बुधवार, 31 दिसंबर 2008

आलेख






शहीदों की लाशों पर वोटों की राजनीति
रूपसिंह चन्देल

महाराष्ट्र के आई.पी.एस. अधिकारी हेमंत करकरे की २६.११.०८ को मुम्बई आतंकवादी हमलों में हुई मृत्यु पर प्रश्न चिन्ह लगाकर उसे मालेगांव विस्फोट से जोड़ते हुए उसकी जांच की मांग करने वाले केन्द्रीय मंत्री ए.आर.अंतुले ने जो विवाद उत्पन्न किया उससे न केवल कांग्रेस संकट में घिर गयी बल्कि उससे पाकिस्तान को एक ऎसा हथियार उपलब्ध हो गया जिसका उपयोग उसने अपने ऊपर लगे आरोपों से दुनिया का ध्यान हटाने के लिए करना प्रारंभ कर दिया. लाहौर बम विस्फोट के लिए उसने भारत को जिम्मेदार ठहराते हुए कोलकता निवासी एक युवक को गिरफ्तार करने का दावा करते हुए यहां तक कह दिया कि भारत की धरती पर आतंकवादी प्रशिक्षण शिविर हैं जिन्हें भारत नष्ट करे. ऎसा उसने पहली बार किया था और ऎसा मान्यवर अंतुले जी के वक्तव्य के बाद कहा गया. लेकिन पकिस्तानी झूठ का पर्दाफाश एक तालिबानी संगठन ने लाहौर बम विस्फोट की जिम्मेदारी लेकर कर दिया.

अंतुले साहब ने ऎसा क्यों कहा, इसका विश्लेषण कठिन नहीं है. इसका सीधा संबन्ध वोट बैंक से है. लेकिन ऎसा कहते समय वह यह कैसे भूल गये कि मारे गये पाकिस्तानी आतंकवादियों को मुम्बई में दफनाये न दिये जाने का निर्णय वहां के धार्मिक नेताओं ने किया था . यही नहीं जिस प्रकार से देश के लगभग सभी मुस्लिम संगठनों ने इस हमले की भर्त्सना की वह न केवल पहली बार था बल्कि प्रशंसनीय था. अंतुले जी के साथ कुछ मुस्लिम नेता अवश्य खड़े दिखे लेकिन उनकी संख्या नगण्य थी. अंतुले जी कितने ही बड़े नेता क्यों न हों, लेकिन वह संपूर्ण देश के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व नहीं करते . वक्त्व्य देते समय उन्होंने उस पर होने वाली तीखी प्रतिक्रिया और अपनी फजीहत का अनुमान नहीं लगाया होगा. इस प्रकरण में कुछ कम्युनि्स्ट नेता अंतुले के साथ खड़े दिखाई दिये. संभव है किसी वरिष्ठ कांग्रेसी नेता की शह भी रही हो उन्हें . इस अनुमान को खारिज भले न किया जाये, लेकिन अंतुले जैसा वरिष्ठ नेता किसी के बहकावे में ऎसा आत्मघाती बयान देगा इस पर सहज विश्वास नहीं होता. दरअसल यह अंतुले जी की निजी सोच और वोट की राजनीति का ही परिणाम था. वह इतने भोले नहीं कि अपने वक्तव्य के भावी परिणाम से अनभिज्ञ थे. वह निश्चित ही जानते थे कि वह पाकिस्तान को हथियार थमाने जा रहे हैं.
हमारे देश के अधिकांश राजनीतिज्ञों के लिए देश से अधिक महत्वपूर्ण उनकी सीट है. सीट के लिए वे कुछ भी कर गुजरने में शर्म अनुभव नहीं करते.ये धर्मनिरपेक्षता का पाखण्ड करते हुए धार्मिक सद्भाव बिगाड़ने में सबसे आगे होते हैं. बांटो और शासन करो की नीति इन्हें विरासत में मिली है.

मुम्बई में हुए आतंकवादी हमले में शहीद हुए लोगों की लाशों पर इन अवसरवादी राजनीतिज्ञों ने पहली बार अपने वोटों की राजनीति नहीं की, दिल्ली के बाटला हाउस में शहीद हुए मोहन चन्द शर्मा को लेकर कई नेताओं ने ऎसी ही राजनीति की थी. उनके नाम पुनः यहां दोहराने की आवश्यकता नहीं, लेकिन इतना कहना आवश्यक लग रहा है कि तब भी हमारे कम्युनिस्ट नेताओं ने उन छद्म धर्मनिरपेक्षों के स्वर में स्वर मिलाते हुए बाटला हाउस मुठभेड़ की सी.बी.आई. जांच की मांग की थी. कम्युनिस्ट नेताओं की समझ और उनके देश हित सम्बन्धी सोच को इस बात से ही समझा जा सकता है कि कांग्रेस से समर्थन वापस लेने के बाद खिसियानी बिल्ली खंभा नोंचने वाले तर्ज पर उन्होनें मायावती को देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में प्रस्तुत करना प्रारभ कर दिया था. अब वे जयललिता की ओर उन्मुख हैं. ये दोनों महिला नेता भष्टाचार में आकंठ डूबी हुई हैं यह सभी जानते हैं और वे भी यह जानते हैं. उनके दयनीय आचरण, बौद्धिक दिवालियेपन और अवसरवादी राजनीति को जनता नहीं समझती यदि वे ऎसा मानते हैं तो यह उनका दुर्भाग्यपूर्ण भ्रम ही कहा जायेगा.

लेकिन मुम्बई हमले को कुछ बुद्धिजीवी भी अंतुले साहब की नजरों से ही देख रहे हैं. हाल ही में अरुन्धती राय का वक्तव्य आश्चर्यजनक था. लेखक को एक संवेदनशील प्राणी माना जाता है. उन्होंने कहा था कि मुम्बई हमला कश्मीर, गुजरात और बाबरी मस्जिद विध्वंस की प्रतिक्रिया था. सुश्री राय का वक्तव्य चौंकाता है. 'बाटला हाउस' को लेकर भी उन्होंने संदेह व्यक्त किया था. हिन्दी के कुछ लेखकों ने भी बाटला हाउस मुठभेड़ को फेक कहा था और कहा था कि मोहनचन्द शर्मा को दिल्ली पुलिसवलों ने ही गोली मारी थी और कि मारे गये या पकड़े गये युवक निर्दोष थे. अरुधंती राय ने कश्मीर में अमरनाथ भूमि विवाद के दौरान अलगाववादियों के पक्ष में बयान देते हुए कहा था, " भारत को कश्मीर को मुक्त कर देना चाहिए ----- इससे भारत स्वयं उस समस्या से मुक्त हो जायेगा." सुश्री राय से पूछा जाना चाहिए कि कश्मीर को मुक्त कर देने के बाद क्या भारत आंतकवादी हमलों से पूर्णरूप से मुक्त हो जाएगा और क्या वह यह मानती हैं कि भारत ने कश्मीर पर अवैध कब्जा कर रखा है . उनके इस वक्तव्य से ध्वनि तो यही निकलती है. लोकतंत्र में किसी को कुछ भी कहने का अधिकार है --- यह तो कहनेवाले को सोचना चाहिए कि वह कोई ऎसी बात न कहे जिससे देशद्रोह की गंध आती हो. जहां तक मैं समझता हूं अरुन्धती राय शायद ही कभी सक्रिय राजनीति में आयेंगी , अतः उन्हें अंतुले जैसे नेताओं की भांति नहीं बोलना चाहिए. गैरजिम्मेदार बयान देना और मुकर जाना अधिकांश नेताओं की विशेषता है, जिनके सरोकार केवल और केवल निजी होते हैं , लेकिन लेखक ------ उसे देश और समाज के प्रति बेहद जिम्मेदार होना चाहिए.

शुक्रवार, 5 दिसंबर 2008

संस्मरण





चित्र : डॉ० अवधेश मिश्र





हिन्दी बालसाहित्य और कानपुर के गौरव पुरुष

* रूपसिंह चन्देल

१९७८ कानपुर विश्वविद्यालय में मेरा पंजीकरण स्व० प्रतापनारायण श्रीवास्तव के 'व्यक्तित्व और कृतित्व' पर शोध करने के लिए हुआ. उन दिनों कानपुर वि०वि० केवल दिवगंत साहित्यकारों पर ही शोध की अनुमति देता था. लेकिन जब से हिन्दी साहित्यकार स्वास्थ्य के प्रति अधिक जागरूक हुए----- पचहत्तर पार कर भी कुलांचे भरते दिखने लगे, विश्वविद्यालय को अपने नियम बदलने पड़े और अब वहां दो-चार किताबधारियों पर भी शोध की अनुमति दी जाने लगी है.

प्रतापनारायण श्रीवास्तव पुरानी पीढ़ी की परम्परा मानने वाले उन लेखकों में थे जो अपने विषय में कुछ भी लिखना उचित नहीं मानते थे. उनके परिवार में उनकी एक दत्तक पुत्री थी, जिसकी शैक्षणिक योग्यता नहीं के बराबर थी. श्रीवास्तव जी ने १९२७ में लखनऊ विश्वविद्यालय से लॉ की उपाधि लेने के पश्चात तत्कालीन जोधपुर राज्य में बीस वर्षों तक ज्यूडिशियल मजिस्ट्रेट के रूप में कार्य किया था. इतने विद्वान व्यक्ति की दत्तक पुत्री का लगभग अपढ़ रहना आश्चर्यजनक था. मुझे उनके व्यक्तित्व पर कार्य करते हुए समस्याओं का सामना करना पड़ रहा था. उनकी बेटी कुछ बता नहीं पा रही थी, श्रीवास्तव जी ने अपने विषय में कहीं कुछ लिखा नहीं था और रिश्तेदर कोई था नहीं. मैं उन दिनों आर्डनैंस फैक्ट्री मुरादनगर (तब मेरठ - अब गाजियाबाद) में नियुक्त था. डेढ़-दो महीने में तीन-चार दिन का अवकाश लेकर कानपुर जाता. श्रीवास्तव जी के परिचितों-मित्रों से संपर्क करने-मिलने का प्रयत्न करता. उनकी बेटी के माध्यम से मेरा परिचय गीतकार श्याम निगम से हुआ. श्याम जी एक विद्यालय में प्राइमरी अध्यापक थे--- शायद किसी सरस्वती शिशु मंदिर में. गहरे सांवले रंग के सुघड़, छरहरे बदन के श्याम निगम सदैव सफेद कुर्ता-पायजामा में रहते उनके चेहरे पर सदैव चिन्ता की रेखाएं उभरी रहतीं. कारण--- छोटी-सी नौकरी और बड़ा परिवार. किराये के एक कमरे में सिमटी गृहस्थी. गृहस्थी के नाम पर न के बराबर सामान. लेकिन थे बेढब कवि-हृदय . शादी से पहले किसी से प्रेम किया था. प्रेम पत्रों का आदान-प्रदान हुआ. प्रेमिका के पत्रों को सुरक्षित रखा. शादी के बाद भी उसे भूल न पाये थे. एक बार प्रेम कविता की प्रसव-पीड़ा ने उन्हें बेचैन किया, लेकिन कविता इतनी चंचला कि प्रकट होने का नाम नहीं ले रही थी. कई दिनों की तड़पन के बाद उसे जन्माने का एक नायाब उपाय उन्होंने खोज निकाला. प्रेमिका के पत्रों पर दस बूंद मिट्टी का तेल छिड़का और उन्हें आग लगा दी. पत्र आधे अधूरे जल गये. टुकड़े सहेजे और कविता लिखने का प्रयत्न किया. कमाल ----- कविता प्रकटी---- एक नहीं कई प्रेम गीत लिखे उन्होंने, लेकिन उन्हें खेद था कि एक को छोड़कर शेष कहीं नहीं छपे. कई पत्रिकाओं में भेजे लेकिन, उनके अनुसार दिल्ली के एक सम्पादक को छोड़कर शायद शेष सभी ने प्रेम को तिलाजंलि दे दी थी. श्याम जी ने बड़े चाव से वे गीत मुझे सुनाये थे और मेरी उबासियों की ओर उन्होंने ध्यान नहीं दिया था. वे गीत उन्होंने बच्चन जी को प्रतिक्रिया जानने के लिए भेजे थे, जिसपर उन्हें बच्चन जी की निराशाजनक प्रतिक्रिया मिली थी.
प्रतापनारयण श्रीवास्तव के जीवन सबंधी सामग्री एकत्रित करने के सिलसिले में उनके कई परिचितों से मेरी मुलाकात श्याम जी निगम के माध्यम से हुई थी. एक दिन कुछ याद करते हुए वह बोले, "रूप जी, आज मैं आपको एक ऎसे व्यक्ति से मिलवाना चाहता हूं, जिन्होंने श्रीवास्तव जी पर कुछ काम किया था."

"अब तक आपने क्यों नहीं मिलवाया ?"

"याद नहीं आया था----- लेकिन उससे क्या ---आज मिलवा देता हूं----."

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जाड़े के दिन और शाम का वक्त. शायद दिसम्बर (१९७९) का महीना था. अशोक नगर होते हुए हम रामकृष्ण नगर पहुंचे . एक ऊंचा-बड़ा पुराने ढब का मकान. मकान नं० - १०९/३०९.. सीढ़ियां चढ़कर एक कमरे में दाखिल हुए. निश्चित ही उसे बैठक के रूप में बनाया गया होगा, लेकिन वह बैठक कम-दफ्तर अधिक प्रतीत हुआ. उस कमरे से सटा उतना ही बड़ा एक और कमरा था, जो नीम अंधेरे में डूबा हुआ था. कमरे में एक कोने में एक तख्त पड़ा था, जिसपर एक सज्जन पायजामा कुर्ता पर ऊनी जैकट पहने प्रूफ पढ़ रहे थे. उम्र लगभग पैंतालीस वर्ष, मध्यम कद, चौड़ा शरीर, बड़ा मुंह और मुंह में पान. श्याम जी निगम ने परिचय करवाया . ये थे डॉ० राष्ट्रबन्धु. आने का उद्देश्य जान वे बोले, "मैंने श्रीवास्तव जी पर लघु शोध प्रबंध लिखा था एम०फिल० के लिए."

"पढ़ने के लिए देंगे डॉक्टर साहब?"

"कल आकर ले जायें. जब तक आपका कार्य पूरा न हो जाये---- अपने पास रखें."

'पहले परिचय में इतनी उदारता. ' मैंने सोचा.

"नहीं---- इतने दिन रखकर क्या करूंगा. अगली बार कानपुर आऊंगा तब लेता आऊंगा."

"जैसा उचित समझें."

एक घण्टे की मुलाकात में ढेर सारी बातें. पता चला राष्ट्रबन्धु मध्यप्रदेश सरकार में अध्यापक थे. बीस वर्ष की सेवा के बाद स्वैच्छिक सेवावकाश ले लिया था. उसके पश्चात कानपुर विश्वविद्यालय से अंग्रेजी में एम०ए० किया और फिर अंग्रेजी में ही पी-एच०डी०. बाल साहित्य की दुनिया में स्थापित नाम और 'बाल-साहित्य समीक्षा' के सम्पादक --- पूर्णरूप से बाल-साहित्य और बाल कल्याण के लिए समर्पित. मैं बाल साहित्य की दिशा में तब तक कुएं का मेढक था. सच यह कि बाल साहित्य के प्रति उनके कारण ही मैं आकर्षित और प्रेरित हुआ. हमारे संबन्ध गहराते गये---- घनिष्ठता बढ़ती गय़ी और वे मेरे बड़े भाई की भूमिका में आ गये.

फरवरी-मार्च - १९८० में मैनें एक बाल-कविता लिखी. तब गाजियाबाद रहता था . बाल साहित्य समीक्षा ने उसे प्रकाशित किया. वही एक मात्र कविता थी जो लिखी और प्रकाशित हुई थी, लेकिन १९८१ से बाल कहानियां लिखने का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ वह १९९० तक अबाध चला. लगभग साठ बाल कहानियां लिखीं. कुछ विदेशी बाल कहानियों के अंग्रेजी से अनुवाद किये और तीन किशोर उपन्यास लिखे. पहला किशोर उपन्यास 'ऎसे थे शिवाजी' था, जिसे डॉ० राष्ट्रबन्धु ने 'बाल साहित्य समीक्षा' के एक ही अंक में प्रकाशित किया. यह शिवाजी के जीवन पर आधारित था. उसके बाद 'अमर बलिदान ' (क्रान्तिकारी कर्तारसिंह सरभा के जीवन पर आधरित) और 'क्रान्तिदूत अजीमुल्ला खां' (१८५७ के महानायक अजीमुल्ला खां के जीवन पर आधारित जो उस क्रान्ति के प्रमुख योजनाकर थे) लिखे.

