बुधवार, 31 दिसंबर 2008

आलेख






शहीदों की लाशों पर वोटों की राजनीति
रूपसिंह चन्देल

महाराष्ट्र के आई.पी.एस. अधिकारी हेमंत करकरे की २६.११.०८ को मुम्बई आतंकवादी हमलों में हुई मृत्यु पर प्रश्न चिन्ह लगाकर उसे मालेगांव विस्फोट से जोड़ते हुए उसकी जांच की मांग करने वाले केन्द्रीय मंत्री ए.आर.अंतुले ने जो विवाद उत्पन्न किया उससे न केवल कांग्रेस संकट में घिर गयी बल्कि उससे पाकिस्तान को एक ऎसा हथियार उपलब्ध हो गया जिसका उपयोग उसने अपने ऊपर लगे आरोपों से दुनिया का ध्यान हटाने के लिए करना प्रारंभ कर दिया. लाहौर बम विस्फोट के लिए उसने भारत को जिम्मेदार ठहराते हुए कोलकता निवासी एक युवक को गिरफ्तार करने का दावा करते हुए यहां तक कह दिया कि भारत की धरती पर आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर हैं जिन्हें भारत नष्ट करे. ऎसा उसने पहली बार किया था और ऎसा मान्यवर अंतुले जी के वक्तव्य के बाद कहा गया. लेकिन पकिस्तानी झूठ का पर्दाफाश एक तालिबानी संगठन ने लाहौर बम विस्फोट की जिम्मेदारी लेकर कर दिया.

अंतुले साहब ने ऎसा क्यों कहा, इसका विश्लेषण कठिन नहीं है. इसका सीधा संबन्ध वोट बैंक से है. लेकिन ऎसा कहते समय वह यह कैसे भूल गये कि मारे गये पाकिस्तानी आतंकवादियों को मुम्बई में दफनाये न दिये जाने का निर्णय वहां के धार्मिक नेताओं ने किया था . यही नहीं जिस प्रकार से देश के लगभग सभी मुस्लिम संगठनों ने इस हमले की भर्त्सना की वह न केवल पहली बार था बल्कि प्रशंसनीय था. अंतुले जी के साथ कुछ मुस्लिम नेता अवश्य खड़े दिखे लेकिन उनकी संख्या नगण्य थी. अंतुले जी कितने ही बड़े नेता क्यों न हों, लेकिन वह संपूर्ण देश के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते . वक्त्व्य देते समय उन्होंने उस पर होने वाली तीखी प्रतिक्रिया और अपनी फजीहत का अनुमान नहीं लगाया होगा. इस प्रकरण में कुछ कम्युनि्स्ट नेता अंतुले के साथ खड़े दिखाई दिये. संभव है किसी वरिष्ठ कांग्रेसी नेता की शह भी रही हो उन्हें . इस अनुमान को खारिज भले न किया जाये, लेकिन अंतुले जैसा वरिष्ठ नेता किसी के बहकावे में ऎसा आत्मघाती बयान देगा इस पर सहज विश्वास नहीं होता. दरअसल यह अंतुले जी की निजी सोच और वोट की राजनीति का ही परिणाम था. वह इतने भोले नहीं कि अपने वक्तव्य के भावी परिणाम से अनभिज्ञ थे. वह निश्चित ही जानते थे कि वह पाकिस्तान को हथियार थमाने जा रहे हैं.
हमारे देश के अधिकांश राजनीतिज्ञों के लिए देश से अधिक महत्वपूर्ण उनकी सीट है. सीट के लिए वे कुछ भी कर गुजरने में शर्म अनुभव नहीं करते.ये धर्मनिरपेक्षता का पाखण्ड करते हुए धार्मिक सद्भाव बिगाड़ने में सबसे आगे होते हैं. बांटो और शासन करो की नीति इन्हें विरासत में मिली है.

मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले में शहीद हुए लोगों की लाशों पर इन अवसरवादी राजनीतिज्ञों ने पहली बार अपने वोटों की राजनीति नहीं की, दिल्ली के बाटला हाउस में शहीद हुए मोहन चन्द शर्मा को लेकर कई नेताओं ने ऎसी ही राजनीति की थी. उनके नाम पुनः यहां दोहराने की आवश्यकता नहीं, लेकिन इतना कहना आवश्यक लग रहा है कि तब भी हमारे कम्युनिस्ट नेताओं ने उन छद्म धर्मनिरपेक्षों के स्वर में स्वर मिलाते हुए बाटला हाउस मुठभेड़ की सी.बी.आई. जांच की मांग की थी. कम्युनिस्ट नेताओं की समझ और उनके देश हित सम्बन्धी सोच को इस बात से ही समझा जा सकता है कि कांग्रेस से समर्थन वापस लेने के बाद खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचने वाले तर्ज पर उन्होनें मायावती को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करना प्रारभ कर दिया था. अब वे जयललिता की ओर उन्मुख हैं. ये दोनों महिला नेता भष्टाचार में आकंठ डूबी हुई हैं यह सभी जानते हैं और वे भी यह जानते हैं. उनके दयनीय आचरण, बौद्धिक दिवालियेपन और अवसरवादी राजनीति को जनता नहीं समझती यदि वे ऎसा मानते हैं तो यह उनका दुर्भाग्यपूर्ण भ्रम ही कहा जायेगा.

लेकिन मुम्बई हमले को कुछ बुद्धिजीवी भी अंतुले साहब की नजरों से ही देख रहे हैं. हाल ही में अरुन्धती राय का वक्तव्य आश्चर्यजनक था. लेखक को एक संवेदनशील प्राणी माना जाता है. उन्होंने कहा था कि मुम्बई हमला कश्मीर, गुजरात और बाबरी मस्जिद विध्वंस की प्रतिक्रिया था. सुश्री राय का वक्तव्य चौंकाता है. 'बाटला हाउस' को लेकर भी उन्होंने संदेह व्यक्त किया था. हिन्दी के कुछ लेखकों ने भी बाटला हाउस मुठभेड़ को फेक कहा था और कहा था कि मोहनचन्द शर्मा को दिल्ली पुलिसवलों ने ही गोली मारी थी और कि मारे गये या पकड़े गये युवक निर्दोष थे. अरुधंती राय ने कश्मीर में अमरनाथ भूमि विवाद के दौरान अलगाववादियों के पक्ष में बयान देते हुए कहा था, " भारत को कश्मीर को मुक्त कर देना चाहिए ----- इससे भारत स्वयं उस समस्या से मुक्त हो जायेगा." सुश्री राय से पूछा जाना चाहिए कि कश्मीर को मुक्त कर देने के बाद क्या भारत आंतकवादी हमलों से पूर्णरूप से मुक्त हो जाएगा और क्या वह यह मानती हैं कि भारत ने कश्मीर पर अवैध कब्जा कर रखा है . उनके इस वक्तव्य से ध्वनि तो यही निकलती है. लोकतंत्र में किसी को कुछ भी कहने का अधिकार है --- यह तो कहनेवाले को सोचना चाहिए कि वह कोई ऎसी बात न कहे जिससे देशद्रोह की गंध आती हो. जहां तक मैं समझता हूं अरुन्धती राय शायद ही कभी सक्रिय राजनीति में आयेंगी , अतः उन्हें अंतुले जैसे नेताओं की भांति नहीं बोलना चाहिए. गैरजिम्मेदार बयान देना और मुकर जाना अधिकांश नेताओं की विशेषता है, जिनके सरोकार केवल और केवल निजी होते हैं , लेकिन लेखक ------ उसे देश और समाज के प्रति बेहद जिम्मेदार होना चाहिए.

