सोमवार, 4 फ़रवरी 2013

पुस्तक चर्चा



डॉ. ज्योतिष जोशी की आलोचना पुस्तक उपन्यास की समकालीनता में मेरे  उपन्यास ’पाथर टीला’ के विषय में डॉ. जोशी के विचार.  

देखे, जिये और महसूस किये गये समय से साक्षात्कार

डॉ. ज्योतिष जोशी


इधर विषय के स्तर पर उपन्यास को अनेक स्तरों पर साधने की तत्परता जगी है. यह भी लक्ष्य किया जा सकता है कि नगरीय समस्याओं और अनेक दृष्टियों से आक्रान्त करने वाली मुश्किलें हिन्दी उपन्यासों के केन्द्र में रही हैं; पर भारतीय गॉंवों की बदहाली और उनकी लगातार बदशक्ल होती गयी तस्वीर को उठाने की कोशिशें कम देखी गयी हैं. यह हैरान करने वाली बात है कि बार-बार प्रेमचन्द की परम्परा और उनकी संवेदना के उत्तराधिकार का दम भरनेवाले लेखकों में अधिकांश ने प्रेमचन्द की चिन्ताओं की तो कौन कहे, उनकी परम्परा में भी कुछ जोड़ा हो; यह विश्वासपूर्वक कहना कठिन है. ऎसे में जब कोई लेखक गॉंव में आ रहे परिवर्तनों, उसकी मुश्किलों, साम्प्रदायिक तनावों और नारकीय यन्त्रणा भोग रहे ग्रामीणों को चित्रित करने की चेष्टा करता है, तो यह निश्चय ही प्रशंसनीय कार्य है; तब और भी जब गॉंव आज लेखन के हाशिये पर है और वह एक योजना के तहत ही कभी-कभी याद कर लिया जाता है और वह योजना होती है –यान्त्रिक ढंग से गॉंव को बदल डालने की, जिसका गॉंवों के सन्दर्भ में कोई वास्तविक महत्व नहीं है. 

रूपसिंह चन्देल अपने लेखन में उक्त दोनों तरह की प्रवृत्तियों से अलग हैं. उनकी कहानियां जीवन के गहरे कशमकश की उपज हैं तो उपन्यास देखे, जिये और महसूस किये गये समय से साक्षात्कार. उनके यहां वर्णित यथार्थ के स्वरूप से असहमति बिठायी जा सकती है, चरित्रों के प्रति उनके बर्ताव और उसके निहितार्थों से भी मतभेद की गुंजाइश हो सकती है, पर उनकी लेखकीय ईमानदारी पर संदेश करना अनुचित होगा. यथार्थ के जिन पक्षों पर बात करने का रिवाज इधर आम हुआ है, यह जरूरी नहीं है कि हर लेखक उसी तानेबाने में अपने को व्यक्त करे और स्वयं की देखीभाली तथा जी गयी वास्तविकता से आंखें चुरा ले. रूपसिंह चन्देल का कथाकार अपने पर भरोसा अधिक करता है, इसलिए उस पर वे लोग भरोसा कम कर सकते हैं जिन्हें अब भी मुगालता है कि रचना अनुभव से कम सामाजिक अध्ययनों से अधिक वास्तव रखे तो समाज में क्रान्तिकारी बदलाव आ सकता है.