अक्टूबर १९८० को मैं दिल्ली विश्वविद्यालय के पास शक्तिनगर शिफ्ट कर गया. मैं शोध के सिलसिले में जब भी कानपुर जाता, हर बार कुछ घण्टे डॉ० राष्ट्रबन्धु के साथ अवश्य बिताता था और मेरे दिल्ली शिफ्ट होने के बाद जब वह दिल्ली आते मेरे यहां ही ठहरते. उनका दिल्ली आना तीन महीने में एक बार अवश्य होता (कभी-कभी १५ दिनों बाद ) और कुछ घण्टों से लेकर कुछ दिनों तक के लिए. प्रायः उनका आना अचानक होता और कभी-कभी उनके साथ एक-दो बाल-साहित्यकार भी होते. एक दो बार वह रात ग्यारह-बारह बजे आये. मेरे मकान मालिक नौ बजे घर का मुख्य द्वार बंद कर देते थे. मैं दूसरी मंजिल पर रहता था और घण्टी नहीं लगवायी थी. इसलिए भी कि आने वाला आता किसी और के यहां और घण्टी वह मेरी बजा देता. हम लटककर झांकते और अपरिचित चेहरा मुस्कराकर किसी के विषय में जानकारी चाहता. एक बार रात बारह बजे हम गहरी नींद में थे. डॉ० राष्ट्रबन्धु नीचे खड़े गला फाड़ चीख रहे थे - 'माशा' (मेरी बेटी का घर का नाम). अक्टूबर-नवम्बर का महीना रहा होगा. पड़ोसी मकान में दूसरी मंजिल पर रहने वाले किरायेदार ने किसी तरह खिड़की के रास्ते चीखकर हमें जगाया.

सुबह हमारे शेड्यूल बहुत सख्त होते थे. मुझे आठ बजे आर. के. पुरम आफिस जाने के लिए बस पकड़नी होती थी और पत्नी को भी लगभग इसी समय विश्वविद्यालय के लिए निकल जाना होता. हम साढ़े सात बजे तक राष्ट्रबन्धु को नाश्ता करवाकर शाम छः बजे तक के लिए विदा करते. लेकिन यह कहते हुए भी कि --''अब मैं पूरी तरह दिल्ली वाला हो गया हूं" उन्होंने मेरे शेड्यूल को कभी बाधित नहीं किया --भले ही वह अकेले आये हों या एक-दो लोगों के साथ. लेकिन उनके परिचय से परिचित बनारस के दो युवक एक बार मेरे यहां आ धमके और पूरे एक सप्ताह रहे. उन दिनों मेरे पास जगह कम थी---- बस छोटे परिवार के गुजर भर की जगह . राष्ट्रबन्धु मेरी स्थिति समझते थे और एडजस्ट करते थे, लेकिन कोई और क्यों समझता. १९९० में मकान मालिक ने मेरे लिए अतिरिक्त कमरे बनवा दिये, लेकिन तब राष्ट्रबन्धु के आने का सिलसिला थम चुका था. आते वह अभी भी हैं दिल्ली, लेकिन १९९१ के बाद वह केवल एक बार मेरे यहां आये. दरअसल हम सब इतना व्यस्त हो गये कि वह वक्त दे पाने में असमर्थ थे जो उन्हें चाहिए होता था.
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हिन्दी बाल साहित्य के क्षेत्र में बाल साहित्य और बाल कल्याण के लिए समर्पित राष्ट्रबन्धु जैसा कोई व्यक्ति मुझे आज तक नहीं मिला.

१९८० में उन्होंने 'बाल कल्याण संस्थान' की स्थापना की. इस संस्था के माध्यम से हिन्दी बाल साहित्य के विकास और उन्नयन के लिए कार्य करने का उन्होंने संकल्प किया. सम्पूर्ण भारत में उन्होंने हिन्दी बाल साहित्य की अलख जगाई. संस्था की ओर से साहित्यकारों और प्रतिभाशाली बच्चों को पुरस्कृत करने लगे. इस महत्कार्य के लिए उन्होंने कानपुर के उद्योगपतियों का सार्थक सहयोग लिया, जो उन्हें आज भी मिल रहा है. अन्य भारतीय भाषाओं के बाल साहित्यकारों को पुरस्कृत कर उन भाषाओं के पाठकों/लेखकों को हिन्दी से और हिन्दीवालों को उनसे परिचित करवाने का कार्य बाल-कल्याण संस्थान आज भी बखूबी कर रहा है और यह केवल एक व्यक्ति के बल पर हो रहा है.

राष्ट्रबन्धु जी से मेरी सदैव एक ही शिकायत रही कि वह अपने स्वास्थ्य की परवाह न करके निरंतर यात्राएं क्यों करते रहते हैं! मैं जब भी फोन करता, पता चलता भुवनेश्वर-कोलकता गये हैं--- कभी गुजरात तो कभी कर्नाटक , कभी चेन्नई तो कभी हैदराबद. मध्यप्रदेश उनके दूसरे घर की भांति है, क्योंकि वहां वह बीस वर्ष रहे थे . बाल कल्याण संस्थान का एक निश्चित कार्यक्रम प्रतिवर्ष २७-२८ फरवरी को कानपुर में होता है या उसके आस-पास के शनिवार-रविवार को. मैं १९८२-८३ के कार्यक्रम में सम्मिलित हुआ था. उसके बाद एक बार विष्णु प्रभाकर जी, मैं, डॉ० रत्नलाल शर्मा (जिन्होंने राष्ट्रबन्धु से प्रेरित हो अपनी पत्नी के नाम बाल साहित्य के लिए श्रीमति रतन शर्मा स्मृति पुरस्कार प्रारंभ किया था), और डॉ० शकुंतला कालरा एक साथ वहां गये थे. १९८२ से ही राष्ट्रबन्धु एक वर्ष में संस्था के एकाधिक कार्यक्रम करने लगे थे. उस वर्ष जून में उन्होंने मुझसे कहा, "१९ नवम्बर को इस बार एक कार्यक्रम प्रधानमंत्री निवास में करना है और तुम उसके संयोजक होगे."

(प्रधानमंत्री इंदिरा जी, रूपसिंह चन्देल और श्रीमति शीला कौल)

मैं घबड़ा उठा . इंदिरा जी प्रधानमंत्री थीं. मैंने इंकार किया, लेकिन राष्ट्रबन्धु जी अड़े रहे. तिथि-समय आदि उन्होंने निश्चित कर लिया. लेकिन मेरा काम आसान न था. बाल-साहित्य समीक्षा का नवम्बर अंक स्मारिका के रूप में छपना था. तीन बाल साहित्यकारों को इंदिरा जी द्वारा सम्मानित होना था. पत्रिका में उन पर सामग्री देने के साथ विष्णु प्रभाकर जी का साक्षात्कार, जो मुझे ही करना था तथा अन्य सामग्री भी ---पत्रिका का अतिथि सम्पादक मैं था. पत्रिका के लिए विज्ञापन लाने थे. तेरह दिनों का अवकाश लेकर मैंने रातों-दिन एक कर दिया था. घर से सुबह निकलता और रात देर से पहुंचता . विज्ञापन के लिए भटकता. कोकाकोला के मालिक ने प्रसन्न भाव से विज्ञापन दिया और प्रकाशकों में राजपाल एण्ड संस के विश्वनाथ जी ने. दरियागंज के शकुन प्रकाशन के यहां (जो बाल साहित्य ही प्रकाशित करता था) किसी भिखारी जैसा व्यवहार किया गया था. खैर, निश्चित तिथि और समय पर कार्यक्रम हुआ और सफल रहा था. इस कार्यक्रम मेरी अज़ीज मित्र सुभाष नीरव ने भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
(बालकल्याण संस्थान के कार्यक्रम में सम्मिलित लोगों को सम्बोधित करती इंदिरा जी)
राष्ट्रबन्धु जी के उत्साह का एक उदाहरण और दिए बिना यह संस्मरण अधूरा ही रहेगा. वैसे अधूरा यह तब भी रहेगा. ठीक से याद नहीं लेकिन १९९१ या १९९२ के गर्मी के दिनों की बात है. मैं आर.के.पुरम के अपने दफ्तर में व्यस्त था. अपरान्ह तीन बजे के लगभग का समय था. देखता क्या हूं कि कंधे से थैला लटकाये कुर्ता पायजामा पहने राष्ट्रबन्धु और उनके पीछे सफेद साड़ी में उन्हीं की भांति कंधे से थैला लटकाये मानवती आर्या जी कमरे में दाखिल हुए.मैंने राष्ट्रबन्धु की भारी आवाज सुनी, "पकड़ में आ गये बहिन जी." मानवती जी की ओर मुड़कर वह बोले थे. मैं हत्प्रभ. रक्षा मंत्रालय के उस कार्यालय में परिचय पत्र के बिना वहां के कर्मचारियों को भी सुरक्षा कर्मी प्रवेश नहीं करने देते, वहां बिना पास-परिचय पत्र के वे दोनों मेरे सामने उपस्थित थे. उस पर राष्ट्रबन्धु की भारी ऊंची आवाज से मैं परेशान था. जहां मैं बैठता था वहां फुसफुसाकर ही बात की जाती थी. मैंने दोनों को अभिवादन किया और बोला, "कितना अच्छा लग रहा है आप लोगों का आना, लेकिन हम यहां बैठकर खुलकर बातें नहीं कर पायेगें------ हम बाहर चलें?"

राष्ट्रबन्धु ने स्थिति समझ ली थी. हम तुरंत बाहर निकल आये थे और केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय की कैण्टीन में जा बैठे थे. यहां मानवती जी के बारे में बताना आवश्यक है. मानवती जी नेता सुभाष चन्द बोस की आजाद हिन्द फौज की 'रानी लक्ष्मी बाई ब्रिगेड ' में रही थीं . उनके पास स्वतंत्रता सेनानी पास था और उस पास के बल पर वे दोनों अंदर पहुंच गये थे.

डॉ० राष्त्रबन्धु अब पचहत्तर वर्ष (जन्म २ अक्टूबर, १९३३) से अधिक आयु के हैं और गठिया के मरीज . लेकिन हिन्दी बाल साहित्य के विकास और उन्नयन के उनके प्रयास में कमी नहीं आयी है. हमारी मुलाकातें अब वर्षों में होती हैं और फोन पर बातें भी कभी-कभी ही, लेकिन १९७९ से बाल साहित्य समीक्षा मुझे नियमित मिल रही है और उसके माध्यम से उनकी गतिविधि की सूचना भी.

मेरी शुभ कामना है कि कानपुर और हिन्दी बाल साहित्य के गौरव पुरुष डॉ० राष्ट्रबन्धु शताधिक आयु तक बाल कल्याण संस्थान के माध्यम से हिन्दी बाल साहित्य के विकास के लिए कार्य करते रहें और नयी पीढ़ी के प्रेरणाश्रोत बने रहें.

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बुधवार, 19 नवंबर 2008

लघु कहानियां








सुधा ओम ढींगरा की दो लघु कहानियां

लड़की थी वह------

कड़ाकेदार सर्दी की वह रात थी. घर के सभी सदस्य रजाइयों में दुबके पड़े थे. दिन भर से बिजली का कट था जो पंजाब वासियों के लिए आम बात है. इन्वर्टर से पैदा हुई रौशनी में खाने पीने से निपट कर, टी.वी न देख पाने के कारण समय बिताने के लिए अन्ताक्षरी खेलते-खेलते सब सर्दी से ठिठुरते रजाइयों में घुस गए थे. दिसम्बर की छुट्टियों में ही हम दो तीन सप्ताह के लिए भारत जा पातें हैं. बेटे की छुट्टियां तभी होतीं हैं. दूर दराज़ के रिश्तेदारों को पापा घर पर ही मिलने के लिए बुला लेतें हैं. उन्हें लगता है कि हम इतने कम समय में कहाँ-कहाँ मिलने जायेंगे. मिले बिना वापिस भी नहीं आया जाएगा. हमारे जाने पर घर में खूब गहमागहमी और रौनक हो जाती है. बेटे को अमेरिका की शांत जीवन शैली उपरांत चहल-पहल बहुत भली लगती है. हर साल हम से पहले भारत जाने के लिए तैयार हो जाता है. दिन भर के कार्यों से थके मांदे रजाइयों की गर्माहट पाते ही सब सो गए. करीब आधी रात को कुत्तों के भौंकनें की आवाज़ें आनी शुरू हुई...आवाज़ें तेज़ एवं ऊंचीं होती गईं. नींद खुलनी स्वाभाविक थी. रजाइयों को कानों और सिर पर लपेटा गया ताकि आवाज़ें ना आयें पर भौंकना और ऊंचा एवं करीब होता महसूस हुआ जैसे हमारे घरों के सामने खड़े भौंक रहें हों.....हमारे घरेलू नौकर-नौकरानी मीनू- मनु साथवाले कमरे में सो रहे थे. उनकी आवाज़ें उभरीं--'' रवि पाल (पड़ौसी) के दादाजी बहुत बीमार हैं, लगता है यम उन्हें लेने आयें हैं और कुत्तों ने यम को देख लिया है ''''नहीं, यम देख कुत्ता रोता है, ये रो नहीं रहे ''''तो क्या लड़ रहें हैं''''नहीं लड़ भी नहीं रहे '''''ऐसा लगता है कि ये हमें बुला रहें हैं''''मैं तो इनकी बिरादरी की नहीं तुम्हीं को बुला रहे होंगें''बाबूजीकी आवाज़ उभरी---मीनू, मनु कभी तो चुप रहा करो. मेरा बेटा अर्धनिद्रा में ऐंठा--ओह! गाश आई डोंट लाइक दिस. तभी हमारे सामने वाले घर का छोटा बेटा दिलबाग लाठी खड़काता माँ बहन की विशुद्ध गालियाँ बकता अपने घर के मेनगेट का ताला खोलने की कोशिश करने लगा. जालंधर में चीमा नगर (हमारा एरिया)बड़ा संभ्रांत एवं सुरक्षित माना जाता है. हर लेन अंत में बंद होती है. बाहरी आवाजाई कम होती है. फिर भी रात को सभी अपने-अपने मुख्य द्वार पर ताला लगा कर सोते हैं.उसके ताला खोलने और लाठी ठोकते बहार निकलने की आवाज़ आई. वह एम्वे का मुख्य अधिकारी था और पंजाबी की अपभ्रंश गालियाँ अंग्रेज़ी लहजे में निकल रहीं थीं. लगता था रात पार्टी में पी शराब का नशा अभी तक उतरा नहीं था. अक्सर पार्टियों में टुन होकर जब वह घर आता था तो ऐसी ही भाषा का प्रयोग करता था. उसे देख कुत्ते भौंकते हुए भागने लगे, वह लाठी ज़मीन बजाता लेन वालों पर ऊंची आवाज़ में चिल्लाता उनके पीछे-पीछे भागने लगा ''साले--घरां विच डके सुते पए ऐ, एह नई की मेरे नाल आ के हरामियां नूं दुड़ान- भैन दे टके. मेरे बेटे ने करवट ली--सिरहाना कानों पर रखा--माम, आई लव इंडिया. आई लाइक दिस लैंगुएज. मैं अपने युवा बेटे पर मुस्कुराये बिना ना रह सकी, वह हिन्दी-पंजाबी अच्छी तरह जानता है और सोए हुए भी वह मुझे छेड़ने से बाज़ नहीं आया. मैं उसे किसी भी भाषा के भद्दे शब्द सीखने नहीं देती और वह हमेशा मेरे पास चुन-चुन कर ऐसे-ऐसे शब्दों के अर्थ जानना चाहता है और मुझे कहना पड़ता है कि सभ्य व्यक्ति कभी इस तरह के शब्दों का प्रयोग नहीं करते. दिलबाग हमारे घर के साथ लगने वाले खाली प्लाट तक ही गया था( जो इस लेन का कूड़ादान बना हुआ था और कुत्तों की आश्रयस्थली) कि उसकी गालियाँ अचानक बंद हो गईं और ऊँची आवाज़ में लोगों को पुकारने में बदल गईं --जिन्दर, पम्मी, जसबीर, कुलवंत, डाक्डर साहब(मेरे पापा)जल्दी आयें. उसका चिल्ला कर पुकारना था कि हम सब यंत्रवत बिस्तरों से कूद पड़े, किसी ने स्वेटर उठाया, किसी ने शाल. सब अपनी- अपनी चप्पलें घसीटते हुए बाहर की ओर भागे. मनु ने मुख्य द्वार का ताला खोल दिया था. सर्दी की परवाह किए बिना सब खाली प्लाट की ओर दौड़े. खाली प्लाट का दृश्य देखने वाला था. सब कुत्ते दूर चुपचाप खड़े थे. गंद के ढेर पर एक पोटली के ऊपर स्तन धरे और उसे टांगों से घेर कर एक कुतिया बैठी थी. उस प्लाट से थोड़ी दूर नगरपालिका का बल्ब जल रहा था. जिसकी मद्धिम भीनी-भीनी रौशनी में दिखा कि पोटली में एक नवजात शिशु लिपटा हुआ पड़ा था और कुतिया ने अपने स्तनों के सहारे उसे समेटा हुआ था जैसे उसे दूध पिला रही हो. पूरी लेन वाले स्तब्ध रह गए. दृश्य ने सब को स्पंदनहीन कर दिया था. तब समझ में आया कि कुत्ते भौंक नहीं रहे थे हमें बुला रहे थे.''पुलिस बुलाओ '' एक बुज़ुर्ग की आवाज़ ने सब की तंद्रा तोड़ी. अचानक हमारे पीछे से एक सांवली पर आकर्षित युवती शिशु की ओर बढ़ी. कुतिया उसे देख परे हट गई. उसने बच्चे को उठा सीने से लगा लिया. बच्चा जीवत था शायद कुतिया ने अपने साथ सटा कर, अपने घेरे में ले उसे सर्दी से यख होने से बचा लिया था. पहचानने में देर ना लगी कि यह तो अनुपमा थी जिसने बगल वाला मकान ख़रीदा है और अविवाहिता है. सुनने में आया था की गरीब माँ-बाप शादी नहीं कर पाए और इसने अपने दम पर उच्च शिक्षा ग्रहण की और स्थानीय महिला कालेज में प्राध्यापिका के पद पर आसीन हुई. यह भी सुनने में आया था कि लेन वाले इसे संदेहात्मक दृष्टि से देखतें हैं. हर आने जाने वाले पर नज़र रखी जाती है. लेन की औरतें इसके चारित्रिक गुण दोषों को चाय की चुस्कियों के साथ बखान करतीं हैं. जिस पर पापा ने कहा था'' बेटी अंगुली उठाने और संदेह के लिए औरत आसान निशाना होती है. समाज बुज़दिल है और औरतें अपनी ही ज़ात की दुश्मन जो उसकी पीठ ठोकनें व शाबाशी देने की बजाय उसे ग़लत कहतीं हैं. औरत-- औरत का साथ दे दे तो स्त्रियों के भविष्य की रूप रेखा ना बदल जाए, अफसोस तो इसी बात का है कि औरत ही औरत के दर्द को नहीं समझती. पुरूष से क्या गिला? बेटा, इसने अपने सारे बहन-भाई पढ़ाये. माँ-बाप को सुरक्षा दी. लड़की अविवाहिता है गुनहगार नहीं.''''डाक्टर साहब इसे देखें ठीक है ना'' ---उसकी मधुर पर उदास वाणी ने मेरी सोच के सागर की तरंगों को विराम दिया. अपने शाल में लपेट कर नवजात शिशु उसने पापा की ओर बढ़ाया-- पापा ने गठरी की तरह लिपटा बच्चा खोला, लड़की थी वह------
दौड़

