँटे से बाँधे रखा है।
“अभी तुम सो जाओ।” मेरे मुँह से फूटता है,“सवेरे सोचेंगे।”
फाइल को मेज पर रख, कपड़े उतारकर छोटा अपनी माँ के साथ लगे बिस्तर में जा घुसता है। दरवाजा बन्द करके कमरे में आ खड़ी रमा भी मेरा इशारा पाते ही बत्ती बन्द कर अपनी माँ के पास जा लेटती है। घर में अजीब-सा सन्नाटा बिखर गया है। रिश्वत के लिए रकम जुटा पाने की पहली कड़ी टूट जाने के उपरान्त कसाईघाट पर घिर चुकी गाय-सा असहाय मेरा मन अन्य स्रोतों की तलाश में यहाँ-वहाँ चकराने लगता है।
सब ओर अँधेरा है।

सेक्युलर

गाँव में पता नहीं किस बात पर दो परिवारों में लाठियाँ चल गयीं। खूब सिर फूटे, हड्डियाँ टूटीं। औरतों के कपड़े फटे और...।
पुलिस पहुँची। कुछ को अस्पताल में डाल आई, कुछ को हवालात में डाल दिया। दोनों ओर के बचे-खुचे लोग अपने-अपने आकाओं की ओर दौड़े। एक ने ‘इस’ राजनीतिक-दल का दामन थामा तो दूसरे ने ‘उस’ के तलवे चाटे।
“ओ पाट्टी किस जाती को बिलौंग करता है?” ‘इस’ के नेता ने कान को कुरेदते हुए पूछा।
“अपनी ही जाती का है ससुरा।”
“अपनी ही जाती का पाट्टी से किस ग्राउंड पर लड़ोगे?” नेता हताश स्वर में बुदबुदाया।
“मतलब?”
“मतलब ये...ऽ...कि सबरन रहा होता तो...अब किसके खिलाफ बोलेंगे?”
“बोलेंगे न सरकार…” उनकी हताशा पर वह तुरन्त बोला,“वे लोग ‘उस’ पार्टी की सपोर्ट पा रहे हैं...पुलिस पर दवाब बनाकर बाहर भी निकाल चुके हैं अपने कई आदमियों को...।”
“अइसा!” यह सुनते ही सांसद-सर की बाँछें खिल उठीं,“तब तो समझो बन गया बात...। ऊ साला कम्यूनल पाट्टी...असान्ती फैलाया इलाके में... गाँव-बिरादरी को लड़ाया आपस में...दलितों पर जानलेवा हमला कराया...पुलिस भी दलितों को ही परेशान कर रही है...। बहुत तगड़ा बेस बन गया...वाह ! ...अब देख, मैं कैसे उनकी माँ-बहन को नंगा करता हूँ भरे सदन में...। कुल दस हजार लूँगा...ला, पेशगी निकाल...।”
******
डॉ. बलराम अग्रवाल का जन्म २६ नवंबर, १९५२ को उत्तर प्रदेश के जिला बुलंदशहर में हुआ था. आपने हिन्दी साहित्य में एम.ए., अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा, और ’समकालीन हिन्दी लघुकथा का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन’ विषय पर पी-एच.डी. की उपाधि प्राप्त की.

लेखन व सम्पादन : समकालीन हिन्दी लघुकथा के चर्चित हस्ताक्षर. सभी स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में लेख, कहानी, लघुकथा आदि प्रकाशित. अनेक रचनाएं विभिन्न भारतीय भाषाओं में अनूदित व प्रशंसित . भारतेम्दु हरिश्चन्द्र , प्रेमचंद, प्रसाद, शरत, रवींद्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी आदि वरिष्ठ कथाकारों की चर्चित/ज़ब्त कहानियों के संकलनों के अतिरिक्त कुछेक लघु-पत्रिकाओं व लघुकथा-विशेषांकों का संपादन. प्रेमचंद की लघुकथाओं के संकलन ’दरवाज़ा’ (२००५) का संपादन. ’अडमान-निकोबार की लोककथाएं’(२००१) का अंग्रेजी से अनुवाद व पुनर्लेखन.

हिन्दीतर भारतीय कथा-साहित्य की श्रृंखला में ’तेलुगु की सर्वश्रेष्ठ कहानियां’ (१९९७) तथा ’मलयालम की चर्चित लघुकथाएं’ (१९९७) के बाद संप्रति तेलुगु की लघुकथाओं पर कार्यरत. अनेक विदेशी लुघुकथाओं पर कार्यरत. अनेक विदेशी लघुकथाओं व कहानियों के अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद प्रकाशित.

अनेक वर्षों तक रंगमंच से जुड़ाव. कुछ रंगमंचीय नाटकों हेतु गीत-लेखन भी. हिन्दी फीचर फिल्म ’कोख’ (१९९४) के संवाद-लेखन में सहयोग.

कथा-संग्रह ’सरसों के फूल’ (१९९४), ’दूसरा भीम’ (१९९६) और ’चन्ना चरनदास’ (२००४) प्रकाशित.
सम्प्रति : स्वतन्त्र लेखन .

हिन्दी
ब्लॉग : www.jangatha.blogspot.com
सम्पर्क : एम-७०, नवीन शाहदरा, दिल्ली -११००३२.
फोन . ०११-२२३२३२४९
मो. ०९९६८०९४४३१