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

संस्मरण





चित्र : डॉ० अवधेश मिश्र





हिन्दी बालसाहित्य और कानपुर के गौरव पुरुष

* रूपसिंह चन्देल

१९७८ कानपुर विश्वविद्यालय में मेरा पंजीकरण स्व० प्रतापनारायण श्रीवास्तव के 'व्यक्तित्व और कृतित्व' पर शोध करने के लिए हुआ. उन दिनों कानपुर वि०वि० केवल दिवगंत साहित्यकारों पर ही शोध की अनुमति देता था. लेकिन जब से हिन्दी साहित्यकार स्वास्थ्य के प्रति अधिक जागरूक हुए----- पचहत्तर पार कर भी कुलांचे भरते दिखने लगे, विश्वविद्यालय को अपने नियम बदलने पड़े और अब वहां दो-चार किताबधारियों पर भी शोध की अनुमति दी जाने लगी है.

प्रतापनारायण श्रीवास्तव पुरानी पीढ़ी की परम्परा मानने वाले उन लेखकों में थे जो अपने विषय में कुछ भी लिखना उचित नहीं मानते थे. उनके परिवार में उनकी एक दत्तक पुत्री थी, जिसकी शैक्षणिक योग्यता नहीं के बराबर थी. श्रीवास्तव जी ने १९२७ में लखनऊ विश्वविद्यालय से लॉ की उपाधि लेने के पश्चात तत्कालीन जोधपुर राज्य में बीस वर्षों तक ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य किया था. इतने विद्वान व्यक्ति की दत्तक पुत्री का लगभग अपढ़ रहना आश्चर्यजनक था. मुझे उनके व्यक्तित्व पर कार्य करते हुए समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था. उनकी बेटी कुछ बता नहीं पा रही थी, श्रीवास्तव जी ने अपने विषय में कहीं कुछ लिखा नहीं था और रिश्तेदर कोई था नहीं. मैं उन दिनों आर्डनैंस फैक्ट्री मुरादनगर (तब मेरठ - अब गाजियाबाद) में नियुक्त था. डेढ़-दो महीने में तीन-चार दिन का अवकाश लेकर कानपुर जाता. श्रीवास्तव जी के परिचितों-मित्रों से संपर्क करने-मिलने का प्रयत्न करता. उनकी बेटी के माध्यम से मेरा परिचय गीतकार श्याम निगम से हुआ. श्याम जी एक विद्यालय में प्राइमरी अध्यापक थे--- शायद किसी सरस्वती शिशु मंदिर में. गहरे सांवले रंग के सुघड़, छरहरे बदन के श्याम निगम सदैव सफेद कुर्ता-पायजामा में रहते उनके चेहरे पर सदैव चिन्ता की रेखाएं उभरी रहतीं. कारण--- छोटी-सी नौकरी और बड़ा परिवार. किराये के एक कमरे में सिमटी गृहस्थी. गृहस्थी के नाम पर न के बराबर सामान. लेकिन थे बेढब कवि-हृदय . शादी से पहले किसी से प्रेम किया था. प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान हुआ. प्रेमिका के पत्रों को सुरक्षित रखा. शादी के बाद भी उसे भूल न पाये थे. एक बार प्रेम कविता की प्रसव-पीड़ा ने उन्हें बेचैन किया, लेकिन कविता इतनी चंचला कि प्रकट होने का नाम नहीं ले रही थी. कई दिनों की तड़पन के बाद उसे जन्माने का एक नायाब उपाय उन्होंने खोज निकाला. प्रेमिका के पत्रों पर दस बूंद मिट्टी का तेल छिड़का और उन्हें आग लगा दी. पत्र आधे अधूरे जल गये. टुकड़े सहेजे और कविता लिखने का प्रयत्न किया. कमाल ----- कविता प्रकटी---- एक नहीं कई प्रेम गीत लिखे उन्होंने, लेकिन उन्हें खेद था कि एक को छोड़कर शेष कहीं नहीं छपे. कई पत्रिकाओं में भेजे लेकिन, उनके अनुसार दिल्ली के एक सम्पादक को छोड़कर शायद शेष सभी ने प्रेम को तिलाजंलि दे दी थी. श्याम जी ने बड़े चाव से वे गीत मुझे सुनाये थे और मेरी उबासियों की ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया था. वे गीत उन्होंने बच्चन जी को प्रतिक्रिया जानने के लिए भेजे थे, जिसपर उन्हें बच्चन जी की निराशाजनक प्रतिक्रिया मिली थी.
प्रतापनारयण श्रीवास्तव के जीवन सबंधी सामग्री एकत्रित करने के सिलसिले में उनके कई परिचितों से मेरी मुलाकात श्याम जी निगम के माध्यम से हुई थी. एक दिन कुछ याद करते हुए वह बोले, "रूप जी, आज मैं आपको एक ऎसे व्यक्ति से मिलवाना चाहता हूं, जिन्होंने श्रीवास्तव जी पर कुछ काम किया था."