मैं अपने बेटे को निहार रही थी. वह मेरे सामने लेटा अपने पाँव के अंगूठे को मुँह में डालना चाहता था. और मैं उसके नन्हे-नन्हे हाथों से पाँव का अंगूठा छुड़ाने की कोशिश कर रही थी. उस कोशिश में वह मेरी अंगुली पकड़ कर मुँह में डालना चाहता था---चेहरे पर चंचलता, आँखों में शरारत, उसकी खिलखिलाती हँसी, गालों में पड़ रहे गड्डे--अपनी भोली मासूमियत लिए वह अठखेलियाँ कर रहा था और मैं निमग्न, आत्मविभोर हो उसकी बाल-लीलाओं का आन्नद मान रही थी की वह मेरे पास आ कर बैठ गई. मुझे पता ही नहीं चला. मैं अपने बेटे को देख सोच रही थी कि यशोदा मैय्या ने बाल गोपाल के इसी रूप का निर्मल आनन्द लिया होगा और सूरदास ने इसी दृश्य को अपनी कल्पना में उतारा होगा.उसने मुझे पुकारा--मैंने सुना नहीं--उसने मुझे कंधे पर थपथपाया तभी मैंने चौंक कर देखा--हंसती, मुस्कराती,सुखी,शांत, भरपूर ज़िन्दगी मेरे सामने खड़ी थी--बोली--''पहचाना नहीं?मैं भारत की ज़िन्दगी हूँ.'' मैं सोच में पड़ गई--भारत में भ्रष्टाचार है, बेईमानी है, धोखा है, फरेब है, फिर भी ज़िन्दगी खुश है. मुझे असमंजस में देख ज़िन्दगी बोली--''पराये देश, पराये लोगों में अस्तित्व की दौड़, पहचान की दौड़ दौड़ते हुए तुम भारत की ज़िन्दगी को ही भूल गई. मैं फिर सोचने लगी--भारत में गरीबी है, भुखमरी है, धर्म के नाम पर मारकाट है, ज़िन्दगी इतनी शांत कैसे है? जिंदगी ने मुझे पकड़ लिया--बोली--भारत की ज़िन्दगी अपनी धरती, अपने लोगों, आत्मीयता, प्यार-स्नेह , नाते-रिश्तों में पलती है. तुम लोग औपचारिक धरती पर स्थापित होने की दौड़ , नौकरी को कायम रखने की दौड़, दिखावा और परायों से आगे बढ़ने की दौड़---मैंने उसकी बात अनसुनी करनी चाही पर वह बोलती गई--कभी सोचा आने वाली पीढ़ी को तुम क्या ज़िन्दगी दोगी? इस बात पर मैंने अपना बेटा उठाया, सीने से लगाया और दौड़ पड़ी---उसका कहकहा गूंजा--सच कड़वा लगा, दौड़ ले, जितना दौड़ना है--कभी तो थकेगी, कभी तो रुकेगी, कभी तो सोचेगी-क्या ज़िन्दगी दोगी तुम अपने बच्चे को--अभी भी समय है लौट चल, अपनी धरती, अपने लोगों में......मैं और तेज़ दौड़ने लगी उसकी आवाज़ की पहुँच से परे--वह चिल्लाई--कहीं देर न हो जाए, लौट चल----मैं इतना तेज़ दौड़ी कि अब उसकी आवाज़ मेरे तक नहीं पहुंचती--पर मैं क्यूँ अभी भी दौड़ रहीं हूँ......

जालंधर(पंजाब) के साहित्यिक परिवार में जन्मी. एम.ए.,पीएच.डी की डिग्रियां हासिल कीं. जालंधर दूरदर्शन, आकाशवाणी एवं रंगमंच की पहचानी कलाकार, चर्चित पत्रकार(दैनिक पंजाब केसरी जालंधर की स्तम्भ लेखिका).कविता के साथ-साथ कहानी एवं उपन्यास भी लिखती हैं. काव्य संग्रह--मेरा दावा है, तलाश पहचान की, परिक्रमा उपन्यास(पंजाबी से हिन्दी में अनुवाद)एवं माँ ने कहा था...कवितायों की सी.डी. है. दो काव्य संग्रह एवं एक कहानी संग्रह प्रकाशनाधीन है. १)विश्व तेरे काव्य सुमन २)प्रवासी हस्ताक्षर ३)प्रवासिनी के बोल ४) साक्षात्कार ५)शब्दयोग ६)प्रवासी आवाज़ ७)सात समुन्द्र पार से८)पश्चिम की पुरवाई ९) उत्तरी अमेरिका के हिन्दी साहित्यकार इत्यादि पुस्तकों में कवितायें-कहानियों का योगदान. तमाम पुरस्कारों से सम्मानित हो चुकीं हैं. हिन्दी चेतना(उत्तरी अमेरिका की त्रैमासिक पत्रिका) की सह- संपादक हैं. भारत के कई पत्र-पत्रिकाओं एवं वेब-पत्रिकाओं में छपतीं हैं. अमेरिका में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अनगिनत कार्य किये हैं. हिन्दी के बहुत से नाटकों का मंचन कर लोगों को हिन्दी भाषा के प्रति प्रोत्साहित कर अमेरिका में हिन्दी भाषा की गरिमा को बढ़ाया है. हिन्दी विकास मंडल(नार्थ कैरोलाइना) के न्यास मंडल में हैं. अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी समिति(अमेरिका) के कवि सम्मेलनों की संयोजक हैं.
'प्रथम' शिक्षण संस्थान की कार्यकारिणी सदस्या एवं उत्पीड़ित नारियों की सहायक संस्था 'विभूति' की सलाहकार हैं.
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मंगलवार, 11 नवंबर 2008

कविता



अशोक आन्द्रे की पांच कविताएं

(१)

उम्मीद

जिस भूखण्ड से अभी
रथ निकला था सरपट
वहां पेड़ों के झुंड खड़े थे शांत,
नंगा कर गए थे उन पेड़ों को
हवा के बगुले
मई के महीने में.
पोखर में वहीं,
मछली का शिशु
टटोलने लगता है मां के शरीर को.
मां देखती है आकाश
और समय दुबक जाता है झाड़ियॊ के पीछे
तभी चील के डैनों तले छिपा
शाम का धुंधलका
उसकी आंखों में छोड़ जाता है कुछ अंधेरा
पीछे खड़ा बगुला चोंच में दबोचे.
उसके शिशु की
देह और आत्मा के बीच के
शून्य को निगल जाता है
और मां फिर से
टटोलने लगती है अपने पेट को .
(२)

तरीका

मुर्दे हड़ताल पर चले गए हैं
पास बहती नदी ठिठक कर
खड़ी हो गई है!
यह श्मशान का दृश्य है.
चांडाल,
आग को जेब में छिपाए
मन ही मन बुदबुदाने का ढोंग करता
मंत्र पढ़ने लगा है,
अवैध-अनौतिक पैसा ऎंठने का
शायद यह भी एक तरीका हो!

(३)

तथाकथित नारी

निष्प्राण हो जाती है
मूर्ति की तरह तथाकथित नारी
जबकि तूफान घेरता है उसके मन को,
यह इतिहास नहीं/जहां
कहानियों को सहेज कर रखा गया हो....
एक-एक परत को
उघाड़ा गया है दराती-कुदालों से,
ताकि उसकी तमाम कहानियों की गुफ़ा में
झांका जा सके,
ताकि उन कहानियों में दफ़्न
मृत आत्माओं की शांति के लिए
कुछ प्रार्थनाओं को मूर्त रूप दिया जा सके,
उस निष्प्राण होती मूर्ति के चारों ओर
जहां अंधेरा ज़रूर धंस गया है,
आखिर कला की अपराजेयता की धुंध तो
छंटनी ही चाहिए न,
ताकि मनुष्य के प्रयोजनों का विस्तार हो सके.
कई बार घनीभूत यात्राएं उसकी
संभोग से समायोजन करने तक
आदमी, कितनी आत्माओं का
राजतिलक करता रहता है
हो सकता है यह उसके
विजयपथ की दुंदुभि हो

लेकिन नारी का विश्वास मरता नहीं
धुंए से ढंकती महाशून्य की शुभ्रता को
आंचल में छिपा लेती है
उस वक्त समय सवाल नहीं करता
उस खंडित मूर्ति पर होते परिहासों पर
शायद शिल्पियों की निःसंगता की वेदना को
पार लगाने के लिए ही तो इस तरह
कालजयी होने की उपाधि से सुशोभित
किया जाता है उसे,
आखिर काल का यह नाटक किस मंच
की देन हो सकता,
आखि़र नारी तो नारी ही है न,
मनुष्य की कर्मस्थली का विस्तार तो नहीं न,
मूर्ति तो उसके कर्म की आख्याओं का
प्रतिरूप भर है
तभी तो उसका आवा से गमन तक का सफ़र
जारी है आज भी,
इसीलिए उसकी कथाएं ज़रूर गुंजायमान हैं
शायद यही उसका प्राण है युगांतक के लिए
जो धधकता है मनुष्य की देह में
अनंतता के लिए.

(४)

पता जिस्म का

एक जिस्म टटोलता है
मेरे अंदर तहखाने में छिपे, कुछ जज़्बात
जिनकी क़ीमत
समय ने अपने पांवों तले दबा रखी है
उस जिस्म़ की दो आंखें एकटक
दाग़ती हैं कुछ सवालों के गोले
जिन्हें मेरी गर्म सांसें धुंआ-धुंआ करती हैं
उनकी नाक सूंघंती है
मेरे आसपास के माहौल को
जिसका पता मेरे पास भी नहीं है.
उसके होंठ कुछ पूछने को
हिलते हैं आगाह करने के लिए
उसके कान मना कर देते हैं सुनने को,
मैं उस जिस्म़ की खुदाई करता हूं,
और खाली समय में ढूंढता हूं
अपने रोपे बीज को,
जो अंधेरे में पकड़ लेता है मेरा गला
पाता हूं कि वह और कोई नहीं,
मेरे ही जिस्म़ का पता है
जहां से एक नए सफ़र का दिया
टिटिमा रहा है

(५)

आंतरिक सुकून के लिए

एक पर्वत से दूसरे पर्वत की ओर
जाता हुआ व्यक्ति/कई बार फ़िसल कर
शैवाल की नमी को छूने लगता है.
जीवन खिलने की कोशिश में
आकाश की मुंडेर पर चढ़ने के प्रयास में
अपने ही घर के रोशनदान की आंख को
फोड़ने लगता है

मौत जरूर पीछा करती है जीवात्माओं का
लेकिन जिन्दगी फिर भी पीछा करती है मौत का
सवारी गांठने के लिए,
सवारी करने की अदम्य इच्छा ही व्यक्ति को
उसकी आस्था के झंडे गाड़ने में मदद करती है.
कई बार उसे पूर्वजों द्वारा छोड़े गये,
सबसे श्रेष्ठ शोकगीत को,
गुनगुनाने के लिए लाचार भी होना पड़ता है.
जबकि समुद्र समय की चुप्पी को तोड़ने के लिए
चिघाड़ता है अहर्निष,

आखिर व्यक्ति तो व्यक्ति ही है
इसलिए उसे गीत तो गाने ही पड़ेंगे
चाहे शुरू का हो या फिर/अंतिम यात्रा की बेला का,
क्योंकि कंपन की लय/टिकने नहीं देगी उसे,
जीवन उसे खामोश होने नहीं देगा
उत्तेजित करता रहे चीखने-चिल्लाने के लिए.
उसके आंतरिक सुकून के लिए.

३ मार्च, १९५१ को कानपुर (उत्तर प्रदेश) में जन्म. अब तक निम्नलिखित कृतियां प्रकाशित :
फुनगियों पर लटका एहसास, अंधेरे के ख़िलाफ (कविता संग्रह), दूसरी मात (कहानी संग्रह), कथा दर्पण (संपादित कहानी संकलन), सतरंगे गीत , चूहे का संकट (बाल-गीत संग्रह), नटखट टीपू (बाल कहानी संग्रह).

लगभग सभी राष्ट्रीय पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित.

'साहित्य दिशा' साहित्य द्वैमासिक पत्रिका में मानद सलाहकार सम्पादक और 'न्यूज ब्यूरो ऑफ इण्डिया' मे मानद साहित्य सम्पादक के रूप में कार्य किया.

