रविवार, 25 सितंबर 2011

धारावाहिक उपन्यास

गलियारे

(उपन्यास)

रूपसिंह चन्देल


भाग-तीन
चैप्टर - २१,२२ और २३


(21)

प्रीति और सुधांशु का विवाह दिल्ली में हुआ। विवाह बंगाली रीति-रिवाज से सम्पन्न हुआ जिसमें सुधांशु के घर से केवल उसके मां-पिता शामिल हुए थे। उसके पिता ने रिश्तेदारों और गांव के कुछ लोगों को निमंत्रित किया था, लेकिन कोई भी दिल्ली जाने के लिए तैयार नहीं हुआ।
''बेटा जो कर रहा है उसमें दखल देने का हमें कोई हक नहीं है। दखल तब दिया जाए जब वह कुछ अनुचित कर रहा हो। मुझे नहीं लगता कि सुधांशु कभी गलत कर सकता है....गांववाले और रिश्तेदारों को भले ही लगे, लेकिन मुझे नहीं लगता।'' एक दिन सुबोध दास ने पत्नी सुगन्धि से कहा।
''लेकिन बबुआ को विवाह यहीं से करना चाहिए था। उछाव-बधाव की कसक रह गयी।'' सुगन्धि ने लंबी सांस खींची।
''बेटा को अफसर भी बनाना चाहती थी और अब जब वह अफसर बन गया तब तुम चाहती हो कि वह गांव आकर शादी करे...।''
''मुझे तो डर लग रहा है।''
''डर किस बात का?''
''वो बड़े बाप की बेटी...सुना है उसके बाप बड़े अफसर थे.....और कहां गरीबी में पला-पोसा हमारा सुधांशु।''
''तुम सारी जिन्दगी डरती ही रहोगी। अरे ओहका बाप अब रिटायर हो गया है। अब ना है वो अफसर....अब अपना सुधांशु अफसर है...डरना छोड़ बुढ़िया...।''
''आज के बाद बुढ़िया मत कहना....अभी साठ की होने में कई साल हैं।''
हंसने लगे सुबोध, ''बुढ़ापे में अब कितने दिन रह गये हैं।'' लंबी सांस खींच बोले, ''लेकिन मुझे दूसरी ही बात की चिन्ता सता रही है।''
''वह क्या?''
''गांव वालों ने पहले ही इंकार कर दिया कि वे दिल्ली नहीं जा पायेंगे। लेकिन रिश्तेदारों ने कुछ नहीं बताया....बता देते तो उनके रेल आरक्षण भी करवा देता।''
''उन्हें भी कसक है।''
''लेकिन मैं कैसे कहूं सुधांशु से.....वह भी मजबूर है। मजूमदार साहब जल्दी ही कलकत्ता जाना चाहते हैं.....इसलिए सब कुछ आनन-फानन में हो रहा है।''
''रिश्तेदारों से एक बार मिलकर पूछ लो...।'' सुगन्धि ने बात बीच में ही रोक ली।
और गांव के दस मील के दायरे में रहने वाले अपने सभी रिश्तदारों के पास गये सुबोध, लेकिन सभी ने दिल्ली जाने से इंकार कर दिया।
दिल्ली में सुबोध और सुगन्धि के लिए नृपेन मजूदार ने इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर में ठहरने की व्यवस्था करवा दी थी और सुधांशु के लिए होटल ताज में।
इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर के कमरे में सुबोध और सुगन्धि का दम घुटता। गांव के उन्मुक्त वातावरण में बिचरने वाले उन दोनों का मन उससे सटे लोदी गार्डन में अधिक रमता। उन्होंने स्टेशन पर उन्हें लेने आए व्यक्ति से सुधांशु के बारे में पूछा जिसने अपनी अनभिज्ञता व्यक्त की थी।
''अजीब बात है। मुझे पता नहीं है कि मेरा बेटा कहां है और हम यहां यों पड़े हैं मानो किसी और की शादी में आए हैं।'' सुबोध मन की पीड़ा छुपा नहीं पाए।
''मुझे सब गड़बड़ लग रहा है सुधांशु के पापा।''
''गलत मत सोचो....सही सोचो....गलत हो तब भी। लेकिन मुझे उलझन हो रही है....मेरा भी तो कुछ फर्ज बनता है। कुछ देना....लेना...कहीं हमें उल्लू तो नहीं बनाया जा रहा। शादी गुड्डे-गुड़ियों की हो रही हो जैसे....।''
सुगन्धि ने दीर्घ निश्वास छोड़ी और चुप रही।
शाम चार बजे के लगभग सुधांशु मिलने आया। पता चला कि वह एक घण्टा पहले ही पटना से दिल्ली पहुंचा था, सीधे होने वाली सुसरबाड़ी। पता चलते ही मां-पिता से मिलने दौड़ा आया था।
''हमारा दिल नहीं लग रहा बेटा।'' सुबोध बोले।
हंस दिया सुधांशु, ''कुछ समय की ही बात है।''
''लेकिन यह कैसी शादी है बेटा....ना बारात...ना उछाव...।''
''मां, कहते हैं न कि जैसा देश वैसा भेष....।''
''हम दोनों की कोई भूमिका ही नहीं दिख रही...लग ही नहीं रहा कि मेरे बेटे का विवाह है।''
''महानगरों में चीजें बदल रही हैं पिता जी। आपको कुछ करना ही नहीं....रात आपके लिए गाड़ी आ जायेगी....।''
''और तुम?'' सुबोध से रहा नहीं गया।
''मेरे लिए इन लोगों ने होटल ताज में कमरा बुक करवाया है।''
''सब कुछ मजूमदार साहब ने किया है?'' सुगन्धि बोली।
सुधांशु मां की बात का उत्तर देने ही जा रहा था कि पिता की आवाज सुनाई दी, ''मजूमदार साहब हमारे समधी होने जा रहे है।....सुबह से हम यहां पड़े हुए हैं....एक बार भी मिलने नहीं आए.....ये कैसी रिश्तेदारी हैं बेटा...?''
सुधांशु चुप रहा। कुछ देर तक कमरे में चुप्पी पसरी रही। कुछ देर बाद सुधांशु बोला, ''मुझे होटल जाना है। रात आपके लिए वे लोग गाड़ी भेज देंगे पिता जी....मैं वहीं मिलूंगा।'' सुधांशु मां-पिता के चरणों में झुक गया तो आशीर्वाद देते हुए दोनों की ही आंखें गीली हो गयीं।
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शादी के अगले दिन सुधांशु और प्रीति शिमला चले गये। सुबोध और सुगन्धि तीन दिन दिल्ली में रहे और ये तीनों ही दिन इंडिया इंटरनेशनल सेण्टर में, लेकिन तीनों ही दिन लंच और डिनर के लिए नृपेन मजूमदार ने उन्हें घर बुलाया। पहली बार वह स्वयं गाड़ी ड्राइव कर उन्हें लेने आए जबकि बाद में ड्राइवर आया। उन्होंने सुबोध और सुगन्धि को यह एहसास नहीं होने दिया कि वह एक उच्चाधिकारी थे। नृपेन ने सुबोध को अपने भाई जैसा सम्मान दिया जिससे दोनों पति-पत्नी प्रसन्न थे और निरंतर यह चर्चा करते रहे कि सुधांशु ने प्रीति के साथ शादी करके गलती नहीं की, कि वे प्रीति को बेटी की भांति मानेंगे, कि प्रीति भी उनका मां-पिता की भांति सम्मान किया करेगी, जिसके मां-पिता इतने नेक हैं उसकी संतान भी भली ही होगी। वे उस क्षण को याद करते जब प्रीति ने विवाह मंडप से उठते ही उन दोनों के चरण स्पर्श किये थे। सुगन्धि ने प्रीति को गले लगाकर आशीर्वाद की झड़ी लगा दी थी।
नृपेन मजूमदार दूसरे दिन डिनर के बाद बोले, ''भाई साहब, कल ड्राइवर आपको दिल्ली घुमा देगा...लाल किला, जामा मस्जिद, कुतुब मीनार....राजघाट....।''
नृपेन की बात सुनकर सुबोध पत्नी की ओर देखने लगे थे। सुगन्धि के मन की बात थी, लेकिन केवल कहने के लिए कहा, ''आप क्यों परेशान होंगे भाई साहब।''
''इसमें परेशानी कैसी!''
दूसरे दिन दिल्ली-दर्शन कर अपने नसीब को सराहते रहे सुबोध। चौथे दिन उन्हें स्टेशन छोड़ने के लिए नृपेन और कमलिका गए। सुबोध और सुगन्धि के मना करने के बावजूद तीन बड़े पैकेट, मिठाई के डिब्बे, दो बड़ी अटैचियों में कपड़े आदि बांध दिया था मजूमदार दम्पति ने। ट्रेन छूटने के समय नृपेन ने सुबोध को गले लगा लिया। कमलिका भी सुगन्धि से गले मिली।
ट्रेन छूटने के बाद कमलिका ने पति से कहा, ''सीधे-सरल हैं दोनों।''
''हमारी प्रीति समझदार है।'' प्लेटफार्म से बाहरे आते हुए मजूमदार बोले।
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शिमला से लौटकर सुधांशु और प्रीति एक दिन के लिए दिल्ली रुके और अगले दिन शाम की फ्लाइट से पटना चले गये। कुछ दिनों बाद नृपेन और कमलिका कलकत्ता जाते हुए दो दिनों के लिए पटना रुके। उन दोनों को प्रसन्न देख नृपेन मजूमदार ने पुन: कमलिका से कहा, ''कमल, अपनी प्रीति बहुत समझदार है।''
कमलिका केवल मुस्करायीं, जिसका अर्थ था कि वह बिल्कुल ठीक कह रहे थे।
''आखिर बेटी किसकी है!''
पति की इस टिप्पणी पर कमलिका फिर मुस्कराई।
कलकत्ता के अपने घर को सुव्यवस्थित करने और कुछ आवश्यक कार्य करवाने में मजूमदार को एक महीना से अधिक समय लगा। लेकिन उन्हें दिल्ली के सरकारी बंगले की चिन्ता भी परेशान कर रही थी, क्योंकि बंगले में शोभित अकेला था।
'दिल्ली में अपराधों में तेजी से वृद्धि हो रही है....और अब तो ये अपराध घरेलू नौकर ही करने-करवाने लगे हैं।' नृपेन मजूमदार कभी-कभी सोचते, 'लेकिन शोभित ऐसा नहीं है। वह दूसरे नौकरों से अलग है। क्यों न मैं कमल को भेज दूं। यहां का काम मैं स्वयं करवा लूंगा। लेकिन कमल को अकेले भेजना ठीक नहीं। लेबर बढ़ा लेता हूं, काम जल्दी समाप्त हो जाएगा। साथ जाकर जल्दी ही वहां सामान पैक कर इधर आना होगा।'
कमलिका प्रतिदिन सुबह-शाम शोभित से फोन पर हाल-समाचार लेती। शोभित के अपने सर्वेण्ट क्वार्टर के अतिरिक्त उन्होंने वह कमरा ही खुला छोड़ा था जिसमें टेनीफोन था।
''सब ठीक है मेम साब।'' शोभित उनके पूछने पर कहता।
''आज क्या पकाया था शोभित?''
''मैडम कद्दू की सब्जी और चपाती।''
''कद्दू ....मछली नहीं लाया?''
''मैडम वो तो नहीं लाया?''
''क्यों?''
''मैडम ....बस्स....।''
''पैसे हैं ना...मैं देकर आयी थी।''
शोभित चुप रहता। कह नहीं पाता कि मैडम आपने जितने पैसे दिए थे वे संभालकर खर्च नहीं करूंगा तो आपके आने से पहले ही खर्च हो जायेंगे।
''शोभित, पौधों को समय से पानी देते रहना और किसी भी अनजान व्यक्ति को बंगले के अंदर मत आने देना। कोई परिचित भी आए तो यह मत बताना कि हम लोग दिल्ली से बाहर हैं।''
''जी मैम।'' लेकिन तभी शोभित को लगता कि वह यह पूछना ही भूल गया कि साहब कैसे हैं और तुरंत पूछता, ''मेम साहब, साहब कैसे हैं?''
''बिल्कुल ठीक हैं। तुम्हे बहुत याद करते हैं।'' शोभित जानता था कि यह बात मैडम ने अपनी ओर से कही है। तभी श्रीमती कमलिका मजूमदार की आवाज सुनाई देती, ''हम लोग जल्दी ही आयेंगे.....तुम बंगले में ही रहना....दोस्तों के साथ खेलने-घूमने मत जाना।''
''मैडम, यहां मेरा कोई दोस्त नहीं है।''
''यह तो ठीक है।'' और कमलिका मजूमदार फोन काट देतीं। प्रतिदिन वह यही बातें करतीं और प्रतिदिन शोभित यही उत्तर देता।
दूसरी बार भी नृपेन मजूमदार बेटी-दामाद से मिलने पटना पहुंचे। उन्होंने दिल्ली का सरकारी बंगला खाली कर दिया था। सामान के लिए कंटेनर बुक करवाया था। शोभित को कालका मेल से कलकत्ता रवाना करके पति-पत्नी सुबह की फ्लाइट से पटना पहुचे, एक दिन रुके और दूसरे दिन सुबह की फ्लाइट से कलकत्ता चले गये। वे शोभित के पहुंचने से पहले वहां पहुंचना चाहते थे।
चार महीनों में दो बार प्रीति कलकत्ता हो आयी थी। लेकिन यह सिलसिला आगे चलता इससे पहले ही एक दिन सुधांशु ने उससे कहा, ''प्रीति, तुम सिविल सेवा परीक्षा का एक अटेम्प्ट दे चुकी हो.....अभी तुम्हारे पास समय है...दो अटैम्प्ट और दे सकती हो....समय नष्ट क्यों कर रही हो....तैयारी करो...।''
''मैं भी यही सोच रही थी। तुम दफ्तर में होते हो तो बहुत उचाट लगता है।'' सुधांशु को किस करती हुई प्रीति बोली, ''लेकिन जब मैं भी व्यस्त हो जाऊंगी तब घर...।''
''उसके लिए एक मेड रख लेते हैं।''
''हां, ऐसा कर सकते हैं।''
''अड़ोस-पड़ोस में आने वाली मेड्स से बात करो....मैं भी अपने दफ्तर में चर्चा करूंगा।''
''यार, तुम बड़े अफसर होते......डिप्टी डायरेक्टर ही हो चुके होते तब तो दफ्तर के किसी चपरासी की बीबी आ जाती.....।''
''नहीं प्रीति....मेरे सिद्धांत के विरुद्ध है यह। मैं जानता हूं कि चतुर्थ श्रेणी ही नहीं कुछ तृतीय श्रेणी कर्मचारियों का शोषण कर्यालयों के बड़े अफसर करते हैं, लेकिन तृतीय श्रेणी के कर्मचारी अपना हित साध लेते हैं, जबकि निरीह चतुर्थ श्रेणी केवल शोषित होता है। वह यदि कुछ लाभ उठा पाता है तो केवल इतना ही कि अपने किसी परिचित को कैजुअल नियुक्त करवा लेता है, लेकिन कितने दिनों के लिए दो...चार महीनों के लिए....।''
प्रीति ने कोई उत्तर नहीं दिया।
''तुम किसी से बात करो। कोई नहीं मिलेगा तब मैं मां को आने के लिए कहूंगा।''
''हूं... अ ....कुछ करना ही होगा। पढ़ाई और घर.....शायद मैं न संभाल पाऊंगी। कभी किया भी नहीं।''
''तुम अपनी तैयारी की सोचो...एक बार मेड्स से बात करके देखो....फिर मुझे बताओ।''
प्रीति ने किसी भी मेड से बात नहीं की, जबकि आमने-सामने के मकानों में तीन मेड्स काम करने आती थीं। पूछने पर उसने कहा, ''बात की थी, लेकिन उन्हें समय नहीं।''
''वे किसी और को बता देतीं या भेजने के लिए कहतीं।''
''उन्होंने मेरी बात पर कान ही नहीं दिया।''
''ओ. के.....।'' देर तक चुप रहने के बाद सुधांशु बोला, ''मां को लिखता हूं। आ ही जाना चाहिए....पिता जी को परेशानी अवश्य होगी, लेकिन वे मैनेज कर लेंगे।''
''यही ठीक रहेगा।''
''मैं यहां पर मां-पिता के संघर्षों के कारण पहुंचा....अब उन दोनों को यहां बुला लेना चाहिए। यदि उन्हें सुख नहीं दे पाया तब इस अफसरी का क्या लाभ?'' सुधांशु ने कुछ सोचते हुए कहा।
''दोनों लोगों के आने के बाद वहां की व्यवस्था गड़बड़ा नहीं हो जायेगी....।'' चिन्तामग्न भाव से प्रीति बोली, ''तुम बता रहे थे कि तुम्हारे पास ठीक-ठाक खेत हैं।''
''प्रीति, पिता जी मंझोले किसान हैं। खेत बटाई पर दे देंगे। साल में दो बार जाकर देख आया करेंगे।''
''मेरा सुझाव है कि माता जी को पहले बुला लो, उनकी तत्काल आवश्यकता है। मैं पढ़ाई को लेकर गंभीर हूं। अंकल घर-खेतों की व्यवस्था करके बाद में आ जायेंगे।''
''हुंह।'' सुधांशु ने मंद स्वर में कहा, ''शायद तुम ठीक कह रही हो।''
''शायद ....?'' सुधांशु के गाल पर चिकोटी काटती हुई प्रीति बोली और उसके और निकट खिसक गयी।
सुधांशु अपने को रोक नहीं पाया। उसने प्रीति को अपनी ओर खींच लिया....।
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(22)

