रविवार, 19 दिसंबर 2010

पुस्तक चर्चा

छाया - बलराम अग्रवाल

भूमिका

अबाधित पठनीयता

रूपसिंह चन्देल

‘विष्णुगुप्त चाणक्य’ जैसे कालजयी उपन्यास के प्रणेता वरिष्ठ रचनाकार वीरेन्द्रकुमार गुप्त की कृतियों में न केवल जीवन की वैविध्यता परिलक्षित है प्रत्युत उनका विशिष्ट जीवन-दर्शन भी उद्भासित है । उनके उपन्यास ‘प्रियदर्शी’ और ‘विजेता’ बौद्धदर्शन की एकदम नवीन व्याख्या प्रस्तुत करते हैं तो पस्तुत उपन्यास ‘जीवन के सात रंग’ में वह प्रेम के सात रूपों को सहज और सरल रूप में चित्रित करने में सफल रहे हैं । न केवल उनके पूर्व प्रकाशित उपन्यासों बल्कि प्रस्तुत उपन्यास से भी यह सिद्ध होता है कि वह कथाकार मात्र नहीं , चिन्तक , विचारक और विश्लेशक भी हैं और ये विशेषताएं उन्हें अन्य समकालीन रचनाकारों से अलगाती हैं ।

आजीवन साहित्य और शिक्षा , अध्ययन और अध्यापन के लिए समर्पित वीरेन्द्र जी सदैव भीड़ से अलग रहकर एक साधक की भांति कर्मलीन रहे, आत्म-प्रक्षेपण की कला वे न सीख सके और शायद यही कारण रहा कि उनके साहित्यिक अवदान का प्राप्य उन्हें नहीं मिल सका । उन्होंने जैनेन्द्र जी का अभूतपूर्व साक्षात्कार किया , जो ‘समय और हम’ शीर्षक से जैनेन्द्र जी के नाम से प्रकाशित हुआ । यह विश्व में एक साहित्यकार का एक साहित्यकार द्वारा किया गया सबसे वृहद् साक्षात्कार है , जिसमें साक्षात्कर्ता अर्थात वीरेन्द्र जी को पृष्ठभूमि में डाल दिया गया।

वीरेन्द्र जी परिवेश , वातावरण और पात्रानूकूल भाषा का निर्वाह कर कृति को प्रवाहमय और सरस बना देते हैं । शिल्प के प्रति न वह लापरवाह हैं और न ही दुराग्रही । पात्रों और घटनाओं को वे उनके अपने अंतर्वेग से बहने देते हैं, उन पर छाते नहीं । पाठक भी उनकी दृष्टि से कभी ओझल नहीं होता ।

‘जीवन के सात रंग’ का केन्द्रीय विषय प्रेम है । ‘प्रेम’ शब्द कहने-सुनने में जितना सामान्य प्रतीत होता है उतना ही यह गूढ़ है । दो खण्डों में विभक्त इस उपन्यास में वर्तमान से लेकर पूर्वजन्म के प्रेम से पाठक का साक्षात होता है । मंजु और कमल का प्रेम उनमें से एक है जिसमें नारी का एक ऐसा स्वरूप प्रकट होता है जो अपने पूर्व प्रेमी अर्थात् कमल से घृणा करने के बावजूद उसे अंत तक अंतर्तम से प्रेम करती रहती है । प्रेम के भिन्न-भिन्न रूपों को चित्रित करते इस उपन्यास में आद्यंत औत्सुक्य और अबाधित पठनीयता विद्यमान है ।

01.03.2010

बी-3/230 , सादतपुर विस्तार ,
दिल्ली - 110 094
मो. 09810830957
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जीवन के सात रंग - वीरेन्द्र कुमार गुप्त
भावना प्रकाशन, A-109, पटपड़गंज,
दिल्ली - ११० ०९१
पृष्ठ -२२५, मूल्य - २५०/-

रपट

चित्र - बलराम अग्रवाल

संगोष्ठी रिपोर्ट

महेशः दर्पण की पुस्तक पूश्किन के देस में ने मुझे 60 साल पीछे पहुंचा दिया है। चेखव को मैंने आगरा में पढऩा शुरू किया था। कोलकता की नैशनल लायब्रेरी में भी मैं चेखव के पत्र पढ़ा करता था। इस पुस्तक में एक पूरी दुनिया है जो हमें नॉस्टेल्जिक बनाती है। यह विचार हंस के संपादक और वरिष्ठï कथाकार राजेन्द्र यादव ने सामयिक प्रकाशन द्वारा प्रकाशित पूश्किन के देस में पर आधारित संगोष्ठी में व्यक्त किए। इसे रशियन सेंटर और परिचय साहित्य परिषद ने संयुक्त रूप से आयोजित किया था।

श्री यादव ने कहा : सन् 1990 में मैं भी रूस गया था। कुछ स्मृतियां मेरे पास भी थीं। इसे पढक़र वे और सघन हुई हैं। एक कुशल यात्रा लेखक की तरह महेश दर्पण ने बदले हुए रूस को देखते हुए भी बताया है कि अब भी रूस में बहुत कुछ बाकी है। यह पुस्तक मेरे स्मृति कोश में बनी रहेगी। ऐसे बहुत कम लोग हुए हैं, जैसे काफी पहले एक किताब प्रभाकर द्विवेदी ने लिखी थी-‘पार उतर कहं जइहों’।
प्रारंभ में कवि-कथाकार उर्मिल सत्यभूषण ने कहा : यह पुस्तक हमें रूसी समाज, साहित्य और संस्कृति से परिचित कराते हुए ऐसी सैर कराती है कि एक-एक दृश्य आंखों में बस जाता है। अब तक हम यहां रूस के जिन साहित्यकारों के बारे में चर्चा करते रहे हैं, उनके अंतरंग जगत से महेश जी ने हमें परिचित कराया है।
महेश दर्पण को फूल भेंट करते हुए रशियन सेंटर की ओर से येलेना श्टापकिना ने अंग्रेजी में कहा कि एक भारतीय लेखक की यह किताब रूसी समाज के बारे में गंभीरतापूर्वक विचार करती है। इस पठनीय पुस्तक में लेखक ने कई जानकारियां ऐसी दी हैं जो बहुतेरे रूसियों को भी नहीं होंगी।

कथन के संपादक और वरिष्ठ कथाकार रमेश उपाध्याय ने कहा कि महेश दर्पण ने इस पुस्तक के माध्यम से एक नई विधा ही विकसित की है। यह एक यात्रा वृतांत भर नहीं है। इसे आप एक उपन्यास की तरह भी पढ़ सकते हैं। रचनाकारों के म्यूजियमों के साथ ही महेश दर्पण की नजर सोवियत काल के बाद के बदलाव की ओर भी गई है। अनायास ही उस समय से इस समय की तुलना भी होती चली गई है। श्रमशील और स्नेही साहित्यकर्मी तो महेश हैं ही, उनका जिज्ञासु मन भी इस पुस्तक में सामने आया है। मुझे ही नहीं, मेरे पूरे परिवार को यह पुस्तक अच्छी लगी।

वरिष्ठ उपन्यासकार चित्रा मुद्गल ने कहा : मैं महेश जी की कहानियों की तो प्रशंसिका तो हूं ही, यह पुस्तक मुझे विशेष रूप से पठनीय लगी। रूसी समाज को इस पुस्तक में महेश ने एक कथाकार समाजशास्त्री की तरह देखा है। यह काम इससे पहले बहुत कम हुआ है। रूसी समाज में स्त्री की स्थिति और भूमिका को उन्होंने बखूबी रेखांकित किया है। बाजार के दबाव और प्रभाव के बीच टूटते-बिखरते रूसी समाज को लेखक ने खूब चीन्हा है। यह पुस्तक उपन्यास की तरह पढ़ी जा सकती है। बेगड़ जी की तरह महेश ने यह किताब डूबकर लिखी है। रूस के शहरों और गांवों का यहां प्रामाणिक विवरण है जो हम लोगों के लिए बेहद पठनीय बन पड़ा है।
सर्वनाम के संस्थापक संपादक और वरिष्ठï कवि-कथाकार विष्णु चंद्र शर्मा ने कहा : महेश मूलत: परिवार की संवेदना को बचाने वाले कथाकार हैं। इस किताब में भी उनका यह रूप देखने को मिलता है। उन्होंने बदलते और बदले रूस के साथ सोवियत काल की तुलना भी की है। वह रूसी साहित्य पढ़े हुए हैं। वहां के म्यूजियम और जीवन को देखकर उन्होंने ऐसी चित्रमय भाषा में विवरण दिया है कि कोई अच्छा फिल्मकार उस पर फिल्म भी बना सकता है। अनिल जनविजय के दोनों परिवारों को आत्मीय नजर से देखा है। यह पुस्तक बताती है कि अभी बाजार के बावजूद सब कुछ नष्टï नहीं हो गया है। आजादी मिलने के बाद हिन्दी में यह अपने तरह की पहली पुस्तक है जिससे जाने हुए लोग भी बहुत कुछ जान सकते हैं।

प्रारंभ में कथाकार महेश दर्पण ने कहा : जो कुछ मुझे कहना था, वह तो मैं इस पुस्तक में ही कह चुका हूं। जैसा मैंने इस यात्रा के दौरा महसूस किया, वह वैसा का वैसा लिख दिया। अब कहना सिर्फ यह है कि रूसी समाज से उसकी तमाम खराबियों के बावजूद, हम अभी बहुत कुछ सीख सकते हैं। विशेषकर साहित्य, कला और संस्कृति के संरक्षण के बारे में। यह सच है कि अनिल जनविजय का इस यात्रा में साथ मेरे लिए एक बड़ा संबल रहा है। दुभाषिए का इंतजाम न होता तो बहुत कुछ ऐसा छूट ही जाता जिसे मैं जानना चाहता था।
इस संगोष्ठी में हरिपाल त्यागी, नरेन्द्र नागदेव, प्रदीप पंत, सुरेश उनियाल, सुरेश सलिल, त्रिनेत्र जोशी, तेजेन्द्र शर्मा, मृणालिनी, लक्ष्मीशंकर वाजपेई, भगवानदास मोरवाल, हरीश जोशी, केवल गोस्वामी, रामकुमार कृषक, योगेन्द्र आहूजा, वीरेन्द्र सक्सेना, रूपसिंह चंदेल, प्रेम जनमेजय, हीरालाल नागर, चारु तिवारी, राधेश्याम तिवारी, अशोक मिश्र, प्रताप सिंह, क्षितिज शर्मा और सत सोनी सहित अनेक रचनाकार और साहित्य रसिक मौजूद थे।
प्रस्तुति : दीप गंभीर

बुधवार, 24 नवंबर 2010

पुस्तक चर्चा

चित्र : एस. राजशेखर
स्व. कन्हैयालाल नन्दन की आत्मकथा का एक अंश

कवि-पत्रकार स्व. कन्हैयालाल नन्दन की आत्मकथा के दो खण्ड प्रकाशित हो चुके हैं. पहला खण्ड – ’गुजरा कहां कहां से ’ ’राजपाल एण्ड संस, मदरसारोड,कश्मीरी गेट, दिल्ली – ११० ००६से प्रकाशित हुआ, नदंन जी के अनुसार (दूसरे खंड की भूमिका), जिसे पाठकों का अपार प्यार मिला. उससे उत्साहित होकर उन्होंने दूसरा खण्ड लिखा जिसे –’कहना जरूरी था’ शीर्षक से सामयिक प्रकाशन , दरिया गंज , नई दिल्ली – ११० ००२ ने २०१० में प्रकाशित किया. प्रस्तुत है इसी खण्ड से एक महत्वपूर्ण अंश.

कोरा कागज कोरा ही रह गया

वह कोशिश भी मैंने तब की जब मैंने भारतीजी के मन में यह पूरी तरह स्थापित कर दिया कि कानूनी तौर पर मेरी गलतियां निकालकर और मुझे दोषी करार देकर वे मुझे ’टाइम्स ऑफ इंडिया’ से नहीं निकाल सकते. मेरे इस विश्वास के पीछे बहुत बड़ा हाथ था – इस्टैब्लिशमेंट डिपार्टमेंट के पहले उपप्रमुख और बाद में प्रमुख बने श्री कनैयालाल लालचंदानी का, जो मेरी संवेदनशीलता, मानसिक त्रास, मेरी सज्जनता और मेरी सहृदयता , सभी के गहरे प्रशंसक थे. मेरी कर्मनिष्ठा से वे ’धर्मयुग’ में एक-एक कदम से परिचित थे और भारतीजी के भेजे शिकायत-पत्रों के भी वे श्रेष्ठतम गवाह थे. उन्होंने तो मुझे यहां तक कह रखा था कि कोई भी बात मुझे इतनी गंभीरता से नहीं लेनी चाहिए कि वह मेरे स्वास्थ्य पर असर डाले. जहां तक नौकरी का सवाल है, उनके शब्द थे – ’मेरे रहते भारतीजी आपका कुछ नहीं बिगाड़ पाएंगे, ऎसा मैं आपको वचन देता हूं.”

मैंने उनसे जिरह की कि भारतीजी जब जान जाएंगे कि आप मेरे प्रति सहृदय हैं, तो वे मेरे खिलाफ किसी इंक्वायरी में आपको नहीं रहने देंगे. इस पर उनका कहना था कि “नंदन जी, ऎसी स्थिति तभी आएगी, जब ’टाइम्स ऑफ इंडिया’ मुझे नौकरी से निकाल देगा और यदि ऎसी स्थिति भी आई, तो मैं उनके नौकरी छोड़ने तक की स्थिति पैदा कर दूंगा.”

बहरहाल, इस सीमा तक की आश्वस्ति ने मुझे और मेरे जीवन को काफी सहज बना दिया था, लेकिन मैं आश्वस्ति की अभिव्यक्ति भी अपने व्यवहार से नहीं होने देना चाहता था. शायद भारतीजी भी बहुत कुछ इस बात को समझ गए थे कि कंपनी के कायदे-कानून ऎसे हैं कि वे मुझे तो क्या, अब एक मामूली क्लर्क आर.डी. शाह तक को नहीं निकाल सकते. भले कोई खुद ही हारकर नौकरी छोड़ जाए तो बात दूसरी है.

कुछ इन्हीं स्थितियों में मैंने एक दिन अपने मन को टटोला और जब उस दिन का सारा काम समाप्त हो अया, तो मैंने भारतीजी से इंटरकाम पर उनसे कुछ विचार-विमर्श करने की अनुमति मांगी. उन्होंने केबिन में आने को कहा, तो मैं एक कोरा कागज लेकर उनके पास पहुंचा और बोला, “डॉ. साहब, मैं आपसे एक बात करना चाहता हूं कि आप मुझे रोज-रोज जलील होने की स्थितियों में डाल देते हैं, मैं इसके योय व्यक्ति नहीं हूं. आप मुझे नहीं रखना चाहते, निकालना चाहते हैं, तो प्रेम से निकालिए, जलील करके नहीं. इसलिए आप मुझे निकालिए तो प्रेमपूर्वक. यह कोरा कागज मैं दस्तखत करके आपको सौंपता हूं, आप इस पर जो चाहें लिख लें.”

भारतीजी उस समय पेंसिल-रबड़ हाथ में लेकर अपने डमियों के शिड्यूल की उठापटक कर रहे थे. चौथे पेज को चौदहवें पर और चौदहवें को चौंतीसवें पेज पर. ’धर्मयुग’ के स्वरूप को सुष्ठ बनाने के लिए वे अक्सर ऎसा करते ही रहते थे. उनके एक हाथ में रबड़ थी और एक हाथ में पेंसिल. मेरी बात सुनते ही वे इस कदर नाराज हुए कि हाथ की रबड़ डमी पर जोर से पटककर मारी और बोले, “गेटआउट फ्राम हीयर, तुम्हारा दिमाग खराब हो गया है.” उन्होंने रबड़ इतने जोर से पटकी थी कि वह मेज से उछलकर केबिन के एक कोने में जाकर पड़ी.