संपर्क : १८८, एस.एफ.एस. फ्लैट्स, पॉकेट - जी.एच-४, निकट मीरा बाग, पश्चिम विहार, नई दिल्ली - ११००६३.

फोन : ०१११-२५२६२५४४
मोबाईल : ०९८१८९६७६३२
०९८१८४४९१६५

सोमवार, 3 नवंबर 2008

उपन्यास अंश



शीघ्र प्रकाश्य उपन्यास 'गुलाम बादशाह'
का एक अंश

उस दिन की सुबह

रूपसिंह चन्देल

उसके लिए उस दिन की सुबह और दिनों की सुबहों से अलग थी.

आसमान में तारे धूमिल पड़ रहे थे, लेकिन मकानों की छतों पर रात का धुंधलका पसरा हुआ था. उसने नीचे सड़क पर झांककर देखा, बिजली के खम्भों पर लट्टू जल रहे थे और गलियों में दिन भर धमा-चौकड़ी करने वाले कुत्ते चार मकान छोड़कर बिरला मिल की ओर मुड़ने वाली गली के मुहाने पर एक कुतिया को घेरे हुए खड़े थे. उसने गिनती की, छः थे. कुतिया घबड़ाई हुई थी. वह निकल भागने के प्रयास में असफल रहने पर ज्यादती के लिए तत्पर एक कुत्ते पर दांत किटकिटाती भूंकने लगती थी.

पांच मिनट छत पर टहलने के बाद उसने पुनः नीचे नजर दौड़ाई. धुंधलका तेजी से छट रहा था. उसे कुतिया थकी हुई दिखाई दी. गुर्राने और दांत किटकिटाने के बजाय अब वह दयनीय स्वर में किकियाने लगी थी. लेकिन कुत्तों को उस पर तरस नहीं आ रहा था. सभी उस पर अपना अधिकार जता रहे थे. परिणाम- स्वरूप वे आपस में ही भिड़ने लगे थे. कुतिया ने शायद स्थिति समझ ली थी और जैसे ही दो जोड़ों को एक-दूसरे पर आक्रमण-प्रत्याक्रमण करते उसने देखा, वह निकल भागी. दो कमजोर कुत्ते जो अपने साथियों को लड़ता देख खिसककर एक ओर खड़े हो गये थे, कुतिया के पीछे दौड़ पड़े थे. उस पर अधिकार मानने में वे अब तक अपने को असफल पा रहे थे. कुतिया का भाग निकलना लड़ रहे कुत्तों ने कुछ देर बाद अनुभव किया और आपस में एक दूसरे को लानत-मलानत भेजते हुए कहा, "स्सालो, हम आपस में लड़कर अपने सिर फोड़ रहे हैं और सिद्दी-पिद्दी उसे ले उड़े."

"हम लड़ें ही क्यों , अभी समझौता कर लेते हैं." एक बोला.

"क्या---- क्या करोगे समझौता?" कलुआ जो उनमें अधिक ताकतवर था गुर्राया.

"यही कि हमें एक-एक कर उससे मिलना चाहिए."
"हुंह." कलुआ ने सिर झिटका. उसका सिर अभी तक भिन्ना रहा था और उसका मन कर रहा था कि वह पास खड़े तीनों की मरम्मत कर दे.

'वह मेरे साथ थी और खुश थी. उसे कोई आपत्ति भी न थी, लेकिन इन स्सालों ने सारा गुड़ गोबर कर दिया. पता नहीं कहां गली से आ मरे. अब वह इतना घबड़ा गयी है कि शायद ही कभी मेरे साथ आये.' कलुआ ने सोचा और बोला, "चलकर देखते हैं वह गयी कहां?"

"हां" तीनों ने एक स्वर में कहा.

"लेकिन उससे मैं ही पहले मिलूंगा." कलुआ की बात पर तीनों ने सिर हिलाकर पूंछ नीचे गिरा दी.

और चारों चौराहे की ओर दौड़ गये.

सड़क पर नीचे झांकते हुए उसने कुत्तों के विषय में अनुमान लगाया . उसने अपने मकान मालिक को कुत्तों के पीछे दूध लेने जाते देखा.

********

प्रतिदिन की भांति वह उस दिन भी पौने पांच बजे उठ गया था. पत्नी भी उसकी पांच बजे उठ जाती थी, लेकिन उस दिन उसे आफिस नहीं जाना था, इसलिए वह निश्चिंत थी और सो रही थी.

कई महीने बाद वह सुबह के सुहानेपन का आनंद ले रहा था. हालांकि वर्षों से उसके जागने का वही समय था, लेकिन जागने के साथ ही आठ बजे की बस पकड़ने की चिन्ता उसे आ घेरती थी. साढ़े नौ बजे दफ्तर पहुंचने का तनाव बिस्तर छोड़ने के साथ ही प्रारंभ हो जाता था. सप्ताह में शनिवार-रविवार का अवकाश उसने कई महीनों से नहीं जाना था. प्रतिदिन रात दफ्तर उसके साथ आता था. सोते हुए भी दफ्तर साथ रहता था.

उसने अंगड़ाई ली. छत में कुछ और देर टहला . छत बड़ी थी, जिसमें केवल उसके दो कमरे और टीन शेड की छोटी-सी किचन और उतना ही छोटा टॉयलेट-कम बाथरूम था. बाथरूम की दीवारें सीली और झड़ रही थीं. उस पर एस्बेस्टेस की चादरें पड़ी हुई थीं. बारिस होने के समय चादरों से पानी टपकता रहता. ऎसे समय टॉयलेट के लिए जाते हुए छोटा छाता लगाकर बैठना होता या सिर पर पुरानी तौलिया डालनी होती.

छत पर टहलते हुए आसमान में उड़ते पक्षियों को वह देखता रहा और सोचता रहा, 'कितने निश्चिंत----- कितने स्वतंत्र ! न इन्हें किसी अफसर का भय, न काम की चिन्ता. काश ! मैं एक परिन्दा होता----- पूरी दुनिया के आकाश को नापता घूमता. न सीमाओं की समस्या होती न प्रवेश पर प्रतिबंध. कॊई पासपोर्ट - वीज़ा नहीं.'

एक कौआ पड़ोसी मकान की दीवार पर आ बैठा. उसके कर्णकटु स्वर ने ध्यान भंग किया. उसने हाथ उठाकर कौवे को भगाना चाहा, वह उछलकर कुछ दूर हटकर बैठ गया और क्षणभर की चुप्पी के बाद फिर चीख उठा.

"कुमार राणावत की तरह क्यों चीख रहा है रे कमीने?" उसने सोचा उसने कौवे को नहीं अपने बॉस कुमार राणावत को गाली दी थी. मन के अंदर दबा गुबार निकल गया था.

कौवा फिर चीखा.

"चीख बेटे----- आज और कल भी----." उसे याद आया आज शनिवार है और राणावत कल भी बम्बई रहेगा और उसे कल भी दफ्तर नहीं जाना होगा.

'कितनी सुखद है सुबह !' उसने सोचा, 'मैं कब से ऎसे दिन के लिए तरस रहा था. बच्चे भूल ही गये होगें कि मैं भी इस घर में रहता हूं. सुबह उन्हें तयार कर देना मात्र क्या उनके प्रति पैतृक जिम्मेदारी की इति मान ली जाय !'

'नौकरी छोड़ क्यों नहीं देते. कोई और नौकरी क्यों नहीं कर लेते !' मन ने कई बार, बल्कि हजारों----- हो सकता है लाखों बार - यह बात कही थी. रात सोने से पहले यह बात मन में अवश्य उठती है. सुबह उठने से लेकर दफ्तर से निकलने तक दिन में कितनी ही बार मन यह प्रश्न उठाता है, लेकिन---- और यह 'लेकिन' कितने प्रश्नों से घिरा हुआ है. इतने वर्षों की सरकारी नौकरी ने उसे इस योग्य नहीं रहने दिया कि वह किसी अन्य जगह जा सकता. कारण यह नहीं कि वह कम योग्य था, या वह निकम्मा था---- काम नहीं करता था---. काम, सुबह साढ़े नौ बजे से रात आठ बजे तक वह प्रायः काम में ही लगा रहता. गर्दन दुख जाती. लेकिन वह जब यह कहा जाता सुनता कि सरकारी बाबू काम नहीं करते तब उसे दुख होता. उसके अपने कार्यालय के कितने ही लोग थे जिनकी गर्दनें उसीकी भांति दुखती थीं. कई स्पांडिलाइटस का शिकार थे और कुछ उस कतार में. डिप्रेशन का शिकार लोगों की संख्या शायद अधिक थी, लेकिन वे सब हत्बुद्धि वहां बने रहने के लिए अभिशप्त थे, क्योंकि जो काम वे करते उसकी पूछ किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी में न थी. अब वे वही कर सकते थे और गधों -खच्चरों की भांति उस बोझ को ढोते हुए जीवन की गाड़ी घसीटने के लिए विवश थे.

'लेकिन मैं इतनी खूबसूरत सुबह यह सब क्यों सोच रहा हूं. मुझे दरवाजे में ताला बंद कर चुपचाप नीचे उतर जाना चाहिए था. घर से आध फर्लांग की दूरी पर लंबा-- चौड़ा रौशन पार्क है. आस-पास के लोग---- बल्कि दो-तीन किलोमीटर से चलकर लोग वहां पहुंचते हैं----- टहलने के लिए. टहलने वालों की भीड़ सुबह नौ बजे तक वहां रहती है. छुट्टी वाले दिनों में स्कूली बच्चे वहां खेलते हैं.

'आज बच्चों के स्कूल की छुट्टी भी है. रात ही कह देना चाहिए था कि सुबह रौशन पार्क चलेगें. अमिता भी घोड़े बेचकर सो रही है. मुझे आफिस जाना होता तो इस समय किचन में बर्तन खटक रहे होते.'

'बच्चों के साथ पार्क में बैडमिंटन खेले हुए लंबा समय बीत गया.---- कोई बात नहीं----- शाम को जायेगें. शाम को भी वहां अच्छी रौनक होती है.----- आज और कल का दिन बच्चों के नाम.' इस विचार से उसके मन में खुशी उत्पन्न हुई , जो महीनों से दबी हुई थी.

सड़क पर आमद-रफ्त तेज हो गयी थी. कुछ लोगों की आवाजें आ रहीं थीं. कुछ लोग उसके मकान के सामने की गली से होकर पार्क जाते थे. एक युवक, युवक ही कहना होगा----- वैसे वह पैतीस वर्ष से अधिक होगा; लेकिन उसने शरीर को मेण्टेन किया हुआ था, प्रतिदिन 'किट' और 'टी शर्ट' में दौड़ता हुआ, तेज नही, मद्धिम गति से पार्क जाता है. पार्क में लगभग दो घण्टे बिताकर जब वह लौटता तब पसीने से तरबतर होता----- भले ही जनवरी की कड़ाके कि ठण्ड हो. वह उससे ईर्ष्या करता है और सोचता है कि क्या उसकी जिन्दगी में भी ऎसे दिन आयेगें ! यदि आयेगें भी, तब------ तब क्या उस नौजवान की भांति उसमें गति और उत्साह होगा !'

हवा का तेज झोंका आया, और उसकी बनियायन को छूता हुआ निकल गया. हवा में ठण्ड की हल्की खुनक थी. उसने देखा, सामने दीवार पर बैठा कौवा अब वहां न था. उसके स्थान पर एक गौरय्या आ बैठी थी. सूर्य की किरणें पड़ोसी मकान की छत पर रखी पानी की टंकी पर आ बैठी थीं. बगुलों का एक झुण्ड उत्तर-पश्चिम की ओर दौड़ता हुआ जा रहा था.

********

'गुलाम बादशाह' उपन्यास शीघ्र ही
प्रवीण प्रकाशन, दरियागंज, नई दिल्ली से
प्रकाश्य है.

गुरुवार, 9 अक्तूबर 2008

कविता

चित्र : डॉ० अवधेश मिश्र
बेल्जियन कविताएं

एक दूर-देश से मैं तुम्हें लिख रहा हूं

हेनरी मीशॉ (१८८४-१९८४)

(सभी का अंग्रेजी से भाषान्तर : पीयूष दईया)

(१)

हमारे पास यहां,
वह बोली,
केवल एक सूरज मुंह में,
और तनिक देर वास्ते.
हम मलते अपनी आंखें दिनों आगे.
निष्फल लेकिन.
अभेद्य मौसम.
अपने नियत पहर धूप आती केवल.

फिर हमारे पास है करने को चीजों की एक दुनिया,
जब तलक रोशनी है वहां,
समय हमारे पास बमुश्किल है दरअसल एक दूसरे को दो टुक देखने का.

मुसीबत यह है कि रात पाली है
जब हमें काम करना है,
और हमें, सचमुच करना है:
बौने जन्म लेते हैं लगातार.

(२)

जब तुम सैर करते हो देश में,
आगे वह उस तक सुपुर्द,
सम्भव है तुम्हें मौका हो खालिस
मरदानों से मिलने का अपने मार्ग पर.
ये पहाड़ हैं और देर-सबेर
तुमको झुकना है घुटनों के बल उनके सामने.
अकड़ने का कोई फायदा नहीं होगा,
तुम नहीं जा सकते थे परले तक,
अपने आहत करके भी.

मैं यह नहीं कहता जख्मी करने के सिलसिले में.
मैं दूसरी चीजें कह सकता था अगर मैं सचमुच
जख्मी करना चाहता.

(३)

मैं जोड़ता हूं एक बढ़त शब्द तुम तक,बल्कि एक प्रश्न.
क्या तुम्हारे देश में भी पानी बहता है?
मुझे याद नहीं ऎसा तुमने बता था कि नहीं.
और यह देता है सिहरन भी, अगर यह असली चीज़ है.

क्या मैं इसे प्रेम करता हूं?
मुझे नहीं मालूम.
जब यह ठंडा हो बहुत अकेला महसूस होता है.
लेकिन बिलकुल भिन्न जब यह गर्म हो.
फिर तब?
मैं कैसे फैसला कर सकता हूं?
कैसे तुम दूसरे फैसला करते हो, मुझे बताओ,
जब तुम इस को खुल्लम-खुल्ला बोलते हो, खुले दिल से?

(४)
मैं तुम्हें संसारान्त से लिख रहा हूं.
तुम्हें यह समझ लेना चाहिए.
पेड़ अक्सर कांपते हैं.
हम पत्तियां चुनते.
शिराओं की हास्यास्पद संख्या है उनके पास.
लेकिन किसलिए?
पेड़ और उनके बीच वहां कुछ नहीं बचा,
और हम प्रस्थान करते मुश्किलाये.

बिना हवा के क्या जारी नहीं रह सकता था पृथ्वी पर जीवन?
या सब कुछ को कंपना है, हमेशा, हमेशा?

ज़मीन के भीतर विक्षोभ है वहां, घर में भी,
जैसे अंगारें जो आ सकते हैं तुम्हारा सामना करने,
जैसे कड़े प्राणी जो चाहते स्वीकारोक्तियों को बिगाड़ना.
हम कुछ नहीं देखते,
सिवाय उसके जिसे देखना है गैरजरूरी.
कुछ नहीं, और तब भी हम कंपते . क्यॊ?

कुछ नहीं, और तब भी हम कंपते. क्यों ?

(५)

वह लिकती है उसे वापस:

तुम कल्पना नहीं कर सकते वह सब वहां है आकाश में,
भरोसा करने के लिए तुम्हें इसे देखना होगा.
तो अब, वे----- लेकिन मैं तुम्हें पलक झपकते नहीं बताने जा रही उनके नाम.

बावजूद ढेर सारा उनके उठाये होने के और
गा़लिबन सारे आकाश में डेरा डाल लेने के,
वे वजनी नहीं हैं,
विशाल हालांकि वे हैं,
जितना कि एक नवजात शिशु.

हम बुलाते उन्हें बादल.

यह सच है कि पानी आता है उनसे,
लेकिन उन्हें भींचने से नहीं, या उन्हें घेरने से.
ये फजूल होगा, उनके पास हैं थोड़े से.

