रविवार, 21 फ़रवरी 2010

गज़ल



यतीन्द्रनाथ राही की तीन गज़लें
(१)
महकते दिन

फिर उतर आए पलाशों इन दहकते दिन
वादियों की देह दुलराते थिरकते दिन .

हो गए गैं फिर हवाओं के चलन चंचल
छेड़ते गैं हर गली-आंगन बहकते दिन .

बांधकर पायल, फसल के पांव में रुन-झुन,
झुरमुटों में झूलते हैं , फिर कुहकते दिन .

शकुन आंगन, डाल पर फूटे नए पीके
बोलते हैं फिर मुंडेरी पर फुदकते दिन .

चढ़ रहे पीली उमर पर , रंग कुमकुम के
लग रहे अंगूर के आसव छलकते दिन .

हैं दिशाओं के पलक पर,मौंन आमंत्रण
प्यार के अनुबध लिखते हैं, महकते दिन .

*****


(२)

क्या कहें

पूछा तो आपने, भला हालात क्या कहें ?
गुज़रे हैं किस तरह से ये, लम्हात क्या कहें ?

तरसे हैं छटपटाए हैं, अलफा़ज के लिए,
मेरे घुटे घुटे से ये , जज़बात क्या कहें ?

अन्याय-झूठ-भ्रष्टता , छल -छद्म- नफरते ,
जो मिल रहे हैं रोज़, इनामात क्या कहें ?

भूखों के हाथों रोटियां, साबुत नहीं लगीं
बांटी गई लंगोटियों की, बात क्या कहें ?

लेने में सांस सत्य का,घुटने लगा है दम,
बिकते हुए ईमान की, औका़त क्या कहें ?

सब जल गया , ज़मीर-मोहब्बत-खुलूस-इल्म,
ऎसी हुई तेज़ाब की, बरसात क्या कहें ?

सूरज भी बिक चुका है, स्याह रात के हाथों,
हम कल सुबह के और, अलामात क्या कहें ?

आओ! कि एक बार तो, आईना देख लें ,
चेहरों पर पुती कालिखों की, बात क्या कहें ?

राही कही इंसानियत, हमको भुला न दे ,
कल पीढि़यां भोगेंगीं जो, आघात क्या कहें ?

*****

(३)

सौ जनम के लिए

सोचते हम रहे सौ जनम के लिए .
सांस में दम नहीं, दो कदम के लिए .

कंठ तक पंक में डूबने को खड़े,
हाथ ऊंचे हैं पूजा-धरम के लिए .

आदमी, आदमी है , कि चट्टान है,
शीश झुकता नहीं , शरम के लिए .

एक चेहरा गुनाहों का, घूंघट में है ,
एक चेहरा धरे हैं, भरम के लिए .

ज़िन्दगी का खुलापन, गज़ब हो गया,
अब न पर्दे रहे हैं, हरम के लिए .

आचरण, नीति-निष्ठा हुए बेदखल ,
अब बचा ही कहां कुछ, क्सम के लिए.

क्या सितम तख्त पर, आज शैतान है,
हाथ बांधे है आदम, करम के लिए .

****

परिचय

यतीन्द्रनाथ राही का जन्म ३१ दिसम्बर, १९२६ को भारौल, जिला मैंनपुरी (उ.प्र.) में हुआ था.
शिक्षा : एम.ए. बी-एड.
मध्य शिक्शा विभाग से सेवा निवृत्त.
सम्प्रति : स्वतंत्र लेखन .
प्रकाशित पुस्तकें : पुष्पांजलि , बांसुरी, दर्द पिछड़ी जि़न्दगी का, रेशमी अनुबन्ध, बाहों भर आकाश, महाप्राण (खंड काव्य).