"अब तक आपने क्यों नहीं मिलवाया ?"

"याद नहीं आया था----- लेकिन उससे क्या ---आज मिलवा देता हूं----."

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जाड़े के दिन और शाम का वक्त. शायद दिसम्बर (१९७९) का महीना था. अशोक नगर होते हुए हम रामकृष्ण नगर पहुंचे . एक ऊंचा-बड़ा पुराने ढब का मकान. मकान नं० - १०९/३०९.. सीढ़ियां चढ़कर एक कमरे में दाखिल हुए. निश्चित ही उसे बैठक के रूप में बनाया गया होगा, लेकिन वह बैठक कम-दफ्तर अधिक प्रतीत हुआ. उस कमरे से सटा उतना ही बड़ा एक और कमरा था, जो नीम अंधेरे में डूबा हुआ था. कमरे में एक कोने में एक तख्त पड़ा था, जिसपर एक सज्जन पायजामा कुर्ता पर ऊनी जैकट पहने प्रूफ पढ़ रहे थे. उम्र लगभग पैंतालीस वर्ष, मध्यम कद, चौड़ा शरीर, बड़ा मुंह और मुंह में पान. श्याम जी निगम ने परिचय करवाया . ये थे डॉ० राष्ट्रबन्धु. आने का उद्देश्य जान वे बोले, "मैंने श्रीवास्तव जी पर लघु शोध प्रबंध लिखा था एम०फिल० के लिए."

"पढ़ने के लिए देंगे डॉक्टर साहब?"

"कल आकर ले जायें. जब तक आपका कार्य पूरा न हो जाये---- अपने पास रखें."

'पहले परिचय में इतनी उदारता. ' मैंने सोचा.

"नहीं---- इतने दिन रखकर क्या करूंगा. अगली बार कानपुर आऊंगा तब लेता आऊंगा."

"जैसा उचित समझें."

एक घण्टे की मुलाकात में ढेर सारी बातें. पता चला राष्ट्रबन्धु मध्यप्रदेश सरकार में अध्यापक थे. बीस वर्ष की सेवा के बाद स्वैच्छिक सेवावकाश ले लिया था. उसके पश्चात कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम०ए० किया और फिर अंग्रेजी में ही पी-एच०डी०. बाल साहित्य की दुनिया में स्थापित नाम और 'बाल-साहित्य समीक्षा' के सम्पादक --- पूर्णरूप से बाल-साहित्य और बाल कल्याण के लिए समर्पित. मैं बाल साहित्य की दिशा में तब तक कुएं का मेढक था. सच यह कि बाल साहित्य के प्रति उनके कारण ही मैं आकर्षित और प्रेरित हुआ. हमारे संबन्ध गहराते गये---- घनिष्ठता बढ़ती गय़ी और वे मेरे बड़े भाई की भूमिका में आ गये.

