बुधवार, 24 नवंबर 2010

पुस्तक चर्चा

चित्र : एस. राजशेखर
स्व. कन्हैयालाल नन्दन की आत्मकथा का एक अंश

कवि-पत्रकार स्व. कन्हैयालाल नन्दन की आत्मकथा के दो खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं. पहला खण्ड – ’गुजरा कहां कहां से ’ ’राजपाल एण्ड संस, मदरसारोड,कश्मीरी गेट, दिल्ली – ११० ००६से प्रकाशित हुआ, नदंन जी के अनुसार (दूसरे खंड की भूमिका), जिसे पाठकों का अपार प्यार मिला. उससे उत्साहित होकर उन्होंने दूसरा खण्ड लिखा जिसे –’कहना जरूरी था’ शीर्षक से सामयिक प्रकाशन , दरिया गंज , नई दिल्ली – ११० ००२ ने २०१० में प्रकाशित किया. प्रस्तुत है इसी खण्ड से एक महत्वपूर्ण अंश.

कोरा कागज कोरा ही रह गया

वह कोशिश भी मैंने तब की जब मैंने भारतीजी के मन में यह पूरी तरह स्थापित कर दिया कि कानूनी तौर पर मेरी गलतियां निकालकर और मुझे दोषी करार देकर वे मुझे ’टाइम्स ऑफ इंडिया’ से नहीं निकाल सकते. मेरे इस विश्वास के पीछे बहुत बड़ा हाथ था – इस्टैब्लिशमेंट डिपार्टमेंट के पहले उपप्रमुख और बाद में प्रमुख बने श्री कनैयालाल लालचंदानी का, जो मेरी संवेदनशीलता, मानसिक त्रास, मेरी सज्जनता और मेरी सहृदयता , सभी के गहरे प्रशंसक थे. मेरी कर्मनिष्ठा से वे ’धर्मयुग’ में एक-एक कदम से परिचित थे और भारतीजी के भेजे शिकायत-पत्रों के भी वे श्रेष्ठतम गवाह थे. उन्होंने तो मुझे यहां तक कह रखा था कि कोई भी बात मुझे इतनी गंभीरता से नहीं लेनी चाहिए कि वह मेरे स्वास्थ्य पर असर डाले. जहां तक नौकरी का सवाल है, उनके शब्द थे – ’मेरे रहते भारतीजी आपका कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे, ऎसा मैं आपको वचन देता हूं.”

मैंने उनसे जिरह की कि भारतीजी जब जान जाएंगे कि आप मेरे प्रति सहृदय हैं, तो वे मेरे खिलाफ किसी इंक्वायरी में आपको नहीं रहने देंगे. इस पर उनका कहना था कि “नंदन जी, ऎसी स्थिति तभी आएगी, जब ’टाइम्स ऑफ इंडिया’ मुझे नौकरी से निकाल देगा और यदि ऎसी स्थिति भी आई, तो मैं उनके नौकरी छोड़ने तक की स्थिति पैदा कर दूंगा.”

बहरहाल, इस सीमा तक की आश्वस्ति ने मुझे और मेरे जीवन को काफी सहज बना दिया था, लेकिन मैं आश्वस्ति की अभिव्यक्ति भी अपने व्यवहार से नहीं होने देना चाहता था. शायद भारतीजी भी बहुत कुछ इस बात को समझ गए थे कि कंपनी के कायदे-कानून ऎसे हैं कि वे मुझे तो क्या, अब एक मामूली क्लर्क आर.डी. शाह तक को नहीं निकाल सकते. भले कोई खुद ही हारकर नौकरी छोड़ जाए तो बात दूसरी है.