’रुकेगा नहीं सवेरा’ और ’रमला बहू’  के बाद चन्देल ने जिस ’पाथरटीला’   उपन्यास को लिखा है उसमें उपर्युक्त उठाये गये प्रश्नों की छाप है और अनेक स्तरों पर लेखक के विन्यास को ग्रामीण यथार्थ के अधिक निकट मानने की मजबूरी भी पैदा होती है. ’पाथरटीला’ गांव तो एक उदाहरण है उस अंधेरे का जो उत्तर भारत के गांवों में पसरता जा रहा है. अनेक धड़ों, वर्गों और जातियों में बंटे ग्रामीण किसी अघोषित जमींदार के रैय्यत से अधिक अहमियत नहीं रखते और कई बार उस जालिम जमींदार के कहे पर ऎसे-ऎसे काम अंजाम देते हैं जो विश्वसनीय तो नहीं लगते, लेकिन उन पर सन्देह करना भी सम्भव नहीं होता. यह कम हैरानी की बात नहीं है कि प्रेमचन्द के बाद गांव रचनाओं से इस कदर बाहर हो गये कि दशकों तक गांव का जीवन परिदृश्य से बाहर रहा. बहुत बाद में जब कुछ लेखकों ने उपन्यासों में गांव को उठाने की कोशिश की, पर गांव इस बीच इतने बदल चुके थे कि लेखकीय संवेदना उन्हें पूरी तरह पकड़ने में सफल नहीं हुई. कहीं बाढ़ की विभीषिका से गांव का दारिद्र्य उभरा तो कहीं भोले सीमान्त किसानों का शोषण. कहीं सम्बन्धों में पैसे के कारण आ रहे खिंचाव प्रस्तुत हुए तो कहीं राजनीति के चलते अवरुद्ध हुई विकास-यात्रा की तस्वीरें उभरीं. पर सबके साथ मुश्किल यह लक्ष्य करनेवाली है कि असमान भूमि के वितरण और जाति केन्द्रित श्रेष्ठता के आधार पर जिस तरह सामाजिक ढांचा निर्मित होता गया है; उसे उसकी जटिलताओं में पकड़ने की चेष्टा कम हुई है. यही कारण है कि लगभग पैंसठ वर्षों के गुजर जाने के बाद भी गांवों की वही तस्वीर हिन्दी कथाकृतियों में दिखायी देती है जिसका आरम्भ प्रेमचन्द ने किया था, उसके आगे का विकास आरुद्ध रहा है और गांव एक पहेली होते गये हैं. ऎसे में ’पाथरटीला’ एक ऎसा उपन्यास अवश्य बन सका है जो हाल के वर्षों में आये गांव के बदलाव को रेखांकित करता है और बताता है कि दरअसल खोट कहां है. गजेन्द्र सिंह, जो गांव का नम्बरदार है और दबंग भूमिपति, वह इस उपन्यास का नायक है. इस बीच आयी अनेक समीक्षाओं में लोगों ने चन्देल पर गजेन्द्र सिंह को नायकत्व देने के प्रसंग में आपत्ति की है और एक नकारात्मक चरित्र को कथा के केन्द्र में रखने को अनुचित ठहराया है, पर यह आरोप बेबुनियाद है. गजेन्द्र सिंह प्रभुवर्ग का प्रतिनिधि है. उपन्यास की पूरी कथा चूंकि उसके इर्द-गिर्द बुनी गयी है, इसलिए केन्द्रीयता उसे हासिल हो जाती है. पर इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि वह उपन्यासकार की सहानुभूति पा गया है या वह कोई आदर्श चरित्र की छवि पा जाता है. यह एक तरह के प्रतीकात्मक प्रयोग के तौर पर भी देखे जाने को प्रस्तावित करता है; जब सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में सत्ता ऎसे ही बाहुबलियों के हाथों में सिमट आयी है. गजेन्द्र सिंह के नायकत्व पर आपत्ति करने वालों से यह पूछा जाना चाहिए कि गांव, पंचायत, कस्बा, नगर, प्रान्तीय और केन्द्रीय राजधानी में बैठे सत्तापुरुष क्या पवित्र या नैतिक दृष्टि से इस योग्य हैं कि उन्हें सत्ता का दायित्व दिया जा सके? वस्तुतः इस प्रसंग में विचारणीय यह है कि वे सत्ता छीन लेते हैं, देने की जरूरत नहीं रह जाती. अब प्रश्न यह उठता है कि जो जीवन में पाखण्ड और अय्याशी का प्रतिनिधि है, वही अगर रचना में दिखायी देता है तो असुविधा क्यों होनी चाहिए. गजेन्द्र सिंह को दायित्व मिलता नहीं, वह ले लेता है. उसका वह चरित्र है कि वह दूसरे के अधिकारों का उपभोग करता है और तनिक भी विचलित नहीं  होता. उपन्यास पाठक को प्रेरित करता है कि वह ऎसे नायकों का समूल नाश करे. ऎसे नायकों से उसे निजात पाना चाहिए न कि उसको आदर्श बनाना चाहिए.