मैंने सहमकर रबड़ उठाई, क्योंकि मैंने जानबूझकर ’ आ बैल मुझे मार’ किया था, और चुपचाप उनकी मेज पर रखकर केबिन से गेटआउट हो गया. मेरा कोरा कागज मेरे हाथ में मुझे उस शाम लगातार चिढ़ाता रहा और भारतीजी का सख्त नाराज होकर रबड़ पटकना एवं उस गुस्से की अभिव्यक्ति रबड़ की उछाल में करते हुए मुझे गेटआउट कहना, रह-रहकर मेरे दिमाग में घूमता रहा. भारतीजी ने इतनी जोर से शायद ही कभी किसी को ’गेट-आउट’ कहा हो.
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--- कहना जरूरी था – कन्हैयालाल नंदन
सामयिक प्रकाशन
३३२०-२१, जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग,
दरियागंज, नई दिल्ली – ११० ००२

पृष्ठ : १७६, मूल्य : २५०

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पत्रिका

’समीक्षा’ पत्रिका अपने नए कलेवर में

४३ वर्ष पहले हिन्दी के वरिष्ठ और चर्चित आलोचक डॉ. गोपाल राय ने ’समीक्षा’ पत्रिका का प्रकाशन प्रारंभ किया था. पुस्तक समीक्षा केन्द्रित इस पत्रिका ने कम समय में ही इतनी चर्चा प्राप्त की कि यह डॉ. राय के नाम का पर्याय बन गई. विश्वविद्यालय से अवकाश ग्रहण करने के बाद डॉ. राय जब दिल्ली आ गए तब पत्रिका का उनके साथ दिल्ली आना स्वाभाविक था. लेकिन दिल्ली आने के बाद पत्रिका उस प्रकार चर्चा में नहीं रही, जिसप्रकार वह पटना काल में रही थी. कारण जो भी रहे हों, लेकिन पत्रिका का प्रकाशन नियमित होता रहा. लंबे समय तक इसके प्रकाशन का दायित्व ’अभिरुचि प्रकाशन’ के श्री श्रीकृष्ण जी निभाते रहे और इस कार्य में डॉ. हरदयाल की अहम भूमिका रही. श्रीकृष्ण की अस्वस्थता के कारण ’अभिरुचि प्रकाशन’ के बंद हो जाने के बाद पत्रिका का प्रकाशन अन्यत्र से होने लगा … जो संतोषजनक नहीं था.

हाल में सामयिक प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली के महेश भारद्वाज के इस पत्रिका से जुड़ने के बाद पत्रिका के स्वरूप में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ---- एक प्रकार से कायापलट कहना होगा. न केवल सामग्री के स्तर पर बल्कि कलेवर के स्तर पर भी. भारद्वाज की भूमिका इस पत्रिका में प्रबन्ध सम्पादक की है . सामग्री का चयन और सम्पादन सत्यकाम (डॉ. राय के पुत्र) करते हैं और उसका प्रकाशन और वितरण महेश भारद्वाज. महेश एक सुरुचि सम्पन्न युवा प्रकाशक हैं और प्रकाशन के क्षेत्र में नए-नए प्रयोग करना उन्हें पसंद है…… ’समीक्षा’ में यह प्रतिभाषित है.

महेश भारद्वाज के प्रबंध सम्पादकत्व में ’समीक्षा’ का दूसरा अंक हाल में प्रकाशित हुआ है, जिसमें सुरेन्द्र चौधरी को याद करते हुए डॉ. गोपाल राय का आलेख ’सांच कहौं--- ’, डॉ. नामवर सिंह की आलोचना पुस्तक –”हिन्दी का गद्यपर्व’ पर रवि श्रीवास्तव की समीक्षा, परमानन्द श्रीवास्तव की आलोचना पुस्तक ’ रचना और आलोचना के बदलते तेवर’ पर पूनम सिन्हा की समीक्षा, सहित कहानी, उपन्यास, कविता, नाटक आदि विधाओं की लगभग १७ अन्य पुस्तकों की पुस्तकों की समीक्षा को इस अंक में स्थान दिया गया है.

’समीक्षा’ – (जुलाई-सितम्बर २०१०)
सम्पादक – सत्यकाम
प्रबंध सम्पादक – महेश भारद्वाज

प्रबंध कार्यालय
सामयिक प्रकाशन
३३२०-२१ जटवाड़ा, नेताजी सुभाष मार्ग,
दरियागंज, नई दिल्ली-११००२

फोन नं ०११-२३२८२७३३

सम्पादकीय कार्यालय
एच-२, यमुना, इग्नू, मैदानगढ़ी,
नई दिल्ली – ११००६८

फोन : ०११-२९५३३५३४

गुरुवार, 4 नवंबर 2010

पुस्तक चर्चा





समीक्षा से पहले कुछ बातें:

’पाथर टीला’ पर वरिष्ठ कवि-कथाकार अशोक आन्द्रे ने संचेतना के
लिए समीक्षा लिखी थी. समीक्षा प्रकाशित होने के पश्चात उपन्यास पर
राजनीति करने वाले कथाकारों में से एक ने (जिसका उपन्यास उन्हीं दिनों एक
नामी प्रकाशक के यहां से प्रकाशित हुआ था) प्रकाशक को फोन करके अपनी भड़ास
निकाली. उसके बाद उस लेखक ने छद्म नामों से मेरे पास फोन करना प्रारंभ
किया. कभी वह स्वयं आवाज बदलकर करता तो कभी अपने किसी मित्र से करवाता.
एक दिन फोन करने वाले व्यक्ति ने कहा कि वह जी.टी.वी. से बोल रहा है और
वह ’पाथर टीला’ पर जी.टी.वी. के लिए फिल्म बनाना चाहता है, क्योंकि यह
उपन्यास प्रेमचन्द्र की याद दिलाता है. प्रकाशक से अपनी भड़ास निकालते समय
भी कथाकार महोदय ने यह बात कही थी. जी.टी.वी. के नाम पर फोन करने वाले
व्यक्ति की बात से मैंने अनुमान लगा लिया कि इसे उन कथाकार महोदय ने वैसा
कहने के लिए कहा होगा. मैंने उससे कहा कि वह आकर मुझसे मिल ले. मिलने से
उसने इंकार करते हुए कहा कि मैं केवल मौखिक अनुमति मात्र दे दूं.

"मेरी जानकारी के अनुसार जी.टी.वी. किसी उपन्यास पर फिल्म नहीं
बनाता---फिर मेरे उपन्यास पर क्यों ?" मैंने पूछा.

"क्योंकि आपका उपन्यास पाठकों को प्रेमचन्द की याद दिलानेवाला एक
महत्वपूर्ण उपन्यास है."

"ओ.के.----" मैंने कुछ देर तक सोचने का नाटक किया फिर बोला, "आप
जी.टी.वी. के लेटर पैड पर अनुमति के लिए किसी वरिष्ठ अधिकारी से लिखवाकर
मुझे पत्र लिख भेजें .मैं उसका उत्तर दे दूंगा."

"उसकी आवश्यकता नहीं है. आपको मेरी बात का यकीन करना चाहिए."

"मेरी अनुमति तभी मिलेगी."

उसने फोन काट दिया.

इस घटना के कुछ दिनों बाद ही किन्हीं बरनवाल के नाम से फोन आया. आवाज
बदलकर वह फोन लेखक महोदय ही कर रहे थे. उसने कहा, "मैं आपके उपन्यास
’पाथर टीला’ पर जे.एन.यू. से एम.फिल. करना चाहता हूं. यह एक महत्वपूर्ण
उपन्यास है. प्रेमचन्द की परम्परा को आगे बढ़ाता है. आपसे अनुमति चाहिए."

"एम.फिल. या पी-एच.डी. करने के लिए किसी शोधार्थी को लेखक से अनुमति लेने
की आवश्यकता नहीं होती. मैं यह अवश्य जानना चाहता हूं कि आपका निर्देशक
कौन है ?"

"निर्देशक का नाम तय नहीं हुआ.. मैं आपसे फोन पर उसके बारे में कुछ
डिस्कस करना चाहता हूं."

"मिलकर बात करना बेहतर होगा. या तो आप मेरे कार्यालय आ जाएं या कॉफी होम
में मिलें और उससे बेहतर होगा कि मेरे घर पधारें."

"मिलने की क्या आवश्यकता---- आप फोन पर ही बता दें." उसने कहा.

"आप ’पाथर टीला’ पर कभी शोध नहीं कर पाएगें." मैंने फोन काट दिया था.

यह बात मैंने प्रकाशक स्व. जगदीश भारद्वाज जी (महेश भारद्वाज के पिता) को
बताई. उन्होंने उस कथाकार का नाम लेते हुए कहा, "चन्देल जी आप क्यों
परेशान हैं इस बात से --- परेशान तो वह है --- उसे रहने दें. आपके
उपन्यास की चर्चा ने उसकी दिन-रात की नींद उड़ा दी है. आप मस्त रहें---
अपना ध्यान लिखने में केन्द्रित करें और उन्हें इन सब मामलों में उलझे
रहने दें."

और मैंने जगदीश जी की बात मानकर उस विषय में सोचना बंद कर दिया था.

यहां यह उद्घाटित कर दूं कि यह वही कथाकार था जिसपर पिछले दिनों करोड़ों
रुपए के सरकारी घोटाले का आरोप लगा था.

प्रस्तुत है अशोक आन्द्रे की वह समीक्षा .

समीक्षा :

प्रेमचन्द की याद दिलाता है ’पाथर टीला’

* अशोक आन्द्रे

हिन्दी कथा साहित्य में गांव की बात आते ही अनायास प्रेमचन्द की याद ताजा
हो उठती है. प्रेमचन्द की रचनाओं में गांव की जिन समस्याओं को अभिव्यक्त
किया गया था, क्या आज के गांव उन समस्याओं से निजात पा चुके हैं ? यह
प्रश्न हिन्दी पाठक के मन को कुरेदता है और गांव से निकट से परिचित और
गांव से असंबद्ध ; किन्तु विभिन्न माध्यमों से गांव की आज की वास्तविकता
का परिचय पाते रहने वाले पाठक जानते हैं कि आजादी से पूर्व अर्थात
प्रेमचन्द काल में गांव जहां था, उसकी जो समस्याएं थीं, जितना अंधविशासों
में वह डूबा हुआ था, स्वतंत्रता के इतने वर्षों पश्चात भी वह वहीं है----
बल्कि तब से कहीं अधिक दारुण स्थिति में जी रहा है, आज का ग्रामवासी.

कथाकार रूपसिंह चन्देल का उपन्यास ’पाथर टीला’ आज के गांव की वास्तविक
छवि प्रस्तुत करता है. ’पाथर टीला’ एक गांव है, जिस पर उपन्यासकार ने
उपन्यास का शीर्षक दिया है, लेकिन यह केवल पूर्वी उत्तर प्रदेश का ही
गांव नहीं है, बल्कि यह समस्याओं, राजनीतिक उठा-पटक, धार्मिक उन्मादों और
जीवन की विसंगतियों, विषमताओं आदि के कारण अपनी समग्रता में किसी भी
भारतीय गांव की यथार्थपरक छवि प्रस्तुत करता है.

’पाथर टीला’ एक खलनायक प्रधान उपन्यास है अर्थात उपन्यास का मुख्य पात्र
गजेन्द्र सिंह (जिसके काले कारनामें गांव को श्मसान में परिवर्तित कर
देना चाहते हैं ) उपन्यास का नायक है. हिन्दी में खलनायक प्रधान
उपन्यासों की परम्परा नहीं दिखती. इस दृष्टि से ’पाथर टीला’ के लेखक ने
जोखिम उठाते हुए जो कथा प्रस्तुत की है वह महत्वपूर्ण है. अंग्रेजी
साहित्य में ’गॉड फादर’ जैसे खलनायक प्रधान उपन्यासों की उल्लेखनीय
परम्परा हमें प्राप्त होती है. इस दृष्टि से ’पाथर टीला’ को हिन्दी में
उस परम्परा का प्रथम उपन्यास यदि कहा जाए तो अतिशयोक्ति न होगी.

विवेच्य उपन्यास में उत्तर प्रदेश के कानपुर जनपद के गांव को कथानक का
आधार बनाया गया है. गांव की भाषा, खेत, खलिहान, तीज-त्यौहार, मेला,
व्यवसाय, रीति-रिवाज, संस्कार आदि विशेषताएं उपन्यास को आंचलिक उपन्यासों
की श्रेणी में भी ला खड़ा करती हैं, लेकिन फिर भी हम उसे एक अंचल विशेष
में सीमित नहीं कर सकते. जो कुछ हम ’पाथर टीला’ में पाते हैं वही सब
बिहार, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, या मध्य प्रदेश के किसी भी गांव में
देखा जा सकता है. हर गांव में आज एक गजेन्द्र सिंह उपस्थित है, जो
नव-पूंजीवादी -सामन्ती व्यवस्था का प्रतिरूप बन गांव का शोषण इस हद तक
करने के लिए तत्पर है कि गांव के लोग गोविन्द श्रीवास्तव या नत्थू की
भांति पलायन करने के लिए अभिशप्त हैं, या जमींदार के अत्याचारों को सहते
हुए गांव में ही घुटते रहते हैं.

’पाथर टीला’ का प्रारंभ गांव के बाहर एक ऊंचे टीले पर स्थापित बरियार
बाबा के चबूतरा के सामने मैंदान में लगने वाले मेला से होता है. गजेन्द्र
सिंह उस मेला का आयोजन करता है. बरियार बाबा एक किवदंती पुरुष हैं, जिनके
विषय में बुजुर्ग गोधन माली तक को अधिक कुछ पता नहीं. गोधन ने अपने
पूर्वजों से और उन्होंने अपने पूर्वजों से जो सुना था वह यही कि बरियार
सिंह उसी गांव के थे और गांव में एक मात्र पढ़े -लिखे धार्मिक पुरुष थे,
अविवाहित रहे थे जीवन भर. नीति-नियम के पक्के और लोगों का उन पर अटूट
विश्वास था कि वे किसी भी विपत्ति में गांव के लोगों की रक्षा करने में
सक्षम हैं. वृद्धावस्था में वे गांव के बाहर उस टीले पर आकर रहने लगे थे.
वे कितने वर्ष पहले थे यह कोई न जानता था, लेकिन गोधन का अनुमान था कि वे
ढाई-तीन सौ वर्ष पहले रहे होंगे. लेकिन गजेन्द्र सिंह का शातिर दिमाग
गांव के लिए देवत्व प्राप्त बरियार सिंह का भी यह कहकर इस्तेमाल करता है
कि वे उसके खानदानी थे. वह वहां प्रतिवर्ष मेला लगवाने की घोषणा करता है,
जिससे मूर्ति पर चढ़ावे के रूप में आए धन से वहां मंदिर बनवा सके. वह
मंदिर के लिए एक समिति गठित करता है, चंदा उगाहता है और सारी राशि शहर के
अपने बैंक खाते में जमा कर देता है. चंदे के रूप में डाक्टर गोविन्द की
दी हुई ईंट और सीमेण्ट से वह अपने घर का कुछ भाग बनवा लेता है. वह नत्थू
पहलवान का गलत कामों के लिए इस्तेमाल करना चाहता है, लेकिन उसके विरोध
करने पर उसे गांव छोड़ने के लिए विवश कर देता है. पुलिस के साथ किसी भी
आधुनिक माफिया की भांति उसका गहरा संबन्ध है.बाद में वह नत्थू के भाई को
पुलिस हिरासत में भेजवा देता है और छुड़ाने के लिए मध्यस्थता के बहाने
पैसा खाता है.

उसकी चौपाल के कई स्थाई सदस्य हैं जिनका इस्तेमाल अलग-अलग कामों के लिए
वह करता है. उसका जानवरों का घेर जुआ का अड्डा है और वहीं से वह अफीम और
चरस जैसे मादक पदार्थों का धंधा करता है. जुआ की लत गांव के अनेक लोगों
को डालकर वह उनकी सम्पत्ति हड़पता है तो मादक पदार्थों से अनेक परिवारों
को तबाह करता है. शहर से गांव में आ बसे बाबू बलजीत सिंह को एक शहरी
जुआरी के कत्ल के जुर्म में झूठे ही फंसा देता है. बलजीत सिंह का मित्र
बुधवा अहीर उसके पास जेवर रेहन रख पुलिस को रेश्वत दे बलजीत सिंह को
छुड़वाता है. रिश्वत में गजेन्द्र सिंह का हिस्सा निश्चित है. वह अपने घेर
में मादक द्रव्यों के धंधे के लिए भी पुलिस को निश्चित रिश्वत देता है.
पुलिस उसके हर अनुचित कार्य को जानते हुए भी ग्राम प्रधान हरिहर अवस्थी,
जो एक सरल हृदय व्यक्ति हैं, के दरवाजे न उतरकर उसी के दरवाजे उतरती है.
वास्तव में गजेन्द्र सिंह का गांव में इतना दबदबा है कि अवस्थी भी उससे
डरते हैं. शहरी के हत्यारे रामदीन से गजेन्द्र गांव के गरीब चरवाहे
सिड़िया के घेर में सेंध लगवाता है, लेकिन अनायास ही रामदीन सिड़िया की
हत्या कर देता है. सिड़िया के यहां रामदीन को कुछ नहीं मिलता; फिर भी
पुलिस का भय दिखाकर गजेन्द्र सिंह रामदीन से धन ऎंठना चाहता है, और
आतंकित रामदीन आत्महत्या कर लेता है.