कुछ इन्हीं स्थितियों में मैंने एक दिन अपने मन को टटोला और जब उस दिन का सारा काम समाप्त हो अया, तो मैंने भारतीजी से इंटरकाम पर उनसे कुछ विचार-विमर्श करने की अनुमति मांगी. उन्होंने केबिन में आने को कहा, तो मैं एक कोरा कागज लेकर उनके पास पहुंचा और बोला, “डॉ. साहब, मैं आपसे एक बात करना चाहता हूं कि आप मुझे रोज-रोज जलील होने की स्थितियों में डाल देते हैं, मैं इसके योय व्यक्ति नहीं हूं. आप मुझे नहीं रखना चाहते, निकालना चाहते हैं, तो प्रेम से निकालिए, जलील करके नहीं. इसलिए आप मुझे निकालिए तो प्रेमपूर्वक. यह कोरा कागज मैं दस्तखत करके आपको सौंपता हूं, आप इस पर जो चाहें लिख लें.”

भारतीजी उस समय पेंसिल-रबड़ हाथ में लेकर अपने डमियों के शिड्यूल की उठापटक कर रहे थे. चौथे पेज को चौदहवें पर और चौदहवें को चौंतीसवें पेज पर. ’धर्मयुग’ के स्वरूप को सुष्ठ बनाने के लिए वे अक्सर ऎसा करते ही रहते थे. उनके एक हाथ में रबड़ थी और एक हाथ में पेंसिल. मेरी बात सुनते ही वे इस कदर नाराज हुए कि हाथ की रबड़ डमी पर जोर से पटककर मारी और बोले, “गेटआउट फ्राम हीयर, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है.” उन्होंने रबड़ इतने जोर से पटकी थी कि वह मेज से उछलकर केबिन के एक कोने में जाकर पड़ी.

मैंने सहमकर रबड़ उठाई, क्योंकि मैंने जानबूझकर ’ आ बैल मुझे मार’ किया था, और चुपचाप उनकी मेज पर रखकर केबिन से गेटआउट हो गया. मेरा कोरा कागज मेरे हाथ में मुझे उस शाम लगातार चिढ़ाता रहा और भारतीजी का सख्त नाराज होकर रबड़ पटकना एवं उस गुस्से की अभिव्यक्ति रबड़ की उछाल में करते हुए मुझे गेटआउट कहना, रह-रहकर मेरे दिमाग में घूमता रहा. भारतीजी ने इतनी जोर से शायद ही कभी किसी को ’गेट-आउट’ कहा हो.
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--- कहना जरूरी था – कन्हैयालाल नंदन
सामयिक प्रकाशन
३३२०-२१, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग,
दरियागंज, नई दिल्ली – ११० ००२

पृष्ठ : १७६, मूल्य : २५०

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पत्रिका

’समीक्षा’ पत्रिका अपने नए कलेवर में

४३ वर्ष पहले हिन्दी के वरिष्ठ और चर्चित आलोचक डॉ. गोपाल राय ने ’समीक्षा’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया था. पुस्तक समीक्षा केन्द्रित इस पत्रिका ने कम समय में ही इतनी चर्चा प्राप्त की कि यह डॉ. राय के नाम का पर्याय बन गई. विश्वविद्यालय से अवकाश ग्रहण करने के बाद डॉ. राय जब दिल्ली आ गए तब पत्रिका का उनके साथ दिल्ली आना स्वाभाविक था. लेकिन दिल्ली आने के बाद पत्रिका उस प्रकार चर्चा में नहीं रही, जिसप्रकार वह पटना काल में रही थी. कारण जो भी रहे हों, लेकिन पत्रिका का प्रकाशन नियमित होता रहा. लंबे समय तक इसके प्रकाशन का दायित्व ’अभिरुचि प्रकाशन’ के श्री श्रीकृष्ण जी निभाते रहे और इस कार्य में डॉ. हरदयाल की अहम भूमिका रही. श्रीकृष्ण की अस्वस्थता के कारण ’अभिरुचि प्रकाशन’ के बंद हो जाने के बाद पत्रिका का प्रकाशन अन्यत्र से होने लगा … जो संतोषजनक नहीं था.