लेकिन, उनके अपने विस्तृत वितान और विस्तृत विता
और गहराइयों तक डेरा जमाने के तर्क से
और अपनी ऊंची फुल्लन के,
वे सफल होते लम्बी दौड़ में पानी की कुछ बूंदें गिराने की जुगते में, हां, पानी की.
और हम भले और भीगे.
क्रोधित हम भागते फंदे में आ जाने से;
भला कौन जानता कि वे कब जारी करने वाले हैं अपनी बूंदें;
कभी-कभार वे उन्हें जारी किये बिना दिनों तक आराम करते.
और कोई घर में ठहरा उनका इंतजार करता विफल.

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स्वभाव से अन्तर्मुखी व मितभाषी युवा लेखक, सम्पादक, अनुवादक व संस्कृतिकर्मी पीयूष दईया का जन्म 27 अगस्त 1973, बीकानेर (राज.) में हुआ। आप हिन्दी साहित्य, संस्कृति और विचार पर एकाग्र पत्रिकाओं ''पुरोवाक्'' (श्रवण संस्थान, उदयपुर) और ''बहुवचन'' (महात्मा गांधी अन्तरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय, वर्धा) के संस्थापक सम्पादक रहे हैं और लोक-अन्वीक्षा पर एकाग्र दो पुस्तकों ''लोक'' व ''लोक का आलोक'' नामक दो वृहद् ग्रन्थों के सम्पादन सहित भारतीय लोक कला मण्डल, उदयपुर की त्रैमासिक पत्रिका ''रंगायन'' का भी बरसों तक सम्पादन किया है। पीयूष ने हकु शाह द्वारा लिखी चार बाल-पुस्तकों के सम्पादन के अलावा अंग्रेज़ी में लिखे उनके निबन्धों का भी हिन्दी में अनुवाद व सम्पादन किया है। हकु शाह के निबन्धों की यह संचयिता,''जीव-कृति'' शीघ्र प्रकाश्य है। ऐसी ही एक अन्य पुस्तक पीयूष चित्रकार अखिलेश के साथ भी तैयार कर रहे हैं। काव्यानुवाद पर एकाग्र पत्रिका ''तनाव'' के लिए ग्रीक के महान आधुनिक कवि कवाफ़ी की कविताओं का हिन्दी में उनके द्वारा किया गया भाषान्तर चर्चित रहा है। वे इन दिनों विश्व-काव्य से कुछ संचयन भी तैयार कर रहे ।
संपर्क : विश्राम कुटी, सहेली मार्ग, उदयपुर (रजस्थान) - 313001
ई-मेल :
todaiya@gmail.com

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चित्र : डॉ० अवधेश मिश्र
समिधा बनता मैं
उदय चौहान
अचम्भित मन आज भटक रहा शून्याकाश में
सभ्यता के भग्नावशेष देख समय रीता पसोपेश में
आस रखूँ नवभोर कदाचित कल
आए फिर यहीं कहीं हरसू - बस यूँ ही पिटता मैं ...
खाईया हैं खुद रहीं,
लोगों को क्या हो गया ?
वसुधा में गड़ा विषदंत-
उसका दंश झेलता मैं...

मंदिर से उड़ा कपोत,
जा बैठा मीनार पे
पर कोई नवलक्ष्मण-
खिंचित परोक्ष रेखा नापता मैं...
है यह नेतृत्व अक्षम,
या प्रकृति ही बनी विषम
इस कोसती कोसी के बीच,
हर टापू तकता मैं
तर्कों का अम्बार है,
दावों की भरमार है
मिल रहे आश्वासनों से,
हूँ किंचित परेशान मैं...
भेड़ियों की जमी नज़र,
पिशाच बन रहे प्रखर
वीभत्स गिद्धभोज में -
बोटी बोटी नुचता मैं...
शतरंज की बिसात पर
वज़ीर जमे, प्यादे मरे
अनवरत विध्वंस में -
समिधा बनता मैं... -
*****
हिन्दी के उदीयमान कवि उदय चौहान का जन्म इंदौर (मध्य प्रदेश ) में १९८१ में हुआ था. उन्होंने इंदौर विश्वविद्यालय से एम.सी.ए. किया है. सम्प्रति वह गड़गांव की टी.सी.एस. कम्पनी में साफ्टवेयर इंजीनियर हैं.
साहित्य के गंभीर अध्येता उदय प्रखर प्रतिभा के धनी हैं. प्रस्तुत कविता उनकी पहली कविता है, जिसे उन्होंने विशेष रूप से 'रचना समय' के लिए भेजा था.
ई मेल : uday.chauhan@tcs.com

सोमवार, 29 सितंबर 2008

संस्मरण








पुण्यतिथि (२८ सितम्बर) के अवसर पर


एक परंपरा का अन्त था डॉ० शिवप्रसाद सिंह का जाना

रूपसिंह चन्देल


डर--- एक ऎसा डर, जो किसी भी बड़े व्यक्तित्व से सम्पर्क करने-मिलने से पूर्व होता है. सच कहूं तो मैं उनके साहित्यकार- ---एक उद्भट विद्वान साहित्यकार, जिनकी बौद्धिकता, तार्किकता और विलक्षण प्रतिभा सम्पन्नता ने प्रारम्भ से ही हिन्दी साहित्य को आन्दोलित कर रखा था --- से संपर्क करने से वर्षों तक कतराता रहा. आज हिन्दी साहित्य में लेखकों की संख्या हजारों में है , लेकिन डॉ० शिवप्रसाद सिंह जैसे विद्वान साहित्यकार आज कितने हैं? आज जब दो-चार कहानियां या एक-दो उपन्यास लिख लेनेवाले लेखक को आलोचक (?) या सम्पादक महान कथाकार घोषित कर रहे हों तब हिन्दी कथा-साहित्य के शिखर पुरुष शिवप्रसाद सिंह की याद हो आना स्वाभाविक है.

कहते हैं , 'पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं.' डॉ० शिवप्रसाद सिंह की प्रतिभा और विद्वत्ता ने इण्टरमीडिएट के छात्र दिनों से ही अपने वरिष्ठों और मित्रों को प्रभावित करना प्रारम्भ कर दिया था. वे कॉलेज की पत्रिका के सम्पादक थे और न केवल विद्यार्थी उनका सम्मान करते थे, प्रत्युत शिक्षकों को भी वे विशेष प्रिय थे. पढ़ने में कुशाग्रता और साहित्य में गहरे पैठने की रुचि के कारण कॉलेज में उनकी धाक थी.

डॉ० शिवप्रसाद सिंह का जन्म १९ अगस्त, १९२८ को बनारस के जलालपुर गांव में एक जमींदार परिवार में हुआ था. वे प्रायः अपने बाबा के जमींदारी वैभव की चर्चा किया करते ; लेकिन उस वातावरण से असंपृक्त बिलकुल पृथक संस्कारों में उनका विकास हुआ. उनके विकास में उनकी दादी मां, पिता और मां का विशेष योगदान रहा, इस बात की चर्चा वे प्रायः करते थे. दादी मां की अक्षुण्ण स्मृति अंत तक उन्हें रही और यह उसीका प्रभाव था कि
उनकी पहली कहानी भी 'दादी मां' थी, जिससे हिन्दी कहानी को नया आयाम मिला. 'दादी मां' से नई कहानी का प्रवर्तन स्वीकार किया गया--- और यही नहीं, यही वह कहानी थी जिसे पहली आंचलिक कहानी होने का गौरव भी प्राप्त हुआ. तब तक रेणु का आंचलिकता के क्षेत्र में आविर्भाव नहीं हुआ था. बाद में डॉ० शिवप्रसाद सिंह ने अपनी कहानियों में आंचलिकता के जो प्रयोग किए वह प्रेमचंद और रेणु से पृथक --- एक प्रकार से दोनों के मध्य का मार्ग था; और यही कारण था कि उनकी कहानियां पाठकों को अधिक आकर्षित कर सकी थीं. इसे विडंबना कहा जा सकता है कि जिसकी रचनाओं को साहित्य की नई धारा के प्रवर्तन का श्रेय मिला हो, उसने किसी भी आंदोलन से अपने को नहीं जोड़ा. वे स्वतंत्र एवं अपने ढंग के लेखन में व्यस्त रहे और शायद इसीलिए वे कालजयी कहानियां और उपन्यास लिख सके.

शिवप्रसाद सिंह का विकास हालांकि पारिवारिक वातावरण से अलग सुसंस्कारों की छाया में हुआ, लेकिन उनके व्यक्तित्व में सदैव एक ठकुरैती अक्खड़पन विद्यमान रहा. कुन्तु यह अक्खड़पन प्रायः सुषुप्त ही रहता, जाग्रत तभी होता जहां लेखक का स्वाभिमान आहत होता. शायद मुझे उनके इस व्यक्तिव्त के विषय में मित्र साहित्यकारों ने अधिक ही बताया होगा और मैं उनसे संपर्क करने से बचता रहा. उनकी रचनाओं -- 'दादी मां', 'कर्मनाशा की हार', 'धतूरे का फूल', 'नन्हो', 'एक यात्रा सतह के नीचे', 'राग गूजरी', 'मुरदा सराय' आदि कहानियों तथा 'अलग-अलग वैतरिणी' और 'गली आगे मुड़ती है' से एम०ए० करने तक परिचित हो चुका था और जब लेखन की ओर मैं गंभीरता से प्रवृत्त हुआ, मैंने उनकी कहानियां पुनः खोजकर पढ़ीं; क्योंकि मैं लेखन में अपने को उनके कहीं अधिक निकट पा रहा था. मुझे उनके गांव-जन-वातावरण ऎसे लगते जैसे वे सब मेरे देखे-भोगे थे.

लंबे समय तक डॉक्टर साहब (मैं उन्हें यही सम्बोधित करता था) की रचनाओं में खोता-डूबता-अंतरंग होता आखिर मैंने एक दिन उनसे संपर्क करने का निर्णय किया. प्रसंग मुझे याद नहीं; लेकिन तब मैं 'रमला बहू' (उपन्यास) लिख रहा था . मैंने उन्हें पत्र लिखा और एक सप्ताह के अंदर ही जब मुझे उनका पत्र मिला, मेरी प्रसन्नता का पारावार नहीं रहा. लिखा था---'मैं तुम्हे कब से खोज रहा था!---- आज तक कहां थे?'


डॉक्टर साहब का यह लिखना मुझ जैसे साधारण लेखक को अंदर तक आप्लावित कर गया. उसके बाद पत्रों, मिलने और फोन पर लंबी वार्ताओं का जो सिलसिला प्रारंभ हुआ, वह १५-१६ जुलाई, १९९८ तक चलता रहा. मुझे याद है, अंतिम बार फोन पर उनसे मेरी बात इन्हीं में से किसी दिन हुई थी. उससे कुछ पहले से वे बीमार थे. डाक्टर 'प्रोस्टेट' का इलाज कर रहे थे. यह वृद्धावस्था की बीमारी है. लेकिन उससे उन्हें कोई लाभ नहीं हो रहा था. जून में जब मेरी बात हुई तो दुखी स्वर में वे बोले कि इस बीमारी के कारण 'अनहद गरजे' उपन्यास पर वे कार्य नहीं कर पा रहे ( जो कबीर पर आधारित होने वाला था). उससे पूर्व एक अन्य उपन्यास पूरा करना चाहते थे और उसी पर कार्य कर रहे थे. यह पुनर्जन्म की अवधारणा पर आधारित था. 'मैं कहां-कहां खोजूं'. फोन पर उसकी संक्षिप्त कथा भी उन्होंने मुझे सुनाई थी. लेकिन 'अनहद गरजे' की तैयारी भी साथ-साथ चल रही थी.

डॉ० शिवप्रसाद सिंह उन बिरले लेखकों में थे, जो किसी विषय विशेष पर कलम उठाने से पूर्व विषय से संबंधित तमाम तैयारी पूरी करके ही लिखना प्रारंभ करते थे. 'नीला चांद', 'कोहरे में युद्ध', 'दिल्ली दूर है' या 'शैलूष' इसके जीवंत उदाहरण हैं. 'वैश्वानर' पर कार्य करने से पूर्व उन्होंने संपूर्ण वैदिक साहित्य खंगाल डाला था और कार्य के दौरान भी जब किसी नवीन कृति की सूचना मिली, उन्होंने कार्य को वहीं स्थगित कर जब तक उस कृति को उपलब्ध कर उससे गुजरे नहीं, 'वैश्वानर' लिखना स्थगित रखा. किसी भी जिज्ञासु की भांति वे विद्वानों से उस काल पर चर्चा कर उनके मत को जानते थे. १९९३ के दिसंबर में वे इसी उद्देश्य से डॉ० रामविलास शर्मा के यहां पहुंचे थे और लगभग डेढ़ घण्टे विविध वैदिक विषयों पर चर्चा करते रहे थे.

जून में जब मैंने उन्हें सलाह दी कि वे दिल्ली आ जाएं, जिससे 'प्रोस्टेट' के ऑपरेशन की व्यवस्था की जा सके, तब वे बोले, "डॉक्टरों ने यहीं ऑपरेशन के लिए कहा है. गरमी कुछ कम हो तो करवा लूंगा." दरअसल वे यात्रा टालना चाहते थे, जिससे उपन्यास पूरा कर सकें. डॉक्टरों ने कल्पाना भी न की थी कि उन्हें कोई भयानक बीमारी अंदर-ही अंदर खोखला कर रही थी. उनका शरीर भव्य, आंखें बड़ीं-- यदि अतीत में जाएं तो कह सकते हैं कि कुणाल पक्षी जैसी सुन्दर, लालट चौड़ा, चेहरा बड़ा और पान से रंगे होंठ सदैव गुलाबी रहते थे. मैंने उन्हें सदैव धोती पर सिल्क का कुरता पहने ही देखा, जो उनके व्यक्तित्व को द्विगुणित आभा ही नहीं प्रदान करता था, बल्कि दूसरे पर उनकी उद्भट विद्वत्ता की छाप भी छोड़ता था. हर क्षण चेहरे पर विद्यमान तेज और तैरती निश्च्छल मुकराहट ने डॉक्टरों को धोखा दे दिया था और वे आश्वस्त कर बैठे कि मर्ज ला-इलाज नहीं है. साहित्यकार 'मैं कहां-कहां खोजूं' को पूरा करने में निमग्न हो गया, जिससे अपने अगले महत्वाकांक्षी उपन्यास 'अनहद गरजे' पर काम कर सकें. डॉक्टर साहब कबीर पर डूबकर लिखना चाहते थे; क्योंकि यह एक चुनौतीपूर्ण उपन्यास बननेवाला था ( कबीर सदैव सबके लिए चनौती रहे हैं )---- लेकिन शरीर साथ नहीं दे रहा था. जुलाई में एक दिन वे बाथरूम जाते हुए दीवार से टकरा गए. सिर में चोट आई . लेकिन इसके बावजूद वे मुझसे पन्द्रह-बीस मिनट तक बातें करते रहे थे. मैं उनकी कमजोरी भांप रहा था और तब भी मैंने उन्हें कहा था कि वे दिल्ली आ जांए. "नहीं ठीक हुआ तो आना ही पड़ेगा." ढंडा-सा स्वर था उनका. सदैव से पृथक थी वह आवाज. अन्यथा फोन पर भी उनकी आवाज के गांभीर्य को अनुभव करना मुझे सुखद लगता था--- "कहो रूप, क्या हाल हैं?" बात का प्रारंभ वे इसी वाक्य से करते थे.


