गुरुवार, 21 मार्च 2013

कहानी


प्रस्तुत कहानी ४-५ जनवरी,२०१३ को लिखी गयी और फरवरी,२०१३ के ’समकालीन सरोकार’ में प्रकाशित हुई.’रचना समय’ के पाठकों के लिए इस कहानी को प्रकाशित करते हुए प्रसन्नता हो रही है. आपकी बेबाक प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा रहेगी.

मकान नम्बर एक सौ निन्यानवे

रूपसिंह चन्देल

जुलूस में वह सबसे आगे था. सिल्क के क्रीम कलर कुर्ता-पायजामा पर उसने काले रंग की जैकेट पहन रखी थी.

दिसम्बर के अंतिम सप्ताह की कड़ाके की ठंड और सत्तर की उम्र—’यह अंदर ही अंदर ठुठुर रहा होगा’—उसे देखकर  नितिन ने सोचा. कॉलेज के दिनों में, अब से पच्चीस वर्ष पहले, वह इतनी कड़कती ठंड में जींस और खादी के कुर्ते पर ओवरकोट पहनता था. दाढ़ी तब भी ऎसी ही थी, लेकिन इतनी सफेद नहीं ;सिर के  बाल  भी अधपके थेआज जैसे दूधिया नहीं.  

नितिन उसके निकट पहुंचा. उसने उसकी ओर देखा लेकिन देखते ही चेहरा दूसरी ओर घुमा लिया और नितिन को हत्प्रभ छोड़ युवकों के जुलूस के साथ तेजी से लपकता  आगे बढ़ता हुआ चीखा, वी वाण्ट--- युवाओं की भीड़ चीखी, जस्टिस.

 “बलात्कारियों को…” वह चीखा.

 “फांसी दो. युवाओं की भीड़ चीखी.

 ’क्या यह वह नहीं है? परिवर्तन है, लेकिन इतना भी नहीं--- उसने सोचा, नहीं, यह शुभंकर ही है. आगे बढ़कर उसके निकट पहुंचूं और पूछ ही न लूं?’ 

नहीं मन ने कहा, उसने पहचान कर भी चेहरे पर पहचान के चिन्ह नहीं उभरने दिएक्यों उभरने देता? पच्चीस वर्ष पहले की बातें वह भूला नहीं होगा. आश्चर्य की बात है---वह युवाओं के लिए नारे उछाल रहा है!!!

 ’लेकिन इसमें आश्चर्य की क्या बात! नितिन की गति धीमी हो गयी.

युवाओं की भीड़ आगे बढ़ गयी थी. शुभंकर उसकी आंखों से ओझल हो गया था. पुलिस वालों का झुंड लाठियां लहराता उस भीड़ के पीछे बढ़ रहा था. वह फुटपाथ पर चढ़कर इंडियागेट की ओर धीरे-धीरे बढ़ने लगा.  

यह संभव ही नहीं कि वह मेरी शक्ल भूल गया हो. क्या यह उस दिन की घटना को भूल गया होगा? उस दिन के जख्म लिए मैं शहर-दर शहर भटका हूं और एक पल के लिए भी उस दिन को नहीं भूला.

लेकिन संभव है यह उसे भूल गया हो और मुझे भी---

कितनी ही बार उसके निवास पर गया था…बिनोवा भावे एन्क्लेव के मकान नम्बर एक सौ निन्यानवे में. आज भी वह मकान मुझे उसी रूप में याद है और याद हैं वे चेहरे जो उसके घर आते थे. तब भी वह सरकार के विरुद्ध होने वाले प्रदर्शनों में शामिल होता था---लेकिन--- 

और उस लेकिन ने उसे पच्चीस वर्ष पीछे धकेल दिया.