गजेन्द्र सिंह अपनी मातृ-पितृ विहीना भतीजी कमली तक को नहीं छोड़ता. धन की
लिप्सावश वह कमली को दूर गांव में ब्याह देना चाहता है, जिससे वह अपने
पिता के सम्पत्ति की मांग न कर सके. विरोध करने पर वह उसे मारता-पीटता
है, उसके पढ़ने पर रोक लगाता है, लेकिन बाबू बलजीत सिंह के बेटे अजय और
उनकी बेटी अनीता से प्रेरित कमली पढ़ने की जिद करती है और बाहर शेर बना
रहने वाला गजेन्द्र सिंह घर में हारने लगता है. वह गांव के मजदूरों से भी
हारता है. जब वे उसके अत्याचार और कम मजदूरी के विरोध में फसल बुआई के
सही वक्त पर काम पर जाना बंद कर देते हैं. वह विवश होकर उनसे समझौता करता
है . वह गांव में साम्प्रदायिक सद्भाव को नष्ट करने का प्रयास करता है.
मुसलमानों की मस्जिद न बनने देने के षड़यंत्र करता है, लेकिन उसका मंदिर
तो नहीं बन पाता, मस्जिद की नीव हरिहर अवस्थी और बाबू बलजीत सिंह जैसे
प्रतिष्ठ्त ग्रामीणों द्वारा रखी जाती है. वह डाक्टर गोविन्द के घर डकैती
डलवाता है और उसे शहर पलायन के लिए विवश करता है. यही नहीं रेलवे स्टेशन
के सामने पचासों वर्षों से खाली पड़ी धर्मशाला में वह कब्जा करता है और
मिडिल स्कूल खोलता है, लेकिन उसके काले कारनामों से परिचित न तो ’पाथर
टीला’ का कोई व्यक्ति वहां अपना बच्चा भेजता है, न दूसरे गांव वाले. इसे
भी वह अपनी पराजय मानता है. वह तब और अधिक तड़फड़ाता है जब उसकी अवहेलना
करती कमली दलितों के बच्चों को एकत्र कर बुधवा के घर में अनीता के साथ
स्कूल चलाने लगती है. उसके पाले हुए बिल्ले, रंगा, कुक्कू जैसे लोग उसकी
अनुमति के बिना जब दूसरे गांव में डकैती डालते पकड़े जाते हैं, तब वह
बौखला जाता है और यहीं से उसमें विक्षिप्तता के लक्षण स्पष्ट होने लगते
हैं. अंत में वह विक्षिप्त हो पाण्डु नदी में डूब मरता है.

चन्देल एक कुशल शिल्पी की भांति विवेच्य उपन्यास में कथा कहते दिखते
हैं.अनेक उप-कथाएं उपन्यास को बल प्रदान करती हैं और लेखक की किस्सागोई
शैली (जिसका आज हिन्दी कथा साहित्य में प्रायः लोप होने लगा है) चन्देल
को प्रेमचन्द की परम्परा से जोड़ती है. लेकिन उपन्यासकार कई प्रश्न भी
छोड़ता है. पहला प्रश्न तो यही कि गजेन्द्र सिंह का मरना आवश्यक क्यों था
? क्या ऎसे पात्र मरते हैं ? यदि वह न मरता तो क्या उपन्यास का प्रभाव कम
होता ? दूसरा - कमली, हरिहर अवस्थी, अजय जैसे पात्र जब और विकास की दरकार
कर रहे थे तब उपन्यास का सिमट जाना अखरता है. गोविन्द और रमा के प्रसंग
को किंचित सीमित करके भी चित्रित किया जा सकता था. यदि इन जैसी कुछ
बातों को छोड़ दें तो कहना उचित होगा कि ’पाथर टीला’ बीसवीं सदी के अंतिम
दशक का एक उल्लेखनीय और अवस्मरणीय उपन्यास है.

****
अशोक आन्द्रे
१८८, एस.एफ.एस. फ्लैट्स,
जी.एच.-4/जी-17,
निकट मीरा बाग,
पश्चिम विहार,नई दिल्ली

मोबाइल : 09818967632

’पाथर टीला’ - रूपसिंह चन्देल
(संस्करण अक्टूबर,२०१०)
भावना प्रकाशन, 109-A, पटपड़गंज,
दिल्ली - 110 091

पृष्ठ - 327, मूल्य : 400/-

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

पुस्तक चर्चा



हाल में अप्रवासी चर्चित हिन्दी कथाकार और कवयित्री इला प्रसाद का कहानी संग्रह - ’उस स्त्री का नाम’ भावना प्रकाशन, दिल्ली से प्रकाशित हुआ है. संग्रह की भूमिका मैंने लिखी, जो अविकल रूप से रचना समय के पाठकों के लिए प्रस्तुत है :
****
गहन जीवनानुभव की कहानियां

रूपसिंह चन्देल

अपनी रचनात्मक वैविध्यता के कारण प्रवासी हिन्दी साहित्यकारों में इला
प्रसाद की अपनी एक अलग पहचान है। वह न केवल एक सक्रिय और सशक्त कहानीकार
हैं बल्कि एक कवयित्री के रूप में भी उन्होंने अपनी रचनात्मकता को
सार्थकता प्रदान किया है। उनकी कहानियां जीवनानुभवों की सहज और स्वाभाविक
अभिव्यक्ति हैं जिनमें उनकी सूक्ष्म पर्यवेक्षक दृष्टि परिलक्षित है ।
छोटे वाक्य विन्यास और काव्यात्मक भाषा उन्हें आकर्षक बनाते हैं । संग्रह

की एक मार्मिक कहानी ‘एक अधूरी प्रेम कथा’ जिसमें बिना विवाह जन्मी
निमी की पीड़ा को इला ने गहनता से व्याख्यायित किया है, से एक छोटा
उदाहरण दृष्टव्य है ..‘‘वह सहसा उठकर बैठ गई । दीवार से पीठ टिका ली ।
तकिया गोद में । आंखें झुकीं । मुंह से पहली बार बोल फूटे -------
थैं क्यू दीदी ।’’

मैंने सदैव अनुभव किया कि जो कथाकार प्रकृति से कवि होते हैं उनकी
-रचना में काव्यात्मक स्पर्श अनायास ही संभव होता है और अनायास
काव्य-स्पर्शित रचना में प्रभावोत्पादकता अवश्यंभावीरूप से प्रादुर्भूत
हो उठती है । रचना में एक चुंबकीय पठनीयता होती हैए पाठक जिससे आद्यंत
गुजरे बिना मुक्त नहीं हो पाता । इला प्रसाद की कहानियों की यह विशेषता
है । उनकी कहानियों की विशेषता यह भी है कि वे ऐसे विषयों को भी अपने
कथानक का हिस्सा बना देती हैं ,जिनकी ओर सामान्यतया लेखकों का ध्यान
आकर्षित नहीं हो पाता । संग्रह की ‘हीरो’ या ‘मेज’ ऐसी ही कहानियां हैं ।

‘हीरो’ में गार्बेज डिस्पोजर खराब होने से प्रारंभ हुई कहानी प्लंबर जिम
के बहाने अमेरिकी जीवन को सहजता से रेखांकित करती है ,जहां ,‘‘हर जगह
पैसा। हर रिश्ते को ये पैसों से क्यों तौलते हैं ? सारी संवेदनाएं मर गई
हैं जैसे !’’

अमेरिका में रिश्ते किस प्रकार बेमानी हो चुके हैं ,इसका दिल दहला देने
वाला वृत्तांत है ‘उस स्त्री का नाम ’ । यह एक ऐसी भारतीय स्त्री की
कहानी है जो पति की मृत्यु के पश्चात दिल्ली की अपनी नौकरी छोड़कर अमरिका
में बेटे के रियल एस्टेट के व्यवसाय में सहायता करने के लिए अमेरिका जा
बसती है । रहस्य और रोमांच से आवेष्टित इस कहानी में लेखिका अंत में यह
उद्घाटित करती हैं कि जिस बेटे के लिए वह मां दिल्ली की अपनी नौकरी और
बिन ब्याही पैंतालीस वर्षीया बेटी को छोड़ आयी वह अमेरिकी जीवन.”शैली
जीता अपने व्यवसाय और अपने परिवार में डूबा वृद्धा मां को ‘ओल्ड एज लोगों
के रिटायरमेण्ट होम में रहने के लिए छोड़ देता है । संग्रह की अधिकांश
कहानियां अमेरिकी पृष्ठभूमि पर आधारित हैं जो प्रवासी भारतीयों के
जीवनचर्या को आधार बनाकर लिखी गई हैं । ‘मेज’ ,‘होली’ ,‘चुनाव’ ,
‘हीरो’ ,‘मिट्टी का दीया’ ,‘कुंठा’ आदि ।

इला प्रसाद की कहानियों में हमें मानवीय संवेदनाओ का सूक्ष्म विवेचन
प्राप्त होता है । ‘एक अधूरी प्रेम कथा’ए ‘मेज’ ए ‘उस स्त्री का नाम ’
आदि कहानियां इसका ज्वलंत उदाहरण हैं । प्रवासी भारतीयों की मनः स्थिति
को पकड़ पाने में लेखिका सफल रही हैं । इनमें जीवन गहनता से चित्रित हुआ
है । अमेरिका की अनेक संस्थाएं भारत के गांवों में अस्पताल /विद्यालय और
आदिवासी क्षेत्रों के विकास के लिए धन संग्रह कर भारत भेजती हैं । लेकिन
कितना विकास होता है यहां और कितने विद्यालय/अस्पताल खुलते हैं या खुलकर
अपने कर्तव्य का निर्वहन करते हैं ! ‘मिट्टी का दीया’ में इला प्रसाद की
दुश्चिंता स्पष्ट है .. ‘‘उसे इन संस्थाओं से जुड़े लोगों की नीयत पर
भरोसा न हो यह बात नहीं । पैसा भारत पहुंचता होगा ,लेकिन क्या सही लोगों
तक भी पहुंच जाता होगा घ् सारा का सारा ? क्या जानकीवल्लभ शास्त्री की
पंक्तियां .. ‘ऊपर.ऊपर पी जाते हैं जो पीनेवाले हैं ,कहते ऐसे ही जीते
हैं जो जीने वाले हैं ए या दुष्यंत कुमार . ‘यहां तक आते.आते सूख जाती
हैं नदियां ए मुझे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा ।’------
गैर.सरकारी संस्थाओं में उस मनोवृत्ति के लोग नहीं होते होगें क्या ?’’
इसी कहानी में तन्वी पड़ोसी के बारह वर्ष के बेटे को अपनी ओर घूरते देख
कह उठती है . ‘‘यहां बच्चे कितनी जल्दी बड़े हो जाते हैं ।’’ और वह देख
रही थी .. ‘‘ वे कच्ची कलियां तोड़ रहे हैं । लगातार तोड़ते जा रहे हैं
..... आत्मविश्वास से भरे हुए हैं । वे केवल कच्ची कलियां ही नहीं
तोड़ेंगे ,एक दिन पूरा बगीचा ही उठा ले जाएंगे वे । आने वाला कल उन्हीं
का है ।"

उसे घर पर सो रही अपनी नन्ही कली का खयाल आया । सिन्धु !’’

इला प्रसाद ने अपनी कहानियों के माध्यम से जहां अमेरिकी संस्कृति ;या
अपसंस्कृतिद्ध से दो.चार होते और उसका हिस्सा बनते प्रवासी भारतीयों के
सामाजिक ,आर्थिक और धार्मिक जीवन का वास्तविक चित्रण किया है वहीं
भारतीय परिवेश की उनकी कहानियों में जीवन की विसंगतियां ,विद्रूपताएं और
विश्रृंखलताएं अपनी सम्पूर्णता में उद्घाटित हुई हैं । उनका ”शिल्प
प्रभुविष्णु और भाषा सहज है और यह उनकी कहानियों की शक्ति है । उनकी
कहानियों में एक सम्मोहक पठनीयता है ।

दिल्ली . 110 094
31 मार्च ए 2010
*****
उस स्त्री का नाम - इला प्रसाद
भावना प्रकाशन
109-A, पटपड़गंज, दिल्ली - ११००९१

मूल्य : १५०/- , पृष्ठ : १२८

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

कविताएं


राहुल उपाध्याय की पांच कविताएं

प्रतिभा पलायन

पिछड़ा हुआ कह के
देश को पीछे छोड़ दिया
सोने-चांदी के लोभ में
पराये से नाता जोड़ लिया

एक ने कहा
ये बहुत बुरा हुआ
इनके नागरिकता त्यागने से
देश हमारा अपमानित हुआ

दूसरे ने कहा
ये बहुत अच्छा हुआ
इनके नागरिकता त्यागने से
देश हमारा नाग-रिक्त हुआ

(सिएटल- २४ फ़रवरी)

मौसम

पतझड़ के पत्ते
जो जमीं पे गिरे हैं
चमकते दमकते
सुनहरे हैं

पत्ते जो पेड़ पर
अब भी लगे हैं
वो मेरे दोस्त,
सुन, हरे हैं

मौसम से सीखो
इसमें राज़ बड़ा है
जो जड़ से जुड़ा है
वो अब भी खड़ा है
रंग जिसने बदला
वो कूढ़े में पड़ा है

घमंड से फ़ूला
घना कोहरा
सोचता है देगा
सूरज को हरा

हो जाता है भस्म
मिट जाता है खुद
सूरज की गर्मी से
हार जाता है युद्ध

मौसम से सीखो
इसमें राज़ बड़ा है
घमंड से भरा
जिसका घड़ा है
कुदरत ने उसे
तमाचा जड़ा है

(सिएटल- ९ अक्टूबर,२००७)



करवा चौथ

भोली बहू से कहती हैं सास
तुम से बंधी है बेटे की सांस
व्रत करो सुबह से शाम तक
पानी का भी न लो नाम तक

जो नहीं हैं इससे सहमत
कहती हैं और इसे सह मत

करवा चौथ का जो गुणगान करें
कुछ इसकी महिमा तो बखान करें
कुछ हमारे सवालात हैं
उनका तो समाधान करें

डाँक्टर कहें
डाँयटिशियन कहें
तरह तरह के
सलाहकार कहें
स्वस्थ जीवन के लिए
तंदरुस्त तन के लिए
पानी पियो, पानी पियो
रोज दस ग्लास पानी पियो

ये कैसा अत्याचार है?
पानी पीने से इंकार है!
किया जो अगर जल ग्रहण
लग जाएगा पति को ग्रहण?
पानी अगर जो पी लिया
पति को होगा पीलिया?
गलती से अगर पानी पिया
खतरे से घिर जाएंगा पिया?
गले के नीचे उतर गया जो जल
पति का कारोबार जाएंगा जल?

ये वक्त नया
ज़माना नया
वो ज़माना
गुज़र गया
जब हम-तुम अनजान थे
और चाँद-सूरज भगवान थे

ये व्यर्थ के चौंचले
हैं रुढ़ियों के घोंसले
एक दिन ढह जाएंगे
वक्त के साथ बह जाएंगे
सिंदूर-मंगलसूत्र के साथ
ये भी कहीं खो जाएंगे

आधी समस्या तब हल हुई
जब पर्दा प्रथा खत्म हुई
अब प्रथाओ से पर्दा उठाएंगे
मिलकर हम आवाज उठाएंगे

करवा चौथ का जो गुणगान करें
कुछ इसकी महिमा तो बखान करें
कुछ हमारे सवालात हैं
उनका तो समाधान करें

(सिएटल- २५ अक्टूबर,२००७)

महल एक रेत का

टूट गया जब रेत महल
बच्चे का दिल गया दहल
मिला एक नया खिलौना
बच्चे का दिल गया बहल

आया एक शिशु चपल
रेत समेट बनाया महल

बार बार रेत महल
बनता रहा, बिगड़ता रहा
बन बन के बिगड़ता रहा

रेत किसी पर न बिगड़ी
किस्मत समझ सब सहती रही

वाह री कुदरत,
ये कैसी फ़ितरत?
समंदर में जो आंसू छुपाए थे
उन्हें ही रेत में मिला कर
बच्चों ने महल बनाए थे

दर्द तो होता है उसे
कुछ नहीं कहती मगर

एक समय चट्टान थी
चोट खा कर वक़्त की
मार खा कर लहर की
टूट-टूट कर
बिखर-बिखर कर
बन गई वो रेत थी

दर्द तो होता है उसे
चोट नहीं दिखती मगर

वाह री कुदरत,
ये कैसी फ़ितरत?
ज़ख्म छुपा दिए उसी वक़्त ने
वो वक़्त जो था सितमगर!

