त्रैमासिक पत्रिका सम्बोधन (सम्पादक-क़मर मेवाड़ी) के अप्रैल-जून,२०१४ अंक में वरिष्ठ कथाकार माधव नागदा द्वारा लिखी गयी मेरे सद्यः प्रकाशित उपन्यास ’गलियारे’ की समीक्षा प्रकाशित हुई है. जिन मित्रो को सम्बोधन नहीं पहुंच पाती उनके लिए समीक्षा यहां प्रस्तुत है:
अन्धे गलियारों से गुज़रकर
माधव नागदा
‘गुलाम बादशाह’ से चर्चित कथाकार रूपसिंह चंदेल का ‘गलियारे’ सद्यःप्रकाशित उपन्यास है जिसमें अपने
अनुशासन के लिए प्रसिद्ध खास प्रशासनिक विभाग के गलियारों में दम तोड़ती एक
ईमानदार शख़्सियत की मर्मस्पर्शी किंतु चौंकाने वाली दास्तान बयान की गई है | चौंकाने वाली इसलिए कि इन गलियारों में आम आदमी की पैठ
मुमकिन नहीं है और एक भ्रम सा बना हुआ है कि यहां सब कुछ साफ-सुथरा है | अतः जब चंदेल भ्रम के इस मकड़जाल को छिन्न-भिन्न करते हुए
असलियत सामने लाते हैं तो पाठक एकबारगी चौंक जाता है |
उपन्यास आरंभ होता है उस प्रशासनिक कार्यालय
से जहां प्रीति दास निदेशक है | ताना-बाना इस प्रकार बुना गया है कि सुधांशु
कुमार दास के तीसरे हार्ट अटेक का फोन आने के पश्चात् कहानी फ्लैशबेक में चलती है | सुधांशु के ग्राम्य संस्कार, आगे पढ़कर कुछ बनने की महत्त्वाकांक्षा, रवि राय की सहायता से दिल्ली के कॉलेज में
प्रवेश और वहां प्रीति मजूमदार से मुलाकात | धीरे-धीरे दोनों एक दूसरे से प्रेम करने
लगते हैं | यहां शिक्षा मंत्रालय के एडिशनल सेक्रेटरी
नृपेन मजूमदार की बेटी प्रीति और निम्न मध्यवर्गीय मानसिकता के भंवर में फंसे
सुधांशु के विचारों व व्यक्तित्व का अंतर बड़े ही बारीक रूप में उभरकर आता है जो
कि भविष्य में उनके संबंधों में आने वाले झंझावात की तरफ हल्का इशारा करता
है | सुधांशु की मेहनत रंग लाती है | उसका आई. ए. एस. में चयन हो जाता है | तत्पश्चात् प्रीति और सुधांशु की शादी हो जाती है , हालांकि स्टेटस की भिन्नता के चलते सुधांशु प्रारंभ में
ना-नुकुर करता है लेकिन प्रीति के माता-पिता द्वारा समझाने पर मान जाता है | विवाह के पश्चात् प्रीति का भी आई ए एस में चयन हो जाता है
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(माधव नागदा)
देश के प्रत्येक
पढ़े-लिखे युवा का सपना होता है कि वह आई. ए. एस. बने | यहां तक कि कई लोग डॉक्टर, इंजीनियर और प्रोफेसर जैसे सम्मानजनक पदों को तिलांजलि देकर इधर आना पसंद
करते हैं क्योंकि यहां रुतबा और बेशुमार रुपया है | मेरे एक मित्र आई. ए. एस. को इंडियन अवतार सेवा कहा करते थे क्योंकि इस
वर्ग के अधिकारी स्वयं को किसी अवतार से कम नहीं समझते | किंतु ‘गलियारे’ पढ़ते हुए हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि इसे ‘सेवा’ कहना सेवा जैसे पवित्र शब्द का अपमान है | नाम होना चाहिए ‘इंडियन अवतार सेना |’ एक ऐसी सेना जो इस महान लोकतांत्रिक देश को लूटने में
सम्मिलित है | वस्तुतः प्रशिक्षण काल में ही प्रशिक्षुओं
के मन में यह बात कूट-कूटकर भर दी जाती है कि वे देश की उस सेवा वर्ग का हिस्सा
