सोमवार, 24 मार्च 2008

पुस्तक चर्चा

आख़िरी पड़ाव का दु:ख (कहानी संग्रह)
लेखक : सुभाष नीरव
प्रकाशक : भावना प्रकाशन, 109-ए,
पटपड़गंज, दिल्ली–110091
पृष्ठ संख्या : 112
मूल्य : 150 रुपये।
स्वाभिमान और संवेदना से भरपूर कहानियाँ
अलका सिन्हा

आख़िरी पड़ाव का दु:ख’ कथाकार सुभाष नीरव का तीसरा कहानी-संग्रह है। इससे पूर्व वर्ष 2003 में ‘औरत होने का गुनाह’ और पहला संग्रह वर्ष 1990 में ‘दैत्य तथा अन्य कहानियाँ’ प्रकाशित हो चुके हैं। सुभाष नीरव उन कहानीकारों में नहीं हैं जिन्हें किताब निकालने की हड़बड़ी रहती है। कारण, कि उनकी रचनात्मकता कई स्तरों पर संतुष्ट होती रहती है। अनुवाद को माध्यम बनाकर कई पंजाबी रचनाओं को उन्होंने हिंदी पाठकों के लिए पुनसृ‍र्जित किया और एक सफल अनुवादक के रूप में भी अपनी एक अलग पहचान बनाई। हाल के कुछ समय से इंटरनेट पर अपनी ‘ब्लॉग पत्रिकाओं’ के माध्यम से भी वे हिंदी साहित्य तथा अनुवाद के माध्यम से पाठकों को स्तरीय सामग्री उपलब्ध कराने में लगे हुए हैं। बहरहाल, इन सबके बीच उनके भीतर का रचनाकार एक सूक्ष्म दृष्टि से अपने आस-पास की दुनिया का अवलोकन करता रहा है।
नवीनतम कहानी संग्रह की चौदह कहानियों को पढ़कर ये कहा जा सकता है कि यह संग्रह लाचारी, मजबूरी और उपेक्षा से संघर्ष करते ‘स्वाभिमान’ की कहानियाँ हैं। बेरोजगारी की समस्या को केन्द्र में रखकर लिखी गई कहानी “दैत्य” एक महत्वपूर्ण कहानी है। ऐसे कई युवक मिल जाएंगे जो रोजगार पाने के लिए किसी न किसी रूप में समझौता कर बैठते हैं, लेकिन उनके विरुद्ध सुशील अपने स्वाभिमान को बिकने नहीं देता। सुशील की भूखी अंतडि़याँ जब राधेश्याम को पूरियाँ खाते देखती हैं तब वह जीप छोड़कर बस स्टैंड की तरफ बढ़ जाता है और उसे माँ के दिए रुपये काफी लगते हैं। ये रुपये दरअसल उसके वे संस्कार हैं जो उसे राधेश्याम जैसे किसी ‘दैत्य’ के सामने झुकने से बचा लेने के लिए काफी हैं।
इसी तरह “सांप” कहानी इस संग्रह को मूल्यवान बनाती है। आंचलिकता से भरा इस कहानी का परिवेश, गिद्धे-टप्पों के बीच, बड़ी बारीकी के साथ कथानक को बुनता है। ‘सांप’ की उपस्थिति समानांतर रूप से चलती है और एक द्वंद की स्थिति में ऐंटी-क्लाइमेक्स पर जा ठहरती है। “लौटना” कहानी भी एक अलग तरह की शैली को लेकर चलती है, गोया कोई कहानी नहीं, उपन्यास रचा जा रहा हो। कई उपशीर्षकों के साथ समय परिवर्तन, स्थिति परिवर्तन तथा बदलते दृष्टिकोण के तीखे मोड़ भी सावधानी के कट गए हैं। आज के बाज़ारवाद और उपभोक्तावाद पर “मकड़ी” का मेटाफर लेकर बहुत सशक्त प्रस्तुति की गई है। यह छोटी-सी कहानी आज की क्रेडिट कार्ड शापिंग और उनके उपजने वाले खतरों के प्रति आगाह कराती है।
इतने बुरे दिन”, “अंतत:” और “सफ़र में आदमी” जैसी कहानियाँ पाठक को किसी लाचारी के उस चरम बिन्दु तक ले जाती हैं जो व्यक्ति का टर्निंग-प्वाइंट होता है, वह उसे किसी गुंडे, मवाली की ओर उन्मुख करता है तो यही क्षण उसकी अस्मिता और स्वाभिमान को प्रमाणित भी करता है।
जहाँ एक ओर “आवाज़” कहानी किसी नवयुवती के सपनों में मेंहदी के रंग भरती है, वहीं हकीकत से उसकी मुठभेड़ होने पर एक दर्दनाक आवाज़ उभारती है, जो देर तक पाठकों के भीतर गूंजती रहती है।
आख़िरी पड़ाव का दु:ख” संग्रह की कहानियाँ अपनी तरह से विविधता लिए हैं, फिर भी, यह संग्रह उम्र के अंतिम पड़ाव में भोगे जाने वाली उपेक्षा और तिरस्कार को लेकर अधिक संवेदनशील है। “आख़िरी पड़ाव का दु:ख” कहानी वृद्धावस्था और एकाकीपन को भोगते हुए मोहभंग की स्थिति पर ठहरती है तो “जीवन का ताप” कहानी उसी वृद्धावस्था को संवेदनाओं की ऊष्मा से जागृत रखती है और अहसास कराती है कि कोमल भावनाओं की प्रतीति हर उम्र में समान रूप से की जा सकती है।
संग्रह के अंतिम दो पन्ने बेहद कीमती हैं। “चटखे घड़े” कहानी की निम्न संवादात्मक पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं–
“सुनो जी, बाऊजी से कहो, लैट्रिन में पानी अच्छी तरह डाला करें।"
“बाऊजी, आप नहाते समय कितना पानी बर्बाद करते हैं।"
“बाऊजी, यह क्या उठा लाए सड़ी-गली सब्ज़ी!”
ऐसे कई तीखे दिल को भेदने वाले संवाद और बर्दाश्त के लिए बस एक शब्द – “गुडु़प !” ध्वनि-संवाद के रूप में एमदम नवीन प्रयोग! अलग अभिव्यंजना के साथ संग्रह की अंतिम कहानी तक पहुँचकर पाठक कई तरह की मनस्थितियों से गुजरता है, कई तरह के आंचलिक और शहरी परिवेश में गोते लगाता है और आशान्वित होता है कि सुभाष नीरव का पड़ाव अभी दूर है, अभी तो उनकी कहानियों का ग्राफ ऊपर और ऊपर की ओर बढ़ रहा है।
समीक्षक संपर्क :
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रविवार, 16 मार्च 2008