फरवरी-मार्च - १९८० में मैनें एक बाल-कविता लिखी. तब गाजियाबाद रहता था . बाल साहित्य समीक्षा ने उसे प्रकाशित किया. वही एक मात्र कविता थी जो लिखी और प्रकाशित हुई थी, लेकिन १९८१ से बाल कहानियां लिखने का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ वह १९९० तक अबाध चला. लगभग साठ बाल कहानियां लिखीं. कुछ विदेशी बाल कहानियों के अंग्रेजी से अनुवाद किये और तीन किशोर उपन्यास लिखे. पहला किशोर उपन्यास 'ऎसे थे शिवाजी' था, जिसे डॉ० राष्ट्रबन्धु ने 'बाल साहित्य समीक्षा' के एक ही अंक में प्रकाशित किया. यह शिवाजी के जीवन पर आधारित था. उसके बाद 'अमर बलिदान ' (क्रान्तिकारी कर्तारसिंह सरभा के जीवन पर आधरित) और 'क्रान्तिदूत अजीमुल्ला खां' (१८५७ के महानायक अजीमुल्ला खां के जीवन पर आधारित जो उस क्रान्ति के प्रमुख योजनाकर थे) लिखे.

अक्टूबर १९८० को मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के पास शक्तिनगर शिफ्ट कर गया. मैं शोध के सिलसिले में जब भी कानपुर जाता, हर बार कुछ घण्टे डॉ० राष्ट्रबन्धु के साथ अवश्य बिताता था और मेरे दिल्ली शिफ्ट होने के बाद जब वह दिल्ली आते मेरे यहां ही ठहरते. उनका दिल्ली आना तीन महीने में एक बार अवश्य होता (कभी-कभी १५ दिनों बाद ) और कुछ घण्टों से लेकर कुछ दिनों तक के लिए. प्रायः उनका आना अचानक होता और कभी-कभी उनके साथ एक-दो बाल-साहित्यकार भी होते. एक दो बार वह रात ग्यारह-बारह बजे आये. मेरे मकान मालिक नौ बजे घर का मुख्य द्वार बंद कर देते थे. मैं दूसरी मंजिल पर रहता था और घण्टी नहीं लगवायी थी. इसलिए भी कि आने वाला आता किसी और के यहां और घण्टी वह मेरी बजा देता. हम लटककर झांकते और अपरिचित चेहरा मुस्कराकर किसी के विषय में जानकारी चाहता. एक बार रात बारह बजे हम गहरी नींद में थे. डॉ० राष्ट्रबन्धु नीचे खड़े गला फाड़ चीख रहे थे - 'माशा' (मेरी बेटी का घर का नाम). अक्टूबर-नवम्बर का महीना रहा होगा. पड़ोसी मकान में दूसरी मंजिल पर रहने वाले किरायेदार ने किसी तरह खिड़की के रास्ते चीखकर हमें जगाया.

सुबह हमारे शेड्यूल बहुत सख्त होते थे. मुझे आठ बजे आर. के. पुरम आफिस जाने के लिए बस पकड़नी होती थी और पत्नी को भी लगभग इसी समय विश्वविद्यालय के लिए निकल जाना होता. हम साढ़े सात बजे तक राष्ट्रबन्धु को नाश्ता करवाकर शाम छः बजे तक के लिए विदा करते. लेकिन यह कहते हुए भी कि --''अब मैं पूरी तरह दिल्ली वाला हो गया हूं" उन्होंने मेरे शेड्यूल को कभी बाधित नहीं किया --भले ही वह अकेले आये हों या एक-दो लोगों के साथ. लेकिन उनके परिचय से परिचित बनारस के दो युवक एक बार मेरे यहां आ धमके और पूरे एक सप्ताह रहे. उन दिनों मेरे पास जगह कम थी---- बस छोटे परिवार के गुजर भर की जगह . राष्ट्रबन्धु मेरी स्थिति समझते थे और एडजस्ट करते थे, लेकिन कोई और क्यों समझता. १९९० में मकान मालिक ने मेरे लिए अतिरिक्त कमरे बनवा दिये, लेकिन तब राष्ट्रबन्धु के आने का सिलसिला थम चुका था. आते वह अभी भी हैं दिल्ली, लेकिन १९९१ के बाद वह केवल एक बार मेरे यहां आये. दरअसल हम सब इतना व्यस्त हो गये कि वह वक्त दे पाने में असमर्थ थे जो उन्हें चाहिए होता था.
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हिन्दी बाल साहित्य के क्षेत्र में बाल साहित्य और बाल कल्याण के लिए समर्पित राष्ट्रबन्धु जैसा कोई व्यक्ति मुझे आज तक नहीं मिला.

