शुक्रवार, 17 जून 2011

कविताएं



वरिष्ठ कथाकार/कवि बलराम अग्रवाल की ग्यारह कविताएं



(एक)

दिल्ली में हनुमान

झीनी-झीनी-सी
शाम से ही
घेरने लगती है
दिल्ली के साँवले बदन को
चादर
सलेटी कोहरे की
और हो चुकी होती है अभेद्य
रात 10 बजने तक
रैन बसेरे की बदबूदार रजाई में
काली देह को लपेट
जैसे ही लेटता है
चला जाता है
आगोश में नींद की
हनुमान
लेकिन
छोड़ देता है उसे
सवेरे ठीक 6 बजे
बावजूद बेपनाह ठण्ड के
पास वाले नाले पर जाकर
अन्धेरे और कोहरे का फायदा उठते हुए
करता है हल्का खुद को
और धोता है मुँह-आँख
रैन बसेरे के बगल या सामने वाले
पेट्रोल पम्प के नल पर
नवाता है माथ
शाहदरा चौक वाले
बजरंगबली के चरणों में
और पीता है चाय
साथ फेन के
ठेले पर कलवा के
फिर जा खड़ा होता है
कबूल नगर चौराहे पर
ठिठुरता-काँपता
हड्डियों के अपने ढाँचे को
कमीज़ के ऊपर कमीज़
और जगह-जगह उधड़े
पूरी बाँह के एक ढीले-ढाले
स्वेटर से ढके हुए
लेकिन ठण्ड है कि
हिलाए जाती है बेहिसाब
उसके पंजर को
चौराहे से गुजरने वाले
हर खासो-आम को
ताकता है वह
इस हसरत से
कि—चली आ रही है
आज की दिहाड़ी उसकी ओर
लेकिन—बेकार
हिलते-काँपते उसके पंजर पर
नजर डाल
‘दिहाड़ी’
बढ़ जाती है आगे
समझ ही नहीं पाता हनुमान
कि लोगों को
चाहिए मजदूर
निपटाने को काम
या बकरा मोटा-ताज़ा
करने को हलाल
सिलसिला रोज़ का है ये
बावजूद इसके
परेशान हो उठता है हनुमान
अनायास ही
ठिठुरती हथेलियाँ उसकी
जुड़ जाती हैं याचक-सी
और
मुँद जाती है आँखें ध्यान मुद्रा में
घूम जाता है वह समूचा
रेलवे रोड के सामने वाले
जी॰ टी॰ रोड के हनुमान मन्दिर की ओर
मन-ही-मन बुदबुदाता हुआ कि—
अपने इस नामरासी पर
किरपा करो बजरंगबली
हो सके जितनी जल्द
भेज दो किसी भलेमानस को
समय कुछ और बीता तो
चौराहे पर लग जाएगा जमघट
मोटे-तगड़ों का
होकर मजदूर भी जो
लगेंगे गिड़गिड़ाने आगे दिहाड़ियों के
भिखमंगों की तरह
मारने लगेंगे लात साले
पेट पर एक-दूसरे के
जुगाड़ कर दो जल्दी महाबली
चार दाने
इस अन्धे कुएँ में डालने के साथ
रोज़-ब-रोज़
मुँह काला करना पड़ता है
रैन-बसेरे के मादर… ठेकेदार का भी
आप तो जानते ही हैं।
*
( दो)

गुलफ़ाम

खेती-किसानी से हारकर
ठेठ पूरब के अपने मुलुक से आकर
दिल्ली में चलाता है रिक्शा
गुलफाम
भारी-भरकम बस्तों वाले
हुड़दंगी बच्चों को
घर से स्कूल और स्कूल से घर
लाते-ले जाते
ढोते-ढोते
मोटी-मोटी लालाइनों
तोंदल पंजाबियों
सौदा-सुलफ की बोरियों समेत
जबरन लद बैठने और
दो रुपल्ली हथेली पर टिकाकर
दुकान में जा घुसने वाले
पंसारी-बाज़ार के नौकरों को
रात होने तक
टूट चुका होता है बदन उसका
इसलिए
खोली की ओर लौटते हुए
‘देसी’ का एक पाउच खरीदना
कभी नहीं भूलता है
गुलफाम
एक का दो और
दो का चार बनाने के लिए
लॉटरी टिकिट जैसी
धीमी तरकीब
उबाऊ लगती है उसे
इसलिए कभी-कभार
जुआ भी जरूर खेलता है
गुलफाम
प्याज और लहसुन
जैसे शाकाहार की तो बात ही क्या
छोटे और बड़े के
गोश्त तक से नहीं है गुरेज उसे
औरत को
माँ-बहन-बेटी ही
मानता हो
ऐसा भी नहीं है गुलफाम
दिलो-दिमाग में
कैसा-कैसा गलीच रिश्ता
नहीं बना डालता है
सड़क-चलती
बिन्दास सूरतों को देखकर
लेकिन
लम्पट नहीं है गुलफाम
जानता है करना इज्ज़त औरत की
बेग़ैरत नहीं है गुलफाम
चौकन्ना रहता है
बचाए रखने को इज्ज़त
अपने मुलुक की
ग़ैर-मुलुक में
यही वज़ह है
कि उसके रिक्शे में
बेखौफ़ बैठती हैं
भले घरों की
बहुएँ भी
बेटियाँ भी
बच्चों को अकेले ही
भेज देती हैं
घर से स्कूल सभी माँएँ
और सबसे बड़ी बात तो यह कि
उसकी जुबान
और
लंगोट पर
अपने बाप से भी ज्यादा
भरोसा करता है
रिक्शेवाला लाला।
***