पुस्तक-चर्चा


‘छांग्या रुक्ख'
बलबीर माधोपुरी

अनुवाद – सुभाष नीरव
वाणी प्रकाशन, 21–ए, दरियागंज,
नयी दिल्ली –110 002
पृष्ठ 232, मूल्य – 300 रुपये।
छांग्या रुक्ख – दलित जीवन का वास्तविक दस्तावेज
-रूपसिंह चन्देल

भारतीय दलित-साहित्य में पहली दलित आत्मकथा किस भाषा में लिखी गई यह बता पाना मेरे लिए कठिन है लेकिन पंजाबी भाषा की पहली दलित आत्मकथा लिखने का गौरव पंजाबी के कवि-पत्रकार बलबीर मधोपुरी को अवश्य प्राप्त है। हाल ही में उनकी आत्मकथा “छांग्या रुक्ख” का अनुवाद (अनुवादक–सुभाष नीरव) हिन्दी में प्रकाशित हुआ और आश्चर्यजनक रूप से अत्यल्प समय में चर्चा के चरम शीर्ष पर जा पहुँचा। पंजाबी में इसके पांच संस्करणों का प्रकाशन और अन्य भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रजी में इसके अनुवाद इसकी प्रतिष्ठा को प्रमाणित करते हैं।
आखिर ऐसा क्या है इस दो सौ बत्तीस पृष्ठीय पुस्तक में जिसे एक बार प्रारंभ करने के पश्चात् छोड़ना कठिन है। कठिन इसलिए कि इसमें जीवन-जगत को बेहद ईमानदारी के साथ काव्यात्मक गद्य में प्रस्तुत किया गया है। अब तक की समस्त भारतीय भाषाओं की दलित आत्मकथाओं में अप्राप्य लोकजीवन का सार्थक प्रयोग भी ‘छांग्या रुक्ख‘ की बहुचर्चा का कारण है, जिसमें हिन्दी दलित आत्मकथाओं की भांति छद्म त्रासदियों को चित्रित नहीं किया गया है। वे उसी रूप में वहां उपस्थित हैं जैसी रही होगीं। यहां यह भी उल्लेखनीय है कि बलबीर के पास तराशी हुई निमज्जित भाषा और समृद्ध शिल्प है, जो गहन अध्ययन, चिन्तन और मनन के बाद ही अर्जित की जा सकती है। साहित्य ‘दलित‘ और ‘सवर्ण‘ खांचे में बांटा जा सकता है अर्थात् रचनाकारों के अनुसार उसका वर्गीकरण किया जा सकता है, जो कि है ही, लेकिन भाषा-शिल्प का वर्गीकरण इस आधार पर नहीं किया जा सकता। अच्छी भाषा और आकर्षक शिल्प परम्परा और विश्व-साहित्य के अध्ययन से ही अर्जित किया जा सकता है। ‘छांग्या रुक्ख’ का लेखक अपने जीवन विकास पर प्रकाश डालते हुए यह स्पष्ट करता है कि वह कब और किन आन्दोलनों से जुड़ा और भारतीय भाषाओं सहित विश्व के किन महान रचनाकारों को उसने पढ़ा।
‘छांग्या रुक्ख’ को यदि एक काव्यात्मक उपन्यास कहा जाय तो अत्युक्ति न होगी। इसे पढ़ते समय मुझे अनेक बार स्व0 भीष्म साहनी का उपन्यास ‘मैय्यादास की माड़ी’ याद आया। यदि उसे पंजाबी जीवन और संस्कृति का जीवंत दस्तावेज कहा जाता है तो ‘छांग्या रुक्ख‘ अपनी बुनावट और विवरणों के कारण उसके समकक्ष ही स्थापित होता है बावजूद इसके कि वह एक उपन्यास है और यह एक लेखक के जीवन की त्रासद वास्तविकता। विवेच्य पुस्तक के विशय में स्व0 कमलेश्वर के उद्गारों का उल्लेख करने से अपने को रोक नहीं