संपर्क : ए-५४, रजत विहार, होशगांबाद रोड, भोपाल-२६

मोबाईल : ०९६८५३४१०२०
०९९९३५०११११

गुरुवार, 11 फ़रवरी 2010

पुस्तक चर्चा




‘दक्षिण भारत के पर्यटन स्थल’ पर एक पाठक के पत्र के बहाने
रचनाकार को पाठकों पर ही भरोसा करना चाहिए
मैंने अनेक वरिष्ठ और समकालीन साहित्यकारों से आलोचना और समीक्षा को लेकर जब चर्चा की तब सभी ने इनकी दयनीय स्थिति और व्याप्त राजनीति पर चिन्ता व्यक्त की । स्व॰ कमलेश्वर जी ने उत्तेजित स्वर में कहा था - ‘‘आज आलोचना है ही कहां ?’’ उन्होंने यह भी कहा था कि पाठकों से बड़ा कोई आलोचक नहीं होता । महान रूसी लेख लियो तोल्स्तोय ने भी अपने एक मित्र से चर्चा के समय कहा था कि किसी भी लेखक को आलोचको की परवाह न करते हुए उसे अपने पाठकों पर ही भरोसा करना चाहिए ।
उपरोक्त विद्वानों की बातों को जब मैं अपनी पुस्तकों के संदर्भ में देखता हूं तब पाता हूं कि पाठक की ईमानदार प्रतिक्रिया पर शक की कोई गुजांइश नहीं होती । 12 मार्च 1999 को मेरे उपन्यास ‘ पाथरटीला ’ पर प्रकाशक की ओर से संगोष्ठी का आयोजन किया गया । अध्यक्ष वरिष्ठ कथाकार राजेन्द्र यादव और मुख्य अतिथि वरिष्ठ आलोचक मैनेजर पाण्डेय थे । वक्ताओं में पंकज बिष्ट ,डा॰ कुमुद शर्मा , डा॰ ज्योतिश जोशी , महेश दर्पण , रमेश उपाध्याय , रामशरण जोशी , मैत्रेयी पुष्पा और हीरालाल नागर थे ।
प्रथम वक्ता के रूप में कथाकार मैत्रेयी पुष्पा ने कहना प्रारंभ किया , ‘‘ मैंने राजेन्द्र जी से पूछा कि आपने कहा था कि पाथरटीला में गांव है ..... कहां है गांव........? मुझे तो उसमें कहीं गांव नजर ही नहीं आया ......... ’’ अपने लंबे वक्तव्य में मैत्रेयी जी यही सिद्ध करने का प्रयास करती रहीं कि ‘पाथरटीला ’ में गांव नामकी की कोई चीज नहीं है अर्थात उनके अनुसार उसमें ग्राम्य जीवन चित्रित ही नहीं हुआ । यहां यह बता देना अनुचित न होगा कि मैंने उसके बाद भी कई बार मैत्रेयी पुष्पा को वक्तव्य देते सुना और हर बार उनके वक्तव्य का प्रारंभ राजेन्द्र यादव जी का उल्लेख करते हुए ही हुआ । शायद राजेन्द्र जी का नामोल्लेख उन्हें बल देता होगा । मनोविज्ञान की भाषा में इसे शायद एक साहित्यकार के अंदर जमी असुरक्षा का भाव ही कहेगें । ‘पाथरटीला’ की वास्तविकता यह है कि उसमें गांव के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है । बाद के वक्ताओं ने इसे सिद्ध भी किया । मैत्रेयी जी की पीड़ा मैं समझ रहा था । ‘अहम सर्वोपरि ’ से ऐसे कुतर्कों का जन्म होता है । गांव क्या होता है इसे मेरी तरह गांव से जुड़कर ही जाना जा सकता है वर्ना वातानुकूलित घर में बैठकर लोग नकली गांव की ही सर्जना कर रहे हैं और अपने जोड़-जुगाड़ से चर्चा भी बटोर रहे हैं । मैत्रेयी जी ने जो कुछ कहा वह वही था जिसे हिन्दी की सड़ी राजनीति के रूप में हम जानते हैं । मेरे उपन्यास से केवल वही परेशान थीं ऐसा नहीं था । वे भी थे जिनके लिए मैंने दूसरों से बुराई ली थी और वे भी थे जो अपने पहले उपन्यास से अपने को हिन्दी का रांगेय राघव मानने लगे थे । उनमें से एक युवा उपन्यासकार भी थे जिनका पहला उपन्यास प्रकाशित हुआ था । यद्यपि उनका उपन्यास कम चर्चित नहीं रहा था लेकिन मेरे और उपन्यास के खिलाफ उन्होंने असफल कुत्सित षडयंत्र किए । मेरे प्रकाशक श्री जगदीश भारद्वाज ने कहा , ‘‘ आपको परेशान नहीं होना चाहिए । यह उसकी परेशानी है क्योंकि उसे अपने शब्दों पर विश्वास नहीं है । आपको प्रसन्न होना चाहिए क्योंकि आपके उपन्यास ने उसकी नींद हराम कर रखी है ......।’’