डॉक्टर साहब दिल्ली आए, लेकिन देर हो चुकी थी. आने से पूर्व उन्होंने मुझे फोन करने का प्रयत्न किया रात में, लेकिन फोन नहीं मिला. तब मोबाइल का चलन न था. उन्होंने डॉ० कृष्णदत्त पालीवाल को फोन कर आने की बात बताई. पालीवाल जी ने उन्हें एयरपोर्ट से रेसीव किया. कई दिन डॉक्टरों से संपर्क में बीते, अंततः १० अगस्त को उन्हें राममनोहर लोहिया अस्पताल के प्राइवेट नर्सिंग होम में भर्ती करवाया गया. मैं जब मिलने गया तो देखकर हत्प्रभ रह गया ----" क्या ये वही डॉ० शिवप्रसाद सिंह हैं?' डॉक्टर साहब का शरीर गल चुका था. शरीर का भारीपन ढूंढ़े़ भी नहीं मिला. कंचन-काया घुल गई थी और बांहों में झुर्रियां स्पष्ट थीं. मेरे समक्ष एक ऎसा युगपुरुष शय्यासीन था, जिसने साहित्य में मील के पत्थर गाडे़ थे. जिधर रुख किया, शोध, आलोचना, निबंध, कहानी, उपन्यास, यात्रा- संस्मरण या नाटक---- उल्लेखनीय काम किया. मैं यह बात पहले भी कह चुका हूं और निस्संकोच पुनः कहना चाहता हूं कि हिन्दी उपन्यासों के क्षेत्र की उदासीनता उनके 'नीला चांद' से टूटी थी. इसे इस रूप में कहना अधिक उचित होगा कि 'नीला चांद' से ही उपन्यासों की वापसी स्वीकार की जानी चाहिए. नई पीढ़ी, जो कहानियों और अन्य लघु विधाओं में मुब्तिला थी, उसके पश्चात उपन्यासॊं की ओर आकर्षित हुई. बीसवीं शताब्दी के अंतिम दशक को यदि 'उपन्यास दशक' के रूप में रेखांकित किया जाए तो अत्युक्ति न होगी. अनेक महत्वपूर्ण उपन्यास इस दशक में आए. यह अलग बात है कि साहित्य की निकृष्ट राजनीति और तत्काल-झपट की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण जिन उपन्यासों की चर्चा होनी चाहिए थी, नहीं हुई या अपेक्षाकृत कम हुई; और जिनकी हुई, वे उस योग्य न थे. डॉ शिवप्रसाद सिंह के उपन्यासों - 'शैलूष', 'हनोज दिल्ली दूर अस्त' जो दो खंडॊं -- 'कोहरे में युद्ध' एवं 'दिल्ली दूर है' के रूप में प्रकाशित हुए थे, एवं 'औरत' और उनके अंतिम उपन्यास 'वैश्वानर' की अपेक्षित चर्चा नहीं की गई. ऎसा योजनाबद्ध रूप से किया गया. डॉ० शिव प्रसाद सिंह इस बात से दुखी थे. वे दुखी इस बात से नहीं थे कि उनकी कृतियों पर लोग मौन धारण का लेते थे, बल्कि इसलिए कि हिन्दी में जो राजनीति थी उससे वह साहित्य का विकास अवरुद्ध देखते थे.उनसे मुलाकात होने या फोन करने पर वह साहित्यिक राजनीति की चर्चा अवश्य करते थे.

इस अवसर पर उनके विषय में व्यक्त राजकुमार गौतम के उद्गार याद आ रहे हैं. गौतम ने ऎसा किसी राजनीतिवश किया था या अपनी किसी कुण्ठावश आजतक मैं समझ नहीं पाया. गौतम मेरे विभाग में थे और कई वर्षों तक हम साथ-साथ रहे थे. जिन दिनों की बात है, उन दिनों हम आर.के. पुरम कार्यालय में थे. बात १९९३ की थी . 'नवल कैण्टीन' में चाय के दौरान शिवप्रसाद सिंह की चर्चा आने पर राजकुमार गौतम ने तिक्ततापूर्वक कहा, "वह बुड्ढा स्साला क्या लिखता है--- इतिहास की चोरी ही तो करता है." उन्होंने दो अवसरों पर यही बात कही.बात मुझे आहत कर गयी . शायद कही भी इसीलिए गयी थी, क्योंकि मैं शिवप्रसाद जी के अति निकट था . तीसरी बार उन्होंने यह बात तब कही जब वह रक्षा मंत्रालय में प्रतिनियुक्ति में थे और मैं आर० एण्ड डी० में था. हम प्रायः लंच के समय मिलते और साहित्य पर चर्चा करते. एक दिन लंच के बाद जब हम अपने-अपने कार्यालयों को जा रहे थे तब 'नार्थब्लॉक" के गेट पर उन्होंने शिवप्रसाद सिंह के बारे में हू बहू वही शब्द कहे जो आर.के.पुरम की नवल कैण्टीन में दो बार वह कह चुके थे. मैंने तीनों बार ही कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं की, लेकिन इस विषय पर निरन्तर सोचता रहा. दो निष्कर्ष निकाले थे तब मैंने. 'नीला चांद' प्रकाशित होने के बाद शिवप्रसाद सिंह के कुछ समकालीन साहित्यकार उनके विरुद्ध बोलने लगे थे -- यहां तक वे उन्हें हिन्दूवादी लेखक भी कहने लगे थे. उनमें एक बड़ी कथा पत्रिका के सम्पादक भी थे.निर्मल वर्मा और शैलेश मटियानी उनकी राजनीति का शिकार हो चुके थे. गौतम जी उन दिनों उन सम्पादक के निकट थे और संभव है उनके प्रभाववश उन्होंने शिवप्रसाद जी को गाली दी हो.

दूसरा कारण भी हो सकता था. १९९२ से गौतम जी दिल्ली के एक प्रकाशक के लिए कुछ काम कर रहे थे. उन प्रकाशक ने १९९३ में अपने पिता के नाम दिये जाने वाले पुरस्कार समारोह की अध्यक्षता के लिए शिवप्रसाद जी को बुलाया था. प्रकाशक के यहां गौतम जी की सक्रियता देख शिवप्रसाद सिंह ने मुझसे पूछा कि गौतम प्रकाशक के यहां किस पद पर काम कर रहे हैं. मैंने उन्हें बताया कि वह मेरे विभाग में मेरे ही साथ हैं. बात इतनी ही थी, लेकिन शिवप्रसाद जी की चर्चा चलने में मैंने उनकी उस बात का जिक्र गौतम से कर दिया था. संभव है साहित्य में कुछ बड़ा न कर पाने की कुण्ठा ने गौतम को शिवप्रसाद जी को गाली देने के लिए प्रेरित किया हो. इस बात का जिक्र मैंने वरिष्ठ कथाकार हिमांशु जोशी से किया; और शिकायत के रूप में किया, क्योंकि वे हम दोनों के मित्र थे और आज भी हैं और वह शिवप्रसाद जी के भी निकट थे. उन्होंने जो उत्तर दिया वह चौंकानेवाला था. उनका कथन था कि गौतम ऎसा कह ही नहीं सकता. खैर, आज उतनी ही पीड़ा से, जितनी तब मुझे हुई थी, जब गौतम ने शिवप्रसाद सिंह को गलियाया था, मैं इस घटना का जिक्र केवल इसलिए कर रहा हूं कि आज भी साहित्य में कुछ न कर पाने वाले लोग निरंतर काम करने वाले लेखकों को गलियाते रहते हैं. यहां मुझे शिवप्रसाद जी के शब्द याद आ रहे हैं जो उन्होंने मुझसे लंबे साक्षात्कार के दौरान ऎसे लोगों के लिए कहे थे- "वे मुझसे अच्छा राग गाकर दिखा दें मैं गाना(लिखना) बंद कर दूंगा."

डॉक्टर साहब के अनेक पत्र हैं मेरे पास, जिसमें उन्होंने मुझे सदैव यही सलाह दी कि लेखन में न कोई समझौता करूं, न किसी की परवाह. और उन्होंने भी किसी की परवाह नहीं की. जीवन में कभी व्यवस्थित नहीं रहे. रहे होते तो वे दूसरे बनारसी विद्वानों की भांति बनारस में ही न पड़े रहे होते. कहीं भी कोई ऊंचा पद ले सकते थे. ऎसा भी नहीं कि उन्हें ऑफर नहीं मिले, लेकिन वे कभी 'कैरियरिस्ट' नहीं रहे. जीवन की आकांक्षाएं सीमित रहीं. बहुत कुछ करना चाहते थे. 'वैश्वानर' लिख रहे थे, उन दिनों एक बार कहा था --"यदि जीवन को दस वर्ष और मिले तो सात-आठ उपन्यास और लिखूंगा .

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१९४९ में उदय प्रताप कॉलेज से इंटरमीडिएट कर शिवप्रसाद जी ने १९५१ में बी.एच. यू. से बी.ए. और १९५३ में हिन्दी में प्रथम श्रेणी में प्रथम एम.ए. किया था. स्वर्ण पदक विजेता डॉ. शिवप्रसाद सिंह ने एम.ए. में 'कीर्तिलता और अवहट्ठ भाषा' पर जो लघु शोध प्रबंध प्रस्तुत किया उसकी प्रशंसा राहुल सांकृत्यायन और डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने की थी. हालांकि वे द्विवेदी जी के प्रारंभ से ही प्रिय शिष्यों में थे, किन्तु उसके पश्चात द्विवेदी जी का विशेष प्यार उन्हें मिलने लगा. द्विवेदी जी के निर्देशन में उन्होंने 'सूर पूर्व ब्रजभाषा और उसका साहित्य' विषय पर शोध संपन्न किया, जो अपने प्रकार का उत्कृष्ट और मौलिक कार्य था. डॉ. सिंह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में १९५३ में प्रवक्ता नियुक्त हुए, जहां से ३१ अगस्त १९८८ में प्रोफेसर पद से उन्होंने अवकाश ग्रहण किया था. भारत सरकार की नई शिक्षा नीति के अंतर्गत यू.जी.सी. ने १९८६ में उन्हें 'हिन्दी पाठ्यक्रम विकास केन्द्र' का समन्वयक नियुक्त किया था. इस योजना के अंतर्गत उनके द्वारा प्रस्तुत हिन्दी पाठ्यक्रम को यू.जी.सी. ने १९८९ में स्वीकृति प्रदान की थी और उसे देश के समस्त विश्वविद्यालयों के लिए जारी किया था. वे 'रेलवे बोर्ड के राजभाषा विभाग' के मानद सदस्य भी रहे और साहित्य अकादमी, बिरला फाउंडेशन, उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान जैसी अनेक संस्थाओं से किसी-न-किसी रूप में संबद्ध रहे थे.

डॉक्टर साहब प्रारंभ में अरविंद के अस्तित्ववाद से प्रभावित रहे थे और यह प्रभाव कमोबेश उन पर अंत तक रहा भी; लेकिन बाद में वे लोहिया के समाजवाद के प्रति उन्मुख हो गए थे और आजीवन उसी विचारधारा से जुड़े रहे. एक वास्तविकता यह भी है कि वे किसी भी प्रगतिशील से कम प्रगतिशील नहीं थे; लेकिन प्रगतिशीलता या मार्क्सवाद को कंधे पर ढोनेवालों या उसीका खाने-जीनेवालों से उनकी कभी नहीं पटी. इसका प्रमुख कारण उन लोगों के वक्तव्यों और कर्म में पाया जानेवाला विरोधाभास डॉ. शिवप्रसाद सिंह को कभी नहीं रुचा. वे अंदर-बाहर एक थे. जैसा लिखा वैसा ही जिया भी. इसीलिए तथाकथित मार्क्सवादियों या समाजवादियों की छद्मता से वे दूर रहे और इसके परिणाम भी उन्हें झेलने पड़े. १९६९ से साहित्य अकादमी में हावी एक वर्ग ने यह दृढ़ निश्चय कर लिया था कि उन्हें वह पुरस्कृत नहीं होने देगा--- और लगभग बीस वर्षों तक वे अपने उस कृत्य में सफल भी रहे थे. लेकिन क्या सागर के ज्वार को अवरुद्ध किया जा सकता है? शिवप्रसाद सिंह एक ऎसे सर्जक थे, जिनका लोहा अंततः उनके विरोधियों को भी मानना पड़ा.

डॉक्टर साहब ने जीवन में बहुत उतार-चढ़ाव देखे, लेकिन उनके जीवन का बेहद दुःखद प्रसंग था उनकी पुत्री मंजुश्री की मृत्यु. उससे पहले वे दो पुत्रों को खो चुके थे; लेकिन उससे वे इतना न टूटे थे जितना मंजुश्री की मृत्यु ने उन्हें तोड़ा था. वे उसे सर्वस्व लुटाकर बचाना चाहते थे. बेटी की दोनों किडनी खराब हो चुकी थीं. वे उसे लिए दिल्ली से दक्षिण भारत तक भटके थे. अपनी किडनी देकर उसे बचाना चाहते थे, लेकिन नहीं बचा सके थे. उससे पहले चार वर्षों से वे स्वयं साइटिका के शिकार रहे थे, जिससे लिखना कठिन बना रहा था. मंजुश्री की मृत्यु ने उन्हें तोड़ दिया था. आहत लेखक लगभग विक्षिप्त-सा हो गया था. उनकी स्थिति से चिंतित थे डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी--- और द्विवेदी जी ने अज्ञेय जी को कहा था कि वे उन्हें बुलाकर कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर ले जाएं. स्थान परिवर्तन से शिवप्रसाद सिंह शायद ठीक हो जाएंगे. डॉक्टर साहब ने यह सब बताया था इन पंक्तियों के लेखक को. मंजु की मृत्यु के पश्चात वे मौन रहने लगे थे---- कोई मिलने जाता तो उसे केवल घूरते रहते. साहित्य में चर्चा शुरू हो गई थी कि अब वे लिख न सकेंगे ---बस अब खत्म.

लेकिन डॉक्टर साहब का वह मौन धीरे-धीरे ऊर्जा प्राप्त करने के लिए था शायद. उन्होंने अपने को उस स्थिति से उबारा था. समय अवश्य लगा था, लेकिन वे सफल रहे थे और वे डूब गए थे मध्यकाल में. यद्यपि वे अपने साहित्यिक गुरु डॉ. हजारीप्रसाद द्विवेदी से प्रभावित थे, लेकिन डॉ. नामवर सिंह के इस विचार से सहमत नहीं हुआ जा सकता कि 'डॉ. शिवप्रसाद सिंह को ऎतिहासिक उपन्यास लेखन की प्रेरणा द्विवेदी जी के 'चारुचंन्द्र लेख' से मिली थी. 'द्विवेदी जी का 'चारुचंद्र लेख' भी ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी के राजा गहाड़वाल से संबधित है.' (राष्ट्रीय सहारा, १८ अक्टूबर, १९९८) . नामवर जी के इस कथन को क्या परोक्ष टिप्पणी माना जाए कि चूंकि द्विवेदी जी ने गहाड़वालों को आधार बनाया इसलिए शिवप्रसाद जी ने चंदेल नरेश कीर्तिवर्मा की कीर्ति पताका फरहाते हुए 'नीला चांद' और त्रलोक्य वर्मा पर आधारित 'कोहरे में युद्ध' एवं 'दिल्ली दूर है' लिखा . 'नीला चांद' जिन दिनों वे लिख रहे थे, साहित्यिक जगत में एक प्रवाद प्रचलित हुआ था कि डॉ. शिवप्रसाद सिंह अपने खानदान (चन्देलों पर) पर उपन्यास लिख रहे हैं. मेरे एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा था---"मैं नहीं समझता कि मैंने ऎसा लिखा है. मैंने तो जहां तक पता है, उनके वंश पर लिखा है........ मेरी मां गहाड़वाल कुल से थीं और वे भी गहाड़वाल हैं (शायद यह बात उन्होंने नामवर जी के संदर्भ में कही थी) क्या मैं अपने मातृकुल का अनर्थ सोचकर उपन्यास लिख रहा था? जो सत्य है, वह सत्य है. उसमें क्या है और क्या नहीं है, यही सब यदि मैं देखता तो चंदबरदाई बनता." (मेरे साक्षात्कार)

डॉक्टर साहब ऊपर से कठोर लेकिन अंदर से मोम थे. जितनी जल्दी नाराज होते, उससे भी जल्दी वे पिघल जाते थे . वे बेहद निश्छल , सरल और किसी हद तक भोले थे. उनकी इस निश्च्छलता का लोग अनुचित लाभ भी उठाते रहे. सरलता और भोलेपन के कारण कई बार वे कुटिल पुरुषों की पहचान नहीं कर पाते थे. कई ऎसे व्यक्ति, जो पीठ पीछे उनके प्रति अत्यंत कटु वचन बोलते , किन्तु सामने उनके बिछे रहे थे और डॉक्टर साहब उनके सामनेवाले स्वरूप पर लट्टू हो जाते थे. हिन्दी साहित्य का बड़ा भाग बेहद क्षुद्र लेखकों से भरा हुआ है (एक उदाहरण ऊपर दे ही चुका हूं), जो घोर अवसरवादी और अपने हित में किसी भी हद तक गिर जाने वाले हैं. यह कथन अत्यधिक कटु, किन्तु सत्य है. डॉक्टर साहब इस सबसे सदैव दुःखी रहे. वे साहित्य में ही नहीं, जीवन में भी शोषित, उपेक्षित और दलित के साथ रहे ---'शैलूष' हो या 'औरत' या उनकी कहानियां. इतिहास में उनके प्रवेश से आतंकित उनका विरोध करनेवाले साहित्यकारों-आलोचकों ने क्या उनके 'नीला चांद' के बाद के उपन्यास पढ़े हैं? क्या इतिहास से कटकर कोई समाज जी सकता है? जब ऎतिहासिक लेखन के लिए हजारीप्रसाद द्विवेदी के प्रशंसक डॉ. शिवप्रसाद सिंह की आलोचना करते हैं तब उसके पीछे षड्यंत्र से अधिक डॉ. शिवप्रसाद सिंह की लेखन के प्रति आस्था, निरंतरता और साधना से उनके आतंकित होने की ही गंध अधिक आती है. वास्तव में उनका मध्युयुगीन लेखन वर्तमान परिप्रेक्ष्य की ही एक प्रकार की व्याख्या है. इस विषय पर बहुत कुछ कहने की गुंजाइश है, लेकिन इस बात से अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि उनकी कृतियों का मूल्यांकन अब होगा-- हिन्दी जगत को करना ही होगा. उनकी साधना की सार्थकता स्वतः सिद्ध है. 'नीला चांद' जैसे महाकाव्यात्मक उपन्यास युगों में लिखे जाते हैं ---- और यदि उसकी तुलना तॉल्स्तोय के 'युद्ध और शांति' से की जाए तो अत्युक्ति न होगी.