’पाथर टीला’ का नायक लम्पट और क्रूर गजेन्द्र सिंह धन और शक्ति को बढ़ाने के प्रायः प्रत्येक खेल में माहिर है और लगातार ऎसे उद्यम करता रहता है. बरियार बाबा को अपना पूर्वज घोषित कर उनके नाम मन्दिर बनाने के अभियान से लेकर अपने विश्वस्त लोगों के दोहन करने तक गजेन्द्र सिंह एक आततायी के रूप में सामने आता है. वह हर स्तर पर असामाजिक कार्य करता जाता है. मन्दिर निर्माण के नाम पर चन्दे की उगाही, भैरोसिंह को मृत घोषित कर उनकी जायदाद को हथियाना, धर्मशाला की दखल-दहानी और धन की आय के लिए अपने ही घर में जुए और नशे का धन्धा करना गजेन्द्र सिंह की आदत है. उसके खिलाफ कोई चूं तक नहीं बोलता. गांव के कथित प्रधान हरिहर अवस्थी उसके इस्तेमाल की चीज बनकर रह गये हैं जिनकी कोई हैसियत नहीं बन पाती. गजेन्द्र सिंह की पत्नी सुनन्दा अक्सर उसे समझाने का यत्न करती है, पर सब व्यार्थ सिद्ध होता है. कमली गजेन्द्र सिंह की भतीजी है जो मां-बाप के गुजर जाने के बाद अनाथ है और अपने इस दैत्य चाचा के साथ रहने को विवश है. वह आये दिन उस पर अत्याचार करता है और चुपचाप सहने के सिवा कमली के पास कोई चारा नहीं रह जाता. डॉ. गोविन्द श्रीवास्तव गजेन्द्र सिंह के मददगार हैं तो स्थानीय पुलिस उसका संरक्षक. रामदीन, गनपत, रामरतन, शिवरतन, जग्गू आदि उसके साम्राज्य के गण हैं जो धीरे-धीरे गजेन्द्र का ग्रास बनते हैं और वह सबकी दुर्दशा का कारण बनता है.


उपन्यास में हरिहर अवस्थी, बलजीत सिंह, रघुवीर सिंह, विलायती खां, बुधवा, बलवीर, पुत्तन पांडे और अजय जैसे चरित्र भी हैं जो गजेन्द्र सिंह के अत्याचारों का समर्थन नहीं करते, पर उसके सीधे विरोध का साहस उनमें नहीं है. गजेन्द्र तो उल्टे अपने ही लोगों को एक-एक कर किसी न किसी बहाने पुलिस के सुपुर्द करता रहता है, पर हरिहर अवस्थी जैसे प्रधान सच्चाई जानने के बावजूद अपनी जुबान खोलने से डरते हैं. गजेन्द्र का अत्याचार बढ़ता जाता है और वह दुगने उत्साह से आंतक फैलाता है वह विलायती खां के मस्जिद बनाने के फैसले को चुनौती देता है और गांव में साम्प्रदायिक तनाव फैलाता है. गजेन्द्र सिंह के अनाचार का आलम यह है कि उसके सामने टिकने की हिम्मत किसी में नहीं है; पर वह अपने ही घर में पराजित होने लगता है. उसकी भतीजी बलजीत सिंह के बेटे अजय से प्रेम करने लगती है और कड़े शासन के बावजूद उससे मिलने में नहीं हिचकती. अजय शहर में पढ़ता है, उसमें प्रतिरोध की आग है, पर गांव में कोई साहस के साथ आगे नहीं आता कि वह इस दैत्य का सामना कर सके.