हाल में सामयिक प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली के महेश भारद्वाज के इस पत्रिका से जुड़ने के बाद पत्रिका के स्वरूप में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ---- एक प्रकार से कायापलट कहना होगा. न केवल सामग्री के स्तर पर बल्कि कलेवर के स्तर पर भी. भारद्वाज की भूमिका इस पत्रिका में प्रबन्ध सम्पादक की है . सामग्री का चयन और सम्पादन सत्यकाम (डॉ. राय के पुत्र) करते हैं और उसका प्रकाशन और वितरण महेश भारद्वाज. महेश एक सुरुचि सम्पन्न युवा प्रकाशक हैं और प्रकाशन के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग करना उन्हें पसंद है…… ’समीक्षा’ में यह प्रतिभाषित है.

महेश भारद्वाज के प्रबंध सम्पादकत्व में ’समीक्षा’ का दूसरा अंक हाल में प्रकाशित हुआ है, जिसमें सुरेन्द्र चौधरी को याद करते हुए डॉ. गोपाल राय का आलेख ’सांच कहौं--- ’, डॉ. नामवर सिंह की आलोचना पुस्तक –”हिन्दी का गद्यपर्व’ पर रवि श्रीवास्तव की समीक्षा, परमानन्द श्रीवास्तव की आलोचना पुस्तक ’ रचना और आलोचना के बदलते तेवर’ पर पूनम सिन्हा की समीक्षा, सहित कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक आदि विधाओं की लगभग १७ अन्य पुस्तकों की पुस्तकों की समीक्षा को इस अंक में स्थान दिया गया है.

’समीक्षा’ – (जुलाई-सितम्बर २०१०)
सम्पादक – सत्यकाम
प्रबंध सम्पादक – महेश भारद्वाज

प्रबंध कार्यालय
सामयिक प्रकाशन
३३२०-२१ जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग,
दरियागंज, नई दिल्ली-११००२

फोन नं ०११-२३२८२७३३

सम्पादकीय कार्यालय
एच-२, यमुना, इग्नू, मैदानगढ़ी,
नई दिल्ली – ११००६८

फोन : ०११-२९५३३५३४

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

पुस्तक चर्चा





समीक्षा से पहले कुछ बातें:

’पाथर टीला’ पर वरिष्ठ कवि-कथाकार अशोक आन्द्रे ने संचेतना के
लिए समीक्षा लिखी थी. समीक्षा प्रकाशित होने के पश्चात उपन्यास पर
राजनीति करने वाले कथाकारों में से एक ने (जिसका उपन्यास उन्हीं दिनों एक
नामी प्रकाशक के यहां से प्रकाशित हुआ था) प्रकाशक को फोन करके अपनी भड़ास
निकाली. उसके बाद उस लेखक ने छद्म नामों से मेरे पास फोन करना प्रारंभ
किया. कभी वह स्वयं आवाज बदलकर करता तो कभी अपने किसी मित्र से करवाता.
एक दिन फोन करने वाले व्यक्ति ने कहा कि वह जी.टी.वी. से बोल रहा है और
वह ’पाथर टीला’ पर जी.टी.वी. के लिए फिल्म बनाना चाहता है, क्योंकि यह
उपन्यास प्रेमचन्द्र की याद दिलाता है. प्रकाशक से अपनी भड़ास निकालते समय
भी कथाकार महोदय ने यह बात कही थी. जी.टी.वी. के नाम पर फोन करने वाले
व्यक्ति की बात से मैंने अनुमान लगा लिया कि इसे उन कथाकार महोदय ने वैसा
कहने के लिए कहा होगा. मैंने उससे कहा कि वह आकर मुझसे मिल ले. मिलने से
उसने इंकार करते हुए कहा कि मैं केवल मौखिक अनुमति मात्र दे दूं.

"मेरी जानकारी के अनुसार जी.टी.वी. किसी उपन्यास पर फिल्म नहीं
बनाता---फिर मेरे उपन्यास पर क्यों ?" मैंने पूछा.

