सोमवार, 4 जनवरी 2010

लघुकथाएं



फजल इमाम मल्लिक की तीन लघुकथाएं


पाबंदी


उस मोहल्ले में वह अकेली रह रहीं थीं। उनका इस तरह अकेले रहना लोगों को रास नहीं आ रहा था। खास कर जिस तरीके से वह रहती थीं। लोगों को उनके बेपरदा रहना...मर्दों के साथ घूमना-फिरना अच्छा नहीं लगता था। आखिर मजहब भी कोई चीज होती है और इस्लाम ने औरतों को परदे की हिदायत की है। मोहल्ले के लोगों ने इसकी शिकायत इमाम से की। लोगों का मानना था कि उनके रहन-सहन के तरीके से मोहल्ले की औरतों व लड़कियों पर बुरा प्रभाव पड़ेगा.......।


लोगों की शिकायत की वजह से उन्हें एक दिन इमाम की अदालत में पेश होना ही पड़ा। इमाम ने एक नजर उन पर डाली और फिर बताया कि लोगों को उनके रहन-सहन के तरीके पर एतराज है। इसके बाद इमाम साहब ने उन्हें इस्लाम में औरतों के परदे को लेकर एक लंबा भाषण दे डाला। वे सारी बातें धैर्य से सुनती रहीं। इमाम साहब अंत में जब उन्हें नसीहत देने लगे तो उन्होंने सवाल किया.....‘इस्लाम क्या सिर्फ औरतों को ही परदा के लिए कहता है....?’


इमाम साहब ने हां में जवाब दिया। उन्होंने इमाम साहब से फिर पूछा.....‘इस्लाम में महरम और नामहरम की बात भी कही गई है’।


इमाम साहब ने कहा...‘हां कही गई है’।


‘मैं आपके लिए महरम हूं या नामहरम’ इमाम साहब से उनका अगला सवाल था। इमाम साहब तिलमिला उठे पर धीरे से कहा....‘नामहरम’।


‘और यहां जो लोग खड़े हैं उनके लिए मैं महरम हूं या नामहरम .’ इमाम साहब ने उसी तरह तिलमिलाते हुए जवाब दिया....‘नामहरम’


‘जब मैं आपके लिए नामहरम हूं तो आपको और इन तमाम लोगों को मुझसे परदा करना चाहिए था। इस्लाम ने यह भी साफ कहा है कि मरदों को उन औरतों से परदा करना चाहिए जो महरम नहीं हैं। क्या आप और इन तमाम लोगों ने ऐसा किया। जिस मजहब की बुनियाद पर आप मुझे कठघरे में खड़ा कर रहे हैं उसी मजहब ने मरदों को भी परदा करने की हिदायत दे रखी है। इसलिए मुझसे सवाल-जवाब करने से पहले खुद से और इन तमाम लोगों से सवाल करें तो बेहतर होगा।’ फिर वे अपनी जगह से उठीं और बिना किसी से कुछ कहे वहां से निकल पड़ीं। इमाम साहब खामोश थे और मजमा शर्मिंदा।