स्थितियां बदल जाती हैं. कमली विद्रोह करने को तैयार है, मस्जिद की नींव रख दी जाती है, मजदूर एक स्वर से गजेन्द्र सिंह के खेत में काम न करने का निर्णय लेते हैं, बलजीत सिंह और अजय को गजेन्द्र सबक नहीं दे पाते और अपने साथियों के डकैती में पकड़े जाने के साथ-साथ जुआ और नशाखोरी के धन्धे के खत्म हो जाने के कारण गजेन्द्र प्रकृति के न्याय का शिकार होता है. वह पागल हो जाता है और मृत्यु के मुंह में चला जाता है.

’पाथरटीला’ में गजेन्द्र सिंह के साम्राज्य के ध्वस्त होने की कथा अविश्वसनीय नहीं लगती. उपन्यासकार ने सामाजिक विद्रोह के मुकाबले प्रकृति के न्याय का अवलम्ब लेकर जिस तरह गजेन्द्र सिंह की मृत्यु को दिखाया है, वह इस स्तर पर भी श्लाघ्य है कि व्यक्ति भले ही अपने दायित्व भुला बैठे, प्रकृति अपना दायित्व नहीं भूलती और वह समय पर अपना निर्णय अवश्य सुनाती है. लोगों को लग सकता है कि यदि जनता विद्रोह कर उसे सजा देती तो उपन्यास अधिक सकारात्मक होता; पर यह तब कृत्रिम विधान होता; क्योंकि पूरे उपन्यास में सारी असहमतियों के बावजूद इस विद्रोह की पृष्ठभूमि दिखायी ही नहीं देती, इसलिए उपन्यासकार का निर्णय अनुचित नहीं लगता. प्रश्न यह अवश्य उठता है कि आजादी के ५० वर्षों बाद भी क्या गांवों तक उसकी छाया भी पहुंच पायी है? क्या इन स्थितियों को जानने की जरूरत भी किसी ने महसूस की है या गांवों की दशा सुधारने की कोई कोशिश भी किसी ने की है?

आजादी के वर्षों बाद यह एक भारतीय गांव की तस्वीर है. यह उन गांवों की भी तस्वीर है जिन्हें विकास का मॉडल बनाया जा रहा है और जिसे लेकर तरह-तरह की योजनाएं बनायी जाती हैं.

’पाथरटीला’ में गांव की जो शक्ल-सूरत है, वह कहीं से भी अविश्वसनीय नहीं है. निरक्षर, जड़, दकियानूस, दब्बू और संघर्ष से भागनेवाले लोग यदि नहीं हुए होते तो गजेन्द्र सिंह जैसे प्रभुओं की कैसे चल पाती. आततायी पुलिस ऎसे ही प्रभुओं को संरक्षण देती है और सत्ता में बैठे ओहदेदार भी. उपन्यास में शोषित और शोषक के बीच के फर्क की कोई शास्त्रीय व्याख्या नहीं है और न विभाजन. इधर निम्न और मझोली जातियों में आयी सामाजिक जागृति की छाया से भी उपन्यास दूर है. अगर ऎसा होता तो उपन्यास में गजेन्द्र सिंह के समानान्तर हरिहर अवस्थी, बलजीत सिंह या विलायती खां नहीं होते, वहां तब जग्गू, गनपत और शिवरतन होते. गजेन्द्र का अनाचार केवल मजदूरों के काम न करने के निर्णय से प्रभावित नहीं हो सकता. उसके लिए सामाजिक परिवर्तन और संघर्ष भी आवश्यक है. गजेन्द्र सिंह के मन्दिर निर्माण की योजना के बाद ही विलायती खां को मस्जिद कि सुधि क्यों आती है; यह प्रसंग भी उपन्यास में थोड़ा अटपटे ढंग से आता है और स्थितियों को उनके उत्कर्ष तक पहुंचने से रोक देता है. पर उपन्यास में एक व्यक्ति के आतंक और उसके भय से आक्रान्त ग्राम्य-जीवन के स्तरों, विडम्बनाओं और उसकी छवि देखनी हो तो ’पाथरटीला’ हाल के वर्षों में लिखे गये उपन्यासों में अवश्य ही उल्लेख्य माना जाएगा.