"क्योंकि आपका उपन्यास पाठकों को प्रेमचन्द की याद दिलानेवाला एक
महत्वपूर्ण उपन्यास है."

"ओ.के.----" मैंने कुछ देर तक सोचने का नाटक किया फिर बोला, "आप
जी.टी.वी. के लेटर पैड पर अनुमति के लिए किसी वरिष्ठ अधिकारी से लिखवाकर
मुझे पत्र लिख भेजें .मैं उसका उत्तर दे दूंगा."

"उसकी आवश्यकता नहीं है. आपको मेरी बात का यकीन करना चाहिए."

"मेरी अनुमति तभी मिलेगी."

उसने फोन काट दिया.

इस घटना के कुछ दिनों बाद ही किन्हीं बरनवाल के नाम से फोन आया. आवाज
बदलकर वह फोन लेखक महोदय ही कर रहे थे. उसने कहा, "मैं आपके उपन्यास
’पाथर टीला’ पर जे.एन.यू. से एम.फिल. करना चाहता हूं. यह एक महत्वपूर्ण
उपन्यास है. प्रेमचन्द की परम्परा को आगे बढ़ाता है. आपसे अनुमति चाहिए."

"एम.फिल. या पी-एच.डी. करने के लिए किसी शोधार्थी को लेखक से अनुमति लेने
की आवश्यकता नहीं होती. मैं यह अवश्य जानना चाहता हूं कि आपका निर्देशक
कौन है ?"

"निर्देशक का नाम तय नहीं हुआ.. मैं आपसे फोन पर उसके बारे में कुछ
डिस्कस करना चाहता हूं."

"मिलकर बात करना बेहतर होगा. या तो आप मेरे कार्यालय आ जाएं या कॉफी होम
में मिलें और उससे बेहतर होगा कि मेरे घर पधारें."

"मिलने की क्या आवश्यकता---- आप फोन पर ही बता दें." उसने कहा.

"आप ’पाथर टीला’ पर कभी शोध नहीं कर पाएगें." मैंने फोन काट दिया था.

यह बात मैंने प्रकाशक स्व. जगदीश भारद्वाज जी (महेश भारद्वाज के पिता) को
बताई. उन्होंने उस कथाकार का नाम लेते हुए कहा, "चन्देल जी आप क्यों
परेशान हैं इस बात से --- परेशान तो वह है --- उसे रहने दें. आपके
उपन्यास की चर्चा ने उसकी दिन-रात की नींद उड़ा दी है. आप मस्त रहें---
अपना ध्यान लिखने में केन्द्रित करें और उन्हें इन सब मामलों में उलझे
रहने दें."

और मैंने जगदीश जी की बात मानकर उस विषय में सोचना बंद कर दिया था.

यहां यह उद्घाटित कर दूं कि यह वही कथाकार था जिसपर पिछले दिनों करोड़ों
रुपए के सरकारी घोटाले का आरोप लगा था.

प्रस्तुत है अशोक आन्द्रे की वह समीक्षा .

समीक्षा :

प्रेमचन्द की याद दिलाता है ’पाथर टीला’

* अशोक आन्द्रे

हिन्दी कथा साहित्य में गांव की बात आते ही अनायास प्रेमचन्द की याद ताजा
हो उठती है. प्रेमचन्द की रचनाओं में गांव की जिन समस्याओं को अभिव्यक्त
किया गया था, क्या आज के गांव उन समस्याओं से निजात पा चुके हैं ? यह
प्रश्न हिन्दी पाठक के मन को कुरेदता है और गांव से निकट से परिचित और
गांव से असंबद्ध ; किन्तु विभिन्न माध्यमों से गांव की आज की वास्तविकता
का परिचय पाते रहने वाले पाठक जानते हैं कि आजादी से पूर्व अर्थात
प्रेमचन्द काल में गांव जहां था, उसकी जो समस्याएं थीं, जितना अंधविशासों
में वह डूबा हुआ था, स्वतंत्रता के इतने वर्षों पश्चात भी वह वहीं है----
बल्कि तब से कहीं अधिक दारुण स्थिति में जी रहा है, आज का ग्रामवासी.