पा रहा हूँ। कमलेश्वर के अनुसार - ‘‘ यह आत्मकथा – आत्मश्लाघा और बड़बोलेपन की सरहदों से बहुत दूर खड़ी दिखाई देती है। लेखक ने अपनी स्थितियों और परिस्थितियों के भौतिक और मानसिक यथार्थ को सादगी से व्यक्त किया है। आत्मकथा का पूरा कलेवर (भाषा, शिल्प, रचना-दृष्टि और काल) अपने समकालीन साहित्य की चुनौतियों को पूरी ईमानदारी के साथ रखता है। … सामाजिक समाधान में इसकी भूमिका उस गवाह की तरह है, जो जांति-पांति और छुआ-छूत व सामाजिक असमानता के ठेकेदारों को कटघरे में खड़ा करके अपना हलफिया बयान दर्ज कराता है। इतना ही नहीं, लेखक ने ‘छांग्या रुक्ख’ में अपने शोषित और पीड़ित जीवन को पूरे साहित्यिक मानदंडों के साथ व्यक्त कर, सांस्कृतिक धरातल पर उस भाव-बोध का भी अहसास कराया है, जिसे कबीर और नानक ने अपनी साखियों और पदों के जरिये सबसे दुखी इंसान की आत्मा के रूप में दर्शन किये थे। ‘‘ (भूमिका – ‘यातना का दस्तावेज’) बलबीर स्थितियों पर सटीक टिप्पणी करते हैं रुदन नहीं। ‘‘ मुझे लगा कि वीरान- बंजर ज़मीनों जैसी जिन्दगियों में हरियाली के लिए सबको मिलकर निरंतर और अधिक प्रयास करना है। इसलिए कि हमारी व्यथा-दर- व्यथा युगों पुरानी है जिसे न किसी ने कभी सुना है और न ही महसूस किया है।" (पृष्ठ 124) . लेखक दलित जातियों की आपसी फूट पर गंभीर टिप्पणी करते हुए कहता हैं – ‘‘इस घटना के बाद मैनें महसूस किया कि समूची ‘कमीन’ बिरादरियों की मानसिकता के पीछे सदियों का अमानवीय दृष्टिकोण है। जिन अनुसूचित जातियों और पिछड़ा जातियों को हम परस्पर एक साथ देखना चाहते हैं, मानसिक स्तर पर उनकी फूट उन्हें एक दूसरे के नजदीक नहीं आने देती।" बलबीर माधोपुरी की उक्त टिप्पणी आज हिन्दी दलित लेखन पर भी उतनी ही सटीक है।
बलबीर एक जाट परिवार की आत्मीयता को जिस भाषा में स्मरण करते हैं वह स्पृहणीय है – ‘‘अब जब मेरे रोमों में रचे इस जट्ट परिवार के मोह-प्यार का खयाल आता है तो मुझे लगता है कि जैसे वह हमारी ज़िन्दगी के रेगिस्तान में बहा दरिया हो, जिसके कारण थोड़ी-थोड़ी हरियाली दिखाई देने लगी हो।"
लेखक की चमत्कारिक भाषा के सैकड़ों उदाहरण पुस्तक में उपस्थित हैं, जिसमें सजी लोकगीतों की लड़ियाँ उसे और आकर्षक बनाती हैं। इस पुस्तक पर इतना कुछ कहा जा सकता है कि वह इतनी ही बड़ी पुस्तक का रूप ले ले, क्योंकि यह पंजाबी की जहां पहली दलित आत्मकथा है, वहीं यह भारतीय भाषाओं में अब तक प्रकाशित दलित आत्मकथाओं में श्रेष्ठतम है , जिसका हिन्दी में खूबसूरत अनुवाद हिन्दी के कवि-कथाकार सुभाष नीरव ने किया है।
कहना अत्युक्ति न होगा कि ‘छांग्या रुक्ख’ देश की सीमाएं लांघ विश्व आत्मकथा–साहित्य में अपना स्थान सुरक्षित करने में सक्षम है।