इस सबके बावजूद पाठकों ने ‘पाथरटीला’ को इस प्रकार सिर-माथे लिया कि यह उपन्यास मेरे नाम का पर्याय बन गया ।

उपरोक्त बातें मेरी पुस्तक ‘ दक्षिण भारत के पर्यटन स्थल ’ पर प्राप्त एक पाठकीय पत्र ने लिखने के लिए मुझे विवश किया । इस पुस्तक के विषय में यह बताना उचित लग रहा है कि इसका प्रथम संस्करण 2000 में और चौथा 2009 में प्रकाशित हुआ । यह मेरी एक ऐसी पुस्तक है जिसे प्रकाशनोपरांत कभी किसी पत्र-पत्रिका में समीक्षार्थ प्रस्तुत नहीं किया गया । यह यात्रा संस्मरणों की पुस्तक है जिसका शीर्कष मैंने - ‘ सागर के आसपास ’ रखा था लेकिन प्रकाशक ने विशेष अनुरोध के बाद व्यावसायिक कारणों से इसका शीर्षक बदल लिया । निश्चित ही उसे इसका लाभ भी मिला और मुझे अप्रत्याशित पाठक मिले । इसे पढ़कर अयोध्या से बद्रीनाथ उपाध्याय ने मुझे जो पत्र लिखा उसे मैं रचना समय के मित्रों को पढ़वाने के उद्देश्य से ज्यों का त्यों यहां प्रस्तुत कर रहा हूं ।

प्रसंगतः यहां ऐसी ही एक घटना का उल्लेख अनुचित न होगा । यह बात 2000 की है । विवरण लंबा है । केवल इतना ही कि जालना (महाराष्ट्र ) के एक महाविद्यालय में हिन्दी प्राध्यापक कमलेश ठाकुर ( अब डाक्टर ) ने हैदराबाद में ,जहां के वह मूलतः निवासी हैं , मेरा कहानी संग्रह ‘आखिरी खत’ पढ़ा और निर्णय किया कि वह मेरे साहित्य पर पी-एच.डी. करेंगें और उन्होंने वह किया । ये उदाहरण तोल्स्तोय और कमलेश्वर की बातों को सही सिद्ध करने के लिए पर्याप्त हैं और ऎसी घटनाओं ने सदैव अपने पाठकों के प्रति मेरे विश्वास को मजबूत किया है ।

प्रस्तुत है बद्रीनाथ उपाध्याय का पत्र जो कल ही मुझे प्राप्त हुआ है । पत्र में लेखक तिथि का उल्लेख करना भूल गये हैं ।

’दक्षिण भारत के पर्यटन स्थल’
नीलकंठ प्रकाशन
१/१०७९ ई महरौली; नई दिल्ली-११००३०
मूल्य : २००/- पृष्ठ - १८७

आदरणीय परम श्रध्येय रूप सिंह जी चन्देल ,

सादर प्रणाम ।
सर्वप्रथम मैं आपको अपनी तरफ से ‘‘ दक्षिण भारत के दर्शनीय (पर्यटन ) स्थल ’’ ऐसी अद्वितीय पुस्तक लिखने के लिये कोटिशः धन्यवाद देता हूं तथा विद्यादायिनी मां सरस्वती से यह प्रार्थना करता हूं कि वह आपकी लेखनी को और जन कल्याण की ओर लिखने में सहायता प्रदान करे ।