कथाकार रूपसिंह चन्देल का उपन्यास ’पाथर टीला’ आज के गांव की वास्तविक
छवि प्रस्तुत करता है. ’पाथर टीला’ एक गांव है, जिस पर उपन्यासकार ने
उपन्यास का शीर्षक दिया है, लेकिन यह केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश का ही
गांव नहीं है, बल्कि यह समस्याओं, राजनीतिक उठा-पटक, धार्मिक उन्मादों और
जीवन की विसंगतियों, विषमताओं आदि के कारण अपनी समग्रता में किसी भी
भारतीय गांव की यथार्थपरक छवि प्रस्तुत करता है.

’पाथर टीला’ एक खलनायक प्रधान उपन्यास है अर्थात उपन्यास का मुख्य पात्र
गजेन्द्र सिंह (जिसके काले कारनामें गांव को श्मसान में परिवर्तित कर
देना चाहते हैं ) उपन्यास का नायक है. हिन्दी में खलनायक प्रधान
उपन्यासों की परम्परा नहीं दिखती. इस दृष्टि से ’पाथर टीला’ के लेखक ने
जोखिम उठाते हुए जो कथा प्रस्तुत की है वह महत्वपूर्ण है. अंग्रेजी
साहित्य में ’गॉड फादर’ जैसे खलनायक प्रधान उपन्यासों की उल्लेखनीय
परम्परा हमें प्राप्त होती है. इस दृष्टि से ’पाथर टीला’ को हिन्दी में
उस परम्परा का प्रथम उपन्यास यदि कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी.

विवेच्य उपन्यास में उत्तर प्रदेश के कानपुर जनपद के गांव को कथानक का
आधार बनाया गया है. गांव की भाषा, खेत, खलिहान, तीज-त्यौहार, मेला,
व्यवसाय, रीति-रिवाज, संस्कार आदि विशेषताएं उपन्यास को आंचलिक उपन्यासों
की श्रेणी में भी ला खड़ा करती हैं, लेकिन फिर भी हम उसे एक अंचल विशेष
में सीमित नहीं कर सकते. जो कुछ हम ’पाथर टीला’ में पाते हैं वही सब
बिहार, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, या मध्य प्रदेश के किसी भी गांव में
देखा जा सकता है. हर गांव में आज एक गजेन्द्र सिंह उपस्थित है, जो
नव-पूंजीवादी -सामन्ती व्यवस्था का प्रतिरूप बन गांव का शोषण इस हद तक
करने के लिए तत्पर है कि गांव के लोग गोविन्द श्रीवास्तव या नत्थू की
भांति पलायन करने के लिए अभिशप्त हैं, या जमींदार के अत्याचारों को सहते
हुए गांव में ही घुटते रहते हैं.