शनिवार, 8 मार्च 2008

उच्च शिक्षा

उच्च शिक्षा के अवरोधी
रूपसिंह चन्देल
मार्च,८ को महिला दिवस के रूप में मनाया गया. अमेरिका की विदेश मंत्री कोण्डालिसा राइस ने कहा कि भारत के विकास में वहां की महिलाओं का विशेष योगदान है. योगदान तो निश्चित है, लेकिन योगदान करने वाली महिलाओं का प्रतिशत कितना है! क्या कारण है कि महामहिम राष्ट्रपति को यह कहना पड़ता है कि हमारे यहां विज्ञान के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या बहुत कम है. केवल विज्ञान के क्षेत्र में ही नहीं, प्रबन्धन आदि अनेक क्षेत्रों में यह कमी विचारणीय है. आई.आई.एम. में छात्राओं की संख्या दस प्रतिशत के आंकड़े पार नहीं कर पाते. आई.आई..टी आदि संस्थानों की स्थिति भी ऎसी ही है. कारण बहुत स्पष्ट हैं. समाज में अस्सी प्रतिशत लोगों की सोच लड़कियों को लेकर अठारहवीं शताब्दी वाली ही है. किसी प्रकार अधिक से अधिक स्नातक तक शिक्षा दिलाकर विवाह कर देने तक. इसमें एक पहलू विवाह को लेकर उत्पन्न होने वाली स्थितियों से भी जुड़ता है. अधिक शिक्षिता लड़की के लिए कम से कम उतना शिक्षित वर चाहिए ही और शिक्षित लड़कों की कीमत चुका पाने की क्षमता सामान्य आदमी में नहीं होती. अर्थात दहेज-दानव का निरंतर फैलता जबडा़ लड़कियों को उच्च शिक्षा दिलाने की आकांक्षा रखने वाले अभिभावकों को हतोत्साहित करता है और समाज (जो कि सदैव दकियानूस ही रहा है) की चिन्ता करने वाले लोग अपनी लड़कियों के स्वैच्छिक चयन को बमुश्किल ही स्वीकार कर पाते हैं. हलांकि इस दिशा में स्थितियां बदल रहीं हैं, लेकिन संख्या नगण्य ही है. लड़कियों के उच्च शिक्षित होने के लिए समाज की सोच को बदलने की आवश्यकता है.
हमारे समाज में हजारों इंदिरा नूयी और कल्पना चावला हैं, लेकिन उन्हें अवसर नहीं मिल पा रहे. इसके लिए अभिभावक जितना दोषी हैं, सरकार- व्यवस्था उससे अधिक दोषी हैं. जब उच्च-शिक्षा की बात आती है, राजनीति और अफसरशाही अपने वास्तविक रूप में दिखाए देते हैं. इसका एक ज्वलंत उदाहरण प्रबंधन संस्थानों में होने वाले सरकारी हस्तक्षेप के रूप में सामने आया. दूसरा रूप देखने को तब मिला जब विदेशी विश्वविद्यालयों ने उच्च शिक्षा के लिए भारत में अपने कैंपस स्थापित करने के प्रस्ताव किए, लेकिन राजनीतिक विरोध के कारण सरकार को उनके प्रस्ताव ठुकराने पड़े. आश्चर्यजनक रूप से विरोध करने वाले वे राजनैतिक लोग थे जो प्रगतिशीलता का दावा करते हैं , लेकिन प्रगति पथ पर अवरोध उपस्थित करने में वे ही सबसे आगे थे. यदि विदेशी विश्वविद्यालय अपने कैंपस यहां स्थापित करने में सफल होते तो जिस शिक्षा को प्राप्त करने के लिए हमारे छात्रों को अमेरिका, आस्ट्रेलिया और ब्रिटेन आदि देशों में जाना पड़ता है वह उन्हें कम शुल्क में अपने ही देश में उपलब्ध हो जाती. कितने अभिभावक हैं जो अपने