*****
साहित्य के महाबली डॉ. शिवप्रसाद सिंह को अस्पताल की शय्या पर पड़ा देख मैं कांप गया था. वार्षों से मैं उनसे जुड़ा रहा था. वे जब-जब दिल्ली आए, शायद ही कोई अवसर रहा होगा जब मुझसे न मिले हों. बिना मिले उन्हें चैन नहीं था. मेरे प्रति उनका स्नेह यहां तक था कि दिल्ली के कई प्रकाशकों को कह देते ---"जो कुछ लेना है, रूप से लो." अर्थात उनकी कोई भी पांडुलिपि. कई ऎसे अवसर रहे कि मैं सात-आठ -- दस घंटे तक उनके साथ रहा. और उस दिन वे इतना अशक्त थे कि मात्र क्षीण मुस्कान ला इतना ही पूछा --"कहो, रूप?"


डॉक्टर साहब अस्पताल से ऊब गए थे. उन्हें अपनी मृत्यु का आभास भी हो गया था शायद. वे अपने बेटे नरेंद्र से काशी ले जाने की जिद करते, जिसके सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन को वे अपने तीन उपन्यासों -- 'नीला चांद', 'गली आगे मुड़ती है' और 'वैश्वानर' में जी चुके थे; जिसे विद्वानों ने इतालवी लेखक लारेंस दरेल के 'एलेक्जेंड्रीया क्वाट्रेट' की तर्ज पर ट्रिलाजी कहा था. वे कहते ---"जो होना है वहीं हो." और वे ७ सितंबर को 'सहारा' की नौ बजकर बीस मिनट की फ्लाइट से बनारस उड़ गए थे---- एक ऎसी उड़ान के लिए, जो अंतिम होती है. ६ सितंबर को देर रात तक मैं उनके साथ था. बाद में १० सितंबर को नरेंद्र से फोन पर उनके हाल जाने थे. नरेंद्र जानते थे कि वे अधिक दिनों साथ नहीं रहेंगे. उन्हें फेफड़ों का कैंसर था; लेकिन इतनी जल्दी साथ छोड़ देंगे, यह हमारी कल्पना से बाहर था. २८ सितंबर को सुबह चार बजे साहित्य के उस साधक ने आंखें मूंद लीं सदैव के लिए और उसके साथ ही हजारीप्रसाद द्विवेदी, अमृतलाल नागर, यशपाल एवं भगवतीचरण वर्मा की परंपरा का अंतिम स्तंभ ढह गया था. निस्संदेह हिन्दी साहित्य के लिए यह अपूरणीय क्षति थी .

बुधवार, 17 सितंबर 2008

लघु कहानी



प्राण शर्मा की पांच लघुकहानियां

अक्ल के अंधे

प्रवीण कुमार के एक मित्र हैं--- हितैषी राय . कुछ-एक लोगों के साथ मिलकर उन्होंने एक कल्याणकारी संस्था बनायी. संस्था का नाम रखा -- 'जन कल्याण.'

हालांकि उनकी संस्था छोटी है , लेकिन उनकी भावी योजनाएं बड़ी हैं. फिलहाल उनकी योजना एक अनाथालय भवन निर्माण की है .

एक दिन हितैषी राय दान लेने के लिए प्रवीण के पास गए. बोले- "प्रवीण जी, आप मेरे परम मित्र हैं. हमारे शुभ कार्य अनाथालय के भवन-निर्माण के लिए दिल खोलकर दान दीजिए और दान देने के लिए अपने सेठ मित्रों के नाम भी सुझाइए."

दान देने के बाद प्रवीण कुमार ने नगर के उद्योगपति गिरधारी लाल का नाम सुझाया और बात-बात में यह भी बता दिया -- "गिरधारी लाल ऎसी तबियत के शख्स हैं कि दान देने के लिए उन्हें किसी मित्र के सिफारिशी ख़त की ज़रूरत नहीं पड़ती.

दूसरे दिन ही हितैषी राय अपने कुछ साथियों के साथ दान लेने के लिए गिरधारी लाल के पास पहुंच गये. रास्ते में उन्होंने अपने सथियों को सावधान कर दिया --'हमें गिरधारी लाल से यह कहने की बिल्कुल ज़रूरत नहीं है कि दान लेने के लिए प्रवीण कुमार ने हमे आपके पास भेजा है. खामखा प्रवीण कुमार का एहसान हम क्यों लें?

गिरिधारी लाल से मिलते ही हितैषी राय ने अपना और अपने साथियों का परिचय दिया और दान लेने के लिए भारी-भरकम पोथी खोल ली.

"हितैषी राय जी, मैंने तो आपकी संस्था 'जन-कल्याण' का नाम आज तक नहीं सुना और पोथी आप भारी-भरकम उठा लाये हैं." गिरिधारी लाल ने दान न देने की मानसिकता से कहा.

"सारा नगर जानता है कि आप दिल खोलकर दान देते हैं. आप इस नगर के राजा हरिश्चन्द्र हैं. " हितैषी राय बोले.

"पहले मैं ऎसा ही किया करता था. अब तो दान लेने वालों का तांता लग गया है. रोज कोई न कोई दान लेने आ जाता है. किसीकी अस्पताल बनवाने की योजना है तो किसी की वृद्धाश्रम . हमारे नगर में अस्पतालों और वृद्धाश्रमों को बनानेवालों की बाढ़-सी आ गयी है. बुरा नहीं मानिए, आपकी तरह कई लोग किसी न किसी योजना के साथ दान के लिए आ जाते हैं. दान लेकर वे कहां गायब हो जाते हैं, राम ही जाने. जाइये, आप किसी हमारे परिचित का पत्र लेकर आइये. हम आपको भी जरूर दान देगें."

मेहमान

घर में आए मेहमान से मनु ने पूछा --"क्या पीएगें, गर्म या ठंडा?"

"नही, कुछ नहीं." मेहमान ने अपनी मोटी गर्दन हिलाकर कहा.

"कुछ तो चलेगा?"

"कहा न कुछ नहीं."

'शराब?"

"वो भी नहीं"

"ये कैसे हो सकता है? आप हमारे घर में पहली बार पधारे हैं. कुछ तो चलेगा ही."

मेहमान इस बार चुप रहा.

मनु शिवास रीगल की महंगी शराब की बोतल अंदर से उठा लाया.

मेहमान की जीभ लपलपा उठी पर उसने पीने से न कह दी.

मनु के बार-बार कहने पर आखि़र उसने एक छोटा सा पैग लेना स्वीकार कर लिया. उस छोटे पैग का नशा मेहमान पर कुछ ऎसा तारी हुआ कि देखते ही देखते वो आधी से जिआदा बोतल खाली कर गया. मनु का दिल बैठ गया. मेहमान रुखसत हुआ. मनु मेज़ पर मुक्का मारकर चिल्ला उठा -- "मैंने तो इतनी महंगी शराब की बोतल उसके सामने रख कर दिखावा किया था लेकिन हरामी आधी से जिआदा गटक गया, गोया उसके बाप का माल था."

वाह री लक्ष्मी

"लक्ष्मी, देख लेना, एक दिन मेरा पांसा ज़रूर सीधा पड़ेगा. एक दिन मैं ज़रूर लॉटरी जीतूगां.तब मैं तुम्हें ऊपर से लेकर नीचे तक सोने-चांदी के गहनों से लाद दूंगा. तुम्हें सचमुच की लक्ष्मी बना दूंगा. सचमुच की लक्ष्मी.तुम्हें देख कर लोग दांतों तले अपनी उंगलियां दबा लेगें. अरी, दुर्योधन भी पहले धर्मराज युधिष्ठिर से जुए में हारा था. सब दिन होत न एक समान . भाग्य ने उसका साथ दिया. और वो पांडवों का राजपाट जीतकर राज कुंवर बन गया."

सुरेश के उत्साह भरे शब्द भी आग में घी का काम करते. सुनते ही लक्ष्मी तिलमिला उठती -- "भाड़ में जाए तुम्हारी लॉटरी. सारी की सारी कमाई तुम लॉटरी, घोड़ॊं और कुत्तों पर लगा देते हो . इन पर पानी की तरह धन बहाने की तुम्हारी लत घर में क्या-क्या बर्बादी नहीं ला रही है?तुम्हारा बस चले तो धर्मराज युधिष्ठिर की तरह तुम मुझे भी दांव पर लगा दो. "

सुरेश और लक्ष्मी में तू-तू, मैं - मैं का तूफ़ान रोज़ ही आता.

बुधवार था. रात के दस बज चुके थे. बी.बी.सी. पर लॉटरी मशीन से नम्बर गिरने शुरू हुए -- १, ५, ११, १६, २५, ४० और सुरेश की आंखें खुली की खुली रह गयीं. वह खुशी के मारे गगनभेदी आवाज़ में चिल्ला उठा --"आई ऎम ऎ मिल्लियनआर नाओ."

जुआ को अभिशाप समझने वाली लक्ष्मी रसोईघर से भागी आयी . सुरेश को अपनी बांहों में भर कर वो भी चिल्ला उठी -- "हुर्रे, वी आर मिल्लियनआर."

वक्त वक्त की बात

सरिता अरोड़ा की देवेन्द्र साही से जान-पहचान कॉलेज के दिनों से है. कभी दोनों में एक-दूसरे के प्रति प्यार भी जागा था.

आज देवेन्द्र साही का फ़िल्म उद्योग में बड़ा नाम है. उसने एक नहीं तीन-तीन हिट फिल्में दी हैं. उसकी फिल्में साफ़ -सुथरी होती हैं. सरिता अरोड़ा के मन में इच्छा जागी कि क्यों न वो अपनी रूपवती बेटी अरुणा को हेरोइन बनाने की बात देवेन्द्र से कहे. मन में इच्छा जागते ही उसने मुम्बई का टिकट लिया और जा पहुंची अपने पुराने मित्र के पास.

देवेन्द्र साही सरिता अरोड़ा के मन की बात सुनकर बोला -- "ये फ़िल्म जगत है. इसके रंग-ढंग बड़े निराले हैं. सुनोगी तो दांतों में उंगलियां दबा लोगी. यहां हर हेरोइन को पारदर्शी कपड़े पहनने पड़ते हैं. कभी-कभी तो उसे निर्वस्त्र भी-----."

तो क्या हुआ ? हम सभी कौन से वस्त्र पहन कर जन्मे थे? सभी इस संसार में नंगे ही तो आते हैं."

सरिता अरोड़ा अपनी बात कहे जा रही थी और देवेन्द्र साही सोचे जा रहा था कि क्या यह वही सरिता अरोड़ा है जो अपने तन को पूरी तरह से ढक कर कॉलेज आया करती थी.


बचत

मूसलाधार बारिश में विमला दौड़ी-दौड़ी सुकीर्ति के पास आयी. हांफते हुए बोली,"सुकीर्ति, कान्ले पार्क में सैन्स्बुरी सुपर स्टोर में बटर की सेल लगी है. ढाई सौ ग्राम की लारपाक बटर की टिकिया सिर्फ़ पचासी पेनिओं में. एक टिकिया के पीछे दस पेनिओं की छूट है. सुनहरी मौका है बटर खरीदने का. आ चलें खरीदने. "

स्टोक और कान्ले पार्क में पूरे छः मील का फासला . सुकीर्ति फिर भी तैयार हो गयी.

विमला और सुकीर्ति अपने-अपने सिर पर छतरी ताने बस स्टॉप पर आ गयीं. कान्ले पार्क पहुंचने के लिए उन्होंने दो बसें पकड़ीं. पहले २७ नम्बर और फिर सिटी सेंटर से १२ नम्बर. दोनों ने डे ट्रिप टिकट लिया. लगभग दो घंटों के सफर के बाद वे कान्ले पार्क पहुंचीं.

लोगों की भारी मांग के कारण विमला और सुकीर्ति पच्चीस-पच्चीस टिकियां ही खरीद पायीं. पच्चीस - पच्चीस टिकियों से दोनों को ढाई-ढाई पाउंड का लाभ हो गया था. दोनों खुश थीं.

घर पहुंचते ही विमला और सुकीर्ति ने अपनी खुशी की वजह अपने पति्यों को बतायीं. पति बरस पड़े. "क्या खा़क ढाई-ढाई पाउंड की बचत की है तुम दोनों ने? अरे मूर्खों तुम दोनों बसों में फ्री तो गयी और आयी नहीं. ढाई-ढाई पाउंड बस के किराए का भी हिसाब लगाओ न!"

प्राण शर्मा का जन्म १३ जून १९३७ को वजीराबाद (वर्तमान पाकिस्तान) में हुआ था. प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली में. पंजाब विश्वविद्यालय से एम.ए.(हिन्दी). १९५५ से लेखन . फिल्मी गीत गाते-गाते गीत , कविताएं और ग़ज़ले कहनी शुरू कीं.

१९६५ से ब्रिटेन में.

१९६१ में भाषा विभाग, पटियाला द्वारा आयोजित टैगोर निबंध प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार. १९८२ में कादम्बिनी द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार. १९८६ में ईस्ट मिडलैंड आर्ट्स, लेस्टर द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार.

लेख - 'हिन्दी गज़ल बनाम उर्दू गज़ल" पुरवाई पत्रिका और अभिव्यक्ति वेबसाइट पर काफी सराहा गया. शीघ्र यह लेख पुस्तकाकार रूप में प्रकाश्य.

२००६ में हिन्दी समिति, लन्दन द्वारा सम्मानित.
"गज़ल कहता हूं' और 'सुराही' - दो काव्य संग्रह प्रकाशित.

Coventry CVESEB, UK3, Crakston Close, Stoke Hill Estate,
E-mail : pransharma@talktalk.net

बुधवार, 10 सितंबर 2008

संस्मरण







शीर्ष से सतह तक की यात्रा

रूपसिंह चन्देल

सीढ़ियां चढ़कर मैं पहली मंजिल पर उनके कमरे के दरवाजे पर पहुंचा .दरवाजा बंद था. कमरे में टेलीविजन ऊंचे वाल्यूम में चल रहा था. कई बार खटखटाया, लेकिन कोई उत्तर नहीं . काफी प्रातीक्षा और प्रयास के बाद दरवाजा खुला. भाभी जी थीं. मुझे देखकर हत्प्रभ. "अन्दर आइये" कहकर पीछे मुड़ीं और उंची आवाज में बोलीं, "अरे देखो तो कौन आया है?" लेकिन उन्होंने सुना नहीं और आंखे टी.वी. पर गड़ाये रहे. भाभी जी ने टी.वी. धीमा कर दिया और बोली,"चन्देल जी आये हैं."