१९८० में उन्होंने 'बाल कल्याण संस्थान' की स्थापना की. इस संस्था के माध्यम से हिन्दी बाल साहित्य के विकास और उन्नयन के लिए कार्य करने का उन्होंने संकल्प किया. सम्पूर्ण भारत में उन्होंने हिन्दी बाल साहित्य की अलख जगाई. संस्था की ओर से साहित्यकारों और प्रतिभाशाली बच्चों को पुरस्कृत करने लगे. इस महत्कार्य के लिए उन्होंने कानपुर के उद्योगपतियों का सार्थक सहयोग लिया, जो उन्हें आज भी मिल रहा है. अन्य भारतीय भाषाओं के बाल साहित्यकारों को पुरस्कृत कर उन भाषाओं के पाठकों/लेखकों को हिन्दी से और हिन्दीवालों को उनसे परिचित करवाने का कार्य बाल-कल्याण संस्थान आज भी बखूबी कर रहा है और यह केवल एक व्यक्ति के बल पर हो रहा है.

राष्ट्रबन्धु जी से मेरी सदैव एक ही शिकायत रही कि वह अपने स्वास्थ्य की परवाह न करके निरंतर यात्राएं क्यों करते रहते हैं! मैं जब भी फोन करता, पता चलता भुवनेश्वर-कोलकता गये हैं--- कभी गुजरात तो कभी कर्नाटक , कभी चेन्नई तो कभी हैदराबद. मध्यप्रदेश उनके दूसरे घर की भांति है, क्योंकि वहां वह बीस वर्ष रहे थे . बाल कल्याण संस्थान का एक निश्चित कार्यक्रम प्रतिवर्ष २७-२८ फरवरी को कानपुर में होता है या उसके आस-पास के शनिवार-रविवार को. मैं १९८२-८३ के कार्यक्रम में सम्मिलित हुआ था. उसके बाद एक बार विष्णु प्रभाकर जी, मैं, डॉ० रत्नलाल शर्मा (जिन्होंने राष्ट्रबन्धु से प्रेरित हो अपनी पत्नी के नाम बाल साहित्य के लिए श्रीमति रतन शर्मा स्मृति पुरस्कार प्रारंभ किया था), और डॉ० शकुंतला कालरा एक साथ वहां गये थे. १९८२ से ही राष्ट्रबन्धु एक वर्ष में संस्था के एकाधिक कार्यक्रम करने लगे थे. उस वर्ष जून में उन्होंने मुझसे कहा, "१९ नवम्बर को इस बार एक कार्यक्रम प्रधानमंत्री निवास में करना है और तुम उसके संयोजक होगे."

(प्रधानमंत्री इंदिरा जी, रूपसिंह चन्देल और श्रीमति शीला कौल)