सुगन्धि के आने से पहले ही प्रीति ने आई.ए.एस. के लिए कोचिंग ज्वाइन कर ली थी। अपरान्ह चार बजे से रात आठ बजे तक वह कोचिंग के लिए जाती। पढ़ाई के कारण घर अव्यवस्थित रहने लगा। यद्यपि पहले भी सुधांशु छोटे-छोटे काम कर दिया करता था, लेकिन अब प्राय: सुबह की चाय और नाश्ता वही तैयार करता। प्रीति सुबह आठ बजे पढ़ने बैठ जाती और दोपहर एक बजे तक पढ़ती रहती। सुधांशु कार्यालय की कैण्टीन का लंच लेने लगा, जबकि प्रीति अपना काम ब्रेड-चिउड़ा या कार्नफ्लेक्स से चलाती। कभी-कभी बाहर से आर्डर कर लंच मंगवा लेती। रात प्रीति के लौटने के बाद सुधांशु उसके लिए चाय बना देता और रात के भोजन में दलिया-खिचड़ी या दाल-चावल बनने लगा था।
पत्र पहुंचने और सुगन्धि के आने में तीन सप्ताह से अधिक समय बीत गया। एक बार दबी जुबान सुधांशु ने प्रस्ताव किया, ''प्रीति, क्यों न हम दोनों गांव चलकर मां को साथ ले आंए। तुम मेरे गांव गई भी नहीं। दो दिन में जाकर लौट आयेंगे।''
''सुघांशु तुमसे अधिक कौन समझ सकता है इस पढ़ाई के बारे में।''
''वह मैं समझता हूं, लेकिन परीक्षा के लिए कई महीने हैं और दो दिन ....।''
''तुम चाहो तो चले जाओ....जहां तक मेरा प्रश्न है...मैं नहीं जाऊंगी। गांव देखने में मेरी कोई रुचि नहीं है। टी.वी. में वहां की गंदगी देखती रही हूं....।'' क्षण भर के लिए प्रीति रुकी। सुधांशु की ओर टकटकी लगाकर देखती रही, ''वैसे तुम मुझे छोड़कर कहां जाओगे! मां जी आ ही जायेंगी। तब तक कुछ परेशानी ही सही....।''
प्रीति की बात सुधांशु को आहत कर गयी, लेकिन उसने प्रकट नहीं होने दिया। उसने प्रसंग ही बदल दिया और उसकी तैयारी के विषय में बात करने लगा।
प्रतिदिन रात में एक घण्टा सुधांशु प्रीति के अध्ययन में सहायता करता था। दुरूह प्रश्नों का सहज विश्लेषण करता। उसने उस दिन यह निर्णय किया कि वह कभी भी प्रीति से अपने गांव जाने के विषय में प्रस्ताव नहीं करेगा। 'दिल्ली जैसे महानगर में पली-बढ़ी लड़की से गांव जाने की अपेक्षा करना ही मूर्खता है।' उसने सोचा, 'दिल्ली पढ़ने जाने के बाद मैं ही कितनी बार गया गांव!'
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सुगन्धि ने आते ही व्यवस्था संभाल ली। लेकिन उनके काम का ढंग प्रीति को पसंद नहीं आता था। सफाई के बावजूद उसे घर गंदा ही नजर आता। एक दिन उसने सुधांशु से कह ही दिया, ''मां जी गांव के संस्कार साथ लेकर आयीं हैं।''
''मतलब?''
''मतलब यह कि उनके हर काम में गांव का फूहड़पन दिखाई देता है।''
प्रीति की इस टिप्पणी ने अंदर तक सुधांशु को छील दिया। देर तक वह उस बात को जज्ब करने का प्रयत्न करता रहा, लेकिन अपनी बेचैनी पर जब वह काबू नहीं पा सका बोला, ''एक काम करता हूं।''
प्रीति सुधांशु के चेहरे की ओर देखने लगी।
''मां को वापस भेज देता हूं। तुम किसी मेड का प्रबंध नहीं कर सकी, मैं प्रयत्न कर देखता हूं।''
''मेरी बात का बुरा मान गए?''
''बिल्कुल नहीं...सच बात का बुरा क्या मानना। मां की सारी जिन्दगी गांव में बीती है.......घर, खेत, खलिहान, जानवरों के बीच....पहले ही कहा था कि मेरे मां-पिता किसान हैं......निरक्षर किसान...। वह कुशल गृहणी हैं, लेकिन कुशलकर्मी नहीं....काम करना उन्हें आता है, लेकिन नफ़ासत वह नहीं जानतीं। इस शब्द से शायद ही वह परिचित हों। लेकिन उनके काम में ईमानदारी का अभाव नहीं है......यह मेरी कल्पना से भी बाहर है।'' सुधांशु को लगा कि इतना कहते हुए वह हांफ गया है।
''आय मए सॉरी सुधांशु। तुम निश्चित ही बुरा मान गए हो।''
सुधाशु ने प्रतिक्रिया नहीं दी।
''मां जी को कहीं नहीं भेजोगे। मेड से काम नहीं चलेगा। इनके रहने से घर की निश्चितंता रहती है।''
सुधांशु इस बार भी प्रतिक्रिया न व्यक्त कर स्टडी में चला गया। कुछ देर बाद प्रीति भी आ गयी। दरअसल स्टडी पर उन दिनों प्रीति का कब्जा था, जहां रात सुधांशु एक घण्टा उसे गाइड करता था। इससे पहले वह वहां साहित्य अध्ययन करता और कभी-कभी कविता या कोई आलेख लिखता। उसकी कविताएं और आलेख पत्र-पत्रिकाओं से वापस लौट आते या आते ही नहीं थे।
सुगन्धि ने प्रीति को दूसरे कामों से ही मुक्त नहीं किया बल्कि वह उसके कपड़े भी धो देती थीं, ''बहू तुम केवल पड़ाई करो....कठिन पढ़ाई है...मैंने कभी पढ़ाई नहीं की तो क्या....लेकिन जानती हूं और देख भी रही हूं कि बहुत मेहनत करनी पड़ती है। तुम रोज फल, दूध, बादाम का सेवन किया करो। पढ़ाई में भेजा कमजोर न हो जाए...।''
प्रीति सास की बात सुनकर मन ही मन मुस्कराती, और केवल इतना ही कहती, ''जी...मां जी।''
सुगन्धि ने प्रीति से कहा ही नहीं, उसके लिए अलग से एक लीटर दूध लेने लगीं। स्वयं बाजार जाकर देशी घी, बादाम ले आयीं। फल सुधांशु ले ही आता था। दिन में चार बार बिना प्रीति के कहे वह उसके लिए चाय बना देतीं। स्वयं सुबह की चाय ही लेतीं।
डायनिंग टेबल पर जब प्रीति भोजन कर रही होती, सुगन्धि उसका चेहरा ताकती बैठी रहतीं, जबकि प्रीति उनकी ओर देखती भी नहीं थी। कुछ सोचते हुए यदि वह क्षणभर के लिए भोजन रोक देती, सुगन्धि अपने को रोक नहीं पातीं, ''बेटा कुछ और लायी?''
''अंय...।''
''कुछ और लायी?''
''नो...थैंक्स।''
बेटे के पास रहते हुए सुगन्धि अंग्रेजी के कुछ शब्द समझने लगी थीं।
''कोई बात नहीं....तुम इत्मीनान से खाना खाओ। सारा दिन पढ़ते हुए दिमाग खराब हो जाता होगा।'' सुगन्धि बुदबुदातीं।
लेकिन प्रीति उनकी बात का उत्तर नहीं देती। भोजन समाप्त कर तेजी से उठती और वॉशबेसिन की ओर लपक लेती।
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आई.ए.एस. की परीक्षा समाप्त होने के दूसरे दिन प्रीति कलकत्ता चली गई। सुगन्धि गांव जाना चाहती थीं, लेकिन प्रीति के लौटने तक उन्हें रुकना पड़ा। प्रीति एक माह कलकत्ता रही, लेकिन जिस दिन उसे पटना लौटना था उससे एक सप्ताह पहले सुधांशु मां को लेकर गांव गया। दो दिन गांव में रहा। उसे यह देख आश्चर्य हो रहा था कि उससे मिलने के लिए पूरा गांव उसके दरवाजे एकत्रित हुआ था। लोग आते उसे आशीषते, सुबोध और सुगन्धि के भाग्य को सराहते और वापस लौट जाते। युवा और किशोरों के लिए सुधांशु प्रेरणा श्रोत बन गया था। लेकिन कल तक जो युवक उससे घुलमिलकर सलाहें लेते थे उससे नमस्कार या चरणस्पर्श कर संकुचित भाव से एक ओर खड़े हो गये तो सुधांशु सोचने के लिए विवश हुआ, 'जब ये अपने लोग गांव के व्यक्ति के अफसर बनते ही एक दूरी अनुभव करने लगे हैं तब इस देश में 'अफसरशाही' और 'लालफीताशाही' की स्थिति का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। कहने के लिए हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का हिस्सा हैं, लेकिन इस देश का लोकतंत्र कुछ लोगों के हाथों बंधक है...नेता, अफसर और पूंजीपतियों के हाथों....।'
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धारावाहिक उपन्यास

गलियारे
(उपन्यास)
रूपसिंह चन्देल
(23)