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उन दिनों वह विद्यावती महाविद्यालय में सेकेण्ड इयर में पढ़ रहा था और कॉलेज यूनियन का अध्यक्ष था. शुभकंर कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक था और उसने एक संस्था जन सरोकार संगठन बना रखी थी. कॉलेज के प्रिन्सिपल से उसकी ठनी रहती थी. ठनी रहने का कारण था. शुभकंर अपनी संस्था के कार्यक्रमों में जब व्यस्त होता, कक्षाओं में अनुपस्थित रहता. प्रिन्सिपल इस बात के लिए उसे दो बार नोटिस दे चुका था, जिसे शुभंकर ने उसी के सामने फाड़ दिया था. इतना साहस दिखाने का कारण था. वह विश्वविद्यालय यूनियन की एक्ज्यूक्यूटिव में था और यूनियन में भी उतना ही सक्रिय रहता था जितना अपनी संस्था के लिए उसकी सक्रियता थी. यूनियन का हाथ उसकी पीठ पर था इसलिए वह प्रिन्सिपल की परवाह नहीं करता था. परवाह करना तो दूर, दो बार विश्वविद्यालय टीचर्स  एसोसिएशन के लोगों के साथ कॉलेज परिसर में प्रिन्सिपल के विरुद्ध हाय-हाय करकरवा चुका था. उसने कॉलेज छात्र यूनियन को भी प्रिन्सिपल के विरुद्ध भड़काया और छात्र यूनियन ने भी प्रिन्सिपल के विरुद्ध हाय-हाय की थी. उन्हीं दिनों वह शुभंकर के निकट आया था. उसने उसे जन सरोकार संगठन का सदस्य बनाया और मंच में सक्रिय भूमिका निभाने के लिए लगातार प्रेरित किया था. संगठन की बैठकों में वह शुभंकर के किराए के मकान में जाने लगा था. उन दिनों बिनोवा भावे एन्क्लेव का मकान नम्बर एक सौ निन्यानवे कहने मात्र से विश्वविद्यालय के एक्टिविस्ट-बौद्धिक वर्ग को यह बताने की आवश्यकता नहीं होती थी कि उस मकान में कौन रहता है.  

वह एक बड़ा मकान था, जैसा कि उस कॉलोनी के सभी मकान थे. दक्षिण दिल्ली की वह एक पॉश कॉलोनी है, जो महरौली जाने वाली रोड पर राष्ट्रीय शिक्षण संस्थान के सामने बसी हुई है. महरौली की ओर जाते हुए बायीं ओर फादर्स स्कूल के बाद एक और संस्थान की बिल्डिंग है. उस बिल्डिंग के साथ बायीं ओर जाने वाली सड़क पर पचास कदम चलने के बाद दायीं फिर बायीं और दस कदम चलकर पुनः दायीं ओर मुड़ते ही दायीं ओर वह मकान था. मकान में छोटा-सा गेट और गेट के दायीं  ओर किन्हीं नैयर साहब की नेमप्लेट लगी होती थी. स्पष्ट था कि मकान मालिक कोई नैयर थे. गेट की सीध में शुभंकर  की रिहाइश थी. जब वह पहली बार जन सरोकार संगठन की बैठक में शामिल होने वहाँ पहुंचा था, उपस्थित लोगों से मिलकर भौंचक रह गया था. हिन्दी के कितने ही नामवर प्रोफेसर, आलोचक और कवि-कवयित्रियां वहां उपस्थित थीं. चाय का दौर चल रहा था और एक सुघड़-सुन्दर महिला चाय सर्व कर रही थीं. बाद में उसे ज्ञात हुआ कि वह शुभंकर की पत्नी सुप्रिया  थीं. सुप्रिया  किसी सरकारी विभाग में कार्यरत थीं. नितिन की स्थिति हाथियों के बीच खरगोश जैसी थी. वह सभी को बोलते सुनता रहा था. उस दिन वे सभी महिला अधिकारों पर चर्चा कर रहे थे. सुप्रिया  के अतिरिक्त वहां चार और महिलाएं थीं जो राजधानी के विभिन्न कॉलेजों में पढ़ा रही थीं.

 ’जन सरोकार संगठन की उस बैठक के बाद वह शुभंकर के और अधिक निकट आ गया और मंच की होने वाली प्रत्येक बैठक में शामिल होने के अतिरिक्त भी  गाहे-बगाहे उसके घर जाने लगा था.

 शुभंकर के लिए उसने प्राचार्य तक से शत्रुता मोल ली थी. एक बार वह पुनः पुरानी यादों में गोता लगाने लगा. उसकी गति पहले से अधिक धीमी हो गयी. वह देख रहा था कि प्रदर्शनकारी युवा इंडिया गेट से विजय चौक की ओर बढ़ रहे थे. शुभंकर अब उसे दिख नहीं रहा था और न ही उसकी मिनमिनाती आवाज सुनाई दे रही थी. वह आगे बढ़ता रहा और उसी के साथ बढ़ती रहीं उसकी यादें.