सवेरा


उस अंधेरे कमेरे में बंद ढेर सारे बच्चों के चेहरे पर दहशत की लिखी इबारत साफ पढ़ी जा सकती थी। अलग-अलग हिस्सों से पकड़ कर उन्हें लाया गया था और इस अंधेरे कमरे में बंद कर दिया गया था। कमरे का ताला बंद करते हुए वह सोच रहा था कि इस बार अच्छा-खासा मुनाफा होगा। बच्चों की तादाद ज्यादा है। एक बच्चे पर उसे कितना मिलेगा वह दिन भर यही हिसाब जोड़ता रहा। सालों से वह इस धंधा में लगा हुआ है। बच्चों को चुराना और फिर उन्हें बेच देना उसका धंधा था......बस आज की रात बीतनी थी.....कल सुबह ग्राहक आएगा और वह बच्चों को उनके हवाले कर फिर से शिकार पर निकल जाएगा........यह सब सोचते-सोचते उसे नींद आ गई। नींद बहुत ही गहरी थी। पता नहीं कितनी देर तक वह सोता रहा। नींद खुली तो रात हो चुकी थी। उसने कमरे की तरफ देखा। ताला उसी तरह लगा था। उसे भूख लग रही थी। वह उठा और बाजार की तरफ निकल पड़ा। लौटते हुए अचानक उसके कदम ठिठक कर रुक गए। कोई मजहबी जलसा था। लोगों की भीड़ लगी थी। कोई मौलाना तकरीर कर रहे थे। वह भी भीड़ में शामिल हो गया। यह पहला मौका था जब वह इस तरह के किसी जलसे में बेमन से ही सही शरूक हुआ था। ले देकर ईद-बकरीद की नमाज। बस मजहब के नाम पर काम पूरा। पता नहीं मौलाना के शब्दों में क्या था कि वह तकरीर खत्म होने तक वहीं खड़ा रहा। लौटते हुए उसके कानों में मौलाना के शब्द गूंज रहे थे- ‘पैगंबर हजरत मोहम्मद ने किसी से भेदभाव नहीं किया। लोगों को गुलाम बनाए जाने के वे खिलाफ थे। उन्होंने हजरत बलाल हब्शी को गुलामी से निजात दिलाई। वे इंसानी रिश्तों में मोहब्बत के कायल थे। सबसे बड़ी बात यह है कि हम जो जिंदगी जी रहे हैं वह झूठ है, सच सिर्फ और सिर्फ मौत है। मरने के बाद हमें अपने कर्मों का हिसाब देना है। यह तय आपको करना है कि आप अपने साथ वहां क्या ले जाएंगे।’


बार-बार उसके सामने मौलाना के शब्द गूंज रहे थे। उसे लगा मौत उसके सामने खड़ी है और उसका हाथ खाली है। खुदा के यहां वह क्या लेकर जाएगा। बस यही एक लम्हा था जब रोशनी उसके अंदर फूटी और वह रास्ते में ही बैठ कर जार-जार रोने लगा। दिल पर जमा बरसों का मैल धुलने लगा। पता नहीं कितनी देर तक वह उसी तरह रोता रहा। आंसू थमे तो सारा मैल धुल चुका था। रात बीत चुकी थी। तेज-तेज कदमों से चलता हुआ वह कमरे पर पहुंचा। बच्चों के कमरे का ताला खोल कर बत्ती जलाई। देखा बच्चे नींद में डूबे हैं। उनके चेहरे पर फैली मासूमियत को देख कर वह फिर रोने लगा। देर तक रोता रहा। फिर अपनी जगह से उठा। बच्चों के हाथ-पांव में बंधी रस्सियां खोलीं। उनकी जेबों में कुछ रुपए रखे। बच्चे अब भी नींद में मदहोश थे। फिर वह उन्हें उसी हाल में छोड़ कर कमरे से निकल गया.....। रात ढल रही थी और रोशनी की मद्धिम-सी किरण धीरे-धीरे धरती पर फैल रही थी। दूर मस्जिद से फजिर की नमाज की अजान गूंजने लगी.....आज पहली बार उसके कदम मस्जिद की तरफ उठ रहे थे.....अब उसके अंदर...बहुत अंदर एक सकून फैला था....।


पनाह


मौलाना साहब कभी भी उस गली से होकर नहीं गुजरते। आखिर शहर की सबसे बदनाम गली थी और उनके जैसा परहेजगार आदमी उस गली की तरफ मुंह करना भी पसंद नहीं करेगा। वे लंबा रास्ता तय कर घर से मस्जिद आते-जाते। हालांकि इस रास्ते का इस्तेमाल कर के वे समय भी बचा सकते थे। लेकिन उन्होंने इस छोटे रास्ते से होकर घर जाने की बजाय बड़े रास्ते को ही तरजीह दिया। कितनी ही जल्दी क्यों न हो उन्होंने उस छोटे रास्ते का इस्तेमाल कभी नहीं किया। बरसों से यह उनका मामूल था..... एक रात अशां की नमाज पढ़ा कर घर लौट रहे थे। उन दिनों शहर का माहौल ठीक नहीं था। बात-बात पर लोग एक-दूसरे का गला काटने पर आमादा हो जाते थे। रात ज्यादा हो गई थी। पर वे मामूल के मुताबिक धीरे-धीरे कदम धरते हुए घर की तरफ लौट रहे थे। छोटे से रास्ते को छोड़ कर ज्यों ही वे बड़े रास्ते की तरफ मुड़े गली से बदहवास-सी दौड़ती एक लड़की को आते देख कर उनके कदम ठिठक गए.......लड़की ने भी उन्हें देख लिया था। वह तीर की तरह उनकी तरफ आई.....’मुझे बचा लें....’ वे कुछ बोल भी नहीं पाए थे कि गली से चार-पांच लड़के निकले। वे उस लड़की के पीछे आए थे। उन्हें देख कर ही लग रहा था कि उनके तेवर ठीक नहीं हैं......पर मौलाना साहब को देख कर लड़के भी दूर ही रुक गए.......मौलाना ने उन लड़कों को पहचान लिया.....वे उनके मोहल्ले के ही लड़के थे.....। मौलाना को माजरा समझते देर नहीं लगी......मौलाना के साथ खड़ी लड़की को देख कर लड़के पसोपेश में थे.....एक ने हिम्मत कर कहा ‘इसे हमारे हवाले कर दें।’