आज रोंदते हैं इसे
छोटे बड़े सब मगर
दरारों से आंसू छलकते हैं
पानी उसे कहते मगर

टूट चूकी थी
मिट चूकी थी
फिर भी बनी सबका सहारा
माझी जिसे कहते किनारा

(सिएटल-४ मार्च,२००८)

हम सब एक है

स्विच दबाते ही हो जाती है रोशनी
सूरज की राह मैं तकता नहीं

गुलाब मिल जाते हैं बारह महीने
मौसम की राह मैं तकता नहीं

इंटरनेट से मिल जाती हैं दुनिया की खबरें
टीवी की राह मैं तकता नहीं

ईमेल-मैसेंजर से हो जाती हैं बातें
फोन की राह मैं तकता नहीं

डिलिवर हो जाता हैं बना बनाया खाना
बीवी की राह मैं तकता नहीं

होटले तमाम है हर एक शहर में
लोगों के घर मैं रहता नहीं

जो चाहता हूं वो मिल जाता मुझे है
किसी की राह मैं तकता नहीं

किसी की राह मैं तकता नहीं
कोई राह मेरी भी तकता नहीं

कपड़ो की सलवट की तरह रिश्ते बनते-बिगड़ते हैं
रिश्ता यहाँ कोई कायम रहता नहीं

तत्काल परिणाम की आदत है सबको
माइक्रोवेव में तो रिश्ता पकता नहीं

किसी की राह मैं तकता नहीं
कोई राह मेरी भी तकता नहीं

(सिएटल, १९ सितम्बर,२००७)
*****
बचपन सैलाना में गुज़रा. तब से अब तक सैलानी हूँ. सैलाना, रतलाम, मेरठ, शिमला, कलकत्ता और बनारस से शिक्षा प्राप्त कर के पिछले 24 वर्ष से अमेरिका के विभिन्न शहरों में रहते हुए आजकल सिएटल में कार्यरत. पिछले दस साल से कविताएँ लिखने का शौक पाल लिया है, जिनमें या तो एन-आर-आई की त्रासदी का वर्णन होता है या फिर जीवन की विडम्बनाओं में हास्य ढूँढने का प्रयास. शब्दों से खेलना अच्छा लगता है. कविताएँ लिखने की प्रेरणा संत कबीर के दोहों से मिली. छोटी कविता, शब्दों का खेल और बात की बात.
सम्पर्क: upadhyaya@yahoo.com
फोन: दिल्ली 099588 - 90072/ सिएटल - 001-513-341-6798
कविताएँ: http://tinyurl.com/rahulpoems

रविवार, 22 अगस्त 2010

आलेख

चित्र : देवप्रकाश चौधरी

यह इस्लामी आतंकवाद क्या होता है विभूति नारायण राय!

फ़ज़ल इमाम मल्लिक

लगा फिर किसी ने मेरे गाल में जोर से तमाचा जड़ दिया। तमांचा मारा तो गाल पर था लेकिन चोट कलेजे पर लगी। चोट इस बार ज्यादा लगी। इस झन्नाटेदार तमांचे की धमक अब तक मैं महसूस कर रहा हूं। दरअसल पिछले कुछ सालों से इस तरह की चोट अक्सर कभी गाल पर तो कभी दिल पर झेलने के लिए भारतीय मुसलमान अभिशप्त हो गए हैं। आतंकवाद की बढ़ती घटनाओं ने हमेशा से ही देश भर के मुसलमानों पर सवाल खड़े किए हैं।
आतंकवाद की घटना कहीं भी घटे, देश भर के मुसलमानों को शक की निगाह से देखे जाते थे और कुछ क़सूरवार और कुछ बेक़सूर लोगों की धरपकड़ की जाती थी। उनके माथे पर भी आतंकवादी शब्द चस्पां कर दिया जाता रहा है जो आतंकवादी नहीं थे। लेकिन मुसलमान होने की वजह से सैकड़ों की तादाद में ऐसे मुसलमानों को गिरफ्तार किया गया जिनका आतंकवाद से कोई लेना-देना नहीं था। अदालतों ने ऐसे बहुत सारे लोगों को बाद में बरी भी कर दिया जिसे भारतीय पुलिस ने आतंकवादी बताने में किसी तरह की कंजूसी नहीं की थी। लेकिन वही पुलिस बाद में उनके ख़िलाफ़ सबूत पेश नहीं कर पाई। ऐसे एक-दो नहीं ढेरों मामले हमारे सामने आए लेकिन इसके बावजूद आतंकवादी घटनाओं ने मुसलमानों के सामने बारहा परेशानी खड़ी की। वह तो भला हो साध्वी प्रज्ञा और उनके साथियों का जिसकी वजह से मुसलमानों की शर्मिंदगी बहुत हद तक कम हुई। इन कट्टर हिंदुओं ने मुसलमानों से बदला लेने के लिए वही रास्ता अपनाया जो मुसलमानों के नाम पर चंद कट्टर मुसलिम आतंकवादी संगठनों ने अपना रखा था। यानी ख़ून के बदले ख़ून। हत्या के इस खेल में काफ़ी दिनों तक तो यह पता ही नहीं चल पाया कि अजमेर या मक्का मस्जिद धमाके में कुछ हिंदू कट्टरवादी संगठनों का हाथ है। इसका पता तो बहुत बाद में चला। तब तक तो संघ परविार से लेकर भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता भी ‘इस्लामी आतंकवाद’ का ही राग अलाप रहे थे। लेकिन साध्वी की गिरफ्तारी के बाद जब ‘हिंदू आतंकवाद’ का राग अलापा जाने लगा और अख़बारों से लेक चैनलों तक में यह ‘हिंदू आतंकवाद’ मुहावरों की तरह प्रचलन में आने लगा तो अपने लालकृष्ण आडवाणी से लेकर संध परिवार के मुखिया तक को तकलीफ़ हुई और वे सार्वजनिक तौर पर कहने लगे कि किसी धर्म पर आतंकवाद का ठप्पा लगाना ठीक नहीं है। इतना ही नहीं आडवाणी और उनकी पार्टी के दूसरे नेता भागे-भागे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पास तक जा पहुंचे थे और उनसे इस पूरे मामले में उच्चस्तरीय जांच की मांग तक कर डाली थी। भाजपा ने तो तब एक तरह से अपनी तरफ़ से फैÞसला तक सुना डाला था कि साध्वी बेक़सूर हैं। हैरत इस बत पर थी कि देश के पूर्व गृह मंत्री रह चुके आडवाणी ने अदालती फैसले से पहले ही फैसला सुना डाला था और साध्वी और उनके सहयोगियों को बरी क़रार दे दिया था। याद करें तब साध्वी को गिरफ्Þतार करने वाले पुलिस अधिकारी हेमंत कड़कड़े को आडवाणी से लेकर नरेंद्र मोदी ने कम नहीं कोसा था। चुनावी सभाओं तक में भाजपा नेताओं ने हेमंत कड़कड़े की निष्ठा और ईमानदारी पर सवाल किए थे। लेकिन यही आडवाणी किसी मुसलमान की गिरफ्Þतारी पर इतने विचलित हुए हों कभी देखा नहीं। तब तोे वे और उनके सहयोगी मुसलमानों को कठघरे में खड़ा कर ‘इस्लामी आतंकवाद’ का राग इतनी बार और इतने चैनलों पर अलापते थे मानो अदालत भी वे हैं और जज भी। लेकिन एक साध्वी ने उनके नज़रिए को बदल डाला। कांग्रेसी सरकार (यहां यूपीए भी पढ़ सकते हैं) के मुखिया मनमोहन सिंह ने भी आडवाणी को जांच का भरोसा दिला कर विदा कर डाला जबकि बटला हाउस या इसी तरह के दूसरे मुठभेड़ों को लेकर जांच की बार-बार की जाने वाली मांग पर अपनी धर्मनिरपेक्ष सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह और धर्मनिरपेक्षता की अलमबरदार सोनिया गांधी ने एक शब्द तक नहीं कहा।
दरअसल कांग्रेस के यहां भी कट्टरवाद के अलग-अलग पैमाने हैं। जहां हिंदू कार्ड चले वहां हिंदुओं को खुश कर डालो और जहां मुसलमानों को पुचकारना हो वहां मुसलमानों के लिए कुछ घोषणाएं कर डालो। नहीं तो कांग्रेस और भाजपा में बुनियादी तौर पर बहुत ज्यादा फ़र्क़ तो नहीं ही दिखता है। एक खाÞस तरह की सांप्रदायिकता से तो कांग्रेस भी अछूती नहीं है नहीं। बल्कि कई लिहाज़ से कांग्रेस की सांप्रदायिकता ज्Þयादा ख़तरनाक है। कांग्रेस धीरे-धीरे मारने की कÞायल है जबिक भारतीय जनटा पार्टी या संघ परिवार जिंÞदा जला डालते हैं। यानी इस देश में कोई भी राजनीतिक दल मुसलमानों का सगा नहीं है। नहीं यह बात मैं किसी की सुनी-सुनाई नहीं कह रहा हूं। कुछ तो ख़ुद पर बीती है और कुछ अपने है जैसे दूसरे मुसलमानों पर बीतते देखी है। महाराष्ट्र पुलिस के एक बड़े अधिकारी ने मुलाक़ात में कहा था कि महाराष्ट्र की धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस सरकार ने आतंकवाद के नाम पर मुसलमानों को पकड़ने का मौखिक फ़रमान उन्हें जारी किया था। लेकिन उन्होंने ऐसा करने से मना कर दिया। नतीजा उन्हें ऐसे विभाग में तबादला कर दिया गया जहां वे अछूतों की तरह रह रहे हैं और वहां उनके करने के लिए कुछ नहीं था। कांग्रेस और भाजपा में बुनियादी फ़र्क़ नरम और गरम हिंदुत्व का है। नहीं तो अपनी सोनिया गांधी गुजरात जाकर ‘मौत का सौदागर’ का जयघोष कर नरेंद्र मोदी को तोहफे में दोबारा कुर्सी सौंप नहीं देतीं। कांग्रेस ने जितना नुक़सान हर सतह पर मुसलमानों का किया है, शायद भाजपा ने कम किया। सांप्रदायिक दंगों को छोड़ दिया जाए तो भाजपा के खाते में व्यवहारिक तौर पर ऐसा करने के लिए कुछ नहीं था जिससे मुसलमानों का नुक़सान हो। लेकिन कांग्रेस ने मुसलमानों को न तो सत्ता में सही तरीक़े से हिस्सेदारी दी और न ही उनकी आर्थिक हालात सुधारने के लिए कोई ठोस और बड़ा क़दम उठाया। राजनीतिक दलों ने इस देश के मुसलमानों को महज़ वोट की तरह इस्तेमाल किया। चुनाव के समय उन्हें झाड़-पोंछ कर बाहर निकाला, वोट लिया और फिर उन्हें उसी अंधेरी दुनिया में जीने के लिए छोड़ दिया जहां रोशनी की नन्नही सी किरण भी दाख़िल नहीं हो पाती है।
रही-सही कसर आतंकवाद ने पूरी कर दी। आतंकवाद के नाम पर भी मुसलमानों का कम दमन नहीं हुआ है। अब तो अपने मुसलमान होने पर अक्सर डर लगने लगता है। पता नहीं कब कोई आए और उठा कर ले जाए और माथे पर आतंकवादी लफ्Þज़ चस्पां कर दे। लड़ते रहिए लड़ाई और लगाते रहिए आदालतों के चक्कर अपने माथे पर से इस एक शब्द को हटाने के लिए। लेकिन माथे पर लिखा यह एक लफ्Þज़Þ फिर इतनी आसानी से कहां मिटता है। चैनलों से लेकर अख़ाबर बिना किसी पड़ताल के आतंकवादी होने का ठप्पा लगा देते हैं। ऐसे में ही अगर कोई ‘इस्लामी आतंकवाद’ की बात करता है तो लगता है कि किसी ने गाल पर झन्नाटेदार तमांचा जड़ दिया हो। संघ परिवार और उससे जुड़े लोग अगर इस इस्लामी आतंकवाद का राग अलापें तो क़तई बुरा नहीं लगता है क्योंकि 9/11 के बाद बरास्ता अमेरिका यह शब्द हमारे यहां पहुंचा है। वलर््ड ट्रेड सेंटर पर आतंकवादी हमले के बाद अमेरिका ने इस्लामी आतंकवाद का नया मुहावरा गढ़ा और भारत में भाजपा और संघ परिवार ने इसे फ़ौरन लपक लिया। साध्वी और उनके साथी की गिरफ्Þतारी के बाद ही भाजपा के कसबल ढीले पड़े थे क्योंकि तब चैनलों और अख़बारों ने ‘हिंदू टेररज्मि’ का नया मुहावरा उछाला। ज़ाहिर है कि संघ परिवारियों को इससे मरोड़ उठना ही था। उठा भी, उन्होंने इस मुहावरे के इस्तेमाल का विरोध किया और साथ में यह दलील भी दी कि इस्लामी आटंकवाद कहना भी ठीक नहीं है। यानी जब ख़ुद पर पड़ी को ख़ुदा याद आया। इस्लामी आतंकवाद के इस्तेमाल का विरोध करते हुए मैं तर्क देता था कि कोई भी धर्म आतंकवाद का सबक़ नहीं सिखाता, एक मुसलमान आतंकवादी हो सकता है लेकिन इस्लाम किस तरह से आतंकवादी हो सकता है। ठीक उसी तरह साध्वी प्रज्ञा के आतंकवादी होने से हिंदू धर्म को कठघरे में खड़ा नहीं किया जा सकता। धार्मिक व सामाजिक मंचों से भी इसका इज़हार करने में मैंने कभी गुरेज़ नहीं किया।
हैरानी, हैरत और अफ़सोस तब होता है जब इस्लामी आतंकवाद का इस्तेमाल पढ़ा-लिखा, साहित्यकार, ख़ुद को धर्मनिरपेक्षता का अलमबरदार कहने वाला कोई व्यक्ति करता है। यह अफ़सोस तब और होता है जब वह व्यक्ति किसी अंतरराष्ट्रीय विश्वविद्यालय का कुलपति भी होता है। यानी उस व्यक्ति की समझ, शख़्सियत, इल्म पर थोड़ी देर के लिए तो किसी तरह का शक किया ही नहीं जा सकता लेकिन जब वह व्यक्ति इस्लामी आतंकवाद को राज्य की हिंसा से ज्यÞादा ख़तरनाक बतलाता है तो उसकी समझ, इल्म और धर्मनिरपेक्षता सब कुछ एक लम्हे में ही सवालों में घिर जाते हैं। महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय के कुलपति विभूति नारायण राय को लेकर मेरी धारणा भी अब इसी तरह की है। इसी दिल्ली में उन्होंने पढ़े-लिखे लोगों के बीच अपने भाषण में ‘इस्लामी आतंकवाद’ का ज़िक्र किया था और राज्य की हिंसा का समर्थन किया था। हैरत, दुख और तकलीफ़ इस बात की भी है कि सभागार में मौजूद पढ़े-लिखे लोगों में से किसी ने भी उन्हें नहीं टोका कि ‘इस्लामी आतंकवाद’ जैसे मुहावरे का इस्तेमाल एक पूरी क़ौम की नीयत, उसकी देशभक्ति और उसके वजूद पर सवाल खड़ा करता है। न तो समारोह का संचालन कर रहे आनंद प्रधान ने इसका विरोध किया और न ही ‘हंस’ के संपादक राजेंद्र यादव ने, जिनका यह कार्यक्रम था। सभागार में मौजूद दूसरे लोगों ने भी इस ‘इस्लामी आतंकवाद’ पर उन्हें घेरने की कोशिश नहीं की। यक़ीनन इससे मेरे भीतर गुÞस्सा, ग़म और अफ़सोस का मिलाजुला भाव पनपा था। उस सभागार में मैं मौजूद नहीं था। अपनी पेशेगत मजबूरियों की वजह से उस समारोह में शिरकत नहीं कर पाया। अगर होता तो इसकी पुरज़ोर मुख़ालफ़त ज़रूर करता। लेकिन विभूति नारायण राय ने जो बातें कहीं वह मुझ तक ज़रूर पहुंची। उन्होंने जो बातें कहीं थीं उसका लब्बोलुआब कुछ इस तरह था- ‘मैं साफ तौर पर कह सकता हूं कि कश्मीर में इस्लामिक आतंकवाद और भारतीय राज्य के बीच मुकाबला है और मैं हमेशा राज्य की हिंसा का समर्थन करुंगा।’ उन्होंने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए यह भी जड़ दिया कि हम राज्य की हिंसा से तो मुक्त हो सकते हैं लेकिन इस्लामी आतंकवाद से नहीं। मेरी कड़ी आपत्ति इन पंक्तियों पर हैं क्योंकि ऐसा कह कर विभूति नारायण राय ने एक पूरी क़ौम को कठघरे में खड़ा कर दिया है। भारतीय जनता पार्टी या आरएसएस का कोई आदमी अगर इस तरह की बात करता तो समझ में आता भी है क्योंकि उनकी पूरी राजनीति इसी पर टिकी है लेकिन धर्मनिरपेक्षता को लेकर लंबी-चौड़ी बातें करने वाले विभूति इस तरह की बात करते हैं तो सवाल उठना लाज़िमी है।
इस समारोह में विभूति नारायण राय ने अपने भाषण में कई आपत्तिजनक बातें कहीं। उन पर बहस होनी चाहिए थी और उनसे सवाल भी पूछे जाने चाहिए थे। ख़ास कर कि राज्य हिंसा की वकालत करने और इस एक इस्लामी आतंकवाद के फ़िकÞरे उछालने पर। उन्होंने बहुत ही ख़तरनाक बातें कहीं थीं। किसी विश्वविद्यालय के कुलपति और एक साहित्यकार से इस तरह की उम्मीद नहीं थी, हां एक पुलिस अधिकारी ज़रूर इस तरह की बात कर सकता है। चूंकि विभूति पुलिस अधिकिारी पहले हैं और लेखक बाद में इसलिए उनके पूरे भाषण में उनका पुलिस अधिकारी ही बोलता रहा और इस बातचीत में बहुत ही ‘सभ्य तरीक़े’ से उन्होेंने अपने विरोधियों को धमकाया भी। हो सकता है कि ‘हंस’ के इस कार्यक्रम के बाद उनके भाषण पर बहस होती। उनके ‘इस्लामी आतंकवाद’ के फ़तवे पर विरोध होता लेकिन इससे पहले ही उनकी ‘छिनाल’ सामने आ गई और इस ‘छिनाल’ ने उन्हें इस क़द्र परेशान किया कि ‘इस्लामी आतंकवाद’ और ‘राज्य हिंसा की वकालत’ जैसी बातें गौण हो गईं। कुछ तर्क और ज्यÞादा कुतर्क के सहारे विभूति ने अपने ‘छिनाल’ को हर तरह से जस्टीफाई करने की कोशिश भी की लेकिन वे ऐसा नहीं कर पाए। उन्हें आख़िरकार इसके लिए माफ़ी मांगनी ही पड़ी। लेकिन सवाल यहां यह भी है कि जिस सभ्य समाज ने ‘छिनाल’ के लिए विभूति के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला और एक नौकरशाह-लेखक को माफ़ी मांगने के लिए मजबूर किया उसी सभ्य समाज या लेखक वर्ग ने विभूति के ‘इस्लामी आतंकवाद’ का उसी तरह विरोध क्यों नहीं किया जिस तरह ‘छिनाल’ को लेकर हंगामा खड़ा किया। मुझे लगता है यहां भी पैमाने अलग-अलग हैं। चूंकि मामला मुसलमानों से जुड़ा था इसलिए लेखकों को इस शब्द में कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लगा। यह भी हो सकता है कि बेचारा मुसलमान लेखकों के किसी ख़ेमे-खूंटे से नहीं जुड़ा है इसलिए उसके पक्ष में लामबंद होने की ज़रूरत किसी लेखक समूह-संगठन-मंच ने नहीं की।
विभूति नारायण राय ने ‘नया ज्ञानोदय’ में छपे अपने इंटरव्यू में ‘छिनाल’ शब्द पर तो यह तक सफ़ाई दी कि उन्होंने अपने इंटरव्यू में इस शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था, इंटरव्यू करने वाले ने अपनी तरफ़ से इस शब्द को डाल दिया। लेकिन ‘इस्लामी आतंकवाद’ का इस्तेमाल तो उन्होंने अपने प्रवचन में किया था सैकड़ों लोगों की मौजूदगी में। यहां तो वह यह दलील भी नहीं दे सकते कि उन्होंने कहा कुछ था और छपा कुछ। यहां तो उनके ‘श्रीमुख’ से ही उनके विचार फूटे थे। लेकिन ‘छिनाल’ पर हायतौबा मचाने वालों के लिए ‘इस्लामी आतंकवाद’ का इस्तेमाल आपत्तिजनक नहीं लगा। उनके लिए भी नहीं जो वामपंथ की ढोेल ज़ोर-शोर से पीट कर धर्मनिरपेक्षता और सेक्युलर होने की दुहाई देते हुए नहीं थकते हैं। उस सभागार में बड़ी तादाद में अपने ‘वामपंथी कामरेड’ भी थे लेकिन वे भी अपने ख़ास एजंडे को लेकर ही मौजूद थे, जिसकी तरफ़ विभूति नारायण राय ने भी इशारा किया था। और कामरेडों की यह फ़ौज भी विभूति नारायण राय के एक पूरी क़ौम को आतंकवादी क़रार देने के फ़तवे को चुपचाप सुनती रही। यह हमारे लेखक समाज का दोगलापन नहीं है तो क्या है। इसी दोगलेपन ने लेखकों और बुद्धिजीवियों की औक़ात दो कौड़ी की भी नहीं रखी है और यही वजह है कि विभूति नारायण राय और रवींद्र कालिया महिलाओं को ‘छिनाल’ कह कर भी साफ़ बच कर निकल जाते हैं और हम सिर्फÞ लकीर पीटते रह जाते हैं।
विभूति नारायण राय ने ‘छिनाल’ पर तो माफ़ी मांग ली है। कांग्रेस की अगुआई वाली सरकार के मंत्री कपिल सिब्बल ने उनके माफ़ीनाम को मान भी लिया है। लेकिन ‘इस्लामी आतंकवाद’ का इस्तेमाल कर इस्लाम धर्म को मानने वाली एक पूरी क़ौम के माथे पर उन्होंने जो सवालिया निशान लगाया है, क्या इसके लिए भी वे माफ़ी मांगेंगे या यह भी कि उन्हें अपने कहे पर माफÞी मांगनी नहीं चाहिए। या कि कपिल सिब्बल उनसे ठीक उसी तरह माफ़ी मांगने के लिए दबाव बनाएंगे जिस तरह से उन्होंने ‘छिनाल’ के लिए बनाया था। क्या हमारा लेखक समाज विभूति नारायण राय के ख़िलाफ़ उसी तरह लामबंद होगा जिस तरह से ‘छिनाल’ के लिए हुआ था। लगता तो नहीं है कि ऐसा कुछ भी होगा क्योंकि फ़िलहाल ‘मुसलमान’ से बड़ा मुद्दा ‘छिनाल’ है, जिसका इस्तेमाल अपने-अपने तरीक़े से हर कोई कर रहा है ऐसे में किसे पड़ी है कि ‘इस्लामी आतंकवाद’ पर अपना विरोध दर्ज कराए।
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जन्मः १९ जून, १९६४। बिहार के शेखपुरा जिले के चेवारा में।शिक्षाः बी.एस-सी, होटल मैनेजमेंट में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा।
१९८६ में होटल प्रबंधन से किनारा कर पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश। दैनिक हिंदुस्तान में बतौर स्ट्रिंगर शुरुआत। फिलहाल जनसत्ता के दिल्ली संस्करण में वरिष्ठ उपसंपादक के पद पर कार्यरत। क़रीब दस साल तक खेल पत्रकारिता। दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल के लिए फुटबॉल, बास्केटबॉल, एथलेटिक्स, टेनिस सहित दूसरे खेलों के सीधे प्रसारण की कॉमेंट्री।
साहित्यिक पत्रिका 'शृंखला' व 'सनद' का संपादन। सनद अब त्रैमासिक पत्रिका के रूप में दिल्ली से प्रकाशित। कविता संग्रह 'नवपल्लव' और लघुकथा संग्रह 'मुखौटों से परे' का संपादन।
अखिल भारतीय स्तर पर लघुकथा प्रतियोगिता में कई लघुकथाएँ पुरस्कृत।कहानी-कविताएँ देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित व आकाशवाणी-दुरदर्शन से प्रसारित।पत्रकारिता के लिए स्व. रणधीर वर्मा स्मृति सम्मान, कवि रमण सम्मान व लघुकथा गौरव सम्मान (रायपुर) छत्तीसगढ़, खगड़िया (बिहार) में रामोदित साहु स्वर्ण सम्मान।