’पाथर टीला’ का प्रारंभ गांव के बाहर एक ऊंचे टीले पर स्थापित बरियार
बाबा के चबूतरा के सामने मैंदान में लगने वाले मेला से होता है. गजेन्द्र
सिंह उस मेला का आयोजन करता है. बरियार बाबा एक किवदंती पुरुष हैं, जिनके
विषय में बुजुर्ग गोधन माली तक को अधिक कुछ पता नहीं. गोधन ने अपने
पूर्वजों से और उन्होंने अपने पूर्वजों से जो सुना था वह यही कि बरियार
सिंह उसी गांव के थे और गांव में एक मात्र पढ़े -लिखे धार्मिक पुरुष थे,
अविवाहित रहे थे जीवन भर. नीति-नियम के पक्के और लोगों का उन पर अटूट
विश्वास था कि वे किसी भी विपत्ति में गांव के लोगों की रक्षा करने में
सक्षम हैं. वृद्धावस्था में वे गांव के बाहर उस टीले पर आकर रहने लगे थे.
वे कितने वर्ष पहले थे यह कोई न जानता था, लेकिन गोधन का अनुमान था कि वे
ढाई-तीन सौ वर्ष पहले रहे होंगे. लेकिन गजेन्द्र सिंह का शातिर दिमाग
गांव के लिए देवत्व प्राप्त बरियार सिंह का भी यह कहकर इस्तेमाल करता है
कि वे उसके खानदानी थे. वह वहां प्रतिवर्ष मेला लगवाने की घोषणा करता है,
जिससे मूर्ति पर चढ़ावे के रूप में आए धन से वहां मंदिर बनवा सके. वह
मंदिर के लिए एक समिति गठित करता है, चंदा उगाहता है और सारी राशि शहर के
अपने बैंक खाते में जमा कर देता है. चंदे के रूप में डाक्टर गोविन्द की
दी हुई ईंट और सीमेण्ट से वह अपने घर का कुछ भाग बनवा लेता है. वह नत्थू
पहलवान का गलत कामों के लिए इस्तेमाल करना चाहता है, लेकिन उसके विरोध
करने पर उसे गांव छोड़ने के लिए विवश कर देता है. पुलिस के साथ किसी भी
आधुनिक माफिया की भांति उसका गहरा संबन्ध है.बाद में वह नत्थू के भाई को
पुलिस हिरासत में भेजवा देता है और छुड़ाने के लिए मध्यस्थता के बहाने
पैसा खाता है.

उसकी चौपाल के कई स्थाई सदस्य हैं जिनका इस्तेमाल अलग-अलग कामों के लिए
वह करता है. उसका जानवरों का घेर जुआ का अड्डा है और वहीं से वह अफीम और
चरस जैसे मादक पदार्थों का धंधा करता है. जुआ की लत गांव के अनेक लोगों
को डालकर वह उनकी सम्पत्ति हड़पता है तो मादक पदार्थों से अनेक परिवारों
को तबाह करता है. शहर से गांव में आ बसे बाबू बलजीत सिंह को एक शहरी
जुआरी के कत्ल के जुर्म में झूठे ही फंसा देता है. बलजीत सिंह का मित्र
बुधवा अहीर उसके पास जेवर रेहन रख पुलिस को रेश्वत दे बलजीत सिंह को
छुड़वाता है. रिश्वत में गजेन्द्र सिंह का हिस्सा निश्चित है. वह अपने घेर
में मादक द्रव्यों के धंधे के लिए भी पुलिस को निश्चित रिश्वत देता है.
पुलिस उसके हर अनुचित कार्य को जानते हुए भी ग्राम प्रधान हरिहर अवस्थी,
जो एक सरल हृदय व्यक्ति हैं, के दरवाजे न उतरकर उसी के दरवाजे उतरती है.
वास्तव में गजेन्द्र सिंह का गांव में इतना दबदबा है कि अवस्थी भी उससे
डरते हैं. शहरी के हत्यारे रामदीन से गजेन्द्र गांव के गरीब चरवाहे
सिड़िया के घेर में सेंध लगवाता है, लेकिन अनायास ही रामदीन सिड़िया की
हत्या कर देता है. सिड़िया के यहां रामदीन को कुछ नहीं मिलता; फिर भी
पुलिस का भय दिखाकर गजेन्द्र सिंह रामदीन से धन ऎंठना चाहता है, और
आतंकित रामदीन आत्महत्या कर लेता है.