प्रतिभाशाली बच्चों को विदेश भेज पते हैं ! अर्थाभाव के कारण लाखों प्रतिभाओं को अपनी उच्च शिक्षा की आकांक्षा को दबाना पड़ता है. हार्वर्ड और येल जैसे विश्वविद्यालयों के कैंपस खुलने से न केवल लड़कों को लाभ मिलने वाला था बल्कि लड़कियों की दिशा-दशा में भी परिवर्तन होता. आज हमारे देश के अस्सी हजार छात्र अमेरिका और लगभग इतने ही आस्ट्रलिया में पढ़ रहे हैं. कारण जो भी हों, लेकिन विगत कुछ दिनों से वहां हमारे छात्रों को हिंसा का सामना करना पड़ रहा है.
इस तथ्य से सभी परिचित हैं कि हमारे यहां उच्च-शिक्षण सस्थानों की संख्या उच्च-शिक्षा पाने के आकांक्षी युवाओं के अनुपात में बहुत कम है. ऎसी स्थिति में विदेशी विश्वविद्यालयों के कैम्पस स्थापित करने से उस कमी की पूर्ति किसी हद तक संभव थी. लेकिन रतनैतिक विरोध और अफसरशाही के चलते वह संभव नहीं हो पाया. एक तथ्य यह भी है कि विरोध करनेवालों के अपने बच्चे उच्च -शिक्षा के लिए अमेरिका आदि देशों में जाते हैं, क्योंकि वे लाखों खर्च करने की क्षमता रखते हैं . विरोध करने वाले क्या इसलिए विरोध कर रहे हैं क्योंकि वे आम आदमी के प्रतिभाशाली बच्चों को, जो अर्थाभाव के कारण में विदेशों पढ़ने नहीं जा सकते, आगे आने से रोकना चाहते हैं और अपने बच्चों के लिए स्थान सुरक्षित रखना चाहते हैं. वास्तविकता यह भी है कि महिला सशक्तिकरण, महिला विकास और उच्च-शिक्षा के नारे अधिक लगाए जाते हैं, कार्यान्वयन कम किया जाता है.
उच्च-शिक्षा के प्रति व्यवस्था की उदासीनता का एक उदाहरण और है. वर्षों से अमेरिका का सी.एफ.ए. इन्स्टीट्यूट (Chartered Financial Analyst Institute) भारते में अपनी परीक्षा आयोजित करता आ रहा था. लगभग सात हजार छात्र प्रतिवर्ष इस परीक्षा में बैठते हैं. यह एक अंतराष्ट्रीय स्तर का कोर्स है. लेकिन अवरोधकों ने इसके भारत में आयोजित होने का विरोध किया. यहां के एक विश्विद्यालय ने सी.एफ.ए. के विरुद्ध मुकदमा डाल दिया. मुकदमा कोर्ट में और विद्यार्थियों को परीक्षा के लिए श्रीलंका, नेपाल, सिगांपुर आदि पड़ोसी देशों में परीक्षा देने के लिए भागना पड़ रहा है.
विदेशी विश्वविद्यालयों के भारत में कैंपस स्थापित करने का विरोध करने वालों को जानकारी अवश्य होगी कि चीन और मध्य-पूर्व एशिया के देशों ने बिना किसी हिचक के उन्हें अपने देश में कैंपस स्थापित करने की अनुमति दे दी है जबकि चीन को अपना रोल मॉडल मानने वाले अर्थात हर बात के लिए उनकी ओर देखने वाले हमारे राजनेता विरोध कर रहे हैं. वास्तविकता यह है कि चीन आदि ने विश्व-विकास की स्थिति को भलीभांति समझ लिया है, जबकि हमारे यहां के रजनीतिक और अफसर महज षडयंत्रों में जीने के आदी हो गये प्रतीत होते हैं. अतः जब उच्च-शिक्षा के लिए ही अवरोध उत्पन्न किये जा रहे हों तब लड़कियों की उच-शिक्षा के विषय में सोचा जा सकता है.