ईमेल : fazalmallick@gmail.com
मोबाइल : 9868018472

सोमवार, 21 जून 2010

पुस्तक चर्चा



हिन्दी की चर्चिता पत्रिका ’पाखी’ के जून अंक में वरिष्ठ कथाकार बलराम अग्रवाल द्वारा मेरे नवीनतम उपन्यास ’गुलाम बादशाह’ पर लिखी समीक्षा प्रकाशित हुई . समीक्षा यथावत यहां प्रस्तुत है. इसे ’पाखी’ के वेबसाइट : www.pakhi.in पर भी पढ़ा जा सकता है.

ब्यूरोक्रेसी का विद्रूप चेहरा

बलराम अग्रवाल

पुस्तक: गुलाम बादशाह(उपन्यास) उपन्यासकार:रूपसिंह चंदेल
प्रकाशक:आकाश गंगा प्रकाशन, नई दिल्ली-110002 मूल्य: 300 रुपए पृष्ठ संख्या: 216

‘रमला बहू’, ‘पाथरटीला’, ‘नटसार’ और ‘शहर गवाह है’ सरीखे अतिचर्चित उपन्यासों के रचयिता रूपसिंह चंदेल का सातवाँ उपन्यास ‘गुलाम बादशाह’ एकदम नई कथा और भावभूमि के साथ उपस्थित है।

उपन्यास का प्रारम्भ यद्यपि एक प्रतीकात्मक कथा से होता है जिससे यह आभास तो मिल ही जाता है कि आगे की कहानी ‘कलुवा’ जैसे शक्ति एवं प्रभुतासंपन्न लोगों पर केन्द्रित होने जा रही है। वह है भी, लेकिन उपन्यास के ‘प्रभुतासंपन्न लोगों’ की सीमा में येन-केन-प्रकारेण बहुत बार घसीटे जा चुके ‘राजनीतिज्ञों’ का कहीं जिक्र तक नहीं है। यही इस उपन्यास की कथा की नवीनता भी है और विशेषता भी। ‘गुलाम बादशाह’ को भारतीय ब्यूरोक्रेसी की कार्य एवं विचारपद्धति के एक पक्ष-विशेष को आम पाठक के सम्मुख रखने वाला अनुपम और विशिष्ट उपन्यास कहा जा सकता है। इस उपन्यास का विवेचन ‘गुलाम’ यानी कार्यालय और परिवार दोनों की जिम्मेदारियों तले दबे क्लर्क और उससे निचले स्तर के सभी कर्मचारी तथा ‘बादशाह’ यानी ब्यूरोक्रेट्स और उनकी चिरौरी को ही अपना जीवन-दर्शन बना लेने वाले चमनलाल हाँडा व नागपाल जैसे उनके सहायक के रूप में भी किया जा सकता है और इस रूप में भी कि सरकारी योजनाओं व नीतियों से जनता को लाभान्वित करने की दृष्टि से सरकार द्वारा अपने नुमाइंदे के रूप में नियुक्त ब्यूरोक्रेट्स अपने-आप को किस प्रकार बादशाह और जनता को गुलाम बना बैठता है। नैरेटर के शब्दों में—‘अंग्रेज चले गए थे लेकिन उनकी बादशाहत को देसी अफसर भोग रहे थे। भले ही नेता-मंत्री अपने को बादशाह मानते हैं, लेकिन वास्तविकता यह है कि वे ब्यूरोक्रेसी के सामने बौने बादशाह हैं। और कर्मचारी… अपने कर्मचारियों को ये बादशाह गुलामों से अधिक आँकने को तैयार नहीं।’(पृष्ठ 32)

भारतीय ब्यूरोक्रेट्स की कार्य एवं विचारपद्धति कितनी क्रूर, मानवीय-संवेदना से हीन पूरी तरह अमानवीय, निरंकुश तथा अनुशासनहीन है—इस यथार्थ को उपन्यासकार रूपसिंह चंदेल ने बड़ी शालीनता के साथ प्रस्तुत किया है। यह शालीनता भी, कि अतिशय दलन और दमन के विरुद्ध किसी भी पात्र से उन्होंने जनवादी-किस्म के नारे नहीं उगलवाए हैं, इस उपन्यास की विशेषता है, सुन्दरता है। थोपे हुए नारे पाठक के भीतर प्रतिरोध की कोई चिंगारी पैदा न करके उसकी तीव्रता का हनन ही अधिक करते हैं।

‘गुलाम बादशाह’ की कथा में यों तो पचास से ऊपर पात्रों का पदार्पण वृत्तांतानुरूप सहज रूप से होता है, लेकिन इसका मुख्य पात्र सुशांत है जो कथा कहने के लिए गढ़े गए भारत सरकार के एक काल्पनिक प्रर विभाग के मेरठ स्थित कार्यालय की ऑडिट शाखा में बतौर एलडीसी भर्ती हुआ है और विभागीय स्थापना कारणों से स्थानान्तरित होकर इन दिनों दिल्ली स्थित कार्यालय में कार्यरत है। केन्द्र सरकार के विभागों में ब्यूरोक्रेट्स की चेन को मोटे तौर पर बताने की दृष्टि से नैरेटर कहता है—‘…सुन्दरम उस विभाग का पाँचवाँ पाया था। पहला पाया मंत्री था, दूसरा सचिव, तीसरा मंत्रालय का वित्तीय सलाहकार, चौथा महानिदेशक और पाँचवाँ सुन्दरम।’ सुन्दरम यानी निदेशक।

देश के ब्यूरोक्रेट्स और उच्च पदस्थ उनके अधीनस्थ राजभक्ति का लबादा अपने चेहरे ही नहीं मनोमस्तिष्क पर लादे उठते-बैठते-घूमते हैं, सोते तो वे जैसे कभी हैं ही नहीं। उनकी इस वृत्ति के चलते सुशांत जैसे निम्नस्तरीय अधीनस्थों का पारिवारिक जीवन त्रास के अकथनीय दौर से गुजरता है। इस त्रास को सुशांत के मेरठ कार्यालय में कार्यरत संजना गुप्ता भी अनेक प्रकार से झेलती है। चंडीगढ़ कार्यालय में स्थानान्तरण पाने की उसकी आवश्यकता को मोहरा बनाकर यूनियन नेता प्यारेलाल शर्मा से लेकर संयुक्त निदेशक अनिल त्रेहन तक प्रभुताप्राप्त कोई पुरुष ऐसा नहीं है जो उसके शारीरिक व आर्थिक शोषण के लिए प्रयासरत न हो। त्रेहन के माध्यम से उपन्यासकार ने पुरुष ब्यूरोक्रेट्स के एक चरित्र-विशेष का खुलासा यों किया है—‘बोलता किसी से कुछ भी नहीं, लेकिन उसका उद्देश्य कर्मचारियों में भय उत्पन्न करना होता है और होता है महिला कर्मचारियों की टोह लेना।’(पृष्ठ 31) इनके चलते संजना जैसी कामकाजी महिलाओं की सामाजिक व पारिवारिक स्थिति इतनी दयनीय हो उठती है कि सहकर्मियों व मकान-मालकिन से लेकर स्वयं उसका पति तक उसके चरित्र पर संदेह करने लगता है। संजना के मुख से उसके दमन की कोशिशों के किस्से सुनकर क्रुद्ध सुशांत कह उठता है—‘इन सालों को सरे आम चौराहों पर खड़ा करके गोली मार देनी चाहिए। देश को खोखला कर रहे हैं ये ब्यूरोक्रेट्स। नेताओं और व्यापारियों के साथ इनकी साँठ-गाँठ ने देश को तबाही के गर्त में झोंक दिया है।’(पृष्ठ 60) इन गिद्धों के जालिम पंजों में न फँसने वाली संजना जैसी महिलाकर्मियों का क्या हश्र होता है? इच्छित एवं आवेदित चंडीगढ़ कार्यालय के स्थान पर उसे देहरादून स्थानान्तरित कर परेशान किया जाता है। इस स्थानान्तरण आदेश को निरस्त कर चंडीगढ़ देने के ‘उसके प्रार्थना-पत्रों को रद्दी की टोकरी में फेंकते हुए (प्रशासन ने) उसे धमकाते हुए लिखा था कि यदि उसने देहरादून ज्वाइन नहीं किया तो उसके विरुद्ध सख्त प्रशासनिक कार्यवाई की जाएगी। दो वर्ष तक संघर्ष करने के बाद संजना हार गई थी। उसने त्यागपत्र दे दिया था। हारना ऐसे लोगों की नियति होती है।’(पृष्ठ 81)