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प्रिन्सिपल ने बदला लिया था उससे.  कॉलेज में उसकी हाजिरी कम दिखाकर उसे परीक्षा में न बैठने देने की पूरी कोशिश की थी और इसके लिए उसे विश्वविद्यालय छात्र संघ की शरण में जाना पड़ा था. मामला विश्वविद्यालय प्रशासन तक पहुंचा था और जब उसने शुभंकर की सहायता चाही थी तब शुभंकर ने कहा था, नितिन, प्रिन्सिपल को ज्ञात है कि तुम जन सरोकार संगठन के लिए कार्य करते हो. संतठन के लिए कार्य करने का अर्थ मुझसे सीधे संपर्क, ऎसी स्थिति में मेरा कोई भी प्रयास तुम्हारे लिए बाधक ही होगा.  

बहुत प्रयत्न के बाद उसे परीक्षा में बैठने की अनुमति मिल पायी थी.   
  
परीक्षाओं के बाद वह शुभंकर के यहां कुछ अधिक ही जाने लगा था. उन्हीं दिनों यू.जी.सी. की किसी योजना के अंतर्गत शुभंकर को कोई प्रोजेक्ट मिला. वह जब भी उसके घर जाता किसी न किसी महिला प्राध्यापिका को उपस्थित पाता. शुभंकर का ड्राइंगरूम उसकी स्टडी भी था और वहां रखी मेज पर बेतरतीब पुस्तकें और कागज पड़े होते थे. प्रायः शुभंकर सोफे पर अधलेटा दाढ़ी में मुस्करा रहा होता और उसकी उपस्थिति नजरअदांज करता हुआ उपस्थित प्राध्यापिका के कभी कंधे तो कभी पीठ को स्पर्श करता रहता जो बिल्कुल उससे सटकर बैठी होती थी. उनमें एक थीकमलिका शर्मा, जो एक महिला महाविद्यालय में हिन्दी पढ़ाती थी और कविताएं लिखा करती थी. शुभंकर के यहां सर्वाधिक उसने कमलिका को ही देखा था और यह भी देखा था कि शुभंकर उसके कंधे ही नहीं स्पर्श करता था बल्कि उसकी जाघों पर थपकी देकर बातें किया करता था और इस सबसे उसने कभी भी कमलिका को असहज होते नहीं देखा. बल्कि सदैव उसे  हीं-हीं करके हंसते देखा था.  

एक दिन शुभंकर ने चार पुस्तकें पकड़ाते हुए कहा, नितिन, ये मेरे प्रोजेक्ट से संबन्धित पुस्तकें हैं. उसने प्रोजेक्ट की विषयवस्तु समझाते हुए कहा, इन्हें पढ़ जाओ और मेरे विषयवस्तु से संबन्धित जो भी सामग्री मिले उस पर पेन्सिल से  निशान लगाकर  अलग कागज में पृष्ठसंख्या दर्ज कर देना. इससे तुम्हें भी लाभ होगा. तुम प्रतिभाशाली छात्र हो, अभी से तुम्हारी तैयारी हो जाएगी. आज का श्रम कल काम आएगा---तुम  जानते हो श्रम कभी बेकार नहीं जाता.” 

सर, मैं इस योग्य---.” 

तुम्हारी योग्यता मैं तुमसे अधिक जानता हूं.” 

वह चुप रहा था.  

यूनियन में तुम्हारी सक्रियता और पढ़ाई में प्रवीणता सदैव लाभप्रद होगें. यूनियन जहां प्रतिष्ठित लोगों  तक पहुंचाती है, अध्ययनशीलता उनके माध्यम से एक मंजिल तक पहुंचाती है. कुछ देर रुककर शुभंकर ने कहा, मेरा आभिप्राय समझ गए?” 

उसने सिर हिला दिया था. 

तुम्हारी इसी समझ के कारण मैंने तुम्हें जन सरोकार संगठन से जोड़ातुम्हें एक दिन बहुत आगे जाना है…” 

शुभंकर  की बातें सुनकर वह संकुचित हो उठा था.  

मेरा अनुमान है कि ये पुस्तकें जुलाई अंत से पहले शायद ही तुम समाप्त कर पाओगे।” 

कोशिश करूंगा सर! वह चाहता था कि उन पुस्तकों को वहीं पटक दे. वह समझ रहा था कि उसके द्वारा निर्देशित पृष्ठों का उपयोग करके शुभंकर अपना प्रोजेक्ट पूरा कर लेगा. उस क्षण उसके मन में आया था कि वह इंकार कर दे, सर, मेरे वश में नहीं इस नीरस विषय की पुस्तकें पढ़ना---.” लेकिन वह कह नहीं पाया था.  

ओ.के. नितिन---इन्हें समाप्त करके आना. इस दौरान मैं भी घर जाना चाहता हूं---रांची.” 