इस उपन्यास में एक ही साथ तीन कथाएं अनुस्यूत हैं –पहली और मुख्य कथा है गजेन्द्र सिंह की, दूसरी है बलजीत सिंह की और तीसरी रामलुभाया श्रीवास्तव की, जिनके पुत्र डॉ. गोविन्द श्रीवास्तव हैं और वे भी गजेन्द्र सिंह की सत्ता में सहायक बनते हैं. उपन्यास में आयीं तीनों कथाएं परस्पर सम्बद्ध हैं और उनमें एकाध स्थलों को छोड़कर कहीं कोई गतिरोध नजर नहीं आता. पर जैसा कि ऎसे महत्वाकांक्षी उपन्यासों की नियति होती है –उपन्यास में इतने चरित्र हैं कि उनका विकास ही नहीं दिखता. विलायती खां, बलजीत सिंह और सुनन्दा में बहुत-सी सम्भावनाएं थीं जिसे चन्देल ने अनदेखा किया है. अजय भी उपन्यास में भविष्य का संवाहक बनते-बनते रह गया है और बोलने से आगे कुछ नहीं कर पाता. अगर चन्देल उसे आगे आकर सीधे विद्रोह करने और कमली से अपने प्रेम को सार्वजनिक कर उसे एक निश्चित दिशा देने में अपनी भूमिका निभाने का अवसर देते तो शायद उपन्यास में एक आवेग आता. ’पाथर टीला’ की एक मुश्किल यह भी है कि इसके चरित्र अकेले में कुछ सोचते-विचारते नहीं लगते. उनमें अपने कर्म नहीं खटकते. इसका जीवन्त उदाहरण स्वयं गजेन्द्र सिंह है जो कभी भी चिन्तित नहीं दिखायी देता. वह कभी सोचता भी नहीं कि वह क्या कर रहा है और किन परिस्थितियों में घिरता जा रहा है. यह रूपसिंह चन्देल की एक बड़ी कमजोरी मानी जाएगी.

पर समग्रता से देखें तो कुछ कठिनाइयों के बावजूद ’पाथरटीला’ को आज के गांवों के परिप्रेक्ष्य में अनुभव, भाषा, विन्यास और संरचना के स्तर पर अच्छा उपन्यास अवश्य कहना होगा; क्योंकि गांव की विकृतियों के बहाने चन्देल ने सामाजिक जीवन की एक बड़ी जवाबदेही को इस उपन्यास में रेखांकित किया है, जिसके महत्व से इंकार नहीं किया जा सकता.
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’उपन्यास की समकालीनता’
लेखक – डॉ. ज्योतिष जोशी
भारतीय ज्ञानपीठ,
१८, इन्स्टीट्यूशनल एरिया, लोदी रोड,
नयी दिल्ली-११० ००३
पृ.२४०, मूल्य: २००/-


पाथर टीला – रूपसिंह चन्देल
प्रथम संस्करण (१९९८-सामयिक प्रकाशन)
संस्करण – २०१० (भावना प्रकाशन, १०९-A,
                         पटपड़गंज, दिल्ली-११० ०९१)
पृष्ठ – ३१६, मूल्य – ४५०/-
आवरण : राजकमल

फोन : भावना प्रकाशन – ०९३१२८६९९४७/ ०११-२२७५४६६३