उपन्यास में ब्यूरोक्रेसी के एक नहीं अनेक घिनौने चेहरे देखने को मिलते हैं। अपने सहायक चमनलाल हाँडा के माध्यम से दबाव डलवाकर अनिल त्रेहन कार्यालय के क्लास फोर कर्मचारी नन्दलाल की अठारह वर्षीया बेटी कुसुम से अपने घर में नौकरानी का काम कराने लगता है और एक दिन मौका पाकर उसका बलात्कार भी कर देता है। इस मामले का पटाक्षेप पुलिस प्रशासन के अधिका्रियों का त्रेहन के पक्ष में बिक जाने, संघर्षशील यूनियन पदाधिकारियों को स्थानान्तरण आदेश पकड़ा दिये जाने और तत्काल प्रभाव से कार्यमुक्त कर तुरन्त ही देहरादून, रुड़की, अम्बाला, दिल्ली आदि स्थानों से बुलाए गए कर्मचारियों को उनके स्थान पर ज्वाइन कराकर उनका मनोबल तोड़ने के प्रयास से होता है। यही नहीं, त्रेहन को पदोन्नत करके मेरठ से बंगलौर भेज दिया गया। मेरठ के एक कार्यालय को जम्मू कार्यालय के साथ जोड़ दिया गया और दूसरे को पूना कार्यालय के साथ। ‘बाबुओं की भाषा में प्रशासन ने मेरठ कार्यालयों का ओवरहॉल कर दिया था।’(पृष्ठ 128) तथा ‘अभिप्राय यह कि रासुल विभाग का केवल एक कार्यालय ही मेरठ में रहना था और उसे भी पूरी तरह यूनियन की गतिविधियों से मुक्त रहना था।’(पृष्ठ 129)

विभाग के एक सौ पचासवें स्थापना दिवस को मनाने की संस्तुति हेतु मंत्री को पत्र लिखा जाता है। मंत्री द्वारा तत्संबंधी कार्यक्रमों पर खर्च होने वाली रकम के बारे में पूछे जाने पर कहा जाता है कि—‘एक करोड़ रुपए की व्यवस्था सरकार द्वारा विभाग के बाह्य खर्चों के लिए स्वीकृत धन से कुछ खर्चों की कटौती करते हुए किया जाएगा। मंत्रालय पर धन का बोझ नहीं डाला जाएगा। महानिदेशक ने ऐसा लिखकर अपनी राष्ट्रभक्ति का परिचय दिया था…’(पृष्ठ 144) ब्यूरोक्रेसी का यह एक और घिनौना चेहरा है। उसे पता है कि किसी भी प्रकार का खतरा उठाए बिना धन को कैसे और कहाँ-कहाँ से खींचा जा सकता है। इस गंगा में बहुतों के पाप धुल जाते हैं। नाम भी मिलता है और दाम भी; लेकिन निम्न श्रेणी कर्मचारियों का यहाँ भी भरपूर दलन, दमन और तिरस्कार होता है। वे न सिर्फ तिरस्कृत रहते है बल्कि त्रस्त और अपमानित भी होते हैं। इस तिरस्कार, त्रास और अपमान को न झेल पाने के कारण प्रशासन अनुभाग-एक का सेक्शन ऑफीसर सतीशचन्द्र आत्महत्या कर लेता है। ‘उसकी जेब से पुलिस को सुसाइट नोट नहीं बल्कि उसका सस्पेंशन ऑर्डर मिला, जिसमें कुमार राणावत के हस्ताक्षर थे।’(पृष्ठ 161)

उपन्यास क्योंकि जीवन के खण्ड-विशेष की विस्तृत झाँकी प्रस्तुत करने वाली कथा-विधा है इसलिए ‘गुलाम बादशाह’ में नागरिक एवं पारिवारिक जीवन के भी अनेक प्रहसन हैं और वे सब अलग से चस्पाँ न होकर कथा के मूल प्रवाह का हिस्सा बनकर सामान्य रूप में ही सामने आते हैं। समापन कथा के तौर पर संयुक्त निदेशक दिलबाग सिंह के विलासी चरित्र, उसकी मृत्यु, मृत्योपरांत उसकी विधवा को अनुकंपा नियुक्ति दिलाने-देने की नौकरशाही चिन्ताएँ, भाग-दौड़, दलन और दमन की नीति के अन्तर्गत सुशांत जैसे कर्मठ कर्मचारी के गुवाहाटी स्थानान्तरण तथा मधुसूदन सहाय के त्यागपत्र को रखा गया है। उपन्यास का समापन एक वर्ष बाद ही सुशांत के गुवाहाटी से लेह स्थानान्तरण, सतीशचन्द्र की विधवा को अनुकंपा-नियुक्ति आवेदन को अग्रसारित न करके दिलबाग की विधवा को वरीयता देना, रिश्वतखोरी के मामले में अमेरिकी पुलिस द्वारा अनिल त्रेहन की गिरफ्तारी, दायें भाग में…मुँह से लेकर पैर तक उसके लकवाग्रस्त हो जाने और व्हील-चेयर में ही पेशाब निकल जाने जैसी घिनौनी शारीरिक स्थिति में पहुँच जाने जैसी कुछ सूचनाओं के साथ होता है जिनसे ब्यूरोक्रेसी के कपटपूर्ण और संवेदनहीन चरित्र का तो खुलासा होता ही है, यह भी स्थापित होता है कि—जो जस करहि सो तस फल चाखा।

समीक्षक:बलराम अग्रवाल,एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032
मोबाइल:9968094431

रविवार, 6 जून 2010

पुस्तक चर्चा


डॉ० सुधा ओम ढींगरा की सद्यः प्रकाशित काव्य पुस्तक

धूप से रूठी चॉंदनी से पांच कविताएं

हाल में कवि-कथाकार और पत्रकार डॉ० सुधा ओम ढींगरा की कविता पुस्तक ’धूप से रूठी चांदनी’ शिवना प्रकाशन, सीहोर (मध्य प्रदेश) से प्रकाशित हुई है. रचनाएं ही नहीं पुस्तक भी अपने रूपाकार में आकर्षक है. प्रस्तुत हैं पुस्तक से पांच कविताएं :

१)आँगन

भीतर का आँगन
जब गन्दला गया,
तो एक झाड़ू बनाया
जिसके तीलें हैं सोच के
बंधा है विवेक के धागों से.

बुहार दी उससे ....
अतृप्त इच्छायों की धूल,
कुंठाओं की मिट्टी,
वेदनाओं का कूड़ा,
जलन की कर्कट.

झाड़ दीं उससे...
विद्रूपताओं और
वर्जनाओं से सनी
मन की खिड़कियाँ,
निखर आया है अब
मेरा आँगन.

खिड़कियों से
झाँकती धूप और
सरकती चाँदनी
का अलौकिक सुख,
कभी भीतर कदम रखना.

२)नींद चली आती है.....

बाँट में,
अपने हिस्से का सब छोड़,
कोने में पड़ी
सूत से बुनी वह
मंजी अपने साथ ले आई,
जो पुरानी, फालतू समझ
फैंकने के इरादे से
वहाँ रखी थी.

बेरंग चारपाई को उठाते
बेवकूफ लगी थी मैं,
आँगन में पड़ी
बचपन और जवानी का
पालना थी वह.

नेत्रहीन मौसी ने
कितने प्यार से
सूत काता, अटेरा औ'
चौखटे को बुना था,
टोह- टोह कर रंगदार सूत
नमूनों में डाला था.

चौखटे को कस कर जब
चारपाई बनी
तो हम बच्चे सब से
पहले उस पर कूदे थे.

उसी चारपाई पर मौसी संग
सट कर सोते थे,
सोने से पहले कहानियाँ सुनते
और तारों भरे आकाश में,
मौसी के इशारे पर
सप्त ऋषि और आकाश गंगा ढूँढते थे.

और फिर अन्दर धंसी
मौसी की बंद आँखों में देखते--
मौसी को दिखता है----
तभी तो तारों की पहचान है.

हमारी मासूमियत पर वे हँस देतीं
और करवट बदल कर सो जातीं,
चन्दन की खुश्बू वाले उसके बदन
पर टाँगें रखते ही
हम नींद की आगोश में लुढ़क जाते.

चारपाई के फीके पड़े रंग
समय के धोबी पट्कों से
मौसी के चेहरे पर आईं
झुरियाँ सी लगते हैं.

जीवन की आपाधापी से
भाग जब भी उस
चारपाई पर लेटती हूँ,
तो मौसी का
बदन बन वह
मनुहार और दुलार देती है .

हाँ चन्दन के साथ अब
बारिश, धूप में पड़े रहने
और त्यागने के दर्द की गंध
भी आती है,
पर उस बदन पर टांगे
फैलाते ही नींद चली आती है.....

३)अच्छा लगता है ......

बचपन में,
गर्मियों की रातों में,
खुली छत पर
सफेद चादरों से
ढकी चारपाइयों पर
लेटकर किस्से- कहानियाँ सुनना
और तारों भरे आकाश में
सप्तऋषि, आकाशगंगा और
ध्रुव तारा ढूँढना
अच्छा लगता था......

चंद्रमा में छिपी आकृति
आकार लेती नज़र आती,
कभी उसकी माँ
सूत कातती लगती
तो कभी हमारी दादी दिखती.

मरणोपरांत लोग तारे हो जाते हैं,
बड़े- बूढ़ों की बात को सच मान,
तारों में अपने बजुर्गों को ढूँढना,
दादा, दादी और वो रही नानी,
ऐसा कह कर
उनको देखते रहना...
अच्छा लगता था......

विज्ञान,
बौद्धिक विकास
और भौतिक संवाद ने
बचपन की छोटी-छोटी
खुशियाँ छीन लीं,
शैशव का विश्वास
परिपक्वता का अविश्वास बन...
अच्छा नहीं लगता है....

हर इन्सान में
एक बच्चा बसता है,
अपनी होंद का एहसास दिला
कभी -कभी वह
बचपन में लौट जाने,
बचपन दोहराने को
मजबूर है करता ,
वो मासूमियत,
वो भोलापन,
ओढ़ लेने को जी चाहता है,
तारों भरे आकाश में
बिछुड़ गए अपनों को फिर से
ढूँढना अच्छा लगता है.....

मेरे शहर में तारे
कभी -कभी झलक दिखलाते हैं,
खुले आकाश में फैले तारों को
हम तरस -तरस जाते हैं,
जब कभी निकलते हैं तो
फीकी सी मुस्कान दे इठलाते हैं,
पराये-पराये से लगते हैं
फिर भी उनमें अपनों को
खोजना अच्छा लगता है.......

४) आवाज़ देता है कोई उस पार......

सुन सोहणी उसे,
उठा माटी का घड़ा,
तैर जाती है
चनाव के पानियों में,
मिलने अपने महिवाल को
खड़ा है जो नदी के उस पार.....

सस्सी भटकती है थलों में
सूनी काली रातों में,
छोड़ गया था पुन्नू
सोती हुई सस्सी को,
पुन्नू-पुन्नू है पुकारती
शायद सुन ले उसकी आवाज़
खड़ा है जो मरू के उस पार.....
फ़रहाद ने तोड़ा पहाड़
नदी दूध की निकालने,
शर्त प्यार की पूरी करने,
तड़प रहा है मिलने शीरीं से
पहुँच न पाया उस तक
खड़ी है जो पहाड़ों के उस पार......
साहिबा ने छोड़ा घर- बार
छोड़े भाई और परिवार,
भाग निकली मिर्ज़ा संग
गीत में हेक जब लगाई उसने
खड़ा है जो झाड़ियों के उस पार......
हीर पाजेब अपनी दबा
ओढ़नी से मुँह छुपा,
चुपके से मिलने निकल पड़ी
मधुर स्वर राँझे का जब उभरा
खड़ा है दूर जो घरों के उस पार.........

५)नियति

द्रौपदी सी वह
झूठ,
धोखा,
बेईमानी,
ईर्ष्या,
बेवफाई
से पाण्डवों द्वारा
प्रेम की बिसात पर
रोज़ दांव पर लगती है....

प्रणय में छली जाती है,
प्रीत रुपी दुर्योधन
वादों के दुष्शासन से
चीर हरण करवाता है ...

निवस्त्र पीड़िता को
कोई कृष्ण बचाने नहीं आता. ..

क्या औरत की नियति
हर युग में लुटना ही है....

*****



धूप से रूठी चॉंदनी
शिवना प्रकाशन
पी.सी.लैब, सम्राट कॉम्प्लैक्स बेसमेंट
बस स्टैंड, सीहोर-४६६००१ (म.प्र.), भारत
मूल्य : रु.३००/- , पृ. ११२

शनिवार, 15 मई 2010

कविता



डॉ० मधु संधु की दो कविताएं
बाजारवाद
ईश्वरीय सत्ता की तरह
सर्वव्यापक है बाजारवाद
देशकालातीत है बाजारवाद।
क्या तब नहीं था बाजारवाद ?
जब
कानन-कन्या शकुन्तला
सम्राट दुष्यन्त की तरफ आकर्षित हुई
और गंधर्व विवाह कर चल पड़ी
मदमस्त विहार-गृह में प्रियतम संग
अथवा
जब पति के स्वर्गगमन के साथ-साथ
मीराबाई को
राज महलों से
लेना पड़ा था प्रवास।
क्या तब नहीं था बाजारवाद ?
जब महमूद गजनवी ने
सोमनाथ के
मंदिर को लूटा था
अथवा
तेल के कुओं के देशों ने
इसी अपराध में
नित्य नए
विस्फोटों को झेला है/था।
कैकेयी का बाजारवाद
सत्ता हथियाता है।
दुर्योधन का बाजारवाद
वचनबद्धता की नीति से
आंखें चुराता है।
अपने पड़ोसी पाक का बाजारवाद
सत्ता बचाता है।
बाजारवाद तो जीने नहीं देता
अनासक्त महात्माओं को भी
सभी के सभी बन गये हैं
स्वास्थ्य-पंडित
फार्मेसियां, योगाश्रम उनकी पहचान हैं।
एक बाजारवाद मेरे घर में भी है
जहां
रिश्ते हो गए हैं
बैंक अकाउंट
कुछ डालते निकालते रहिए
वरना हो सकते हैं मृतप्रायः।
*****
लड़कियां
कैरियर की खोज में
दौड़ती भागती लड़कियां
बसों, आटो गाडि़यों में
धक्कम-धक्का होती लड़कियां
मुस्काती, सकुचाती, बातें करती
आगे, आगे और आगे जाती लड़कियां।
फर्क नहीं है
मेरे तेरे और उनमें
पूरे विश्व की परिक्रमा के बाद भी
किसी राहुल या शोएब की ओर
मुड़ती
उनके अवैधनिक कार्यों के कारण
पुलिस/ टी वी चैनल्स से
श्वेता या सान्या बन पंजे लड़ाती
लड़कियां।
शादी समझौता है
मां, नानी, पड़नानी का
यह टैग गले में बांध
घुटती अंसुआती लड़कियां।
मेरे देश की लड़कियां
तेरे देश की लड़कियां
छत की खोज में
पांव तले की जमीन को भी
खो रही लड़कियां।
****
डा. मधु संधु हिन्दी में एम. ए. पी एच. डी. हैं. पीएच. डी. का विषयः सप्तम दशक की हिंदी कहानी में महिलाओं का योगदान
सम्प्रति गुरु नानक देव विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर एवं विश्वविद्यालय अनुदान आयोग की बृहद शोध परियोजना की प्रिंसिपल इनवेस्टीगेटर(2010-2012)
सम्पर्क madhu_sd19@yahoo.co.in/ 9876251563
प्रकाशित साहित्यः
कहानी संग्रहः 1. नियति और अन्य कहानियां, दिल्ली, शब्द संसार,20012. आवाज का जादूगर, नेशनल, (प्रकाशनाधीन), कहानी संकलनः 3. कहानी श्रृंखला, दिल्ली, निर्मल, 2003, गद्य संकलन4. गद्य त्रायी, अमृतसर, गुरु नानक देव विश्वविद्यालय, 2007.
आलोचनात्मक एवं शोधपरक साहित्यः5. कहानीकार निर्मलवर्मा, दिल्ली, दिनमान, 1982 6. साठोत्तर महिला कहानीकार, दिल्ली, सन्मार्ग, 19847. कहानी कोश, (1951-1960) दिल्ली, भारतीय ग्रन्थम, 19928. महिला उपन्यासकार, दिल्ली, निर्मल, 20009. .हिन्दी लेखक कोश,(सहलेखिका) अमृतसर, गुरु नानक देव वि.वि., 200310. कहानी का समाजशास्त्रा, दिल्ली, निर्मल, 200511. कहानी कोश, (1991-2000) दिल्ली, नेशनल, 2009
सम्पादनः 12. प्राधिकृत (शोध पत्रिाका) अमृतसर, गुरु नानक देव वि.वि., 2001-04
समकालीन भारतीय साहित्य, हंस, गगनांचल, परिशोध, प्राधिकृत, वितस्ता, कथाक्रम, संचेतना, हरिगंधा, साहित्यकुंज, अभिव्यक्ति, अनुभूति, रचनाकार, परिषद पत्रिाका, हिन्दी अनुशीलन, पंजाब सौरभ, साक्षात्कार, युद्धरत आम आदमी, औरत, पंजाबी संस्कृति, शोध भारती, अनुवाद भारती, वागर्थ, मसि कागद, चन्द्रभागा संवाद, गर्भ नाल आदि पत्रिाकाओं में सौ के आसपास शोध पत्रा तथा सैंकड़ों आलेख, कहानियां, लघु कथाएं एवं कविताएं प्रकाशित.
पच्चास से अधिक शोध प्रबन्धों एवं शोध अणुबन्धों का निर्देशन।