बनियाइन और पाजामे में वह लेटे हुए टी.वी. देख रहे थे. पत्नी के साथ मुझे देखकर तपाक से उठे और "अरे आप!" कहते हुए नीचे उतरे. चप्पलें नहीं मिलीं तो नंगे पैर मेरे पास आये, "सभी मुझे भूल गये. " एक मायूसी उनके चेहरे पर तैर गयी, " चलिए आपने याद तो रखा." स्वर में शिकायत थी.

"आपने वायदा किया था कि नये घर में जाकर मुझे पता और फोन नम्बर देंगे. " आवाज कुछ ऊंची करके बोलना पड़ा. जबसे मस्तिष्क में कीड़े हुए थे, उन्हें कम सुनाई देने लगा था. वैसे टी.वी. इसलिए भी ऊंची आवाज में सुन रहे होगें, लेकिन उनके यहां टी.वी. सदैव ऊंची आवाज में ही सुना जाता था.

मैं कमरे का जायजा ले रहा था. यह चौदह बाई दस का कमरा रहा होगा, जिसमें एक डबल बेड और तीन कुर्सियां, एक आल्मारी और कुछ अन्य सामान रखा था. सामने छोटी-सी रसोई और उससे आगे बाल्कानी , जिसपर उन्होंने टीन-शेड डलवा रखी थी. दिल्ली के विश्वास नगर के लम्बे-चौड़े दो मंजिले मकान में रहने वाले ( जिसमें नीचे हिस्से में उनके प्रकाशन की पुस्तकों का भण्डार और कार्यालय था, और ऊपर रिहायश. उससे ऊपर भी कमरा) श्रीकॄष्ण जी का जीवन नोएडा के उस छोटे-से जनता फ्लैट में सिमटकर रह गया था.

श्रीकृष्ण जी से मेरी पहली मुलाकात १९८४ के आसपास हुई थी. मैं लेखक होने के शुरूआती दौर से गुजर रहा था .कभी-कभार पत्र -पत्रिकाओं में जाया करता . यह यात्रा प्रायः शनिवार को होती . उस दिन हिन्दुस्तान टाइम्स में 'साप्ताहिक हुन्दुस्तान' में हिमांशु जोशी से मिलने गया था. हिमांशु जी उन दिनों वहां विशेष संवाददाता होने के अतिरिक्त साहित्य भी देखते थे . उनसे मेरा परिचय एकाध साल पहले ही हुआ था.

उस दिन हिमांशु जी के पास दो सज्जन पहले से ही बैठे हुए थे. एक औसत कद, गोरे और स्लिम और दूसरे नाटे , सांवले और दुबले . मैं दोनों को ही नहीं जानता था. हिमांशु जी ने उनके परिचय दिए . गोरे सज्जन थे आबिद सुरती और दूसरे थे पराग प्रकाशन के श्री श्रीकृष्ण . परिचय के आदान- प्रदान के दौरान श्रीकृण जी पूरे समय मुस्कराते रहे थे. बाद में पता चला कि श्रीकृण जी ने हिमांशु जी का तब तक का लगभग पूरा साहित्य प्रकाशित किया था. कुछ लोगों के अनुसार साहित्य जगत में पुस्तकाकार रूप में प्रकाशित कर पाठकों तक हिमांशु जी को पहुंचाने वाले पहले प्रकाशक श्रीकृष्ण जी थे. हालांकि 'साप्ताहिक हिन्दुस्ता" में धारावाहिक रूप में प्रकाशित होने वाले हिमांशु जी के उपन्यास और कहानियों से पाठक पहले से ही परिचित रहे होगें. जोशी जी की भांति नरेन्द्र कोहली के बहुचर्चित उपन्यास 'दीक्षा' आदि को सर्वप्रथम 'पराग' ने ही प्रकाशित किया था . बाद में हिमांशु जी ने अपनी पुस्तकें पराग से ले ली थीं . एक समय ऎसा भी आया जब किसी बात पर उनके मध्य विवाद भी हुआ और जोशी जी ने पराग को वकील का नोटिस भी भेजा था. श्री कृष्ण जी मुझे सब बताते और चाहते कि मैं मध्यस्थता करूं लेकिन मैं मध्यस्थता की स्थिति में न था. वकील की नोटिस से श्रीकृष्ण जी बहुत आहत थे. अन्ततः वह मध्यस्तता शरदेन्दु जी ने की थी और उसी रात श्रीकृष्ण जी ने मुझे फोन करके सारा प्रकरण बताने के बाद कहा था, "आज एक बहुत बड़ा टेंशन से मुक्त हो गया हूं , लेकिन मैंने उनसे (हिमांशु जी) ऎसी आशा नहीं की थी."

श्रीकृष्ण जी से परिचय के समय तक मेरी दो पुस्तकें - एक बाल कहानी संग्रह और एक अपराध विज्ञान की पुस्तक ही प्रकाशित हुई थीं, लेकिन एक-दो पाण्डुलिपियां प्रकाशकों के यहां पहुंचने की राह देख रही थीं. हिमांशु जी के कार्यालय में श्रीकृष्ण जी से परिचित होने के बाद उनसे अगली मुलाकात १९८६ या ८७ में हुई थी. मैं किसी के साथ (शायद कथाकार बलराम के साथ) उनके घर कर्ण गली, विश्वासनगर गया था. उन दिनों तक 'पराग प्रकाशन' हिन्दी के महत्वपूर्ण प्रकाशकों में अपनी अलग पहचान पा चुका था. पराग को ही अमृता प्रीतम की 'रसीदी टिकट' प्रकाशित करने का पहला अवसर मिला था , जिसकी बहुत चर्चा हुई थी. नरेन्द्र कोहली के रामायण पर आधारित उपन्यास भी चर्चा बटोर चुके थे. स्थिति यह थी कि अधिकांश युवा लेखक वहां छपना चाहते थे और पराग ने अनेकों को छापा भी था. लेकिन कुछ युवा लेखकों ने उन्हें बाद में परेशान भी किया था. उन दिनों श्रीकृष्ण जी ने जिससे भी - स्थापित या नये लेखकों से पाण्डुलिपियां मांगी , शायद ही किसी ने उन्हें निराश किया होगा. उसका सबसे बड़ा कारण था उनका 'प्रोडक्शन'. एक बार चर्चा के दौरान उन्होंने बताया था कि उनके प्रोडक्शन से राजकमल प्रकाशन की शीला सन्धु इतना प्रभावित थीं कि उन्होंने प्रकाशन के प्रबन्धक श्री मोहन गुप्त को उनकी टाइटल्स दिखाते हुए कहा था - "मोहन जी इस मामले में हमें श्रीकृष्ण जी से सीखना चाहिए. अकेले दम पर प्रकाशन चला रहे हैं और प्रोडक्शन इतना गजब का !"

सम्भवतः मेरे मन में भी पराग से प्रकाशित होने की ललक मुझे उनके यहां तक खींच ले गयी होगी. बहरहाल , उनसे मिलने का सिलसिला चल निकला और कई मुलाकातों के बाद मैंने उनसे अपना कहानी संग्रह प्रकाशित करने का आग्रह किया, जिसे उन्होंने सहजता से स्वीकार कर लिया. १९९० में 'आदमखोर तथा अन्य कहानियां ' प्रकाशित हुआ. उसके पश्चात श्रीकृष्ण जी की जो आत्मीयता मुझे मिली उसे व्यक्त करने के लिए शब्द नहीं हैं. रॉयल्टी को लेकर मुझे कभी उनसे शिकायत नहीं रही. उन्हीं दिनों मेरा परिचय उनके मित्र श्री योगन्द्रकुमार लल्ला से हुआ . लल्ला जी 'रविवार' पत्रिका में संयुक्त सम्पादक थे. लला जी ने बताया था कि उन्होंने और श्रीकृष्ण जी ने अपने कैरियर की शुरुआत एक साथ ’आत्माराम एण्ड सन्स’ से की थी. दोनों ही लेखक थे और बच्चों के लिए लिख रहे थे. लल्ला जी आज मेरठ में रह रहे हैं लेकिन आज भी उनकी मित्रता बरकरार है.
श्रीकृष्ण जी ने मेरा दूसरा कहानी संग्रह १९९५ में प्रकाशित किया - 'एक मसीहा की मौत'. लेकिन तब तक उनके प्रकाशन की स्थिति नाजुक हो आयी थी. कारण थे दिल्ली के एक लेखक जो उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार की खरीद योजना के एक उच्च अधिकारी के दलाल थे. खुदा उनकी आत्मा को शान्ति प्रदान करे. उन्होंने दिल्ली के अनेक प्रकाशकों को सब्जबाग दिखाया था . श्रीकृष्ण जी भी (स्वयं उनके अनुसार जिन्दगी में पहली बार ) उसके सब्जबाग में आ गये और डूब गये. हासिल कुछ हुआ नहीं था --- कर्जदार अलग हो गये थे. उन्हीं दिनों एक और घटना घटी थी उनके साथ. उनका पराग प्रकाशन रजिस्टर्ड नहीं था. उनके एक मित्र प्रकाशक ने इस नाम को रजिस्टर्ड करवा लिया . परिणामतः उन्हें प्रकाशन का नाम बदलना पड़ा था. मेरा दूसरा कहानी संग्रह उनके नये प्रकाशन 'अभिरुचि प्रकाशन' से प्रकाशित हुआ था.

श्रीकृष्ण जी बहुत उत्साही व्यक्ति हैं. प्रकाशन की डांवाडोल स्थिति के बावजूद वह मोटी -मोटी पुस्तकें प्रकाशित कर रहे थे. उन्होंने एक दिन फोन करके मुझे बुलाया और बोले- "आपसे एक काम करवाना चाहता हूं." पूछने पर बताया कि वह सभी विधाओं पर शताब्दी का उत्कृष्ट साहित्य प्रकाशित करना चाहते हैं और चूंकि मैंने आंचलिक कहानियां और उपन्यास लिखें हैं अतः वह मुझसे 'बीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां' का सम्पादन करवाना चाहते हैं. मैंने सहर्ष स्वीकृति दे दी और १९९७ में दो खण्डों में वह कार्य ८०० पृष्ठों में प्रकाशित हुआ जिसकी न केवल भारत में बल्कि विदेशों में भी चर्चा हुई. पाठकों को यह बताना आवश्यक है कि उन्होंने मुझे सम्पादक के रूप में जो रॉयल्टी दी उसकी कल्पना मैं किसी बड़े प्रकाशक से नहीं कर सकता था.

उनके अति-उत्साह, बढ़ती उम्र और बिक्री की समुचित व्यवस्था के अभाव (क्यॊंकि वह अकेले थे--- उनके सात बेटियां थीं और उनकी शादी हो चुकी थी) के कारण प्रकाशन चरमरा रहा था. उनपर कर्ज का बोझ बढ़ रहा था, लेकिन पुस्तकें प्रकाशित करने के उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आ रही थी. उन्होंने 'मेरी तेरह कहानियां' नाम से कहानी संग्रहों की एक श्रृखंला प्रारम्भ की और कई लेखकों को छाप डाला. अंतिम कड़ी में, कमलेश्वर, प्रेमचन्द, और मुझ सहित पांच लेखकों को प्रकाशित किया. लेकिन इसी दौरान वह भयंकर बीमारी का शिकार होकर लम्बे समय तक शैय्यासीन रहे. उनके मस्तिष्क में कीड़े हो गये थे, जो आज एक आम बीमारी होती जा रही है. कहते हैं बन्ध- गोभी खाने वालों को इस बीमारी का शिकार होने की अधिक सम्भावना होती है.

अन्ततः स्थिति यह हुई कि श्रीकृष्ण जी को प्रकाशन बन्द करना पड़ा. यही नहीं उन्हें मकान भी बेच देना पड़ा. एक दिन उन्होंने मुझे बुलाया और मेरी पुस्तकों की बची प्रतियां मेरी गाड़ी में रखवा दीं, जिसमें 'मेरी तेरह कहानियां' की तीस प्रतियां और 'वीसवीं शताब्दी की उत्कृष्ट आंचलिक कहानियां' की लगभग ४४ प्रतियां थीं. "इतनी पुस्तकों का मैं क्या करूंगा.?" पूछने पर सहज- भाव से बोले थे, "मित्रों में बाट दीजिएगा."

उन्होंने मकान बेचने की बात बताते हुए कहा था, "जाने के बाद आपको नयी जगह का पता और फोन नम्बर दूंगा. आप जैसे कुछ ही लेखक हैं जो निस्वार्थ मुझसे सम्पर्क बनाए रहे--- उन्हें कैसे भूल सकता हूं." लेकिन या तो वह भूल गये अपनी असाध्य बीमारी के चलते या उन्हें अपना नया पता बताने में संकोच हुआ था. बात जो भी हो. व्यस्तता के चलते एक वर्ष तक मैं भी उनसे सम्पर्क नहीं साध सका. इतना पता था कि नोएडा में कहीं जनता फ्लैट लेकर वह रह रहे हैं. गत वर्ष इन्हीं दिनों किसी कार्यवश मुझे नोएडा जाना था. उनका पता किससे मिल सकता है यह सोचता रहा. उनकी एक बेटी श्यामलाल कॉलेज में हिन्दी प्राध्यापक है, लेकिन उनका फोन नं मेरे पास नहीं था. अंततः बलराम अग्रवाल ने बताया कि डॉ हरदयाल मेरी सहायता कर सकते हैं. डॉ हरदयाल से श्रीकृष्ण जी का पता लेकर मैं जब नोएडा के उनके जनता फ्लैट में पहुंचा तब उन्हें देखकर विश्वास ही नहीं हुआ कि यह वही श्रीकृष्ण हैं जो कभी हिन्दी प्रकाशन जगत में छाये हुए थे. और कहां विश्वासनगर में उनका भव्य मकान और कहां जनता फ्लैट!

मैं लगभग डेढ़ घण्टा उनके साथ रहा . वह गदगद थे . उस हालत में भी उनका लेखन कार्य चल रहा था. बच्चों के लिए कुछ लिख रहे थे. उनकी लगभग पचास पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें १४ पुस्तकें बड़ों के लिए हैं. उन्हें देखकर मैं सोचने के लिए विवश हुआ कि ईमानदारी और बिना छल-छद्म के प्रकाशन व्यवसाय चलाने वाले व्यक्ति का भविष्य श्रीकृष्ण जैसा हो सकता है. मुझे बहुत पहले भीष्म साहनी जी की साप्ताहिक हिन्दुस्तान में प्रकाशित कहानी याद हो आयी जिसमें लेखक की स्थिति तो नहीं बदलती--- वह जैसा होता है वर्षों - वर्षों लिखने के बाद भी वैसा ही बना रहता है, जबकि एक प्रकाशक कुछ वर्षों में ही पूंजीपति हो जाता है. लेकिन ऎसे प्रकाशकों के मध्य अपवादस्वरूप श्रीकृष्ण जी जैसे प्रकाशक भी हैं, जो अपनी ईमानदारी के कारण वह जीवन जीने के लिए विवश हैं जिसकी उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी. लेकिन वह इस बात से दुखी नहीं हैं---उनका दुख इस बात का है कि प्रकाशन जगत में भ्रष्टाचार गहराई तक फैल चुका है. अब बड़े -बड़े प्रकाशक नये लेखकों से पैसे लेकर उनकी पुस्तकें छाप रहे हैं. कुछ ऎसे भी हैं जो अप्रवासी हिंदी पंजाबी लेखकों की अनभिज्ञता और का लाभ उठाकर उनसे मोटी रकमें लेकर उनकी पुस्तकें प्रकाशित कर रहे हैं. उनके बल विदेश की यात्राएं कर रहे हैं. खरीद में बैठे अधिकारी का कुछ भी छाप रहे हैं. ऎसे अधिकारी मालामल भी हो रहे हैं और लेखक भी बन रहे हैं. परिणामतः हिन्दी साहित्य का स्तर गिर रहा है.

श्रीकृष्ण जी ने अपने प्रकाशकीय जीवन में कभी कुछ ऎसा नहीं किया . और जब किसी लेखक के खरीद करवा देने के छद्मजाल में फंसे तो उबर नहीं पाये. उन्हें प्रकाशकों की आजकी स्थिति से कष्ट होना स्वाभाविक है.

मैं उनके दीर्घायु होने की कामना करता हूं.