(तीन)
रंग की
समानता पर न जाओ
कोशिश करो
तासीर को समझने की
सभी भगवाधारी
नहीं है साधु
और
लाल होते हुए भी/
आदमी की देह में
दौड़ते हुए भी/
सारा रक्त नहीं है समानतावादी
जंगली कुत्तों
खूँखार भेडियों
आदमखोर सामन्तों
और
भ्रान्त परिवारों में पलते
घृणा के लोथड़ों में
बहने वाला खून भी तो
आखिरकार
होता है
लाल ही
*
(चार)
प्रेम जब घनीभूत होता है
इच्छा जगाता है
एकाकार होने की
शरीर
जब एकाकार होते हैं
मर जाती है
अनुभूति प्रेम की
*
(पाँच)
प्रेम को
रखिए दूर शरीर से
भाव-मात्र है वह
नहीं है वस्तु
भौतिक स्पर्श की ।
*
(छ:)
करता था जिसे प्रेम
चाहता था पा लेना
कितनी बड़ी भूल थी यह
इसका तो पता चला
पा लेने के बाद उसे
सशरीर!
*
(सात)
मैं उसे घृणा करता हूँ
और महसूसता हूँ
कि मैं
दरअसल
प्रेम करता हूँ उसे।
***


(आठ)
हर रोज बरताते हुए भी
तीन चीजें
कभी भी नहीं होतीं खत्म
अम्मा की
पूजावाली जगह से—
गंगाजल
धूप
और…दियासलाई!
*
(नौ)
सारे घर में भी
जब
नहीं मिलता था कहीं
तब
रसोईघर में जाते थे हम
अम्मा ने
सम्हालकर रखे होते थे वहाँ
कई-कई
चाकू!
*
(दस)
बालाएँ
करती हैं—कैट-वॉक
रीढ़ को
बिल्ली-सी लोच में लहराने की
हो गईं हैं अभ्यस्त वे
पॉलिश पर न जाएँ
तो
यकीन मानें
नाखून भी बिल्ली से कम नुकीले
नहीं हैं उनके
फटाफट
पेड़ पर चढ़ सकती हैं वे
पहुँच सकती हैं
घोसलों, अंडों और चूजों तक
घोसलेवालियाँ
बहुत डरती हैं
बालाओं से
*
(11)

राक्षस को याद करती एक औरत

उस भव्य महल के भीतर पूरी शिद्दत के साथ
चीखती है एक औरत
हर रात।

मैं जानता हूँ—कौन है वह।
वह एक राजकुमारी है, वही—
जिसे टूटी-फूटी मेरी गुफा से
ले उड़ा था एक राजकुमार उस रात
भोजन की तलाश में जब
भटक रहा था मैं जंगल-जंगल
पता नहीं कैसे
दिला दिया उसने विश्वास उसे
कि भोजन की तलाश में भटकता आदमी
आदमी नहीं,
होता है राक्षस
और उसका मकान, मकान नहीं
होता है कैदखाना
पता नहीं कैसे
उसने प्रचारित भी कर दी यह कथा
कुछ इस तरह
कि हम भूखे-नंगों को
होने लगे महसूस दो-दो सींग अपने सिरों पर
और ऊपरी होंठ से बाहर निकल आये दो कीले
पता नहीं क्यों
सुनता नहीं है कोई भी
राजकुमारी का यह चिर-विलाप
कि नहीं चाहिए उसे
भव्य राजमहल और अघाया राजकुमार
निरीह बकरी-सी ही सही
वह हो जाना चाहती है कैद
उसी भूखे की कुटिया में
चाहती है वह प्रतीक्षारत रहना
कि भोजन की तलाश से निराश
वापस लौटा उसका मर्द
टूट पड़ेगा उस पर घर आते ही
चबा डालेगा उसकी बोटियाँ राक्षस की तरह
और अन्त में—
खाली हाथ घर वापस लौट आने की
अपनी सनातन विवशता पर
फफक उठेगा
फँसाकर अपना चेहरा उसकी छातियों के बीच।
***