गुरुवार, 29 अप्रैल 2010

कविता



पेटिगं - देव प्रकाश चौधरी



अपराजिता

वीरेन्द्र कुमार गुप्त

सम्पादकीय टिप्पणी : ’अपराजिता’ वरिष्ठ कवि-कथाकार वीरेन्द्र कुमार गुप्त का काव्योपन्यास है. वीरेन्द्र जी ने इसमें न केवल काव्यगत प्रयोग किये हैं, बल्कि काव्य-कथा के माध्यम से अपनी विचारधारा को भी प्रस्तुत किया है. इस देश की हजारों वर्षों की गुलामी के लिए वह बुद्ध की अहिंसा को दोष देते है. उनकी पुस्तक Ahimsa in India's Destiny' में इसपर गंभीरतापूर्वक विचार किया गया है. उनके उपन्यासों ’विष्णुगुप्त चाणक्य’, ’प्रियदर्शी’ और ’विजेता’ में भी उनकी यह दृष्टि परिलक्षित है. ’अपराजिता’ का प्रथम प्रकाशन उनके छोटे भाई कथाकार स्व. योगेश गुप्त ने छठवें दशक में किया था, लेकिन योगेश की प्रकाशकीय अनुभवहीनता के कारण इसे प्रचार नहीं मिल सका.

हाल में इसका पुनर्मुद्रण ’पेनमैन पब्लिशर्स’
सी-२६(बी), गली नं. ३,
सादतपुर विस्तार , करावलनगर रोड, दिल्ली-११००९४ ने किया है.
१९९ पृष्ठों की इस पुस्तक का मूल्य १९०/- है.

कवि का वक्तव्य
ईसा-पूर्व के भारत में जहां मगध जैसा साम्राज्य और अनेक छोटे-बड़े राज्य थे, वहीं अनेक गण अर्थात नगर राज्य भी पूरे उत्तरी भारत में अपनी स्वतन्त्र सत्ता बनाए हुए थे. राजा और सम्राट इन नगर राज्यों को किसी भी उपाय से अपने राज्य में मिलाने को व्यग्र रहते थे. पर ये गणराज्य भी अपने उन्मुक्त अस्तित्व की रक्षा के लिए हर बलिदान देने को कटिबद्ध मिलते थे. बुद्ध के काल में वैशाली के गणतन्त्र को मगध सम्राट अजातशत्रु ने भारी नर-संहार के बाद अपने साम्त्राज्य का अंग बनाया था और अशोक द्वारा कलिंग पर किया गया आक्रमण तो इतिहास प्रसिद्ध है ही. राजनीतिक तल पर चलते इस द्वन्द्व के समानान्तर उस काल के वैयक्तिक-सामाजिक जीवन में एक और द्वन्द्व कहना चाहिए, अंतर्द्वन्द्व , भी सर्वव्याप्त था, जो बुद्ध द्वारा पारिवारिक-सांसारिक जीवन को त्याग कर निर्वाण की साधना को व्यक्ति का चरम लक्ष्य प्रचारित करने के बाद अत्यन्त गहन और व्यापक रूप ले गया था. यह था गृहस्थ और सन्यास के बीच का अन्तर्द्वन्द्व . बुद्ध ने गृहस्थ और समाज के नैसर्गिक दायित्वों से पलायन को ऎसी आध्यात्मिक प्रतिष्ठा प्रदान कर दी थी कि हर व्यक्ति, वह भिक्षु हो या गृहस्थ, संसार को असार, मोह-बन्ध और विपथ मान बैठा था; और यह धारणा उसके अवचेतन में समा गई थी. तब से आज तक हिन्दू मानसिकता इससे मुक्त नहीं हो पाई है, यह देखते हुए भी कि भिक्षु या सन्यासी बनकर एक काल्पनिक निर्वाण या मोक्ष की साधना करने वालों का भौतिक अस्तित्व बस कुत्सित संसार पर ही निर्भर रहा है. संसार के बोझ को और उसकी चुनौतियों को हम विवश भाव से और बेमन से ही झेलते आए हैं. विगत दो हज़ार वर्षों के बीच हमारी अगणित पराजयों के पक्ष में हमारी यही रुग्ण मानसिकता रही है. उपरोक्त राजनीतिक द्वन्द्व पर और इस आध्यात्मिक पलायनवाद पर चिन्तन ही इस काव्य का मूल विषय बना है. मेरी सोच है कि मोक्ष या निर्वाण की वायव्य कल्पना ने व्यक्ति और समाज की नैसर्गिक स्वस्थ परस्परता को विकृत और अस्वस्थ बनाया है, क्योंकि निर्वाण का लक्ष्य अपरिहार्य रूप से व्यक्तिवादी और समाज-निरपेक्ष है. यथार्थ यह है कि भौतिक संसार और अध्यात्म मानव-जीवन की सरल रेखा के दो अनिवार्य सिरे हैं; ये एक ही नदी के दो तट हैं. मनुष्य दो पैरों पर चलता है और दो हाथों से काम करता है. एक पैर या एक हाथ के अशक्त होने या न रहने पर विफलता और कुण्ठा ही उसकी झोली में पड़ती है. अध्यात्म का लक्ष्य जीवन-सापेक्ष अन्तर्दृष्टि का और अन्तरंग ऊर्जा का विकास ही हो सकता है, मोक्ष या निर्वाण नहीं.
’अपराजिता’ का कथानक जातकों में एक ’वेस्सन्तर’ जातक पर आधारित है, जिसमें दान के माहात्म्य को दर्शाया गया है. यह मूल कथा काव्य में पूरी तरह परिवर्तित हो गई है. केवल पात्रों के नाम - वेस्सन्तर, माद्री, संजय, जालि, कृष्णा - ही सुरक्षित रहे हैं. शेष पात्र- इला, सुमन, रत्न, रुद्र आदि काल्पनिक हैं. यह काव्य काव्यशास्त्र के नियमों से बंध कर नहीं, उन्मुक्त उपन्यास शैली में लिखा गया है. इसलिए इसे ’काव्योपन्यास’ कहना अधिक संगत होगा.
पुस्तक से :
कहानी के प्रति

आता, बह जाता सरिता-जल;
आते, बह जाते युग, दिन, पल!
तरी काल-लहरों पर खेता
मानव भी आता, चल देता .

पर भू पर खिच जाती रेखा-
किसने यह विधि-लेख न देखा ?
मिल जन-जन, युग-युग की वाणी
बनती एक अटूट कहानी.

मानव-जलधि-गर्भ के मोती
मानो माया मूक पिरोती
हंसती-हंसती, रोती-रोती,
पाती-पाती, खोती-खोती.

मानव का इतिहास इसी में;
उसका रुदन-विलास इसी में,
विकृति-कृति-, उन्नति-नति इसमें;
उर-मति, वैर-क्षोभ-रति इसमें.

शोषण-पोषण, जन्म-मृत्यु-क्षय;
हिंसा-स्वार्थ-घृणा-साहस-भय;
भूख-प्यास, विषयों की ज्वाला;
इसमें जय-विजयों की हाला .

कोई सौ-सौ रंगों से भर
चीत रहा सारा भू अम्बर--
मानव को न कहानी आती,
तो बहती गंगा रुक जाती !
*****
२९ अगस्त १९२८ को सहारनपुर (उ०प्र०) में जन्मे वीरेन्द्र कुमार गुप्त उन वरिष्ठ रचनाकारों में हैं जो साहित्य की उठा-पटक से दूर १९५० से निरन्तर लेख रहे हैं. वीरेन्द्र जी की पहली रचना ’सुभद्रा-परिणय’(नाटक) १९५२ में प्रकाशित हुई थी. अब तक सात उपन्यास प्रकाशित हो चुके हैं, जिनमें तीन ऎतिहासिक उपन्यास हैं. दो प्रबंध काव्य-- ’प्राण-द्वंद्व’ और ’राधा कुरुक्षेत्र में’ के अतिरिक्त कुछ स्फुट कविताएं. अनेक चिन्तनपरक लेख. १९६४ में वीरेन्द्र जी ने बहुत परिश्रम पूर्वक विश्व के महान व्यक्तियों के कुछ प्रेम पत्रों को संकलित किया जो ’प्रसिद्ध व्यक्तियों के प्रेम-पत्र’ शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित हुए थे . यह पुस्तक ’किताबघर प्रकाशन’, २४, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली -११०००२ से पुनः प्रकाशित हुई है. इसी प्रकाशन संस्थान से वीरेन्द्र जी महत्वपूर्ण ऎतिहासिक उपन्यास - ’विष्णुगुप्त चाणक्य’ कुछ दिन पूर्व प्रकाशित हुआ. इससे पूर्व यह राजकमल प्रकाशन, दरियागंज से पेपर बैक संस्करण के रूप में १९९४ में प्रकाशित हुआ था.

वीरेन्द्र जी ने छठवें दशक में स्व. जैनेन्द्र जी से साहित्य और दर्शन पर लंबी बातचीत की थी, जो पुस्तकाकार रूप में ’समय और हम’ शीर्षक प्रकाशित हुई थी. यह लगभग ७०० पृष्ठों की पुस्तक है और अनुमानत: यह विश्व का सबसे बड़ा साक्षात्कार है.

वीरेन्द्र जी ने अंग्रेजी में भी प्रभूत मात्रा में लेखन कार्य किया है. अंग्रेजी में उनकी विवादित पुस्तक है : ’Ahimsa in India's Destiny' और दूसरी पुस्तक है -’The Inner self'. वीरेन्द्र जी का एक स्वरूप अनुवादक का भी है. उन्होंने लगभग १२ पुस्तकों के अनुवाद किये थे और ये सभी अनुवाद सठवें दशक में किए गए थे. जैक लडंन के नोबल पुरस्कार प्राप्त उपन्यास Call of the Wild' का अनुवाद ’जंगल की पुकार’ नाम से उन्होंने किया.

शनिवार, 10 अप्रैल 2010

कविता



अभिनव शुक्ल की दो कविताएं
हम भी वापस जाएंगे
आबादी से दूर,
घने सन्नाटे में,
निर्जन वन के पीछे वाली,
ऊँची एक पहाड़ी पर,
एक सुनहरी सी गौरैया,
अपने पंखों को फैलाकर,
गुमसुम बैठी सोच रही थी,
कल फिर मैं उड़ जाऊँगी,
पार करूँगी इस जंगल को.
वहाँ दूर जो महके जल की,
शीतल एक तलैया है,
उसका थोड़ा पानी पीकर,
पश्चिम को मुड़ जाऊँगी,
फिर वापस ना आऊँगी,
लेकिन पर्वत यहीं रहेगा,
मेरे सारे संगी साथी,
पत्ते शाखें और गिलहरी,
मिट्टी की यह सोंधी खुशबू,
छोड़ जाऊँगी अपने पीछे ....,

क्यों न इस ऊँचे पर्वत को,
अपने साथ उड़ा ले जाऊँ,
और चोंच में मिट्टी भरकर,
थोड़ी दूर उड़ी फिर वापस,
आ टीले पर बैठ गई .....।

हम भी उड़ने की चाहत में,
कितना कुछ तज आए हैं,
यादों की मिट्टी से आखिर,
कब तक दिल बहलाएँगे,
वह दिन आएगा जब वापस,
फिर पर्वत को जाएँगे,
आबादी से दूर,घने सन्नाटे में।
******
चेहरा
अब कोई इंतजाम चलता नहीं,
एक चेहरे से काम चलता नहीं,
घर का चेहरा,
बाहर का चेहरा,
दफ्तर का चेहरा,
चेहरा दोस्तों के बीच वाला,
चेहरा रिश्तेदारों वाला,
चेहरा कमाई का,
चेहरा गंवाई का.
इस प्रश्न पर जीवन मौन सा है,
कि मेरा असली चेहरा कौन सा है?
मैं चाहता हूँ,
रखना चेहरा एक,
धुला पुछा,
मन से नेक,
चेहरा जो हँसी में हँस सके,
ग़म में आसुओं में धंस सके,
चेहरा वैसा,
पार्क में खेलते हुए बच्चों का है जैसा,
या फिर किसी काम करते किसान का है जैसा,
निश्चल, निर्मल.

चेहरा मुस्कान वाला,
चेहरा इंसान वाला,
चेहरा शत प्रतिशत हिन्दुस्तान वाला.
मेरे एक मित्र नें मुझे बतलाया है,
कि एक चेहरा उन्होंने विदेश से मंगवाया है,
बड़प्पन का गर्वीला,
चमाचम चेहरा,
धन चन्द्रिका से लबालब,
दमादम चेहरा,
पर यह चेहरा भी कितने दिन टिकेगा,
चार दिन में शहर के फुटपाथ कि रेड़ी पर बिकेगा,
चेहरा ऐसा हो जो चले,
न आग से झुलसे,
न पानी में गले,
बेकार में ही बात इतनी बढ़ाई है,
असल में ये सब अपने अपने अस्तित्व कि लड़ाई
है,
उस अस्तित्व कि,
जो अभी है, अभी नही,
बात गहरी है,
तभी तो यहाँ आकर ठहरी है.
*****

प्रकाशन: "अभिनव अनुभूतियाँ" - काव्य संग्रह एवं "हास्य दर्शन" - (आडियो सीडी श्रंखला)
ब्लॉग: http://ninaaad.blogspot.com
संपर्क: shukla_abhinav@yahoo.com ,
फोन. 001-206-694-3353