प्रीति का परिश्रम सफल रहा और वह भी आई.ए.एस. एलायड में चुनी गयी। संयोग ही कहा जाएगा कि उसका चयन भी प्ररवि विभाग के लिए हुआ। अनिवार्य विभागीय प्रशिक्षण के लिए उसे देश के विभिन्न कार्यालयों में जाना पड़ा। सुधांशु पटना में ही अवस्थित रहा। कभी कुछ दिनों के लिए मां उसके साथ आकर रहीं शेष समय वह अकेले ही रहा। उसने एक मेड सर्वेण्ट खोज ली थी जो मां के रहने के दौरान भी घर के काम कर जाती थी। इन दो वर्षों में मां कुल तीन महीने उसके पास रहीं और उन्हीं दिनों पिता सुबोध भी दो सप्ताह रहकर गये थे। सुबोध प्राय: सुधांशु की अनुपस्थिति में पत्नी से चर्चा करते, ''सुगन्धि, भगवान हमारा जैसा बेटा सभी को दे। बेटे ने बहू भी काबिल खोजी....अब हम दोंनो की जिन्दगी से दलिद्दर दूर हो गये। अपना बुढ़ा़पा सुख में बीतेगा....न हार-पतार की चिन्ता न गाय-बैलों के सानी-पानी, गोबर-घूर की परवाह। खेत बटाई को उठा देंगे और ठाठ से बबुआ के पास आकर रहेंगे।''
''बहुत ऊंचे ख्वाब हैं तुम्हारे।'' मुस्कराकर एक दिन सुगन्धि बोली थी।
''इसमें ऊंचे ख्वाब की क्या बात! सुधांशु ने कितनी ही बार कहा नहीं ये सब!''
''हां, कहा तो है, लेकिन अगर बहू....।''
समझ गए थे सुबोध कि सुगन्धि क्या कहना चाहती है। टोका, ''संस्कारी घर की लड़की है...पढ़ी-लिखी---ऊंचा ओहदेवाली हो जाने से संस्कार थोड़े ही छूट जाते हैं।''
''अभी तो ट्रेनिंग में है। पता नहीं दोंनो साथ रह भी पाते हैं या नहीं।''
''जरूर रहेंगे। सरकार की कोशिश यही रहती है कि पति-पत्नी साथ रहें।''
''ऐसे कह रहे हो, जैसे तुमही सरकार हो।''
हो...हो कर हंस दिए थे सुबोध, ''सब भली-भली सोचो सुधांशु की अम्मा।''
दो वर्षों में सुधांशु ने विश्व साहित्य के महान रचनाकारों को खोज-खोजकर पढ़ डाला। कविताएं लिखने का सिलसिला बदस्तूर जारी था। पहले वह अंग्रेजी में लिखता था, और एक कविता छोड़कर उसकी कोई भी कविता अंग्रेजी में प्रकाशित नहीं हुई थी। उसने अपनी कुछ कविताएं एक वरिष्ठ कवि को भेजीं। एक सप्ताह में ही उनका उत्तर उसे मिला। उन्होंने कविताओं की प्रशंसा करते हुए लिखा था, ''सुधांशु आपकी कविताएं अच्छी हैं, लेकिन सहजता का अभाव है। मैं इसे अभिव्यक्ति का संकट कहना पसंद करूंगा, क्योंकि आप सोचते अपनी मातृभाषा में और लिखते अपनी कार्यभाषा में हैं। आपकी मातृभाषा हिन्दी है। यदि आप इन्हीं भावों को अपनी मातृभाषा में व्यक्त करें तो बहुत अच्छा होगा।''
उनके पत्र ने उसके भ्रम को तोड़ दिया था। उसने अपनी समस्त अंग्रेजी कविताओं को फाड़कर फेक दिया। वह नये सिरे से अपने रचनाकार के विषय में सोचने लगा। उसने हिन्दी में लिखना प्रारंभ किया। बहुत कम समय में हिन्दी पत्र-पत्रिकाओं में उसकी कविताएं प्रकाशित होने लगीं। अब वह सम-सामयिक विषयों पर आलेख अंग्रेजी के अतिरिक्त हिन्दी में भी लिखने लगा था। अंग्रेजी में उसके आलेख पढ़कर और यह जानकर कि वह पटना में ही प्ररवि विभाग में कार्यरत है, उस जैसे साहित्य प्रेमी दो अधिकारियों ने, जिनमें एक आयकर विभाग में सहायक आयुक्त था और दूसरा रेलवे में निदेशक, उससे संपर्क किया। वे दोंनो 'कल्पतरु' नामक संस्था के सदस्य थे। संस्था की रविवार शाम पाक्षिक गोष्ठी होती थी। इन गोष्ठियों का आयोजन सहायक आयकर आयुक्त दिनेश सिन्हा के घर होता। सुधांशु को भी कविताएं पढ़ने के लिए बुलाया जाने लगा। कभी-कभी वह जाता, कविताएं सुनाता और उसे हर कविता पर दाद मिलती। वह अनुभव करता कि वहां लोग सभी की कविताओंं की प्रशंसा ही करते थे भले ही कविता अच्छी न हो। रेलवे के निदेशक स्वामीनाथन तमिल थे और तमिल में कविताएं लिखते थे। वह उनकी कविता समझ नहीं पाता था जबकि शेष सभी 'वाह...वाह.... स्वामीनाथन साहब.....क्या गजब के भाव हैं.....बहुत खूब।' वह समझ नहीं पाता कि शेष भी उसी की भांति तमिल भाषा नहीं जानते फिर भी प्रशंसा के पुल कैसे बांध लेते हैं।'
'कल्पतरु' में स्वामीनाथन को छोड़कर सभी हिन्दी साहित्यकार थे और दो ऐसे रचनाकार भी थे जो हिन्दी में प्रतिष्ठा पा चुके थे। जब वह उन्हें स्वामीनाथन की रचनाओं की प्रशंसा करते देखता तब आंशकित हो उठता और कुछ गोष्ठियों में जाने के बाद उस पर उस रहस्य से पर्दा उठ गया था। प्रत्येक गोष्ठी के बाद मंहगे खाद्य पदार्थों के साथ मंहगी शराब की बोतलें खोली जातीं। दिनेश सिन्हा साग्रह लोगों को पेग भरने के लिए उत्साहित करता। दिनेश का नौकर आइस क्यूब ट्रे में रख जाता। सोडा वाटर की भी व्यवस्था होती। सिन्हा उसे भी ड्रिंक के लिए मनाता, मनुहार करता, लेकिन वह स्पष्ट इंकार कर देता। जलेबी के कुछ टुकड़े, कुछ नमकीन और एक पनीर पकौड़ा लेकर वह शेष सामग्री की ओर देखता भी नहीं था जबकि वहां उपस्थित लोग प्लेट आते ही उस पर यों टूटते कि दो मिनट में प्लेट की सामग्री समाप्त हो जाती। दिनेश का नौकर पर्दे की ओट में खड़ा रहता और प्लेट खाली होते ही दूसरी प्लेट रख जाता ...खाली प्लेट उठा ले जाता। नौकर की पत्नी किचन में पुन: खाली प्लेट भर देती, जिसे थाम नौकर फिर पर्दे की ओट आ खड़ा होता।
लोग ड्रिंक लेते और ठहाके लगाते, जो सुधांशु को कर्णकटु लगता। कभी कोई साहित्यकार ठहाके के साथ कहता, ''सिन्हा, आज किस लाला की जेब खाली की थी?''
''गुरू, माल छको...आम खाया करो....पत्ते मत गिना करो।''
''यार, बुरा क्यों मानते हो? मैं ठहरा फटीचर साहित्यकार, लेकिन इतना तो समझता ही हूं कि तू अपनी टेंट से हर पन्द्रह दिन में ये दावत नहीं कर सकता।''
''सुकांत....अगली बार आप गोष्ठी में नहीं आएंगे।'' सिन्हा बोलता।
''सच कड़वा होता है दिनेश सिन्हा। सुकांत नहीं आएंगे तो दूसरे भी नहीं आएंगे। तुम अपनी जेब से नहीं खिला-पिला रहे.....ऐं....ऽ..ऽ...इतनी धमकी किसलिए! दुनिया जानती है कि इनकमटैक्स और सेल्सटैक्स के कुछ अफसर रिश्वतखोर होते हैं.....और यदि वे साहित्य में हुए तो जब तक पद पर रहते हैं तब तक साहित्य में छाये रहने की कोशिश करते रहते हैं। लेकिन उसके बाद....।'' अविनाश बोलता।
ठहाका।
सिन्हा चुप रहता। सोचता, 'ये कुत्ते हैं...टुकड़ा मिलता है इसीलिए इधर-उधर मेरी रचनाओं की प्रशंसा करते हैं। कुछ दिन और झेलनी होगी ये ज़िल्लत....स्थापित होने के लिए इनके गले सींचते रहना होगा। उसके बाद....।'
''लेकिन यह बात हम सभी मानते हैं कि कमाते तो बहुतेरे हैं लेकिन वे अपनी तिजोरी भरते हैं...नामी बेनामी सम्पत्ति बनाते हैं, जबकि दिनेश भाई उसमें से कुछ हिस्सा हम सब पर भी खर्च करते हैं।''
''पाप धो लेते हैं दिनेश सिन्हा।'' विराट ...कोमलकांत विराट बोलता। विराट एक स्थानीय अखबार में पत्रकार था और फीचर के साथ कविताएं लिखता था।
''बहुत हो गया .....ये सब बंद करो...वर्ना सिन्हा नाराज हो गया तो मुफ्त की बंद हो जायेगी।'' अविनाश लंबी डकार लेता हुआ बोलता।
फिर एक ठहाका लगता और लोग अपने गिलास पुन: भरने लगते।
''यार दिनेश, बुरा न मानना। शराब साली सिर चढ़कर बोलने लगती है....वह भी जब मुफ्त की हो तो और अधिक।'' सुकांत कहता, ''यह पेग तुम्हारी आगामी कविता के नाम।'' और वह पूरा पेग एक साथ खाली कर जाता।
ऐसा हर बार होता था।
* * * *
दिनेश सिन्हा कवि था। अर्थशास्त्र में एम.ए. करने के पश्चात् वह आई.आर.एस. के लिए चुना गया और उसकी पहली पोस्टिंग अहमदाबाद हुई थी। दो वर्ष वहां रहने के पश्चात् वह बड़ौदा, सूरत होता हुआ पटना पहुंचा था। कविताएं वह आपने छात्र जीवनकाल से ही लिख रहा था, लेकिन सिविल सेवा की तैयारी, चयन, प्रशिक्षण के दौरान साहित्य से वह दूर रहा। अहमदाबाद पोस्टिंग के बाद व्यवस्थित होने के पश्चात वह पुन: साहित्योन्मुख हुआ। उसकी कविताएं कुछ समाचार पत्रों के रविवासरीय परिशिष्टों, कादम्बनी तथा कुछ लघु पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगीं। लेकिन जिस साहित्यिक माहौल की वह आवश्यकता अनुभव करता वह अहमदाबाद और सूरत में उसे नहीं मिला। बड़ोदा में कुछ लोग मिले, जुड़े, लेकिन उन्हें हल्का कवि मानकर उसने उनसे दूरी बना ली। विवेचना करने पर उसने पाया कि उसके ब्यूराक्रेटिक रंग-ढंग से वे लोग ही उससे अलग हो गये थे।
जब वह बड़ौदा में था उसकी शादी बनारस के एक व्यवसायी परिवार में हुई। उसकी पत्नी बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से राजनीतिशात्र में पी-एच.डी. कर रही थी। दिनेश सिन्हा सांवले रंग, मध्यम कद, मोटी नाक और छोटी आंखों वाला युवक था, वहीं उसकी पत्नी शुभांगी अप्रतिम सुन्दरी थी। विवाह के समय शुभांगी की थीसिस समाप्ति के निकट थी और उसे आशा थी कि उसे बनारस के किसी महाविद्यालय में प्राघ्यापकी मिल जाएगी। लेकिन पिता और परिवार के दबाव, जिन पर समाज द्वारा उंगली उठाए जाने का भय था, के कारण उसे विवाह करना पड़ा था।
शुभांगी स्वतंत्रचेता युवती थी और पारिवारिक तादात्म्य स्थापित करते हुए वह अपने व्यक्तित्व के प्रति जागरूक थी। वह नहीं चाहती थी कि वह वैसा जीवन जिए जैसा उसकी मां-नानी ने जिया, जहां प्रारंभ में पति का आदेश और फिर बच्चों के आदेश के समक्ष उसका कोई स्वर न हो। वाणीविहीन नहीं रहना चाहती थी वह और बड़ोदा में जब छ: महीने बीत गए उसने एक दिन दिनेश सिन्हा से बनारस जाकर यथाशीघ्र थीसिस समाप्त कर प्रस्तुत कर आने की बात छेड़ी।
''मेरी नौकरी तुम्हें छोटी लगती है?'' दिनेश तमतमा उठा।
''मैंने यह नहीं कहा। लेकिन मैं पी-एच.डी. की डिग्री लेना चाहती हूं।''
''मेम साहब, डिग्री में क्या रखा है। छोटी-सी प्राध्यापकी मिल जाएगी उससे.....यही न! वह भी बनारस या आसपास मिली तब अपना जीवन क्या होगा...सोचा है?''
''मैंने प्राध्यापकी की बात नहीं की....पी-एच.डी. की बात की है। केवल एक चैप्टर रह गया था, जिसके नोट्स ले रखे थे। लिखना और सबमिट ही करना है। डिग्री कभी भी व्यर्थ नहीं जाती। जीवन में कभी भी वह उपयोगी सिद्ध हो सकती है।''
''डाक्टर बन जाओगी....या राजनीति में जाने का इरादा है?''
''मेरे व्यक्तित्व की कोई स्वतंत्र इकाई नहीं होनी चाहिए?''
''अवश्य...अवश्य...मेम साहब।'' चेहरे पर व्यंग्यात्मकता ला दिनेश सिन्हा बोला, ''अपने व्यक्तित्व की स्वंतत्रता के लिए पारिवारिक संस्था को होम कर देना चाहती हो?''
''आप इस प्रकार ऊल-जुलूल बातें क्यों कर रहे हैं?'' पहली बार शुभांगी ने संतुलन खोया।
''तो सुन लो...बहस मैं करना नहीं चाहता। दफ्तर ही उसके लिए पर्याप्त है। शादी करने से पहले यह सब सोचना चाहिए था। एक आई.आर.एस. से शादी न करके किसी क्लर्क से करती तो वह तुम्हारी पी-एच.डी. की डिग्री को अपने माथे पर लगाए घूमता। तुम्हारी प्राध्यापकी को कंधे पर बैठाता, क्योंकि उसे घर चलाने और बच्चों को बेहतर शिक्षा देने के लिए कमाऊ पत्नी की जरूरत होती। मुझे नहीं है। पैसों की कमी है? नोंटो से घर भर दूंगा...उससे तुम्हारी सारी डिग्रियां दब जायेंगी। मेम साहब, दुनिया में डिग्री-विग्री कोई नहीं पूछता....नोंटो की वकत है।''
''आपके नोट आपको ही मुबारक मिस्टर दिनेश सिन्हा।'' दांत पीस लिए शुभांगी ने, ''मुझे डिग्री चाहिए....मेरा स्वप्न था पी-एच.डी करना। इतना श्रम करके उसे यूं नहीं छोड़ सकती। हराम की कमाई से मैं घृणा करती हूं।''
''मैं हराम की कमाई कर रहा हूं?'' दिनेश सिन्हा चीखा था।
''अभी आपने ही कहा....और क्या मैं देख नहीं रही। मैं ऐसे जीवन की आदी नहीं।''
''तुम्हारे घरवाले ईमानदारी की कमाई करते हैं?''
''शत-प्रतिशत।''
शुभांगी के पिता और भाई बनारसी साड़ियों के एक्सपोर्टर थे।
''शुभांगी ....कान खोलकर सुन लो...मैं तुम्हारी डिग्री के पक्ष में नहीं हूं...डिग्री या मुझे...तुम्हें एक को चुनना होगा।'' कहकर पैर पटकता दिनेश सिन्हा कार्यालय चला गया था।
और दिन भर गहन चिन्तन-मनन के बाद शुभांगी ने पी-एच.डी. का चयन किया था। दोंनो के मध्य दो दिनों तक संवादहीनता रही थी। लेकिन तीसरे दिन शुभांगी ने दिनेश को अपने चयन से अवगत कर दिया था। इस मध्य उसने बनारस पिता-भाइयों से बात की थी। वस्तस्थिति स्पष्ट करते हुए कहा था, ''मुझे थीसिस पूरा करना है....जो दिनेश नहीं चाहता। उसके विरोध के बावजूद वह बनारस आ रही है। यदि वे लोग उसका साथ नहीं देना चाहते तो वह कोई व्यवस्था सोचकर आगे कदम बढ़ाए....।''
''कैसी बात कर रही हो बेटा। तुम सीधे घर आओ। मैं दिनेश से बात कर लूंगा।'' पिता ने कहा था।
''आप उसे फोन नहीं करेंगे। वह एक जाहिल ब्योरोक्रेट है....इंसान नहीं...शायद अधिकांश ब्यूरोक्रेट इंसान नहीं रह पाते...।''
''ऐसा नहीं कहते शुभांगी। दिनेश को मैं समझा लूंगा। तुम उससे कहकर आ जाओ।''
और तीसरे दिन शुभांगी ने दिनेश को इतना ही सूचित किया कि वह अगले दिन बनारस जाएगी। सुनकर दिनेश का चेहरा अपमान और क्रोध से लाल हो उठा था। वह कुछ कहना चाहता था, लेकिन बिना कुछ कहे कमरे से बाहर चला गया था।
और अगले दिन सुबह की फ्लाइट से शुभांगी बनारस पहुंच गयी थी।
* * * *
शुंभागी ने पी-एच.डी. की और बनारस के एक महाविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त हो गयी। उसके पिता ने उसके बनारस पहुंचने के बाद दिनेश से बात की, लेकिन उसने जिस रुखाई से उत्तर दिए उसने उन्हें आहत किया था। पिता पटना में दिनेश के पिता-मां से मिले, लेकिन उन्होंने दो टूक उत्तर दिया, ''मेरे बेटे की कोई गलती नहीं लाल साहब। आपकी बेटी को बनारस से मोह था तो उसे शादी ही नहीं करनी चाहिए थी।''
''मोह....?'' इस आरोप ने पिता को और अधिक घायल किया था।
''जब वह पति के साथ नहीं रहना चाहती तब या तो शादी नहीं करती....या अब तलाक ले ले।''
''तलाक...?'' क्या कह रहे हैं सिन्हा साहब? शुभांगी के पिता कटे वृक्ष की भांति सोफे पर ढह गये थे।
''हम भारतीय हैं लाल साहब और भारतीय परम्पराओं को मानते हुए ही जीना चाहते हैं। अभी हम योरोप-अमेरिका जैसा नहीं...कभी होंगे...संभव नहीं है। भारतीय संस्कृति इसीलिए दुनिया में श्रेष्ठ है...और...।''
''यही भारतीय संस्कृति है कि पत्नी को उच्च शिक्षा से वंचित किया जाये?'' दिनेश सिन्हा के पिता की बात बीच में ही काटकर शुभांगी के पिता बोले, ''पुरुष कुछ भी करे, लेकिन लड़की को आगे बढ़ने का अधिकार भारतीय संस्कृति में नहीं है?''
''होगा...दूसरे घरों में...मेरे घर में लड़की शादी तक जितना चाहे पढ़ ले...उसके बाद उसे पति के साथ रहना होता है। मेरी बेटियां अपना जीवन सही ढंग से जी रही हैं....।''
''शुभांगी ही कौन-सा गलत ढंग से जीना चाहती है।''
''मैं आपसे बहस नहीं करना चाहता लाल साहब। लेकिन इतना कह देना चाहता हूं कि आपकी बेटी के नखरे मेरा बेटा नहीं उठा सकता। या तो आपकी बेटी दिनेश के अनुसार रहे या अलग हो ले....तलाक ले ले।''
''वह कुछ नहीं लेगी, लेकिन यदि आप चाहते हैं तो बेटे को बोलें कि वह तलाक की अर्जी दे दे...शुभांगी तलाक देगी या नहीं ....यह निर्णय उसे ही करना है....मेरे लिए लड़का-लड़की में कोई फर्क नहीं....।'' और सामने मेज पर रखी चाय और अन्य सामग्री की ओर देखे बिना ही लाल साहब सिन्हा के घर से बाहर आ गये थे।