मैं घबड़ा उठा . इंदिरा जी प्रधानमंत्री थीं. मैंने इंकार किया, लेकिन राष्ट्रबन्धु जी अड़े रहे. तिथि-समय आदि उन्होंने निश्चित कर लिया. लेकिन मेरा काम आसान न था. बाल-साहित्य समीक्षा का नवम्बर अंक स्मारिका के रूप में छपना था. तीन बाल साहित्यकारों को इंदिरा जी द्वारा सम्मानित होना था. पत्रिका में उन पर सामग्री देने के साथ विष्णु प्रभाकर जी का साक्षात्कार, जो मुझे ही करना था तथा अन्य सामग्री भी ---पत्रिका का अतिथि सम्पादक मैं था. पत्रिका के लिए विज्ञापन लाने थे. तेरह दिनों का अवकाश लेकर मैंने रातों-दिन एक कर दिया था. घर से सुबह निकलता और रात देर से पहुंचता . विज्ञापन के लिए भटकता. कोकाकोला के मालिक ने प्रसन्न भाव से विज्ञापन दिया और प्रकाशकों में राजपाल एण्ड संस के विश्वनाथ जी ने. दरियागंज के शकुन प्रकाशन के यहां (जो बाल साहित्य ही प्रकाशित करता था) किसी भिखारी जैसा व्यवहार किया गया था. खैर, निश्चित तिथि और समय पर कार्यक्रम हुआ और सफल रहा था. इस कार्यक्रम मेरी अज़ीज मित्र सुभाष नीरव ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
(बालकल्याण संस्थान के कार्यक्रम में सम्मिलित लोगों को सम्बोधित करती इंदिरा जी)
राष्ट्रबन्धु जी के उत्साह का एक उदाहरण और दिए बिना यह संस्मरण अधूरा ही रहेगा. वैसे अधूरा यह तब भी रहेगा. ठीक से याद नहीं लेकिन १९९१ या १९९२ के गर्मी के दिनों की बात है. मैं आर.के.पुरम के अपने दफ्तर में व्यस्त था. अपरान्ह तीन बजे के लगभग का समय था. देखता क्या हूं कि कंधे से थैला लटकाये कुर्ता पायजामा पहने राष्ट्रबन्धु और उनके पीछे सफेद साड़ी में उन्हीं की भांति कंधे से थैला लटकाये मानवती आर्या जी कमरे में दाखिल हुए.मैंने राष्ट्रबन्धु की भारी आवाज सुनी, "पकड़ में आ गये बहिन जी." मानवती जी की ओर मुड़कर वह बोले थे. मैं हत्प्रभ. रक्षा मंत्रालय के उस कार्यालय में परिचय पत्र के बिना वहां के कर्मचारियों को भी सुरक्षा कर्मी प्रवेश नहीं करने देते, वहां बिना पास-परिचय पत्र के वे दोनों मेरे सामने उपस्थित थे. उस पर राष्ट्रबन्धु की भारी ऊंची आवाज से मैं परेशान था. जहां मैं बैठता था वहां फुसफुसाकर ही बात की जाती थी. मैंने दोनों को अभिवादन किया और बोला, "कितना अच्छा लग रहा है आप लोगों का आना, लेकिन हम यहां बैठकर खुलकर बातें नहीं कर पायेगें------ हम बाहर चलें?"

राष्ट्रबन्धु ने स्थिति समझ ली थी. हम तुरंत बाहर निकल आये थे और केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय की कैण्टीन में जा बैठे थे. यहां मानवती जी के बारे में बताना आवश्यक है. मानवती जी नेता सुभाष चन्द बोस की आजाद हिन्द फौज की 'रानी लक्ष्मी बाई ब्रिगेड ' में रही थीं . उनके पास स्वतंत्रता सेनानी पास था और उस पास के बल पर वे दोनों अंदर पहुंच गये थे.

डॉ० राष्त्रबन्धु अब पचहत्तर वर्ष (जन्म २ अक्टूबर, १९३३) से अधिक आयु के हैं और गठिया के मरीज . लेकिन हिन्दी बाल साहित्य के विकास और उन्नयन के उनके प्रयास में कमी नहीं आयी है. हमारी मुलाकातें अब वर्षों में होती हैं और फोन पर बातें भी कभी-कभी ही, लेकिन १९७९ से बाल साहित्य समीक्षा मुझे नियमित मिल रही है और उसके माध्यम से उनकी गतिविधि की सूचना भी.

मेरी शुभ कामना है कि कानपुर और हिन्दी बाल साहित्य के गौरव पुरुष डॉ० राष्ट्रबन्धु शताधिक आयु तक बाल कल्याण संस्थान के माध्यम से हिन्दी बाल साहित्य के विकास के लिए कार्य करते रहें और नयी पीढ़ी के प्रेरणाश्रोत बने रहें.

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