गुरुवार, 25 मार्च 2010

लघुकथा

बलराम अग्रवाल की तीन लघुकथाएं

लड़ाई

दूसरा पैग चढ़ाकर मैंने जैसे-ही गिलास को मेज पर रखा—सामने बैठे नौजवान पर मेरी नजरें टिक गईं। उसने भी मेरे साथ ही अपना गिलास होठों से हटाया था। बिना पूछे मेरी मेज पर आ बैठने और पीना शुरू कर देने की उसकी गुस्ताखी पर मुझे भरपूर गुस्सा आया लेकिन…बोतल जब बीच में रखी हो तो कोई भी छोटा, बड़ा या गुस्ताख नहीं होता—अपने एक हमप्याला अजीज की यह बात मुझे याद हो आई। इस बीच मैंने जब भी नजर उठाई, उसे अपनी ओर घूरते पाया।
“अगर मैं तुमसे इस कदर बेहिसाब पीने की वजह पूछूँ तो तुम बुरा नहीं मानोगे दोस्त!” मैं उससे बोला।
“गरीबी…मँहगाई…चाहते हुए भी भ्रष्ट और बेपरवाह सिस्टम को न बदल पाने का नपुंसक-आक्रोश—कोई भी आम-वजह समझ लो।” वह लापरवाह अंदाज में बोला,“तुम सुनाओ।”
“मैं!” मैं हिचका। इस बीच दो ‘नीट’ गटक चुका वह भयावह-सा हो उठा था। आँखें बाहर की ओर उबल आयी थीं और उनका बारीक-से-बारीक रेशा भी इस कदर सुर्ख हो उठा था कि एक-एक को आसानी से गिना जा सके। मुझे लगा कि कुछ ही क्षणों में बेहोश होकर वह मुँह के बल इस टेबल पर बिछ जाएगा।
“है कुछ बताने का मूड?” वह फिर बोला। अचानक कड़वी डकार का कोई हिस्सा उसके दिमाग से जा टकराया शायद। उसका सिर पूरी तरह झनझना उठा। हाथ खड़ा करके उसने सुरूर के उस दौर के गुजर जाने तक मुझे चुप बैठने का इशारा किया और सिर थामकर, आँखें बंद किए बैठा रहा। नशा उस पर हावी होने की कोशिश में था और वह नशे पर; लेकिन गजब की ‘कैपिसिटी’ थी बंदे में। सुरूर के इस झटके को बर्दाश्त करके कुछ ही देर में वह सीधा बैठ गया। कोई भी बहादुर सिपाही प्रतिपक्षी के आगे आसानी से घुटने नहीं टेकता।
“मैं…एक हादसा तुम्हें सुनाऊँगा…।” सीधे बैठकर उसने सवालिया निगाह मुझ पर डाली तो मैंने बोलना शुरू किया,“लेकिन… उसका ताअल्लुक मेरे पीने से नहीं है…हम तीन भी हैं…तीनों शादीशुदा, बाल-बच्चों वाले…माँ कई साल पहले गुजर गई थी…और बाप बुढ़ापे और…कमजोरी की वजह से…खाट में पड़ा है…कौड़ी-कौड़ी करके पुश्तैनी जायदाद को…उसने…पचास-साठ लाख की हैसियत तक बढ़ाया है लेकिन…तीनों में-से कोई भी भाई उस जायदाद का…अपनी मर्जी के मुताबिक…इस्तेमाल नहीं कर सकता…।”
“क्यों?” मैंने महसूस किया कि वह पुन: नशे से लड़ रहा है। आँखें कुछ और उबल आयी थीं और रेशे सुर्ख-धारियों में तब्दील हो गए थे।
“बुड्ढा सोचता है कि…हम…तीनों-के-तीनों भाई…बेवकूफ और अय्याश हैं…शराब और जुए में…जाया कर देंगे जायदाद को…।” मैं कुछ कड़ुवाहट के साथ बोला,“पैसा कमाना…बचाना…और बढ़ाना…पुरखे भी यही करते रहे…न खुद खाया…न बच्चों को खाने-पहनने दिया…बाकी दोनों भाई तो सन्तोषी निकले…लात मारकर चले गए स्साली प्रॉपर्टी को…लेकिन मैं…मैं इस हरामजादे के मरने का इन्तजार कर रहा हूँ…”
“तू…ऽ…” मेरी कुटिलता पर वह एकदम आपे-से बाहर हो उठा,“बाप को गालियाँ बकता है कुत्ते!…लानत है…लानत है तुझ जैसी निकम्मी औलाद पर…।”
क्रोधपूर्वक वह मेरे गिरेबान पर झपट पड़ा। मैं भी भला क्यों चुप बैठता। फुर्ती के साथ नीचे गिराकर मैं उसकी छाती पर चढ़ बैठा और एक-दो-तीन…तड़ातड़ न जाने कितने घूँसे मैंने उसकी थूथड़ी पर बजा डाले। इस मारधाड़ में मेज पर रखी बोतलें, गिलास, प्लेट नीचे गिरकर सब टूट-फूट गए। नशे को न झेल पाने के कारण आखिरकार मैं बेहोश हो गिर पड़ा।
होश आया तो अपने-आप को मैंने बिस्तर पर पड़ा पाया। हाथों पर पट्टियाँ बँधी हुई थीं। माथे पर रुई के फाहे-सा धूप का एक टुकड़ा आ टिका था।
“कैसे हो?” आँखें खोलीं तो सिरहाने बैठकर मेरे बालों में अपनी उँगलियाँ घुमा रही पत्नी ने पूछा।
“ये पट्टियाँ…?” दोनों हाथों को ऊपर उठाकर उसे दिखाते हुए मैंने पूछा।
“इसीलिए पीने से रोकती हूँ मैं।” वह बोली,“ड्रेसिंग-टेबल और उसका मिरर तोड़ डाला, सो कोई बात नहीं; लेकिन गालियों का यह हाल कि बच्चों को बाहर भगा देना पड़ा…रात को ही पट्टी न होती तो सुबह तक कितना खून बह जाता…पता है?”
मुझे रात का मंजर याद हो आया। आँखें अभी तक बोझिल थीं।
“वॉश-बेसिन पर ले-चलकर मेरा मुँह और आँखें साफ कर दो…।” मैं पत्नी से बोला और बिस्तर से उठ बैठा।


आदमी और शहर

शहर से दूर, बाहरी इलाके में बना उसका रेलवे-स्टेशन। घटाटोप अँधेरी रात। प्लेटफॉर्म के उस दूसरे छोर पर अँधेरे में लपलपाता छोटा-सा एक अलाव और उसको घेरे बैठीं चार मानव आकृतियाँ। नाइट-शिफ्ट कर रहे सब-इंसपेक्टर जीवनसिंह ने उधर देखा। कौन लोग हैं?—वह अपने भीतर बुदबुदाया—रात, दो बजे वाली ट्रेन की सवारियाँ हैं या…चोरों-कंजरों का गैंग?
अपने बूटों की ठक-ठक से रात के सन्नाटे को भंग करता हुआ वह अलाव की ओर बढ़ा।
“राम-राम साबजी!” वह निकट पहुँचा तो वे चारों एक-साथ बोले।
“राम-राम भाई!” जीवनसिंह ने कड़क आवाज में अभिवादन स्वीकार किया; फिर पूछा,“यहाँ, प्लेटफॉर्म पर कैसे डेरा डाल लिया?”
“डेरा नहीं है जी!” उसकी इस बात पर उनमें-से एक ने जवाब दिया,“दो बजे तक का टैम बिताना है, बस।”
“बस!” अलाव के एकदम निकट पहुँचकर जीवनसिंह बोला,“ तब तक चलो, मैं भी हाथ सेंक लेता हूँ तुम लोगों के साथ बैठकर।” इतना कहकर वह वहीं बैठ गया। वह दरअसल तय कर लेना चाहता था कि वे लोग वाकई दो बजे वाली ट्रेन के इंतजार में हैं या…।
“अलाव तापने का मजा चुप बैठे रहने में नहीं है भाई!” बातों में लगाकर उन्हें कुरेदने की गरज से माहौल में छाई चुप्पी को तोड़ते हुए कुछ देर बाद वह बोला,“कुछ न कुछ बोलते जरूर रहो।”
“इस बेमजा जिन्दगी के बारे में क्या बोलें साबजी!” एक ने कहा।
“कुछ भी बोलो।” जीवनसिंह बोला,“यह बेमजा कैसे है, यही सुनाओ।”
“ठीक है जी,” दूसरा बोला,“एक किस्सा मैं आपको सुनाता हूँ।”
“सुनाओ।”
“किस्सा यों है कि—एक गाँव में पाँच दोस्त थे।” उसने सुनाना शुरू किया,“पाँचों पढ़े-लिखे। पाँचों बेरोजगार। अपनी बेरोजगारी और गाँववालों के तानों से तंग आकर एक दिन उन्होंने तय किया कि शहर में जाकर कुछ काम किया जाए। बस, उसी दिन वे शहर के लिए चल पड़े। गाँव और शहर के बीच में एक जंगल पड़ता था। बेहद घना और खतरनाक। गाँववाले लाठी-भाला जैसा कोई न कोई हथियार साथ लेकर ही उसमें घुसते थे। लेकिन काम की धुन में उन पाँचों ने इस बात पर कोई ध्यान नहीं दिया और हाथ हिलाते हुए घुस गए जंगल में। तेज कदमों से चलते हुए करीबन पूरा जंगल पार कर लिया था उन्होंने कि दाईं ओर से अचानक किसी शेर की भयानक दहाड़ उनके कानों में सुनाई पड़ी। एक पल के लिए पाँचों जहाँ के तहाँ ठिठक गए। डरी हुई निगाहों से उन्होंने एक-दूसरे को देखा। जंगल अब अधिक शेष नहीं बचा था। इसलिए उन्होंने शहर की ओर दौड़ लगा दी, बेतहाशा। पीछे-से शेर की दहाड़ लगातार उनका पीछा करती चली आ रही थी…।” इतना किस्सा सुनाकर उसने अपनी जेब-से बीड़ी का एक बंडल निकालकर जीवनसिंह के आगे कर दिया। बोला,“लो, बीड़ी पिओ साबजी।”
“नहीं, मैं बीड़ी नहीं पीता।” जीवनसिंह बोला।
“पीते तो हम भी नहीं हैं।” बंडल में से चार बीड़ियाँ निकालकर उन्हें अलाव की आँच से सुलगाते हुए वह बोला।
“नहीं पीते तो बंडल क्यों रखते हो साथ में?” जीवनसिंह ने पूछा।
“कभी-कभार भीतर का धुआँ भी तो बाहर निकाला होता है न साबजी!” उसने कहा।
“ठीक है…” हथेलियों को अलाव की आग पर सेकने के बाद उन्हें आपस में रगड़ते हुए जीवनसिंह ने उत्सुकतापूर्वक पूछा,“फिर क्या हुआ?”
“फिर?…वे दौड़ते रहे, दौड़ते रहे तब तक…जब तक कि उन्हें दहाड़ सुनाई देनी बन्द न हो गई।” सुलगी हुई बीड़ियों को बारी-बारी अपने साथियों की ओर बढ़ाते हुए उसने आगे सुनाना शुरू किया,“जब दहाड़ सुनाई देनी बन्द हो गई तो उसके बाद एक जगह बैठकर सबने अपनी टूटी हुई साँसों को जोड़ा। कुछ सँभले, तो उन्होंने पाया कि वे सिर्फ चार रह गए हैं। सब सन्न रह गए। पाँचवाँ कहाँ गया? उसे शायद शेर खा गया—ऐसा सोचकर एक ने दूसरे की ओर ताका। उसकी आशंका से सहमत दूसरे से तीसरे और तीसरे ने चौथे की ओर देखा। उसे खोजने के लिए वापस जंगल में घुस जाने की हिम्मत उनमें से किसी के भी अन्दर नहीं थी। कुछ भी कर नहीं सकते थे इसलिए उसकी याद में वहीं बैठकर वे खूब रोए। रोते-रोते उन्होंने तय पाया कि—‘शेर अगर भूखा हो, तो किसी पर दया नहीं करता, बेरोजगार पर भी नहीं। यानी कि प्राणी की पहली जरूरत भोजन है, दया नहीं।’ बस, उन्होंने तुरन्त अपने-अपने आँसू पोंछ डाले और भूखे शेर की तरह शहर में घुस गए।”
इतना कहकर वह चुप हो गया।
“फिर?” जीवनसिंह ने पूछा।
“फिर क्या?…शहर उनसे ज्यादा भूखा और निर्दय था।” तीसरा बोला,“जो-जो उसमें घुसा वो-वो शहर के गाल में समाता रहा। इस तरह से वह उन चारों को चट कर गया…कहानी खत्म!”
“खत्म!…कहानी खत्म?” इतना सुनना था कि जीवनसिंह होठों ही होठों में बुदबुदाया और फफक-फफककर रो पड़ा।
“आप को क्या हुआ साबजी?” उसको रोता देखकर चारों ने एक-साथ पूछा।
“कुछ नही।” किसी तरह अपनी रुलाई को रोककर उसने बोलना शुरू किया,“आज तक मैं समझता रहा कि उस दिन सबसे पीछे मुझे छोड़ डरकर भाग गए मेरे सभी दोस्त शहर में जिंदा होंगे। वो मुझे ढूँढ रहे होंगे और कभी न कभी मिलेंगे जरूर। …लेकिन आज…आज तुम्हारे मुँह से उन सब के मारे जाने की कहानी सुनकर रोना रुक नहीं पा रहा है…काश, वे समझ पाते कि भूख के दिनों में आदमी की पहली जरूरत चौकन्ना रहना और धीरज से काम लेना है, जानवर बन जाना नहीं…।”

गुलामयुग
गुलाम ने एक रात स्वप्न देखा कि शहजादे ने बादशाह के खिलाफ बगावत करके सत्ता हथिया ली है। उसने अपने दुराचारी बाप को कैदखाने में डाल दिया है तथा उसके लिए दुराचार के साधन जुटाने वाले उसके गुलामों और मंत्रियों को सजा-ए-मौत का हुक्म सुना दिया है।
उस गहन रात में ऐसा भायावह स्वप्न देखकर भीतर से बाहर तक पत्थर वह गुलाम सोते-सोते उछल पड़ा। आव देखा न ताव, राजमहल के गलियारे में से होता हुआ उसी वक्त वह शहजादे के शयन-कक्ष में जा घुसा और अपनी भारी-भरकम तलवार के एक ही वार में उसका सिर धड़ से अलग कर दिया।
सवेरे, दरबार लगने पर, वह इत्मीनान से वहाँ पहुँचा और जोर-जोर से अपना सपना बयान करने के बाद, बादशाह के भावी दुश्मन का कटा सिर उसके कदमों में डाल दिया। गुलाम की इस हिंसक करतूत ने पूरे दरबार को हिलाकर रख दिया। सभी दरबारी जान गए कि अपनी इकलौती सन्तान और राज्य के आगामी वारिस की हत्या के जुर्म में बादशाह इस सिरचढ़े गुलाम को तुरन्त मृत्युदण्ड का हुक्म देगा। गुलाम भी तलवार को मजबूती से थामे, दण्ड के इंतजार में सिर झुकाकर खड़ा हो गया।
शोक-संतप्त बादशाह ने अपने हृदय और आँखों पर काबू रखकर दरबारियों के दहशतभरे चेहरों को देखा। कदमों में पड़े अपने बेटे के कटे सिर पर नजर डाली। मायूसी के साथ गर्दन झुकाकर खड़े अपने मासूम गुलाम को देखा और अन्तत: खूनमखान तलवार थामे उसकी मजबूत मुट्ठी पर अपनी आँखें टिका दीं।
“गुला…ऽ…म!” एकाएक वह चीखा। उसकी सुर्ख-अंगारा आँखें बाहर की ओर उबल पड़ीं। दरबारियों का खून सूख गया। उन्होंने गुलाम के सिर पर मँडराती मौत और तलवार पर उसकी मजबूत पकड़ को स्पष्ट देखा। गुलाम बिना हिले-डुले पूर्ववत खड़ा रहा।
“हमारे खिलाफ…ख्वाब में ही सही…बगावत का ख्याल लाने वाले बेटे को पैदा करने वाली माँ का भी सिर उतार दो।”
यह सुनना था कि साँस रोके बैठे सभी दरबारी अपने-अपने आसनों से खड़े होकर अपने दूरदर्शी बादशाह और उसके स्वामिभक्त गुलाम की जय-जयकार कर उठे। गुलाम उसी समय नंगी तलवार थामे दरबार से बाहर हो गया और तीर की तरह राज्य की गलियों में दाखिल हो गया।
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जन्म : 26 नवम्बर, 1952 को उत्तर प्रदेश(भारत) के जिला बुलन्दशहर में जन्म।
शिक्षा : एम ए (हिन्दी), अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा, आयुर्वेद रत्न।
पुस्तकें : प्रकाशित पुस्तकों में कथा-संग्रह ‘सरसों के फूल’(1994), ‘ज़ुबैदा’(2004) तथा ‘चन्ना चरनदास’(2004। ‘दूसरा भीम’(1997) बाल-कहानियों का संग्रह है। ‘संस्कृत नाट्य:चिन्तन परम्परा और समाज’ (अप्रकाशित), ‘समकालीन हिन्दी लघुकथा का मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन’ (अप्रकाशित)।
सम्पादन व अन्य : मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ(1997) के अतिरिक्त प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी आदि वरिष्ठ कथाकारों की कहानियों/उपन्यासों के लगभग 15 संकलनों एवं कुछेक पत्रिकाओं का संपादन/अतिथि संपादन। ‘अण्डमान व निकोबार की लोककथाएँ’ का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद व पुनर्लेखन(2000)। इनके अलावा ‘सहकार संचय’(जुलाई,1997) व ‘आलेख संवाद’(जुलाई,2008) के लघुकथा-विशेषांकों का अतिथि संपादन। अनेक वर्षों तक हिन्दी-रंगमंच से जुड़ाव। कुछेक रंगमंचीय नाटकों हेतु गीत-लेखन भी।
हिन्दी ब्लॉग्स: जनगाथा(Link:http://www.jangatha.blogspot.com),
कथायात्रा(Link:
http://kathayatra.blogspot.com)
लघुकथा-वार्ता(Link:
http://wwwlaghukatha-varta.blogspot.com)
सम्प्रति : अध्ययन और लेखन।
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