जी सर.” 

थैले में पुस्तकें संभाले वह बिनोवा भावे एन्क्लेव के  उस मकान से कुछ इस प्रकार सड़क की ओर बढ़ा था मानो कई मन बोझ उस पर लदा हुआ हो.

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वह इंडिया गेट के पास पहुंचा. वहां भी बड़ी मात्रा में प्रदर्शनकारी उपस्थित थे और इंडिया गेट से विजय चौक तक दोनों ओर हजारों की संख्या में पुलिसबल तैनात था. पानी के कई टैंकर खड़े थे. वह इंडिया गेट के पास प्रदर्शनकारियों के साथ खड़ा हो गया.  

वी वाण्ट---” 

जस्टिस.” 

अपराधियों को---” 

फांसी दो. नारे गूंज रह थे. 

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अगस्त के प्रथम सप्ताह में वह शुभंकर के यहां गया. दोपहर का समय था और उसके बस से उतरने से कुछ देर पहले हल्की बारिश हो चुकी थी. डामर की सड़क के दोनों ओर कच्ची जमीन से मिट्टी की सोंधी गंध उठ रही थी और सड़क के किनारे खड़े अमलतास के पेड़ हवा में झूम रह थे. 

उस दिन वह शुभंकर के मकान में फ्रंट गेट की ओर से न जाकर पीछे दरवाजे की ओर गया. उसने उधर से भी लोगों को आते-जाते देखा था. दोनों ओर के मकानों के बीच पीछे की ओर पन्द्रह फीट की गली थी, जो कंक्रीट की बनी हुई थी और उसके दोनों किनारों पर घास उगी हुई थी. मकान नम्बर एक सौ निन्यानवे कोने से तीसरा था. वह दरवाजे के पास पहुंचा ही था कि  अंदर से जोर से चीखता नारी-स्वर उसे सुनाई दिया, मुझे छोड़ दें बाबू---मुझे s..s…” घुटता-सिसकता नारी स्वर और उसके साथ भैंसे की भांति हांफने और घुड़घुड़ाने की आवाज. 

शायद मैं गलत मकान के पीछे पहुंच गया हूं नितिन दरवाजे पर नॉक करते हुए ठिठका और  कुछ कदम  पीछे चलकर उसने मकानों के दरवाजों की संख्या गिनी. 

यही है मकान नं. एक सौ निन्यानवे. वह पुनः दरवाजे के पास आ खड़ा हुआ. अंदर किसी के रोने की  आवाज तो थी लेकिन हांफने और घुड़घुड़ाने की नहीं.  

अम्मा को पुकारती किसी नारी के रोने की आवाज और बाबू शब्द नितिन के दिमाग को मथ रहे थे. यहां शुभंकर और सुप्रिया रहते हैं---फिर यह बाबू--- उसने क्षणभर सोचा और दरवाजा खटखटा दिया. यह संयोग था कि इधर उसने दरवाजा नॉक किया और उधर आंगननुमा बरामदे में किसी के दौड़ने और नारी के चीखने के साथ दरवाजा धड़ाम से खुला था. उसके सामने अस्तव्यस्त साड़ी और खून से लथपथ लगभग सोलह-सत्रह वर्ष की लड़की आ गिरी थी और पसीने से लथपथ निर्वस्त्र शुभंकर सामने खड़ा था. उसे देखते ही शुभंकर अंदर भागा और जब तक वह लड़की को उठाता शुभंकर कुर्ता-पायजामा में आ उपस्थित हुआ था. उसके हाथ में एक मोटा डंडा था.  लड़की को उठाने के लिए वह झुका ही था कि शुभंकर ने उसकी पीठ पर डंडे से इतना तेज प्रहार किया कि वह लड़की पर ही पसर गया. उसकी शर्ट पर खून के धब्बे लग गए. उसका बैग एक ओर छिटक गया जिसमें शुभंकर की दी हुई पुस्तकें थीं. शुभंकर उस पर दूसरा प्रहार करता उससे पहले ही वह उठा था, लेकिन पीठ पर लगी चोट के कारण उसमें शक्ति नहीं बची थी. तब भी शुभंकर उस पर दूसरा प्रहार करता उससे पहले ही उसने तेजी से धक्का देकर उसे गिरा दिया था. तभी उसे सूझा था—‘हर क्षण आपके लिए आपके साथ रहने का दावा करने वाली पुलिस को सूचित करना चाहिए और वह सड़क की ओर भागा था.