दिनेश ने एक वर्ष तक शुभांगी के लौट आने की प्रतीक्षा की थी, लेकिन जब वह नहीं लौटी और उसे यह सूचना मिली कि वह बनारस के एक महाविद्यालय में प्राध्यापक नियुक्त हो गयी हैं तब उसने एक वकील से बात की थी। कुछ दिनों बाद दिनेश ने तलाक का नोटिस भेजवाया, लेकिन शुभांगी ने उत्तर नहीं दिया। तलाक का प्रॉसेस प्रारंभ हुआ, लेकिन शुभांगी ने सोच लिया था कि वह उसे सहजता से मुक्त नहीं करेगी। करेगी तो उसके अहंकार को तोड़ने के बाद। और निरंतर पड़ने वाली तारीखों में शुभांगी का वकील जो तर्क प्रस्तुत करता उससे दिनेश सिन्हा का पक्ष कमजोर हो जाता। सात साल से मामला अदालत में विचाराधीन था और दिनेश सिन्हा शहर-दर शहर घूमता पटना पहुंच चुका था। पटना स्थानांतरण उसने करवाया इसी उद्देश्य से था। उम्र उसकी सैंतीस पार पहुंच चुकी थी। महिलाओं के मामले में उसकी प्रतिष्ठा खराब थी और व्यापारियों में वह खासा चर्चित था। व्यापारी वर्ग उससे प्रसन्न था,क्योंकि उसके कारण वे सफलतापूर्वक लाखों की कर चोरी कर पाने में सफल थे।
सुधांशु को यह सब जानकारी नहीं थी, लेकिन सातवीं गोष्ठी के बाद जब वह दिनेश सिन्हा के घर से निकला सुकांत उसके साथ चल पड़ा और उसने विस्तार से दिनेश सिन्हा के विषय में उसे बताया था।
* * * * *
''दिनेश सिन्हा ने अपने ससुर को तबाह करने में कोई कसर नहीं छोड़ी।'' सुकांत ने आगे बताना प्रारंभ किया, ''बनारस के अपने समकक्ष आयकर अधिकारी, जो इसका बैचमेट भी रहा था, को कहकर शुभांगी के पिता के घर और ऑफिस में छापा मरवाया, लेकिन उन लोंगो का व्यवसाय साफ-सुथरा होने के कारण इसे मुंह की खानी पड़ी। उन लोंगो ने कभी आयकर चोरी नहीं की थी , जैसा कि इस देश के बड़े व्यापारी करते हैं और उस काले धन को विदेशी बैंको में जमाकर सुख की नींद सोते हैं। देश के उस धन से दूसरे देश समृद्ध हों, क्या यह देशद्रोह नहीं है?'' सुकांत के स्वर में रोष था।
''इससे बड़ा देशद्रोह क्या होगा, लेकिन यह केवल बड़े उद्योगपति या मझोले व्यवसायी ही नहीं कर रहे, नेता, बड़े अफसर और अभिनेता-अभिनेत्रियां भी कर रहे हैं। इसी बिहार के कई बड़े नेताओं ने अपनी काली कमाई स्विश बैंकों में जमा किया हुआ है। स्विश ही नहीं, जर्मनी, फ्रांस, मलेशिया....और भी कितने ही देशों के बैंक इनके पनाहगाह हैं। बिहार ही क्यों.....देश का कोई भी राज्य ऐसे नेताओं से खाली नहीं है। जब सत्ताधीश इस दौड़ में सबसे आगे हैं, तब उद्योगपति क्यों पीछे रहें....इतिहास गवाह है कि उन्होंने देश की नहीं सदैव अपनी परवाह की...ये सब देशद्रोही हैं....इन्हें मौत की सजा मिलनी चाहिए, लेकिन देगा कौन.... जब सजा देने वाले ही भ्रष्ट हों?''
''शत-प्रतिशत सच सुधांशु...।'' राह चलते सुकांत ने सुधांशु के चेहरे पर दृष्टि डाली, फिर बोला, ''दिनेश के कितने ही किस्से हैं....पैसा जो लूट रहा है पट्ठा...पैसे में बड़ी ताकत होती है सुधांशु जी।''
''हां।'' सुधांशु चाहता था कि सुंकांत शीघ्र अपनी बात समाप्त करे। वह घर जाने के लिए रिक्शा लेना चाहता था और नहीं चाहता था कि सुकांत उसके साथ उसके घर जाये।
''सुधांशु जी, यदि आपको जल्दी न हो तो सामने रेस्टॉरेण्ट में बैठकर बातें करें....एक कप कॉफी भी पी लूंगा आपसे।'' चेहरे पर दयनीयता लाता हुआ सुकांत बोला।
सुधांशु ने क्षणभर के लिए सोचा और रेस्टॉरेण्ट की ओर मुड़ गया।
एक कोने की मेज पर बैठता हुआ सुकांत बोला, ''क्या लेंगे सुधांशु जी।''
''आप जो लेना चाहें।''
''मैं.....मैं कटलेट और कॉफी....।'' और उसने बेयरे की ओर इशारा किया जो पानी के दो गिलास ट्रे पर रखे उन्हीं की ओर आ रहा था।
''जी सर।'' गिलास मेज पर रखता हुआ बेयरा बोला।
''दो प्लेट कटलेट....और कॉफी।'' सुकांत ने आर्डर किया।
''कटलेट एक प्लेट और दो कॉफी...।'' सुधांशु ने बेयरे को टोका, ''सिन्हा साहब के यहां का अभी तक हजम नहीं हुआ।''
''अरे जनाब, आपने खाया ही क्या था....टूंगा था। आप भी कैसे कवि हैं....।''
सुधांशु ने उत्तर नहीं दिया।
''हां, तो मैं आपको अपने दिनेश सिन्हा साहब के विषय में बता रहा था.... जनाब का पत्नी के साथ संबन्ध रहा नहीं, लेकिन जवानी तो जवानी ठहरी...लगे इधर-उधर हाथ-पैर मारने। अपनी पी.ए. पर नज़र गड़ा दी। उसने नज़र पहचानी और प्रशासन के हेड से जाकर गुहार लगायी कि उसे सिन्हा जी से बचाया जाये।''
''क्या कर दिया सिन्हा ने?'' प्रसाशन का हेड भी मनचला था।
''मेरी आबरू का प्रश्न है....।'' रो पड़ी थी पी.ए.। हेड को दया आयी, लेकिन एक अफसर, माफ करना आप भी अफसर हैं, और मैं एक अफसर की कहानी बखान रहा हूं....तो एक अफसर दूसरे अफसर के पी.ए. को उसके पास से बिना उससे तहकीकात किये कैसे हटा सकता था....और प्रशासन के हेड ने सिन्हा से पूछा...सिन्हा ने पी.ए. को बुलाकर पूछा...धमकाया और सुनते हैं कि यहां तक कहा कि यदि उसने वह नहीं किया जो वह चाहता है तो उसकी नौकरी सुरक्षित नहीं रहेगी। पी.ए. इतना डरी कि उसने अवकाश ले लिया....मेडिकल...बीमार हो गयी। प्रशासन में उस पी.ए. की फाइल इस मेज से उस मेज घूमने लगी और एक दिन उस पी.ए. को दिल्ली ट्रांसफर कर दिया गया। सिन्हा की समस्या जहां थी वहीं बनी रही। लेकिन सवाल जवानी का था...पत्नी से तलाक का मामला हवा में तैर रहा था। विभाग में चर्चा थी और पट्ठा सांड़ की तरह मस्त था। फिर पता चला कि इसने किसी व्यवसायी से पैसों की मांग ही नहीं की, किसी कॉलगर्ल को भेजने की बात भी कही...वह भी किसी होटल में, जिसका खर्च भी व्यवसायी को ही उठाना था। यह सिलसिला चल निकला। और जानते हैं....इसीलिए पटना में अपना घर होने के बावजूद जनाब मां-बाप-भाई के साथ नहीं रहते।''
सुधांशु कॉफी पीता चुपचाप सुन रहा था।
''लेकिन सिन्हा साहब का मन उनसे भी नहीं भर रहा था। 'कल्पतरु' की बैठकें होती ही थीं, और एक दिन कुमुदिनी जी किसी कवि के साथ एक बैठक में पधारीं। कुमुदिनी जी को तो आप जानते ही होंगे?''
''उनकी एक या दो कविताएं देखी है....पढ़ी नहीं।'' सुधांशु ने शांत भाव से कहा।
''हैं वह सिन्हा की ही आयु की। बचपन में कभी चेचक निकले होंगे, जिनके दाग अभी भी स्पष्ट हैं। गोरा रंग....कुछ भारी, अधिक नहीं, शरीर, तीखे नाक-नक्श....एक प्रकार से आकर्षक हैं। पति से चार वर्ष पहले उनका तलाक हो चुका है, क्योंकि पति को उन पर सम्पादकों का नैकट्य प्राप्त करने का संदेह हो गया था, जो कि सच भी है। कुमुदिनी जी कविताएं प्रकाशित करवाने के लिए किसी भी हद तक जाने को उद्यत रहती हैं....यश लिप्सा ने उन्हें तलाक तक पहुंचा दिया और ऐसे ही विकट समय में सिन्हा साहब से उनकी मुलाकात हुई। एक नज़र में ही दोनों ने एक-दूसरे की आवश्यकता पहचान ली। सिन्हा ने दिल्ली के एक प्रकाशक से शीघ्र ही उनका कविता संग्रह प्रकाशित करवाने का आश्वासन दिया और कुमुदिनी जी सिन्हा के बंगले की जब-तब शोभा बढ़ाने लगीं। अब वह गोष्ठी में नहीं आतीं। आतीं हैं तब जब सिन्हा उन्हें बुलाता है।'' बात बीच में ही रोककर सुकांत ने बेयरे को इशारा किया और उसके आने के बाद मेज साफ करके कुछ देर बाद फिर दो कॉफी लाने के लिए कहा।
''आप अपने लिए मंगा लें....मेरी इच्छा नहीं है।'' सुधांशु बोला।
''भई, केवल एक कॉफी लाना...।'' बेयरे को आर्डर कर वह सुधांशु की ओर मुड़ा, -''सिन्हा के जीवन का यह विद्रूप पक्ष आप मेरे समक्ष क्यों उद्धाटित कर रहे हैं?''
''वाह जनाब, अभी आप नये हैं।....आपको पता होना चाहिए कि हिन्दी साहित्य में कैसे-कैसे लोग हैं।''
''ऐसे लोग सदैव रहे हैं...कोई नई बात नहीं है।''
''हां, रहे हैं...और हिन्दी साहित्य ही क्यों..... पूश्किन के किस्से अजब-गजब हैं। गृहस्वामी उन्हें महानकवि के नाते घर बुलाता...स्वागत करता और पूश्किन उसकी पत्नी ही नहीं बेटियों तक के साथ संबन्ध स्थापित कर लेते। पढ़ा है मैंने कि एक जमींदार ने उनसे प्रभावित होकर उनकी आवभगत की और उन्होंने उसके घर ऐसी सेंध लगायी कि उसकी पांच बेटियों पर हाथ साफ कर गये। एक रानी ने उन्हें बुलाया...मतलब साफ है, लेकिन पहरेदार चौकन्ने ....पूश्किन को रानी के बेड के नीचे घण्टों लेटे रहना पड़ा....तापमान शून्य से नीचे....कांपते कुड़कुड़ाते रहे लेकिन पट्ठे ने हार नहीं मानी। रानी की मेहरबानी पाकर उसकी नौकरानी के माध्यम से भोराहरे महल से बाहर निकल पाने में सफल रहे वह महान कवि....तो हमारे सिन्हा साहब के किस्से कुछ अलग नहीं, बस अंतर यही है कि वह कभी पूश्किन की दुम भी नहीं बन पायेंगे क्योंकि उनकी रचनाओं में दम नहीं है।''
''हुंह।''
''वह कितने गहरे पानी में हैं, जान गए होंगे....लेकिन पद है जनाब के पास और काली कमायी है, जिसे वह लुटा रहा है। वह जो चाहे कर सकता है। हम जैसे कवि अच्छी कविताएं झोले में डाले छपवाने के लिए सम्पादकों के चक्कर लगाते रहते हैं, लेकिन सम्पादक सिन्हा के अतिथि बनते हैं और उसकी कविताएं छपती रहती हैं जबकि हम जैसों की सखेद वापस लौटा दी जाती हैं।''
''ऐसा होता है।''
''माफ करना सुधांशु जी....आप भी अफसर हैं, लेकिन मैं समझ चुका हूं आपको ....आपके साथ यह नहीं हो पाएगा। आप उस जैसे नहीं है। इसलिए आपको मुझसे अधिक संघर्ष करना होगा रचनाएं प्रकाशित करवाने के लिए। आपको बता दूं ...बहुत से सम्पादक चाहते हैं कि अफसर उनके काम आए और वे अफसर के। आप वैसा नहीं कर पाएगें शायद....और आपकी कविताएं महीनों-सालों सप्पादकों की फाइल में दबी पड़ी रहेंगी।''
''मुझे अफसोस नहीं होगा। रचनाएं प्रकाशित करवाने के लिए मैं गलत मार्ग नहीं अपनाऊंगा।''
''मैंने कहा न!'' अपनी बात सच सिद्ध होती देख सुकांत किलककर बोला।
बेयरा कॉफी रख गया।
''आप भी लेते तो अच्छा होता।''
''आप पियें।''
''धन्यवाद।'' कॉफी होंठों से लगाता सुकांत बोला, ''कार्लगर्ल....कुमुदिनी...ये वे लोग हैं, जिन्हें बदले में दिनेश सिन्हा से कुछ मिलता है, लेकिन वह नौकर ....जो सिन्हा के यहां हम सभी के लिए खाने-पीने की व्यवस्था में जुटा रहता है निरीह-सा....आप जानते हैं वह कौन है?''
''नहीं।''
''दिनेश सिन्हा का चपरासी। उसने यह गलती की कि सिन्हा से अपने परिवार के रहने के लिए उसका सर्वेण्ट क्वार्टर मांगा और सिन्हा को एक गुलाम की जरूरत थी। जिस दिन चपरासी उस क्वार्टर में आया, सिन्हा की बहुत-सी समस्याएं हल हो गयीं।''
''मसलन?''
''बंगले की सफाई, रख-रखाव, चाय-नाश्ता, लंच और डिनर...सब उस चपरासी और उसकी बीबी के जिम्मे....सिन्हा मस्त। चपरासी की क्या औकात कि वह कुछ सौ महीने की बचत के लिए सिन्हा की गुलामी से इंकार करता। वह फंस चुका है....और सिन्हा उसे निचोड़ रहा है। चपरासी की बीबी जवान है....बहुत सुन्दर है....और सुनते हैं....।''
''मैं समझ गया आप जो कहना चाहते हैं।'' सुधांशु ने टोका।
''अब आप उसके व्यक्तित्व के इस निकृष्ट पहलू को समझ चुके हैं....एक और पहलू है, जिसकी ओर मित्रों का ध्यान नहीं गया। जाता भी कैसे! सिन्हा ने क्या किया, कैसे किया यह कैसे पता चलता....वह सब इतना सुव्यवस्थित था कि किताब प्रेस में चली गयी....उसके कितने ही अंश कई पत्र-पत्रिकाओं में छपे ...सिन्हा ने वाहवाही लूटी, लेकिन काम किया दूसरे लोंगो ने।''
''किस पुस्तक की बात आप कर रहे हैं?'' क्षणभर रुककर सुधांशु पुन: बोला, ''वही जिसके धारावाहिक अंश 'स्वर्णप्रभा' पत्रिका में प्रकाशित हुए थे....कुछ एक हिन्दी रविवासरीय ने भी प्रकाशित किए थे।''
''जी बिल्कुल वही....देश विभाजन को लेकर थी.....'गांधी बनाम जिन्ना'। शीघ्र ही वह एक प्रतिष्ठित प्रकाशक से आने वाली है और सुना है कि कोई पायेदार केन्द्रीय मंत्री दिल्ली में उसका लोकार्पण करेंगे।''
''उसकी क्या कहानी है?''
''जब यह योजना सिन्हा के दिमाग में आयी उन दिनों यह बड़ौदा में था। संपर्क बहुत-से लोंगो के साथ इसके हो गये थे...खासकर दिल्ली में इसने अपनी जड़ें जमा ली थीं। इसने दिल्ली के एक कवि, एक कथाकार, एक पत्रकार और उज्जैन के एक अन्य कथाकार को बड़ौदा बुलाया। सिन्हा ने बड़ौदा के एक फाइव स्टार होटल में इन्हें पन्द्रह दिनों तक ठहराया। विषय से संबन्धित सामग्री उनको उपलब्ध करवायी और वह क्या चाहता है ....कैसी पुस्तक लिखना चाहता है यह समझाते हुए उन लोंगो से कहा कि वे उसके विषय को दृष्टिगत रखते हुए नोट्स तैयार कर दें। उन लोंगो ने पन्द्रह दिनों में वह सब कर दिया जो सिन्हा चाहता था। नोट्स के रूप में प्राप्त तीन सौ पृष्ठों की सामग्री को सिन्हा को विषयानुसार प्रस्तुत करना था ..... और उसने सहजता से वह कर लिया था। अब वह शीघ्र ही पुस्तकाकार रूप में पाठकों के समक्ष होगी।''
''आपको यह सब कैसे मालूम?'' सुधांशु को लगा कि वह कोई कल्पित कहानी सुन रहा था।
''मुझे दिल्ली के कवि महोदय ने बताया....जब मैं दिल्ली में उनके घर गया। वह चार दिन पहले ही बड़ौदा से लौटे थे। गदगद थे फाइव स्टार होटल में ठहरने...ए.सी. टू टियर की यात्रा से...शायद पहली बार एसी में उन्होंने यात्रा की थी।''
''लेकिन फाइव स्टार होटल....?''
''जी फाइव स्टार....लेकिन उसका खर्च तो किसी लाला ने दिया होगा।'' कुछ देर चुप रहकर सुकांत बोला, ''तो ऐसे कवि ....और अब लेखक भी ....हैं दिनेश कुमार सिन्हा जी।''
बेयरा बिल ले आया। सुधांशु ने पेमेण्ट किया, जिसे प्लेट में लेकर बेयरा चला गया।
''आप कब से कल्पतरु की गोष्ठियों में आ रहे हैं?''
''जब से कल्पतररु की कल्पना सिन्हा ने की।''
''ओ.के.।'' सुधांशु सामने मेज पर बैठे जोड़े की ओर देखता रहा क्षणभर तक। ''मुझे यह सब आज ज्ञात हुआ, लेकिन आपको पहले से ही ज्ञात था कि सिन्हा दुष्ट चरित्र व्यक्ति है फिर भी आप उसके यहां की गोष्ठियों में जाते रहे।'' सुधांशु ने सुकांत के चेहरे पर नजरें गड़ा दीं।
''सुधांशु जी, हम जैसे कवियों को मुफ्त की पीने को जहां भी मिलती है...वहां जाने से परहेज नहीं....पिलाने वाले के चरित्र से हमें क्या....हमें पीने-खाने से मतलब। अपनी औकात जेब से खरीदकर पीने की नहीं, सो महीने में तीन-चार बार जहां भी मुफ्त की मिली चले गए...उस व्यक्ति के चरित्र की ओर से आंखे बंद कर पिया-खाया और चले आए....भाड़ में जाये वह और उसका साहित्य। आपने देखा, मैं सिन्हा के मुंह पर उसकी कविता के खिलाफ बोलता हूं। मैं डरता नहीं....वह स्साला कौन अपनी जेब से पिलाता-खिलाता है....।''
''हुंह।''
बेयरा प्लेट में सजाकर पैसे ले आया। उसके लिए टिप छोड़कर सुधांशु उठ खड़ा हुआ। सुकांत को भी उठना पड़ा। वह बोला, ''बुरा न मानना सुधांशु जी...मैं आगे भी सिन्हा के यहां जाता रहूंगा....हीं...हीं....पीना और कविता लिखना मेरी कमजोरी है।''
''आप अवश्य जाते रहें सुकांत जी।'' रेस्टॉरेण्ट से बाहर निकल सुधांशु ने सुकांत से हाथ मिलाया और एक रिक्शा रोक उसपर चढ़ गया।
''ओ.के.....फिर मिलेंगे सुधांशु जी।'' सुकांत ने हाथ उठाकर कहा।
''श्योर।''
सुघांशु उसके बाद कल्पतरु की गोष्ठियों में नहीं गया और न ही बाद में वह दिनेश सिन्हा से कभी मिला।
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रविवार, 11 सितंबर 2011