मैंने आपकी यह पुस्तक जिला पुस्तकालय से लाकर पढ़ी है । हजारों पुस्तकों के बीच में से मैंने आपकी यह पुस्तक पढ़ने को चुनी । उस समय मैंने यह सोचा था कि इस पुस्तक में दक्षिण भारत के मंदिरों के बारे में जिक्र होगा । परन्तु जब मैंने पुस्तक पढ़नी शुरू की तो आपके द्वारा अपने परिवार की मनःस्थिति एवं व्यक्तियों के विचारों को शब्दरूप में लिखने की शैली को देखकर मैं आश्चर्यचकित रह गया । आपने शुरूआत के दो-तीन खण्डों में जिस प्रकार रेलवे में व्याप्त अव्यवस्था का जिक्र किया उसकी तारीफ मैं शब्दों से नहीं कर सकता । मैं तो शुरू में समझ ही नहीं पाया कि आप दक्षिण भारत के बारे में लिखने जा रहे हैं या ट्रेन की यात्रा के सम्बद्ध में ।

परन्तु धीरे-धीरे मैं जैसे-जैसे आपकी यात्रा के बारे में आगे पढ़ने लगा तो जैसे मैं उसमें डूब गया । मुझे ऐसा लगने लगा कि मैं भी अपरोक्ष रूप से आपके परिवार के साथ दक्षिण भारत की यात्रा कर रहा हूं । मुझे भी देशाटन का बहुत शौक है । प्रकृति के बीच में अपने आप को पाकर मुझे बहुत खुशी होती है । आपकी यह पुस्तक पढ़कर मुझे केरल जाने की बहुत इच्छा है । देखिये प्रभु मेरी यह इच्छा कब पूरी करता है ।

मैं विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूं , एक साफ्टवेयर इंजीनियर भी हूं । साथ ही साथ उत्तर प्रदेश सरकार के अंतर्गत राजस्व विभाग में कार्य कर रहा हूं । मुझे पुस्तकों के पढ़ने का शौक हैं । नयी चुनौतियों को स्वीकार करने में मुझे खुशी होती है । यह मेरा स्वयं का परिचय है ।

आपने पुस्तक में इतना सब कुछ लिख दिया है कि एक आम आदमी अब दक्षिण भारत के उन स्थलों की आसानी से बिना गाइड के ही यात्रा कर सकता है । आपने जितने सुन्दर शब्दों का प्रयोग किया है उसे देखकर एक बार आपसे मिलने की प्रबल इच्छा हो रही है । मैं चाहता हूं कि एक बार आप भगवान राम की नगरी अयोध्या में जरूर आयें और यहां के बारे में भी लिखकर आम आदमी को भगवान राम की पवित्र नगरी के बारे में अवश्य बतायें । आपके शब्दों का जादू श्रद्धालुओं को काफी सहयोग प्रदान करेगा एवं उनके अन्दर अयोध्या आने की प्रेरणा देगा । मैं अयोध्या का रहने वाला हूं । आपको अपने स्तर से सभी सुविधा देने का प्रयास करूंगा । आप सपरिवार अयोध्या पधारने की कृपा करें । यहां मैं आपका स्वागत करूंगा ।

बस मुझे आपकी किताब में केवल केरल के एक बीच को बताते समय कुछ ऐसे शब्दों का प्रयोग मिला जिसको यदि आप नहीं करते तो मेरे अपने अनुसार शायद और उचित होता ।
अंत में , मैं आपको इतनी अच्छी यात्रा वृत्तांत लिखने के लिये धन्यवाद देता हूं । आपकी अन्य किताबें मैं खोजकर अवश्य पढ़ूंगा । मैं कोई साहित्य का आदमी नहीं हूं । यह मेरी टूटे-फूटे शब्दों में भावना मात्र है । आशा है आप मेरी गल्तियों को अपनी महानता का परिचय देकर माफ कर देगें ।
धन्यवाद ।
भवदीय
ह॰/-
बद्रीनाथ उपाध्याय रानोपाली (पुलिस चौकी के पास)अयोध्या फैजाबाद (उ0प्र0 ) - 224123मे0 09450775146