हैं जिसे विशिष्ट, महान, प्रतिभाशाली और गौरवशाली माना जाता है | कभी सुधांशु की सहजता, सरलता और ग्राम्य भोलेपन से प्रभावित होकर उससे विवाह रचाने वाली सेल्फ मेड
नृपेन मजूमदार की संस्कारित पुत्री प्रीति इस अवतार सेना में चयनित एवं प्रतिरक्षा
वित्त विभाग में पदस्थापित होने के पश्चात् तेजी से बदलने लगती है | वह सुधांशु से कहती है, ‘देखते हो अपने संयुक्त निदेशक को, लग्जरी गाड़ी में चलते हैं | वेतन से कभी ऐसी कार खरीद पाते वह ?’ यहीं से प्रीति और सुधांशु के मध्य दूरियां
बढ़ना आरंभ हो जाती हैं | प्रीति का व्यवहार उत्तरोत्तर कृत्रिम बनता
चला जाता है और वह घर में भी ‘ब्युरोक्रेटिक सीरियसनेस’ ओढ़ लेती है गोया सुधांशु उसका मातहत हो | चंदेल ने अफसरों की क्रूर सामंती मानसिकता का अच्छा खाका
खींचा है | ये लोग बाबू का गला रेतने को सदैव तत्पर
रहते हैं जबकि एक दूसरे के गुनाहों पर पर्दा डालना अपना फर्ज समझते हैं | सेक्शन अफसर स्वामीनाथन की मनःस्थिति के माध्यम से निदेशक, सहायक निदेशक स्तर के अधिकारियों के अहंकार और पाखण्ड का
सटीक विवेचन किया गया है, ‘गरीब घर के बच्चे भी जब इस वर्ग का हिस्सा
बनते हैं तब उनकी मानसिकता बदल जाती है| वे जिस वर्ग से आते हैं उसे सबसे पहले भूलने
का प्रयत्न करते हैं | दफ्तर में सेक्शन अफसर, बाबू, चपरासी सभी उनके लिए उसी प्रकार हैं जैसे एक
समय किसी जमींदार के लिए किसान और मजदूर होते थे |’ स्वामीनाथन अनुभव करता है कि मुख्यालय में हर समय कोई काली छाया मंडराती रहती
है | चंदेल ने यहां कार्यरत आम कर्मचारी के भय और मर-मरकर जीने
की मजबूरी का बेहद सधी हुई भाषा में इस तरह चित्रण किया है जैसे यह कोई आंखों देखा
हाल हो |
इस वर्ग का दूसरा स्याह पहलू है कमीशनखोरी | सुधांशु देखता है कि कांट्रेक्टर फर्जी बिल बनाकर लाते हैं
जो कि अब तक बिना हीलो-हुज्जत के पास होते आये हैं | चपरासी से लेकर बड़े साहब यानि प्रधान निदेशक तक सभी का शेयर बंधा हुआ है | सुधांशु आदर्शवादी है | वह भ्रषटाचार को देशद्रोह मानता है जो कि है भी| संबधित सीट पर पदभार ग्रहण करते ही सुधांश तमाम फर्जी बिल
रोक देता है | आगे वही होना था जो बेईमानों के बीच अकेले
ईमानदार व्यक्ति का होता है | वह अभिमन्यु की तरह चक्रव्यूह में फंस जाता
है | सभी कर्मचारी उसे ‘ईमानदार मूर्ख’ की संज्ञा से विभूषित करते हैं |प्रधान निदेशक इस कदर नाराज होते हैं कि उसे
सीट से हटाकर रिकार्ड रूम में बैठा देते हैं जो कि कार्यालय की सबसे बदतर
जगह है | उसके प्रति उच्चाधिकारियों का व्यवहार ऐसा
होता है जैसे कि वह प्रथम श्रेणी अधिकारी न होकर चपरासी हो | संयोग कि घर पर भी स्थितियां अनुकूल नहीं होती | मां को कैंसर शिनाख्त होता है और वह दुनिया छोड़ जाती है | सुधांशु उधर मां के अंतिम संस्कार में सम्मिलित होने जाता
है और इधर प्रीति अपने विभाग के अधिकारी डी पी मीणा के साथ पेंगें बढ़ा रही होती