धारावाहिक उपन्यास



’गलियारे’

(उपन्यास)

रूपसिंह चन्देल

(भाग-दो, चैप्टर १९ और २०)
भाग-दो
(19)
मेरठ मेडिकल कॉलेज के आई.सी.यू. में सुधांशु अर्द्धचेतन अवस्था में थे। बीच-बीच में अर्द्धनिमीलित आंखों से आती-जाती नर्सों और डॉक्टरों को देख लेते, लेकिन उन्हें उनके चेहरे धुंधले दिखाई देते। वह यह तो समझ रहे थे कि वह उस समय अस्पताल में थे और यह भी उन्हें याद आ रहा था कि वह सब कैसे हुआ था और ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। तीसरी बार था और कहीं अधिक तेज....वह अपने एक अधिकारी के साथ किसी केस पर चर्चा कर रहे थे कि अचानक उठे दर्द से छटपटा उठे थे। कुर्सी से गिरते बचे थे। अधिकारी ने उन्हें कुर्सी से उतार फर्श पर लेटाया था और देर तक घण्टी पर उंगली रख पूरे दफ्तर में खतरे का संदेश दे दिया था। पांच मिनट में सुधांशु दास मेडिकल कॉलेज के लिए रवाना हो गये थे। वह अधिकारी लगातार उनके हृदय के पास मसाज करता रहा था।
मेडिकल कॉलेज पहुंचने से पहले ही सुधांशु बेहोश हो चुके थे। कब से वह वहां थे, यह उन्हें याद नहीं आ रहा था, लेकिन स्टॉफ के लोग उन्हें कैसे मेडिकल कॉलेज लेकर आये थे यह अवश्य याद था।
मेडिकल कॉलेज के उस आई.सी.यू. से वह पूर्व परिचित थे। एक वर्ष पहले जब दूसरा हार्ट अटैक हुआ था तब वह मेरठ में ही थे और वहीं उनकी ओपेन हार्ट सर्जरी हुई थी। तीन महीने तक बिस्तर पर पड़े रहने के बाद उन्होंने कार्यालय ज्वाइन किया और जल्दी ही पूर्ववत स्थिति में आ गए थे। वह अपने को जीवटवाला व्यक्ति कहते और इसीलिए उनकी दिनचर्या पूर्ववत प्रारंभ हो गयी थी।
सुधांशु को जब पहला हार्ट अटैक हुआ तब वह जबलपुर में थे और तब भी अकेले थे। पिछले दोनों अटैक में उन्हें प्रीति की बहुत याद आयी थी और स्वस्थ होने पर उन्होंने चाहा था कि वह कुछ दिनों के लिए उसके पास जाकर रहें, लेकिन दोनों ही अवसरों पर होश रहते उन्होंने अपने अघिकारियों को संक्षेप में केवल इतना ही कहा था कि वे प्रीति को सूचना नहीं देंगे।
'लेकिन क्या प्रीति को उनकी अस्वस्थता की जानकारी प्राप्त नहीं हुई होगी। 'हम एक ऐसे विभाग के सदस्य हैं जहां खबरें सेकेण्डों में हजारों मील की दूरी तय कर लेती हैं....।' दोंनो बार स्वस्थ होने के बाद वह सोचते रहे थे, लेकिन इस बार मेडिकल कॉलेज ले जाने के लिए कार में लेटाये जाते समय उन्होंने अपने सहायक निदेशक (प्रशासन) दिलीप बत्रा से मंद स्वर में कहा था, ''प्रीति दास को सूचित कर दो।''
लेकिन प्रीति दास को सूचित करने के बत्रा के सभी प्रयास विफल रहे थे। वह सीधे उनसे बात करना चाहता था, लेकिन सफल न हो पाने पर उसने उनके पी.ए. चन्द्रभूषण को कहा था।
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चटख लाल साड़ी और उस पर सफेद कोट पहने सामने से आती महिला डाक्टर को धुंधली आंखों से देख सुधांशु बुदबुदाए, ''तुम आ गई प्रीति?''
जिस क्षण सुधांशु ने यह कहा, डाक्टर बिल्कुल उनके निकट थी। उन्हें विश्वास हो गया कि वह प्रीति ही थी और उनके होठ पुन: हिले ,''प्रीति....।'' महिला डाक्टर के कदम ठिठक गए। वह उनके निकट आयी और पूछा, ''आपने कुछ कहा?''
सुधांशु ने आंखें फाड़ देखना चाहा कि वह प्रीति दास ही थी न लेकिन तभी उन्हें डाक्टर की आवाज सुनाई दी, ''नर्स, देखो मरीज को कुछ चाहिए...नर्स...।'' और दूर से लपककर अपनी ओर आती नर्स को सुधांशु ने देखा। डाक्टर जा चुकी थी।
''मिस्टर दास, आर यू ओ.के.?'' नर्स उन पर झुकी हुई थी।
''यह.....।'' वह फुसफुसाए।
''डाक्टर से आप कुछ कह रहे थे?''
सुधांशु ने नर्स की ओर अर्द्धनिमीलित दृष्टि से देखा और आंखें मूंद लीं।
नर्स देर तक उनकी नब्ज देखती रही....और उनसे पुन: कुछ कहे बिना वापस अपने केबिन में लौट गयी थी।
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(20)
शोभाराम को मिसेज प्रीति दास के बंगले में ताला बंद मिला। वह लगभग एक घण्टा बंगले के बाहर फुटपाथ पर बैठा रहा। पूरा बंगला अंधकार में डूबा हुआ था सिवाय एक चालीस वॉट के बल्ब के जो बंगले में लॉन की ओर जल रहा था। बंगले के सामने फुटपाथ पर तने खड़े खंभे पर ट्यूब लाइट जल नही थी और उसीकी रोशनी में बंगले के गेट पर लटकता ताला उसे दिखाई दे रहा था। कुछ समय और बीता, लेकिन बंगले में झींगुरों की आवाज के अलावा उसे कुछ नहीं सुनाई दिया। उसने घड़ी देखी, साढ़े आठ बज रहे थे। वह साईं बाबा मंदिर की ओर चल पड़ा, 'कुछ प्रसाद ही मिल जाए....भूख कम हो' सोचता हुआ।
रास्ते में खयाल आया कि मैडम के बंगले में ताले की सूचना उसे किसी को देनी चाहिए, वर्ना सोमवार उससे जवाब तलब किया जायेगा। बीच में दो दिन की छुट्टी है.....मामला गंभीर है और उसे इसे टालना नहीं चाहिए। 'शायद साई बाबा मंदिर के पास की किसी दुकान में पी.सी.ओ. हो।' उसने कदम तेज कर दिए, 'चन्द्रभूषण ने अपने घर का फोन नंबर लिखकर दिया था...।'
साई बाबा मंदिर पहुंचते नौ बज गये थे। भक्तों की भीड़ देख वह प्रसाद भूल गया और भूल गया अपनी भूख। याद रहा चन्द्रभूषण को फोन करना और मंदिर के पास उसे प्रसाद और फुल-माला की दुकानों के अतिरिक्त कुछ भी नजर नहीं आया।
'अब!' क्षणभर वह खड़ा हाथ फैलाए भिखारियों और लकदक कपड़ों में सुगन्ध बिखेरते हाथ में प्रसाद और फूल आदि थामे पंक्तिबद्ध खड़े भक्तों को देखता रहा, जिनके साफ-सुन्दर चेहरे उसे मोहक लग रहे थे।
'आधी से अधिक दिल्ली भगवान भक्त हो गयी है। शायद ही कोई मंदिर हो जहां लंबी लाइनें न लगती हों....क्या कनॉट प्लेस का हनुमान मंदिर, क्या छतरपुर, कालका जी, झण्डेवालान या यमुना बाजार के मंदिर....ये सब ठहरे बड़े देव स्थान...दिल्ली वालों में असुरक्षा और भय इस कदर घर कर गया है कि गली कूंचों में बने छोटे-छोटे मंदिरों में लोग सुबह पांच बजे से भीड़ लगा लेते हैं। औरतें थाल में पता नहीं क्या सजा उसे पकड़े से ढक सुबह पांच बजे मंदिर जाती दिख जाती हैं।'
उसे याद आया शास्त्रीनगर पेट्रोल पंप के सामने का मंदिर। अस्सी-बयासी तक वहां कुछ नहीं था। खाली जगह पड़ी थी। कुत्ते वहां निवृत्त होते या छोटी झाड़ियों में दिन भर आराम करते थे। किसी को वह जगह जंच गई। उसने वहां एक शिवलिंग रखा और सुबह-शाम उसकी पूजा करने लगा। शिवलिंग महात्म्य की चर्चा गुलाबीबाग, शक्तिनगर, शास्त्रीनगर ही नहीं अशोक विहार की सीमाएं पार कर गयी। कुछ भक्त आने लगे। फिर कुछ गाड़ियां आकर रुकने लगीं, जिनसे सजी-धजी स्त्रियां और तोंदवाले लोग उतरते और थाल में लायी सामग्री चढ़ा देते। कुछ मनौती मानते और चले जाते। दो-तीन महीनों में वह शिवलिंग छोटे-से मठ में बैठा दिया गया और जिस व्यक्ति न उसकी खोज की थी वह वहां सुबह से देर रात तक विराजमान रहने लगा माथे पर तिलक-चंदन लगाए धोती-कुर्ता में।
एक वर्ष बीतते न बीतते वह छोटा-सा तीन फीट गुणा चार फीट, जिसकी ऊंचाई भी तीन फीट ही थी मठ मंदिर का रूप लेने लगा और अगले एक वर्ष में, जहां कुत्ते हगते-मूतते या केलि-क्रीड़ा करते थे वहां भव्य शिव और हनुमान मंदिर खड़ा हो गया था। मंदिर खड़ा हुआ तो भक्तों की भीड़ भी बढ़नी थी और अब वह यमुना बाजार के मंदिर को टक्कर दे रहा है।'
मंदिर में किसी भक्त ने जोर से घण्टा बजाया। वह चौंका, 'शोभाराम यह समय भक्तों और मंदिर के विषय में सोचने का नहीं है। पी.सी.ओ. खोजने का है।'
उसने एक दुकानदार से पूछा और उसके बताए अनुसार पी.सी.ओ. की दुकान खोजने में सफल रहा।
चन्द्रभूषण के बेटे ने बताया, ''पापा अभी तक घर नहीं पहुंचे। दफ्तर से लेट निकले थे...आ रहे होंगे।''
''बेटा उन्हें बताना कि मैडम दास के घर ताला बंद है।''
''अंकल ...पापा अभी आने ही वाले हैं। आप थोड़ी देर बाद फोन कर लीजिएगा।''
''मैं पी.सी.ओ से फोन कर रहा हूं बेटे।''
''अंकल थोड़ी देर बाद कर लेना...पापा को यह सब आप ही बता देना।''
'अजब बच्चा है।' किंकर्तव्यविमूढ़ खड़ा शोभाराम सोचता रहा, 'चलो शोभाराम, एक बार और मैडम के बंगले की ओर...।' उसने घड़ी देखी साढ़े नौ बजने वाले थे। वह तेजी से बंगले की ओर बढ़ा। दूर से ही बंगले के गेट पर ताला लटकता देख वह उल्टे पांव पलट पड़ा। पी.सी.ओ वाला दुकान बंद कर रहा था। उसने लपककर आवाज दी, ''भाई साहब, एक फोन और....मेहरबानी होगी।''
''किधर करना है?'' भोजपुरी लहजे में पी.सी.ओ. वाले ने पूछा, जो पान की दुकान भी चलाता था।
''लोकल....शाहदरा...।''
''कर लो।'' फोन उठाकर उसके सामने रखता हुआ वह बोला।
''हेलो, मैं शोभाराम चपरासी बोल रहा हूं।'' अब तक वह इतना खीज चुका था कि उसने जानबूझकर अपने नाम के साथ चपरासी शब्द जोड़ा।
''शोभाराम, बोलो...।'' चन्द्रभूषण की आवाज सुन शोभाराम की जान में जान आयी।
''सर, आपके बेटे ने बताया होगा।''
''यार, ये बच्चे कहां कुछ बताते हैं। टी.वी. से चिपके बैठे हैं। तुमने फोन किया था?''
''जी सर।''
''मैडम को बता दिया।''
''वही तो दुख है सर।''
''क्यों?''
''मैडम के बंगले में अंधेरा छाया हुआ है सर।''
''सो गयी होंगी....आज दिन भर मीटिंग में थीं....थक गई होंगी।''
''सर, सोयेगा कोई तभी न जब हाजिर होगा। बंगले में ताला लटक रहा है।''
''यार, शोभाराम, वहां सुधांशु सर को सीरियस हार्ट अटैक पड़ा है....।''
''सर, उन्होंने मैडम को बता दिया होता कि उन्हें अटैक पड़ने वाला है....तब शायद वो कहीं न जातीं....।''
''क्या बोल रहे हो? हर समय तुमहारा मजाक अच्छा नहीं लगता। एक भले आदमी....।''
''सर, आप बताएं मैं कहां से खोज लाऊं प्रीति दास को! अब ये पी.सी.ओ. भी बंद होने वाला है। आप आगे जिसे चाहें फोन करें।''
''क्या मतलब?''
''मतलब यह कि अब मैं फोन पर भी आपको कुछ बता न पाऊंगा। इस इलाके में यह इकलौता पी.सी.ओ. रात में खोजे से मिल गया...दूसरा खोजना मेरे वश में नहीं और जब ये भाई साहब इसे बंद करने जा रहे हैं तब दूसरे भी क्या खुले मिलेंगे।''
''हां, दस बज रहा है।'' चन्द्रभूषण ने क्षणभर कुछ सोचा, फिर बोला, ''शोभाराम, तुम मैडम के बंगले की ओर से निकल जाओ...तब तक मैं विपिन सर को फोन करके वस्तुस्थिति बता देता हूं। वर्ना सोमवार को मैडम भले ही कुछ न कहें....ये हरामी का बीज हम दोंनो का जीना हराम कर देगा।''
''जैसा हुकम सर। मैं उधर से होकर घर चला जाऊंगा। आदर्श नगर जाना है सर। बहुत दूर है यहां से। रात बारह बजेगा....मेरे घर वाले परेशान होंगे। आप बताइये मैं उन्हें कैसे बताऊं कि मैं यहां बंगला झांकता घूम रहा हूं।'' और शोभाराम ने चन्द्रभूषण की बात सुने बिना ही फोन काट दिया। लेकिन इस बार वह मिसेज दास के बंगले की ओर न जाकर घर जाने के लिए बस पकड़ने बस स्टैण्ड की ओर चला गया।
शनिवार-रविवार भी मिसेज प्रीति दास के बंगले में ताला बंद रहा। उनकी कार भी नहीं थी। बाद में ज्ञात हुआ कि वह माया और अपने लेब्राडोर साशा के साथ अपनी कजिन से मिलने जयपुर चली गई थीं, जिसकी अनुमति उन्होंने पहले ही हेडक्वार्टर ऑफिस से ली थी।
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सोमवार, 5 सितंबर 2011