गजेन्द्र सिंह अपनी मातृ-पितृ विहीना भतीजी कमली तक को नहीं छोड़ता. धन की
लिप्सावश वह कमली को दूर गांव में ब्याह देना चाहता है, जिससे वह अपने
पिता के सम्पत्ति की मांग न कर सके. विरोध करने पर वह उसे मारता-पीटता
है, उसके पढ़ने पर रोक लगाता है, लेकिन बाबू बलजीत सिंह के बेटे अजय और
उनकी बेटी अनीता से प्रेरित कमली पढ़ने की जिद करती है और बाहर शेर बना
रहने वाला गजेन्द्र सिंह घर में हारने लगता है. वह गांव के मजदूरों से भी
हारता है. जब वे उसके अत्याचार और कम मजदूरी के विरोध में फसल बुआई के
सही वक्त पर काम पर जाना बंद कर देते हैं. वह विवश होकर उनसे समझौता करता
है . वह गांव में साम्प्रदायिक सद्भाव को नष्ट करने का प्रयास करता है.
मुसलमानों की मस्जिद न बनने देने के षड़यंत्र करता है, लेकिन उसका मंदिर
तो नहीं बन पाता, मस्जिद की नीव हरिहर अवस्थी और बाबू बलजीत सिंह जैसे
प्रतिष्ठ्त ग्रामीणों द्वारा रखी जाती है. वह डाक्टर गोविन्द के घर डकैती
डलवाता है और उसे शहर पलायन के लिए विवश करता है. यही नहीं रेलवे स्टेशन
के सामने पचासों वर्षों से खाली पड़ी धर्मशाला में वह कब्जा करता है और
मिडिल स्कूल खोलता है, लेकिन उसके काले कारनामों से परिचित न तो ’पाथर
टीला’ का कोई व्यक्ति वहां अपना बच्चा भेजता है, न दूसरे गांव वाले. इसे
भी वह अपनी पराजय मानता है. वह तब और अधिक तड़फड़ाता है जब उसकी अवहेलना
करती कमली दलितों के बच्चों को एकत्र कर बुधवा के घर में अनीता के साथ
स्कूल चलाने लगती है. उसके पाले हुए बिल्ले, रंगा, कुक्कू जैसे लोग उसकी
अनुमति के बिना जब दूसरे गांव में डकैती डालते पकड़े जाते हैं, तब वह
बौखला जाता है और यहीं से उसमें विक्षिप्तता के लक्षण स्पष्ट होने लगते
हैं. अंत में वह विक्षिप्त हो पाण्डु नदी में डूब मरता है.

चन्देल एक कुशल शिल्पी की भांति विवेच्य उपन्यास में कथा कहते दिखते
हैं.अनेक उप-कथाएं उपन्यास को बल प्रदान करती हैं और लेखक की किस्सागोई
शैली (जिसका आज हिन्दी कथा साहित्य में प्रायः लोप होने लगा है) चन्देल
को प्रेमचन्द की परम्परा से जोड़ती है. लेकिन उपन्यासकार कई प्रश्न भी
छोड़ता है. पहला प्रश्न तो यही कि गजेन्द्र सिंह का मरना आवश्यक क्यों था
? क्या ऎसे पात्र मरते हैं ? यदि वह न मरता तो क्या उपन्यास का प्रभाव कम
होता ? दूसरा - कमली, हरिहर अवस्थी, अजय जैसे पात्र जब और विकास की दरकार
कर रहे थे तब उपन्यास का सिमट जाना अखरता है. गोविन्द और रमा के प्रसंग
को किंचित सीमित करके भी चित्रित किया जा सकता था. यदि इन जैसी कुछ
बातों को छोड़ दें तो कहना उचित होगा कि ’पाथर टीला’ बीसवीं सदी के अंतिम
दशक का एक उल्लेखनीय और अवस्मरणीय उपन्यास है.

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अशोक आन्द्रे
१८८, एस.एफ.एस. फ्लैट्स,
जी.एच.-4/जी-17,
निकट मीरा बाग,
पश्चिम विहार,नई दिल्ली

मोबाइल : 09818967632

’पाथर टीला’ - रूपसिंह चन्देल
(संस्करण अक्टूबर,२०१०)
भावना प्रकाशन, 109-A, पटपड़गंज,
दिल्ली - 110 091

पृष्ठ - 327, मूल्य : 400/-