मंगलवार, 2 फ़रवरी 2010

पुस्तक चर्चा

वरिष्ठ कथाकार हृदयेश के सद्यः प्रकाशित उपन्यास ‘संगत’ मे दो उपन्यास शामिल हैं - ‘सांड़’ और ‘दंडनायक’ । सांड़ उपन्यास के केन्द्र में हमारी शिक्षा व्यवस्था है । प्रस्तुत उपन्यास विस्तृत फलक पर शिक्षण जगत की अराजक और आतंकी गतिविधियों का लेखा-जोखा है । उपन्यास में यह भी चित्रित किया गया है कि बेहद सामान्य से दीखने वाले उत्पीडि़त लोगों में से कुछ ऐसे जन भी निकल आते हैं जो इस स्थिति का सक्रिय प्रतिवाद करने को उठ खड़े होते हैं । शुरू में वे अपने प्रतिरोध में अकेले होते हैं , सुबह की धूप के छितरे हुए टुकड़ों की मानिंद , लेकिन जल्द ही वे सब मिलकर गर्म धूप का सैलाब बन जाते हैं और उस सैलाब के दबाव के आगे भ्रष्ट-तंत्र व नौकरशाही को झुकना पड़ता है ।


दंडनायक उपन्यास में स्वतंत्र भारत की मानव-विरोधी व्यवस्था की चक्की में पिस गए एक ऐसे व्यक्ति की व्यथा-कथा चित्रित है जो अपने देश की आजादी के लिए फांसी पर चढ़े एक क्रांतिकारी ( शहीद रोशन सिंह) की तीसरी पीढ़ी में पैदा हुआ था । यह उपन्यास उन अनेक प्रश्नों को उठाता है जो वर्तमान जन-मानस को बराबर परेशान किए हुए हैं । क्या आज के हिन्दुस्तान की तस्वीर वही है जो क्रान्तिकारियों के दिलो-दिमाग में थी और जिसके लिए उन्होंने भरी जवानी में फांसी के फंदे को चूमा था ?


दोनों ही उपन्यासों में अलग-अलग विषय-वस्तु होकर भी मानव-विरोधी व्यवस्था से भिड़ने -जूझने का संकल्प और साथ ही उस दिशा में भरसक प्रयास किया है ।


‘संगत’ - हृदयेश
पृष्ठ - 414 मूल्य : 450/-

भावना प्रकाशन109 ए ,

पटपड़गंज , दिल्ली - 110091

वरिष्ठ कथाकार बलराम हिन्दी के उन लब्धप्रतिष्ठ कथाकारों में हैं जिहोंने पत्रकारिता के साथ अपनी सृजन क्षमता को अक्ष्क्षुण रखा है । ‘कलम हुए हाथ’ और ‘मालिक के मित्र’ जैसी महत्वपूर्ण कहानियां लिखने वाले बलराम का सद्यः प्रकाशित कहानी संग्रह है - ‘गोवा में तुम’ , जिसमें शीर्षक कहानी के अतिरिक्त सोलह अन्य कहानियां सम्मिलित हैं । संग्रह की यद्यपि सभी कहानियां पठनीय हैं , लेकिन गोवा में तुम , शुभ दिन , मालिक के मित्र , सामना , इतना खटराग , समर्पण गाथा , उनके फतवे कहानियां लेखक की चमत्कारिक भाषा , शिल्प और कथानक का उललेखनीय उदाहरण प्रस्तुत करती हैं
प्रकाशक - वही

पृष्ठ- 135 , मूल्य - 150/-