 सड़क पर पहुंच वह क्षण भर तक सोचता रहा. अधिक समय नष्ट करना उचित नहीं था. वह महरौली रोड पर आ गया और राष्ट्रीय शिक्षण संस्थान के सामने बिनावा भावे एन्क्लेव की ओर बनी एक पीसीओ दुकान से उसने 100 नम्बर पर फोन किया और तेजी से मकान नं. एक सौ निन्यानवे के सामने जा खड़ा हुआ. कुछ देर बाद ही पुलिस आ पहुंची. और जैसा कि होना था पीसीआर में आए पुलिसवालों ने मामला बिनोवा भावे एन्क्लेव पुलिस को सौंप दिया. बिनोवा भावे एन्क्लेव थाने की पुलिस उसे, शुभंकर  और उस लड़की, जिसे नौकरानी  के रूप में शुभंकर रांची से लेकर आया था, को थाने ले गयी. कुछ देर बाद सुप्रिया  थाने पहुंची. एस.एच.ओ. और सुप्रिया के बीच कुछ गुप्तगू हुई. कुछ देर बाद शुभंकर को छोड़ दिया गया. पुलिस ने उस लड़की को क्या कहा नितिन जान नहीं सका लेकिन उसने सहमी-सिकुड़ी लड़की को भी सुप्रिया के पीछे जाते हुए देखा था. जब उसने शुभंकर के विरुद्ध रपट दर्ज करने की बात कही, एस.एच.ओ. ने उसके जबड़े पर मुक्का जमाते हुए कहा था, सालेमादर---तूने उस लड़की की जिन्दगी बरबाद कर दी और चाहता है कि रपट उस शरीफ प्रोफेसर के खिलाफ दर्ज की जाए!

एस.एच.ओ. का मुक्का पड़ते ही वह मुंह पकड़कर जमीन पर बैठ गया था. लगा था कि वह बेहोश हो जाएगा.  होंठ फट गए थे और खून  निकलने लगा था. उसने अपने को संभाला था और चीखकर बोला था, उस लड़की के साथ शुभंकर ने बलात्कार किया और आप---.

एस.एच.ओ. एक सिपाही की ओर पलटा था, ले जा स्साले को और डाल दे पीछे डंडा---सच कबूल देगा. शर्ट में खून इसके लगा हुआ है और फंसा रहा है उस प्रोफेसर को---धी के---- और एस.एच.ओ. ने पुनः उसके मुंह पर घूंसा जमा दिया था. वह तिलमिलाकर जमीन पर बैठ गया था. उसके बाद रात भर उसे पुलिस की जो यातना झेलनी पड़ी थी उसे याद कर इंडिया गेट में खड़ा वह कांप उठा.

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सुबह तक वह इस योग्य न रहा था कि कुछ सोच सकता. उसे वही कहना-करना पड़ा था जो एस.एच.ओ. ने कहा था. नरायना में उसके फूफा रहते थे जिन्हें फोन करने की इजाजत पुलिस ने सुबह उसे दी थी. फूफा आए थे---उनके और एस.एच.ओ. के बीच क्या बात हुई फूफा ने उसे कभी नहीं बताया, लेकिन उसे छोड़ दिया गया था. कई दिनों बाद वह कॉलेज गया तो यूनियन के साथियों के चेहरे बदले हुए देखे थे. उस रात थाने में उसके बंद रहने और बंद रहने के कारण की वह कहानी कॉलेज में पहुंच चुकी थी जो शुभंकर ने उसके यूनियन के साथियों को बतायी थी. नितिन ने सच बताना चाहा था लेकिन वे सुनने को तैयार न थे.  

उसके बाद की कहानी बहुत छोटी थी. यूनियन के साथियों ने उसे अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने के लिए कहा था  और उसने दे दिया था.

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इंडिया गेट में युवाओं के गगनचुंबी नारे गूंज रहे थे. तभी उसने विजय चौक की ओर प्रदर्शनकारियों पर पानी की भीषण बौछार फेंकी जाते देखा. पुलिस आंसू गैस के गोले दागने लगी थी और प्रदर्शनकारियों को भगाने के लिए लाठियां भी भांज रही थी. उसने शुभंकर को सिर पर पैर रखकर भागते देखा. वह उसे देख ही रहा था कि उसे धकियाता  “वी वाण्ट---

जस्टिस के नारे लगाता युवाओं का रेला पीछे हटने लगा था.  पुलिस ने इंडिया गेट के प्रदर्शनकारियों पर भी लाठियां भांजना शुरू कर दिया था.

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