धारावाहिक उपन्यास

चित्र : आदित्य अग्रवाल




गलियारे

(उपन्यास)

रूपसिंह चन्देल


चैप्टर १७ और १८


(17)
सुधांशु के कमरे में पहुंचने के दस मिनट बाद ही रमेश ने दरवाजे पर नॉक करते हुए 'मे आई कम इन सर' कहा।
''कम इन।''
हाथ में छोटी-सी नोट बुक थामे रमेश कमरे में यूं प्रविष्ट हुआ.... बिना आवाज पंजों के बल... मानो वह कोई गुनहगार था।
''यस।'' सामने पड़ते ही सुधांशु बोला।
''सर, नाश्ता तैयार है।''
''यहीं भेज दो।''
''सर, नागपुर के निदेशक सर, दो संयुक्त निदेशक और एक डिप्टी सर हैं..वे लोग मेस में पहुंच चुके हैं।''
''उन लोंगो के नाश्ता कर लेने के बाद मेरे लिए नाश्ता भेज देना।''
''जी सर।'' रमेश फिर भी खड़ा रहा। सुधांशु को लगा कि वह कुछ कहना चाहता है।
''एनीथिंग मोर...?''
''सर आपका प्रोग्राम?'' बहुत ही दबी जुबान रमेश ने पूछा। सुधांशु को हंसी आ गयी...वह पहले मन ही मन हंसा फिर मायूस होकर सोचने लगा, ''अफसरशाही का आंतक...इस देश में बाबू एक अफसर के सामने अपने को कितना दयनीय अनुभव करता है।'
'आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी कुछ भी नहीं बदला। वही शासन पद्धति...उन्नीसवीं शताब्दी के अनेक नियम-कानून....यह देश कैसे बराबरी कर पाएगा विकसित और तेजी से विकासशील देशों का!''
''ब्रेकफास्ट के बाद मैं हेडक्वार्टर जाऊंगा।''
''जी सर।''
''यहां से क्या व्यवस्था है वहां पहुचने की?''
''सर, हमारे पास दो गाड़ियां हैं।''
''ओ.के....।''
''सर, एक में नागपुर के निदेशक सर और संयुक्त निदेशक सर चले जाएंगे और...।''
''आपका नाम अभी तक नहीं पूछा।''
''सर, रमेश...रमेश दयाल...।''
''वेल, मिस्टर रमेश....डायरेक्टर साहब को अकेले जाने दें... दोनों संयुक्त निदेशकों को दूसरी गाड़ी में भेज दें ...बाकी...तीसरा कौन है?''
''सर, डी.पी. सर...।''
''डी.पी....?''सुधांशु को कुछ भी समझ नहीं आया।
''जी सर, देवेन्द्र प्रताप मीणा सर।''
''कहां से...?''
''सर शायद पूना से आए हैं...कल उन्होंने हेडक्वार्टर ऑफिस में ज्वाइन किया है।''
''क्या हैं?''
''सर, शायद डिप्टी हैं....लेकिन मुख्यालय में सहायक महानिदेशक होंगे।''
''अच्छा।'' क्षणभर खामोश रहा सुधांशु, ''मैं ऑटो लेकर चला जाऊंगा। नो प्राब्लेम...।''
''सर, ऐसा कैसे हो सकता है, सर। मैं अभी फोन करता हूं अपने सेक्शन अफसर को...वह गाड़ी का इंतजाम कर देगें...।'' फिर बहुत ही संकुचित स्वर में वह बोला, ''सर, आप डी.पी. सर के साथ चले जाइएगा...उनके लिए मेरा सेक्शन अफसर अलग से गाड़ी भेज देगा।''
''क्यों?''
''सर, डी.पी. सर, सहायक महानिदेशक, प्रशासन बनकर आए हैं।''
''ओह.....।'' रमेश की ओर देखकर मुस्कराया सुधांशु। उसके मुस्कराने का रहस्य रमेश भी समझ गया। उसके चेहरे पर भी हल्की मुस्कान तैर गयी, लेकिन खुलकर वह मुस्करा नहीं सका।
''सभी जगह प्रशासन वालों का अधिक खयाल रखा जाता है।''
''सर।''
''ओ.के. मिस्टर रमेश....आप यहीं नाश्ता भेज दें और मेरे लिए गाड़ी के लिए परेशान न हों... नहीं होगी तब मैं ऑटो लेकर चला जाउंगा।''
''जी सर।'' रमेश पलटकर कमरे से बाहर निकल गया तो सुधांशु कुछ देर आराम करने लेने के विचार से बेड पर लेट गया।
हेडक्वार्टर ऑफिस जाने के लिए गाड़ी की व्यवस्था हो गयी थी। गाड़ी में बैठते हुए मीणा ने सुधांशु की ओर हाथ बढ़ा अपना परिचय देते हुए कहा, ''हलो सुधांशु दास...आय एम देवेन्द्र प्रताप मीणा।''
हाथ मिलाते हुए सुधांशु ने मीणा पर गहरी नजरें गड़ाते हुए कहा, ''हाऊ आर यू सर?''
''फाइन....।'' क्षणभर बाद मीना ने पूछा, ''आप पटना में हैं?''
''जी सर।''
''पहली पोस्टिंग है?''
''जी सर।''
''सर, आप?'' सुधांशु ने जानकर प्रश्न किया।
''मैं पूना में था। हेडक्वार्टर में सहायक महानिदेशक के पद के लिए मुझे बुलाया गया है...कल ही ज्वाइन किया है।''
''बधाई सर।''
''बधाई क्या...हेडक्वार्टर ऑफिस....कोई अच्छी जगह नहीं है। वहां अपनी भावनाओं को मार कर रहना होता है।''
सुधांशु चुप रहा। मीणा उसके चेहरे की ओर देखता रहा।
''मैंने सुना है कि कुछ लोग यहां की पोस्टिंग पाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाते हैं।'' कुछ देर बाद सुधांशु बोला।
''किसी हद तक सही सुना आपने। लेकिन मैं तो फंस गया यार!''
सुधांशु मीणा के 'यार' शब्द पर चौंका।
''आप किस बैच के हैं सर?''
''आपसे तीन बैच पहले...।''
''सर, हेडक्वार्टर ऑफिस में काम करने की अपनी समस्याएं हैं, लेकिन लाभ भी तो होंगे कुछ।''
''लाभ...पहला अनुभव होगा। लाभ का पता नहीं, लेकिन हानि बहुत है। काम का बोझ लाद देते हैं ...आदमी गधा बन जाता है।''
मुस्करा दिया सुधांशु।
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(18)
हेडक्वार्टर में सदाशिवम के साथ उसकी मीटिंग मात्र पन्द्रह मिनट की रही। उसने पत्र दिया, सदाशिवम ने उसे पढ़ा, संबद्ध सहायक महानिदेशक को बुलाया और तुरंत कार्यवाई का निर्देश दिया। इस दौरान सुधांशु चुप बैठा रहा। बीच-बीच में सदाशिवम किसी फाइल पर कुछ पढ़ता रहा था। वह उप-महानिदेशक था...सुधांशु से दो पद ऊपर और सामने बैठे नए रंगरूट को वह यह अहसास करवा रहा था।
उस कार्य से संबद्ध सहायक महानिदेशक, जो एक रैंकर था...अर्थात क्लर्क से विभागीय परीक्षा उत्तीर्ण कर बरास्ते सेक्शन अफसर वह वहां तक पहुंचा था और अब उसके रिटायरमेण्ट के दो वर्ष शेष थे, जब जाने लगा, सदाशिवम बोला, ''आप इस केस को लिंक कर फाइल सहित सेक्शन अफसर को मेरे पास भेज दें...आज ही इसका निबटारा करना है।''
''यस सर।''
सहायक महानिदेशक के जाने के बाद सदाशिवम सुधांशु से मुखातिब हुआ, ''मिस्टर दास...आज शाम फोन पर दलभंजन सिंह को सैंक्शन मिल जाएगी...संभव हुआ तो आर्डर भी फैक्स करवा दूंगा। आप चाहें तो उन्हें फोन पर यह सूचना दे सकते हैं।''
''यस सर।''
''ओ.के. देन।'' और सदाशिवम ने फाइल पर सिर गड़ाए हुए ही फोन का रिसीवर उठा बज़र दबाकर पी.ए. को 'कम इन' कहा।
सुधांशु उठ खड़ा हुआ। ''थैंक्स सर'' कह कमरे से बाहर निकलने के लिए उसने दरवाजा खोला कि अंदर आने के लिए सदाशिवम का पी.ए. उसे दरवाजे पर खड़ा मिला। सफेद हो चुके बालों वाला पचास पार व्यक्ति था वह।
'वक्त की मार ने इसे समय से पहले ही बूढ़ा कर दिया' पी.ए. पर दृष्टि डाल सुधांशु ने सोचा।
''नमस्ते सर।'' पी.ए. ने बाअदब मुस्कराकर उसे नमस्कार किया और एक ओर हटकर निकल जाने का रास्ता दिया।
सदाशिवम के कमरे के बाहर दो चपरासी बैठे हुए थे। दरअसल वह एक गैलरीनुमा जगह थी, जिसमें लाल कार्पेट बिछी हुई थी। गैलरी के दोनों ओर अफसरों के कमरे थे...दोनों ओर तीन-तीन कमरे। छ: अफसरों को देखने के लिए दो चपरासी तैनात थे। सुधांशु ने एक से डी.पी. मीणा का कमरा पूछा।
''सर...उधर...।'' चपरासी उसके साथ गैलरी के बाहर तक आया। वहां आमने-सामने दो नेम प्लेट पदों सहित लटक रही थीं....बायीं ओर महानिदेशक और दाहिनी ओर अवर महानिदेशक प्रशासन के कमरे थे। कमरों के बाहर चौकोर हॉलनुमा जगह थी, जिसपर भी लाल कार्पेट बिछी हुई थी।
सुधांशु उन कमरों से परिचित था। प्रशिक्षण और पोस्टिंग में जाने से पूर्व उन दोनों कमरों में सभी को हाजिरी देने आना पड़ता था।
चौकोर हॉलनुमा जगह से बाहर चपरासी ने बायीं ओर इशारा कर कहा, ''सर सीढ़ियों के सामने बायीं ओर मुड़ते ही डी.पी.सर का कमरा है।'' उसने ध्यान दिया कि चपरासी हड़बड़ाहट में था और लौटने की जल्दी थी उसे।
''धन्यवाद।'' कहते ही उसने सोचा, ''कब किसकी घण्टी बज जाए और लपककर चपरासी न पहुंचे तो उसकी शामत आ जाती है। दो अफसरों पर एक चपरासी...अपने चपरासी के अलावा यदि दूसरा पहुंचे तब अफसर त्योरी चढ़ाकर पूछेगा 'वह' किदर गया?'
चपरासी अपनी कुर्सी की ओर लौट गया और वह डी.पी. के कमरे की ओर बढ़ गया।
डी.पी. मीणा के यहां भी सुधांशु अधिक देर नहीं रुका। कारण था मीणा की व्यस्तता। लगातार मीणा का इंटरकॉम बज रहा था। उसके बैठे होने पर उसे दो बार अवर महानिदेशक प्रशासन के पास दौड़ जाना पड़ा था। यही नहीं दो लेखाधिकारी अपनी फाइलें लेकर चर्चा करने के लिए दो बार आ चुके थे। मीणा जब भी उससे कोई बात प्रारंभ करता, व्यवधान आ जाता औेर बात अधूरी छूट जाती। एक बार मीणा ने इस भाव से उसकी ओर देखा मानो वह कहना चाहता था कि, 'देखा कितनी व्यस्तता है...बात तो करना चाहता हूं, लेकिन...।'
''सर इजाज़त दें तो दो फोन कर लूं।''
''श्योर...श्योर ...।'' और मीणा ने एक लेखाधिकारी को फाइल बढ़ाने के लिए इशारा किया। जब तक वह उस फाइल पर चर्चा करता रहा, सुधांशु ने प्रीति मजूमदार को फोन किया। फोन उसकी मां कमलिका मजूमदार ने उठाया। यह जानकर कि वह दिल्ली में है, किलकते हुए उन्होंने कहा, ''सीधे घर क्यों नहीं आए...किदर हैं?''
'' हेडक्वार्टर ऑफिस में.....।''
उसके इतना कहते ही उसे कमलिका मजूमदार के स्थान पर प्रीति की आवाज सुनाई दी।
''तुम सुबह से दिल्ली में हो और फोन बारह बजे कर रहे हो?''
''मैं आफिस के काम से...।''
''कोई बहाना नहीं...बहकाना किसी और को सुधांशु...अब वक्त जाया किए बिना सीधे घर आ जाओ...लंच यहीं करना।''
''प्रीति मुझे अभी रवि कुमार राय के पास जाना है। शाम चार बजे तक घर पहुंच जाउंगा।''
''यार, यह भी कोई आना हुआ!''
''मैं हेडक्वार्ट से फोन कर रहा हूं...लंबी बात नहीं हो पाएगी...ओ.के....शाम चार बजे...।''
प्रीति कुछ कह रही थी, लेकिन सुधांशु ने फोन काट दिया। उसने रवि को फोन मिलाया। उसकी आवाज सुनते ही रवि किलक उठा, ''कब आए....कहां हो...कब मिलोगे?'' आदि प्रश्नों की झड़ी लगा दी उसने...फिर 'एक मिनट सुधांशु' कहा और अंग्रेजी में किसी को कुछ बोला। सुधांशु को लगा मानो वह किसी पत्र का उत्तर अपने पी.ए. को डिक्टेट करा रहा था।
एक सेंटेंस बोलकर रवि पुन: फोन पर आया, ''इधर ही आ जाओ। लंच का आर्डर कर देता हूं...।'' क्षणभर के लिए रुक वह आगे बोला, ''तीन बजे मंत्री जी के साथ मीटिंग है....एक बजे तक आ जाओ।''
''मैं पहुंचता हूं।'' उसे लगा रवि भी बहुत व्यस्त है, लेकिन जब कह दिया है तब जाना ही है। मिले हुए लंबा अंतराल बीत गया है...।
उसने फोन रिसीवर रखा और मीणा की ओर देखा। मीणा बाबुओं के स्थानांतरण पर लेखाधिकारी से चर्चा में व्यस्त था। क्षणभर सुधांशु खड़ा रहा फिर बोला, ''सर, मुझे इजाजत दीजिए...।''
''किसी गर्लफ्रेंण्ड से मिलने जाना है?'' मीणा बोला और ठठाकर हंस पड़ा। सुधांशु संकुचित हो उठा। इतने अल्पकालिक परिचय में उसने मीणा से ऐसी टिप्पणी की आशा न की थी। उसने अनुभव किया कि मीणा के सामने बैठे दोंनो लेखाधिकारी मानो मन ही मन मुस्करा रहे थे।
सुधांशु चुप रहा।
''ओ.के.।'' सुधांशु की ओर देखते हुए मीणा बोला, ''फिर गेस्ट हाउस में मुलाकात होगी।'' क्षणभर बाद उसने पूछा, ''जाना कब है?''
''कल सुबह की फ्लाइट है।''
''रात मिलते हैं...ओ.के. सुधांशु...गुड लक...।''
'तो क्या इसने प्रीति के साथ मेरी बात सुन ली थी?...लेकिन मैंने यह जाहिर ही नहीं होने दिया कि मैं किससे बातें कर रहा था। बातचीत में एक बार प्रीति की मां को 'मां' अवश्य कहा था, लेकिन उससे इसने ऐसी टिप्पण्ाी कैसे कर दी।' मीणा के कमरे से बाहर निकल गेट की ओर जााने वाले गलियारे में चलते हुए उसने सोचा, 'कुछ लोंगो का स्वभाव ही ऐसा होता है। बड़े पद पर पहुंच कर भी वे अपनी पुरानी ...विद्यार्थी जीवन की आदतों पर अंकुश नहीं लगा पाते। इसीलिए मुझे रवि कुमार राय पसंद हैं। उनमें गंभीरता है...खोखली गंभीरता नहीं...उनकी बातचीत में एक अध्ययनशील व्यक्ति बोल रहा होता है।'