परिचय : बलराम अग्रवाल

जन्म : 26 नवम्बर, 1952 को उत्तर प्रदेश(भारत) के जिला बुलन्दशहर में जन्म।
शिक्षा : एम ए (हिन्दी), अनुवाद में स्नातकोत्तर डिप्लोमा।
पुस्तकें : प्रकाशित पुस्तकों में कथा-संग्रह ‘सरसों के फूल’(1994), ‘ज़ुबैदा’(2004) तथा ‘चन्ना चरनदास’(2004)। बाल-कथा संग्रह ‘दूसरा भीम’(1997)। ‘अण्डमान व निकोबार की लोककथाएँ’ का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद व पुनर्लेखन(2000)। समग्र अध्ययन ‘उत्तराखण्ड’(2011),। ‘समकालीन हिन्दी लघुकथा : मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन’ (अप्रकाशित शोध)।
सम्पादन व अन्य : मलयालम की चर्चित लघुकथाएँ(1997), तेलुगु की मानक लघुकथाएँ(2010) तथा ‘प्रेमचंद और समकालीन लघुकथा’(आलोचना:2011)। प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, रवीन्द्रनाथ टैगोर, बालशौरि रेड्डी आदि वरिष्ठ कथाकारों की चर्चित कहानियों के लगभग 15 संकलन। ‘वर्तमान जनगाथा’ का तीन वर्षों तक प्रकाशन/संपादन। । ‘सहकार संचय’(जुलाई, 1997), ‘द्वीप लहरी’(अगस्त, 2001 व जनवरी, 2002), ‘आलेख संवाद’(जुलाई,2008) के लघुकथा-विशेषांकों का अतिथि संपादन। अनेक वर्षों तक हिन्दी-रंगमंच से जुड़ाव। कुछेक रंगमंचीय नाटकों हेतु गीत-लेखन भी।
संप्रति : लघुकथा ब्लॉग्स ‘जनगाथा’ (
http://jangatha.blogspot.com),
‘कथायात्रा’ (
http://kathayatra.blogspot.com) तथा
‘लघुकथा-वार्ता’ (
http://wwwlaghukatha-varta.blogspot.com)
का संपादन-संचालन।
संपर्क : एम-70, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032 (भारत)
मोबाइल:09968094431
ई-मेल: 2611ableram@gmail.com

नवाकुंर



तस्वीर


भानु प्रिया

आदमी मात्र नाटक भर है
जिसे अपने द्वारा अभिनीत कार्य ही
सुख दे पाते हैं चाहे क्षण भर के लिए ही सही
और संतुष्टी दे जाते हैं मृत्युपर्यंत
उसको लगता है कि इस तरह वह
दूसरों के लिए जाला बुनते हुए ,
उनके दिलों- दिमाग पर छा जाएगा .
उसके सपनों में गरीबी से जुड़े दर्शन जैसी बातें तो होती हैं.
तथा उसी दर्शन से वह,
अपने अन्दर संतुष्टी के महल खड़े करता रहता है
सोचता है कि इस तरह उसने कितने उपकार किये हैं मानव कल्याण हेतु .

जबकि उसका अहम् उसके अंतस में मात्र सडांध के कुछ नही होता
उसकी जिन्दगी भी इसीलिये कोई विशेष महत्त्व नही रख पाती है
तभी तो अगले ही क्षण वह एक तस्वीर बन जाता है
ठीक उसके स्वयं के बनाए सपनों जैसा.
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जन्म : २८ मार्च, १९९३ को सुल्तानपुर (उ.प्र.) मे.

वरिष्ठ कवि/कथाकार ताऊ अशोक आंद्रे से कविता की प्रेरणा मिली. घर में साहित्य का माहौल होने के कारण कई बार मन में कुछ तस्वीरें उभरने लगती हैं
शायद इसी कारण इस कविता का जन्म हो .सका
फिलहाल Company Secretary के साथ दिल्ली विश्वविद्यालय से बी.कॉम प्रथम वर्ष की तैयारी .