सोमवार, 3 मार्च 2008

साहित्य समय

आहत मन की अभिव्यक्ति

वरिष्ठ चित्रकार हरिपाल त्यागी का एक चित्र

हरिपाल त्यागी न केवल लब्ध-प्रतिष्ठ चित्रकार हैं प्रत्युत हिन्दी गद्य साहित्य के उल्लेखनीय हस्ताक्षर भी हैं. अब तक उनकी अनेक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं, जिनमें ’आदमी से आदमी तक’ तथा ’महापुरुष’ बहुचर्चित हैं. ’महापुरुष’ में उनके नौ महान लेखकों (लेखक के शब्दों में) के परिचयात्मक व्यंग्य-चित्र प्रकाशित हैं. यह पुस्तक हाल में ’राजपाल एण्ड संस’ से प्रकाशित हुई है.
महापुरुष में कमलेश्वर, त्रिलोचन, राजेन्द्र यादव, विद्यानिवास मिश्र, अशोक बाजपेयी, नामवर सिंह, निर्मल वर्मा , रवीन्द्रनाथ त्यागी तथा स्वयं लेखक द्वारा अपने विषय में लिखे गए व्यंग्य-चित्र संग्रहीत हैं. व्यंग्यात्मकता के बावजूद ये आलेख आत्मीयता का उत्कृष्ट उदाहरण हैं. ये लेखक की सूक्ष्म पर्यवेक्षक दृष्टि और आकर्षक भाषा-शिल्प को प्रमाणित करते हैं. हाल में इस पुस्तक का लोकार्पण डॉ. नामवर सिंह ने प्रेस-क्लब (दिल्ली) में किया था. नवीन संरचनात्मक स्वरूप के कारण निश्चित ही इस पुस्तक का हिन्दी जगत में स्वागत होगा.








’महापुरुष’ का लोकार्पण करते हुए हिन्दी आलोचना के शिखर पुरुष डॉ. नामवर सिंह तथा साथ में पुस्तक लेखक हरिपाल त्यागी.