हेडक्वार्टर से निकल पांच मिनट चलकर मेन रोड पर बस स्टैण्ड पर उसे एक खाली ऑटो खड़ा दिखा। दूर से ही ड्राइवर को रुकने का इशारा कर उसने कदम तेज किए और ड्राइवर को ''नार्थ ब्लॉक'' कहते हुए वह ऑटो में बैठ गया।
जब वह रवि के चेम्बर में पहुंचा, सवा एक बज रहा था। रवि चार अधिकारियों से घिरा हुआ था। उससे हाथ मिला रवि ने सामने पड़े सोफे पर उसे बैठने का इशारा किया, ''दस मिनट सुधांशु,'' और वह पुन: अफसरों से चर्चा में व्यस्त हो गया था।
चर्चा जब समाप्त हुई दो बजने को थे। अफसरों के जाते ही रवि ने घण्टी बजायी, चपरासी के आते ही बोला, ''लंच...क्या हुआ?''
''तैयार है सर।''
''तुरंत लगाओ।''
''यार, बहुत मारा-मारी है।'' सुधांशु के पास बैठते हुए रवि बोला।
''मंत्रालय ही ऐसा है।''
''हां...सुबह आठ अजे आ जाता हूं...उसके बाद कब निकलूंगा...पता नहीं होता। कभी-कभी रात ग्यारह भी बज जाते हैं। घर में मां इंतजार करती हुई थक जाती हैं।''
''माता जी को क्यों कष्ट दे रहे हैं...शादी करें...अब तो...।''
''हां....सोच मैं भी रहा हूँ...लेकिन रुका हुआ हूं कि पहले एक मित्र की हो जाए, उसके बाद करूं...उसके अनुभवों से अनुभावित होकर ....।''
''मित्र...मित्र के अनुभव से...? मैं समझा नहीं....।''
''लंच शुरू करो...।'' रवि ने सुधांशु को भेदती नजर से देखा, ''आज नृपेन मजूमदार जी रिटायर हो रहे हैं।''
''आपको कैसे मालूम?'' सुधांशु चौंका।
''मालूम है.....दो दिन पहले प्रीति का फोन आया था..पता...उसने बताया था कि तुम आ रहे हो....उसने मुझे भी शाम घर आने के लिए कहा था, लेकिन, देख रहे हो न मेरी हालत। तीन बजे मंत्री जी से मिलना है, फिर सचिव ...मैं शायद ही पहुंच पाऊंगा...।''
''देर से आ जाइएगा.....।''
''निकल पाया तब अवश्य आउंगा...और यदि न भी आ पाऊं तो खुशखबरी बता अवश्य देना।''
''कैसी खुशखबरी...?''
''वह भी बताना होगा।''
''सच...मैं समझा नहीं।''
''इंगेजमेण्ट की...मेरा अनुमान है कि आज तुम्हारा और प्रीति का....।'' रवि ने बात बीच में ही छोड़ दी।
''हूं....उं...।'' सुधांशु के खाने की गति धीमी हो गयी।
''उदास हो गए?''
''नहीं, लेकिन मैंने यह सब सोचा नहीं और ना ही अपने मां-पिता से कभी इस बारे में चर्चा की।''
''देखो, सुधांशु...मेरा विश्वास है कि प्रीति एक अच्छी पत्नी सिध्द होगी, क्योंकि वह एक संस्कारवान परिवार से है। वह एक सुयोग्य और सुसंस्कृत मां-पिता की संतान है...और तुम जैसे सरल व्यक्ति के लिए सही जीवन-संगिनी बनने योग्य है। मेरी अग्रिम बधाई...।'' भोजन समाप्त हो जाने पर घण्टी बजाकर उसने चपरासी को प्लेटें हटाने के लिए कहा।
''लेकिन यह सब आप कैसे कह रहे हैं?''
''एक दिन...आज के निमंत्रण के लिए प्रीति का फोन आया था तब उसकी मां ने मुझसे लंबी बात की थी। तुम्हारे बारे में ही वह बातें करती रही थीं और यह सलाह भी ली थी कि यदि नृपेन दा के अवकाश प्रहण वाले दिन सभी अतिथियों के सामने वह तुम दोंनो की सगाई की धोषणा करें तब तुम्हें बुरा तो नहीं लगेगा।''
''लेकिन मुझे इस बारे में कोई जानकारी नहीं है।''
''जब तुम एक दूसरे को चाहते हो...तब जानकारी है या नहीं....महत्वपूर्ण नहीं है।''
''आपने फोन करके मुझे बताया क्यों नहीं?''
''तुम्हें फोन किया था...ज्ञात हुआ जनाब की पोस्टिंग पटना हो गयी है...फिर मैं भूल गया...यार देखो न तीन बजे में दस मिनट हैं...।'' घड़ी देखता हुआ रवि उठ खड़ा हुआ, ''सॉरी सुधांशु...इस मुलाकात में मजा नहीं आया...।'' क्षणभर के लिए वह रुका, ''बेस्ट ऑफ लक...हम फिर मिलेंगे...।''
रवि मेज की ओर लपका और लपककर उसने एक फोल्डर उठाया और पी.ए. को फोन पर आदेश दिया, ''मेरे आने तक आप रुकेंगे....।'' फिर सुधांशु की ओर मुड़कर बोला, ''आओ...।''
चपरासी को रवि पहले ही घण्टी बजाकर अपने जाने की सूचना दे चुका था। चपरासी उसके लिए दरवाजा खोल खड़ा हुआ था।
लंबे डग भरता मंत्री जी के चेम्बर की ओर बढ़ते हुए रवि ने सुधांशु का हाथ दबाया और मुस्कराकर 'गुडलक' कहा और बायीं ओर गैलरी में मुड़ गया। क्षणभर सुधांशु उसे जाता देखता रहा....'एकदम तना हुआ आत्मविश्वास से लबालबा...यही अंतर है प्रापर आई.ए.एस. औेर एलाइड में चयनित अफसरों में।' और वह बाहर जाने के लिए रिसेप्शन की ओर बढ़ गया।
रविकुमार राय, जिसे सुधांशु रवि राय कहने लगा था, के यहां से निकलकर वह सीधे प्रीति के यहां पहुंचा। प्रीति उसका इंतजार ही कर रही थी। उसे कम से कम ऐसा ही लगा। वह बाहर व्यग्र-सी टहल रही थी। जैसे ही ऑटो उसके घर के सामने रुका उसकी नजरें ऑटो पर जा टिकीं। इस ओर सुधांशु का ध्यान गया था, लेकिन ऑटोवाले की ओर मुड़कर पर्स से पेैसे देते हुए उसने यूं प्रदर्शित किया मानो उसने किसी बात पर ध्यान ही नहीं दिया था।
प्रीति गेट की ओर लपकी और उसे खोलते हुए 'हाय सुधांशु' बोली। सुधांशु ने पीछे मुड़कर देखा और 'हाय' कह आगे बढ़ आया।
''मैं तुमसे बात नहीं करूंगी।'' मुंह बनाती हुई प्रीति बोली।
''सॉरी प्रीति...रवि के पास चला गया था...यू नो...।''
''नो...तुम जान-बूझकर लेट आए हो। ममी कब से तुम्हारा इंतजार कर रही हैं।''
''रियली?'' सुधांशु मुस्कराया।
''तुम्हे मज़ाक सूझ रहा है।''
''नहीं...लेकिन क्या आण्टी ही मेरा इंतजार कर रही थीं?''
''और कौन करेगा?'' होठ दांतो तले दबा प्रीति मंद-मंद मुस्कराती हुई बोली।
''चलो, मिल लेता हूं आण्टी से...माफी मांग लेता हूं।''
''वहां बहुत लोग हैं...दिल्ली में पापा और ममी की ओर के सभी रिश्तेदार एकत्र हैं। ममी उनसे घिरी हुई हैं।''
''कोई बारात आने या जाने वाली है?'' सुधांशु ने चुटकी ली।
''पापा के स्वागत के लिए सभी एकत्र हुए हैं। नौकरी लगने में जिस प्रकार किसी युवक की जिन्दगी में नयी शुरूआत होती है रिटायरमेण्ट के बाद भी जीवन की एक नयी शुरूआत होती है।''
''वॉव...तुम तो भई फिलासफर हो रही हो।''
''बहुत हुआ मज़ाक...चलो मेरे कमरे में...।''
''यहां क्यों नहीं। भीड़ से यहां अधिक सुकून है।''
''यहीं बैठते है।'' उसने शोभित को आवाज दी, जो ट्रे में पानी के तीन गिलास लिए कमरे में उसे दिखा था।
''आया दीदी।''
''इधर भी पानी...।''
''जी दीदी।''
थोड़ी ही देर में शोभित पानी ले आया।
''दो कुर्सियां उधर लॉन में रख जाओ....।''
''जी दीदी।''
''दरअसल धर के सभी कमरों में मेहमान छाए हुए हैं...दोपहर से सभी का आना शुरू हो गया था...शोभित और नौकरानी के पैर घिस गये होंगे...तभी से दोनों दौड़ रहे हैं।'' क्षणभर के लिए वह रुकी, ''तुम्हे असुविधा अनुभव हो रही होगी। लेकिन मेरे कमरे में मेरे मामा के ग्रैण्ड चिल्ड्रेन उधम मचा रहे हैं...इसलिए...।''
''यहां बैठने का मेरा निर्णय सही था?''
शोभित कुर्सियां ले आया।
''कोल्ड ड्रिंक या चाय-कॉफी!''
''कॉफी...लेकिन रहने दो...शोभित वैसे ही परेशान है...।'' सुधांशु शोभित की ओर मुड़ा, ''रहने दो बेटा।''
''अरे वाह...बुजुर्गवार की बात मत मानना शोभित।''
''शोभित मुस्कराया, ''जी दीदी।''
और थोड़ी ही देर में वह ट्रे में दो कॉफी दे आया।
उस दिन नृपेन मजूमदार के उस सरकारी मकान को अच्छी प्रकार सजाया गया था। लॉन में चारों ओर लाइटिंग की व्यवस्था थी.... फेंस में भी रंग-बिरंगे छोटे बल्ब लटकाए गए थे। वास्तव में ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो वहां कोई महत्वपूर्ण कार्यक्रम होने वाला था।
शाम पांच बजे के लगभग प्रीति सुधांशु को लेकर अपने कमरे में गई, क्योंकि लॉन में कैटरर के लोग आ गए थे। एक दूसरी पार्टी भी आ गई थी, जो एक ओर मंच तैयार करने लगी थी। उनके साथ कुछ वाद्ययंत्र भी थे।
प्रीति के कमरे में जाते हुए सुधांशु कमलिका मजूमदार से टकरा गया। ''अरे तुम आ गए? मैं प्रीति से तुम्हारे बारे में ही पूछने जा रही थी।'' कमलिका मजूमदार बोलीं।
सुधांशु ने आगे बढ़कर उनके चरणस्पर्श किए।
आशीर्वाद में कमलिका का हाथ स्वत: सुधांशु के सिर पर जा पहुंचा।
सच यह था कि कमलिका मजूमदार ने पहले ही एक कमरे से दूसरे कमरे में जाते हुए प्रीति के साथ लॉन में बैठे सुधांशु को देख लिया था। वह प्रीति से यह पूछने जा रही थीं कि वह भलीभांति सुधांशु के बारे में आश्वस्त हो ले। उसे स्पष्टतया बता दे कि उन लोंगो की क्या योजना है। लेकिन सुधांशु के चरणस्पर्श को उन्होंने सकारात्मक भाव से ग्रहण किया और जो कुछ सोचकर बेटी की ओर जा रही थीं उसे मन में ही रहने दिया। लेकिन उहापोह की स्थिति फिर भी बनी रही उनकी। अंतत: उन्होंने प्रीति से नहीं बल्कि सुधांशु से बात साफ कर लेना उचित समझा। अवसर देख उन्होंने शोभित से सुधांशु को बुला लाने के लिए कहा। उस समय सभी रिश्तेदार गपशप में मशगूल थे और बाहर कैटरर के लोग मेज-कुर्सियां लगा रहे थं। रोशनी वाले पहले ही अपनी व्यवस्था कर चुके थे।
''आपने बुलाया मां जी?''
''बेटा सुधाुशु, तुमसे कुछ जरूरी बात करनी है।''
''जी...।''
''हम उधर'' जिधर मंच बनाया जा रहा था, हाथ के इशारे से उधर चलने के लिए कहती हुई कमलिका मजूमदार उधर बढ़ीं, ''उधर एकांत है।''
''जी मां जी....।''
बंगले के एक कोने में फेंस के पास जाकर वह रुक गयीं॥ सुधांशु फेंस के पार सड़क पर गुजरते वाहनों को देख रहा था, लेकिन उसके कान कमलिका मजूमदार के उन शब्दों को सुनने के लिए विकल थे जो वह कहने वाली थीं। पांच मिनट तक दोनों ही चुप रहे।
''बेटा, प्रीति ने तुमसे कुछ बताया?'' कमलिका के शब्द कानों से टकराते ही सुधांशु उनकी ओर मुड़ा और कुछ ऐसे भाव से देखने लगा जिसका अर्थ था कि उसे कुछ भी नहीं मालूम।
''तो उसने कुछ भी नहीं बताया?''
''किस विषय में मां जी!'' उसका चेहरा गंभीर था।
कुछ देर चुप रहीं कमलिका मजूमदार। मानो उपयुक्त शब्द तलाश रही थीं। लगभग पांच-सात मिनट बीत गए।
''तुम जानते हो वह तुम्हे कितना चाहती है।'' कमलिका के चेहरे पर संकोच के भाव स्पष्ट थे।
सुधांशु चुप रहा।
''उसने तुमसे इस बारे में बात भी की थी और हमें यह कहा था कि तुम भी उसे चाहते हो और....और...।'' कमलिका मजूमदार की आंखें छलछला आयीं। आगे बोल नहीं फूटे। देर तक वह अपने को प्रकृतिस्थ करने का प्रयत्न करती रहीं।
''जी मां जी...प्रीति ने ही कहा था। लेकिन....।'' उसने देखा उसके इतना कहने मात्र से ही कमलिका मजूमदार का चेहरा खिल उठा था।
''हां बेटा...कुछ कहना चाहते थे?''
''जी...आपको मेरी पृष्ठभूमि के बारे में भी प्रीति ने बताया होगा। मेरे मां-पिता अपढ़....किसान हैं। आप लोंगो ने इस बारे में सोचा है?''
''साचा है बेटा...मजूमदार साहब के पिता भी अपढ़ थे। और मेरे पिता सचिव थे...। तुम मजूमदार साहब से पूछना...कभी मेरी ओर से उनके मां-बाबा के प्रति सम्मान में कोई कमी आयी हो...और वे भी मुझे बहू नहीं बेटी मानते थे।''
सुधांशु चुप रहा।
''तुमने अपने ममी-पापा से बात की?''
''बात तो नहीं की....लेकिन मेरा विश्वास है कि उन्हें आपत्ति नहीं होगी। मेरी खुशी उनके लिए सर्वोपरि है।''
''सुनकर मन हल्का हो गया बेटा...मेरे यही इकलौती बेटी है...यही बेटा भी...उसका सुख-दुख ही हमारा सुख-दुख होगा।''
सुधांशु उनके चेहरे की ओर देखता रहा।
कुछ रुककर कमलिका बोलीं, 'आज रात सभी परिचितों-रिश्तेदारों के सामने मजूमदार साहब तुम दोंनो की सगाई की घोषणा करना चाहते हैं।''