है | सुधांशु बुरी तरह टूट जाता है | मीणा उसका स्थानांतरण मद्रास करवा देता है | सुधांशु जो कभी शराब से नफरत करता था पियक्कड़ होकर बरबादी
की राह पर चल देता है | कविताएं छूट जाती हैं, लिखना-पढ़ना बंद हो जाता है | शरीर खोखला हो जाता है और अंततः तीसरे हृदयाघात के पश्चात्
वह इस दुनिया को अलविदा कह देता है |
तो यह हश्र होता है भ्रष्टाचार के खिलाफ रुख
अख्तियार करने वाले एक आदर्शवादी अधिकारी का |
रूपसिह चंदेल ने सब कुछ अत्यंत
विश्वसनीय ढंग से चित्रित किया है | लगता है उन्होंने इन विभागों की अंदरुनी
स्थितियों का बहुत बारीकी से अध्ययन किया है | हालांकि कमोबेश ये ही स्थितियां दूसरे विभागों की भी हैं | परंतु प्रतिरक्षा विभाग महत्त्वपूर्ण होने के नाते यहां की
ब्युरोक्रेटिक तानाशाही भी बुलंदी पर है | यह विभाग अतिसंवेदनशील मामलात के लिए जाना
जाता है किंतु उपन्यास से गुजरते हुए लगता है कि यहां के प्रशासनिक अधिकारी
अतिसंवेदनशून्य हैं | हद तो तब होती है जब सुधांशु अपनी मां के
इलाज के लिए छुट्टियां बढ़ाता है तो प्रधान निदेशक पाल उसे डांटते हुए कहता है, ‘सभी के यहां कोई न कोई बीमार होता ही रहता है, ऐसे तो दफ्तर बंद कर देना चाहिए , करवायें जाकर सभी अपने रिश्तेदारों का इलाज |’ यह चरम संवेदनहीनता है जहां पी डी को मां केवल रिश्तेदार
नजर आती है | ऐसे वातावरण में किसी भी संवेदनशील इंसान का
दम घुटना स्वाभाविक है | और जब प्रीति दास को पति सुधांशु कुमार दास
की मृत्यु का समाचार मिलता है तो वह सिर्फ ठंडी सांस भरकर अपने पीए को डिक्टेशन
देने में लग जाती है | प्रीति का अमानवीयकरण और नैतिक पतन भी इसी
तंत्र की देन है |
उपन्यास में कई प्रसंग ऐसे हैं जिन्हें पढ़कर
पाठक तिलमिलाए बिना नहीं रहता | उसका अंतस बार-बार आक्रोश से भर उठता है | और यही इस उपन्यास की सबसे बड़ी सफलता है | वस्तुतः आज इस महादेश में ईमानदार और आदर्शवादी इंसान की
कोई कद्र नहीं है | कहने को हमारा देश लोकतंत्र है मगर लोक की
हालत बदतर है तो महज इसलिए क्योंकि ‘अवतार सेना’ के तीनों अंग अर्थात् अफसर, सत्ताधीश और पूंजीपति अपनी जेबें भरने में
लगे हैं | इनमें से एक अंग अफसरशाही के कारनामों की
गहराई से पड़तालकर रूपसिंह चंदेल ने जिस निर्भीकता और संलग्नता के साथ अत्यंत रोचक
ढंग से ‘गलियारे’ उपन्यास में प्रस्तुत किया है वह निस्सन्देह पठनीय और सराहनीय है | इला प्रसाद इस उपन्यास पर टिप्पणी करते हुए ठीक ही कहती
हैं, ‘यह उपन्यास मात्र प्रेम कथा न होकर सरकारी
तंत्र की दुरवस्था, उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार, शोषण, कदम-कदम पर चल रही राजनीति, वर्ग संघर्ष एवं परिवेशगत विसंगतियों की कथा है |’
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समीक्ष्य कृति-गलियारे(उपन्यस), लेखक-रूपसिंह चंदेल, प्रकाशक-भावना प्रकाशन दिल्ली, प्रकाशन वर्ष-2014, पृष्ठ-264, मूल्य-500.00 रुपए
समीक्षक का पता-
लालमादड़ी(नाथद्वारा)-313301(राज)