‘क्यों.....’ मौलाना ने पूछा।

‘इसे हलाल कर डालना है’। उसने फिर कहा।

‘लेकिन इसका कसूर क्या है ?’ मौलाना ने पूछा।

‘इसका कसूर----- यह हिंदू है’ इस बार दूसरे लड़के ने कहा।

‘तो क्या हुआ’ मौलाना ने बहुत शांत स्वर में कहा।

‘और मजहब में काफिरों को मारने की इजाजत है’ तीसरे ने बात को आगे बढ़ाई।

‘मजहब को बीच में मत ला।’ अचानक मौलाना की आवाज तेज हो गई.....उन्हें इस तरह गुस्सा करते हुए वे लड़के पहली बार देख रहे थे। ‘किस मजहब की बात करते हो.....मजहब ने इजाजत दी है....’मौलाना गुस्से से कांप रहे थे। ‘मजहब ने कभी भी औरतों, बच्चों और बूढ़ों को मारने की इजाजत नहीं दी है और बेकसूरों को मारने की तो उसने कभी भी इजाजत नहीं दी है। यह लड़की मेरी पनाह में है और इसकी तरफ हाथ क्या नजर भी उठाने की कोशिश की तो मैं तुम लोगों की आंखें निकाल लूंगा’। फिर वे लड़की से मुखातिब हुए ‘चलो बेटी, तुम्हें तुम्हारे घर तक छोड़ दूं।’


उसे साथ लेकर वे उस छोटे रास्ते से उस गली में दाखिल हो गए जहां अब तक उन्होंने पांव नहीं धरा था।

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जन्मः १९ जून, १९६४। बिहार के शेखपुरा जिले के चेवारा में।शिक्षाः बी.एस-सी, होटल मैनेजमेंट में पोस्ट ग्रेजुएट डिप्लोमा।
१९८६ में होटल प्रबंधन से किनारा कर पत्रकारिता के क्षेत्र में प्रवेश। दैनिक हिंदुस्तान में बतौर स्ट्रिंगर शुरुआत। फिलहाल जनसत्ता के दिल्ली संस्करण में वरिष्ठ उपसंपादक के पद पर कार्यरत। क़रीब दस साल तक खेल पत्रकारिता। दूरदर्शन के राष्ट्रीय चैनल के लिए फुटबॉल, बास्केटबॉल, एथलेटिक्स, टेनिस सहित दूसरे खेलों के सीधे प्रसारण की कॉमेंट्री।
साहित्यिक पत्रिका 'शृंखला' व 'सनद' का संपादन। सनद अब त्रैमासिक पत्रिका के रूप में दिल्ली से प्रकाशित। कविता संग्रह 'नवपल्लव' और लघुकथा संग्रह 'मुखौटों से परे' का संपादन।
अखिल भारतीय स्तर पर लघुकथा प्रतियोगिता में कई लघुकथाएँ पुरस्कृत।कहानी-कविताएँ देश के विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित व आकाशवाणी-दुरदर्शन से प्रसारित।पत्रकारिता के लिए स्व. रणधीर वर्मा स्मृति सम्मान, कवि रमण सम्मान व लघुकथा गौरव सम्मान (रायपुर) छत्तीसगढ़, खगड़िया (बिहार) में रामोदित साहु स्वर्ण सम्मान।

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