सुधांशु फिर भी चुप रहा।
''तुम्हें कुछ....।''
''नहीं....कुछ नहीं।''
क्मलिका मजूमदार इतना भाव विह्वल हुई कि आगे बढ़कर उन्होंने सुधांशु को पकड़ उसका माथा चूमा और यह भी नहीं देखा कि पास में ही मंच तैयार कर रहे लोग उन्हें ऐसा करते देख रहे थे।
सुधांशु संकोच से विजड़ित हो गया था।
रात आठ बजे के लगभग आठ गाड़ियों का काफिला नृपेन मजूमदार के बंगले के सामने रुका। आगे की गाड़ी से मजूमदार साहब और उनके साथ दो अधिकारी उतरे। पीछे की गाड़ियों में स्टॉफ के अन्य लोग थे...एक डिप्टी सेक्रेटरी, दो अण्डर सेक्रेटरी, सेक्शन अफसर और चार बाबू। अंदर की सजावट देख सभी की आंखें चकाचौंध थी।
प्रीति, कमलिका सहित सभी रिश्तेदारों ने नृपेन दा का फूल-मालाओं से स्वागत किया और साथ आए मेहमानों को साग्रह बैठने का निवेदन। नृपेन दा परिवार के सदस्यों और रिश्तेदारों का साथियों को परिचय दे रहे थे। सुधांशु सभी के पीछे दुबका खड़ा था। उस पर नजर पड़ते ही नृपेन मजूमदार चीखे, ''सुधांशु, उधर किदर...आगे आओ...कब आए...?''
सुधांशु ने उनके 'कब आए' का उत्तर न देकर आगे बढ़ गया और हाथ जोड़कर सभी को नमस्कार किया। मजूमदार साहब ने उसकी ओर मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया। सकुचाते हुए सुधांशु ने अपना हाथ बढ़ा दिया, लेकिन नृपेन मजूमदार ने उसका हाथ थाम उसे और आगे खींच गले लगा लिया। सुधांशु इस बात के लिए तैयार नहीं था। वह अचकचा गया।
वह कुछ सोच ही रहा था कि नृपेन मजूमदार ने उसका हाथ पकड़े हुए ही साथ आए लोगाें की ओर उन्मुख हुए और बोले, ''बहुत ही प्रतिभाशाली युवक ...सुधांशु कुमार दास। पटना के प्ररवि विभाग के निेदेशक कार्यालय में सहायक निदेशक....वेल रेड ब्वॉय।''
अधिकारियों की आंखें आपस में मिलीं, संकेतों में कुछ कहा-सुना गया, जिसे न नृपेन मजूमदार ने देखा और न ही सुधांशु ने। तभी उन्हें नृपेन मजूमदार की आवाज सुनाई दी, ''मेरी बेटी प्रीति से एक वर्ष सीनियर था कॉलेज में सुधांशु ...दोनो अच्छे मित्र हैं...।''
सुधांशु नृपेन मजूमदार से अपना हाथ छुड़ाना चाहता था, लेकिन उनकी पकड़ सख्त तो नहीं थी, लेकिन ढीली भी न थी कि वह उनके हाथ से अपना हाथ सरका लेता। 'प्रीति का वह सीनियर और अच्छा मित्र है।' नृपेन मजूमदार के यह कहने के साथ ही उसने अधिकारियों की ओर देखा और उनकी नजरों में एक अलग तरह की गुफ्तगू जैसा होता देख वह समझ नहीं पाया कि वह नृपेन मजूमदार की बात पर थी या किसी अन्य बात पर।
रात बारह बजे तक मंच पर रवीन्द्र संगीत और पार्टी चलती रही। जब प्रीति ने पिता को बताया कि सुधांशु बहुत अच्छा सितार बजा लेता है, उन्होंने उसका सतार वादन सुनने की इच्छा व्यक्त की। तब तक उनके सहयोगी और स्टॉफ के लोग उपस्थित थे।
सुधांशु ने वर्षों से सितार का अभ्यास नहीं किया था...... सिविल सेवा परीक्षा की तैयारी में व्यस्त रहने के समय से तो बिल्कुल ही नहीं...लेकिन नृपेन मजूमदार को वह निराश नहीं करना चाहता था। मंच पर बैठे संगीतकार से सितार ले उसने सधे हाथें बजाना प्रारंभ किया और यह क्या...उसने अनुभव किया कि वह कुछ भी नहीं भूला था। केवल पन्द्रह मिनट ही बजाया उसने लेकिन सभी मंत्रमुग्ध थे। उसके मंच से उतरते ही प्रीति दोड़कर उसके निकट आयी, ''यार क्या सितार बजाया तुमने...तुम्हारे हाथ चूमने का मन कर रहा है...लेकिन.....।''
''लेकिन ...?''
''काश! तुम अकेले होते!''
सुधांशु चुप अपनी सीट की ओर बढ़ा। प्रीति उसके साथ रही।
साढ़े बारह बजे तक नृपेन मजूमदार के भावी जीवन की सुख कामना के साथ सभी मेहमान जा चुके थे। सहयोगी भी और रिश्तेदार भी। कैटरिंग सर्विस वाले अपना सामान समेटने लगे और मंच सजाने वाले अपना। लाइटिंग वालों को अपले दिन सुबह सब ले जाना था। शोभित बाहर बैठा सामान समेटने वालों पर दृष्टि रख रहा था।
नृपेन मजूमदार इतना थक चुके थे कि बाहर खड़े रहने में अपने को असमर्थ पा रहे थे। उन्होंने एक बार चारों ओर देखा, लेकिन न प्रीति उन्हें दिखी और न ही सुधांशु। 'शायद वह प्रीति के साथ होगा।' उन्होंने सोचा और अंदर जाने के लिए सीढ़ियां चढ़ने लगे, तभी उन्हें ड्राइवर की आवाज सुनाई दी, ''सर, सर...।''
नृपेन मजूमदार पलटे, रुके और प्रश्नात्मक दृष्टि से ड्राइवर को देखने लगे।
''सर कल आना है?''
''कल...।'' क्षणभर तक वह सोचते रहे कि क्या उन्हें कल ऑफिस जाना है! कुछ देर पहले ही सबने उनके भावी सुखी जीवन की कामना की थी....अब तो वह अवकाश प्राप्त बाबू मात्र हैं...।' मन नही मन मुस्कराये, 'इंसान पर दफ्तर किस कदर प्रविष्ट हो जाता है कि वह उसे अवकाश ग्रहण के बाद भी भूल नहीं पाता।'
ड्राइवर उनका आदेश सुनने के लिए उनके चेहरे की ओर देख रहा था।
''आनंद, अब मैं आपका अफसर नहीं रहा...आज शाम से ही....।'' एक दीर्घ निश्वास ली उन्होंने।
''नहीं सर....आप मेरे लिए सदैव मेरे अफसर रहेंगे।''
मुस्कराये नृपेन मजूमदार...फीकी मुस्कान। उन्हें खड़ा देख कमलिका बाहर निकल आयीं, 'कुछ खास बात?'
''नहीं।'' वह ड्राइवर के निकट गये, ''आनंद, अगर कभी तुम्हारी सेवा की आवश्यकता हागी तब अवश्य याद करूंगा। कल नहीं....सरकार की बहुत सेवा कर ली...अब आराम करूंगा।''
''थैंक्यू सर।'' ड्राइवर जाने के लिए पलटा। उन्होंने उसे रोका, ''आनंद, एक मिनट।''
आनंद उनके निकट चला गया, ''सर।''
आनंद के निकट आने तक उन्होंने जेब से पर्स निकाल लिया था। पांच सौ का नोट उसे देने के लिए वह एक कदम आगे बढ़े, ''सर...सर...।'' कहता हुआ आनंद अत्यधिक संकुचित हो उठा।
''ले लो आनंद....आपने साहब की बहुत सेवा की है।'' कमलिका मजूमदार, जो पति के निकट आ खड़ी हुई थीं, बोलीं।
आनंद ने नोट थाम लिया। मजूमदार ने उसके कंधे पर हाथ रखकर कहा, ''तुमने बहुत सहा है आनंद, लेकिन मैं भी मजबूर था। नौकरी ही ऐसी थी। तुमने भी नौकरी के लिए परिवार की परवाह नहीं की....इस देश में ड्राइवरों की दशा अच्छी नहीं है।'' भावूक हो उठे नृपेन मजूमदार।
''सर, आप सबकी मेहरबानी बनी रहे...।'' आनंद की आंखे गीलीं थीं।
''मैं जब तक यहां हूं...और उसके बाद कलकत्ता जाने पर भी...जब भी मेरे लायक कोई सेवा होगी....बताने में संकोच मत करना।''
''जी सर।'' आनंद जानता था कि अवकाश प्राप्त करने या ट्रांसफर पर जाने वाला हर अफसर यही कहता है। लेकिन या तो वे सहायता करने में असमर्थ हो चुके होते हैं या इन भावुक क्षणों से उबर चुके होते हैं।
''अच्छा, आनंद...एक बज चुके....तुम्हे सुबह ऑफिस जाना है...।''
''सर...।'' आनंद ने हाथ जोड़ दिए।
नृपेन मजूमदार झटके से मुड़े और बंगले की सीढ़ियां चढ़ने लगे। कमलिका उनके पीछे हो लीं।
नृपेन मजूमदार ड्राइंगरूम में सोफे पर बैठ गये और कमलिका से बोले, ''प्रीति ओैर सुधांशु को बुलाना कमल।''
लेकिन कमलिका मजूमदार को प्रीति को बुलाने नहीं जाना पड़ा। पिता के ड्राइंगरूम में आने की आहट प्रीति को मिल गयी थी। ''बाबा बुला रहे हैं।'' प्रीति ने सुधांशु से कहा और वह ड्राइंगरूम में जा पहुंची। सुधांशु भी उसके पीछे गया।
''आओ, सुधांशु। माफ करना...तुमसे दो बाते भी नहीं कर सका।''
''आप बहुत व्यस्त थे अंकल।''
''हां।'' दीर्घ निश्वास ली नृपेन मजूमदार ने, ''लेकिन अब कल से बिल्कुल खाली हो जाउंगा।''
''खाली क्यों बाबा....आपने जिन्दगी भर पुस्तकें खरीदीं, खसा पुस्तकालय है आपका...कितनी पुस्तकें पढ़ी आपने?'' प्रीति बोली, ''पचास...सौ या दो सौ...। दफ्तर ने आपको खरीदने की फुर्सत तो दी, लेकिन वह घर तक आपका पीछा करता रहा और उन पुस्तकों को आपके इसी दिन का इंतजार था।''
मुस्कराये मुजूमदार साहब। उन्हें लगा कि प्रीति ने उन्हें रास्ता दिखा दिया है, ''यू आर राइट माई ब्वॉय।'
मजूमदार जब भी प्रीति को संबोधित करते 'माई ब्वॉय' कहते।
''कम हियर यंग मैन।'' उन्होंने सुधांशु को अपने पास सोफे पर बैठने के लिए बुलाया, जो तब तक प्रीति के साथ उनके निकट ही खड़ा था।
सुधांशु के बैठने के बाद देर तक सभी चुप रहे। सुधांशु नहीं समझ पा रहा था कि अकस्मात सभी चुप क्यों हो गये।
देर तक चुप रहने के बाद बहुत ही सधे स्वर में धीरे, मानो वह कोई दूसरे ही नृपेन मजूमदार थे, मजूमदार साहब ने कहना प्रारंभ किया, ''फिर आप दोंनो ने निर्णय कर ही लिया है?''
प्रीति ने चमकती आंखें सुधांशु पर गड़ा दीं, लेकिन वह आंखें सिकोड़े सामने सोफे पर बैठी उसके ही चेहरे पर नजरें गड़ाए कमलिका मजूमदार के पैरों पर नजरें गडाए कुछ सोचता रहा।
ड्राइंगरूम में सन्नाटा छाया रहा। बाहर सड़क पर कुत्तों के भौंकने की आवाजे आ रही थीं और कोई वाहन हू...हू की आवाज के साथ बंगले के सामने से गुजर रहा था।
देर तक मजूमदार साहब प्रीति और सुधांशु के चेहरों की ओर बारी-बारी से देखते रहे। प्रीति सुधांशु के चेहरे पर नजरें गड़ाए थी और सुधांशु यथावत कमलिका मजूमदार के पेरों पर।
''बात यह है बरखुरदार।'' नृपेन मजूमदार काफी देर की चुप्पी के बाद बोले, ''हम इस बंगले को अधिक दिनों तक रिटेन नहीं करेंगे, क्योंकि, यू नो, कलकत्ता में मेरा मकान खाली है और उसमें कुछ काम भी करवाना है। इसलिए मैं किसी अंतिम निर्णय पर पहुंचना चाहता हूं। मेरा मतलब....क्यों प्रीति...।''
''जी बाबा....।''
''मैं समझती हूं कि सुधांशु तैयार है।'' कमलिका बोलीं।
''क्यों सुधांशु ....मैं तुमसे ही सुनना चाहता हूं।'' नृपेन मजूमदार बोले।
उस क्षण प्रीति के दिल की धड़कन बढ़ गई थी।
''जी अंकल....आण्टी ने ठीक कहा...लेकिन आप लोग और खासकर प्रीति एक बार और सोच लें...मैं बेहद साधारण किसान परिवार से हूं। मेरे मां-पिता अपढ़ हैं। क्या प्रीति को....आपको यह स्वीकार होगा?'' मन कड़ाकर साहस जुटा सुधांशु बोला।
''व्वाई नॉट?'' प्रीति तपाक से बोली, ''कितनी ही बार इस विषय पर बात हो चुकी है...मुझे उनको लेकर कोई परेशानी नहीं। जैसे वे तुम्हारे ममी-पापा....वैसे ही मेरे।''
''शाबाश बेटी...ऐसा ही होना चाहिए। मेरे मां-बाबा भी अपढ़ थे और तेरी मां एक सेक्रेटरी की बेटी...महानगर में पली-बढ़ी, लेकिन निभाया न उनके साथ....और ऐसा निभाया कि लोग आज भी याद करते हैं। इसने मेरी मां और बाबा को पढ़ना-लिखना सिखाया। वे दोंनो रवीन्द्र और बंकिम को लगभग पूरा पढ़ गये थे...बेटा तू है न अपनी मां की सुयोग्य बेटी....।''
''अब तो कोई परेशानी नहीं सुधांशु!'' प्रीति बोली।
सुधांशु चुप रहा। वह अभी भी घबड़ाहट अनुभव कर रहा था और घबड़ाहट थी पीढ़ियों को लेकर। जिस पीढ़ी के नृपेन मजूमदार और कमलिका थीं, उसकी पीढ़ी सोच-समझ और आचरण में उनसे बिल्कुल भिन्न तैयार हुई थी।
''तुम चुप क्यों हो?'' प्रीति ने पूछा। नृपेन मजूमदार बेटी की ओर प्रशंसात्मक भाव से देख रहे थे।
''ओ.के.।'' लंबी सांस खींच सुधांशु ने हामी भरी।
और उसके बाद नृपेन मजूमदार,कमलिका ओर प्रीति कैसे सुधांशु के ममी-पापा से मिलेंगे, कैसे दोंनों की सगाई होगी और कब शादी....इस पर सुबह चार बजे तक चर्चा करते रहे थे। सुधांशु केवल उनकी हां में हां मिलाता रहा था।
योजना यह बनी कि दो दिन का अवकाश लेकर उसी माह सुधांशु अपने ममी-पापा को बनारस ले आएगा जहां मजूमदार परिवार सुबह की फ्लाइट से पहुंच जायेंगे और किस होटल में ठहरेगें यह पहले से ही निश्चित करके वह सुधांशु को बता देंगे। वहीं सभी मिलेंगे और सुधांशु के ममी-पापा से भावी कार्यक्रम तय कर लेंगे।
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